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गीता दर्शन भाग-6
नग्न था, उन्होंने भी देखा कि जब इतने लोग तारीफ कर रहे हैं, तो गलती अपनी ही होगी। जब इतने लोग कह रहे हैं कि ऐसे वस्त्र कभी देखे नहीं, अदभुत, अलौकिक ! तो शक अपने पर ही हुआ आदमियों को, कि इसका मतलब यही है कि मेरी मां मुझे धोखा दे गई! मैं अपने ही बाप का बेटा नहीं मालूम पड़ता। अब इसको बताने से क्या सार है ! वह भी आदमी आगे बढ़कर तारीफ करने लगा।
यह हालत सभी की थी। लेकिन उस बेईमान आदमी ने कहा कि देवताओं ने कहा है कि पहली दफा पृथ्वी पर ये वस्त्र जाते हैं, तो इनका जुलूस निकलना जरूरी है। रथ तैयार करवाएं, और राजधानी में जुलूस निकलेगा।
राजधानी में हवा की तरह खबर फैल गई कि सम्राट को देवता के वस्त्र मिले हैं। लेकिन एक शर्त है। वे उसी को दिखाई पड़ते हैं, जो अपने ही बाप से पैदा हो।
लाखों लोग रास्तों के किनारे खड़े थे। सभी को वस्त्र दिखाई पड़ते थे। सिर्फ एक छोटा बच्चा, जो अपने बाप के कंधे पर बैठा हुआ था, उसने अपने बाप के कान में कहा, लेकिन पिताजी, राजा नंगा है ! उसने कहा, चुप रह नासमझ अभी तेरी उम्र नहीं है। जब तू बड़ा होगा, तो अनुभव से तुझे भी वस्त्र दिखाई पड़ने लगेंगे।
वह लड़का अराजकता फैला रहा था। सारे नगर को, सबको वस्त्र दिखाई पड़ रहे थे। अगर सारा समाज झूठ को पकड़े हो, तो सत्य अराजकता लाता है। लेकिन ऐसी अराजकता स्वागत के योग्य है।
संन्यासी का अर्थ ही यही है कि वह समाज के झूठ को मानने राजी नहीं है। संन्यासी अराजक है, असामाजिक है। वह यह कह रहा है कि तुम्हारे झूठ मानने को मैं राजी नहीं हूं। मैं उसी ढंग से जीऊंगा, जिस ढंग से मुझे ठीक लगता है। चाहे इसके लिए मुझे कुछ भी कष्ट झेलना पड़े। वह कष्ट तपश्चर्या है।
आप यह मत सोचें कि सत्य की यात्रा पर कोई कष्ट न होगा। अगर ऐसा होता कि सत्य की यात्रा पर कोई कष्ट न होता, तो दुनिया में इतना झूठ होता ही नहीं । सत्य की यात्रा पर कष्ट है। इसीलिए तो लोग झूठ के साथ राजी हैं। झूठ सुविधापूर्ण है। सत्य असुविधापूर्ण है। झूठ में कनवीनिएंस है। क्योंकि चारों तरफ झूठ है।
वह बाप अपने बेटे से क्या कह रहा था? वह यही कह रहा था कि उपद्रव खड़ा मत कर। यही सुविधापूर्ण है। जब सबको वस्त्र दिखाई पड़ रहे हों, तो अपने को भी वस्त्र देखना ही सुविधापूर्ण है। झंझट खड़ी करनी उचित नहीं है।
यह जो कृष्ण का सूत्र है कि मन-वाणी की सरलता, सहजता,
यह आपको खतरे में तो ले ही जाएगी। खतरे में इसलिए ले जाएगी, | क्योंकि चारों तरफ जो लोग हैं, वे मन-वाणी से सरल नहीं हैं, जटिल हैं, छद्म, झूठ, चालाकी से भरे हैं। वे वही नहीं कहते हैं, | जो कहना चाहते हैं। वे वही नहीं प्रकट करते हैं, जो प्रकट करना चाहते हैं । और ये इतनी परतें हो गई हैं झूठ की कि उनको खुद भी पता नहीं है कि वे क्या कहना चाहते हैं; उनको खुद भी पता नहीं है कि वे क्या करना चाहते हैं; उनको खुद भी पता नहीं है कि वे क्या कर रहे हैं।
तो निश्चित ही, जब कोई व्यक्ति यह निर्णय और संकल्प करेगा कि मैं सरल हो जाऊंगा, तो अड़चनें आएंगी, कठिनाइयां खड़ी होंगी। उन कठिनाइयों के डर से ही तो लोग झूठ के साथ राजी हैं। साधक का अर्थ है कि वह इन कठिनाइयों को झेलने को राजी होगा।
इसका यह अर्थ नहीं है कि आप जान-बूझकर समाज में अराजकता फैलाएं। इसका यह भी अर्थ नहीं आप जान-बूझ कर लोगों को परेशानी में डालें । इसका कुल इतना अर्थ है कि जब भी आपके सामने यह सवाल उठे कि मैं अपनी आत्मा को बेचूं और सुविधा को खरीदूं या सुविधा को तोड़ने दूं और आत्मा को बचाऊं, तो आप आत्मा को बचाना और सुविधा को जाने देना ।
यह कोई जरूरी नहीं है कि आप चौबीस घंटे उपद्रव खड़ा करते रहें। लेकिन इतना खयाल रखना जरूरी है कि आत्मा न बेची जाए किसी भी कीमत पर। सुविधा के मूल्य पर स्वयं को न बेचा जाए, इतना ही खयाल रहे, तो आदमी धीरे-धीरे सरलता को उपलब्ध हो जाता है। और कठिनाई शुरू में ही होगी। एक बार आपका सत्य के साथ तालमेल बैठ जाएगा, तो कठिनाई नहीं होगी।
सच तो यह है, तब आपको पता चलेगा कि झूठ के साथ मैंने कितनी कठिनाइयां झेलीं और व्यर्थ झेलीं, क्योंकि उनसे मिलने वाला कुछ भी नहीं है।
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सत्य के साथ झेली गई कठिनाई का तो परिणाम है, फल है। झूठ के साथ झेली गई कठिनाई का कोई परिणाम नहीं है, कोई फल नहीं है। एक झूठ बोलो, तो दस झूठ बोलने पड़ते हैं। क्योंकि एक झूठ को बचाना हो, तो दस झूठ की दीवाल खड़ी करनी जरूरी है। और फिर दस झूठ के लिए हजार बोलने पड़ते हैं। और इस सिलसिले का कोई अंत नहीं होता। और एक झूठ से हम दूसरे पर पोस्टपोन करते जाते हैं, कहीं पहुंचते नहीं ।
सत्य के लिए कोई इंतजाम नहीं करना होता । सत्य के लिए कोई दूसरे सत्य का सहारा नहीं लेना पड़ता।