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ॐ गीता दर्शन भाग-60
अनादित्वानिर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः । | सुनते हैं। अब भी सुनने जाते हैं। समझ अभी भी पैदा नहीं हुई। शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते ।।३१।। चालीस वर्ष से जो आदमी कृष्णमूर्ति को सुन रहा है, अब उसको
यथा सर्वगतं सौक्षम्यादाकाशं नोपलिप्यते । | कृष्णमूर्ति को सुनने जाने की क्या जरूरत है अगर समझ पैदा हो सर्वत्रावस्थितो देहे तथात्मा नोपलिप्यते ।। ३ ।। गई हो? अब भी सुनने जाता है। और कृष्णमूर्ति चालीस साल से हे अर्जुन, अनादि होने से और गुणातीत होने से यह एक ही बात कह रहे हैं कि समझ पैदा करो। वह अभी चालीस वर्ष अविनाशी परमात्मा शरीर में स्थित हुआ भी वास्तव में न तक सुनकर भी पैदा नहीं हुई है। वह चार हजार वर्ष सुनकर भी पैदा करता है और न लिपायमान होता है।
नहीं होगी। जिस प्रकार सर्वत्र व्याप्त हुआ भी आकाश सूक्ष्म होने के न तो सुनने से समझ पैदा हो सकती है, न पढ़ने से समझ पैदा कारण लिपायमान नहीं होता है, वैसे ही सर्वत्र देह में स्थित हो सकती है। ध्यान की भूमि में ही समझ पैदा हो सकती है। हां, हुआ भी आत्मा गुणातीत होने के कारण देह के गुणों से सुनने से ध्यान की तरफ जाना हो सकता है। पढ़ने से ध्यान की तरफ लिपायमान नहीं होता है।
जाना हो सकता है। और अगर समग्र मन से सुनें, तो सुनना भी . | ध्यान बन सकता है। और अगर समग्र मन से पढ़ें. तो पढ़ना भी
| ध्यान बन सकता है। लेकिन ध्यान जरूरी है। पहले कुछ प्रश्न। एक मित्र ने पूछा है, आप ध्यान या • ध्यान का अर्थ समझ लें। ध्यान का अर्थ है, मन की ऐसी साधना पर इतना जोर क्यों देते हैं? आध्यात्मिक, अवस्था जहां कोई तरंग नहीं है। निस्तरंग चैतन्य में ही समझ का दार्शनिक ग्रंथों का पठन-पाठन या कृष्णमूर्ति या आप जन्म होता है। जैसे ज्ञानियों का श्रवण और स्वयं चिंतन-मनन, इनसे यह निस्तरंग चैतन्य कई तरह से पैदा हो सकता है। किसी को जो समझ आती है, क्या वह परिवर्तन के लिए पर्याप्त प्रार्थना से पैदा हो सकता है। किसी को पूजा से पैदा हो सकता है। नहीं है? क्या यही साधना नहीं है? ध्यान को बैठने किसी को नृत्य से, कीर्तन से पैदा हो सकता है। किसी को सुनने से का फिर क्या प्रयोजन है? ध्यान का अर्थ अगर पैदा हो सकता है। किसी को देखने से पैदा हो सकता है। किसी को साक्षी-भाव है, तो दिनभर सब जगह हर काम करते | मात्र बैठने से पैदा हो सकता है। किसी को योग की क्रियाओं से पैदा वक्त भी पूरा अवसर है। फिर ध्यान करने की, अलग हो सकता है। किसी को तंत्र की क्रियाओं से पैदा हो सकता है। से बैठने की क्या जरूरत है?
निस्तरंग चित्त बहुत तरह से पैदा हो सकता है। और जिस तरह से आपको पैदा होता है, जरूरी नहीं है कि दूसरे को भी उसी तरह से
| पैदा हो। तो आपको खोजना पड़ेगा कि कैसे निस्तरंग चित्त पैदा हो! स मझ काफी है, लेकिन समझ केवल सुन लेने या पढ़ निस्तरंग चित्त का नाम ही ध्यान है। तरंगायित चित्त का नाम मन रा लेने से उपलब्ध नहीं होती। समझ को भी भूमि देनी | | है। वह जो उथल-पुथल से भरा हुआ मन है, उसमें कोई भी समझ
पडती है। उसके बीज को भी भमि देनी पड़ती है। बीज पैदा नहीं हो सकती। क्योंकि वहां इतना भकंप चल रहा है कि कोई में पूरी संभावना है कि वह वृक्ष हो जाए, लेकिन बीज को भी जमीन | | बीज थिर नहीं हो सकता। अंकुरित होने के लिए अवसर ही नहीं में न डालें, तो वह वृक्ष नहीं होगा।
है। इसलिए ध्यान पर इतना जोर है। ___ ध्यान समझ के लिए भूमि है। समझ काफी है, उससे जीवन में | __ और अगर आप सोचते हों कि कृष्णमूर्ति का ध्यान पर जोर नहीं क्रांति हो जाएगी। लेकिन समझ का बीज ध्यान के बिना टूटेगा ही है, तो आप समझे ही नहीं। ध्यान शब्द का वे उपयोग नहीं करते नहीं।
हैं, क्योंकि उनको ऐसा खयाल है कि ध्यान शब्द बहुत विकृत हो और अगर समझ आप में पैदा होती हो बिना ध्यान के, तो गया है। लेकिन कोई शब्द विकृत नहीं होते। और केवल नए शब्द कृष्णमूर्ति को या मुझे सुनने का भी क्या प्रयोजन है! और मुझे वर्षों | चुन लेने से कोई फर्क नहीं पड़ता है। से बहुत लोग सुनते हैं, कृष्णमूर्ति को चालीस वर्षों से बहुत लोग कृष्णमूर्ति कहते हैं कि मुझे सुनते समय सिर्फ सुनो!
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