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गीता दर्शन भाग-6
बुद्ध किसी से पूछने नहीं जाते हैं। महावीर किसी से पूछने नहीं जाते हैं। जीसस किसी से पूछने नहीं जाते हैं कि मैं ऐसा कर लूं? यह वैराग्य का उदय हो रहा है, तो अब मैं क्या करूं?
अर्जुन पूछता है। अर्जुन के भीतर कोई वैराग्य नहीं है, सिर्फ मोह-ममता है। उसका वैराग्य झूठा है। नहीं तो वह कृष्ण से कहता कि मैं जाता हूं, बात खतम हो गई। मुझे दिखाई पड़ गया कि यह व्यर्थ है और असार है। फिर कृष्ण भी न समझाने की कोशिश करते, न समझाने का कोई अर्थ था ।
अर्जुन दुविधा में है, कहें कि स्किजोफ्रेनिक है, बंटा हुआ है। आधा मन तो लड़ने के लिए आतुर है; धन के लिए आतुर है; राज्य के लिए आतुर है । वह भी मोह है। और आधा मन इस हत्या से भी भयभीत हो रहा है अपनों को ही मारने की। वह भी मोह है। और इन दोनों से मिलकर वैराग्य की वह बातें कर रहा है, जो कि बिलकुल झूठी हैं, क्योंकि इन दोनों वैराग्य का कोई भी संबंध नहीं है। इसे थोड़ा आप ठीक से समझ लेना । बहुत बार आप भी वैराग्य की बातें करते हैं। लेकिन ध्यान रखना कि आपका वैराग्य मोह से पैदा नहीं हो रहा है।
किसी आदमी की पत्नी मर जाती है और वह विरागी हो जाता है। और कल तक उसको वैराग्य का कोई खयाल नहीं था। किसी आदमी का दिवाला निकल जाता है और वह संन्यास के लिए उत्सुक हो जाता है। कल तक उसे संन्यास का क्षणभर भी खयाल नहीं था।
अब दिवाले से निकलने वाले संन्यास की कितनी कीमत हो सकती है, थोड़ा समझ लेना । और पत्नी के मरने से जो वैराग्य निकलता है, वह किस मूल्य का होगा ? जुए में हार जाने से कोई संन्यासी हो जाएगा, उस संन्यास में गंध तो जुए की ही होगी। वह संन्यास जुए का ही रूप होगा, क्योंकि बीज में तो जुआ था । अगर यही आदमी जुए में जीत गया होता, तो? यह पत्नी न मरी होती, तो? यह दिवाला न निकला होता, तो? तो इस आदमी का वैराग्य से कोई लेना-देना न था ।
तो जब आपके मन में ऐसा कोई वैराग्य उठता हो, जिसकी जड़ मोह हो, तो आप समझना कि यह वैराग्य झूठा है और इस वैराग्य के आधार पर आप परमात्मा तक नहीं पहुंच सकेंगे।
पर अर्जुन को पता नहीं है कि वह क्या पूछ रहा है। ध्यान रहे, जब आप किसी गुरु से पूछते हैं कुछ तो जरूरी नहीं है कि जो आप पूछते हैं, वही आपकी मौलिक जिज्ञासा हो। आपका प्रश्न तो बहुत ऊपरी होता है। क्योंकि भीतरी प्रश्न भी खोजना अति
कठिन है। लेकिन गुरु आपके ऊपरी प्रश्न से आपके भीतरी प्रश्नों को उठाना शुरू करता है। वह तो सिर्फ उसको एक खूंटी बना लेता है; और फिर आपके भीतर प्रवेश करने लगता है; और जो छिपा है, उसे बाहर लाने लगता है।
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अर्जुन ने कुछ पूछा है, कृष्ण कुछ कह रहे हैं। और अर्जुन धीरे-धीरे उत्सुक हो गया उनकी बात सुनने में। वह भूल ही गया युद्ध, अपने- जन, वैराग्य, वह बात भूल गया । वह कुछ और ही बातें पूछने लगा । कृष्ण ने उस मौके का बहाना, लाभ उठाकर, अर्जुन के मन को खोल दिया उसकी भीतर की सारी संभावनाओं के प्रति ।
अर्जुन अनजाना शिष्य है । जान में तो वह मित्र है। कृष्ण जानकर गुरु हैं | और अर्जुन के प्रति मित्रता का जो भाव है, वह केवल . अर्जुन की मित्रता के उत्तर में है।
अर्जुन अनजाना शिष्य है और कृष्ण जानकर गुरु हैं। लेकिन वे यह भी जानते हैं कि अगर वे गुरु की भाषा में बोलें, तो अर्जुन को पीड़ा होगी, उसके अहंकार को चोट लगेगी। वह तो मित्र ही मानकर जीया है। अगर मित्र न माना होता, तो उनको सारथी बनने के लिए राजी भी नहीं करता। बात ही बेहूदी है कि उनसे कहता कि तुम मेरे घोड़ों को सम्हालो और मेरे रथ के सारथी हो जाओ! वे बचपन के साथी हैं, दोस्त हैं। गहरी उनकी मित्रता है।
अर्जुन के मन को चोट न पहुंचे, इसलिए कृष्ण बात करते हैं मित्र की भाषा में ही । और धीरे-धीरे उस मित्र की भाषा में ही गुरु का संदेश भी डालते जाते हैं। और जैसे-जैसे अर्जुन राजी होता जाता है, वैसे-वैसे वे गुरु होते जाते हैं। जैसे ही अर्जुन बंद होता है और | डरता है, वैसे ही वे मित्र हो जाते हैं। जैसे ही अर्जुन राजी होता है, खुलता है, ग्राहक होता है, वे बहुत ऊंचाई पर उठ जाते हैं। उस ऊंचाई पर जहां कि वे परमात्मा हैं; वहां से बोलने लगते हैं
इसलिए कृष्ण के इन वचनों में कई तलों के वचन हैं। कभी वे ठीक मित्र की तरह बोल रहे हैं। कभी वे गुरु की तरह बोल रहे हैं। कभी वे ठीक परमात्मा की तरह बोल रहे हैं। आखिरी ऊंचाई से लेकर साधारण जीवन के तल तक कृष्ण बोल रहे हैं। इसलिए गीता बहुत तलों पर है | और अर्जुन पर निर्भर है; अर्जुन जब जिस ऊंचाई पर उठ सकता है, उस ऊंचाई की वे बात करते हैं।
सभी मार्गों की उन्होंने अर्जुन के सामने बात रख दी है, ता अर्जुन सहज ही चुनाव कर ले | और अर्जुन यह नहीं पूछ रहा है कि आप मुझे मार्ग दे दो। तो कृष्ण एक ही मार्ग दे सकते थे । अर्जुन तलाश में है। अभी उसे यह भी पक्का पता नहीं है कि वह क्या