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________________ O गीता दर्शन भाग-60 सब लेन-देन है। यह सब बाजार है। इसमें प्रेम कहीं है नहीं। है, आत्मा की श्वास है; वह जीवन है। जिस दिन आपको यह जब आप प्रेम भी कर रहे हैं और प्रयोजन आपका ही है कुछ, | समझ में आने लगेगा, उस दिन आप प्रेम को स्वार्थ से हटा देंगे। तो वह प्रेम परमात्मा के लिए द्वार नहीं बन सकता। इसीलिए हम और प्रेम तब आपकी सहज चर्या बन जाएगी। कुछ को प्रेम करते हैं, जिनसे हमारा स्वार्थ होता है। जिनसे हमारा कृष्ण कहते हैं, प्रेमी सबका; ममता से रहित...। स्वार्थ नहीं होता, उनको हम प्रेम नहीं करते। जिनसे हमारे स्वार्थ में | | यह बडा उलटा लगेगा। क्योंकि हम तो समझते हैं. प्रेमी वही है. चोट पड़ती है, उनको हम घृणा करते हैं। मगर हमेशा केंद्र में मैं हूं। | जो ममता से भरा हो। ममता प्रेम नहीं है। ममता और प्रेम में ऐसा जिससे मेरा लाभ हो, उसे मैं प्रेम करता है जिससे हानि हो, उसको | ही फर्क है, जैसे कोई नदी बह रही हो, यह तो प्रेम है। और कोई घृणा करता हूं। जिससे कुछ भी न हो, उसके प्रति मैं तटस्थ हूं, | | नदी बंध जाए और डबरा बन जाए और बहना बंद हो जाए और उपेक्षा रखता हूं; उससे कुछ लेना-देना नहीं है। सड़ने लगे, तो ममता है। परमात्मा के लिए द्वार खोलने का अर्थ है, सब के प्रति। लेकिन | | जहां प्रेम एक बहता हुआ झरना है; किसी पर रुकता नहीं, बहता सब के प्रति कब होगा? वह तभी हो सकता है, जब मुझे प्रेम में ही | चला जाता है। कहीं रुकता नहीं; कोई रुकावट खड़ी नहीं करता। आनंद आने लगे, स्वार्थ में नहीं। इस बात को थोड़ा समझ लें। यह नहीं कहता कि तुम पर ही प्रेम करूंगा; तुम्हें ही प्रेम करूंगा। जब मुझे प्रेम में ही आनंद आने लगे; प्रेम से क्या मिलता है, | अगर तुम नहीं हो, तो मैं मर जाऊंगा। अगर तुम नहीं हो, तो मेरी यह सवाल नहीं है। कोई पत्नी है, उससे मुझे कुछ मिलता है; कोई | | जिंदगी गई। तुम्हारे बिना सब असार है। बस, तुम ही मेरे सार हो। बेटा है, उससे मुझे कुछ मिलता है। कोई मां है, उससे मुझे कुछ | | ऐसा जहां प्रेम डबरा बन जाता है, वहां प्रेम धारा न रही; वहां प्रेम मिलता है। कोई पिता है, कोई भाई है, कोई मित्र है, उनसे मुझे कुछ में सड़ांध पैदा हो गई। मिलता है। उन्हें मैं प्रेम करता हूं, क्योंकि उनसे मुझे कुछ मिलता | सड़ा हुआ प्रेम ममता है, रुका हुआ प्रेम ममता है। ममता से है। अभी मुझे प्रेम का आनंद नहीं आया। अभी प्रेम भी एक साधन | | आदमी परमात्मा तक नहीं पहुंचता। ममता से तो डबरा बन गया। है, और कुछ मिलता है, उसमें मेरा आनंद है। नदी सागर तक कैसे पहुंचेगी? वह तो यहीं रुक गई। उसकी तो लेकिन प्रेम तो खुद ही अदभुत बात है। उससे कुछ मिलने का गति ही बंद हो गई। सवाल ही नहीं है। प्रेम अपने आप में काफी है। प्रेम इतना बड़ा | इसलिए कृष्ण तत्काल जोड़ते हैं, सब का प्रेमी, हेतुरहित दयालु, आनंद है कि उससे आगे कुछ चाहने की जरूरत नहीं है। ममता से रहित...। जिस दिन मुझे यह समझ में आ जाए कि प्रेम ही आनंद है, और | प्रेम कहीं रुकता न हो; किसी पर न रुकता हो, बहता जाए; जो यह मेरा अनुभव बन जाए कि जब भी मैं प्रेम करता हूं, तभी आनंद | | भी करीब आए, उसको नहला दे और बहता जाए। कहीं रुकता न घटित हो जाता है; आगे-पीछे लेने का कोई सवाल नहीं है। तो फिर | | हो, कहीं आग्रह न बनाता हो। और कहीं यह न कहता हो कि बस, मैं काहे को कंजूसी करूंगा कि इसको करूं और उसको न करूं? यही मेरे प्रेम का आधार है। फिर तो मैं खुले हाथ, मुक्त-भाव से, जो भी मेरे निकट होगा, ऐसा जो करेगा, वह दुख में पड़ेगा और ऐसा प्रेम भी बाधा बन उसको ही प्रेम करूंगा। वृक्ष भी मेरे पास होगा, तो उसको भी प्रेम | जाएगा। इसलिए ममता का विरोध किया है। वह प्रेम का विरोध करूंगा, क्योंकि वह भी आनंद का अवसर क्यों छोड़ देना! एक | नहीं है। वह प्रेम बीमार हो गया, उस बीमार प्रेम का विरोध है। पत्थर मेरे पास होगा, तो उसको भी प्रेम करूंगा, क्योंकि वह भी ___ ममता हटे और प्रेम बढ़े, तो आप परमात्मा की तरफ पहुंचेंगे। आनंद का अवसर क्यों छोड़ देना! | लेकिन हमें आसान है दो में से एक। अगर हम प्रेम करें, तो ममता जिस दिन आपको प्रेम में ही रस का पता चल जाएगा, उस दिन | में फंसते हैं। और अगर ममता से बचें, तो हम प्रेम से ही बच जाते आप जो भी है. जहां भी है. उसको ही प्रेम करेंगे। प्रेम आपकी हैं। ऐसी हमारी दिक्कत है। अगर किसी से कहो कि ममता मत श्वास बन जाएगी। करो, तो फिर वह प्रेम ही नहीं करता किसी को। क्योंकि वह डरता आप श्वास इसलिए नहीं लेते हैं कि उससे कुछ मिलेगा। श्वास | है कि किया प्रेम, कि कहीं ममता न बन जाए: तो वह प्रेम से रुक जीवन है; उससे कुछ लेने का सवाल नहीं है। प्रेम और गहरी श्वास जाता है। 116
SR No.002409
Book TitleGita Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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