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गाँता दर्शन
भाग दो
ओशो
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ता कई अर्थों में असाधारण है। कुरान एक निष्ठा का शास्त्र है; दूसरी निष्ठा की बात नहीं है।
बाइबिल एक निष्ठा का शास्त्र है; दूसरी निष्ठा की बात नहीं है। महावीर के वचन एक निष्ठा के वचन हैं; दूसरी निष्ठा की बात नहीं है। | बुद्ध वचन एक निष्ठा के वचन हैं; दूसरी निष्ठा की बात नहीं है। गीता असाधारण है। मनुष्य के अनुभव में जितनी निष्ठाएं हैं, उन सारी निष्ठाओं का निचोड़ है। ऐसी कोई निष्ठा नहीं है जो मनुष्य जाति में प्रकट हुई हो, जिसके सूत्र, बीज-सूत्र गीता में नहीं हैं।
गी
कृष्ण ने पहले सांख्य की बात कही, अगर अर्जुन राजी हो जाए, तो गीता आगे न बढ़ती । लेकिन अर्जुन समझ न पाया सांख्य की बात । इसलिए फिर दूसरी बात कृष्ण को करनी पड़ी। अर्जुन वह भी न समझ पाया; फिर तीसरी बात करनी पड़ी। अर्जुन वह भी न समझ पाया ; चौथी बात करनी पड़ी!
—शेष दूसरे फ्लैप पर
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THE
REBELL
PUBLISHING
HOUSE
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गीता-दर्शन भाग दो - अध्याय 4-5
ओशो द्वारा श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय चार 'ज्ञान-कर्म-संन्यास-योग' एवं अध्याय पांच 'कर्म-संन्यास-योग'
पर दिए गए उनतीस अमृत प्रवचनों का अपूर्व संकलन।
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বিটুনি
अध्याय 4-5
भाग दो
ओशो
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संकलनः स्वामी दिनेश भारती, स्वामी प्रेम राजेंद्र संपादन : स्वामी योग चिन्मय, स्वामी आनंद सत्यार्थी
डिजाइनः मा प्रेम प्रार्थना टाइपिंगः मा कृष्ण लीला, मा देव साम्या
डार्करूमः स्वामी प्रेम प्रसाद
संयोजनः स्वामी योग अमित फोटोटाइपसेटिंगः ताओ पब्लिशिंग प्रा.लि., 50 कोरेगांव पार्क, पुणे
मुद्रण : टाटा डॉनली लिमिटेड, 414 वीर सावरकर मार्ग, मुंबई प्रकाशकः रेबल पब्लिशिंग हाउस प्रा.लि., 50 कोरेगांव पार्क, पुणे
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ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन की लिखित अनुमति अनिवार्य है। द्वितीय विशेष राज संस्करणः जनवरी 1998
ISBN 81-7261-087-4
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भूमिका
स्वाध्याय के सूत्र
ओशो निःसंदिग्ध रूप से वर्तमान युग के सर्वाधिक मौलिक दार्शनिक हैं। उनकी गहराई, चिंतन की पारदर्शिता, मौलिकता तथा बहुआयामी व्यक्तित्व से मैं अभिभूत हूं। इसीलिए श्रीमद्भगवद्गीता की उन्होंने जो एकमेवाद्वितीय व्याख्या की है उसे पढ़ना मेरे लिए एक उच्चतम अनुभव रहा है। मैं मानता हूं कि मनुष्य के इतिहास में इतना विद्वत्तापूर्ण ग्रंथ कभी नहीं लिखा गया होगा।
गीता की कई टीकाएं उपलब्ध हैं। प्रत्येक टीका में टीकाकार कृष्ण के शब्दों को उस ढंग से प्रतिफलित करता है जैसी उसके देखने की क्षमता है, परिप्रेक्ष्य है। मेरे विचार में, यह गीता की टीका नहीं है। ओशो ने केवल कृष्ण के शब्दों में ठसाठस भरी हुई ऊर्जा को उस समय उघाड़ा जब संन्यासियों और प्रशंसकों के सम्मिश्र समूह के सामने उन्होंने गीता पर प्रवचन दिए। उन्होंने पूरी तटस्थता से कृष्ण के अंतरंग को प्रगट किया है।
कभी-कभी मैं ओशो की तुलना कृष्ण से करता हूं। क्योंकि उन्होंने भी अपने जीवन-काल में समकालीन साधक को तीन प्रधान मार्ग बताए : कर्म, भक्ति और ज्ञान। कृष्ण ने जब अर्जुन को उसकी अस्थायी मूर्छा से जगाया तब उन्होंने भी अर्जुन के सामने यही विकल्प रखे। ओशो के कम्यून में आपको ऐसे साधक मिल जाते हैं जो उनकी समाधि के आगे बैठकर भक्ति रस में डूब जाते हैं। इसी कम्यून में कट्टर बुद्धिजीवी लोग ओशो के दैदीप्यमान प्रवचनों को सुनकर सम्मोहित हो जाते हैं। ___ मैंने ओशो से बहुत सी नई बातें सीखी हैं। यही वह कम्यून है जहां मैंने जाना कि वर्क मेडिटेशन, ध्यानपूर्ण काम जैसी कोई चीज होती है। मेरा मस्तिष्क स्वभाव से तर्कनिष्ठ है, लेकिन भीतर कहीं उसे धर्म की खोज भी है। इस द्वंद्व में आंदोलित मेरे मन को ओशो के प्रवचनों में पहली बार पता चला कि धार्मिकता संगठित धर्म से सर्वथा भिन्न तत्व है।
ओशो के प्रवचन ऐसे प्रतीत होते हैं जैसे पर्वत श्रेणियों से कलकल बहते हुए झरने—अत्यंत निर्मल, प्रकाशमान और अविराम रूप से प्रवाहमान।
भगवद्गीता के उक्त प्रवचन दो दशक पहले विशुद्ध और काव्यात्मक हिंदी में दिए गए हैं। यह गीता के वचनों की महज व्याख्या नहीं है वरन इन प्रवचनों में ओशो ने कतिपय नई संकल्पनाओं को पिरोया है। इनमें से कुछ संकल्पनाएं उद्धृत करने का मोह मैं संवरण नहीं कर पा रहा हूं।
परंपरा—ओशो कहते हैं, “परंपरा का अर्थ ट्रेडीशन नहीं। परंपरा का अर्थ है-संतति, प्रवाह, कंटिन्युइटि।" योग-ओशो कहते हैं, “योग यानी अनुभूति की प्रक्रिया। सत्य है अनुभूति, सत्य है दर्शन; योग है द्वार।"
वीतराग— “वीतराग का अर्थ है," ओशो कहते हैं, "बियांड अटैचमेंट; डिटैचमेंट नहीं। वीतराग का अर्थ है, आसक्ति के पार; विरक्त नहीं। विरक्त, विपरीत आसक्ति में होता है, पार नहीं होता।"
न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा-कर्मों के फल में मेरी स्पृहा नहीं है, इसलिए मुझे कर्म लिपायमान नहीं करते। गीता के इस महान वचन की व्याख्या में ओशो कहते हैं, “फल कभी आज नहीं है। फल आज हो नहीं सकता। आज तो कर्म ही हो सकता है; फल तो कल ही होगा। कल आ भी जाएगा, तब भी फल अगले कल पर सरक जाएगा। कल फिर जब आज बनेगा, तो कर्म ही होगा। ___ “आज सदा कर्म है; फल सदा कल है। आज वर्तमान; कल भविष्य। फल सदा कल्पना में है। फल का अस्तित्व नहीं है; अस्तित्व तो कर्म का है। परमात्मा भविष्य में नहीं जीता, क्योंकि परमात्मा कल्पना में नहीं जीता...।
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“कल्पना में कौन जीता है? जो फ्रस्ट्रेटेड हैं, वे कल्पना में जीते हैं। जिनका जीवन विषाद से भरा है, दुख से भरा है, वे कल्पना में जीते हैं। क्यों? क्योंकि कल्पना में वे अपने विषाद की परिपूर्ति करते हैं, सब्स्टिट्यूट करते हैं।"
अब संयम की ओशोप्रणीत व्याख्या देखिए। ओशो कहते हैं, “संयमी का अर्थ है, जो इंद्रियों से उपकरण का काम लेता है— भोग का नहीं। संयमी का अर्थ है, जो इंद्रियों से भोगता नहीं, केवल उपयोग लेता है। असंयमी का अर्थ है, जो इंद्रियों से उपयोग कम लेता है, भोग ज्यादा लेता है...।"
लेकिन संयम का अर्थ हमने 'देखो मत, सुनो मत, छुओ मत' ऐसा ले रखा है। ओशो कहते हैं, "यह संयम का अर्थ नहीं है। इसमें संयम फलित नहीं होता–सिर्फ दमन, सप्रेशन फलित होता है। और दमन संयम नहीं है। दमन भीतर उबलता हुआ असंयम है।"
दूसरी जगह ओशो कहते हैं, “दो खतरे हैं इंद्रियों के साथ। एक भोग का खतरा है, दूसरा दमन का।
"कृष्ण जब कहते हैं जितेंद्रिय, या महावीर जब कहते हैं जितेंद्रिय, या बुद्ध जब कहते हैं जितेंद्रिय, तो उनकी बात को समझना अत्यंत कठिन हुआ है। हम तत्काल जितेंद्रिय का अर्थ लेते हैं-दमन; क्योंकि हम भोग में खड़े हैं। हमारा मन दूसरी अति में अर्थ ले लेता है। भोग से हम परेशान हैं। जैसे ही हम सुनते हैं, जीतो इंद्रिय को; हम कहते हैं, दबाओ इंद्रिय को। जीत बन जाती है दमन, हमारे मन में। और तभी भूल हो जाती है। ___ “जितेंद्रिय का अर्थ है : जानो इंद्रिय को। एक-एक इंद्रिय के रस को पहचानने से, परिचित होने से; एक-एक इंद्रिय की शक्ति के भीतर प्रवेश करने से जीत फलित होती है। ज्ञान विजय बन जाता है। ज्ञान ही विजय है।"
ज्ञान-यज्ञ के बारे में ओशो कृष्ण को ही उद्धृत करते हैं, "इसलिए कृष्ण कहते हैं, असली यज्ञ तो ज्ञान-यज्ञ है। श्रेष्ठतम ज्ञान-यज्ञ है। और ज्ञान-यज्ञ का अर्थ हुआ जिसमें कोई सांसारिक मांग नहीं है, जिसमें कोई सांसारिक आकांक्षा नहीं है।"
और अब ओशो आते हैं अपने प्रिय अमनीकरण की तरफ। "ज्ञान की भाषा हो भी नहीं सकती, क्योंकि ज्ञान मौन है, मुखर नहीं, मूक है। ज्ञान के पास जवाब नहीं है; ज्ञान साइलेंस है, शून्य है।"
और वे कहते हैं, “शांत मन जैसी कोई चीज होती नहीं; जहां शांति हुई, वहां मन तिरोहित हुआ। अशांति का नाम मन है।"
ओशो की अलौकिक प्रतिभा के और कई उदाहरण दिए जा सकते हैं। वे सभी लिखने लगूं तो उनका ही एक स्वतंत्र ग्रंथ होगा। यहां मैंने उनके मौलिक चिंतन का परिचय देने के हेतु कुछ गिने-चुने नमूने पेश किए हैं। __गीता की व्याख्या करते हुए ओशो की वस्तुनिष्ठता, ऑब्जेक्टिविटी के एक और पहलू से मैं अत्यंत प्रभावित हुआ। यद्यपि वे इस अदभुत ग्रंथ के प्रत्येक श्लोक का समादरपूर्वक विश्लेषण करते हैं, वे अपौरुषेय या परमात्मा-रचित कहकर इसे निर्दोष नहीं मानते। ___ "वेद अपौरुषेय हैं, इसका यह अर्थ नहीं कि परमात्मा के द्वारा रचित हैं; क्योंकि परमात्मा के द्वारा तो सभी कुछ रचित है। अलग से वेद को रचा हुआ कहने का कोई कारण नहीं है। वेद अपौरुषेय हैं, इसका अर्थ यह कि जिन्होंने उन्हें रचा, उनके भीतर अपना कोई अहंकार नहीं था, उनके भीतर अपना कोई भाव नहीं था कि मैं। पुरुष विदा हो गया था, अपुरुष भीतर आ गया था।... हट गए थे वे; और जगह दे दी थी प्रभु की अनंत सत्ता को। उसके द्वारा ही इनके हाथों ने रचे। रचे तो आदमी ने ही। हाथ तो आदमी का ही उपयोग में आया है। कलम तो आदमी ने ही पकड़ी है। शब्द तो आदमी ने बनाए। लेकिन उस आदमी ने, जिसने अपने हाथ को प्रभु के हाथ में दे दिया; जो एक मीडियम बन गया; और कह गया कि लिख डालो। फिर उसने नहीं लिखा।" ____ गीता के तीसरे अध्याय के प्रवचन समाप्त हुए। ओशो ने कर्म-योग की मेधावी टीका की है। इसके पश्चात चौथे और पांचवें अध्याय में कृष्ण ज्ञान-योग का विवेचन करते हैं। और ओशो की विश्लेषक प्रतिभा शिखर पर पहुंचती है।
तथापि गीता के सभी प्रवचनों में ओशो आग्रहपूर्वक कहते हैं कि यह ध्यान का विवरण है। ध्यान—आत्म बोध-जिसे वे जीवन भर सिखाते रहे हैं।
"स्वाध्याय का सूत्र—अपने अंतस से स्वयं ही परिचित होना-भविष्य में महत्वपूर्ण होता चला जाएगा। और अगर आनेवाली सदी में लोग गीता को पढ़ेंगे, तो शायद स्वाध्याय के सूत्र के कारण ही पड़ेंगे। यद्यपि वह गीता में बहुत स्पष्ट और प्रखर नहीं है, क्योंकि क्षण उसका कोई बहुत उपयोग नहीं था। असल में लोग इतने सरल थे कि दमन बिलकुल कम था। और जब दमन कम होता है, तो स्वाध्याय
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का कोई मतलब नहीं होता। जब दमन बहुत ज्यादा होता है, तब स्वाध्याय का मतलब होता है।" __ओशो ने गीता की जो व्याख्या की है वह समकालीन मानव के लिए है। इसीलिए उसे सर्वाधिक सम्यक् व्याख्याओं में समाहित किया जा सकता है जो आज तक इस अतुलनीय ग्रंथ पर की गई हैं।
प्रकाश कर्दले स्थानीय संपादकः इंडियन एक्सप्रेस, पुणे
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अनुक्रम गीता - दर्शन अध्याय 4
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सत्य एकजानने वाले अनेक... 1
सत्य है सनातन—समय के बाहर / समय के प्रारंभ में अर्थात समय के बाहर / सूर्य अर्थात प्रकाश / परमात्मा प्रकाश स्वरूप है / अहंशून्य व्यक्ति के भीतर से परमात्मा ही बोलता है / कृष्ण दो तलों पर बोल रहे हैं- कभी परमात्मा की तरह — और कभी अर्जुन के सारथी की तरह / मेरी शरण - अर्थात परमात्मा की शरण / सत्य एक है; बदल जाते हैं— बोलने वाले, सुनने वाले, भाषा / एक ही सत्य - विपरीत शब्दों में अभिव्यक्ति / कृष्ण मौलिक होने का दावा नहीं करते / मौलिक अर्थात मूलस्रोत से संबंधित / नए होने का दावा – अहंकार की घोषणा है / नए होने का बोध - स्वाभाविक भूल है / प्लेटो, हीगल, कांट का आग्रह — नए होने का / समस्त विवाद 'मैं' 'तू' के विवाद हैं / सत्य का कोई विवाद नहीं है / नया युग बहुत आग्रहपूर्ण है / हम नए होते हैं, पुराने होते हैं - सत्य में कोई अंतर नहीं पड़ता / हम बीतते हैं— समय नहीं बीतता / परंपरा अर्थात सातत्य, प्रवाह / ऋषि-परंपरा / जानने वालों ने कहा -सुनने वालों ने लिखा / परंपरा - शास्त्र की नहीं — जानने वालों की / जानने वाला - विनम्र / सत्य पूर्ण लुप्त कभी नहीं होता - करीब-करीब लुप्त होता है / सत्य लुप्तप्राय क्यों हो जाता है ? / अनुभव की परंपरा का शास्त्रों की परंपरा में खो जाना / शास्त्रों का रेगिस्तान - और सत्य की नदी / अनुभवी कहते हैं— गैर-अनुभवी सुनते हैं / कितना ही कहो - सत्य अनकहा रह जाता है / योग का क्या अर्थ है ? / सत्य है अनुभूति; यो अनुभूति की प्रक्रिया / राजर्षि का क्या अर्थ है ? / ऋषि होना असली बादशाहत है / मांग-मात्र भिखारीपन है / स्वामी रामतीर्थ की बादशाहत / सभी ऋषि राजा हैं / राजर्षि अर्थात जो बिना प्रयास के – अक्रिया से - ज्ञानी हो गया है / अक्रिया - न - करना द्वार है / राजयोग अर्थात विश्राम से पाना / राजर्षि अर्थात समर्पित - विश्राम को उपलब्ध हुआ व्यक्ति / आस्तिकता अर्थात समग्र स्वीकार ।
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भागवत चेतना का करुणावश अवतरण ...
