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क्षेत्रज्ञ अर्थात निर्विषय, निर्विकार चैतन्य
शांति में तुझे यह भी पता नहीं चलेगा कि मैं शांत हूं। जब तक आपको पता चलता है कि मैं शांत हूं, तब तक अशांत होने की क्षमता कायम है। जब तक आपको पता चलता है कि बड़े आनंद में हूं, तब तक आप किसी भी क्षण दुख में गिर सकते हैं। जब तक आपको पता चलता है, मैंने ईश्वर को जान लिया, ईश्वर से आप छूट सकते हैं। जिस चीज का भी बोध है, उसका अबोध हो सकता है।
आखिरी शांति तो उस क्षण घटित होती है, जब आपको यह भी पता नहीं चलता कि मैं शांत हूं। यह पता चलता ही नहीं कि मैं । अशांत हूं, यह भी पता नहीं चलता कि मैं शांत हूं।
असली ज्ञान तो उस समय घटित होता है, जब आपको यह तो खयाल मिट ही जाता है कि मैं अज्ञान हूं, यह भी खयाल मिट जाता है कि मैं ज्ञान हूं।
सुना है मैंने, ईसाइयत में एक बहुत बड़ा फकीर हुआ, संत फ्रांसिस । बड़ी मीठी कथा है कि संत फ्रांसिस जब ज्ञान को उपलब्ध हुआ, जब उसे परम बोध हुआ, तो पक्षी इतने निर्भय हो गए कि पक्षी उसके कंधों पर आकर बैठने लगे, उसके सिर पर आकर बैठने लगे। नदी के किनारे से निकलता, तो मछलियां छलांग लगाकर उसका दर्शन करने लगतीं। वृक्षों के पास बैठ जाता, तो जंगली जानवर आकर उसके निकट खड़े हो जाते, उसको चूमने लगते।
यह बात बड़ी मीठी है। और निश्चित ही, जब कोई बहुत शांत हो जाए, , और बहुत आनंद से भर जाए, तो उसके प्रति दूसरे का जो भय है, वह कम हो जाएगा। यह घट सकता है।
लेकिन इधर मैं पढ़ रहा था, एक जापान में फकीर महिला हुई, उसका जीवन | उसके जीवन की कथा के अंत में एक बात कही गई है, जो बड़ी हैरान करने वाली है, पर बड़ी मूल्यवान है और कृष्ण की बात को समझने में सहयोगी होगी।
उस फकीर महिला के संबंध में कहा गया है कि जब वह अज्ञानी थी, तब कोई. पक्षी उसके पास नहीं आते थे। जब वह ज्ञानी हो गई, तो पक्षी उसके कंधों पर आकर बैठने लगे। सांप भी उसके पास गोदी में आ जाता। जंगली जानवर उसके आस-पास उसे घेर लेते। लेकिन जब वह परम ज्ञान को उपलब्ध हो गई, तो फिर पक्षियों ने आना बंद कर दिया। सांप उसके पास न आते, जानवर उसके पास न आते। जब वह अज्ञानी थी, तब भी नहीं आते थे; जब ज्ञानी हो गई, तब आने लगे; और जब परम ज्ञानी हो गई, तब फिर बंद हो गए।
तो लोगों ने उससे पूछा कि क्या हुआ ? क्या तेरा पतन हो गया ?
बीच में तो तेरे पास इतने पक्षी आते थे। अब नहीं आते ? वह हंसने लगी। उसने तो कोई उत्तर न दिया। लेकिन उसके निकट उसको जानने वाले जो लोग थे, उन्होंने कहा कि जब तक उसे ज्ञान का बोध था, तब तक पक्षियों को भी पता चलता था कि वह ज्ञानी है। अब उसका वह भी बोध खो गया। अब उसे खुद ही पता नहीं है कि वह है भी या नहीं। तो पक्षियों को क्या पता चलेगा! जब उसे खुद ही पता नहीं चल रहा है।
तो झेन में कहावत है कि जब आदमी अज्ञानी होता है और जब आदमी परम ज्ञानी हो जाता है, तब बहुत-सी बातें एक-सी हो जाती हैं, बहुत-सी बातें एक-सी हो जाती हैं। क्योंकि अज्ञान में ज्ञान नहीं था। और परम ज्ञान में ज्ञान है, इसका पता नहीं होता। बीच में ज्ञान की एक घड़ी आती है।
वह ज्ञान की घड़ी यही है। तीन अवस्थाएं - एक तो हम पदार्थ के साथ अपना तादात्म्य किए हैं, शरीर के साथ जुड़े हैं कि मैं शरीर हूं, मैं इंद्रियां हूं। यह एक जगत अज्ञान का। फिर एक बोध का जगत, कि मैं शरीर नहीं हूं, मैं इंद्रियां नहीं हूं। मगर यह भी शरीर बंधा है।
यह मैं शरीर नहीं हूं, यह भी शरीर से ही जुड़ा है। यह मैं इंद्रियां नहीं हूं, यह भी तो इंद्रियों के साथ ही जुड़ा हुआ संबंध है। कल जानते थे कि मैं इंद्रियां हूं, अब जानते हैं कि मैं इंद्रियां नहीं हूं, लेकिन दोनों के केंद्र में इंद्रियां हैं। कल तक समझते थे कि मैं शरीर हूं, अब समझते हैं कि शरीर नहीं हूं। लेकिन दोनों के बीच में शरीर है। ये दोनों ही बोध शरीर से बंधे हैं।
फिर एक तीसरी घटना घटती है, जब यह भी पता नहीं रह जाता कि मैं शरीर हूं या शरीर नहीं हूं। जब कुछ भी पता नहीं रह जाता। शरीर की मूर्च्छा तो छूट ही जाती है, वह जो मध्य में आई हुई चेतना | का ज्वार था, वह भी खो जाता है। शरीर से पैदा होने वाले दुख से तो छुटकारा हो जाता है, लेकिन फिर शरीर से छूटकर जो सुख | मिलते थे, उनसे भी छुटकारा हो जाता है। और एक परम शांत, परम मौन, न जहां ज्ञान है, न जहां ज्ञाता है, न जहां ज्ञेय है, ऐसी
शून्य अवस्था आ जाती है। इस शून्य अवस्था में ही क्षेत्रज्ञ, वह जो अंतिम छिपा है, वह प्रकट होता है।
न तो मैं चेतनता, न धृति। ध्यान भी नहीं । धृति का अर्थ है, ध्यान, धारणा ।
यह थोड़ा खयाल में ले लेना जरूरी है, क्योंकि बहुत बार हम सीढ़ियों से जकड़ जाते हैं। बहुत बार ऐसा हो जाता है कि जो हमें
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