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गीता में समस्त मार्ग हैं
महावीर को समझना सरल है। एक संगति है । बुद्ध को समझना सरल है। जिंदगी एक गणित की तरह है । उसमें आप भूल-चूक नहीं निकाल सकते।
अगर महावीर कहते हैं अहिंसा, तो फिर वैसा ही जीते हैं। फिर पांव भी फूंककर रखते हैं। फिर पानी भी छानकर पीते हैं । फिर श्वास भी भयभीत होकर लेते हैं कि कोई कीटाणु न मर जाए। फिर महावीर का पूरा जीवन एक संगत गणित है। उस गणित में भूल-चूक नहीं निकाली जा सकती।
लेकिन कृष्ण का जीवन बड़ा बेबूझ है। जितनी भूल-चूक चाहिए, वे सब मिल जाएंगी। ऐसी भूल-चूक आप नहीं खोज सकते, जो उनके जीवन में न मिले। सब तरह की बातें मिल जाएंगी।
उसका कारण है। क्योंकि कृष्ण की दृष्टि जो है, उनका जो मौलिक आधार है सोचने का, वह यह है कि जैसे ही यह पता चल कि प्रकृति अलग और मैं अलग, फिर किसी भी भांति बर्तता हुआ कोई बंधन नहीं है। फिर कोई जन्म नहीं है।
इसलिए कृष्ण छल-कपट करते हैं, ऐसा हमें लगता है। ऐसा हमें लगता है कि वे आश्वासन देते हैं और फिर मुकर जाते हैं। लेकिन कृष्ण क्षण-क्षण जीते हैं। जब आश्वासन दिया था, तब पूरी तरह आश्वासन दिया था। उस क्षण का सत्य था वह, ट्रुथ आफ दि मोमेंट, उस क्षण का सत्य था। उस वक्त कोई बेईमानी न थी मन में; कहीं सोच भी न था कि इस आश्वासन को तोड़ेंगे। ऐसा कोई सवाल नहीं था। आश्वासन पूरी तरह दिया था। लेकिन दूसरे क्षण में सारी परिस्थिति बदल गई। और कृष्ण के लिए यह सब अभिनय से ज्यादा नहीं है। अगर यह अभिनय न हो, तो कृष्ण भी सोचेंगे . कि जो आश्वासन दिया था, उसको पूरा करो।
अगर जिंदगी बहुत असली हो, तो आश्वासन को पूरा करने का खयाल आएगा। लेकिन कृष्ण के लिए जिंदगी एक सपने की तरह है, जिसमें आश्वासन का भी कोई मूल्य नहीं है। वह भी क्षण सत्य था। उस क्षण में वैसा बर्तने का सहज भाव था। आज सारी स्थिति बदल गई। बर्तने का दूसरा भाव है। तो इस दूसरे भाव में कृष्ण दूसरा काम करते हैं। इन दोनों के बीच कोई विरोध नहीं है। हमें विरोध दिखाई पड़ता है, क्योंकि हम जिंदगी को असली मानते हैं।
आप इसे ऐसा समझें, आपको सपने का खयाल है। सपने का एक गुण है। सपने में आप कुछ से कुछ हो जाते हैं, लेकिन आपके भीतर कोई चिंता पैदा नहीं होती। आप जा रहे हैं। आप देखते हैं कि एक मित्र चला आ रहा है। और मित्र जब सामने आकर खड़ा हो
जाता है, तो अचानक घोड़ा हो जाता है, मित्र नहीं है। पर आपके भीतर यह संदेह नहीं उठता कि यह क्या गड़बड़ हो रही है ! मित्र था, अब घोड़ा कैसे हो गया? कोई संदेह नहीं उठता। असल में भीतर कोई प्रश्न ही नहीं उठता कि यह क्या गड़बड़ है ! जागकर भला आपको थोड़ी-सी चिंता हो, लेकिन तब आप कहते हैं, सपना है, सपने का क्या !
सपने में मित्र घोड़ा हो जाए, तो कोई चिंता पैदा नहीं होती । असलियत में आप चले जा रहे हों सड़क पर और उधर से मित्र आ रहा हो और अचानक घोड़ा हो जाए, फिर आपकी बेचैनी का अंत नहीं है। आपको पागलखाने जाना पड़ेगा कि यह क्या हो गया।
क्यों? क्योंकि इसको आप असलियत मानते हैं। कृष्ण इसको भी स्वप्न से ज्यादा नहीं मानते। इसलिए जिंदगी में कृष्ण के लिए कोई संगति नहीं है । सब खेल है। और सब संगतियां क्षणिक हैं। और क्षण के पार उनका कोई मूल्य नहीं है।
कृष्ण की कोई प्रतिबद्धता, कोई कमिटमेंट नहीं है। किसी क्षण के लिए उनका कोई बंधन नहीं है। उस क्षण में जो है, जो सहज हो रहा है, वे कर रहे हैं। दूसरे क्षण में जो सहज होगा, वह करेंगे। | वे नदी की धार की तरह हैं। उसमें कोई बंधन, कोई रेखा, कोई रेल की पटरियों की तरह वे नहीं हैं कि रेलगाड़ी एक ही पटरी पर चली जा रही है। वे नदी की तरह हैं। जैसा होता है! पत्थर आ | जाता है, तो बचकर निकल जाते हैं। रेत आ जाती है, तो बिना बचे निकल जाते हैं।
आप यह नहीं कह सकते कि वहां पिछली दफा बचकर निकले थे और अब? अब रेत आ गई, तो सीधे निकले जा रहे हो बिना बचे, असंगति है !
नहीं, आप नदी से कुछ भी नहीं कहते। जब पहाड़ होता है, नदी बचकर निकल जाती है। तो आप यह नहीं कहते कि पहाड़ को काटकर क्यों नहीं निकलती! और जब रेत होती है, नदी बीच में से | काटकर निकल जाती है। तब आप यह नहीं कहते कि बड़ी बेईमान है! पहाड़ के साथ कोई व्यवहार, रेत के साथ कोई व्यवहार !
कृष्ण नदी की तरह हैं। जैसी परिस्थिति होती है, उसमें जो उनके | लिए सहज आविर्भूत होता है अभिनय, वह कर लेते हैं । और जिंदगी असलियत नहीं है। जिंदगी एक कहानी है, एक नाटक है, एक साइको ड्रामा । इसलिए उसमें उनको कोई चिंता नहीं है, कोई अड़चन नहीं है।
इस बात को जब तक आप ठीक से न समझ लेंगे, तब तक कृष्ण
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