विपरीत पर निर्भर होती हैं चीजें - दृश्य अदृश्य पर, पदार्थ परमात्मा पर, परिवर्तनशील अपरिवर्तनशील पर / वही सत्य, वही योग पुनः-पुनः कहा जाता है / असत्य को हम निर्मित करते हैं / सत्य नित्य है / इस नित्य सत्य को कृष्ण अर्जुन क्यों कहते हैं ? / प्रेम और मैत्री भाव हो, तो ही सत्य जाना जनाया जा सकता है / अजनबी के प्रति हम बंद और मित्र प्रति खुले होते हैं / हम करीब-करीब एक बेहोशी में जीते हैं / हमारा विस्मरण - हमारी नींद / कृष्ण का अर्जुन को 'प्रिय', 'सखा' आदि कहना – ताकि अर्जुन उनके प्रति खुल सके / आत्मीयता, प्रेम और मैत्री से चेतना के तल का ऊपर उठना /
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घृणा और शत्रुता से चेतना के तल का नीचे गिरना / अर्जुन जब कृष्ण के साथ ट्यूनिंग में है, तब कृष्ण द्वारा महावाक्य का उदघोष / जितना ज्यादा अधैर्य - उतनी ज्यादा देरी / कल्प के प्रारंभ में आप थे— यह मैं कैसे मानूं? / 'कैसे' का प्रश्न – अविश्वास और गैर-भरोसे में ले जाता है / प्रेम है भरोसा - निष्प्रश्न भरोसा / कृष्ण का शरीर तो नयी घटना है, लेकिन उनकी चेतना अनादि है / जो हम नहीं जानते - हम मानते हैं कि वह नहीं है / हमारी समस्त स्मृतियों का संग्रहालय - हमारा अचेतन / गर्भकालीन स्मृतियां और पिछले जन्मों की स्मृतियां भी संगृहीत / अर्जुन, जो तुझे पता नहीं, वह मुझे पता है / कृष्ण में जरा भी झिझक नहीं है / दार्शनिकों और ऋषियों के वचनों में फर्क / ऋषि कहते हैं: ऐसा है / अनुभव के अभाव में तर्क और दलीलों की जरूरत / सत्य एक अनुभव है - निष्कर्ष नहीं / उस समय सत्य बलयुक्त था; आज अज्ञान बल से भरा है / हमारी नपुंसक आस्था / अनुभव ही बेझिझक हो सकता है / मैं अजन्मा हूं / अपनी योग-माया से इस शरीर में उतरता हूं / आत्मा का संकल्प ही कृत्य बन जाता है / सम्मोहन में कल्पना का भी यथार्थ जैसा प्रभाव पड़ना / चेतना जो मान ले, वही हो जाती है / अवतार अर्थात जो सचेतन रूप से शरीर में उतरे / हमारा जन्म इच्छाओं के सम्मोहन में होता है / इच्छाओं का दुष्टचक्र / बुद्ध पुरुष करुणावश जन्म लेते हैं / जाग्रत मृत्यु – फिर जाग्रत जन्म - तो पिछले समस्त जन्मों की स्मृति उपलब्ध / पिछले जन्मों की स्मृतियों में वापस लौटने का प्रयोग / कृष्ण जैसे लोग करुणावश पैदा होते हैं / वासना होती है स्वयं के लिए, करुणा होती है औरों के लिए / वासना संकोच है, करुणा विस्तार है / कृष्ण के 'मैं' में बुद्ध, महावीर, जीसस, मोहम्मद – सभी समा जाते हैं / कृष्ण का 'मैं' अर्थात परमात्मा - परम चेतना / धर्म की स्थापना और अधर्म के विनाश के लिए - साधुओं का उद्धार और असाधुओं के विनाश के लिए - परमात्मा का शरीर में अवतरण / दुष्टों का विनाश अर्थात उनकी दुष्टता का खो जाना / जिस युग में साधु पाखंडी होते हैं—उसी युग में दुष्ट लोग होते हैं / साधु हों - तो धर्म होता है / असाधु हों तो अधर्म होता है।
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दिव्य जीवन, समर्पित जीवन ...
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जन्म-मृत्यु, अंधकार-प्रकाश, लौकिक-अलौकिक आदि दो ध्रुवों के बीच बहती है जीवन की नदी / अलौकिक जीवन के अनुभव से जन्म-मृत्यु का अतिक्रमण / अलौकिक को इंद्रियों के माध्यम से नहीं जाना जा सकता / जीवन - दिव्य और अलौकिक है— कृष्ण इसके प्रतिनिधि हैं / जो हमारे भीतर प्रगट हो सकता है, वह कृष्ण में प्रगट हो गया है / कृष्ण हमारी संभावनाओं की आहट हैं / जीसस और मंसूर को हमने मार डाला, क्योंकि हम उनकी भाषा न समझ सके – कृष्ण की हम पूजा करने लगे / सूली और पूजा - दोनों ही उनसे बचने के उपाय हैं / कृष्ण के 'मैं' में सब 'तू' समाए हुए हैं / वीतरागता न राग है, न विराग - दोनों का अतिक्रमण है / याज्ञवल्क्य-मैत्रेयी संवाद / राग-विराग-द्वंद्व / यह विश्व परमात्मा का शरीर है / मनुष्य का शरीर पूरे ब्रह्मांड से जुड़ा है / अलग होना भ्रांति है / अनन्य भाव से शरणागत हुए, और ज्ञानरूपी तप से शुद्ध हुए- इसका क्या अर्थ है ? / दूसरापन न बचे / अहंकार से निकली तपश्चर्या अपवित्र / ज्ञानरूपी तप अर्थात परमात्मा जो करवाए / समर्पित जीवन / मूल रोग - अहंकार / समर्पण है मूल - साधना ।
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परमात्मा के स्वर
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परमात्मा हमें प्रतिध्वनि देता है / परमात्मा की आवाज – बड़ी धीमी, बड़ी नाजुक / जैसे को तैसा / जैसी दृष्टि, वैसी सृष्टि / उन्हीं तरंगों का वापस लौटना / प्रार्थनापूर्ण हृदय / पुकार खाली नहीं जाती / परम शक्ति और मिटने का साहस / देवताओं की अर्चना का शुभ फल / शुभ की शक्तियों का सहारा / प्रेतात्म-विज्ञान / तीर्थ - भली आत्माओं का संघट-स्थल / योगोनष्टः का अर्थ 'योग का लुप्तप्राय हो जाना' क्यों किया गया है ? / विनाश
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नहीं-रूपांतरण होता है / कुछ भी नष्ट नहीं होता / अगर सब विराट शक्ति से घटित होता है, तो व्यक्ति अपने कर्मों के लिए जिम्मेदार कैसे होगा?/ अहंकार से निर्मित कर्ताभाव / समर्पण अर्थात जो उसकी मरजी / जब तक कर्ताभाव, तब तक जिम्मेदारी / कर्तापन का बोझ ढोना / सब विराट पर छोड़ देना / बुरे कृत्यों की जड़-अहंकार / पाप की गठरी / अर्जुन की समस्या उसके गहन कर्ताभाव से निर्मित / कर्ता नहीं—निमित्त बन जा / अज्ञानी का तल-ज्ञानी का तल / उधार ज्ञान का उपद्रव / भारत का नैतिक पतन / ऊंची बातें-नीचा जीवन / जहां अहंकार नहीं-वहां शुभ फलित / वर्ण-भेद अस्तित्वगत तथ्य है / गुणों की सहज भिन्नता / व्यक्तिगत गुण-धर्म / मनुष्य चार 'टाइप' में विभाजित / ब्राह्मण-जो ज्ञान की खोज में आतुर है / क्षत्रिय है शक्ति का पूजक / जीवन का आनंद नियति के पूरे होने में / धन का आकांक्षी-वैश्य / बिना काम के न जी सकने वाला-शूद्र / भीतर वर्ण-गुण से निकलते हैं कर्म / चार वर्षों में ऊंचे-नीचे का मूल्यांकन नहीं है / अस्तित्व में गुण-भेद हैं-भेद-भाव नहीं / चारों वर्गों में एक अंतर-सहयोग है।
आंतरिक गुण-धर्म का इनकार नहीं हो सकता / गुणानुकूल कर्म से जीवन में लयबद्धता / विकास की दृष्टि से क्या ब्राह्मण की चेतना शूद्र की चेतना से ऊंची नहीं? / नहीं / चेतना श्रेष्ठ होती है-अपने-अपने गुण की पूर्णता पर / अर्जुन की समाधि-युद्ध के शिखर-क्षण में / शूद्र की समाधि-श्रम में लीन होकर / चेतना की श्रेष्ठता ध्यान से उपलब्ध / वर्ण-गुण के अनुकूल ध्यान के चार प्रकार।
जीवन एक लीला ... 65
चार वर्षों में मनुष्य की रचना करने के बाद भी कृष्ण कैसे अकर्ता रहे? / कर्ता का निर्माता-अहंकार का भाव / चलने की क्रिया है-चलने वाला कोई नहीं / कर्ता नहीं है-साक्षी है, द्रष्टा है / कर्ता हमारा भ्रम है / अकर्ता भाव का सघन होना / 'तू' के अभाव में 'मैं' का खो जाना / गहरी नींद में अहं-शून्यता का आनंद / परमात्मा के लिए कोई 'तू' नहीं है / स्रष्टा और सृष्टि एक हैं / नर्तक और नृत्य एक हैं / खेल और काम का फर्क / यह जगत परमात्मा की लीला है / फलाकांक्षारहित कर्म खेल बन जाता है / अस्तित्व निरुद्देश्य है / जीवन अपने आप में आनंद है / कृष्ण की लीला और राम का चरित्र / फलाकांक्षी मनुष्य / कल की आशा / आनंदित चित्त फलातुर नहीं होता / और फलातुर आदमी दुखी होता है / आशाओं के खंडहर / अभी और यहीं है जीवन / कर्म को खेल बनाओ / जीवन एक अभिनय है / परमात्मा के लिए न कोई अतीत है, न कोई भविष्य / वर्तमान-एक ठहरी हुई अनंतता / यही क्षण सब कुछ है / फलाकांक्षी देवताओं को पूजते हैं / फलाकांक्षी-परमात्मा से दूर / अंधेरे की कोई सत्ता नहीं है / अंधेरे की भांति है अधर्म / धर्म का दीया बार-बार जलाने की जरूरत / कर्म कर-कर्ता मत बन / सम्यक संन्यास-कर्ताशून्य कर्म।
वर्ण-व्यवस्था का मनोविज्ञान ...79
कर्म क्या है और अकर्म क्या? / प्रतिकर्म-रिएक्शन-कर्म नहीं है / कर्म है-सहज, अंतर-प्रेरित / प्रतिकर्म है-बाह्य प्रेरित / यांत्रिक प्रतिक्रियाओं का हमारा जीवन / अकर्मण्यता अकर्म नहीं है / कर्म की वासना न हो / मन शून्य और मौन हो जाए तो अकर्म / भीतर अकर्म है-तब बाहर कर्म होगा / आंतरिक मौन / अंतस में कर्म की तरंगों का अभाव / कर्म की वासना से कर्ता का बनना / बाहर कर्म-भीतर केंद्र पर अकर्ता, अकर्म / संपत्ति बचाना भी प्रतिकर्म है / आधुनिक अर्थों में क्या वर्ण-व्यवस्था मनोवैज्ञानिक सत्य है? / आत्मिक विकास का गहन नियोजन / योग्य गर्भ को खोजने की व्यवस्था / वर्ण-व्यवस्था जीर्ण-जर्जर हो गई है / लेकिन नियम में अंतर नहीं पड़ता / आज की दिशाहीन स्थिति / मनुष्य की चिंता व बेचैनी / आधुनिक तर्क-चिंतना और पुरानी अंतर्दृष्टि का जोड़ चाहिए / आधुनिक मनोविज्ञान द्वारा बाल-विवाह को स्वीकृति / बाल-विवाह ही थिर हो सकता है / बढ़ते हुए तलाक / बच्चे लोचपूर्ण / पति-पत्नी-युद्ध / बचपन से तालमेल का निर्माण / कामवासना आने से पहले गहन मैत्री का जन्म / कामवासना-केंद्रित
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मैत्री - छिछली / वर्ण-व्यवस्था की वापसी / वर्ण में ऊंचे-नीचे की भावना लाना गलत / अपनी-अपनी आंतरिक सहजता / अपने-अपने ढंग से सभी को परमात्म-उपलब्धि संभव / नकली ब्राह्मण आज भयभीत है / दूसरे से स्पर्धा नहीं - अपने गुण-कर्म से अनुकूलता / आज शूद्र होने की कुछ सुविधाएं / बच्चे के गुण-धर्म व रुझान का निश्चय अत्यंत महत्वपूर्ण / आज कौन किस वर्ण में है ? / राजनेता वर्णसंकर है / इंजीनियर, टेक्नीशियन, शिल्पी - सब शूद्र वर्ण वाले / मानसिक रूप से शोध करने वाले गणितज्ञ, वैज्ञानिक — ब्राह्मण वर्ण में / चीरा - फाड़ी और मलहम पट्टी करने वाला डाक्टर शूद्र है / केवल दवाई बेचने वाला डाक्टर वैश्य है / परमाणु-शक्ति का खोजी - क्षत्रिय / परमाणु शक्ति में जीवन - रहस्य का खोजी - ब्राह्मण / राजनीतिज्ञ होना कोई धंधा नहीं है / राजनीति का शुद्ध विचारक - ब्राह्मण / निषिद्ध कर्म की पहचान – गहन और गूढ़ / शास्त्र सरल हैं - जिंदगी जटिल / जिंदगी है — अनिश्चित — और बेबूझ / जैनी खेती-बाड़ी से बचे, तो धन का शोषण करने लगे / कर्म की गति गहन है / कर्म में अकर्म को देखना अर्थात अकर्ता-भाव / साक्षी से अकर्ता-भाव / करते हुए अकर्ता रहना / सर्व से एकात्मता / साक्षी है आंख ।
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कामना - शून्य चेतना
पांडित्य - अनुभवशून्य या अनुभवसिक्त / कामना अर्थात भविष्य में सुख की आशा / दुखों की गठरी / कामना और आत्म- अज्ञान परस्पर आश्रित हैं / पहले कामना छूटे - फिर संकल्प भी छूटे / कामना और संकल्प से रिक्त चित्त दर्पण बन जाता है / विराट का प्रतिफलन / ज्ञानी स्वयं प्रमाण है / सकारण सुख - सांसारिक / अकारण सुख-आत्मिक / संसार - आश्रित सुख - क्षणभंगुर / पराश्रय और स्वआश्रय / कर्तापन से अभिमान / अभिमान
-केंद्रित होता है / करते हुए भी अकर्ता होना / वर्तमान क्षण में पूरे-पूरे मौजूद / शरीर की यांत्रिक आदतें / असम्यक बांधता है - सम्यक मुक्त करता है / होश से सम्यक कर्म का जन्म / सहजस्फूर्त जीवन / मूर्च्छा में अति घटित / शरीर यांत्रिक है, तो उसकी अपनी प्रज्ञा (बॉडी विसडम) कैसे होती है ? / यांत्रिक बुद्धिमत्ता / शरीर की स्वचलित प्रक्रियाएं / शारीरिक क्रियाओं के प्रति होश / अनावश्यक सुख-सामग्री का बोझ / दिखावा / सामग्री से सुविधा मिलती है - सुख नहीं / सुख - वस्तुओं में नहीं — स्वयं में है / आत्म- जयी सुखी / स्वयं को पाकर सब पाया।
...
