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गीता दर्शन भाग-6
धंधा छोड़कर शराब ही बेचने का धंधा कर लें।
सुना है मैंने, एक गांव में एक बहुत बड़ा कंजूस धनपति था। उससे कभी कोई दान मांगने में सफल नहीं हो पाया था । और गांव में बड़ी तकलीफ थी। कोई प्लेग फैल गई थी। कोई बीमारी आ गई | थी। तो मजबूरी की वजह से दान मांगने लोग उसके घर भी गए। उन्होंने दान की प्रशंसा में बहुत बातें कहीं। और उन्होंने कहा कि दान से बड़ा धर्म जगत में दूसरा नहीं है। और यह समय ऐसी असुविधा का है कि आप जरूर कुछ दान करें।
उस कंजूस ने कहा कि मुझे दान के संबंध में थोड़ा और समझाओ। जो चंदा मांगने आए थे, बड़े प्रसन्न हुए, क्योंकि यह बड़ा शुभ लक्षण था। क्योंकि पहले तो वह दरवाजा ही नहीं खोलता था। भीतर भी आ जाए कोई दान मांगने, तो तत्काल बाहर निकालता था। उसने कहा कि बैठो प्रेम से। मुझे जरा दान के संबंध में और थोड़ा समझाओ।
उन्होंने कहा, कुछ आशा है। यह पहला मौका था कि उसने दान मांगने वालों को इतने प्रेम से बिठाया। फिर तो उसने पानी वगैरह भी बुलाकर पिलाया । और कहा कि जरा और, मुझे दान के संबंध में पूरा ही समझा दो। वे समझे कि अब कोई दिक्कत नहीं रही। कहीं और दान मांगने न जाना पड़ेगा। सभी कुछ यह आदमी दे देगा | इसके पास इतना है कि यह अकेला भी काफी है गांव की बीमारी मुकाबले में ।
जब वे सारी बात कह चुके, तो उस कृपण कंजूस ने कहा कि मैं तुम्हारी बात से इतना प्रभावित हो गया हूं कि जिसका कोई हिसाब नहीं! तो उन्होंने कहा, अब आपका क्या इरादा है ? दान मांगने वाले एकदम मुंह बा के बोले कि अब आपका क्या इरादा है ? उसने कहा, इरादा क्या ! मैं भी तुम्हारे साथ दान मांगने चलता हूं। जब दान इतनी बड़ी चीज है, तो मैं भी लोगों को समझाऊंगा ।
कृष्ण कह रहे हैं कि दंभाचरण ज्ञानी का लक्षण नहीं है। आप पूछ रहे हैं कि कई दंभाचरणी हैं, उनका कैसे पता लगाएं? कृष्ण का उनसे कुछ लेना-देना नहीं है। कृष्ण आपसे कह रहे हैं।
और आप दूसरे का पता लगाएंगे कैसे? पहले तो कोई जरूरत नहीं है। दूसरा अपने दंभ के लिए कष्ट खुद पाएगा; आप कष्ट नहीं पाएंगे। अपने दंभ के कारण दूसरा नरक में जाएगा; आपको नहीं जाना पड़ेगा। अपने दंभ के कारण दूसरे के स्वर्ग का द्वार बंद होगा; आपका द्वार बंद नहीं होगा। आप क्यों परेशान हैं? दूसरा दंभी है या नहीं, यह उसकी चिंता है। आप कृपा करें और अपनी चिंता करें।
| अपने पर थोड़ी कृपा करनी जरूरी है।
फिर अगर आप पता लगाना भी चाहें, तो लगाने का कोई उपाय नहीं है। जब तक कि आप पूरी तरह दंभ-शून्य न हो जाएं, तब तक | आप दूसरे में दंभ है या नहीं, इसका कोई पता नहीं लगा सकते। क्योंकि आपका जो दंभ है, वह व्याख्या करेगा। आपके भीतर जो दंभ बैठा है, वह व्याख्या करेगा। आपके भीतर जो अहंकार है, उसके कारण आप दूसरे में भी कुछ देख लेंगे, जो दूसरे में शायद न भी हो ।
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समझें ऐसा, कि अगर आप कृष्ण के पास खड़े हों दंभ से भरे हुए, तो आपको कृष्ण की बातें बहुत दंभपूर्ण मालूम होंगी। कृष्ण अर्जुन से कहते हैं, सब छोड़कर मेरी शरण आ। अब इससे ज्यादा अहंकार की और क्या बात हो सकती है ! सब छोड़ - सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज – सब धर्म - वर्म छोड़, मेरे चरण में आ जा, मेरी शरण आ जा।
अगर आप ईमानदारी से कहें; आप खड़े हों कृष्ण के पास, तो आप कहेंगे कि यह आदमी हद का अहंकारी है। इससे ज्यादा अहंकारी और कोई मिलेगा, जो अपने ही मुंह से अपने ही चरणों में आने का प्रचार कर रहा है !
आपके भीतर दंभ हो, तो कृष्ण का यह वचन दंभपूर्ण मालूम | होगा । और आपके भीतर दंभ न हो, तो कृष्ण का यह वचन | करुणापूर्ण मालूम होगा। यह सिर्फ करुणा है कृष्ण की कि वे अर्जुन से कह रहे हैं, तू व्यर्थ यहां-वहां मत भटक। और यहां जोर चरणों का नहीं है, यहां जोर समर्पण का है। लेकिन दंभी आदमी | को सुनाई पड़ेगा कि कृष्ण अपने पैरों का प्रचार कर रहे हैं कि मेरे | पैरों में आ जा। कृष्ण सिर्फ इतना कह रहे हैं उससे कि तू झुकना | सीख ले। पैरों में आना तो सिर्फ बहाना है। तू समर्पण की कला | सीख ले, तू झुक जा ।
लेकिन आपको दंभपूर्ण मालूम पड़ेगा। आपके भीतर का दंभ | होगा, तो अड़चन देगा। इसलिए जब तक आपके भीतर का अहंकार न मिट जाए, तब तक आप न जान पाएंगे कि कौन अहंकार - शून्य है, और कौन अहंकार - शून्य नहीं है।
पर इस चिंता में पड़ने की कोई भी जरूरत नहीं है। आप अपनी ही चिंता कर लें, पर्याप्त है। सदगुरुओं को सदगुरुओं पर छोड़ दें। | उनका नरक-स्वर्ग उनके लिए है। उनकी तकलीफें वे भोगेंगे। न तो उनके पुण्य में आप भागीदार हो सकते हैं, न उनके पाप में। आप सिर्फ अपने में ही भागीदार हो सकते हैं। आप अकेले हैं। और
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