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गीता दर्शन भाग-6
अपने बस की बात नहीं है। साकार ही ठीक होगा। और जब साकार की बात उठती है, तो हम कहते हैं कि कैसे मानें कि परमात्मा का कोई आकार हो सकता है। तब बुद्धि विचार उठाने लगती है । और कैसे मानें कि परमात्मा की कोई देह हो सकती है। और कैसे मानें कृष्ण को कैसे मानें बुद्ध को कि ये भगवान हैं !
नहीं, मन मानने का नहीं होता। हमारे जैसी ही हड्डी, मांस, मज्जा है । हमारे जैसा ही शरीर है। हम जैसे ही जीते हैं, मर जाते हैं, तो कैसे मानें कि ये भगवान हैं! नहीं, इनको नहीं मान सकते। भगवान तो निराकार है।
जब साकार में उतरने का सवाल उठे, तब बुद्धि से हम निराकार की बात करते हैं। और जब निराकार में उतरना हो, तब हिम्मत नहीं जुती; तब हम साकार का सोचने लगते हैं। इसको मैं बेईमानी कहता हूं। और जो व्यक्ति इसको ठीक से नहीं पहचान लेता, वह जिंदगीभर ऐसे ही व्यर्थ शक्ति और समय को गंवाता रहता है।
सोच लें ठीक से कि आपकी सामर्थ्य क्या है, और अपनी सामर्थ्य के अनुसार चलें । परमात्मा कैसा है, इसकी फिक्र छोड़ें। आपसे कौन पूछ रहा है कि परमात्मा कैसा है! और आपके तय करने के लिए परमात्मा रुका नहीं है। और आप क्या तय करेंगे, इससे परमात्मा में कोई फर्क नहीं पड़ता है। आप मानें निराकार, मानें साकार, इससे परमात्मा में क्या फर्क पड़ेगा! आपकी मान्यता आप में फर्क पड़ेगा।
तो अपनी तरफ सोचें कि मैं जैसा मानूंगा, वैसा मानने से मुझमें क्या फर्क पड़ेगा !
एक मित्र एक पंद्रह दिन हुए मेरे पास आए। उन्होंने मुझसे कहा कि मैं आपको भगवान नहीं मान सकता। मैंने कहा, बिलकुल अच्छी बात है। बात खतम हो गई। अब क्या इरादा है ? तो उन्होंने कहा, मैं तो ज्यादा से ज्यादा आपको मित्र मान सकता हूं। मैंने कहा, यह भी बड़ी कृपा है! ऐसा आदमी भी खोजना कहां आसान है, जो किसी को मित्र भी मान ले ! यह भी बात पूरी हो गई। तब वे मुझसे कहने लगे कि मेरी सहायता करिए। मुझे शांति चाहिए, आनंद चाहिए, और मुझे परमात्मा का दर्शन चाहिए। आपकी कृपा हो, तो सब हो सकता है।
तो मैंने उनको पूछा कि एक मित्र की कृपा से यह कुछ भी नहीं हो सकता। मित्र की तो कृपा ही क्या हो सकती है! आप मुझसे मांग तो ऐसी कर रहे हैं, जो भगवान से हो सके ! कि आपको शांति दे दूं, आनंद दे दूं, सत्य का ज्ञान दे दूं । मांग तो आप ऐसी कर रहे हैं,
जो भगवान से हो सके। लेकिन किसी को भगवान मानने की मर्जी भी नहीं है। तो मित्र से जितना हो सकता है, उतना मैं करूंगा । और जिस दिन उतना चाहिए हो जितना भगवान से हो सकता है, उस दिन तैयारी कर के आना कि मैं भगवान हूं। तभी मांगना ।
मैं भगवान हूं या नहीं, यह बड़ा सवाल नहीं है। बड़ा सवाल यह है कि आप क्या चाहते हैं अपनी जिंदगी में ? क्या रूपांतरण | चाहते हैं? उसको ध्यान में रखें। यहां मेरे पास बहुत-से प्रश्न हैं कि कृष्ण को हम भगवान नहीं मान सकते! बुद्ध को हम भगवान नहीं मान सकते!
तुमसे कह कौन रहा है? तुम नाहक परेशान हो रहे हो। न कृष्ण तुमसे कह रहे हैं; न बुद्ध तुमसे कह रहे हैं। और तुम्हारे कहने पर उनका होना कोई निर्भर भी नहीं है। यह कोई वोट का मामला थोड़े ही है, कि आपकी वोट मिलेगी, तो कृष्ण भगवान हो पाएंगे !.
आप अकारण परेशान हैं। आप अपना सोचें कि कृष्ण से कितना लाभ लेना है! अगर कृष्ण से भगवान जैसा लाभ लेना है, तो भगवान मान लें। और न लेना हो, तो बात खतम हो गई। यह आपका ही लाभ और आपकी ही हानि और आपकी ही जिंदगी का सवाल है। इससे कृष्ण का कुछ लेना-देना नहीं है।
लेकिन लोग बड़े परेशान होते हैं। लोग दूसरों के लिए परेशान | हैं कि कौन क्या है ! इसकी बिलकुल चिंता नहीं है कि मैं अपनी फिक्र करूं, जिंदगी बहुत थोड़ी है।
एक बूढ़े सज्जन मेरे पास आए। और वे कहने लगे, एक ही | बात आपसे पूछनी है। सच में आप भगवान हैं? आपने ही दुनिया बनाई है ?
तो मैंने उनको कहा कि आप जरा पास आ जाएं। क्योंकि यह मामला जरा गुप्त है। और मैं सिर्फ कान में ही कह सकता हूं। और एक ही शर्त पर कि आप किसी और को मत बताना।
वे बड़ी प्रसन्नता से पास हट आए। बूढ़े भी बच्चों जैसे ही होते हैं। बुद्धि नहीं बढ़ती। उन्होंने कान मेरे पास कर दिया। मैंने उनसे कहा, बनाई तो मैंने ही है यह दुनिया। लेकिन दुनिया की हालत देख रहे हैं कितनी खराब है ! कि किसी से कह नहीं सकता हूं कि मैंने बनाई है। और आप किसी को बताना मत। वह जिसने बनाई है, वही फंस जाएगा ! हालत इतनी खराब है।
तो आपसे भगवान इसीलिए छिपा फिरता है कि अगर कहीं भी किसी ने कहा कि मैं हूं, तो आप गर्दन पकड़ लेंगे कि तुम ही हो ? यह | दुनिया तुम्हीं ने बनाई है? तो कौन जुर्मी होगा इस दुनिया के लिए!
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