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मैं मिटा, तो ब्रह्म... 111
जो मिले उसमें संतोष / चित्त अर्थात असंतोष / भ्रम - भविष्य में संतोष का / जितनी बड़ी अपेक्षा - उतना बड़ा संतोष / असंतोष का स्वर्ग / हम द्वंद्व में ही जीते हैं—खंडों में टूटा हुआ आदमी / मित्रता- शत्रुता, प्रशंसा - निंदा / मन विपरीत से परिपूर्ति करता हैं / चित्त अनिवार्यतया द्वंद्वात्मक है / द्वंद्वों के पार - तीसरा - साक्षी / संतोषी और निर्द्वद्व व्यक्ति को कर्म नहीं बांधते / 'मेरा' बंधन है / 'मेरे' का विस्तार / मेरे का तेल और मैं की ज्योति / आसक्तिरहित कर्म यज्ञ बन जाता है / अहंकार अंधापन है / अहं विसर्जन से ब्रह्म का अनुभव / मैं का घड़ा फूटे / अस्तित्व ही ब्रह्म है / 'मैं' की पारदर्शी दीवाल / मैं मिटा - तो सब ब्रह्म / दो की भ्रांति / एक का ही विस्तार है / भीतर एक – तो बाहर एक / समाधि अर्थात समाधान / अनंत के साथ एक रसता ।
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यज्ञ का रहस्य ... 127
जीवन के आत्यंतिक अनुभवों को प्रतीक से समझाना / प्रतीक अवरोध भी बन जाते हैं / यज्ञ का प्रतीकात्मक अर्थ / अग्नि की लपट - चेतना के ऊर्ध्वगमन का प्रतीक / अग्नि अशुद्धियों को जलाती है / लपट का आकाश में खो जाना / 'मैं' का 'सर्व' में खो जाना / चेतना की आग में स्वयं की आहुति / सतत स्मरण / गुरुकुल में सतत जलती हुई अग्नि / गेहूं की आहुति / अहंकार को बीजरूप में ही दग्ध कर देना / घी - स्नेह का, शुभ का श्रेष्ठतम प्रतीक / साधना का निखार / श्रम का फल / शुभ जलकर चेतना की लौ को बढ़ाता / शुभ पीछे सुवास छोड़ जाता / साधु शुभ है; और संत- शुभ की सुवास मात्र / प्रतीकों से जीवंत अनुभव को जन्माते रहना / मृत प्रतीक पकड़कर रुक जाना / प्रतीक की सार्थकता / प्रतीक में छिपे राज को बचाना. जरूरी / 'योगियों का यज्ञ' और 'ज्ञानियों का यज्ञ' – इनका क्या अर्थ है ? / दो मौलिक निष्ठाएं - सांख्य और योग / सांख्य हैं - ज्ञानाभिमुख लोगों के लिए / योग है - कर्माभिमुख लोगों के लिए / निन्यानबे प्रतिशत लोगों के लिए योग जरूरी / कृष्ण ज्ञानी और योगी दोनों हैं / रामकृष्ण ने अनेक मार्गों की साधना संपन्न की / गीता सारी निष्ठाओं का निचोड़ है / महावीर और मोहम्मद को अर्जुन न मिला / योगनिष्ठ सदगुरु — जार्ज गुरजिएफ / सांख्यनिष्ठ ज्ञानी – जे. कृष्णमूर्ति / अनेक मार्गों की बात करने के कारण मुझमें असंगति / मार्ग - विपरीत और भिन्न / मंजिल एक है / योगी का संयम और ज्ञानी का साक्षीत्व / पहले आकर्षण, फिर सौंदर्य-बोध / इंद्रियों की गति सूक्ष्म है / सब इंद्रियां स्पर्श करती हैं / छूने- छुलाने के अनेक ढंग - आवाज, गंध, प्रसाधन / इंद्रियां स्पर्श लेने व देने को सदा लालायित हैं / इंद्रियों की सूक्ष्म स्पर्श-व्यवस्था / इंद्रिय और विषय के बीच की स्पर्श-व्यवस्था को तोड़ देना / आंख से सिर्फ देखें - स्पर्श न करें / संयम अर्थात इंद्रियों से उपकरण का काम लेना- भोग का नहीं / दमन संयम नहीं है / ज्ञानी भोगते हुए भी द्रष्टा बना रहता है / दूसरे मार्ग से आत्मवंचना की संभावना / संयम की साधना सुगम है / साक्षी की साधना दुर्गम है / बुद्ध और महावीर का मार्ग संयम का / कृष्ण का मार्ग साक्षी का / गीता में दोनों मार्गों की चर्चा है।
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संन्यास की नई अवधारणा... 141
प्रिय वस्तुएं नहीं— स्वयं को अर्पित करना / इंद्रियां बाहर, संसार में ले जाती हैं / इंद्रियों को भीतर लौटना - परमात्मा की दिशा / स्वयं को खोने की सामर्थ्य / फूल और फल — परमात्मा में चढ़े ही हुए हैं / मृत्यु जो छीनेगी, उसे जीते-जी अर्पित कर देना / योगाग्नि का क्या अर्थ है ? / घर्षण से विद्युत ऊर्जा का जन्म / शरीर के भीतर ही अग्नि पैदा करना - योग की विधि से / अंतस - अग्नि में इंद्रियों के रसों का जल जाना / वासनाओं का रसायनशास्त्र / बायोकेमिस्ट्री द्वारा शोषण का खतरा / उपवास योगाग्नि पैदा करने में सहयोगी / सूर्य पर त्राटक / ईश्वर - अर्पण-भाव से सेवा भी यज्ञ है / ईश्वर - अर्पण – योग से भी अति कठिन / सेवा के पीछे छिपा हुआ अहंकार / अहंशून्य सेवा - प्रभु - अर्पित / बुद्धि नहीं - हृदय / बुद्धि - सदा फलाकांक्षी / जीवन है— परमात्मा की भेंट / अहिंसा भी मार्ग है / जब तक वासना है, तब तक हिंसा है / आंख से भी बलात्कार संभव / अहिंसा अर्थात 'स्व' पर वापसी / दूसरे पर जाना हिंसा है / शत्रुता भी – मित्रता भी / आपके द्वारा दीक्षित नव-संन्यास क्या है ? / संन्यास अर्थात करते हुए अकर्ता हो जाना / रूपांतरण की प्रक्रिया / संसार एक प्रशिक्षण है / भागना नहीं — जागना है / मित्र वही, जो वासना के पार जाने में सहयोगी हो / संसार को सीढ़ी बनाओ / संप्रदाय-मुक्त संन्यास / स्वनिर्भर संन्यासी ही अब बच सकता है / सब को जोड़ने वाला धर्म / ध्यान से संन्यासी में रूपांतरण / ध्यान — एक मात्र अनिवार्यता / गैरिक वस्त्र - ध्यान की आग का स्मरण / माला के गुरिए - एक सौ आठ विधियां / मैं सिर्फ एक गवाह हूं / ध्यान की एक प्रगाढ़ विधि का अभ्यास / नव-संन्यासियों का कीर्तन विशिष्ट है / यह कीर्तन - ध्यान का अनुषांगिक अंग / सभी धर्म नव-संन्यासियों के अपने / व्यर्थ को तोड़ना - सार्थक को बचाना।
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स्वाध्याय-यज्ञ की कीमिया ... 157
स्वाध्याय-यज्ञ का क्या अर्थ है / स्वाध्याय अर्थात स्वयं का अध्ययन-स्वयं के द्वारा / दूसरे का अध्ययन बाहर से / आचरण और अंतस भिन्न-भिन्न / दूसरों के मंतव्यों को अलग कर देना / दमित वासनाओं और आवेगों को उभारना जरूरी / अकेलेपन का भय-स्वयं से मुलाकात का भय / सेंस डिप्राइवेशन का प्रयोग अव्यस्त होना / मनोविश्लेषण की उपयोगिता / स्वयं की झूठी प्रतिमाओं को त्यागना / स्वाध्याय की अग्नि में जलना / जानना ही मुक्ति है / जानना पर्याप्त है रूपांतरण के लिए / सब रोग–अज्ञान के ही कारण / निंदक नियरे राखिए / पश्चिम का महंगा मनोविश्लेषण / अधिक दमन-तो स्वाध्याय की जरूरत अधिक / बुराई को छिपाना पड़ता है / तथ्यों का नग्न साक्षात्कार / आत्मकथाएं पढ़ना-स्वाध्याय के लिए उपयोगी / गांधी की आत्मकथा / संत अगस्तीन का 'कंफेशंस' / पाप और पीड़ाओं से गुजरने वालों के अनुभव उपयोगी / उपनिषद कम उपयोगी / ईसाइयत में अपराध की स्वीकृति की कीमती परंपरा / भारत में पाप के स्वीकार का साहित्य-न के बराबर / दोस्तोवस्की के उपन्यास-क्राइम एंड पनिशमेंट; ब्रदर्स कर्माजोव / टालस्टाय के उपन्यास-वार एंड पीस; डेथ आफ इवान इलोविच / स्वाध्याय के साथ-साथ प्रभु-स्मरण जरूरी/ प्रभु-स्मरण के अभाव में विक्षिप्तता या निराशा का खतरा / भीतर नरक का साक्षात्कार और दिव्य संभावनाओं का स्मरण / पाप के मध्य भी परमात्मा की स्वीकृति / पश्चिम की आत्मघाती निराशा / अकेला मनोविश्लेषण खतरनाक / गहन अंधेरे में प्रकाश की संभावना का स्मरण / भारतीय नमस्कार-विधि-प्रत्येक में छिपे प्रभु का स्मरण / सुबह, दोपहर, रात-राम, राम, राम / सोने से पूर्व प्रभु-स्मरण / स्वाध्याय-यज्ञ-स्वयं के गलत को जानना और प्रभु-स्मरण।
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अंतर्वाणी-विद्या ... 171
स्वधर्मरूपी-यज्ञ और योग-यज्ञ क्या है? / खिला हुआ व्यक्तित्व नैवेद्य बन जाता है / विषाद-संभावनाओं के अप्रगट रह जाने से / गुरुत्वाकर्षण और ग्रेस / विषाद और अनुग्रह / अन्यथा होने का पागलपन / स्वधर्म को कैसे पहचानें? / जीवन में शांति और आनंद बढ़े, तो दिशा ठीक है । स्वीकार-भाव और संतोष बढ़े / शांत, एकांत में निजता से पहचान / प्रतिदिन एक घंटे स्वयं में डूबना / इनर वाइस-अंतर्वाणी-को सुनना / कृष्णमूर्ति की सारी शिक्षा स्वाध्याय-यज्ञ की ही व्याख्या है / मेहरबाबा का पूरा जीवन-अंतर्वाणी सुनने का प्रयोग है / इस युग में योग के भाष्य हैं-जॉर्ज गुरजिएफ / आदमी एक अराजक भीड़ है / इंद्रियां मालिक बन गई हैं / योग अर्थात अखंडता / योग अर्थात भीतर सोए हुए मालिक को जगाना / गुरजिएफ का 'स्टॉप एक्सरसाइज' प्रयोग / नींद पर चोट / हठयोग, मंत्रयोग, राजयोग / ओम ध्वनि की नाभि पर चोट / सूफियों का मंत्र-अल्लाह / 'हू' की तीव्र चोट / त्राटक का उपयोग / परमात्मा से जुड़ने के अनेक द्वार / प्राण-योग / श्वास सेतु है-शरीर और आत्मा के बीच / श्वास और मनोदशा का संबंध / ब्लड प्रेशर की तरह-ब्रेथ प्रेशर भी / धीमी व गहरी श्वास के साथ क्रोध असंभव / कामवासना में श्वास का तेज और अस्तव्यस्त हो जाना / ध्यान में श्वास का सहज ठहराव / प्राणायाम का ध्यान के लिए उपयोग / श्वास का ठहरना-विचार का ठहरना / रामकृष्ण की समाधि / संसार और मोक्ष के बीच विचार की पतली दीवार / विचारशून्यता और श्वासशून्यता के अंतराल / प्राण क्या है और अपान क्या है? / भीतर की श्वास को बाहर के विराट प्राण-जगत में समर्पित करना / बाहर के समस्त प्राण को भीतर गिरा लेना / बूंद गिरे सागर में या सागर गिरे बूंद में / नियमित, संयमित आहार करने वाले योगीजन / आहार-मुंह से, आंख से, कान से, स्पर्श से / प्राण को उत्तेजित करने वाले आहार न लेना / प्राण का प्राण में ही समाहित हो जाना / मानसिक कचरा इकट्ठा करना / मानसिक कब्जियत / सभी इंद्रियों के लिए सम्यक आहार / जिन खोजा तिन पाइयां गहरे पानी पैठ।
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मृत्यु का साक्षात
वासनारहित, अहंकारशून्य जीवन यज्ञ बन जाता है / मृत्यु की प्रतीति - अज्ञान के कारण / शरीर से भिन्न अपने को न जानना / ब्रह्मयोगी द्वारा स्वेच्छा-मृत्यु के कई प्रदर्शन / अतींद्रिय जीवन - यंत्र की पकड़ के बाहर / चेतना अमर है / बोध - कि मैं कौन हूं / परलोक अभी और यहीं है / ध्यान – जहां से लोक खतम होता और परलोक शुरू होता / अमृत का बोध - अभी और यहीं / मृत्यु के रहते सुख संभव नहीं / मौत को भुलाने की कोशिशें / मृत्यु तथ्य है— सत्य नहीं / मृत्यु के तथ्य का सामना / संन्यास का प्रारंभ / मृत्यु निश्चित है / सुख के क्षण और मृत्यु की कालिमा / ज्ञान में दुख भी सुख हो जाते / अज्ञान में सुख भी दुख बन जाता है / अज्ञान में वरदान भी अभिशाप मालूम होते हैं / बुद्ध के पिता की नाराजगी / मूर्च्छा का कारण क्या है ? / मूर्च्छा अकारण है / जागने के पहले नींद स्वाभाविक / अज्ञान ज्ञान की पूर्व अवस्था है / ज्ञान का विरोधी है— मिथ्या - ज्ञान / अज्ञान बीज है — और ज्ञान वृक्ष / उधार- ज्ञान विकास में बाधा है / आलस्य मिथ्या ज्ञान को पकड़ा देता है / अहंकार अकड़ता है— मिथ्या ज्ञान पर अज्ञान की स्वीकृति - प्रारंभ यात्रा का / दर्शनशास्त्र द्वारा 'क्यों' की व्यर्थ खोज / 'क्यों' की खोज – रूपांतरण को स्थगित करने की तरकीब / धर्म एक प्रयोगशाला है / सकाम कर्म की निष्पत्ति - दुख / अनुभव से गलत को सीखने की मूढ़ता / राम भी दौड़े हैं- स्वर्ण मृग के पीछे / स्वर्ण मृग होते नहीं / निष्काम कर्म के छोटे-छोटे अनुभव / निष्काम जीवन पवित्र यज्ञ बन जाता है - धन्यता बन जाता है।
