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ॐ अकस्मात विस्फोट की पूर्व-तैयारी ®
पड़ने लगता है।
| से छूटने के उपाय को जो पुरुष ज्ञान-नेत्रों द्वारा तत्व से जानते हैं, खतरा एक ही है कि जब भीतर का दीया हमारा जलता है और वे महात्माजन परम ब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होते हैं। हमें चीजें दिखाई पड़ने लगती हैं, तो हम चीजों को स्मरण रख लेते | क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के भेद को...। हैं और जिसमें दिखाई पड़ती हैं, उसे भूल जाते हैं। यही विस्मरण | बहुत बारीक भेद है और जरा में भूल जाता है। क्योंकि जिसे हम संसार है। जो दिखाई पड़ता है, उसे पकड़ने दौड़ पड़ते हैं। और | | देख रहे हैं, उसे देखना आसान है। और जो देख रहा है, उसे देखना जिसमें दिखाई पड़ता है, उसका विस्मरण हो जाता है। मुश्किल है। अपने को ही देखना मुश्किल है। इसलिए बार-बार
जिस चैतन्य के कारण हमें सारा संसार दिखाई पड़ रहा है, उस | दृष्टि पदार्थों पर अटक जाती है। बार-बार कोई विषय, कोई चैतन्य को हम भूल जाते हैं। और वह जो दिखाई पड़ता है, उसके | | वासना, कुछ पाने की आकांक्षा पकड़ लेती है। चारों तरफ बहुत पीछे चल पड़ते हैं। इसी यात्रा में हम जन्मों-जन्मों भटके हैं। कुछ है।
कृष्ण कहते हैं सूत्र इससे जागने का। वह सूत्र है कि हम उसका गुरजिएफ कहा करता था कि जो व्यक्ति सेल्फ रिमेंबरिंग, स्मरण करें, जिसको दिखाई पड़ता है। जो दिखाई पड़ता है, उसे | | स्व-स्मृति को उपलब्ध हो जाता है, उसे फिर कुछ पाने को नहीं रह भूलें। जिसको दिखाई पड़ता है, उसको स्मरण करें। विषय भूल | | जाता। साक्रेटीज ने कहा है कि स्वयं को जान लेना सब कुछ है; जाए, और वह जो भीतर बैठा हुआ द्रष्टा है, वह स्मरण में आ सब कुछ जान लेना है। जाए। यह स्मृति ही क्षेत्रज्ञ में स्थापित कर देती है। यह स्मृति ही क्षेत्र | | मगर यह स्वयं को जानने की कला है। और वह कला है, क्षेत्र से तोड़ देती है।
| और क्षेत्रज्ञ का भेद। वह कला है, सदा जो दिखाई पड़ रहा है, उससे यह सारा विचार कृष्ण का इन दो शब्दों के बीच चल रहा है, क्षेत्र । | अपने को अलग कर लेना। इसका अर्थ गहरा है। 'और क्षेत्रज्ञ।
है वह, और वह जो जाना जाता | इसका अर्थ यह है कि आपको मकान दिखाई पडता है तो है। जाना जो जाता है, वह संसार है। और जो जानता है, वह अलग कर लेने में कोई कठिनाई नहीं है। लेकिन आपको अपना परमात्मा है।
शरीर भी दिखाई पड़ता है। यह हाथ मुझे दिखाई पड़ता है। तो जिस यह परमात्मा अलग-अलग नहीं है। यह हम सबके भीतर एक | | हाथ को मैं देख रहा हूं, निश्चित ही उस हाथ से मैं अलग हो गया। है। लेकिन हमें अलग-अलग दिखाई पड़ता है, क्योंकि हम भीतर और तब आंख बंद करके कोई देखे, तो अपने विचार भी दिखाई तो कभी झांककर देखे नहीं। हमने तो केवल शरीर की सीमा देखी | पड़ते हैं। अगर आंख बंद करके शांत होकर देखें, तो आपको
| दिखाई पड़ेगी विचारों की कतार ट्रैफिक की तरह चल रही है। एक मेरा शरीर अलग है। आपका शरीर अलग है। स्वभावतः, वृक्ष | | विचार आया, दूसरा विचार आया, तीसरा विचार आया। भीड़ लगी का शरीर अलग है। तारों का शरीर अलग है। पत्थर का शरीर | है विचारों की। इनको भी अगर आप देख लेते हैं, तो इसका मतलब अलग है। तो शरीर हमें दिखाई पड़ते हैं, इसलिए खयाल होता है हुआ कि ये भी क्षेत्र हो गए। कि जो भीतर छिपा है. वह भी अलग है।
जो भी देख लिया गया, वह मुझसे अलग हो गया—यह सूत्र एक बार हम अपने भीतर देख लें और हमें पता चल जाए कि है साधना का। जो भी मैं देख लेता है. वह मैं नहीं हैं। और मैं उसकी शरीर में जो छिपा है, शरीर से जो घिरा है, वह अशरीरी है। पदार्थ तलाश करता रहूंगा, जिसको मैं देख नहीं पाता और हूं। उसका मुझे जिसकी सीमा बनाता है, वह पदार्थ नहीं है। सब सीमाएं टूट गईं। पता उसी दिन चलेगा, जिस दिन देखने वाली कोई भी चीज मेरे फिर सब शरीर खो गए। फिर सब आकृतियां विलुप्त हो गईं और सामने न रह जाए। निराकार का स्मरण होने लगा। इस सूत्र में उसी निराकार का संसार से आंख बंद कर लेनी बहुत कठिन नहीं है। आंख बंद स्मरण है।
| हो जाती है, संसार बंद हो जाता है। लेकिन संसार के प्रतिबिंब हे अर्जुन, जिस प्रकार एक ही सूर्य संपूर्ण लोक को प्रकाशित । भीतर छूट गए हैं, वे चलते रहते हैं। फिर उनसे भी अपने को तोड़ करता है, उसी प्रकार एक ही आत्मा संपूर्ण क्षेत्र को प्रकाशित करता | लेना है। और तोड़ने की कला यही है कि मैं आंख गड़ाकर देखता है। इस प्रकार क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के भेद को तथा विकारयुक्त प्रकृति रहूं, सिर्फ देखता रहूं। और इतना ही स्मरण रखू कि जो भी मुझे
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