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________________ गीता दर्शन भाग- 60 ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि यज्ञात्वामृतमश्नुते । और उनके हिसाब से श्रद्धा को निर्मित करती है। अनादिमत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते ।। १२ ।। आप भगवान में श्रद्धा रखते हैं। इसलिए नहीं कि आपके हृदय सर्वतः पाणिपादं तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम् । का कोई तालमेल परमात्मा से हो गया है, बल्कि इसलिए कि भय सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति ।। १३ ।। मालूम पड़ता है। बचपन से डराए गए हैं कि अगर परमात्मा को न सन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम् । माना, तो कुछ अहित हो जाएगा। यह भी समझाया गया है कि असक्तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभोक्तृ च ।। १४ ।। परमात्मा को माना, तो स्वर्ग मिलेगा, पुण्य होगा, भविष्य में सुख और हे अर्जुन, जो जानने योग्य है तथा जिसको जानकर पाएंगे। मनुष्य अमृत और परमानंद को प्राप्त होता है, उसको अच्छी मन डरता है। मन भयभीत होता है। मन लोभ के पीछे दौड़ता प्रकार कहूंगा । वह आदिरहित परम ब्रह्म अकथनीय होने से | है। लेकिन भीतर गहरे में आप जानते हैं कि आपका परमात्मा से न सत कहा जाता है और न असत ही कहा जाता है। कोई संबंध नहीं है। परंतु वह सब ओर से हाथ-पैर वाला एवं सब ओर नेत्र, यह जो ऊपर की श्रद्धा है, जबरदस्ती आरोपित श्रद्धा है, यह . सिर और मुख वाला तथा सब ओर से श्रोत वाला है, | अंधी होगी। क्योंकि हृदय का तालमेल न हो, तो आंख नहीं हो क्योंकि वह संसार में सब को व्याप्त करके स्थित है। | सकती। और ऐसी श्रद्धा सदा ही तर्क से डरेगी, यह उसकी पहचान और संपूर्ण इंद्रियों के विषयों को जानने वाला है, परंतु | होगी। ऐसी श्रद्धा सदा ही तर्क से डरेगी, क्योंकि भीतर तो पता ही वास्तव में सब इंद्रियों से रहित है। तथा आसक्तिरहित है है कि परमात्मा से कोई संबंध नहीं है। वह है या नहीं, यह भी पता और गुणों से अतीत हुआ भी अपनी योगमाया से सब को नहीं है। ऊपर-ऊपर से माना है। अगर कोई खंडन करने लगे, तर्क धारण-पोषण करने वाला और गुणों को भोगने वाला है। | देने लगे, तो भीतर भय होगा। भय दूसरे से नहीं होता, भीतर अपने ही छिपा होता है। अगर मेरी श्रद्धा ऊपर-ऊपर है, अंधी है, तो मैं डरूंगा कि कोई पहले कुछ प्रश्न। एक मित्र ने पूछा है कि श्रद्धा क्या | मेरी श्रद्धा न काट दे। कोई विपरीत बातें न कह दे। विपरीत बातों है और अंध-श्रद्धा क्या है? से डर नहीं आता। क्योंकि मेरी श्रद्धा कमजोर है, इसलिए डर है कि टूट न जाए। और मेरी श्रद्धा ऊपर-ऊपर है, फट सकती है, छिद्र हो सकते हैं। और छिद्र हो जाएं, तो मेरे भीतर जो अश्रद्धा छिपी है, 4ता के इस अध्याय को समझने में यह प्रश्न भी उसका मुझे दर्शन हो जाएगा। OM उपयोगी होगा। ध्यान रहे, दुनिया में कोई आदमी आपको संदेह में नहीं डाल अंध-श्रद्धा से अर्थ है, वस्तुतः जिसमें श्रद्धा न हो, | सकता। संदेह में डाल ही तब सकता है, जब संदेह आपके भीतर सिर्फ ऊपर-ऊपर से श्रद्धा कर ली गई हो। भीतर से आप भी जानते भरा हो। और श्रद्धा की पर्त भर हो ऊपर। पर्त तोड़ी जा सकती है, हों कि श्रद्धा नहीं है, लेकिन किसी भय के कारण या किसी लोभ | तो संदेह आपका बाहर आ जाएगा। के कारण या मात्र संस्कार के कारण, समाज की शिक्षा के कारण | जो आस्तिक नास्तिक से भयभीत होता है, वह आस्तिक नहीं स्वीकार कर लिया हो। | है। और जो आस्तिक डरता है कि कहीं ईश्वर के विपरीत कोई बात ऐसी श्रद्धा के पास आंखें नहीं हो सकतीं। क्योंकि आंखें तो तभी | | सुन ली, तो कुछ खतरा हो जाएगा, वह आस्तिक नहीं है; उसे अभी उपलब्ध होती हैं श्रद्धा को, जब हृदय उसके साथ हो। तो | | आस्था उपलब्ध नहीं हुई; वह अपने से ही डरा हुआ है। वह जानता अंध-श्रद्धा बुद्धि की ही बात है। यह थोड़ा समझना पड़ेगा। है कि कोई भी जरा-सा कुरेद दे, तो मेरे भीतर का संदेह बाहर आ क्योंकि आमतौर से लोग समझते हैं कि अंध-श्रद्धा हृदय की | | जाएगा। वह संदेह बाहर न आए, इसलिए वह पागल की तरह बात है, बुद्धि की नहीं। अंध-श्रद्धा बुद्धि की ही बात है; श्रद्धा हृदय अपने भरोसे के लिए लड़ता है। की बात है। बुद्धि सोचती है लाभ-हानि, हित-अहित, परिणाम, अंधे लोग लड़ते हैं, उद्विग्न हो जाते हैं, उत्तेजित हो जाते हैं। वे 1258
SR No.002409
Book TitleGita Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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