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चरण-स्पर्श और गुरु-सेवा
वासनाओं की आग में जलता हुआ जीवन / हताशा, निराशा, बेचैनी / प्रार्थना में भी मांग संसार की ही / चाह-मात्र बाधा है / वासना संसार है / जब तक मन, तब तक अशांति / चाह गई — कि संसार गया / प्रार्थना सिर्फ धन्यवाद है - मांग नहीं / अज्ञान बंधन है - ज्ञान मुक्ति है / 'स्व' में स्थिति स्वास्थ्य है / वासना कंपाती है / वासना गई — कि भय गया / ज्ञान परम स्वास्थ्य है / ब्रह्म के मुख से वेद के जन्म होने का क्या अर्थ है ? / अहंशून्य व्यक्ति के मुख से परमात्मा बोलता है / पूरा समर्पित व्यक्ति ब्रह्म के लिए माध्यम बन जाता है / सभी संत ब्रह्म के मुख हो जाते हैं / समस्त संतों की वाणी वेद है / बाइबिल, कुरान, धम्मपद - ये सब वेद हैं / सांप्रदायिक मन की संकीर्णता / वेद अपौरुषेय हैं अर्थात अहंशून्य व्यक्तियों के माध्यम से लिखे गए हैं / व्यक्ति
बीच में आ जाने से अशुद्धियां / रवींद्रनाथ की गीतांजलि / कूलरिज की अधूरी कविताएं / वेद निरंतर पैदा होते रहेंगे / कुतूहल से निकले बचकाने प्रश्न / प्रश्न-उत्तर रूपांतरण लाए तो ही सार्थक / झुको - तो मिलेगा / प्रश्न पूछने की कला / झुकने से हृदय का खुलना / अकड़ा हुआ आदमी बंद होता है / अज्ञान का बोध — पहला चरण है सीखने का / झुकने का आनंद - अकड़ने की पीड़ा / शिष्यत्व की कला ही खो गई है आज तो / अहंकारी, शिष्य होने से बचना चाहता है / झुकने के लिए बड़ा सामर्थ्य चाहिए / न कुतूहल, न जिज्ञासा - वरन मुमुक्षा / चरण-स्पर्श और ऊर्जा का विशेष प्रवाह / परमात्मा से जुड़े व्यक्ति से आशीष की वर्षा / निष्काम गुरु-सेवा / वर्षों वर्षों तक मौन प्रतीक्षा / प्रसाद का क्षण ।
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मोह का टूटना ... 213
ज्ञान का पहला आघात मोह पर / गहनतम मोह-जीवेषणा / जीने का मोह / आत्महत्या भी-जीवन के अति मोह के कारण / धन पर पकड़ / मोहम्मद का अपूर्व अपरिग्रह / रोज सांझ सब बांट देना / परमात्मा पर भरोसा / जहां परिग्रह है, मोह है-वहां भय होगा/ केवल अमोही ही अभय को उपलब्ध / मोह का अनंत फैलाव / अज्ञान से निकलता मोह / मोह दुख में ले जाता / 'मैं' का भ्रम / 'मैं' के रहते प्रेम संभव नहीं / जहां मोह है-वहां प्रेम नहीं है / जहां 'मैं' नहीं-वहां अभेद / सब परमात्मा है-इसका क्या अर्थ है? / हमारी प्रतीति–कि सब पदार्थ है / परमात्मा, हमारी एक मान्यता-मात्र है / जितना ज्ञान भीतर का-उतना ही ज्ञान बाहर का / जगत दर्पण है / पहले स्वयं के भीतर चैतन्य का बोध / मोह का सम्मोहन हमें शरीर बनाए हुए है / जैसी धारणा, वैसा ही बन जाना / सम्मोहन में सुझावों के परिणाम / मोह की रातः चैतन्य की सुबह / परमात्म-अनुभव को सत-चित-आनंद क्यों कहा जाता है? / 'मैं' का गिरना—'हूं' का बचना / इज़नेस, एमनेस-है पन, होना / सत अर्थात सनातन है-पन / चित अर्थात अस्तित्व सचेतन है | चेतना के हजार-हजार तल हैं / दुख अर्थात 'मैं' पर लगी चोट / 'मैं' एक घाव है / सत+चित = आनंद / प्रेम है-चैतन्य का चैतन्य से स्पर्श / आनंद द्वैत का अंत है / भाषा में तीनः अनुभव में एक / जन्मों-जन्मों के पापों का ज्ञान की एक किरण से टूट जाना / अनंत पापों को काटने के लिए अनंत पुण्यों की जरूरत / तब तो मुक्ति असंभव है / जीने में ही पाप हो जाएगा / नैतिक-दृष्टि का दुष्ट-चक्र / पाप अंधेरे की तरह है / दीया जला-कि अंधेरा गया / अंधेरे की कोई सघनता नहीं होती / अतीत स्वप्न की तरह विलीन हो जाता है / ईसाइयत पर पाप की धारणा का बोझ भारी है । भारतीय-चिंतन-नीति-अतीत।
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ज्ञान पवित्र करता है ... 227
ज्ञानरूपी अग्नि समस्त कर्मों को कैसे भस्म कर देती है? / कर्म है-भाव, विचार / कर्म का जन्मदाता है-अज्ञान / ज्ञान नष्ट करता-अज्ञान को / अज्ञान नष्ट हुआ-कि कर्म-बंधन नष्ट हुए / प्रकाश आया-कि अंधेरा मिटा-कि भय गया / कर्ताभाव-अज्ञानजनित / कर्ता और अहंकार-ज्ञान में नहीं टिकते / कर्म आते, जाते-ज्ञानी पर कोई निशान नहीं बनता / अज्ञानी का मन-फोटो प्लेट की तरह / ज्ञानी हो जाता-दर्पण की भांति / कर्ता एक भ्रम है / जब तक कर्ता-तब तक वासना का बंधन / अज्ञान है विस्मरण सत्य का / ज्ञान है स्मरण सत्य का / कर्ता की मृत्यु | ज्ञान पवित्र करता है / वासना अपवित्रता है / वासना दुख है / वासना अंधा करती है / अनंत संपदा भीतर है / वासना भिखमंगा बना देती है / ज्ञान परम तृप्ति लाता / ज्ञान परम शिखर है / बुद्ध, महावीर, जीसस, मंसूर की पवित्रता / स्वयं को जाना-तो सब जाना / उधार ज्ञान का खतरा / भारत को ब्रह्मचर्चा महंगी पड़ी / आत्म-ज्ञान की लंबी यात्रा / आत्मा अनुभव है / आत्मा यानी परमात्मा / बूंद सागर है / 'योग संसिद्धि' के अनुवाद 'समत्व बुद्धि योग' का क्या अर्थ है? / व्यक्ति का समष्टि से मिलन / तब समत्व उपलब्ध / सतत डोलता मन / मध्य है द्वार-आत्मा में प्रवेश का / अति-अशुद्धि है / समत्व सिद्धि है।
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इंद्रियजय और श्रद्धा ... 241
इंद्रियों के ज्ञान से इंद्रियों पर विजय / जाना—कि मालिक हुए / इंद्रियां सबल होती हैं-अज्ञान से / जिसे जानते नहीं-उसे जीतने का उपाय नहीं / हत्या-इकट्ठे क्रोध का विस्फोट / क्रोध क्या है? / धीरे-धीरे लीकेज का इकट्ठा विस्फोट / काम, क्रोध, लोभ-छेद हैं, जिनसे जीवन ऊर्जा नष्ट होती है / भोग की अति-या दमन की अति / जानो इंद्रियों को / काम-ऊर्जा क्या है? / सेक्स पर ध्यान / ध्यान से-ज्ञान / काम, क्रोध, लोभ, अहंकार
आदि का निरीक्षण / क्रोध+ध्यान = क्षमा / काम+ध्यान - ब्रह्मचर्य / लोभ+ध्यान = दान /जहां-जहां ध्यान-वहां-वहां रूपांतरण / जितेंद्रिय और श्रद्धावान पुरुष शांत होता / विश्वास श्रद्धा नहीं है / संदेह को जीना तपश्चर्या है / विश्वास-कामचलाऊ / संदेह-विश्वास या अविश्वास नहीं-जिज्ञासा बने, खोज बने / श्रद्धा अर्थात खुलापन / श्रद्धा अर्थात स्वीकार / श्रद्धा अर्थात अपने अज्ञान का बोध / श्रद्धा के अभाव में जितेंद्रिय व्यक्ति अहंकारी हो जाता है / उत्तेजनाएं-सुख की, दुख की / श्रद्धा ज्ञान का परिणाम है या कि पूर्व-साधना है? / श्रद्धावान अर्थात श्रद्धा की तरफ अभिमुख / श्रद्धा मंजिल है-श्रद्धावान होना यात्रा है / अज्ञानी के लिए मंजिल की बात व्यर्थ है / कृष्णमूर्ति की अड़चन मार्ग की कम और मंजिल की बात ज्यादा करना / कृष्णमूर्ति पर साधना बाहर से लादी गई / विधियों का विरोध / गुरु ही चुनता है शिष्य को / शिष्य के लिए उपयोगी है—मार्ग की बात।
संशयात्मा विनश्यति ...255
संशय भरा मन विनाश करता / संशय अर्थात अनिश्चय, संकल्पहीनता / ईदर-आर-यह या वह / सृजन के लिए निर्णय चाहिए / आग लगे घर में खड़ा है हर आदमी / जीवन एक कीमती अवसर है / बुराई के लिए आदमी झिझकता नहीं / बुराई ढलान है-अच्छाई चढ़ान है / शुभ–गौरीशंकर की चढ़ाई है / शुभ के लिए असफल होना भी अच्छा / अर्थी के बाहर लटके सिकंदर के हाथ / संशय से डांवाडोल चित्त / तीन प्रकार के प्रेम / वस्तुओं का प्रेम / व्यक्तियों का प्रेम / भगवत्प्रेम / हम व्यक्ति को वस्तु बना लेते हैं / व्यक्ति साधन नहीं-साध्य है / प्रेम आंख है / भगवत्प्रेम-समग्र को प्रेम है / जीवंत व्यक्ति को प्रेम करने में अड़चनें / भक्ति-पूरे जगत में व्यक्तित्व देखना / अस्तित्व भगवान है / हमने नदी को, सूरज को, वृक्षों को नमस्कार किया / सभी रूपों में परमात्मा ही है / तत्वमसि-तू भी वही है / जो संशय से भरा-वह भगवत्प्रेम से खाली / प्रभु-अर्पित कर्म के बंधन नहीं बनते / अहंकार के सूक्ष्म रास्ते / अहंकार के लिए प्रेम के द्वार बंद / चेतना-सदा कुंवारी / समता मुक्ति है / ज्ञान की तलवार से संशय को काटना / सम बुद्धि में ज्ञान का जन्म / बदलती बुद्धि-बदलते चेहरे / रामकृष्ण का तलवार से काली को काटना / इस अध्याय का नाम 'कर्म-संन्यास-योग' क्यों है? / ज्ञानयुक्त कर्म से संन्यास फलित / कर्म से पलायन उचित नहीं / भागो नहीं बदलो।
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गीता-दर्शन अध्याय 5
संन्यास की घोषणा ... 269
निर्णय की प्रसव-पीड़ा / बने-बनाए निष्कर्ष / खोज और श्रम से निखार / अर्जुन खोज से बचना चाहता है / मैं उलझा हूं-इसका बोध / सीखने की पात्रता / पूर्व-तैयारी के लिए श्रम / दो मार्गः कर्म-संन्यास और निष्काम कर्म / कर्म-पानी पर खींची गई लकीरों जैसे हैं / असारता का बोध / बोध से कर्मों का छूट जाना / फलाकांक्षा की व्यर्थता का बोध / फलाकांक्षा दुख है / सुख का आश्वासन / परिणाम-सदा दुख / झेलते चले जाना—सुख की आशा में / योग अर्थात अभी और यहीं जीने की कला / फलाकांक्षाशून्य व्यक्ति सदा तृप्त / तब जीवन एक अभिनय है / अर्जुन कर्म-केंद्रित व्यक्ति / अर्जुन के लिए दूसरा मार्ग ठीक / कवि, चित्रकार और दार्शनिक के लिए पहला मार्ग ठीक / पहला मार्गः अंतर्मुखी के लिए / दूसरा मार्गः बहिर्मुखी के लिए / आज के युग के लिए कौन-सा मार्ग अनुकूल है? / आज का युग बहिर्मुखता-प्राधान्य वाला / उपनिषदकालीन युग अंतर्मुखी था / ब्राह्मण शिखर पर था / आज बहिर्मुखी धर्म की जरूरत है / आज बहिर्मुखी व्यक्ति अत्यल्प हैं / युगानुकूल धर्म की अवतारणा / आज राजपथ होगा—बहिर्मुखी संन्यास का / अंतर्मुखी-पथ पतली पगडंडी हो गई है / आज अंतर्मुखी धर्म पिछड़ जाएगा / ईसाइयत फैली-अपनी बहिर्मुखता के कारण / पश्चिम में अंतर्मुखता बढ़ेगी / पूरब बहिर्मुखी होता जाएगा / निष्कामकर्मी गृहस्थ-भीतर से संन्यासी ही है / संन्यास की बाह्य घोषणा उपयोगी है / सतत स्मरण की चोट / विचार को कृत्य बनाएं।
निष्काम कर्म ... 283
राग और द्वेष—एक ही शक्ति की दो दिशाएं / द्वंद्वातीत होने पर निष्काम कर्म फलित / पश्चिम का मनोविज्ञान-रुग्ण लोगों पर निर्मित / पूरब का मनोविज्ञान–बुद्ध पुरुषों के अनुसार निर्मित / पश्चिम में रुग्ण पर ध्यान / भारत ने श्रेष्ठतम को आधार बनाया / खेलने का आनंद-निष्कामता के कारण / खेल की ताजगी / काम का बोझ / आनंद की सहज अभिव्यक्ति / उत्सव-भाव / राग-द्वेष-शून्य ऊर्जा सजन करती है / प्रकृति में कहीं भी कोई राग-द्वेष नहीं है / जीवन-ऊर्जा का नर्तन है / परमात्म-समर्पित जीवन ही निष्काम कर्मयोग है / सहज प्रौढ़ता-पके पत्ते का गिरना / सृजनात्मक जीवन ही धार्मिक जीवन है / जीवन में सकाम कर्म और निष्काम कर्म में तालमेल कैसे हो? / न किया जा सकता है, न जरूरी है / निष्काम कर्म का आनंद मिल जाए तो सकाम कर्म असंभव / सकाम कर्म-अंधे आदमी की दुनिया / कर्म में आनंद है / परमात्मा और संसार का अनुभव साथ-साथ नहीं होता / ज्ञानी और अज्ञानी के बीच संवाद की कठिनाई / रस्सी में दिखा सांप-दोनों में तालमेल असंभव / समझौता अर्थात झूठ / सत्य के टुकड़े नहीं होते / भेद का कारण-मूढ़ता / अनेक मार्ग-और अज्ञानी की अड़चन / सब मार्ग यदि सही-तो चुनाव करना कठिन / महावीर का स्यातवाद-यह भी ठीक, वह भी ठीक / महावीर से राजी होना मुश्किल है / गीता जीवंत संवाद है।
