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स्वयं को बदलो
पड़ोस में रह रहा है। और आपके और उसके धर्म में कोई बुनियादी फर्क नहीं दिखता, वह भी मानने को राजी नहीं है। जैन को तो छोड़ दें, राम भक्त, जो कि हिंदू है, वह भी इस बात को मानने को राजी नहीं है।
असल में हम मानते उसी बात को हैं, जिससे हमारा अहंकार खिलता है। जिससे हमारे अहंकार में खिलावट नहीं आती, हम मानते - वानते नहीं हैं।
यह धार्मिक आदमी की चिंता ही नहीं है लेकिन । धार्मिक आदमी इसकी फिक्र करता है कि जो मुझे ठीक लगता है, उस रास्ते से चलूं और अपने को बदल लूं, और नए जीवन को उपलब्ध हो जाऊं। वह रास्ता कृष्ण के मार्ग से मिले, तो ठीक; और क्राइस्ट के मार्ग से मिले, तो ठीक। मार्गों की चिंता ही नासमझ करते हैं। मंजिल की चिंता !
लेकिन कुछ लोग होते हैं, आम नहीं खाते, गुठलियां गिनते हैं। इस तरह के लोग उसी कोटि में हैं। उन्हें फुर्सत ही नहीं है आम को चखने की। वे गुठलियां गिनते रहते हैं !
इन मित्र ने यह भी पूछा है कि क्या निराकार परमात्मा ही कृष्ण नहीं हैं ?
निराकार परमात्मा सभी के भीतर है। कृष्ण के भीतर भी है। कृष्ण के भीतर वह ज्योति पूरी प्रकट होकर दिखाई पड़ रही है, क्योंकि सारे परदे गिर गए हैं। आपके भीतर परदे हैं, इसलिए वह ज्योति दिखाई नहीं पड़ रही है। ज्योति में कोई अंतर नहीं है। किसी का दीया ढंका है और किसी का दीया उघड़ा है। बस, उतना ही फर्क है । में कोई फर्क नहीं है, ज्योति में कोई फर्क नहीं है।
कृष्ण में और आपमें जो अंतर है, वह भीतर की ज्योति का नहीं है, बाहर के आवरण का है।
अभी भी कई भक्तों को और संतों को कृष्ण का साक्षात दर्शन होता है। चौबीस घंटे मुझे भी 'कृष्ण के सिवाय दूसरा कुछ दिखाई नहीं पड़ता। तो निराकार परमात्मा भक्तों के लिए साकार रूप लेते हैं, क्या यह सच है ?
आप भाव से जिसका भी स्मरण करते हैं, वह आपके लिए
रूपवान हो जाता है, वह आपके लिए रूपायित हो जाता है । आपका भाव निर्माता है, स्रष्टा है। भाव सृजनात्मक है। कोई कृष्ण आ जाते हैं, ऐसा नहीं है; कोई क्राइस्ट आ जाते हैं, ऐसा नहीं है। | लेकिन भाव क्रिएटिव है। आप जब गहन भाव से स्मरण करते हैं, तो आपकी चेतना ही उस रूप की हो जाती है जिस रूप का आपने स्मरण किया है। आप कृष्णमय हो जाते हैं, अपने ही भाव के कारण। कोई क्राइस्टमय हो जाता है, अपने ही भाव के कारण।
आपने शायद सुना होगा, ईसाई फकीर हैं बहुत-से, आज भी जीवित हैं, जिनको स्टिगमेटा निकलता है। स्टिगमेटा है, जहां-जहां जीसस को खीले ठोंके गए थे हाथों में। हाथ में, पैर में जीसस को खीले ठोंककर सूली पर लटकाया गया था। तो ऐसे ईसाई फकीर हैं, जो इतने जीससमय हो जाते हैं कि शुक्रवार के दिन, जिस दिन जीसस को सूली हुई थी, उस दिन उनके हाथ और पैर में छेद हो जाते हैं और खून बहने लगता है।
इसके तो वैज्ञानिक परीक्षण हुए हैं। खुले समूह के सामने फकीर आंख बंद किए बैठा रहा है और ठीक समय पर — डाक्टरों ने सारी परीक्षा कर ली है - और उसके हाथ: खून बहना शुरू हो जाता है। और ठीक चौबीस घंटे बाद खून की धारा बंद हो जाती है, घाव |पुर जाता है । इतना भाव से एक हो जाता है कि मैं जीसस हूं, कि जीसस के शरीर पर जो घटना घटी थी, वह उसके शरीर पर घटनी शुरू हो जाती है।
इसलिए जीसस के भक्त को जीसस दिखाई पड़ते हैं। कृष्ण के भक्त को कृष्ण दिखाई पड़ते हैं। राम के भक्त को राम दिखाई पड़ते कृष्ण के भक्त क्राइस्ट कभी दिखाई नहीं पड़ते। क्राइस्ट के भक्त को कृष्ण कभी नहीं दिखाई पड़ते। भाव जब सघन हो जाता है, तो आपकी चेतना रूपांतरित हो जाती है, उसी भाव में एक हो जाती है।
वह जो कृष्ण आपको दिखाई पड़ते हैं, वह आपके ही भीतर की | ज्योति है, जो आपको बाहर दिखाई पड़ रही है भाव के कारण। कोई कृष्ण वहां खड़े हुए नहीं हैं।
इसलिए आप दूसरे को नहीं दिखा सकते हैं कि मुझे कृष्ण दिखाई पड़ रहे हैं, तो आप दस मुहल्ले के लोगों को बुला लें और उनको कहें कि तुम भी देखो, मुझे दिखाई पड़ रहे हैं। या आप फोटोग्राफर को लिवा लाएं और कहें कि फोटो निकालो; मुझे कृष्ण दिखाई पड़ रहे हैं। कोई फोटो नहीं आएगा । और पड़ोसी को, किसी को दिखाई नहीं पड़ेंगे। पड़ोसी तय करके जाएंगे कि
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