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0 उद्वेगरहित अहंशून्य भक्त -
वैज्ञानिक कहते हैं कि विज्ञान की सारी खोज इंद्रियों को सबल सरल है बहुत, क्योंकि परमात्मा आपके इतने निकट है कि उसे बनाने से ज्यादा नहीं है। आपकी आंख देख सकती है थोड़ी दूर | निकट कहना भी उचित नहीं है। क्योंकि निकटता में भी थोड़ी-सी तक। दूरबीन है, वह मीलों तक देख सकती है। फिर और बड़ी | | दूरी होती है। परमात्मा आपकी श्वास-श्वास में है, रोएं-रोएं में है। दूरबीनें हैं, वे आकाश के तारों को देख सकती हैं। लेकिन आप कर | ठीक से समझें तो आप परमात्मा के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं हैं। क्या रहे हैं? जो तारा खाली आंख से दिखाई नहीं पड़ता, वह दूरबीन से दिखाई पड़ जाता है। क्योंकि दूरबीन बड़ा सबल यंत्र है।। | एक मित्र ने और पूछा है। उन्होंने पूछा है कि अगर हम दूर तक उसका सेतु बन जाता है। दूर तक उसका संबंध बन जाता |
| परमात्मा ही हैं. तो फिर जानने की क्या जरूरत है? है। खाली आंख से उतना संबंध नहीं बनता।
कान से आप सुनते हैं। रेडियो भी सुनता है, लेकिन वह काफी अगर सच में ही पता चल गया है कि आप परमात्मा हैं, तब तो दूर की बात पकड़ लेता है। आंख से आप देखते हैं। टेलीविजन भी | जानने की जरूरत नहीं है। लेकिन अगर खतरनाक है। पूछते हैं कि देखता है, लेकिन वह काफी दूर की बात पकड़ लेता है। सारी अगर हम परमात्मा ही हैं...। वह अगर ही मिटाने के लिए खोज वैज्ञानिक खोजें इंद्रियों का परिष्कार हैं। विज्ञान का जगत इंद्रियों का | की जरूरत है। वह जो यदि लगा हुआ है, वही तो उपद्रव है। जगत है। सारा संसार इंद्रियों से जुड़ा हुआ है।
लेकिन इससे एक उपद्रव पैदा होता है कि आप परमात्मा को भी उन मित्र ने यह भी पूछा है कि परमात्मा को पा लेने खोजने इन्हीं इंद्रियों के रास्ते से चले जाते हैं। यह गलती वैसे ही है, से ही क्या होगा, जब वह मिला ही हुआ है? जैसे कोई आदमी आंखों से संगीत सुनने की कोशिश करने लगे। आंखें देख सकती हैं, सुन नहीं सकतीं। और कितनी ही सबल | कुछ भी नहीं होगा, सिर्फ खोज मिट जाएगी। और खोज मिटते आंख हो, तो भी नहीं सुन सकती। सुनने का काम आंख से नहीं हो ही पीड़ा मिट जाती है, दौड़ मिट जाती है। और जब तक उसे नहीं सकता। सुनने का काम कान से होगा। और कान अगर देखने की पा लिया है, खोज जारी रहेगी। कोशिश करने लगे, तो फिर मुसीबत होगी, पागलपन पैदा होगा।
इंद्रियां बाहर का मार्ग हैं, उनसे भीतर की खोज नहीं हो सकती। एक और मित्र ने पूछा है कि अगर आदमी ही इंद्रियां पदार्थ से जोड़ देती हैं, उनका परमात्मा से जुड़ना नहीं हो परमात्मा है, अगर उसके भीतर ही वह छिपा है, तो सकता। यह उनकी सीमा है। जैसे आंख देखती है, यह उसकी | मिल क्यों नहीं जाता? अड़चन क्यों है? सीमा है। इसमें कोई कसूर नहीं है। .. इंद्रियां बाह्य ज्ञान के साधन हैं। और वह जो छिपा है, वह जो अड़चन इसलिए है कि यह भी चेतना की सामर्थ्य है कि वह चाहे आप हैं, वह भीतर है। उसे खोजना हो, तो इंद्रियों के द्वार बंद करके तो अपने को विस्मरण कर दे। और यह भी चेतना की सामर्थ्य है भीतर डूब जाना होगा। इंद्रियों के सेतु छोड़ देने होंगे। इंद्रियों के कि वह चाहे तो अपने को स्मरण कर ले। जरा जटिल है। चेतना रास्तों से लौटकर अपने भीतर ही खड़े हो जाना होगा।
का अर्थ ही होता है कि जिसे स्मरण और विस्मरण की शक्ति हो। इस भीतर खड़े हो जाने का नाम अध्यात्म है। और भीतर जो और दोनों शक्तियां साथ होती हैं। खड़ा हो जाता है, वह पाता है कि जिसे मैंने कभी न खोया था, उसे __ अगर कोई आदमी कहता है कि मुझे सिर्फ स्मरण की शक्ति है, मैं खोज रहा था। जिससे मेरा कभी बिछुड़ना न हुआ था, उसके | विस्मरण की नहीं है, तो आप भरोसा मत करना। क्योंकि जो भूल मिलन के लिए मैं परेशान हो रहा था। जो सदा ही पास था, उसे मैं | नहीं सकता, वह याद भी नहीं कर सकता। भूलना और याद करना दूर-दूर तलाश रहा था। और दूर-दूर तलाशने की वजह से उसे नहीं साथ-साथ है। वही याद कर सकता है, जो भूल भी सकता है। जो पा रहा था। नहीं पा रहा था, तो और परेशान हो रहा था। और | भूल सकता है, वही याद भी कर सकता है। परेशान हो रहा था, तो और दूर खोज रहा था। ऐसे खोज एक | तो आप सोचते हैं कि आपके भीतर जो स्मृति की शक्ति है, विशियस सर्किल, एक दुष्टचक्र बन जाती है।
| मेमोरी की, वह विस्मरण पर खड़ी है। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि
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