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________________ गीता दर्शन भाग-60 किया गया। डाक्टर भरोसे से भरा था कि दवा काम करेगी। दवा | कि मैं शरीर हूं। बूढ़ा मानता है कि मैं शरीर हूं। तो बूढ़ा दुखी होता काम कर गई। वह मरीज सालभर तक ठीक रहा। बीमारी तिरोहित | है, क्योंकि उसको लगता है, उसकी आत्मा भी बूढ़ी हो गई है। शरीर हो गई। लेकिन सालभर बाद अनुसंधानकर्ताओं ने पता लगाया कि || बूढ़ा हो गया है। आत्मा तो कुछ बूढ़ी होती नहीं। लेकिन बूढ़े शरीर उस दवा से इस बीमारी के ठीक होने का कोई संबंध ही नहीं है। | | के साथ तादात्म्य बंधा हुआ है। तो जिसने माना था कि जवान शरीर उसके डाक्टर ने मरीज को खबर की कि चमत्कार की बात है | मैं हूं, मानना मजबूरी है अब उसकी, उसे मानना पड़ेगा कि अब मैं कि तुम तो ठीक हो गए, लेकिन अभी खबर आई है, रिसर्च काम | बूढ़ा हो गया हूं। और जिसने माना था शरीर की जिंदगी को अपनी कर रही है कि इस दवा में उस बीमारी के ठीक होने का कोई कारण | जिंदगी, जब मौत आएगी तो उसे मानना पड़ेगा, अब मैं मर रहा हूं। ही नहीं है। वह मरीज उसी दिन पुनः बीमार हो गया। वह सालभर | लेकिन बचपन से ही हम शरीर के साथ अपने को एक मानकर बिलकुल ठीक रह चुका था। | बड़े होते हैं। शरीर के सुख, शरीर के दुख, हम एक मानते हैं। शरीर और कहानी यहीं खतम नहीं होती। छः महीने बाद फिर इस पर की भूख, शरीर की प्यास, हम अपनी मानते हैं। खोजबीन चली, किसी दूसरे रिसर्च करने वाले ने कुछ और पता । यह कृष्ण का सूत्र कह रहा है, शरीर क्षेत्र है, जहां घटनाएं घटती लगाया। उसने कहा कि नहीं, यह दवा काम कर सकती है। और | हैं। और तुम क्षेत्रज्ञ हो, जो घटनाओं को जानता है। वह मरीज फिर ठीक हो गया। __ अगर यह एक सूत्र जीवन में फलित हो जाए, तो धर्म की फिर तो अभी डाक्टरों को शक पैदा हो गया है कि दवाएं काम करती | और कुछ जानकारी करने की जरूरत नहीं है। फिर कोई कुरान, हैं या भरोसे काम करते हैं! बाइबिल, गीता, सब फेंक दिए जा सकते हैं। एक छोटा-सा सूत्र, सभी चिकित्सा में जादू काम करता है, मंत्र काम करते हैं। अगर | कि जो भी शरीर में घट रहा है, वह शरीर में घट रहा है, और मुझमें एलोपैथी ज्यादा काम करती है, तो उसका कारण यह नहीं है कि | नहीं घट रहा है; मैं देख रहा हूं, मैं जान रहा हूं, मैं एक द्रष्टा हूं, एलोपैथी में ज्यादा जान है। उसका कारण यह है कि एलोपैथी के | यह सूत्र समस्त धर्म का सार है। इसे थोड़ा-थोड़ा प्रयोग करना शुरू पास ज्यादा प्रचार का साधन है; ज्यादा मेडिकल कालेज हैं, करें, तो ही खयाल में आएगा। युनिवर्सिटी हैं, ज्यादा सरकारें हैं, अथारिटी, प्रमाण उसके पास हैं; एक तो रास्ता यह है कि गीता हम समझते रहते हैं। गीता लोग वह काम करती है। | समझाते रहते हैं। वे कहते रहते हैं. क्षेत्र अलग है और क्षेत्रज्ञ अलग __ अनेक चिकित्सकों ने प्रयोग किए हैं, उसे वे प्लेस्बो कहते हैं। दस है। और हम सुन लेते हैं, और मान लेते हैं कि होगा। लेकिन जब मरीजों को, उसी बीमारी के दस मरीजों को दवा दी जाती है; उसी | | तक यह अनुभव न बन जाए, तब तक इसका कोई अर्थ नहीं है। बीमारी के दस मरीजों को सिर्फ पानी दिया जाता है। बड़ी हैरानी की | | यह कोई सिद्धांत नहीं है; यह तो प्रयोगजन्य अनुभूति है। इसे थोड़ा बात यह है कि अगर सात दवा से ठीक होते हैं, तो सात पानी से भी | प्रयोग करें। ठीक हो जाते हैं। वे सात पानी से भी ठीक होते हैं, लेकिन बात इतनी ___ जब भोजन कर रहे हों, तो समझें कि भोजन शरीर में डाल रहे जरूरी है कि कहा जाए कि उनको भी दवा दी जा रही है। | हैं और आप भोजन करने वाले नहीं हैं, देखने वाले हैं। जब रास्ते आदमी का मन, बीमारी न हो, तो बीमारी पैदा कर सकता है। | पर चल रहे हों, तो समझें कि आप चल नहीं रहे हैं; शरीर चल रहा और आदमी का मन, बीमारी हो, तो बीमारी से अपने को तोड़ भी | | है। आप तो सिर्फ देखने वाले हैं। जब पैर में कांटा गड़ जाए, तो सकता है। मन की यह स्वतंत्रता ठीक से समझ लेनी जरूरी है। ।। | बैठ जाएं, दो क्षण ध्यान करें। बाद में कांटा निकालें, जल्दी नहीं आप अपने शरीर से अलग होकर भी शरीर को देख सकते हैं, है। दो क्षण ध्यान करें और समझें कि कांटा गड़ रहा है, दर्द हो रहा और आप अपने शरीर के साथ एक होकर भी अपने को देख सकते | है। यह शरीर में घट रहा है, मैं जान रहा है। हैं। हम सब अपने को एक होकर ही देख रहे हैं। हमारे दुखों की | | जो भी मौका मिले क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ को अलग करने का, उसे सारी मूल जड़ वहां है। चूकें मत, उसका उपयोग कर लें। शरीर में दुख घटित होते हैं और हम अपने को मानते हैं कि शरीर जब शरीर बीमार पड़ा हो, तब भी; जब शरीर स्वस्थ हो, तब के साथ एक हैं। बच्चा मानता है कि मैं शरीर हूं। जवान मानता है | भी। जब सफलता हाथ लगे, तब भी; और जब असफलता हाथ 1921
SR No.002409
Book TitleGita Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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