________________
गीता-दर्शन अध्याय 13
दुख से मुक्ति का मार्ग : तादात्म्य का
विसर्जन ... 185
व्यक्ति दुखी है-स्वयं के कारण / पहले निदान–फिर इलाज/सुख की विफल खोज / ईश्वर पर अनास्था-दुख के कारण / सच्ची आस्तिकता का आधार-जीवन का आनंद / प्रश्न उठते हैं दुख से—आनंद से नहीं / सिमॉन वेल का सिर-दर्द और नास्तिकता / दुख और अस्वीकार का भाव / आनंदित व्यक्ति ईश्वर को इनकार करके भी आस्तिक / दुख का अंधेरा और आनंद का चिराग / दुख का कारण बाहर हो, तो अंततः परमात्मा जिम्मेवार / बाह्य क्रांतियों से दुखमुक्ति नहीं होती / स्वयं कारण हूं दुख का तो शिकायत असंभव / जिम्मेवारी का बोध और क्रांति का प्रारंभ / क्षेत्र क्या, क्षेत्रज्ञ कौन / मन की अवस्थाओं से हमारा तादात्म्य / मूल पापः ज्ञाता का ज्ञेय से तादात्म्य / धर्म है-घटनाओं से दूर खड़े रहने की कला / शरीर और चेतना के तादात्म्य से दुख / मन की काल्पनिक धारणाओं का शरीर पर प्रभाव / आदमी का भरोसा और चिकित्सा के असर / समस्त धर्मों का सार-मैं शरीर, मन सब का द्रष्टा हं / शरीर और मन से मैं अलग हूं-यह सिद्धांत नहीं—प्रयोगजन्य अनुभव है / जीवन के छोटे-छोटे अनुभवों में द्रष्टा होने का प्रयोग करें। विचार नहीं अनुभव / द्रष्टा को निखारते जाएं / विचार की वंचना / भारत के भयभीत आत्मवादी / देह के पार सबके भीतर एक ही आत्मा / सबके भीतर बैठा जानने वाला ही परमात्मा है / प्रेम-एक दूसरे में प्रवेश की आकांक्षा / ध्यान का एक प्रयोगः दो प्रेमियों का एक दूसरे की आंखों में झांकना / देहातीत चैतन्य का प्रवाह एक दूसरे में / मैं-तू की सीमा का खोना / अहंकार अर्थात शरीर से तादात्म्य / सभी क्षेत्र के भीतर-एक क्षेत्रज्ञ-परमात्मा / व्यक्ति का बोधः शरीर
और चेतना के जोड़ के कारण / विज्ञान है खोज-क्षेत्र की, ज्ञेय की / धर्म है खोज-क्षेत्रज्ञ की, ज्ञाता की / क्षेत्रज्ञ को पाए बिना तृप्ति असंभव / कम से कम एक घंटा रोज लगाएं क्षेत्रज्ञ की खोज में / अपने को विचार से, भाव से, अनुभवों से अलग रखें / बिना प्रयोग किए समझना संभव नहीं / तैरने व साइकिल चलाने की कला का रहस्य / विज्ञान और कला का भेद / ध्यान गहनतम कला है / सभी विधियों का अंतिम चरणः साक्षी / चलो तो ही मंजिल आती है / ज्ञान दूसरे को दिया नहीं जा सकता / विज्ञान सार्वजनिक ज्ञान बन जाता है-धर्म नहीं / ज्ञान प्रत्येक को स्वयं पाना होता है / शब्द सुनकर जानने का धोखा / सिद्धांतों से वासनाओं की पूर्ति सस्ते में / मैं शरीर नहीं हं-इसकी कल्पना कर लेना / कल्पना से मुक्ति न मिलेगी / बिना जाने मान मत लेना / जो चलना नहीं चाहते, वे जल्दी से मान लेते हैं / करने से बचने की तरकीबें-आस्तिक की, नास्तिक की / भीतर छिपी है मंजिल।