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गीता दर्शन भाग-6
विस्तार तथा प्रार्थना बन जाती है। दूसरी बात यह कि अनेक को प्रेम कर पाना प्रेम का विस्तार व विकास लगता है, व्यभिचारी भाव नहीं । इस विरोधाभास के संबंध में कहें। कुछ
दो
बातें हैं। एक तो एक और अनंत, और इन दोनों के बीच में है अनेक या तो अनंत को प्रेम करें, तो मुक्त हो जाएंगे। और या एक को प्रेम करें, तो मुक्त हो । जाएंगे। अनेक उलझा देगा। अनेक व्यभिचार है, अनंत नहीं । या तो एक को प्रेम करें कि सारा प्रेम एक पर आ जाए। इसलिए नहीं कि एक का प्रेम मुक्त करेगा। कल भी मैंने कहा, एक पर अगर प्रेम करेंगे, तो आप भीतर एक हो जाएंगे।
प्रेम तो कला है स्वयं को रूपांतरित करने की। अगर एक को प्रेम किया, तो आप एक हो जाएंगे। और या फिर अनंत को प्रेम करें, तो आप अनंत हो जाएंगे।
लेकिन अनेक को प्रेम मत करें, नहीं तो आप खंड-खंड हो जाएंगे।
एक का प्रेम मोह बन सकता है, अनेक का प्रेम भी मोह बनेगा; सिर्फ जरा बदलता हुआ मोह रहेगा। एक का प्रेम आसक्ति बन सकता है, तो अनेक का प्रेम भी आसक्ति बनेगा। और एक का प्रेम जब इतनी आसक्ति और इतना कष्ट देता है, तो अनेक का प्रेम और आसक्ति और भी ज्यादा कष्ट देगा।
लोग सोचते हैं कि अनेक को प्रेम करने से प्रेम मुक्त होगा, गलत खयाल में हैं। और जो भी वैसा सोचते हैं, वे असल में रुग्ण हैं। जैसे लार्ड बायरन, इस तरह के लोग, डान जुआन टाइप लोग, जो एक को प्रेम, दो को प्रेम, तीन को प्रेम, इसी चक्कर में भटकते रहते हैं।
पहले तो लोग सोचते थे, मनोवैज्ञानिक भी सोचते थे कि जो डान जुआन टाइप का आदमी जो है, यह बड़ा प्रेमी है। इसके पास इतना प्रेम है कि एक व्यक्ति पर नहीं चुकता, इसलिए बहुत-से व्यक्तियों को प्रेम करता फिरता है। लेकिन अब मनसविद मानते हैं कि यह रुग्ण है। बहुत प्रेम नहीं है, प्रेम है ही नहीं। इसको प्रेम करना ही नहीं आता। और इसलिए केवल व्यक्तियों को बदलता चला जाता है।
और जितना आप व्यक्तियों को बदलेंगे, उतना छिछला हो जाएगा प्रेम । क्योंकि गहराई के लिए समय चाहिए। और गहराई के
लिए आत्मीयता चाहिए। और गहराई के लिए निकट साहचर्य चाहिए ।
अगर एक व्यक्ति रोज एक स्त्री बदल लेता है और प्रेम करता चला जाता है, तो उसका प्रेम शरीर से गहरा कभी भी नहीं हो पाएगा। क्योंकि शरीर से ज्यादा संबंध ही नहीं हो पाएगा। मन तो तब संबंधित होता है, जब दो व्यक्ति सुख-दुख में साथ रहते हैं। और आत्मा तो तब संबंधित होती है, जब धीरे-धीरे, धीरे-धीरे दूसरे की मौजूदगी भी पता नहीं चलती कि दूसरा मौजूद है। जब दो व्यक्ति एक कमरे में इस भांति होते हैं, जैसे एक ही व्यक्ति हो, दो हैं ही नहीं, तब कहीं भीतर की आत्मा का संबंध स्थापित होता है।
एक का प्रेम आसक्ति बन सकता है। जरूरी नहीं है कि बने । . बनाने वाले पर निर्भर करता है। और जो एक के साथ आसक्ति बना लेगा, वह अनेक के साथ भी आसक्ति बना लेगा। एक के साथ प्रेम प्रार्थना भी बन सकता है। वह बनाने वाले पर निर्भर है।
जिस व्यक्ति को आप प्रेम करते हैं, अगर वह प्रेम केवल शरीर का ही प्रेम न हो, अगर उसके भीतर के मनुष्यत्व का और उसके भीतर की आत्मा का भी प्रेम हो; और धीरे-धीरे बाहर गौण हो | जाए, और भीतर प्रमुख जाए; और धीरे-धीरे उसका आकार और रूप भूल जाए और उसका निराकार और निर्गुण स्मरण में रहने लगे, तो वह प्रेम प्रार्थना बन गया।
और अच्छा है कि एक के साथ ही यह प्रेम प्रार्थना बने। क्योंकि एक के साथ गहराई आसान है; अनेक के साथ गहराई आसान नहीं है । अनेक के साथ प्रेम ऐसा ही है, जैसे एक आदमी एक हाथ जमीन यहां खोदे, दो हाथ जमीन कहीं और खोदे, तीन हाथ जमीन | कहीं और खोदे, और जिंदगीभर इस तरह खोदता रहे और कुआं | कभी भी न बने। क्योंकि कुआं बनाने के लिए एक ही जगह खोदते जाना जरूरी है। साठ हाथ, सौ हाथ एक ही जगह खोदे, तो शायद जल स्रोत उपलब्ध हो पाए ।
दो व्यक्तियों के बीच अगर गहरा प्रेम हो, तो वे एक ही जगह खोदते चले जाते हैं। खोदते खोदते एक दिन शरीर की पर्त टूट जाती है, मन की पर्त भी टूट जाती है और एक-दूसरे के भीतर के चैतन्य का संस्पर्श शुरू होता है। पति-पत्नी अगर गहरे प्रेम में हों, तो एक-दूसरे में परमात्मा को खोज ले सकते हैं। दो प्रेमी परमात्मा को खोज ले सकते हैं। उनका प्रेम धीरे-धीरे प्रार्थना बन जाएगा।
लेकिन अगर यह लगता हो कि इसमें खतरा है, तो खतरा इस कारण नहीं लगता कि एक व्यक्ति के प्रति प्रेम में खतरा है। खतरा
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