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________________ गीता दर्शन भाग-600 अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम् । मकान में आग लगी हो, तो आप बहुत चेतन हो जाएंगे, अगर आचायोपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः ।।७।। | नींद भी आ रही हो, तो खो जाएगी। आपको ऐसी एकाग्रता कभी इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहंकार एव च। न मिली होगी, जैसी मकान में आग लग जाए, तो तब मिलेगी। जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम् ।।८।। आपने लाखों बार कोशिश की होगी कि सारी दुनिया को भूलकर और हे अर्जुन, श्रेष्ठता के अभिमान का अभाव, दंभाचरण | कभी क्षणभर को परमात्मा का ध्यान कर लें। लेकिन जब भी ध्यान का अभाव, प्राणिमात्र को किसी प्रकार भी न सताना, | के लिए बैठे होंगे, हजार बातें उठ आई होंगी, हजार विचार आए क्षमाभाव, मन-वाणी की सरलता, श्रद्धा-भक्ति सहित गुरु होंगे। एक परमात्मा के विचार को छोड़कर सभी चीजों ने मन को की सेवा-उपासना, बाहर-भीतर की शुद्धि, अंतःकरण की घेर लिया होगा। लेकिन मकान में आग लग गई हो, तो सब भूल स्थिरता, मन और इंडियों सहित शरीर का निग्रह तथा इस | जाएगा। सारा संसार जैसे मिट गया। मकान में लगी आग पर ही लोक और परलोक के संपूर्ण भोगों में आसक्ति का अभाव | चित्त एकाग्र हो जाएगा। और अहंकार का भी अभाव एवं जन्म, मृत्यु, जरा और रोग यह भी चेतना है। लेकिन यह चेतना बाहर से पैदा हुई है; यह आदि में दोषों का बारंबार दर्शन करना, ये सब ज्ञान के | बाहर की चोट में पैदा हुई है; यह बाहर पर निर्भर है। तो कृष्ण ने कहा कि ऐसी चेतना भी शरीर का ही हिस्सा है। वह भी क्षेत्र है। फिर क्या ऐसी भी कोई चेतना हो सकती है, जो किसी चीज पर | निर्भर न हो, जो किसी के द्वारा पैदा न होती हो, जो हमारा स्वभाव पहले कुछ प्रश्न। एक मित्र ने पूछा है कि चेतना के | हो? स्वभाव का अर्थ है कि किसी कारण से पैदा नहीं होगी; हम खो जाने पर प्राप्त समाधि क्या मूर्छा की अवस्था है? | हैं, इसलिए है; हमारे होने में ही निहित है। रामकृष्ण परमहंस कई दिनों तक मृतप्राय अवस्था में जब कोई आवाज करता है और आपका ध्यान उस तरफ जाता लेटे रहते थे! | है, तो यह ध्यान का जाना आपके होने में निहित नहीं है। यह आवाज के द्वारा प्रतिपादित हुआ है, यह बाई-प्रोडक्ट है; यह आपका स्वभाव नहीं है। तना के खो जाने पर बहुत बार बाहर से मूर्छा जैसी ऐसा सोचें कि बाहर से कोई भी संवेदना नहीं मिलती, बाहर कोई प प्रतीति होती है। रामकृष्ण अनेक बार, हमारे लिए | घटना नहीं घटती, और फिर भी आपका होश बना रहता है। इस बाहर से देखने पर, अनेक दिनों के लिए मूर्छित हो | चेतना को हम आत्मा कहते हैं। और बाहर से पैदा हुई जो चेतना है, जाते थे। शरीर ऐसे पड़ा रहता था, जैसे बेहोश आदमी का हो। पानी | | वह धारणा है, ध्यान है। कृष्ण ने उसे भी शरीर का हिस्सा माना है। और दूध भी प्रयासपूर्वक, जबरदस्ती ही देना पड़ता था। रामकृष्ण जब बेहोश हो जाते थे, तो उनकी धृति खो गई, उनका जहां तक बाहर का संबंध है, वे मूछित थे; और जहां तक भीतर ध्यान खो गया, उनकी धारणा खो गई। अब बाहर कोई कितनी भी का संबंध है, वे जरा भी मूर्छित नहीं थे। भीतर तो होश पूरा था। आवाज करे, तो उनकी चेतना बाहर न आएगी। लेकिन अपने लेकिन यह होश, यह चेतना हमारी चेतना नहीं है। स्वरूप में वे लीन हो गए हैं; अपने स्वरूप में वे परिपूर्ण चैतन्य हैं। कल कृष्ण के सूत्र में हमने समझा कि चेतना दो तरह की हो | | जब उनकी समाधि टूटती थी, तो वे रोते थे और वे चिल्ला-चिल्ला सकती है। एक तो चेतना जो किसी वस्तु के प्रति हो और किसी | कर कहते थे कि मां मुझे वापस वहीं ले चल। यहां कहां तूने मुझे वस्तु के द्वारा पैदा हुई हो। चेतना, जो कि किसी वस्तु का प्रत्युत्तर | | दुख में वापस भेज दिया! उसी आनंद में मुझे वापस लौटा ले। हो। आप बैठे हैं, कोई जोर से आवाज करता है; आपकी चेतना | जिसको हम मूर्छा समझेंगे, वह उनके लिए परम आनंद था। उस तरफ खिंच जाती है, ध्यान आकर्षित होता है। आप बैठे हैं, | बाहर से सब इंद्रियां भीतर लौट गई हैं। बाहर जो ध्यान जाता था, मकान में आग लग जाए, तो सारा जगत भूल जाता है। आपकी | | वह सब वापस लौट गया। जैसे गंगा गंगोत्री में वापस लौट गई। चेतना मकान में आग लगी है, उसी तरफ खिंच जाती है। वह जो चेतना बाहर आती थी दरवाजे तक, अब नहीं आती; अपने 222
SR No.002409
Book TitleGita Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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