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गीता काव्य है, इसलिए एक-एक
शब्द को, जैसे हम काव्य को
समझते हैं, वैसे समझना होगा; कठोरता से नहीं, काट-पीट से नहीं, बड़ी श्रद्धा और बड़ी सहानुभूति से; एक दुश्मन की तरह नहीं, एक प्रेमी की तरह; तो ही रहस्य खलेगा,और तो ही आप उस रहस्य के साथ आत्मसात हो पाएंगे।
जो भी कहा है, वे केवल प्रतीक हैं। उन प्रतीकों को आप याद कर सकते हैं; गीता कंठस्थ हो सकती है; पर जो कंठ में है, उसका कोई भी मूल्य नहीं, क्योंकि कंठ शरीर का ही हिस्सा है। जब तक आत्मस्थ न हो जाए, जब तक ऐसा न हो जाए कि आप गीता के अध्येता हो जाएं, गीता का वचन न रहे बल्कि आपका वचन हो जाए। जब तक आपको ऐसा न लगने लगे कि कृष्ण मैं हो गया हूं, और जो बोला जा रहा है वह मेरी अंतर-अनुभूति की ध्वनि है, वह मैं ही हूं, वह मेरा ही फैलाव है—तब तक गीता पराई ही रहेगी; तब तक दूरी रहेगी, द्वैत बना रहेगा;
और जो भी समझ होगी गीता की, वह बौद्धिक होगी। उससे आप पंडित तो हो सकते है, प्रज्ञावान नहीं।
-ओशो