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________________ CO साधना और समझ लेना-देना है! और इस आदमी में और कुछ भी नहीं है। क्योंकि यही आत्मा का गुण भी है। मैंने उनसे पूछा, और कुछ? खड़े होने की बात मान ली। और आकाश सदा ही कुंवारा है। उसे कोई भी चीज छू नहीं पाती। कुछ क्या है ? बोले कि यही क्या कम है! यह बड़ी भारी घटना है। | ऐसा समझें, हम एक पत्थर पर लकीर खींचते हैं। पत्थर पर खींची दस साल से कोई आदमी खड़ा है! | लकीर हजारों साल तक बनी रहेगी। पत्थर पकड़ लेता है लकीर तो पैरों की जड़ता का नाम अध्यात्म नहीं है। पैर जड़ हो सकते | | को। पत्थर लकीर के साथ तत्सम हो जाता है, तादात्म्य कर लेता हैं, किए जा सकते हैं। इसमें क्या अड़चन है! न तो यह कोई गुण है, | है। पत्थर लकीर बन जाता है। और न कोई सम्मान के योग्य। लेकिन हम इस तरह की बातों को | | फिर हम लकीर खींचें पानी पर। खिंचती जरूर है, लेकिन खिंच सम्मान देते हैं, तो जड़ता बढ़ती है। और जड़ता को हम पूजते हैं। | नहीं पाती। हम खींच भी नहीं पाते और लकीर मिट जाती है। हम संवेदनशीलता पूजनीय है। लेकिन अकेली संवेदनशीलता | खींचकर पूरा कर पाते हैं, लौटकर देखते हैं, लकीर नदारद है। पानी पूजनीय नहीं है। अगर संवेदनशीलता के साथ साक्षी-भाव भी जुड़ पर लकीर खिंचती तो है, लेकिन पानी लकीर को पकड़ता नहीं। जाए, तो वही क्रांतिकारी घटना है, जिससे व्यक्ति जीवन के परम | खिंचते ही मिट जाती है। खींचते हैं, इसलिए खिंच जाती है। लेकिन तत्व को जानने में समर्थ हो पाता है। | टिक नहीं पाती. क्योंकि पानी उसे पकडता नहीं। पत्थर पकड लेता अब हम सूत्र को लें। है, हजारों साल तक टिक जाती है। पानी में क्षणभर नहीं टिकती; हे अर्जुन, अनादि होने से और गुणातीत होने से यह अविनाशी | | बनती जरूर है। परमात्मा शरीर में स्थित हुआ भी वास्तव में न करता है, न | ___ आकाश में लकीर खींचें, वहां बनती भी नहीं। पानी पकड़ता लिपायमान होता है। जिस प्रकार सर्वत्र व्याप्त हुआ भी आकाश | | नहीं, लेकिन बनने देता है। पत्थर बनने भी देता है, पकड़ भी लेता 'सूक्ष्म होने के कारण लिपायमान नहीं होता, वैसे ही सर्वत्र देह में | | है। आकाश न बनने देता है और न पकड़ता है। आकाश में लकीर स्थित हुआ भी आत्मा गुणातीत होने के कारण देह के गुणों से | खींचें, कुछ भी खिंचता नहीं। इतने पक्षी उड़ते हैं, लेकिन आकाश लिपायमान नहीं होता है। में कोई पद-चिह्न नहीं छूट जाते। इतना सृजन, इतना परिवर्तन, जो मैं कह रहा था, यह सूत्र उसी की तरफ इशारा है। | इतना विनाश चलता है और आकाश अछूता बना रहता है, हे अर्जुन, अनादि होने से और गुणातीत होने से यह अविनाशी | | अस्पर्शित, सदा कुंवारा। परमात्मा शरीर में स्थित होता हुआ भी वास्तव में न करता है, न __ आकाश का यह जो गुण है, यही परमात्मा का भी गुण है। या लिपायमान होता है। | ऐसा कहें कि जो हमें बाहर आकाश की तरह दिखता है, वही भीतरी यही अत्यधिक कठिन बात समझने की है। आकाश परमात्मा है; इनर स्पेस, भीतर का आकाश परमात्मा है। हम देखते हैं आकाश, सबको घेरे हुए है। सब कुछ आकाश में | कृष्ण कहते हैं, यह जो भीतर छिपा हुआ चैतन्य है, इसे कुछ भी होता है, लेकिन फिर भी आकाश को कुछ भी नहीं होता। एक | छूता नहीं। तुम क्या करते हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। तुम गंदगी का ढेर लगा है। गंदगी के ढेर को भी आकाश घेरे हुए है।। क्या करते हो, क्या होता है, इससे तुम्हारे भीतर के आकाश पर गंदगी का ढेर भी आकाश में ही लगा हुआ है, ठहरा हुआ है, कोई लकीर नहीं खिंचती। तुम भीतर शुद्ध ही बने रहते हो। यह लेकिन आकाश गंदगी के ढेर से गंदा नहीं होता। गंदगी का ढेर हट | शुद्धि तुम्हारा स्वभाव है। जाता है, आकाश जैसा था, वैसा ही बना रहता है। यह बड़ा खतरनाक संदेश है। इसका मतलब हुआ कि पाप करते फिर एक फूल खिलता है। चारों तरफ सुगंध फैल जाती है। फूल | | हो, तो भी कोई रेखा नहीं खिंचती। पुण्य करते हो, तो भी कोई लाभ के इस सौंदर्य को भी आकाश घेरे हुए है। लेकिन आकाश इस फूल | | की रेखा नहीं खिंचती। न पाप न पुण्य, न अच्छा न बुरा-भीतर के सौंदर्य से भी अप्रभावित रहता है। वह इसके कारण सुंदर नहीं | कुछ भी छूता नहीं। भीतर तुम अछूते ही बने रहते हो। खतरनाक हो जाता। फूल आज है। कल नहीं होगा। आकाश जैसा था, वैसा | | इसलिए है कि सारी नैतिकता, सारी अनैतिकता व्यर्थ हो जाती है। ही होगा। भीतर की शुद्धि शाश्वत है। तुम्हारे करने से कुछ आकाश के इस गुण को बहुत गहरे में समझ लेना जरूरी है, बनता-बिगड़ता नहीं। लेकिन तुम्हारे करने से तुम अकारण दुख 377
SR No.002409
Book TitleGita Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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