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गीता दर्शन भाग-6
है। अगर आपके जीवन में भी कामवासना ही सब कुछ है, तो आप समझना कि आप अभी मनुष्य नहीं हो पाए। आप पौधे, पशु-पक्षियों के जगत का हिस्सा हैं। वह तो सब के जीवन में है।
मनुष्य प्रेम तक उठ सकता है। मनुष्य की संभावना है प्रेम। जिस दिन आप प्रेमपूर्ण हो जाते हैं; वासना से उठते हैं और प्रेम से भर जाते हैं। दूसरे के शरीर का आकर्षण महत्वपूर्ण नहीं रह जाता। दूसरे के व्यक्तित्व का आकर्षण, दूसरे की चेतना का आकर्षण, दूसरे के गुणका आकर्षण; दूसरे के भीतर जो छिपा है! आपकी आंखें जब देखने लगती हैं शरीर के पार और जब व्यक्ति की झलक मिलने लगती है, तब आप मनुष्य बने।
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और जब आप मनुष्य बन जाते हैं, तब आपके जीवन में दूसरी संभावना का द्वार खुलता है, वह है भक्ति । जिस दिन आप भक्त बन जाते हैं, उस दिन आप देव हो जाते हैं; उस दिन आप दिव्यता को उपलब्ध हो जाते हैं।
काम तो सारे जगत की संभावना है। अगर आप भी कामवासना ही जीते हैं और समाप्त हो जाते हैं, तो आपने कोई उपलब्धि नहीं की; मनुष्य जीवन व्यर्थ खोया । अगर आपके जीवन में प्रेम के फूल खिल जाते हैं, तो आपने कुछ उपलब्धि की।
और प्रेम के बाद दूसरी छलांग बहुत आसान है। प्रेम आंख गहरी कर देता है और हम भीतर देखना शुरू कर देते हैं। और जब शरीर के पार हम देखने लगते हैं, तो मन के पार देखना बहुत कठिन नहीं है। क्योंकि शरीर बहुत ग्रॉस, बहुत स्थूल है। जब उसके भीतर भी हम देख लेते हैं, तो मन तो बहुत पारदर्शी है, कांच की तरह है। उसके भीतर भी दिखाई पड़ने लगता है। तब हर व्यक्ति भगवान का मंदिर हो जाता है। तब आप जहां भी देखें, आंख अगर गहरी जाए, तो भीतर वही दीया जल रहा है। दीए होंगे करोड़ों, लेकिन दीए की ज्योति एक ही परमात्मा की है।
एक मित्र ने पूछा है कि मैं कर्म-योग की साधना में लगा हूं, पर डर होता है कि पता नहीं मैं अपने को धोखा तो नहीं दे रहा हूं! क्योंकि न मैं भक्ति करता हूं, न मैं ध्यान करता हूं। मैं तो, जो कर्म है जीवन का, उसे किए चला जाता हूं। पर मापदंड क्या है कि मुझे पक्का पता चल सके कि जो मैं कर रहा हूं, वह कर्म - योग है, और आत्मवंचना नहीं हो रही है? और
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यह कर्म - योग मेरा स्वभाव है, मेरे अनुकूल है या नहीं, इसका भी कैसे पता लगे ?
है। और जिसने पूछा है, उसके मन में प्र सिर्फ जिज्ञासा नहीं है, मुमुक्षा है। पीड़ा से उठा हुआ
प्रश्न है, बुद्धि से नहीं ।
निश्चित ही, आदमी अपने को धोखा देने में समर्थ है, बहुत कुशल है । और दूसरे को हम धोखा दें, तो वहां तो दूसरा भी होता है, कभी पकड़ ले। हम खुद को ही धोखा दें, तो वहां कोई भी नहीं होता पकड़ने वाला। हम ही होते हैं। सिर्फ देने वाला ही होता है। | इसलिए लंबे समय तक हम दे सकते हैं। खुद को धोखा ह जन्मों-जन्मों तक दे सकते हैं। दे सकते ही नहीं, हमने दिया है। हम दे रहे हैं।
यह स्वाभाविक है साधक के मन में प्रश्न उठना कि न मैं ध्यान कर रहा हूं, न मैं भक्ति कर रहा हूं, मैं अपने कर्म को किए चला जा रहा हूं; कहीं मैं अपने को धोखा तो नहीं दे रहा ?
तीन बातें समझ लेनी जरूरी हैं। पहली बात, अगर आप अपने कर्म को परमात्मा पर छोड़ दिए हैं, तो जो ध्यान से होता है, वह इस छोड़ने से होना शुरू हो जाएगा। आप शांत होने लगेंगे।
अगर आप अशांत हों, तो समझना कि कर्म - योग आप जो कर रहे हैं, वह सिर्फ धोखा है। क्योंकि जैसे ही मैं परमात्मा पर छोड़ देता हूं कि सारा कर्म उसका, मुझे अशांत होने की जगह नहीं रह जाती। अशांति तो तभी तक है, जब तक मैं अपने पर सारा बोझ लिए हुए हूं।
अगर आपके कर्म-योग में आपकी अशांति खो रही हो, खो गई हो, और आप शांत होते जा रहे हों, तो समझना कि ठीक रास्ते पर हैं; धोखा नहीं है।
दूसरी बात, अगर आपने कर्म परमात्मा पर छोड़ दिया है, तो फल कोई भी आए, आपके भीतर समभाव निर्मित रहेगा। चाहे सुखी हों, चाहे दुखी हों; चाहें सफलता आए, चाहे असफलता | आए। अगर सफलता अच्छी लगती हो और असफलता बुरी लगती हो, तो समझना कि आप अपने को धोखा दे रहे हैं। क्योंकि जब मैंने छोड़ ही दिया परमात्मा पर, तो मेरी न सफलता रही और न असफलता रही। अब वह जाने । और उसे अगर असफल होना है, तो उसकी मर्जी । और उसे अगर सफल होना है, तो उसकी मर्जी ।