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गीता में समस्त मार्ग हैं
साथ खड़े होकर अर्जुन से चर्चा कर रहे हैं। यह दो गहरे मित्रों के बीच संवाद है।
निश्चित ही, कृष्ण गुरु हैं और अर्जुन शिष्य है, लेकिन उनके बीच संबंध दो मित्रों का है। इस मित्रता के संबंध के कारण गीता में जो वार्तालाप है, जो डायलाग है, वह न कुरान में है, न बाइबिल में है; वह न धम्मपद में है, न जेन्द अवेस्ता में है।
डायलाग, वार्तालाप, दो मित्र निकट से बातें कर रहे हैं। न अर्जुन को भयभीत होने की जरूरत है कि वह गुरु से बोल रहा है, गुरु को जल्दी है कि वह मार्ग पर लगा दे अर्जुन को। दो मित्रों की चर्चा है। इस मित्रता की चर्चा से जो नवनीत निकलेगा, उसका बड़ा मूल्य है।
गहरे में तो अर्जुन शिष्य है, उसे इसका कोई पता नहीं। वह पूछ रहा है, प्रश्न कर रहा है, जिज्ञासा कर रहा है, वे शिष्य के लक्षण हैं। लेकिन वे लक्षण अचेतन हैं।
अर्जुन ऐसे ही पूछ रहा है, जैसे एक मित्र से मुसीबत में सलाह ले रहा है। उसे पता नहीं है कि वह शिष्य होने के रास्ते पर चल पड़ा। सच तो यह है कि जो उसने पूछा था, उसने कभी सोचा भी न होगा कि उसके परिणाम में जो कृष्ण ने कहा, वह कहा जाएगा।
अर्जुन ने तो इतना ही पूछा था कि मेरे प्रियजन हैं, संबंधी हैं, मित्र हैं, नाते-रिश्तेदार हैं, सभी मेरे परिवार के लोग हैं, इस तरफ भी, उस तरफ भी। हम सब बंटकर खड़े हैं, एक बड़ा कुटुंब । उस तरफ मेरे गुरु हैं, पूज्य भीष्म हैं। यह सब संघर्ष पारिवारिक है; यह हत्या अकारण मालूम पड़ती है। ऐसे राज्य को पाकर भी मैं क्या करूंगा, जिसमें मेरे सभी संबंधी और मित्र नष्ट हो जाएं? तो ऐसा राज्य तो त्याग देने योग्य लगता है।
अर्जुन के मन में एक वैराग्य का उदय हुआ है। वह उदय भी मोह कारण ही हुआ है। अगर वह वैराग्य मोह के कारण न होता, तो कृष्ण को गीता कहने की कोई जरूरत न होती; अर्जुन विरागी हो गया होता। जो वैराग्य मोह के कारण पैदा होता है, वह वैराग्य है ही नहीं। वह केवल वैराग्य की भाषा बोल रहा है। इस दुविधा के कारण गीता का जन्म हुआ।
अर्जुन कहता तो यह है कि मेरे मन में वैराग्य आ रहा है; यह सब छोड़ दूं; यह सब असार है। लेकिन कारण जो बता रहा है, कारण यह कि मेरे प्रियजन, मेरे मित्र, मेरे संबंधी, मेरे गुरु, ये सब रेंगे, कटेंगे। वैराग्य का जो कारण है, वह मोह है।
यह असंभव है। कोई भी वैराग्य मोह से पैदा नहीं हो सकता ।
वैराग्य तो पैदा होता है मोह की मुक्ति से । अर्जुन की यह जो कठिनाई है, इस दुविधा के कारण पूरी गीता का जन्म हुआ।
अर्जुन को यह पता भी नहीं है कि उसका जो वैराग्य है, वह झूठा है। उसकी जड़ में मोह है। और जहां मोह की जड़ हो, वहां वैराग्य के फूल नहीं लग सकते। मोह की जड़ में कैसे वैराग्य के फूल लग सकते हैं? अर्जुन परेशान तो मोह से है।
समझें, अगर उसके रिश्तेदार न कटते होते, कोई और कट रहा | होता, तो अर्जुन बिलकुल फिक्र न करता। वह घास-पत्तियों की तरह तलवार से काट देता। इसके पहले भी उसने बहुत बार लोगों को काटा है, लड़ा है, झगड़ा है, लेकिन कभी उसके मन में वैराग्य नहीं उठा। क्योंकि जिनको काट रहा था, उनसे कोई संबंध न था । वह पुराना धनुर्धर है; शिकार उसे सहज है; युद्ध उसके लिए खेल है।
आज जो तकलीफ खड़ी हो रही है, वह तकलीफ लोग कट | जाएंगे, इससे नहीं हो रही है। अपने लोग कट जाएंगे ! वह अपनत्व, ममत्व के कारण तकलीफ हो रही है। देखता है अपने ही परिवार को दोनों तरफ बंटा हुआ; जिनके साथ बड़ा हुआ, मित्र की तरह खेला, जो अपने ही भाई हैं, अपने ही गुरु हैं, जिन्होंने सिखाया ! उस तरफ द्रोण खड़े हैं, जिनसे सारी कला सीखी। आज उन्हीं की हत्या करने को उन्हीं की कला का उपयोग करना पड़ेगा। आज उनको ही काटना होगा, जिनके चरणों पर कल सिर रखा था। | इससे अड़चन आ रही है। अगर इनकी जगह कोई भी होते अब स, अर्जुन ऐसे काट देता, जैसे घास काट रहा है।
उसे कोई अहिंसा का भाव पैदा नहीं हो रहा है; वह किसी वैराग्य को उपलब्ध नहीं हो रहा है; सिर्फ मोह दुख दे रहा है। अपनों को | ही काटना कष्ट दे रहा है। इसलिए गीता का जन्म हुआ। अर्जुन का | वैराग्य वास्तविक नहीं है। अगर अर्जुन का वैराग्य वास्तविक हो, तो वह कृष्ण से पूछेगा भी नहीं ।
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यह भी थोड़ा समझ लेना चाहिए। जब हमारे भीतर झूठी चीजें होती हैं, तो हम किसी से पूछते हैं।
एक युवक मेरे पास आया और वह कहने लगा कि मैं आपसे पूछने आया हूं, क्या मैं संन्यास ले लूं? मैंने उस युवक से कहा कि अगर मैं कहूं कि मत लो, तो तुम क्या करोगे? वह बोला कि मैं नहीं लूंगा। तो मैंने कहा कि जो संन्यास किसी के पूछने पर निर्भर करता हो— कि कोई कह दे कि ले लो, कोई कह दे कि न ले लो, और तुम उसकी मान लोगे - वह संन्यास तुम्हारे भीतर कहीं गहरे में उठ नहीं रहा है।