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________________ दुख से मुक्ति का मार्गः तादात्म्य का विसर्जन लगे, तब भी। जब कोई गले में फूलमालाएं डालने लगे, तब भी स्मरण रखें कि फूलमालाएं शरीर पर डाली जा रही हैं, मैं सिर्फ देख रहा हूं। और जब कोई जूता फेंक दे, अपमान करे, तब भी जानें कि शरीर पर जूता फेंका गया है, और मैं देख रहा हूं। इसके लिए कोई हिमालय पर जाने की जरूरत नहीं है। आप जहां हैं, जो हैं, जैसे हैं, वहीं ज्ञाता को और ज्ञेय को अलग कर लेने की सुविधा है। न कोई मंदिर का सवाल है, न कोई मस्जिद का, आपकी जिंदगी ही मंदिर है और मस्जिद है। वहां छोटा-छोटा प्रयोग करते रहें । और ध्यान रखें, एक-एक ईंट रखने से महल खड़े हो जाते हैं; छोटे-छोटे प्रयोग करने से परम अनुभूतियां हाथ आ जाती हैं। एक-एक बूंद इकट्ठा होकर सागर निर्मित हो जाता है। और छोटा-छोटा अनुभव इकट्ठा होता चला जाए, तो परम साक्षात्कार तक आदमी पहुंच जाता है। एक छोटे-छोटे कदम से हजारों मील की यात्रा पूरी हो जाती है। तो यह मत सोचें कि छोटे-छोटे अनुभव से क्या होगा। सभी अनुभव जुड़ते जाते हैं, उनका सार इकट्ठा हो जाता है। और धीरे-धीरे आपके भीतर वह इंटीग्रेशन, आपके भीतर वह केंद्र पैदा हो जाता है, जहां से आप फिर बिना प्रयास के निरंतर देख हैं कि आप अलग हैं और शरीर अलग है। बहुत लोग इसको मंत्र की तरह रटते हैं कि मैं अलग हूं, शरीर अलग है। मंत्र की तरह रटने से कोई फायदा नहीं। इसे तो प्रयोग - भूमि बनाना जरूरी है। बहुत लोग बैठकर रोज सुबह अपनी प्रार्थना - पूजा में कह लेते हैं कि मैं आत्मा हूं, शरीर नहीं। इस कहने से कुछ लाभ न होगा । और रोज-रोज दोहराने से यह जड़ हो जाएगी बात। इसका कोई मन पर असर भी न होगा। आप इसको मशीन की तरह दोहरा लेंगे। इसका अर्थ भी धीरे-धीरे खो जाएगा। आमतौर से मेरा अनुभव है कि धार्मिक लोग महत्वपूर्ण शब्दों को दोहरा दोहराकर उनका अर्थ भी नष्ट कर देते हैं। फिर मशीन की तरह दोहराते रहते हैं । पुनरुक्ति करते रहते हैं। तोतों की रटंत हो जाती है। उसका कोई अर्थ नहीं होता। इसे मंत्र की तरह नहीं, प्रयोग की तरह ! इसे चौबीस घंटे में दस, बीस, पच्चीस बार, जितनी बार संभव हो सके, किसी सिचुएशन में, किसी परिस्थिति में तत्क्षण अपने को तोड़कर अलग देखने का प्रयोग करें। स्नान कर रहे हैं और खयाल करें कि स्नान की घटना शरीर में घट रही है और मैं जान रहा हूं। कुछ भी कर रहे हैं! यहां सुन रहे हैं, तो सुनने की घटना आपके शरीर में घट रही है; और सुनने की घटना घट रही है, आप जान रहे हैं। वह जानने वाले को धीरे-धीरे निखारकर अलग करते जाएं। जैसे कोई मूर्तिकार छेनी से काटता है पत्थर को, ऐसे ही जानने वाले को अलग काटते जाएं; और जो जाना जाता है, उसे अलग काटते जाएं। अनुभव को अलग करते जाएं, अनुभोक्ता को अलग करते | जाएं। जरूर एक दिन वह फासला पैदा हो जाएगा, वह दूरी खड़ी हो जाएगी, जहां से चीजें देखी जा सकती हैं। हे अर्जुन, यह शरीर क्षेत्र है, ऐसा कहा जाता है। और इसको जो जानता है, उसको क्षेत्रज्ञ, ऐसा उसके तत्व को जानने वाले ज्ञानीजन कहते हैं। यह खयाल में ले लेना जरूरी है कि पूरब के मुल्कों में और विशेषकर भारत में हमारा जोर विचार पर नहीं है, हमारा जोर ज्ञान पर है। हमारा जोर उस बात पर नहीं है कि हम किन्हीं सिद्धांतों को प्रतिपादित करें। हमारा जोर इस बात पर है कि हम जीवन के अनुभव से कुछ सार निचोड़ें। ये दोनों अलग बातें हैं। इसको आप सिद्धांत की तरह भी प्रतिपादित कर सकते हैं कि आत्मा अलग है, शरीर अलग है; जानने वाला अलग है, जो जाना जाता है, वह अलग है। इसको आप एक फिलासफी, एक तत्व - विचार की तरह खड़ा कर सकते हैं। और बड़े तर्क उसके पक्ष और विपक्ष में भी जुटा सकते हैं; बड़े शास्त्र भी निर्मित कर सकते हैं। लेकिन भारत की मनीषा का आग्रह सिद्धांतों पर जरा भी नहीं है। | जोर इस बात पर है कि जो आप ऐसा मानते हों, तो ऐसा मानते हैं | या जानते हैं ? ऐसी आपकी अपनी अनुभूति है या ऐसा आपका विचार है ? विचार धोखा दे सकता है। अनुभूति भर धोखा नहीं देती। विचार में डर है। विचार में अक्सर हम उस बात को मान लेते हैं, जो हम मानना चाहते हैं। इसे थोड़ा समझ लें। विचार में एक तरह का विश फुलफिलमेंट, एक तरह की कामनाओं की तृप्ति होती है। समझें, एक आदमी मौत से डरता है। सभी डरते हैं। तो जो मृत्यु से डरता है, उसे मानने का मन होता है कि आत्मा अमर हो । यह उसकी भीतरी आकांक्षा होती है कि आत्मा न मरे। जब वह गीता में पढ़ता है कि शरीर अलग और आत्मा अलग, और आत्मा नहीं मरती, वह तत्क्षण मान लेता है। मानने का कारण यह नहीं है कि गीता सही है। मानने का कारण यह भी नहीं है कि उसको अनुभव | हुआ है। मानने का कारण कुल इतना है कि वह मौत से डरा हुआ 193
SR No.002409
Book TitleGita Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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