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________________ ॐ गीता दर्शन भाग-60 ले जाता है मंजिल तक, उसको हम पकड़ लेते हैं। लेकिन तब वही | जाए तो बड़ा खतरनाक हो गया काम। रुग्ण हो गई बात। अब ये मंजिल में बाधा बन जाता है। और कहीं पहुंच ही नहीं सकते; सिर्फ नाव को ही ढोते रहेंगे। अब तो परम ध्यानियों ने कहा है कि तुम्हारा ध्यान उस दिन पूरा होगा, | | यह उस तरफ जाना भी बेकार हो गया। उससे तो अच्छा था कि जिस दिन ध्यान भी छूट जाएगा। जब तक ध्यान को पकड़े हो, तब पहले ही किनारे पर रहते। कम से कम मुक्त तो थे। यह सिर पर तक समझना कि अभी पहुंचे नहीं। बंधी हुई नाव तो न थी। अब ये सदा के लिए गुलाम हो गए। प्रार्थना तो उसी दिन पूरी होगी, जिस दिन प्रार्थना करना भी व्यर्थ __ अधार्मिक आदमी उस तरफ है किनारे पर। और तथाकथित हो जाएगा। जब तक प्रार्थना करना जरूरी है, तब तक फासला धार्मिक, जो पकड़ लेते हैं धर्मों की नावों को पागलपन से, वे भी मौजूद है। जब कोई नाव में बैठता है और नदी पार कर लेता है, तो | कहीं नहीं पहुंचते। आखिरी पड़ाव पर तो सभी कुछ छोड़ देना फिर नाव को भी छोड़कर आगे बढ़ जाता है। धर्म भी जब छूट जाता | पड़ता है। है, तभी परम धर्म में प्रवेश होता है। तो कृष्ण कहते हैं, चेतनता भी क्षेत्र, और धृति, ध्यान, धारणा तो अगर कोई आखिरी समय तक भी हिंदू बना है, तो अभी भी। तुम उसे भी छोड़ देना। समझना कि अभी पहुंचा नहीं। अगर आखिरी समय तक भी जैन | | जब हम ध्यान करते हैं, तो उसका अर्थ ही होता है कि हम किसी बना है, तो समझना कि अभी पहुंचा नहीं। क्योंकि जैन, हिंदू, | | चीज का ध्यान कर रहे हैं। जब हम ध्यान करते हैं, तो उसका अर्थ मुसलमान, ईसाई, नावें हैं। नदी से पार ले जाने वाली हैं। लेकिन ही होता है कि हम कुछ कर रहे हैं। जब हम ध्यान करते हैं, तो परमात्मा में प्रवेश के पहले नावें छोड़ देनी पड़ती हैं। मंजिल जब | | उसका अर्थ ही होता है कि हम अभी उस भीतर के मंदिर में नहीं आ गई, तो साधनों की क्या जरूरत रही? ' पहुंचे; अभी हम बाहर संघर्ष कर रहे हैं, सीढ़ियां चढ़ रहे हैं। लेकिन अगर हम आखिर तक भी नाव को पकड़े रहें और हो | । जिस दिन कोई भीतर के मंदिर में पहुंचता है, ध्यान करने की भी सकता है हमारा मन हमसे कहे, और बात ठीक भी लगे, कि जिस कोई जरूरत नहीं रह जाती। क्या आवश्यकता है ध्यान की? जब नाव ने इतने कठिन भवसागर को पार करवाया, उसको कैसे बीमारी छूट गई, तो औषधि को रखकर कौन चलता है ? और अगर छोड़ें तो फिर हम नाव में ही बैठे रह जाएंगे, तो नाव की भी कोई औषधि को रखकर चलता हो. तो समझना कि बीमारी भला मेहनत व्यर्थ गई। हमें इस पार तो ले आई, लेकिन हम किनारे उतर | | छूट गई, अब औषधि बीमारी हो गई। अब ये औषधि को ढो रहे नहीं सकते, नाव को पकड़े हुए हैं। हैं। पहले ये बीमारी से परेशान थे, अब ये औषधि से परेशान हैं। बुद्ध कहते थे कि एक बार कुछ नासमझ, या समझें बड़े मैं एक संत के आश्रम में मेहमान था। उनके भक्त कहते थे कि समझदार, नदी पार किए। तो जिस नाव में उन्होंने नदी पार की, वे परम ज्ञान को उपलब्ध हो गए हैं। जब भक्त कहते थे, तो मैंने उतरकर किनारे पर उन सब ने सोचा कि इस नाव की बड़ी कृपा है। कहा कि जरूर हो गए होंगे। अच्छा ही है। कोई परम ज्ञान को और इस नाव को हम कैसे छोड़ सकते हैं! तो दो ही उपाय हैं, या | | उपलब्ध हो जाए, इससे अच्छा कुछ भी नहीं है। तो हम नाव में ही बैठे रहें, और या फिर नाव को हम अपने कंधों | | लेकिन सुबह मैंने देखा, पूजा-पाठ में वे लगे हैं। तो दोपहर मैंने पर ले लें, अपने सिर पर रख लें और यात्रा आगे चले। तो उन्होंने | उनसे पूछा कि अगर आप पूजा-पाठ छोड़ दें, तो कुछ हर्ज है? तो नाव को अपने सिर पर उठा लिया। उन्होंने कहा, आप भी कैसी नास्तिकता की बात कर रहे हैं! फिर जब वे गांव से निकलते थे, गांव के लोग बहुत हैरान हुए। पूजा-पाठ, और मैं छोड़ दूं! अगर पूजा-पाठ छोड़ दूं, तो सब नष्ट उन्होंने पूछा कि यह तुम क्या कर रहे हो? हमने कभी नाव को लोगों ही हो जाएगा। के सिर पर नहीं देखा! तो उन्होंने कहा कि तुम अकृतज्ञ लोग हो। | तो पूजा-पाठ छोड़ने से अगर सब नष्ट हो जाएगा, तो फिर कुछ तुम्हें पता नहीं, इस नाव की कितनी अनुकंपा है। इसने ही हमें नदी मिला नहीं है। तब तो यह पूजा-पाठ पर ही निर्भर है सब कुछ। तब पार करवाई। अब कुछ भी हो जाएं, हम इस नाव को नहीं छोड़ | कोई ऐसी संपदा नहीं मिली, जो छीनी न जा सके। पूजा-पाठ बंद सकते। अब हम इसको सिर पर लेकर चलेंगे। होने से छिन जाएगी, अगर यह भय है, तो अभी कुछ मिला नहीं जिस नाव ने नदी पार करवाई, वह नाव अगर सिर पर सवार हो । है। अगर नाव छिनने से डर लगता हो, तो आप अभी उस किनारे 216
SR No.002409
Book TitleGita Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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