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सम्यक दृष्टि ...299
- हमारी असम्यक दृष्टि / आग्रह का आरोपण / भेद और विरोध-अज्ञान के कारण / निर्विचार दृष्टि / कर्मका-लीला या अभिनय बन जाना./बड़ी. अपेक्षा तो बड़ा दुख / अकड़ा हुआ मिथ्या-ज्ञान / अद्वैत-बोध / बहिर्मुखी हैं या अंतर्मुखी—इसकी क्या पहचान है? / बाहर का आकर्षण / भीतर का सुख / समूह रुचिकर—या अकेलापन / ध्यान का धर्म-अंतर्मुखी / प्रार्थना का धर्म-बहिर्मुखी / इस्लाम और ईसाइयत–बहिर्मुखी धर्म / जैन और बौद्ध-अंतर्मुखी धर्म / निष्काम कर्मयोग–बहिर्मुखी के लिए / कर्म-संन्यास-अंतर्मुखी के लिए / अंतर्मुखी रमण की अक्रिया / बहिर्मुखी की बेचैनी / चित्त दशा-कर्म-अभिमुख या अकर्म-अभिमुख / आलस्य है-श्रम से बचाव / विश्राम है-शांत तेजस्विता / कर्म-संन्यास है विश्राम / कर्म-त्याग के पहले निष्काम कर्म की भूमिका / सीधे कर्म-त्याग से वासना के शेष होने की संभावना / अर्जुन की चाह-कर्म छोड़कर भाग जाए / पलायन नहीं-रूपांतरण / कृष्ण जैसे सदगुरु से बचना मुश्किल / दुख में कर्म-त्याग आसान है | अर्जुन की दुविधा-एक ही परिवार का बंटा होना / सुख में कर्म-त्याग क्रांति है।
वासना अशुद्धि है ... 313
इंद्रियजय-आत्मवान होने से / श्रेष्ठ का आगमन / आत्मा को सबल करना / पवित्रता बल है-चेतना का / अशुद्धि है-सुख के लिए पराश्रित होना / यांत्रिक आदतों से जड़ता का आना / पराश्रित सुख निर्बल कर जाते हैं / वासना अशुद्धि है / देहशून्यता-वासनाशून्यता-प्रभु से एकात्मता | अहंशून्य व्यक्ति-नीति और धर्म के पार / जीसस, मोहम्मद और राम-नैतिक और मर्यादित / विकसित श्रोता उन्हें न मिले थे / कर्म-संन्यास के दो अर्थ-कर्म-त्याग और कर्तापन-त्याग को समझाएं? / महावीर के भीतर कर्ता शून्य हुआ तो बाहर कर्म गिर गए / सब विराट से हो रहा है । मैं ना-कुछ-शून्यवत / विराट जीवन-मैं ना-कुछ-तो कर्ता विसर्जित / सब नियतिवश–तो कर्ता शून्य / बुद्ध ने शून्यता का प्रयोग किया / हिंदुओं ने नियति का प्रयोग किया / आत्म-ज्ञान से भी कर्ता गिर जाता है / कर्म-संन्यास की बहिर्व्याख्या-कर्म-त्याग / कर्म-संन्यास की अंतर्व्याख्या कर्ता-त्याग / कृष्ण कर्म-संन्यास को अर्जुन के लिए कठिन क्यों बता रहे हैं? / फलाकांक्षा छुट जाए, तो कर्ता नहीं बचता / कर्ताशून्य कर्म अभिनय बन जाता है / कर्ता का रस-फल में कर्म में नहीं / फल-लोलुपता-रिश्वत का आधार / अर्जुन के लिए कर्म-त्याग कठिन है / क्षत्रिय होना अर्जुन की नियति बन चुका है / कर्म-त्याग ब्राह्मण के लिए सरल / जीवन का अलग-अलग प्रशिक्षण / क्षत्रिय का निखार-सघन कर्म में।
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मन का ढांचा-जन्मों-जन्मों का ... 327
तत्व को जानने वाला / विद्यत और चेतना / एक ही ऊर्जा-अनेक रूपों में / कोयला भी हीरा है / विद्युत में छिपी है चेतना / बीज में छिपा है-पूरा वृक्ष / अज्ञानी बहुत चीजों को जानता है / ज्ञानी-एक को जानता है / भ्रांत तादात्म्य-इंद्रियों के कृत्यों से / इंद्रियों से भिन्न-'स्व' का स्मरण / बांधने वाला स्वयं बंध जाता है / स्वयं की मालकियत / गीता के सूत्र साधना के सूत्र हैं / बहिर्मुखता या अंतर्मुखता का कारण क्या है? क्या वे आपस में परिवर्तनशील हैं? कृष्ण अंतर्मुखी हैं या बहिर्मुखी? / आदतों का सतत निर्माण / सारी शिक्षा बहिर्मुखता की / जन्मों-जन्मों की शिक्षा / बहिर्मुखता की उपयोगिता / जीवन की गहराइयों में अंतर्मुखता का ही मूल्य है / मृत्यु बोध अंतर्मुखी बनाता है / बहिर्मुखी की साधना—अंतर्मुखी से भिन्न / अति की अवस्था में, धक्के से, अचानक रूपांतरण संभव / बाल्या डाकू का ऋषि वाल्मीकि हो जाना / व्यक्तित्व के अनुकूल साधना-पद्धति चुनना / मंजिल पर व्यक्तित्व खो जाता है | कष्ण हैं-व्यक्तित्व-अतीत / बद्ध और महावीर में व्यक्तित्व दिखना–साधना पद्धति के कारण / कृष्ण सभी पद्धतियों की बात करते हैं / राम का मर्यादित व्यक्तित्व / पूर्णावतार कृष्ण-समझ के बाहर / पूरे कृष्ण का स्वीकार दुरूह है / चुनावशून्य जीवन / जल में कमलवत / सब कुछ परमात्मा को समर्पित कर देना / समर्पण-परम सामर्थ्य है / न पाप छुते-न पुण्य / चेतना का क्वारापन / क्वांरी मां से जन्मे जीसस / बुद्ध, महावीर, कृष्ण-सभी क्वारी मां से जन्मे / धार्मिक जीवन अर्थात प्रभु-समर्पित जीवन।
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अहंकार की छाया है ममत्व ... 341 . '
जन्मों-जन्मों की कर्म-त्वरा / हमारी जिंदगी-एक उतार / कर्मों का क्षय / ममत्व नीचे की यात्रा है / 'मेरे' 'मैं' का प्राण है / 'मेरे' अहंकार की छाया है / 'मैं' का झूठ-'मेरे' का जाल / 'मेरे' के गिरते ही 'मैं भी गिर जाता / ज्ञान और त्याग तक का ममत्व / चिकित्सा का पहला कदम-बीमारी का बोध / दो प्रकार के लोग-सकामी और निष्कामी / आकांक्षा के पाश में खिंचा हुआ आदमी / समर्पण से निष्कामता / मांगशून्य प्रार्थना / भजन-कीर्तन—आभार है, धन्यवाद है / मांगने वाले को नहीं मिलता / कामना का संसार-चक्र / निष्कामता धर्म है / इस बहिर्मुखी युग में आप ध्यान क्यों सिखाते हैं? /ध्यान अंतर्मुखी के लिए / प्रार्थना बहिर्मुखी के लिए / मेरा ध्यान दोनों का जोड़ है / कीर्तन का प्रभाव / ध्यान के पहले तीन चरण-बहिर्मुखी के लिए / चौथा चरण-अंतर्मुखी के लिए / खूब चल कर रुकना आसान / गीता-प्रवचन से कीर्तन का क्या संबंध है? और आपका कीर्तन अराजक क्यों है? / प्रवचन बुद्धि के लिए / कीर्तन हृदय के लिए / ठीक समझे तो हृदय भी आंदोलित होगा / शब्द असमर्थ हैं / कृष्ण ने अर्जुन को गीता कही-गोपियों के साथ नाचे / कृष्ण का रास-गीता से भी गहरा / गीता-दर्शनशास्त्र नहीं-जीवन-संगीत बने / व्यवस्था का संबंध बुद्धि से है / हृदय बेहिसाब है / प्रशिक्षित नृत्य-व्यावसायिक / कीर्तन हृदय का उन्मेष है / धर्म चाहिए-नृत्य और उत्सव भरा / मंदिर में तो कम से कम स्त्री-पुरुष-देह भूल जाना चाहिए / हरिनाम की कोई व्यवस्था नहीं है / अराजकता से ही भीतर के बंधन गिरेंगे/ परमात्मा हमारा स्वभाव है / सागर बिच मीन पियासी / शुद्ध अंतःकरण दर्पण बन जाता है / भारतीय मनीषा का सार अनुभव-सत् चित् आनंद / परमात्मा है सत्-संसार है परिवर्तन / चेतना का सागर / परिवर्तन में दुख है | मूर्छा में दुख है / आनंद स्व-स्फूर्त है।
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माया अर्थात सम्मोहन ... 355
परमात्मा स्रष्टा तो है—पर कर्ता नहीं / परमात्मा के लिए कोई 'तू' नहीं है / परमात्मा नर्तक है-और सृष्टि उसका नृत्य / परमात्मा प्रकृति के बिना भी हो सकता है / परमात्मा कैटेलिटिक एजेंट है / सिर्फ मौजूदगी से घटनाएं घटित / प्रकृति अपने गुणधर्म से बर्तती है / जीन पियागेट के प्रयोगः मातृत्व की उष्मा / स्नेह से वंचित रुग्ण बच्चा / मां के दूध के साथ-साथ प्रेम की ऊर्जा का बहना / प्रेम और प्रार्थना / शक्तिशाली की मौजूदगी काफी है / गुरु की मौजूदगी और आदर का बहना / विराट ब्रह्मांड चलता है-बिना कर्ता के / कर्ताशून्य, सहज जीने वाला संन्यासी है / प्रयास से कर्ताभाव / एक महिला का चांटा मारना / प्रकृति से ऊपर उठना / परमात्मा और प्रकृति-यह द्वैत क्यों? / बुद्धि से समझाते ही दो हो जाता है / समझने के लिए तोड़ना पड़ेगा / विज्ञान है विश्लेषण-धर्म है संश्लेषण / ज्ञान में अद्वैत-अज्ञान में द्वैत / पाप-पुण्य-भेद-कर्ता के कारण / परमात्मा-पाप-पुण्य से परे / माया अर्थात सम्मोहन / अनंत जन्मों के संस्कारों का सम्मोहन / वासना सम्मोहन है / अचेतन मन की क्षमता / हमारा मायावी प्रेम / एक युवक पर सम्मोहन का प्रयोगः संस्मरण / धन का सम्मोहन-त्याग का सम्मोहन / कवियों का मनोजगत / सम्मोहन से जाग जाना / परमात्मा और माया में क्या भिन्नता है? / रस्सी में सांप देखना / माया है तो परमात्मा नहीं / परमात्मा है तो माया नहीं / माया अर्थात जो नहीं है और दिखाई पड़ता है / कल्पना की क्षमता / सपनों से जागो।
तीन-सूत्र-आत्म-ज्ञान के लिए ... 371
__अंधकार का अस्तित्व नहीं है / अंधकार प्रकाश का अभाव है / आत्म-अज्ञान अभाव है-आत्म-ज्ञान का / आत्मा स्वयं ज्ञान है / सोया हुआ ज्ञान-जागा हुआ ज्ञान / माचिस में सोयी हुई अग्नि / क्षुद्र से हार-नींद के कारण / जवानी में काम-तंद्रा./ बुढ़ापे में-मोह-लोभ-तंद्रा / जागरण / आत्म-जागरण के तीन सूत्रः संकल्प, साहस और संयम / संकल्पहीनता की दीनता / भीड़ का भय / साहस अर्थात अज्ञात में, स्वयं में छलांग / ऊर्जा गंवाने की मूढ़ता / अंतर्यात्रा के लिए ऊर्जा चाहिए / परमात्मा की झलक / झलक तदरूपता नहीं है / 'मैं' मिटे तो परमात्मा / सब आवागमन अहंकार का / 'मैं' की मुक्ति नहीं—'मैं' से मुक्ति / 'मैं' दुख है । अज्ञान की विनम्रता / ज्ञान का दंभ / परमात्मा की आग / अहंकार जलकर राख होना / धन्यता-तदरूपता से / जो पाना है, वैसा हो जाना पड़ता है / परमात्मा सम है / काम, क्रोध, लोभ-विषमता लाते हैं / प्रेम, करुणा, दान–समता लाते हैं / जो विषमता लाए-वह अधर्म / जो समता लाए-वह धर्म / आकर्षण-विकर्षण / जो हमारे भीतर है-वही हम बाहर देखते हैं / भीतर का चोर, भीतर का बेईमान / शुभ-दर्शन से प्रभु की ओर गति / भीतर समता–बाहर शुभ-दर्शन / समता और शुभ की पूर्णता-परमात्मा से तदरूपता।
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अकंप चेतना 385
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स्वयं में ठहर गई चेतना / प्रिय-अप्रिय, राग-विराग में कंपित मन / प्रिय क्या? अप्रिय क्या? / तृप्ति का भ्रम / दूर के ढोल सुहावने / मिलते ही व्यर्थ हो जाता है / दो विपरीत के बीच साक्षी को साधना / यांत्रिक प्रतिक्रियाओं के प्रति होश / हमारे सुख-दुख - बिजली की तरंगें मात्र / अकंप चेतना और प्रभु - मिलन / समता का संशयरहित होने से क्या संबंध है? / संशय भी कंपन है / कंपन के दो द्वार-भाव और विचार / आस्तिक, नास्तिक — दोनों कंपित / न पक्ष न विपक्ष / धार्मिक व्यक्ति अकंपित होता है / विश्वास अविश्वास का कंपन / मतांधता और भय / विपरीत से भयभीत — घंटाकर्ण / सेफ्टी मेजर्स – सुरक्षा के इंतजाम / तर्क और विवाद की व्यर्थता / विश्वास और संदेह जुड़े हुए हैं / किसी भी द्वार से तटस्थ, चुनावरहित हो जाना है / आसक्ति की प्रक्रिया / विषय-वस्तु और मनोवासना का मिलना / मनोवासना की निष्क्रियता से अनासक्ति / होश से निर्वासना / वृत्तियों के प्रति जागरूकता / होश है पहरेदार / चारों ओर से विषय-वस्तुओं का चित्त पर आघात / वासना और आसक्ति का जाल / वासनाओं के थपेड़े / वृत्तियों के दो हिस्से – वालंटरी और नान-वालंटरी / स्वेच्छा-सीमा में ही कामवासना के प्रति जाग जाना सरल है / विज्ञान भैरव तंत्र की एक सौ बारह विधियां / मध्य में रुकना / द्वैत में रुकना–अद्वैत में प्रवेश / इंद्रिय-सुख क्षणिक हैं / सुख का आभास - मूर्च्छा के कारण / सुखों के इंद्रधनुष / मिले हुए में अरुचि / अभाव का आकर्षण / मनुष्य का भागा हुआ पन / सुखों की क्षणभंगुरता की पीड़ा / स्व-स्थित चेतना - परम सत्ता में प्रवेश ।
