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रामकृष्ण की दिव्य बेहोशी
पढ़ी और जिसने अपनी मृत्यु पर लोगों के द्वारा दिए गए संदेश पढ़े।
दूसरों की फिक्र इतनी है कि आदमी मरते क्षण में भी अपनी फिक्र नहीं करता। जिंदगी की तो बात ही अलग, मौत भी आ रही हो, तो दूसरों की चिंता होती है।
आप यह जो दूसरों की चिंता करके जीते हैं, तो आपका सारा आचरण दंभ - आचरण होगा।
ज्ञानी सहज जीएगा; उसके भीतर जो है, वैसा ही जीएगा; परिणाम जो भी हो। दुख मिले, तो दुख झेलने को राजी रहेगा। सुख मिले, तो सुख झेलने को राजी रहेगा। समभाव से जो भी परिणाम हो, उसको झेलेगा, लेकिन जीएगा सहजता से | आपकी तरफ देखकर नहीं जीएगा। वह किसी तरह का आरोपण, किसी तरह का मुखौटा, किसी तरह के वस्त्र आपकी नजर से नहीं पहनेगा। उसे जो ठीक लगेगा, जो उसका आंतरिक आनंद होगा ।
दंभाचरण का अभाव, प्राणिमात्र को किसी प्रकार भी न सताना...।
वह भी ज्ञान का लक्षण है। क्यों? क्योंकि जितना ही हम किसी को सताते हैं, उतने ही हम सताए जाते हैं। यह कोई दूसरे पर दया करने के लिए नहीं है ज्ञानी का लक्षण । यह सिर्फ ज्ञानी की बुद्धिमत्ता है, उसका सहज बोध है, कि जब मैं किसी को सताता हूं, तो मैं अपने सताने के लिए आयोजन कर रहा हूं।
सिर्फ अज्ञानी ही दूसरे को सता सकता है, क्योंकि उसका मतलब है कि उसे पता ही नहीं है कि मैं क्या कर रहा हूं। अपने लिए ही कांटे बो रहा हूं। यह अज्ञानी ही कर सकता है।
ज्ञानी तो देखता है जीवन के अंतः- संबंधों को, कि जो मैं करता हूं, वही मुझ पर वापस लौट आता है। जगत एक प्रतिध्वनि है। जो भी मैं बोलता हूं, वही मुझ पर बरस जाता है। अगर मैं गाली फेंकता
तो गालियां मेरे पास लौट आती हैं। और अगर मैं मुस्कुराहट फेंकता हूं, तो हजार मुस्कुराहटें मेरी तरफ वापस लौट आती हैं। जगत वही लौटा देता है, जो हम उसे देते हैं। यह ज्ञानी का अनुभव है, यह कोई सिद्धांत नहीं है। वह जानता है कि मैं दुख दूंगा, तो मैं दुख देने के लिए लोगों को आमंत्रित कर रहा हूं।
आप किसी को दुख देकर देखें। सीधी-सी बात है कि जब आप किसी को दुख देते हैं, तो आप उसको प्रेरित करते हैं कि वह आपको दुख दे।
इसे आप ऐसा समझें कि जब कोई आपको दुख देता है, आपके मन में क्या होता है? जब कोई आपको दुख देता है, तो जो
पहली बात आपके मन में बनती है, वह यह कि इसको कैसे दुगुना | दुख दें। आप उपाय में लग जाते हैं कि इसको कैसे दुख दें। यह सीधा-सा, सरल-सा नियम है। इसलिए ज्ञानी प्राणिमात्र को भी किसी प्रकार से नहीं सताना चाहता है।
क्षमा भाव...।
क्षमा का अर्थ लोग समझते हैं कि दूसरे पर दया करना। नहीं, वैसा अर्थ नहीं है। क्योंकि दया में भी अहंकार है । क्षमा बड़ी सूक्ष्म बात है।
क्षमा का अर्थ है, मनुष्य की कमजोरी को समझना और यह | जानना कि मैं खुद भी कमजोर हूं, दूसरा भी कमजोर है। खुद की कमजोरी का अनुभव ज्ञानी को होता है, वह अपनी सीमाएं जानने लगता है; अपनी सीमाएं जानने के कारण वह प्रत्येक मनुष्य के प्रति क्षमावान हो जाता है, क्योंकि वह समझता है कि सबकी कमजोरी है । जो ज्ञानी आपकी कमजोरी के प्रति क्षमावान नहीं, समझना कि उसने अभी अपना आत्म विश्लेषण नहीं किया।
मैंने सुना है, यहूदी फकीर बालशेम के पास एक युवक आया। | उस युवक ने कहा कि मैं महापापी हूं। कोई भी सुंदर स्त्री मुझे रास्ते पर दिखती है, तो उसे भोगने का मन होता है। फिर मैं कुढ़ता हूं, परेशान होता हूं। कोई भी अच्छी चीज दिखाई पड़े, तो चोरी करने का मन होता है। कर न पाऊं, यह दूसरी बात है, लेकिन मन तो हो | जाता है। जरा-सा कोई मुझे दुख पहुंचा दे, तो उसकी हत्या करने | का मन होता है। मैं महापापी हूं। तो मुझे कोई कठोर दंड दो।
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बालशेम ने कहा कि तूने स्वीकार किया, इतना काफी है। बस, तू इसको स्मरण रखना कि जो तुझे होता है, ऐसा ही दूसरे को भी होता है। तो अगर तुझे कल पता चले कि फलां आदमी फलां की स्त्री के प्रति बुरी तरह से देख रहा था, तो तू निंदा से मत भर जाना। तू समझना कि मनुष्य कमजोर है, क्योंकि तू कमजोर है। तू क्षमा को जन्म देना |
पर उस युवक ने कहा कि नहीं, मुझे सजा दो, मुझे दंड दो । | बालशेम ने कहा कि अगर मैं तुझे दंड दूं, तो तू भी दूसरे को दंड देना चाहेगा और क्षमा कभी पैदा न होगी। अगर मैं तुझे कहूं कि तुझे इतना दंड देता हूं, क्योंकि तूने दूसरे की स्त्री की तरफ बुरी नजर से देखा; तो तू दंड झेल लेगा, लेकिन तेरा अहंकार मजबूत होगा। और कल अगर किसी ने कहा कि फलां आदमी दूसरे की स्त्री की तरफ बुरी नजर से देख रहा है, तो तू चाहेगा कि इसको दंड दिया | जाए। तू क्षमावान नहीं होगा। मैं तुझे यही दंड देता हूं कि कोई दंड