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गीता दर्शन भाग-60
कामवासना में संभावना है प्रेम की। लेकिन कामवासना प्रेम नहीं तो शरीर है। हर व्यक्ति की तीन स्थितियां हैं। शरीर की भांति वह है। केवल बीज है। अगर ठीक-ठीक उपयोग किया जाए, तो पदार्थ है। मन की भांति वह व्यक्ति है, चेतन। और परमात्मा की अंकुरित हो सकता है। लेकिन बीज वृक्ष नहीं है।
भांति वह निराकार है, महाशून्य है, पूर्ण। इसलिए जो कामवासना से तृप्त हो जाए या समझ ले कि बस, काम, प्रेम, भक्ति, तीन कदम हैं। पर समझ लेना जरूरी है कि अंत आ गया, उसके जीवन में प्रेम का पता ही नहीं होता। | जब तक आप किसी के शरीर से आकृष्ट हो रहे हैं...। और ध्यान
कामवासना प्रेम बन सकती है। कामवासना का अर्थ है, दो रहे, आवश्यक नहीं है कि आप जीवित मनुष्यों के शरीर से ही शरीर के बीच आकर्षण; शरीर के बीच। प्रेम का अर्थ है, दो मनों | | आकृष्ट होते हों। यह भी हो सकता है कि कृष्ण की मूर्ति में आपको के बीच आकर्षण। और भक्ति का अर्थ है, दो आत्माओं के बीच कृष्ण का शरीर ही आकृष्ट करता हो, तो वह भी काम है। आकर्षण। वे सब आकर्षण हैं। लेकिन तीन तलों पर।
कृष्ण का सुंदर शरीर, उनकी आंखें, उनका मोर-मुकुट, उनके ___ जब एक शरीर दूसरे शरीर से आकृष्ट होता है, तो काम, | हाथ की बांसुरी, उनका छंद-बद्ध व्यक्तित्व, उनका अनुपात भरा सेक्स। और जब एक मन दूसरे मन से आकर्षित होता है, तो प्रेम, शरीर. उनकी नीली देह, वह अगर आपको आकर्षित करती हो. लव। और जब एक आत्मा दूसरी आत्मा से आकर्षित होती है, तो | तो वह भी काम है। वह भी फिर अभी प्रेम भी नहीं है; भक्ति भी भक्ति, श्रद्धा।
नहीं है। हम शरीर के तल पर जीते हैं। हमारे सब आकर्षण शरीर के | ___ और अगर आपको अपने बेटे के शरीर में भी, शरीर भूल जाता आकर्षण हैं। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि शरीर का आकर्षण | | हो और जीवन का स्पंदन अनुभव होता हो। खयाल ही न रहता हो बुरा है।
कि वह देह है, बल्कि इतना ही खयाल आता हो कि एक अभूतपूर्व शरीर का आकर्षण बुरा बन जाता है, अगर वह उससे ऊपर के | घटना है, एक चैतन्य की लहर है। ऐसी अगर प्रतीति होती हो, तो आकर्षण तक पहुंचने में बाधा डाले। और शरीर का आकर्षण | बेटे के साथ भी प्रेम हो गया। और अगर आपको अपने बेटे में ही सहयोगी हो जाता है, सीढ़ी बन जाता है, अगर वह ऊपर के | परमात्मा का अनुभव होने लगे, तो वह भक्ति हो गई। आकर्षण में सहयोगी हो।
किस के साथ पर निर्भर नहीं है भक्ति और प्रेम और काम। कैसा अगर आप किसी के शरीर की तरफ आकर्षित होकर धीरे-धीरे संबंध! आप पर निर्भर है। आप किस भांति देखते हैं और किस उसके मन की तरफ भी आकर्षित होने लगें, और किसी के मन के भांति आप गति करते हैं! प्रति आकर्षित होकर धीरे-धीरे उसकी आत्मा के प्रति भी आकर्षित | तो सदा इस बात को खयाल रखें, क्या आपको आकृष्ट कर रहा होने लगें, तो आपकी कामवासना विकृत नहीं हुई, ठीक मार्ग से है-देह, पदार्थ, आकार? चली और परमात्मा तक पहुंच गई।
__ पर इसका यह मतलब नहीं है कि मैं कह रहा हूं कि कुछ बुरा लेकिन किसी के शरीर पर आप रुक जाएं, तो ऐसा जैसे आप है। भला है। इतना भी है, यह भी क्या कम है! कुछ तो ऐसे लोग कहीं गए और किसी के घर के बाहर ही घूमते रहे और दरवाजे से | हैं, जिनको देह भी आकृष्ट नहीं करती। तो भीतर के आकर्षण का भीतर प्रवेश ही न किया। तो गलती घर की नहीं है; गलती आपकी | | तो कोई सवाल ही नहीं उठता। उन्हें कुछ आकृष्ट ही नहीं करता। है। घर तो बुला रहा था कि भीतर आओ। दीवालें बाहर से दिखाई वे मरे हुए लोग हैं; वे लाश की तरह चलते हैं। उन्हें कुछ खींचता जो पड़ती हैं, वे घर नहीं हैं।
ही नहीं। उन्हें कुछ पुकारता नहीं। उनके लिए कोई आह्वान नहीं शरीर तो केवल घर है। उसके भीतर निवास है। उसके भीतर मालूम पड़ता। वे इस जगत में अकेले हैं, अजनबी हैं। इस जगत दोहरा निवास है। उसके भीतर व्यक्ति का निवास है, जिसको मैं | | से उनका कहीं कोई संबंध नहीं जुड़ता। मन कह रहा हूं। और अगर व्यक्ति के भी भीतर प्रवेश करें, तो कोई हर्ज नहीं। कम से कम शरीर खींचता है; यह भी तो खबर अंतर्गर्भ में परमात्मा का निवास है, जिसको मैं आत्मा कह रहा हूं। है कि आप जिंदा हैं। कोई चीज खींचती है। कोई चीज आपको
हर व्यक्ति अपने गहरे में परमात्मा है। अगर थोड़ा उथले में पुकारती है। आपको बाहर बुलाती है। यह भी धन्यभाग है। लेकिन उसको पकड़ें, तो व्यक्ति है। और अगर बिलकुल बाहर से पकड़ें, इस पर ही रुक जाना खतरनाक है। आप बहुत सस्ते में अपने जीवन
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