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काम से राम तक...399
योगी अर्थात वह जो काम-क्रोध के पार हुआ / काम-क्रोध संयुक्त वेग हैं / दूसरे से सुख मिलने की आशा / वासना तृप्ति से विषाद / काम अवरोध क्रोध / काम-केंद्रित मनुष्य की पीड़ा / समृद्ध देशों में यौन स्वातंत्र्य से विक्षिप्तता में वृद्धि / काम - विकृतियों का कारण / बाल-विवाह के अभाव में युवा विद्रोह का जन्म / सृजन क्षमता का ह्रास / काम का न दमन-न अति भोग / काम का अतिक्रमण / फ्रायड का निष्कर्ष : मनुष्य आनंदित नहीं हो सकता / बुद्ध पुरुषों का निष्कर्ष : मनुष्य परमानंद को पा सकता है / पश्चिम की मान्यता : काम-मुक्ति संभव नहीं / दायित्व-हीनता / काम-अतिक्रमण के सूत्र - मिलने पूरब में / एक-दूसरे से सुख की भीख मांगना / आनंद के आंतरिक स्रोत पर - वासना से मुक्ति / काम-ऊर्जा पर ध्यान / कुंडलिनी अर्थात काम-ऊर्जा का अंतर्गमन / अंतर्गमन से क्षमा और आनंद का जन्म / बहिर्गमन से विषाद और क्रोध का जन्म / प्राचीन गुरुकुलों में ब्रह्मचर्य की शिक्षा / काम-केंद्र पर ध्यान / काम है— पर निर्भरता / राम है— स्व-निर्भरता / काम है - बहिर्गमन / राम है— अंतर्गमन / स्वामी रामतीर्थ के शरीर से राम की नाद का गुंजन / बाहर है दुख – भीतर है सुख / बाहर खोजना – सुख, शांति, ज्ञान / बहिर्मुखता से बढ़ता हुआ तनाव / तनावों को भुलाने के रासायनिक उपाय / मूर्च्छा की खोज / तीन प्रकार की खोजें - सुख की, ज्ञान की, विश्राम की / भीतर है तृप्ति / बीज में छिपा है वृक्ष / छिपी संभावनाओं का प्रगटीकरण / महत्वाकांक्षाओं की दौड़ में भटकना / दौड़ का अभ्यास – फिर विश्राम कठिन / सब कुछ भीतर है / अंतस प्रवेश के प्रयोग / न करना सीखना / विराम के क्षण – निर्विकार के क्षण / आत्म-स्मरण / छुट्टी के दिन की भाग-दौड़ / हॉली - डे - पवित्र दिन - विश्राम का दिन / आनंद हमारा स्वभाव है।
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काम-क्रोध से मुक्ति ... 413
अर्जुन खोजता था युद्ध से पलायन-कृष्ण देने लगे अंतर-क्रांति / जीवन ऊर्जा को नई दिशा देना / अशांति की विधि / सब कृत्य और विचार हमें बदलते हैं / जैसा बोते हैं, वैसा ही काटते हैं / अशांति-परमात्मा से टूटना है / स्वयं और दसरे के बीच समता / स्वयं के प्रति भी तटस्थता / सम अर्थात निर्द्वद्व, चुनावरहित / काम और क्रोध की सतत अंतर्धारा / अपनी गलत प्रतिमा निर्मित करना / आदमी रेशनल एनिमल कम–रेशनलाइजिंग एनिमल ज्यादा है / क्रोध के लिए कारण खोजना / पहले स्वीकार-फिर रूपांतरण / काम-क्रोध से मुक्ति की विधि / भ्रू-मध्य-दृष्टि और प्राण-अपान की समता / सात इंद्रियां-बहिर्जगत के द्वार / कान के पास सातवीं इंद्रिय-संतुलन की / छठवीं इंद्रिय-अंतःकरण, हृदय / सात आंतरिक इंद्रियां-सात चक्र / चक्र हैं—अंतर्जगत के द्वार / भ्र-मध्य के पास का आज्ञा-चक्र-संकल्प का स्रोत / इंद्रियां सक्रिय होती हैं-ध्यान से जुड़ने पर / आज्ञा-चक्र पर ध्यान-क्षत्रिय के लिए / चक्रों का जीवंत हो उठना / स्त्रैण चित्त के लिए हृदय पर ध्यान उचित / रामकृष्ण के स्तनों का बढ़ना और मासिक-धर्म का आना / श्वास-प्रश्वास के सम हुए क्षण-ध्यानमय / गर्भ में बच्चा सम होता है / जन्म-क्षण, मृत्यु-क्षण और समाधि-क्षण में श्वास की समता / न बाहर-न भीतर / न्यूट्रल गियर से रूपांतरण / कामी, क्रोधी बड़े ऊर्जावान / ऊर्जा का रूपांतरण / क्रोध का उपयोग-क्रोध के बाहर रह कर / ऋषियों द्वारा वीर्य-दान / निर्वासना हुए व्यक्ति से पवित्रतम वीर्य उपलब्ध / आज्ञा-चक्र के सक्रिय होने पर-इंद्रियजय घटित / कृष्ण के 'मैं' में समस्त 'तू' सम्मिलित हैं / कृष्ण अर्जुन के सारथी!/ अहंकारी सारथी न बनना चाहेगा / अर्जुन को कृष्ण की अहंशून्यता का बोध है / मामेकं शरणं व्रज-मुझ एक की शरण आ / स्वयं के परमात्मा होने की घोषणा / अहंकार को चोट लगाना / कृष्णमूर्ति का श्रोतावर्ग-बहुत अहंकारी / कृष्ण के समय अहंकार घना नहीं था / समर्पण मुक्ति है / ऊर्जा समर्पण बनती है / गीता का हर अध्याय अपने में पूर्ण है / पहले समझें—फिर करें-उसे जीवन में उतारें।
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अध्याय 4 पहला प्रवचन
सत्य एकजानने वाले अनेक
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गीता दर्शन भाग-26
श्रीमद्भगवद्गीता
| मेटाफर का, इस प्रतीक का क्या अर्थ हो सकता है? अथ चतुर्थोऽध्यायः
जो भी अध्यात्म की गहराइयों में उतरे हैं, उन सबका एक
सुनिश्चित अनुभव है और वह यह कि अध्यात्म की आखिरी गहराई श्री भगवानुवाच
में प्रकाश ही शेष रह जाता है और सब खो जाता है। जब व्यक्ति इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् । अध्यात्म में शून्य होता है, अहंकार विलीन होता है, तो प्रकाश ही विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ।। १।। रह जाता है, और सब खो जाता है। व्यक्ति जब अध्यात्म की गहराई श्रीकृष्ण भगवान बोले, हे अर्जुन, मैंने इस अविनाशी योग । में उतरता है, तो वह वहीं पहुंच जाता है, जब समय के पहले सब को कल्प के आदि में सूर्य के प्रति कहा था और सूर्य ने कुछ था। गहरे अनुभव, प्रथम और अंतिम, समान होते हैं। अपने पुत्र मनु के प्रति कहा और मनु ने अपने पुत्र राजा __यही मैंने सूर्य को कहा था, कृष्ण जब यह कहते हैं, तो वे यह इक्ष्वाकु के प्रति कहा।
कहते हैं, यही मैंने प्रकाश की पहली घटना को कहा था।
इस जगत के प्रारंभ की पहली घटना प्रकाश है और इस जगत के
अंत की अंतिम घटना भी प्रकाश है। व्यक्ति के आध्यात्मिक जन्म सत्य न तो नया है, न पुराना। जो नया है, वह पुराना हो का भी प्रारंभ प्रकाश है और आध्यात्मिक समारोप भी प्रकाश है। रा जाता है। जो पुराना है, वह कभी नया था। जो नए से कुरान कहता है, परमात्मा प्रकाश-स्वरूप है। बाइबिल कहती
पुराना होता है, वह जन्म से मृत्यु की ओर जाता है। है, परमात्मा प्रकाश ही है। कृष्ण यहां प्रकाश को सूर्य कहते हैं। सत्य का न कोई जन्म है, न कोई मृत्यु है। इसलिए सत्य न नया हो सूर्य को कहा था सबसे पहले, क्योंकि सबसे पहले प्रकाश था; सकता है, न पुराना हो सकता है। सत्य सनातन है।
और फिर जो भी जन्मा है, वह प्रकाश से ही जन्मा है। फिर प्रकाश सनातन का अर्थ, सत्य समय के बाहर है, बियांड टाइम है। के पुत्र को कहा था, फिर उसके पुत्र को कहा था। वस्तुतः समय के भीतर जो भी है, वह नया भी होगा और पुराना भी | इसमें यह भी समझ लेने जैसा है कि कृष्ण कहते हैं, मैंने। होगा। समय के भीतर जो है, वह पैदा भी होगा और मरेगा भी; | निश्चित ही, यह मैं, वह जो कृष्ण की देह थी अर्जुन के सामने जवान भी होगा और बूढ़ा भी होगा। कभी स्वस्थ भी होगा और | खड़ी, उसके संबंध में नहीं हो सकता। वह देह तो अभी कुछ वर्ष
स्वस्थ भी होगा। समय के भीतर जो है, वह परिवर्तनमय पहले पैदा हुई थी और कुछ वर्ष बाद विदा हो जाएगी। कृष्ण जिस होगा; समय के बाहर जो है, वही अपरिवर्तित हो सकता है। मैं की बात कर रहे हैं, वह कोई और ही मैं होना चाहिए। __ कृष्ण ने इस सूत्र में बहुत थोड़ी-सी बात में बहुत-सी बात कही | । जीसस ने अपने एक वक्तव्य में कहा है किसी ने जीसस को है। एक तो उन्होंने यह कहा कि यह जो मैं तुझसे कहता हूं अर्जुन, | पूछा, अब्राहम के संबंध में आपका क्या खयाल है? अब्राहम एक वही मैंने सूर्य से भी कहा था, समय के प्रारंभ में, आदि में। इसमें | पुराना पैगंबर हुआ यहूदियों का। पूछा जीसस से किसी ने, अब्राहम दो-तीन बातें समझ लेनी जरूरी हैं।
के संबंध में आपका क्या खयाल है? तो जीसस ने कहा, बिफोर समय के प्रारंभ का क्या अर्थ हो सकता है? सच तो यह है कि अब्राहम वाज़, आई वाज़। इसके पहले कि अब्राहम था, मैं था। जहां भी प्रारंभ होगा, वहां समय पहले से ही मौजूद हो जाएगा। अब्राहम के पहले भी मैं था। सब प्रारंभ समय के भीतर होते हैं, समय के बाहर कोई प्रारंभ नहीं | निश्चित ही, यह मरियम के बेटे जीसस के संबंध में कही गई बात हो सकता, क्योंकि सब अंत समय के भीतर होते हैं। कृष्ण जब नहीं है। अब्राहम के पहले! अब्राहम को हुए तो हजारों साल हुए! कहते हैं, समय के प्रारंभ में, तो उसका अर्थ ही यही होता है, समय कृष्ण सूर्य की-जगत की पहली घटना की-फिर मनु की, के बाहर। समय के भीतर अगर कोई प्रारंभ होगा, तो वह शाश्वत | । इक्ष्वाकु की, इनकी बात कर रहे हैं। उन्हें हुए हजारों वर्ष हुए। कृष्ण सत्य की घोषणा नहीं कर सकता है।
तो अभी हुए हैं। अभी अर्जुन के सामने खड़े हैं। जिस कृष्ण की यह ___ जब समय नहीं था, तब मैंने सूर्य को भी यही कहा है। इस बात बात है, वह किसी और कृष्ण की बात है। को भी थोड़ा समझ लेना जरूरी है कि सूर्य को भी यही कहा है, इस एक घड़ी है जीवन की ऐसी, जब व्यक्ति अपने अहंकार को
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सत्य एक–जानने वाले अनेक
छोड़ देता, तो उसके भीतर से परमात्मा ही बोलना शुरू हो जाता सुनने वाला बदल गया और युग के साथ भाषा बदल गई। है। जैसे ही मैं की आवाज बंद होती है, वैसे ही परमात्मा की आवाज महावीर जो कहते हैं, वह वही कहते हैं, जो वेदों ने कहा है; पर शुरू हो जाती है। जैसे ही मैं मिटता हूं, वैसे ही परमात्मा ही शेष | भाषा बदल गई, बोलने वाला बदल गया, सुनने वाले बदल गए। रह जाता है।
और कई बार शब्दों और भाषा की बदलाहट इतनी हो जाती है कि यहां जब कृष्ण कहते हैं, मैंने ही कहा था सूर्य से, तो यहां वे दो अलग-अलग यगों में प्रकट सत्य विपरीत और विरोधी भी व्यक्ति की तरह नहीं बोलते, समष्टि की भांति बोलते हैं। और मालूम पड़ने लगते हैं। कृष्ण के व्यक्तित्व में इस बात को ठीक से समझ लेना जरूरी है मनुष्य जाति के इतिहास में इससे बड़ी दुर्घटना पैदा हुई है। कि बहुत क्षणों में वे अर्जुन के मित्र की भांति बोलते हैं, जो कि इस्लाम या ईसाइयत या हिंदू या बौद्ध या जैन, ऐसा मालूम पड़ते हैं समय के भीतर घटी हुई एक घटना है। और बहुत क्षणों में वे कि विरोधी हैं, राइवल्स हैं, शत्रु हैं। ऐसा प्रतीत होता है, इन सबके परमात्मा की तरह बोलते हैं, जो समय के बाहर घटी घटना है। सत्य अलग-अलग हैं। इन सबके युग अलग-अलग हैं, इन
