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अहंकार घाव है
लड़ने के पहले ही हार जाता हूं। मैं हारा ही हुआ हूं। निरहंकार का अर्थ है कि जो कहता है, हमने तुम्हारे लड़ने की नासमझी, विजय की मूढ़ता, तुम्हारा संघर्ष, तुम्हारी महत्वाकांक्षा, इसका पागलपन अच्छी तरह समझ लिया और अब हम इसमें सम्मिलित नहीं हैं। निरहंकार सफल नहीं होना चाहता ।
इसका यह मतलब नहीं है कि वह सफल होगा नहीं। बारीक फासले हैं। निरहंकार सफल नहीं होना चाहता, लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि वह सफल नहीं होगा। वही सफल होता है। लेकिन उसकी सफलता की यात्रा का पथ बिलकुल दूसरा है।
लोग धन इकट्ठा कर लेते हैं बाहर का । निरहंकारी भीतर के धन को उपलब्ध हो जाता है। लोग बाहर की विजय इकट्ठी कर लेते हैं। निरहंकारी भीतर उस जगह पहुंच जाता है, जहां कोई हार संभव नहीं है। लोग जीवन के लिए सामान जुटा लेते हैं, निरहंकारी जीवन को ही पा लेता है। लोग क्षुद्र को इकट्ठा करने में समय व्यतीत कर देते हैं, लड़ते हैं, झगड़ते हैं; निरहंकारी विराट से जुड़ जाता है।
निरहंकार की सफलता अदभुत है। लेकिन वह सफलता का आयाम दूसरा है। उसे कौड़ियों में, रुपए-पैसे में नहीं तौला जा सकता। इस संसार की सफलता से उस सफलता का कोई सीधा संबंध नहीं है। लेकिन इस संसार में भी निरहंकारी से ज्यादा शांत और आनंदित आदमी नहीं पाया जा सकता।
तो अगर आप सफल होना चाहते हैं, तो कृपा करके अहंकार के रास्ते पर ही चलें। अगर आपको सफलता की मूढ़ता दिखाई पड़ गई है कि सफल होकर भी कौन सफल हुआ है ? कौन नेपोलियन, कौन सिकंदर, कहां है? किसने क्या पा लिया है? अगर आपको . यह समझ में आ गया हो, तो सफलता शब्द को छोड़ दें। वह अज्ञानपूर्ण है। बच्चों के लिए शोभा देता है। आप सफलता की बात ही छोड़ दें।
किसी से आगे होने का मतलब भी क्या है? और आगे होकर भी क्या करिएगा? आगे ही क्यू में खड़े हो गए, तो वहां है क्या?
आगे खड़े हो जाते हैं, बड़ी मुश्किल में पड़ जाते हैं। क्योंकि फिर उनको तकलीफ यह होती है कि अब क्या करें!
सिकंदर से किसी ने कहा था कि अगर तू सारी दुनिया जीत लेगा, तो कभी सोचा है कि फिर क्या करेगा! तो सिकंदर एकदम उदास हो गया था और उसने कहा कि नहीं, मुझे यह खयाल नहीं आया। लेकिन तुम ऐसी बात मत करो। इससे मन बड़ा उदा होता है। कि अगर मैं सारी दुनिया जीत लूंगा, तो कोई दूसरी दुनिया
तो है नहीं। तो फिर मैं क्या करूंगा !
पूछें राष्ट्रपतियों से, प्रधानमंत्रियों से कि जब वे क्यू के आगे पहुंच जाते हैं, तो वहां कोई बस भी नहीं जिस पर सवार हो जाएं। वहां कुछ भी नहीं है। बस, क्यू के आगे खड़े हैं। और पीछे से लोग धक्का दे रहे हैं, क्योंकि वे आगे आने की कोशिश कर रहे हैं।
और वह जो आगे आ गया है, उसकी हालत ऐसी हो जाती है कि अब वह यह भी नहीं कह सकता कि अपनी पूंछ कट गई; यहां | आकर कुछ मिला नहीं। और अब पीछे लौटने में भी बेचैनी मालूम पड़ती है कि अब क्यू में कहीं भी खड़ा होना बहुत कष्टपूर्ण होगा। | इसलिए वह कोशिश करता है कि जमा रहे वहीं ।
लेकिन वह अकेला ही तो नहीं है। सारी दुनिया वहीं पहुंचने की कोशिश कर रही है। तो पीछे धक्के हैं ! लोग टांग खींच रहे हैं। सब | उतारने की कोशिश में लगे हैं। सब मित्र भी शत्रु हैं वहां । क्योंकि वे जो आस-पास खड़े हैं, वे सब वहीं पहुंचना चाह रहे हैं।
इसलिए राजनीतिज्ञ का कोई दोस्त नहीं होता । हो नहीं सकता। सब मित्र शत्रु होते हैं। मित्रता ऊपर-ऊपर होती है, भीतर शत्रुता होती है। क्योंकि वे भी उसी जगह के लिए, क्यू में नंबर एक आने की कोशिश में लगे हैं।
इसलिए राजनीतिज्ञ को जितना अपने शत्रुओं से सावधान रहना पड़ता है, उससे ज्यादा अपने मित्रों से। क्योंकि शत्रु तो काफी दूर | रहते हैं, उनके आने में काफी वक्त लगता है। उतनी देर में कुछ | तैयारी हो सकती है। मित्र बिलकुल करीब रहते हैं। जरा-सा धक्का और वे छाती पर सवार हो जाएंगे। तो उनको ठिकाने पर रखना पड़ता है चौबीस घंटे।
तो प्राइम मिनिस्टर्स का काम इतना है कि अपने कैबिनेट के मित्रों को ठिकाने पर रखे । कि कोई भी जरा ज्यादा न हो जाए ! और जरा ज्यादा अकड़ न दिखाने लगे, और जरा तेजी में न आ जाए कोई । | तेजी में आया, तो उसको दुरुस्त करना एकदम जरूरी है। क्योंकि वह वही काम कर रहा है, जो कि पहले इन सज्जन ने किया था!
तो यह जो मूढ़ता है, जिसको दिखाई पड़ जाए - चाहे धन का हो, चाहे पद का हो, चाहे यश का हो - जिसको यह मूढ़ता दिखाई पड़ जाए कि यह विक्षिप्तता है, कि पहले पहुंचकर करिएगा क्या ! तो आदमी निरहंकार की यात्रा पर चलता है।
निरहंकार सफलता-असफलता की व्यर्थता का बोध है। लेकिन तब सफलता होती है। पर वह आंतरिक है। हो सकता है, इस जगत में उसका कोई मूल्यांकन भी न हो । बुद्ध को कितनी सफलता
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