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गीता दर्शन भाग-60
हटकर, अलग होकर देखने का नाम ही ध्यान है। आंख से मत | कृष्ण पहले सिखा रहे हैं कि तुम जानो कि तुम शरीर नहीं हो। देखें। आंख बंद करके देखने का नाम ध्यान है। कान से मत सुनें। | भेद सिखा रहे हैं। पैराडाक्सिकल है, विरोधाभासी है। कृष्ण कह कान बंद करके सुनने का नाम ध्यान है। शरीर से मत स्पर्श करें। | रहे हैं, तुम जानो कि तुम क्षेत्र नहीं हो, शरीर नहीं हो, इंद्रियां नहीं शरीर के स्पर्श से ऊपर उठकर स्पर्श करने का नाम ध्यान है। | हो। यह तो भेद सिखाना हो गया। लेकिन कृष्ण यह भेद इसीलिए
और जब सारी इंद्रियों को छोड़कर कोई जरा-सा भी अनुभव कर सिखा रहे हैं, क्योंकि इसी भेद के द्वारा तुम्हें अभेद का दर्शन हो लेता है, तो उसे कृष्ण की बात की सचाई का पता चल जाएगा। तब | सकेगा। शरीर से तुम हटोगे, तो तुम्हें दिखाई पड़ेगा, शरीर भी खो उसे कहीं भी सीमा न दिखाई पड़ेगी। तब उसे जन्म और मृत्यु एक गया, आत्मा भी खो गई; और वही रह गया, जो दोनों के बीच है, मालूम होंगे; तब उसे सृष्टि और स्रष्टा एक मालूम होंगे। एक जो दोनों में छिपा है। कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि एक में यह बात छिपी ही हुई है कि इसे ऐसा समझें कि आप अपने मकान को जोर से पकड़े हुए हैं। शायद पहले दो थे, अब एक मालूम होते हैं।
और मैं आपसे कहता हूं कि यह खिड़की छोड़ो, तो तुम्हें खुला __इसलिए हमने अपने मुल्क में एक शब्द का प्रयोग नहीं किया। आकाश दिखाई पड़ सके। इस खिड़की से थोड़ा दूर हटो। तुम हमने जो शब्द प्रयोग किया है, वह है अद्वैत। ज्ञानी को ऐसा पता खिड़की नहीं हो। तुम मकान नहीं हो। तुम चाहो तो मकान के बाहर नहीं चलेगा कि सब एक है। ज्ञानी को ऐसा पता चलेगा कि दो नहीं आ सकते हो। तो में भेद सिखा रहा हूं। में कह रहा हूं, तुम मकान हैं। इन दोनों में फर्क है। शब्द तो एक ही हैं।
नहीं हो। बाहर हटो। लेकिन बाहर आकर तुम्हें यह भी पता चल __ अद्वैत का मतलब ही होता है एक, एक का मतलब भी होता है जाएगा कि मकान के भीतर जो था, वह भी यही आकाश था, जो अद्वैत। लेकिन सोचकर हमने कहा अद्वैत, एक नहीं। क्योंकि एक मकान के बाहर है। से विधायक रूप से मालूम पड़ता है, एक। एक की सीमा बन जाती लेकिन मकान के बाहर आकर दोनों बातें पता चलेंगी, कि जो है। और जहां एक हो सकता है, वहां दो भी हो सकते हैं। क्योंकि आकाश मैं भीतर से देखता था, वह सीमित था। सीमा मेरी दी हई एक संख्या है। अकेली संख्या का कोई मूल्य नहीं होता। दो होना | | थी। आकार मैंने दिया था; निराकार को मैंने आकार की तरह देखा चाहिए, तीन होना चाहिए, चार होना चाहिए, तो एक का कोई मूल्य था। वह मेरी भूल थी, मेरी भ्रांति थी। लेकिन बाहर आकर...इसका है। और अगर कोई दो नहीं, कोई तीन नहीं, कोई चार नहीं, तो एक यह अर्थ नहीं है कि मकान के भीतर जो आकाश था, वह आकाश निर्मूल्य हो गया। गणित का अंक व्यर्थ हो गया। उसमें फिर कोई |
|| नहीं है। बाहर आकर तो आपको यह भी दिखाई पड़ जाएगा कि अर्थ नहीं है।
मकान के भीतर जो था, वह भी आकाश था। मकान की खिड़की से इसलिए भारतीय रहस्यवादियों ने एक शब्द का उपयोग न करके | | जो दिखाई पड़ता था, वह भी आकाश था। खिड़की भी आकाश का कहा, अद्वैत-नान डुअल। इतना ही कहा कि हम इतना कह हिस्सा थी। खिड़की भी आज नहीं कल खो जाएगी और आकाश में सकते हैं कि वहां दो नहीं हैं। निषेध विराट होता है, विधेय में सीमा लीन हो जाएगी। आ जाती है। इनकार करने में कोई सीमा नहीं आती। दो नहीं हैं। जिस दिन आकाश के तत्व की पूरी प्रतीति हो जाएगी, उस दिन कुछ कहा नहीं, सिर्फ इतना ही कहा कि भेद नहीं है वहां। दो किए | मकान, खिड़की सभी आकाश हो जाएंगे। लेकिन एक बार मकान जा सकें, इतना भी भेद नहीं है।
के बाहर आना जरूरी है। यह जो निषेध है, दो नहीं, यह कोई गीता समझने से, ब्रह्मसूत्र भेद निर्मित किया जा रहा है, ताकि आप अभेद को जान सकें। समझने से खयाल में नहीं आ जाएगा। यह दो नहीं तभी खयाल में | यह बात उलटी मालूम पड़ती है और जटिल मालूम पड़ती है। हम आएगा, जब इंद्रियों से हटकर देखने की थोड़ी-सी क्षमता आ | चाहेंगे कि भेद की बात ही न की जाए। अगर अभेद ही है, तो भेद जाएगी। यह सारा अध्याय इंद्रियों से हटने की कला पर ही निर्भर की बात ही न की जाए। है। सारी कोशिश यही है कि आप शरीर से हटकर देखने में सफल | लेकिन बात की जाए या न की जाए, हमें अभेद दिखाई नहीं हो जाएं। इसलिए प्राथमिक रूप से फासला करना पड़ रहा है। यह | पड़ता। हमें भेद ही दिखाई पड़ता है। हम चाहें तो भेद के भीतर भी बड़ी उलझी हुई जटिल बात है।
अपने मन को समझा-बुझाकर अभेद की मान्यता स्थापित कर
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