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ॐ गीता में समस्त मार्ग हैं -
खोज रहा है। अभी उसे यह भी मालूम नहीं है कि वह क्या चाहता ये कोई तुलनात्मक वक्तव्य नहीं हैं। यह उस क्षण में आपकी है। तो कृष्ण सारे मार्ग खोलकर रखे दे रहे हैं। शायद इन मार्गों के | | भाव-दशा को पूरा पकड़ लिया फूल ने और फूल इस जगत का संबंध में बात करते-करते ही कोई मार्ग अर्जुन के लिए आकृष्ट कर | | सर्वाधिक श्रेष्ठतम सौंदर्य हो गया। और दूसरे क्षण में इसी भांति ले. चंबक बन जाए और अर्जन खिंच जाए।
चांद ने पकड़ लिया। और तीसरे क्षण में सागर ने पकड़ लिया। और फिर इस बहाने, अर्जुन के बहाने, पूरी मनुष्यता के लिए | | ये तीनों बातों में कोई विरोध नहीं है और कोई तुलना नहीं है। ये यह संदेश हो जाता है। क्योंकि ऐसा कोई भी मार्ग नहीं है, जिस पर | | सिर्फ इस बात की खबर देते हैं कि एक ऐसी भी भाव-दशा है, जब कृष्ण ने गीता में मूल बात न कर ली हो। तो सभी मार्गों के लोग | फूल से जीवन का श्रेष्ठतम अनुभव होता है। उसी भाव-दशा में अपने योग्य बात गीता में पा सकते हैं।
| कभी चांद-तारों से भी जीवन के श्रेष्ठतम सौंदर्य की प्रतीति हो जाती इसका फायदा भी है, इसका नुकसान भी है। इसका फायदा कम | | है। और कभी उसी भाव-दशा का रस, संगीत, सागर की लहरों से हुआ, नुकसान ज्यादा हुआ। क्योंकि आदमी कुछ ऐसा है कि | | भी बंध जाता है। फायदा लेना जानता ही नहीं, सिर्फ नुकसान लेना ही जानता है। कबीर एक ढंग से उसी शिखर पर पहुंच जाते हैं। बुद्ध दूसरे ढंग कृष्ण ने सारे मार्ग गीता में कह दिए हैं। और जब वे एक मार्ग | |
| से उसी शिखर पर पहुंच जाते हैं। महावीर तीसरे ढंग से उसी शिखर के संबंध में बोलते हैं, तो बाकी के संबंध में भूल जाते हैं। और उस | पर पहुंच जाते हैं। वह शिखर एक है। वह भाव-दशा एक है। मार्ग को उसकी पूरी ऊंचाई पर उठा देते हैं। इसलिए उन्होंने सभी कृष्ण इस तरह बात कर रहे हैं कि उसमें कोई तुलना नहीं है। मार्गों की प्रशंसा की है। कभी उन्होंने भक्ति को कहा श्रेष्ठ; कभी । | एक-दूसरे को नीचा दिखाने का भाव नहीं है। उन्होंने ज्ञान को कहा श्रेष्ठ; कभी उन्होंने कर्म को कहा श्रेष्ठ।
अंब यह बड़ी उलझन वाली बात है। क्योंकि अगर भक्ति श्रेष्ठ है, तो साधारण बुद्धि का आदमी कहेगा, फिर कर्म को श्रेष्ठ नहीं | | एक मित्र ने मुझसे प्रश्न पूछा है कि जब आप कृष्ण कहना चाहिए; फिर ज्ञान को श्रेष्ठ नहीं कहना चाहिए। और अगर | पर बोलते हैं, तो ऐसा लगता है कि जैसे कृष्ण ज्ञान श्रेष्ठ है, तो फिर भक्ति को श्रेष्ठ नहीं कहना चाहिए। और श्रेष्ठतम हैं। और जब आप लाओत्से पर बोलते हैं, कृष्ण इसकी फिक्र ही नहीं करते। वे जिस मार्ग की बात करते हैं, तो ऐसा लगता है, लाओत्से का कोई मुकाबला नहीं। उसको उसकी श्रेष्ठता तक पहुंचा देते हैं। उसकी ऊंचाई, उसकी| जब आप महावीर पर बोलते हैं, तो ऐसा लगता है आखिरी गरिमा, उसका आखिरी गौरीशंकर का शिखर खोल देते | कि बाकी सब फीके हैं, महावीर ही सब कुछ हैं। हैं। और जब दूसरे मार्ग की बात करते हैं, तो उसका गौरीशंकर खोलते हैं। तब वे भूल ही जाते हैं कि एक क्षण पहले उन्होंने ज्ञान को श्रेष्ठ कहा था, अब वे भक्ति को श्रेष्ठ कह रहे हैं।
व ह बिलकुल आपको ठीक लगता है। लेकिन उस यह इस कारण, यह किया तो कृष्ण ने इसलिए ताकि अर्जुन को | लगने का आप साफ मतलब समझ लेना, नहीं तो प्रत्येक मार्ग का जो श्रेष्ठतम है, प्रत्येक मार्ग में जो गहनतम गहराई नुकसान होगा; आप कनफ्यूजन में पड़ेंगे। है, उसका उसे खयाल दिला दें; फिर चुनाव उसके हाथ में है। जब मैं लाओत्से पर बोल रहा हूं, तो लाओत्से के अतिरिक्त मेरे
यह वक्तव्य कि ज्ञान श्रेष्ठ है, यह वक्तव्य कि भक्ति श्रेष्ठ है, | लिए कोई भी नहीं है। तो जब मैं कहता हूं कि लाओत्से अद्वितीय तुलनात्मक नहीं है। यह ऐसा ही है, जैसे आपने गुलाब का फूल देखा | है, तो उसका यह मतलब नहीं है कि वह महावीर से श्रेष्ठ है या
और आपने कहा कि अदभुत! इससे सुंदर मैंने कुछ भी नहीं देखा। | बुद्ध से श्रेष्ठ है। उसका कुल मतलब यह है कि वह अपने आप में फिर आपने रात आकाश में तारे देखे और आपने कहा, अदभुत! | एक गौरीशंकर है। उसकी कोई तुलना नहीं। और न ही महावीर की इससे सुंदर मैंने कुछ भी नहीं देखा। और फिर एक दिन सुबह आपने कोई तुलना है, और न बुद्ध की, और न कृष्ण की। लेकिन आम सागर का गर्जन सुना और सागर की लहरें चट्टानों से टकराती देखीं | | आदमी तुलना करता है, कंपेरिजन करता है, और उससे तकलीफ और आपने कहा, इससे सुंदर मैंने कभी कुछ नहीं देखा। में पड़ता है।
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