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________________ गीता दर्शन भाग-6 हमारी दुविधा यह है कि हम संसार और परमात्मा में दोनों में जो मिलता हो, दोनों चाहते हैं । अज्ञान में जो फायदा हो, वह भी चाहते हैं; और ज्ञान में जो फायदा हो, वह भी चाहते हैं। वे दोनों फायदे विपरीत हैं। एक होगा, तो दूसरा डूब जाएगा। दूसरा होगा, तो पहला डूब जाएगा। दोनों साथ नहीं हो सकते हैं। हम पूरब-पश्चिम दोनों तरफ साथ-साथ चलने की कोशिश कर रहे हैं। इसलिए हम कहीं भी नहीं चल पाते। हम बीच में फंस गए हैं। एक टांग पूरब चली गई है; एक टांग पश्चिम चली गई है। हम बीच में अटके हैं और परेशान हो रहे हैं। और हम एक टांग न पूरब से वापस खींचते हैं, न पश्चिम से वापस खींचते हैं। और हमारा इरादा यह है कि इन दोनों नाव पर सवार होकर हम पहुंच जाएंगे दोनों किनारे पर । डूबेंगे बुरी तरह। यह दो नावों पर सवार आदमी डूबेगा ही। और इसका डूबना बड़ा नारकीय होगा। मगर आपको दिखाई नहीं पड़ता कि आप कैसे दो नावों पर सवार हैं। इधर धन की दौड़ लगी हुई है, उधर शांति की भी तलाश है। एक मित्र ने पूछा है कि आप कहते हैं, धन पर पकड़ छोड़ दो। धन पर पकड़ अगर छोड़ दें, तो फिर क्या होगा ? अगर धन की पकड़ छोड़ दें, तो संसार में कैसे चलेगा? मैं ने कहा कि धन की पकड़ छोड़ दो। वे कहते हैं कि धन के बिना कैसे चलेगा? मैंने नहीं कहा कि धन के बिना चलाओ। धन की जरूरत एक बात है; धन की पकड़ दूसरी बात है। धन की जरूरत तो पूरी हो जाती है; धन की पकड़ कभी पूरी नहीं होती। धन को जितना पकड़ो, उतनी पकड़ बढ़ती जाती है। धन की जरूरत तो पूरी हो सकती है। जरूरतें सब पूरी हो सकती हैं, पागलपन कोई भी पूरा नहीं हो सकता। अमेरिका का अरबपति एंडू कारनेगी मरा। उसके पास दस अरब रुपए थे। मरते वक्त भी वह यह कहकर मरा है कि मैं असंतुष्ट मर रहा हूं, क्योंकि मेरे इरादे सौ अरब रुपए छोड़ने के थे । दस अरब केवल! जैसे दस नए पैसे, ऐसे दस अरब केवल! | दस अरब रुपए भी पास में हों, तो भी पकड़ पूरी नहीं होती। एंडू कारनेगी करेगा क्या दस अरब रुपए का ? कोई उपयोग नहीं है। उपयोग का समय तो बहुत पहले समाप्त हो गया। जो भी मिल सकता था रुपए से, वह बहुत पहले मिल चुका । अब दस अरब रुपए से कुछ भी नहीं पाया जा सकता। लेकिन अभी भी दौड़ पूरी नहीं हुई, पकड़ पूरी नहीं हुई । धन की जरूरत एक बात है; धन की पकड़ दूसरी बात है। धन की पकड़ है पागलपन । फिर मैं नहीं कहता कि आप धन की पकड़ छोड़ दें। मैं तो तभी | कहता हूं, जब आप कहते हैं, शांति चाहिए, आनंद चाहिए, | परमात्मा चाहिए – तभी कहता हूं। नहीं तो मैं नहीं कहता। मैं कहता हूं, खूब जोर से पकड़िए। आपकी मौज है। कौन आपसे छीन रहा है! और आप दुख चाहते हैं, तो मैं कौन हूं कि आपसे कहूं कि दुख मत चाहिए! मजे से चाहिए। आपको वही पसंद है, वही करिए । लेकिन फिर दूसरी बात मत पूछिए । लेकिन हम बड़े उलटे हैं। यह उलझन ही हमारी जटिलता है। और इसलिए रास्ता सब गड़बड़ हो जाता है। आप धन में आनंद पाते हैं, मजे से पकड़ते चले जाइए। अगर दुख पाते हैं, तो पकड़ छोड़िए । और ये दोहरी बातें एक साथ पूरी | करने की कोशिश मत करिए, कि एक हाथ में धन को भी पकड़े रखेंगे और दूसरे हाथ में परमात्मा को भी पकड़ लेंगे ! ये दोनों बातें आपसे नहीं हो सकेंगी, क्योंकि ये कभी किसी से नहीं हो सकी हैं। इसका यह मतलब है कि आप घर-द्वार छोड़कर भाग जाइए। धन की जरूरत है। लेकिन एक बड़े मजे की बात है कि धन | की जरूरत भी वही आदमी पूरा कर पाता है, जिस की धन पर पकड़ नहीं होती। नहीं तो आप सैकड़ों अमीर आदमियों को देखिए, उनसे गरीब आदमी खोजने मुश्किल हैं। धन पर उनकी इतनी पकड़ है कि | वे खर्च ही नहीं कर पाते ! धन का जो उपयोग है, वह भी नहीं कर पाते। कंजूस आपको दिखाई पड़ते हैं कि नहीं ? मैं एक कंजूस को जानता हूं। वे बीमार थे; मेरे घर के सामने रहते थे; रिटायर्ड डाक्टर थे। अकेले थे, न पत्नी, न बच्चा। शादी उन्होंने | कभी की नहीं। कंजूस को शादी करनी नहीं चाहिए ! वह महंगा खर्चा है। औरतें खर्चीली हैं। शादी उन्होंने की नहीं, उन्होंने मुझसे कहा कि शादी मैंने इसीलिए नहीं की कि औरतें फिजूलखर्ची हैं। किराया आता था; दो बड़े बंगले थे। रिटायर हुए थे मिलिटरी से, डाक्टर थे, तो काफी पैसा इकट्ठा था । 128
SR No.002409
Book TitleGita Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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