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________________ • गीता दर्शन भाग-60 मैंने सुना है, एक बड़ा तर्कशास्त्री सुबह अपने बगीचे में बैठकर | भजन व ध्यान में लगे हुए आप सगुणरूप परमेश्वर को अति श्रेष्ठ नाश्ता कर रहा था। और जैसा कि अक्सर होता है, तर्कशास्त्री | | | भाव से उपासते हैं और जो अविनाशी सच्चिदानंदघन निराकार को निराशावादी होता है। क्योंकि तर्क से कोई आशा की किरण तो | । ही उपासते हैं, उन दोनों प्रकार के भक्तों में अति उत्तम योगवेत्ता निकलती नहीं। आशा की किरण तो निकलती है प्रेम से, जो | | कौन है? अतयं है। तर्क से तो केवल उदासी निकलती है। जिंदगी में अर्जुन ने पूछा, दो तरह के लोग देखता हूं, दो तरह के साधक, क्या-क्या व्यर्थ है, वही दिखाई पड़ता है; और कहां-कहां कांटे हैं, | दो तरह के खोजी। एक वे, जो देखते हैं कि आप निराकार हैं; वही अनुभव में आते हैं। फूलों को समझने के लिए तो हृदय | आपका कोई रूप नहीं, कोई गुण नहीं, कोई सीमा नहीं, कोई चाहिए। कांटों को समझने के लिए बुद्धि काफी है, पर्याप्त है। आकृति नहीं। आपका कोई अवतार नहीं। आपको न देखा जा तर्कशास्त्री निराशावादी था। वह चाय पी रहा था और अपने सकता, न छुआ जा सकता। वे, जो मानते हैं कि आप अदृश्य, टोस्ट पर मक्खन लगा रहा था। तभी वह बोला कि दुनिया में इतना | विराट, असीम, निर्गुण, शक्तिरूप हैं, शक्ति मात्र हैं। ऐसे साधक, दुख है और दुनिया में सब चीजें गलत हैं कि अगर मेरे हाथ से यह | ऐसे योगी हैं। और वे भी हैं, जो आपको अनन्य प्रेम से भजते हैं, रोटी का टुकड़ा छूट जाए, तो मैं कितनी ही शर्त बद सकता हूं, | ध्यान करते हैं आपके सगुण रूप का, आपके आकार का, आपके अगर यह रोटी का टुकड़ा मेरे हाथ से छूटे, तो दुनिया इतनी बदतर | अवतरण का। इन दोनों में कौन श्रेष्ठ है? है कि जिस तरफ मैंने मक्खन लगाया है, उसी तरफ से यह जमीन अर्जुन यह पूछना चाह रहा है कि मैं किस राह से चलूं? मैं खुद पर गिरेगा, ताकि धूल लग जाए और नष्ट हो जाए! कौन-सी राह पकडूं? मैं आपको निराकार की तरफ से स्पर्श करूं उसकी पत्नी ने कहा, ऐसा अनिवार्य नहीं है। दूसरी तरफ भी गिर कि साकार की तरफ 2मैं आपके प्रेम में पड जाऊं और दीवाना सकता है! तो उस तर्कशास्त्री ने कहा, फिर तुझे पता नहीं कि जो | हो जाऊं, पागल हो जाऊं? या विचारपूर्वक आपके निराकार का संसार के ज्ञानी कहते रहे कि संसार दुख है। | ध्यान करूं? मैं भक्ति में पडू, प्रार्थना-पूजा में, प्रेम में; या ध्यान बात बढ़ गई और शर्त भी लग गई। तर्कशास्त्री ने उछाला रोटी | में, मौन में, निर्विचार में? का टुकड़ा। संयोग की बात, मक्खन की तरफ से नीचे नहीं गिरा। | क्योंकि जो निराकार की तरफ जाए, उसे निर्विचार से चलना मक्खन की तरफ ऊपर रही, और जिस तरफ मक्खन नहीं था, उस | | पड़ेगा। सब विचार आकार वाले हैं। और जहां तक विचार रह जाता तरफ से फर्श पर गिरा। पत्नी ने कहा कि देखो, मैं शर्त जीत गई! | है, वहां तक आकार भी रह जाएंगे। सभी विचार सगुण हैं। इसलिए तर्कशास्त्री ने कहा, न तो तू शर्त जीती और न मेरी बात गलत | | विचार से निर्गुण तक नहीं पहुंचा जा सकता। तो सारे विचार छोड़ हुई। सिर्फ इससे इतना ही सिद्ध होता है कि मैंने गलत तरफ मक्खन | | दूं। खुद भी शून्य हो जाऊं भीतर, ताकि आपके शून्यरूप का लगाया! टुकड़ा तो वहीं गिरा है जैसा गिरना चाहिए था, सिर्फ | अनुभव हो सके। मक्खन मैंने दूसरी तरफ लगा दिया। __ और ध्यान रहे, जो भी अनुभव करना हो, वैसे ही हो जाना पड़ता तर्क का कोई भरोसा नहीं है। पर हम तर्क से जीते हैं और हम है। समान को ही समान का अनुभव होता है। जब तक मैं शून्य न पूरी जिंदगी को तर्क के जाल से बुन लेते हैं। उसके बीच लगता है, | | हो जाऊं, तब तक निराकार का कोई अनुभव न होगा। और जब हम बहुत बुद्धिमान हैं। और अक्सर उसी बुद्धिमानी में हम जीवन | तक मैं प्रेम ही न हो जाऊं, तब तक साकार का कोई अनुभव न का वह सब खो देते हैं, जो हमें मिल सकता था। | होगा। जो भी मुझे अनुभव करना है, वैसा ही मुझे बन जाना होगा। भक्ति, तर्क के लिए अगम्य है; विचार के लिए सीमा के बाहर । इसलिए बुद्ध अगर कहते हैं, कोई ईश्वर नहीं है, तो उसका है। होशियारों का वहां काम नहीं। वहां नासमझ प्रवेश कर जाते हैं। कारण है। क्योंकि बुद्ध का जोर है कि तुम शून्य हो जाओ। ईश्वर तो नासमझ होने की थोड़ी तैयारी रखना। की धारणा भी बाधा बनेगी। अगर तुम यह भी सोचोगे कि कोई अब हम इन सूत्रों को लें। ईश्वर है, तो यह भी विचार हो जाएगा। और यह भी तुम्हारे मन के इस प्रकार भगवान के वचनों को सुनकर अर्जुन बोला, हे कृष्ण, | आकाश को घेर लेगा एक बादल की भांति। तुम इससे आच्छादित जो अनन्य प्रेमी, भक्तजन इस पूर्वोक्त प्रकार से निरंतर आपके | | हो जाओगे। इतनी भी जगह मत रखो। तुम सीधे खाली आकाश हो
SR No.002409
Book TitleGita Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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