कृष्ण पूरे समय दो तलों पर, दो डायमेंशंस में जी रहे हैं। इसलिए सबके बोलने वाले अलग-अलग हैं, इन सबके सुनने वाले कृष्ण के बहुत-से वक्तव्य समय के भीतर हैं, और कृष्ण के अलग-अलग हैं, इनकी भाषा अलग-अलग है; लेकिन सत्य जरा बहुत-से वक्तव्य समय के बाहर हैं। जो वक्तव्य समय के बाहर | भी अलग नहीं है। और धार्मिक व्यक्ति वही है, जो इतने विपरीत हैं, वहां कृष्ण सीधे परमात्मा की तरह बोल रहे हैं। और जो वक्तव्य शब्दों में कहे गए सत्य की एकता को पहचान पाता है; अन्यथा जो समय के भीतर हैं, वहां वे अर्जुन के सारथी की तरह बोल रहे हैं। व्यक्ति विरोध देखता है, वह व्यक्ति धार्मिक नहीं है। इसालए जब व अजुन से कहत है, है महाबाहो! तब वे अर्जुन के तो कृष्ण यहां एक बहुत महत्वपूर्ण बात भी कह रहे हैं। वे यह मित्र की तरह बोल रहे हैं। लेकिन जब वे अर्जुन से कहते हैं, सर्व कह रहे हैं कि यही सत्य, ठीक यही बात पहले भी कही गई है। यहां धर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज-सब छोड़, तू मेरी शरण में एक बात और भी खयाल में ले लेनी जरूरी है। आ—तब वे अर्जुन के सारथी की तरह नहीं बोल रहे हैं। कृष्ण ओरिजिनल होने का, मौलिक होने का दावा नहीं कर रहे
इसलिए गीता, और गीता ही नहीं, बाइबिल या कुरान या बुद्ध हैं। वे यह नहीं कह रहे हैं कि यह मैं ही पहली बार कह रहा हूं; यह और महावीर के वचन दोहरे तलों पर हैं। और कब बीच में परमात्मा नहीं कह रहे हैं कि मैंने ही कुछ खोज लिया है। वे यह भी नहीं कह बोलने लगता है. इसे बारीकी से समझ लेना जरूरी है. अन्यथा रहे हैं कि अर्जन, त सौभाग्यशाली है, क्योंकि सत्य को तू ही पहली समझना मुश्किल हो जाता है।
बार सुन रहा है। न तो बोलने वाला मौलिक है, न सुनने वाला ___ जब कृष्ण कहते हैं, सब छोड़कर मेरी शरण आ जा, तब इस मौलिक है; न जो बात कही जा रही है, वह मौलिक है। इसका यह मेरी शरण से कृष्ण का कोई भी संबंध नहीं है। तब इस मेरी शरण मतलब नहीं है कि पुरानी है। से परमात्मा की शरण की ही बात है।
अंग्रेजी में जो शब्द है ओरिजिनल और हिंदी में भी जो शब्द है इस सूत्र में जहां कृष्ण कह रहे हैं कि यही बात मैंने सूर्य से भी मौलिक, उसका मतलब भी नया नहीं होता। अगर ठीक से समझें, कही थी-मैंने। इस मैं का संबंध जीवन की परम ऊर्जा, परम तो ओरिजिनल का मतलब होता है, मूल-स्रोत से। मौलिक का भी शक्ति से है। और यही बात! इसे भी समझ लेना जरूरी है। अर्थ होता है, मूल-स्रोत से। मौलिक का अर्थ भी नया नहीं होता।
सत्य अलग-अलग नहीं हो सकता। बोलने वाले बदल जाते हैं, | ओरिजिनल का अर्थ भी नया नहीं होता। सुनने वाले बदल जाते हैं; बोलने की भाषा बदल जाती है; बोलने __ अगर इस अर्थों में हम समझें मौलिक को, तो कृष्ण बड़ी मौलिक के रूप बदल जाते हैं, आकार बदल जाते हैं, सत्य नहीं बदल बात कह रहे हैं। वे कह रहे हैं, समय के मूल में यही बात मैंने सूर्य जाता। अनेक शब्दों में, अनेक बोलने वालों ने, अनेक सुनने वालों से भी कही थी; वही सूर्य ने अपने पुत्र को कही थी; वही सूर्य के से वही कहा है।
| पुत्र ने अपने पुत्र को कही थी। यह बात मौलिक है। मौलिक अर्थात उपनिषद जो कहते हैं, बुद्ध उससे भिन्न नहीं कहते; लेकिन मूल से संबंधित, नई नहीं। ओरिजिनल, कंसर्ड विद दि ओरिजिन; बिलकुल भिन्न कहते मालूम पड़ते हैं। बोलने वाला बदल गया, वह जो मूल-स्रोत है, जहां से सब पैदा हुआ, वहीं से संबंधित है।
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गीता दर्शन भाग-20
लेकिन आज के युग में मौलिक का कुछ और ही अर्थ हो गया | गहरी नहीं होती। जानने वाले को, करने वाले को पता ही होता है। है। मौलिक का अर्थ है, कोई आदमी कोई नई बात कह रहा है। | जो भूलें सहज घटित होती हैं, बहुत गहरी होती हैं। मूल की बात कह रहा है। नए अर्थों में कृष्ण की बात नई नहीं है। अगर हम प्लेटो से पूछे, तो वह कहेगा, जो मैं कह रहा है, वह मूल के अर्थों में मौलिक है, ओरिजिनल है। वह जो सभी चीजों का | मैं ही कह रहा हूं। अगर हम कांट से पूछे, तो कांट कहेगा, जो मैं मूल है, सभी अस्तित्व का, वहीं से इस बात का भी जन्म हुआ है। | कह रहा हूं, वह मैं ही कह रहा हूं। अगर हम हीगल से पूछे, तो
मौलिक का जो आग्रह है नए के अर्थों में, अहंकार का आग्रह | हीगल भी कहेगा कि जो मैं कह रहा हूं, वह मैं ही कह रहा हूं। अगर है, ईगोइस्टिक है। जब भी कोई आदमी कहता है, यह मैं ही कह | हम कृष्णमूर्ति से पूछे, तो वे भी कहेंगे, जो मैं कह रहा हूं, मैं ही रहा हूं पहली बार, तो पागलपन की बात कह रहा है। कह रहा हूं। यह बड़ी स्वाभाविक भूल है।
लेकिन ऐसे पागलपन के पैदा होने का कारण है। इस बार वसंत कृष्ण कह रहे हैं, यही बात-नई नहीं; पुरानी नहींआएगा, फूल खिलेंगे। उन फूलों को कुछ भी पता नहीं होगा कि अनंत-अनंत बार अनंत-अनंत ढंगों से अनंत-अनंत रूपों में कही वसंत सदा ही आता रहा है। उन फूलों का पुराने फूलों से कोई | गई है। परिचय भी तो नहीं होगा; उन फूलों को पुराने फूल भी नहीं मिलेंगे। सत्य के संबंध में इतना निराग्रह होना अति कठिन है। इतना वे फूल अगर खिलकर घोषणा करें कि हम पहली बार ही खिल रहे। | गैर-दावेदार होना, यह दावा छोड़ना है। हैं. तो कछ आश्चर्य नहीं है: स्वाभाविक है। लेकिन सभी | ध्यान रहे. हम सब को सत्य से कम मतलब होता है. मेरे सत्य स्वाभाविक, सत्य नहीं होता। स्वाभाविक भूलें भी होती हैं। यह | से ज्यादा मतलब होता है। पृथ्वी पर चारों ओर चौबीस घंटे इतने स्वाभाविक भूल है, नेचरल इरर है।
विवाद चलते हैं, उन विवादों में सत्य का कोई भी आधार नहीं होता, जब कोई युवा पहली दफा प्रेम में पड़ता है या कोई युवती पहली | | मेरे सत्य का आधार होता है। अगर मैं आपसे विवाद में पडूं, तो बार प्रेम में पड़ती है, तो ऐसा लगता है, शायद ऐसा प्रेम पृथ्वी पर | इसलिए विवाद में नहीं पड़ता कि सत्य क्या है, इसलिए विवाद में पहली बार ही घटित हो रहा है। प्रेमी अपनी प्रेमिकाओं से कहते हैं। | पड़ता हूं कि मेरा सत्य ही सत्य है और तुम्हारा सत्य सत्य नहीं है। कि चांद-तारों ने ऐसा प्रेम कभी नहीं देखा। और ऐसा नहीं कि वे | समस्त विवाद मैं और तू के विवाद हैं, सत्य का कोई विवाद नहीं झूठ कहते हैं। ऐसा भी नहीं कि वे धोखा देते हैं। नेचरल इरर है, | | है। जहां भी विवाद है, गहरे में मैं और तू आधार में होते हैं। इससे बिलकुल स्वाभाविक भूल करते हैं। उन्हें पता भी तो नहीं कि इसी | | बहुत प्रयोजन नहीं होता है कि सत्य क्या है? इससे ही प्रयोजन होता तरह यही बात अरबों-खरबों बार न मालूम कितने लोगों ने, न | | है कि मेरा जो है, वह सत्य है। असल में सत्य के पीछे हम कोई भी मालूम कितने लोगों से कही है।
| खड़े नहीं होना चाहते, क्योंकि सत्य के पीछे जो खड़ा होगा, वह हर प्रेमी को ऐसा ही लगता है कि उसका प्रेम मौलिक है। और | | मिट जाएगा। हम सब सत्य को अपने पीछे खड़ा करना चाहते हैं। हर प्रेमी को ऐसा लगता है, ऐसी घटना न कभी पहले घटी और न | ___ लेकिन ध्यान रहे, सत्य जब हमारे पीछे खड़ा होता है, तो झूठ हो कभी घटेगी। और उसका लगना बिलकुल आथेंटिक है, प्रामाणिक | | जाता है। हमारे पीछे सत्य खड़ा ही नहीं हो सकता, सिर्फ झूठ ही है। उसे बिलकुल ही लगता है; उसके लगने में कहीं भी कोई धोखा | | खड़ा हो सकता है। सत्य के तो सदा ही हमें ही पीछे खड़ा होना पड़ता नहीं है। फिर भी बात गलत है।
है। सत्य हमारी छाया नहीं बन सकता, हमको ही सत्य की छाया सत्य का अनुभव भी जब व्यक्ति को होता है, तो ऐसा ही लगता | | बनना पड़ता है। लेकिन जब विवाद होते हैं, तो ध्यान से सुनेंगे तो है कि शायद इस सत्य को और किसी ने कभी नहीं जाना। ऐसा ही | पता चलेगा, जोर इस बात पर है कि जो मैं कहता हूं, वह सत्य है। लगता है कि जो मुझे प्रतीत हुआ है, वह मुझे ही प्रतीत हुआ है। | जोर इस बात पर नहीं है कि सत्य जो है, वही मैं कहता हूं। यह स्वाभाविक भूल है।
__कृष्ण का जोर देखने लायक है। वे कहते हैं, जो सत्य है, वही कष्ण इस स्वाभाविक भल में नहीं हैं।
| मैं तुझसे कह रहा हूं। मैं जो कहता हूं, वह सत्य है। ऐसा उनका ध्यान रहे, की गई भूलों के ऊपर उठना बहुत आसान है; हो गई| आग्रह नहीं। और इसलिए मुझसे पहले भी कही गई है यही बात। भूलों के ऊपर उठना बहुत कठिन है। जानकर की गई भूल बहुत | नए युग में एक फर्क पड़ा है। नया युग बहुत आग्रहपूर्ण है।
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सत्य एक-जानने वाले अनेक
महावीर नहीं कहेंगे कि मैं जो कह रहा हूं, वह मैं ही कह रहा हूं। वे | और अगर मैं आपसे कहूं, तो भी सत्य वहीं है। कल हम भी न कहते हैं, मुझसे भी पहले पार्श्वनाथ ने भी यही कहा है। मुझसे | होंगे, फिर कोई कहेगा, और सत्य वहीं होगा। हम आएंगे और पहले ऋषभदेव ने भी यही कहा है। मुझसे पहले नेमीनाथ ने भी | जाएंगे, बदलेंगे, समाप्त होंगे, नए होंगे, विदा होंगे-सत्य, सत्य यही कहा है। बुद्ध नहीं कहते कि जो मैं कह रहा हूं, वह मैं ही कह | अपनी जगह है। इस सूत्र में इन सब बातों पर ध्यान दे सकेंगे, तो रहा हूं। वे कहते हैं, मुझसे भी पहले जो बुद्ध हुए, जिन्होंने भी जाना | आगे की बात समझनी आसान है। और देखा है, उन्होंने यही कहा है।
कोई सवाल हो, तो पूछ लें! ऐसी भ्रांति हो सकती है कि ये सारे लोग पुरानी लीक को पीट रहे हैं। नहीं, पर वे यह नहीं कह रहे कि सत्य पुराना है। क्योंकि ध्यान रहे, जो चीज भी पुरानी हो सकती है, उसके नए होने का भी
एवं परम्परप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः। दावा किया जा सकता है। नए होने का दावा किया ही उसका जा स कालेनेह महता योगो नष्टः परंतप ।।२।। सकता है, जो पुरानी हो सकती है, जिसकी पासिबिलिटी पुरानी होने इस प्रकार परंपरा से प्राप्त हुए इस योग को राजर्षियों ने की है। ये दावा यह कर रहे हैं कि सत्य पुराना और नया नहीं है; जाना। परंतु हे अर्जुन, वह योग बहुत काल से इस सत्य सत्य है। हम नए और पुराने होते हैं, यह दूसरी बात है; लेकिन
पृथ्वी-लोक में लुप्तप्राय हो गया है। सत्य में इससे कोई भी अंतर नहीं पड़ता है।
यह सूर्य निकला, यह प्रकाश है। हम नए हैं। हम नहीं थे, तब भी सूर्य था; हम नहीं होंगे, तब भी सूर्य होगा। यह सूर्य नया और 1 रंपरा से ऋषियों ने इसे जाना, लेकिन फिर वह पुराना नहीं है। हम नए और पुराने हो जाते हैं। हम आते हैं और | । 4 लुप्तप्राय हो गया ये दो बातें। पहली बात तो चले जाते हैं।
आपसे यह कह दूं कि परंपरा का अर्थ ट्रेडीशन नहीं लेकिन हमारी दृष्टि सदा ही यही होती है कि हम नहीं जाते और | है। साधारणतः हम परंपरा का अर्थ ट्रेडीशन करते हैं। ट्रेडीशन का सब चीजें नई और पुरानी होती रहती हैं। हम कहते हैं, रोज समय | अर्थ होता है, रीति। ट्रेडीशन का अर्थ होता है, रूढ़ि। ट्रेडीशन का बीत रहा है। सचाई उलटी है, समय नहीं बीतता, सिर्फ हम बीतते | अर्थ होता है, प्रचलित। परंपरा का अर्थ और है। परंपरा शब्द के हैं। हम आते हैं, जाते हैं; होते हैं, नहीं हो जाते हैं। समय अपनी | | लिए सच में अंग्रेजी में कोई शब्द नहीं है। इसे थोड़ा समझ लेना जगह है। समय नहीं बीतता। लेकिन लगता है हमें कि समय बीत | जरूरी है। रहा है। इसलिए हमने घड़ियां बनाई हैं, जो बताती हैं कि समय बीत | ___ गंगा निकलती है गंगोत्री से; फिर बहती है; फिर गिरती है सागर रहा है। सौभाग्य होगा वह दिन, जिस दिन हम घड़ियां बना लेंगे, | में। जब गंगा सागर में गिरती है, और गंगोत्री से निकलती है, तो जो हमारी कलाइयों में बंधी हुई बताएंगी कि हम बीत रहे हैं। बीच में लंबा फासला तय होता है। इस गंगा को हम क्या कहें?
