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________________ ॐ गीता दर्शन भाग-60 अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च। हमें थोड़ा-थोड़ा पता है। नौ हिस्सा मन का भी हमें पता नहीं है। निर्ममो निरहंकारः समदुःखसुखः क्षमी ।। १३ ।। | मन भी अभी ज्ञात नहीं है। अभी सीमित को भी हम नहीं जान पाए संतुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चयः । हैं, तो असीम को जानने में कठिनाई होगी। मय्यर्पितमनोबुद्धियों मद्भक्तः स मे प्रियः ।। १४ ।। निराकार शब्द तो खयाल में आ जाता है, लेकिन अर्थ बिलकुल इस प्रकार शांति को प्राप्त हुआ जो पुरुष सब भूतों में | खयाल में नहीं आता। अगर कोई आपसे कहे, यह जो आकाश है, द्वेषभाव से रहित एवं स्वार्थरहित सबका प्रेमी और हेतुरहित | अनंत है, तो भी मन में ऐसा ही खयाल बना रहता है कि कहीं न दयालु है तथा ममता से रहित एवं अहंकार से रहित और | कहीं जाकर समाप्त जरूर होता होगा। कितनी ही दूर हो वह सीमा, सुख-दुखों की प्राप्ति में सम और क्षमावान है अर्थात लेकिन कहीं समाप्त जरूर होता होगा। समाप्त होता ही नहीं है, यह अपराध करने वालों को भी अभय देने वाला है तथा जो बात मन को बिगूचन में डाल देती है; मन घबड़ा जाता है। मन योग में युक्त हुआ योगी निरंतर लाभ-हानि में संतुष्ट है विक्षिप्त होने लगता है, अगर कोई भी सीमा न हो। मन की तथा मन और इंद्रियों सहित शरीर को वश में किए हुए मेरे तकलीफ है। में दृढ़ निश्चय वाला है, वह मेरे में अर्पण किए हुए | मन की व्यवस्था सीमा को समझने के लिए है। इसलिए निराकार मन-बुद्धि वाला मेरा भक्त मेरे को प्रिय है। | को पकड़ना कठिन हो जाता है। सुना है मैंने, एक सम्राट अपने एक प्रतिद्वंद्वी को, जिससे प्रतिद्वंद्विता थी एक प्रेयसी के लिए, द्वंद्व में उतरने की स्वीकृति दे पहले कुछ प्रश्न। एक मित्र ने पूछा है कि निराकार | दिया। द्वंद्व का समय भी तय हो गया। कल सुबह छः बजे गांव के की साधना इतनी कठिन क्यों है? बाहर एकांत निर्जन में वे अपनी-अपनी पिस्तौल लेकर पहुंच जाएंगे। और दो में से एक ही बचकर लौटेगा। तो प्रेयसी की कलह और झगड़ा शेष न रहेगा। नराकार शब्द भी समझ में नहीं आता। निराकार शब्द सम्राट तो पहुंच गया ठीक समय पर; समय से पूर्व; लेकिन IUI भी हमारे मन में आकार का ही बोध देता है। असीम दूसरा प्रतिद्वंद्वी समय पर नहीं आया। छः बज गया। छः दस बज ___भी हम कहते हैं, तो ऐसा लगता है, उसकी भी सीमा | गए; छ: पंद्रह, छः बीस-बेचैनी से प्रतीक्षा रही। तब एक होगी-बहुत दूर, बहुत दूर-लेकिन कहीं उसकी भी सीमा होगी। | घुड़सवार दौड़ता हुआ आया प्रतिद्वंद्वी का एक टेलीग्राम, एक मन असीम का खयाल भी नहीं पकड़ सकता। मन का द्वार इतना | संदेश लेकर। छोटा है, सीमित है कि उससे अनंत आकाश नहीं पकड़ा जा थोड़े से वचन थे उस टेलीग्राम में; लिखा था, अन-एवायडेबली सकता। इसलिए निराकार की साधना कठिन है। क्योंकि निराकार डिलेड, बट इट विल बी ए सिन टु डिसएप्वाइंट यू, सो प्लीज डोंट की साधना का अर्थ हुआ, मन को अभी इसी क्षण छोड़ देना पड़ेगा, | | वेट फार मी, शूट। अनिवार्य कारणों से देरी हो गई। न पहुंचूंगा, तो तो ही निराकार की तरफ गति होगी। आप निराश होंगे। इसलिए मेरी प्रतीक्षा मत करें, आप गोली चलाएं। मन से तो जो भी दिखाई पड़ेगा, वह आकार होगा। और मन से | लेकिन गोली किस पर चलाएं? जो उस राजा की अवस्था हो जहां तक पहुंच होगी, वह सीमा और गुण की होगी। मन के तराजू | | गई होगी, वही निराकार के साधक की होती है। किस पर? किसकी पर निराकार को तौलने का कोई उपाय नहीं है। जो तौला जा सकता | | पूजा? किसकी अर्चना? किसके चरणों में सिर झकाएं ? किसको है, वह साकार है। और हम मन से भरे हैं। हम मन ही हैं। मन के पुकारें? किस पर ध्यान करें? किसका मनन? किसका चिंतन ? अतिरिक्त हमारे भीतर कुछ है, इसका हमें कोई पता नहीं। कहते हैं कोई भी नहीं है वहां! वह राजा भी बिना गोली चलाए वापस लौट आत्मा की बात सुनते हैं, लेकिन आपको उसका कुछ पता नहीं आया होगा! है। पता तो मन का है। उसका भी पूरा पता नहीं है। निराकार का अर्थ है, वहां कोई भी नहीं है, जिससे आप संबंधित मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि दस में से केवल एक हिस्सा मन का हो सकें। और मनुष्य का मन संबंध चाहता है। आप अकेले हैं!
SR No.002409
Book TitleGita Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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