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________________ समस्त विपरीतताओं का विलय - परमात्मा में इसमें बड़ी समझने की बात है, बहुत विचारने की बात है। क्योंकि व्यक्ति को हम जितनी ज्यादा दिशाएं दे दें, उतना ही ज्यादा चलना मुश्किल कर देते हैं। कृष्ण का यह कहना कि तू अनन्य भाव से एक के प्रति समर्पित हो जा, इसका प्रयोजन है। क्योंकि तब तू भीतर भी एक और इंटिग्रेटेड हो जाएगा। और वह जो तेरे भीतर एकत्व घटित होगा, वही तुझे परमात्मा की तरफ ले जाने वाला है। अगर यह बात ठीक न लगती हो, तो अनेक विकल्प नहीं है। विकल्प है फिर, अनंत। तो फिर अनंत के प्रति समर्पित हो जाएं। दो के बीच चुनाव कर लें। लेकिन अनेक खतरनाक है। अनेक दोनों के बीच में है, और उससे व्यभिचार पैदा होता है। और आप खंड-खंड हो जाते हैं, टूट जाते हैं। और आपका टूटा हुआ व्यक्तित्व किसी भी गहरी यात्रा में सफल नहीं हो सकता। अब हम सूत्र और हे अर्जुन, जो जानने के योग्य है तथा जिसको जानकर मनुष्य अमृत और परम आनंद को प्राप्त होता है, उसको अच्छी प्रकार कहूंगा। जो जानने के योग्य है...। इसे थोड़ा हम खयाल में ले लें। बहुत-सी बातें जानने की इच्छा पैदा होती है, जिज्ञासा पैदा होती है, कुतूहल पैदा होता है। लेकिन हम यह कभी नहीं सोचते कि सच में वे बातें जानने योग्य भी हैं या नहीं । कुतूहल काफी नहीं है। क्योंकि कुतूहल से कुछ हल न होगा, समय और शक्ति व्यय होगी। बहुत-सी बातें हम जानने की कोशिश करते हैं, बिना इसकी फिक्र किए कि जानकर क्या करेंगे। बच्चों जैसी उत्सुकता है । अगर बच्चों को साथ ले जाएं, तो वे कुछ भी पूछेंगे, कुछ भी सवाल उठाते जाएंगे। और ऐसा भी नहीं है कि सवालों से उन्हें कुछ मतलब है। अगर आप जवाब न दें, तो एक-दो क्षण बाद वे दूसरा सवाल उठाएंगे। पहले सवाल को फिर न उठाएंगे। बच्चों की तो बात छोड़ दें। पास बड़े-बूढ़े आते हैं, उनसे भी मैं चकित होता हूं। आते हैं सवाल उठाने । कहते हैं कि बड़ी जिज्ञासा है । और मैं दो मिनट कुछ और बातें करता हूं, फिर वे घंटेभर बैठते हैं, लेकिन दुबारा वह सवाल नहीं उठाते। फिर वे चले जाते हैं। वह सवाल कुछ मूल्य का नहीं था। वह सिर्फ कुतूहल था, क्यूरिसिटी थी। अभी तो पश्चिम के वैज्ञानिक भी यह सोचने लगे हैं कि हमें विज्ञान के कुतूहल पर भी रोक लगानी चाहिए। क्योंकि विज्ञान कुछ भी पूछे चला जाता है, कुछ भी खोजे चला जाता है, बिना इसकी फिक्र किए कि इसका परिणाम क्या है? इससे होगा क्या? इसको जान भी लेंगे, तो क्या होगा ? जानने को तो बहुत है, और आदमी के पास समय तो थोड़ा है। | जानने को तो अनंत है, और आदमी की तो सीमा है । जानने के तो कितने आयाम हैं, और अगर आदमी ऐसा ही जानता रहे सभी रास्तों पर, तो खुद समाप्त हो जाएगा और कुछ भी जान न पाएगा। तो कृष्ण कहते हैं, जो जानने योग्य है...। जिसको जानने का मन होता है, वह जानने योग्य है, जरूरी नहीं है । फिर जानने योग्य क्या है? क्या है परिभाषा जानने योग्य की? जानने की जिज्ञासा तो बहुत चीजों की पैदा होती है - यह भी जान | लें, यह भी जान लें, यह भी जान लें। कृष्ण कहते हैं— और भारत की पूरी परंपरा कहती है – कि जानने योग्य वह है, जिसको जानने पर फिर कुछ जानने को शेष न रह जाए। अगर फिर भी जानने को शेष रहे, तो वह जानने योग्य नहीं था। उससे तो प्रश्न थोड़ा आगे हट गया और कुछ हल न हुआ। ट्रेंड रसेल ने लिखा है अपने संस्मरणों में कि जब मैं बच्चा था और मेरी पहली दफा उत्सुकता दर्शन में बढ़ी, तो मैं सोचता था, दर्शनशास्त्र में सभी प्रश्नों के उत्तर हैं। नब्बे वर्ष का बूढ़ा होकर अब | मैं यह कह सकता हूं कि मेरी धारणा बिलकुल गलत थी और परिणाम बिलकुल दूसरा निकला है। दर्शनशास्त्र के पास उत्तर तो हैं ही नहीं, सिवाय प्रश्नों के। और पहले मैं सोचता था कि खोज करने से प्रश्नों के उत्तर मिल जाएंगे, और नब्बे वर्ष तक मेहनत करके अब मैं पाता हूं कि खोज करने से एक प्रश्न में से दस प्रश्न निकल आते हैं, उत्तर वगैरह कुछ भी मिलता नहीं है। पूरे दर्शनशास्त्र का इतिहास पुराने प्रश्नों में से नए प्रश्न निकालने | का इतिहास है। उत्तर कुछ भी नहीं है। और जो लोग उत्तर देने की कोशिश भी करते हैं, उनका उत्तर भी कोई मानता नहीं है। उन उत्तर में से भी दस प्रश्न लोग खड़े करके पूछने लगते हैं। एक प्रश्न दूसरे प्रश्न को जन्म देता है, उत्तर कहीं दिखाई नहीं पड़ते। कारण कुछ होगा। और कारण यही है । धर्म पूछता है उसी प्रश्न को, जो पूछने योग्य है । और जानना चाहता है वही, जो जानने योग्य है। और दर्शनशास्त्र जानना चाहता है कुछ भी, जो भी जानने योग्य लगता है; जिसमें भी कुतूहल पैदा हो जाता है। 265
SR No.002409
Book TitleGita Darshan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages432
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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