वस्तुतः हम बीतते हैं, समय नहीं बीतता है। समय अपनी जगह यह गंगा वही है, जो गंगोत्री से निकली? ठीक वही तो नहीं है; है। हम नहीं थे तब भी था, हम नहीं होंगे तब भी होगा। हम समय क्योंकि बीच में और न मालूम कितनी नदियां, और न मालूम कितने को न चुका पाएंगे, समय हमें चुका देगा, समय हमें रिता देगा। झरने उसमें आकर मिल गए। लेकिन फिर भी बिलकुल दूसरी नहीं समय अपनी जगह है, हम आते और जाते हैं। समय खड़ा है; हम | हो गई है; है तो वही, जो गंगोत्री से निकली। . दौड़ते हैं। दौड़-दौड़कर थकते हैं, गिरते हैं, समाप्त हो जाते हैं; तो ठीक परंपरा का अर्थ होता है कि यह गंगा, परंपरा से गंगा सत्य वहीं है।
| है। परंपरा का अर्थ है कि गंगोत्री से निकली, वही है; लेकिन बीच जिस दिन. कष्ण कहते हैं. मैंने सर्य को कहा था: सत्य जहां था, में समय की धारा में बहत कछ आया और मिला। वहीं है। जिस दिन सूर्य ने अपने बेटे मनु को कहा; सत्य जहां था, __ ऐसा समझें कि सांझ आपने एक दीया जलाया। सुबह आप वहीं है। जिस दिन मनु ने अपने बेटे इक्ष्वाकु को कहा; सत्य जहां | कहते हैं, अब दीए को बुझा दो; उस दीए को बुझा दो, जिसे सांझ था, वहीं है। और कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं, तब भी सत्य वहीं है। | जलाया था। लेकिन जिसे सांझ जलाया था, वह दीए की ज्योति अब
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| गीता दर्शन भाग-2017
कहां है? वह तो प्रतिपल बुझती गई और धुआं होती गई और नई ज्योति आती गई। जिस ज्योति को आपने जलाया था सांझ, वह ज्योति तो हर पल बुझती गई और धुआं होती गई, और नई ज्योति उसकी जगह रिप्लेस होती गई। वह ज्योति तो छलांग लगाकर शून्य में खोती गई, और नई ज्योति का आविर्भाव होता गया। जिस ज्योति को सुबह आप बुझाते हैं, यह वही ज्योति है, जिसको सांझ आपने
जलाया था ?
यह वही ज्योति तो नहीं है। वह तो कई बार बुझ गई। लेकिन फिर भी यह दूसरी ज्योति भी नहीं है, जिसको आपने नहीं जलाया था। परंपरा से यह वही ज्योति है । यह उसी ज्योति का सिलसिला है; यह उसी ज्योति की परंपरा है; यह उसी ज्योति की संतति है।
आप आज हैं; कल आप नहीं थे, लेकिन आपके पिता थे। परसों आपके पिता भी नहीं थे, उनके पिता थे। कल आप भी नहीं होंगे, आपका बेटा होगा। परसों बेटा भी नहीं होगा, उसका बेटा होगा। ठीक से समझें, तो जैसे ज्योति जली और बुझी, ठीक ऐसे ही व्यक्ति जलते और बुझते हैं, लेकिन फिर भी एक परंपरा है।
मां और बाप अपने बेटे को ज्योति दे जाते हैं। ज्योति जलती है, फिर नई संतति । अगर हम ठीक से देखें, तो आप हो नहीं सकते थे, अगर हजारों-लाखों वर्ष पहले एक व्यक्ति भी आपकी परंपरा में न हुआ होता। अगर लाखों वर्ष पहले एक व्यक्ति जो आपकी पिता की पीढ़ियों में रहा हो, न होता, तो आप कभी न हो सकते थे। वह गंगोत्री अगर वहां न होती, तो आज आप न होते। आप उसी धारा के सिलसिले हैं, शरीर की दृष्टि से आप उसी के सिलसिले हैं।
और आत्मा की दृष्टि से भी आप सिलसिला हैं, एक परंपरा हैं। यह आत्मा कल भी थी, परसों भी थी- किसी और देह में, किसी और देह में। अरबों-खरबों वर्षों में इस आत्मा की भी एक परंपरा है; शरीर की भी एक परंपरा है। परंपरा का अर्थ है, संतति प्रवाह, कंटिन्युटी |
वैज्ञानिक एक शब्द का प्रयोग करते हैं, कंटीनम । अगर ठीक करीब लाना चाहें, तो परंपरा का अर्थ होगा, कंटीनम - संतति प्रवाह, सिलसिला ।
कृष्ण कह रहे हैं, परंपरा से इसी सत्य को ऋषियों ने एक-दूसरे से कहा ।
इसमें दूसरी बात भी ध्यान रखें। जोर कहने पर है; जोर सुनने पर नहीं है। इसमें कृष्ण कह रहे हैं, परंपरा से ऋषियों ने कहा। कृष्ण यह भी नहीं कह रहे कि परंपरा से ऋषियों ने सुना । जब भी कहा
| गया होगा, तो सुना तो गया ही होगा, लेकिन जोर कहने पर है। | कहने वाले का अनिवार्य रूप से ऋषि होना जरूरी है; सुनने वाले का ऋषि होना जरूरी नहीं है। जिसने सुना, उसने समझा हो, जरूरी | नहीं है। लेकिन जिसने कहा, उसने न समझा हो, तो कहना व्यर्थ है, कहा नहीं जा सकता।
यह भी ध्यान देने योग्य कि कृष्ण कहते हैं कि ऋषियों ने परंपरा से इस सत्य को कहा, परंपरा से पाया नहीं। किसी ने उनसे कहा हो और उनको मिल गया हो, ऐसा नहीं जाना होगा। जानना और बात है, सुन लेना और बात है।
इसलिए हम पुराने शास्त्रों को कहते हैं, श्रुति, सुने गए। या कहते हैं, स्मृति, मेमोराइज्ड, स्मरण किए गए। ध्यान रहे, शास्त्र जानने वालों ने नहीं लिखे, सुनने वालों ने लिखे हैं।
इस पृथ्वी का कोई भी महत्वपूर्ण शास्त्र लिखा नहीं गया है। सुना गया है और लिखा गया है। गीता भी सुनी गई और लिखी गई । जिसने लिखी, जरूरी नहीं कि वह जानता हो। बाइबिल लिखी गई, कुरान लिखा गया, वेद लिखे गए, महावीर - बुद्ध के वचन लिखे गए। महावीर और बुद्ध ने लिखे नहीं हैं, कहे। जिन्होंने लिखे, | उनके लिए वह ज्ञान नहीं था, श्रुति थी। उसे उन्होंने सुना था, उसे | उन्होंने स्मरण किया था, उसे उन्होंने लिखा था; संजोया, सम्हाला । | कहना चाहिए, शास्त्र एक अर्थ में डेड प्रोडक्ट है। कहना चाहिए, मरे हुए का संग्रह है । जिन्होंने कहा, उन्होंने परंपरा से जाना।
परंपरा से जानने के दो अर्थ हो सकते हैं । एक अर्थ, जैसा साधारणतः लिया जाता है, जिससे मैं राजी नहीं हूं। एक अर्थ तो यह लिया जाता है कि हम शास्त्र पढ़ लें और जान तो जो हमने जाना, वह हमने परंपरा से जाना। नहीं; वह हमने परंपरा से नहीं जाना। वह हमने केवल रूढ़ि से जाना, रीति से जाना, व्यवस्था से जाना । और उस तरह का जानना ज्ञान नहीं बन सकता। सिर्फ | इन्फर्मेशन ही होगा; नालेज नहीं बन सकता। उस तरह का जानना मात्र सूचना का संग्रह होगा, ज्ञान नहीं ।
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शास्त्र पढ़कर कोई सत्य को नहीं जान सकता है। हां, सत्य को | जान ले तो शास्त्र में पहचान सकता है, रिकग्नाइज कर सकता है। | शास्त्र पढ़कर ही कोई सत्य को जान ले, तो सत्य बड़ी सस्ती बात | हो जाएगी। फिर तो शास्त्र की जितनी कीमत है, उतनी ही कीमत सत्य की भी हो जाएगी। शास्त्र पढ़कर सत्य जाना नहीं जा सकता, सिर्फ पहचाना जा सकता है।
लेकिन पहचान तो वही सकता है, जिसने जान लिया हो,
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सत्य एक-जानने वाले अनेक
अन्यथा पहचानना मुश्किल है। आप मुझे जानते हैं, तो पहचान | हैं, पेअर्स में जीते हैं। भ्रम भी अकेले नहीं होते। जिस आदमी को सकते हैं कि मैं कौन हूं। और आप मुझे नहीं जानते हैं, तो आप भी यह खयाल पैदा हो जाएगा कि सत्य को जानने वाला मैं पहला पहचान नहीं सकते। इसलिए सत्य शास्त्रों में सिर्फ रिकग्नाइज होता | आदमी हूं, मुझसे पहले किसी ने भी नहीं जाना, उस आदमी को है, कग्नाइज नहीं होता। जाना नहीं जाता, पुनः जाना जाता है। जानने दूसरा भ्रम भी अनिवार्य पैदा होगा कि मैं आखिरी आदमी हूं। मेरे का मार्ग तो कुछ और है।
बाद अब सत्य को कोई नहीं जान सकेगा। क्योंकि जो कारण पहले इसलिए कृष्ण जिस परंपरा की बात कर रहे हैं, वह परंपरा | भ्रम का है, वही कारण दूसरे भ्रम में भी कारण बन जाएगा। पहले शास्त्र की परंपरा नहीं है; वह परंपरा जानने वालों की परंपरा है। | भ्रम का कारण अहंकार है। और ध्यान रहे, जिसका अभी अहंकार जैसे परमात्मा ने सूर्य को कहा। लेकिन इसमें स्मरणीय है यह बात नहीं मिटा, उसको सत्य से कोई सीधा संबंध नहीं हो सकता। कि परमात्मा ने सूर्य को कहा। बीच में किताब नहीं है, बीच में अहंकार बीच में बाधा है। शास्त्र नहीं है। डाइरेक्ट कम्युनिकेशन है। सत्य सदा ही डाइरेक्ट | - इसलिए कृष्ण बहुत जोर देकर कहते हैं कि परंपरा से ऋषियों ने कम्युनिकेशन है। सत्य सदा ही परमात्मा से व्यक्ति में सीधा संवाद जाना। लेकिन ध्यान रखना आप, परंपरा इस तरह की नहीं कि एक है। शास्त्र, शब्द बीच में नहीं है।
| ने दूसरे से जान लिया हो। परंपरा इस तरह की कि जब भी एक ने मोहम्मद पहाड़ पर हैं। बेपढ़े-लिखे, मोहम्मद जैसे बेपढ़े-लिखे जाना, उसने यह भी जाना कि मैं जानने वाला पहला आदमी नहीं लोग बहुत कम हुए हैं। लेकिन अचानक उदघाटन हुआ; डाइरेक्ट हूं; न ही मैं अंतिम आदमी हूं। अनंत ने पहले भी जाना है, अनंत कम्युनिकेशन हुआ। जिसे इस्लाम कहता है, इलहाम। ईसाइयत बाद में भी जानेंगे। मैं जानने वालों की इस अनंत श्रृंखला में एक कहती है, रिवीलेशन। सत्य दिखाई पड़ा। इसलिए हम ऋषियों को | छोटी-सी कड़ी, एक छोटी-सी बूंद से ज्यादा नहीं हूं। यह सूरज द्रष्टा कहते हैं। सत्य देखा गया। पढ़ा नहीं गया, सुना नहीं गया, मेरी बूंद में ही झलका, ऐसा नहीं; यह सूरज सब बूंदों में झलका है देखा गया।
और सब बूंदों में झलकता रहेगा। जब कोई बूंद इतनी विनम्र हो पश्चिम में भी ऋषियों को सीअर्स ही कहते हैं। देखा गया; देखने जाती है, तो उसके सागर होने में कोई बाधा नहीं रह जाती। वाले। इसलिए हमने तो पूरे तत्व को दर्शन कहा। दिखाई जो पड़े इसलिए परंपरा का ठीक से अर्थ समझ लेना। अन्यथा हम सत्य, सीधा दिखाई पड़े; सीधा सुनाई पड़े, सीधा परमात्मा से मिले। परंपरा का जो अर्थ लेते हैं, वह एकदम गलत, एकदम झूठ और लेकिन परमात्मा से मिलने की भी परंपरा है। परमात्मा से खतरनाक है।
पर्थ नहीं है कि मैं सत्य आपको दे आपको ही पहली दफा नहीं मिल रहा है। परमात्मा से अनेकों को दूंगा, तो आपको मिल जाएगा। और आप किसी और को दे देंगे,
और भी पहले मिल चुका है। मिलने वालों की भी परंपरा है। दो तो उसको मिल जाएगा। परंपरा का इतना ही अर्थ है कि मैं पहला परंपराएं हैं, एक लिखने वालों की परंपरा है-लेखकों की। और आदमी नहीं, आखिरी नहीं; जानने वालों की अनंत श्रृंखला में एक एक जानने वालों की परंपरा है—ऋषियों की।
छोटी-सी कड़ी हूं। यह सूर्य सदा ही चमकता रहा है; जिन्होंने भी इसलिए कृष्ण कह रहे हैं, परंपरा से ