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________________ परमात्मा का प्रिय कौन ममता से बचते हैं, तो प्रेम रुक जाता है। तब भी दरवाजा बंद हो गया। अगर प्रेम करते हैं, तो फौरन ममता बन जाती है। तो भी दरवाजा बंद हो गया। प्रेम हो और ममता न हो। नदी तो बहे और कहीं सरोवर न बने। इसको खयाल में रखें। बच्चे को प्रेम करें। आप अपने बेटे को प्रेम करें, इसमें कुछ भी हर्ज नहीं है। शुभ है। लेकिन वह प्रेम आपके ही बेटे पर समाप्त क्यों हो? वह और थोड़ा बहे। और भी पड़ोसियों के बेटे हैं, उनको भी छु । क्यों रुके बेटे तक ? और सच में अगर आप असली बाप हैं और आपने बेटे का प्रेम जाना है, तो आप चाहेंगे कि जितने बेटे बढ़ जाएं, उतना अच्छा। क्योंकि उतना प्रेम आपको आनंद देगा। एक बेटा इतना आनंद देता है, अगर सारी जमीन के बेटे आपके बेटे हों, तो कितना आनंद होगा! एक मित्र जब इतना आनंद देता है, तो फिर क्यों कंजूसी कर रहे हैं ! बढ़ने दें। सारी पृथ्वी मित्रता बन जाए, तो और गहरा आनंद होगा। अंतहीन आनंद होगा। जब मनुष्यों को प्रेम करने से इतना आनंद मिलता, तो पशुओं को क्यों वंचित करना! फैलने दें। पौधों को क्यों वंचित करना ! फैलने दें। जब प्रेम इतना आनंद देता है, तो रोकते क्यों हैं? उसे बढ़ने दें, उसे फैलने दें। उसे सारी जमीन को, सारे अस्तित्व को घेर लेने दें। तो आप परमात्मा के लिए प्रिय हो जाएंगे। क्योंकि आप खुल जाएंगे सब तरफ से। आपका रंध्र- रंध्र खुल जाएगा। सब तरफ से प्रभु की किरणें प्रवेश कर सकती हैं। अहंकार से रहित, सुख-दुखों की प्राप्ति में सम, क्षमावान, अपराध करने वाले को भी अभय देने वाला । अहंकार से रहित... । जितना गहन होता है प्रेम, उतना अहंकार अपने आप शांत और शून्य हो जाता है । जितना कम होता है प्रेम, उतना अहंकार होता है ज्यादा । अहंकार और प्रेम विरोधी हैं। अगर प्रेम बढ़ता है, तो अहंकार पिघल जाता है। लेकिन बहुत लोग पूछते हैं, एक मित्र ने आज भी पूछा अहंकार से कैसे छुटकारा हो ? अहंकार से सीधे छुटकारा न होगा। आप प्रेम को बढ़ाएं। जैसे-जैसे प्रेम बढ़ेगा, अहंकार विसर्जित होने लगेगा। क्योंकि जो शक्ति अहंकार बनती है, वही प्रेम बनती है। प्रेम और अहंकार में एक ही शक्ति काम करती है। इसलिए अगर आप बड़े अहंकारी हैं, तो निराश मत हों । आपके पास प्रेम की बड़ी क्षमता छिपी पड़ी है | दुखी मत हों; आपके पास बड़ा स्रोत है। यही ऊर्जा मुक्त हो तो प्रेम बन जाएगी। जाए, है कि लेकिन सीधा अहंकार से मत लड़ें। आप जो कुछ भी करेंगे सीधा, उससे अहंकार नहीं मिटेगा । आप तो प्रेम की तरफ फैलाव शुरू कर दें। कहीं से भी प्रेम को फैलाना शुरू करें। जिस तरफ लगाव जाता हो, उसी तरफ प्रेम को बहाएं। एक ही खयाल रखें कि उसको रुकने मत दें। उसे बढ़ते जाने दें। उसकी सीमाएं जितनी विस्तीर्ण होने लगें, होने दें। यह विस्तीर्ण होती सीमा, एक दिन आप अचानक पाएंगे आपके अहंकार का घाव तिरोहित हो गया। आप प्रेम से भर गए हैं और मैं का कोई भाव नहीं रह गया है। सुख - दुखों की प्राप्ति में सम... । सुख आता है, दुख भी आता है। लेकिन आपने कभी खयाल नहीं किया होगा कि सुख और दुख एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। सुख के पीछे ही दुख छिपा होता है; उसका ही संगी-साथी है। और दोनों में तलाक का कोई भी उपाय नहीं है। दोनों सदा साथ हैं। उनका जोड़ा कभी छूटता नहीं। जब दुख आता है, तब उसके पीछे सुख छिपा रहता है। लेकिन हमारी आंखें संकीर्ण हैं। जो होता है, उसको ही हम देखते हैं। जो पीछे छिपा है, उसको नहीं देखते हैं। जब आप खुश हो रहे हैं, तब अब की दफा ध्यान रखना, जब सुख आए, तब ध्यान रखना कि जरूर उसके पीछे उससे जुड़ा हुआ दुख आएगा। और आप घड़ी, दो घड़ी में ही पाएंगे कि दुख आ गया। और इस दुख की क्वालिटी वही होगी, जो आपने सुख भोगा था उसकी थी, वही गुणधर्म होगा । हर दुख के पीछे उसका सुख है। और हर सुख के पीछे उसका दुख है। रुपए में जैसे दो पहलू होते हैं, ऐसे वे दो पहलू हैं। मगर हम कभी ध्यान नहीं करते। हमने कभी निरीक्षण नहीं किया। नहीं तो आप यह पहचान जाएंगे कि हर सुख का अनिवार्य | दुख है | हर दुख का अनिवार्य सुख है। और दोनों मिलते हैं, एक नहीं मिलता। अगर आप अपना दुख कम करना चाहते हैं, तो | आपको अपना सुख कम करना पड़ेगा। अगर आप अपना सुख बढ़ाना चाहते हैं, आपको अपना दुख बढ़ाना पड़ेगा। इसलिए एक बड़ी अदभुत घटना घटी है इस जमीन पर । अब हमें खयाल में आती है। जमीन पर जितना सुख बढ़ता जाता है, उतना दुख भी बढ़ता जाता है। यह बड़े मजे की बात है। विज्ञान ने सुख के बहुत उपाय किए हैं। और सुख निश्चित ही | आदमी का बढ़ गया है। लेकिन आदमी जितना आज दुखी है, इतना कभी भी नहीं था। लोगों को लगता है, इसमें बड़ा कंट्राडिक्शन है, इसमें बड़ा विरोधाभास है। विज्ञान ने इतना सुख बढ़ा दिया, तो 117
SR No.002409
Book TitleGita Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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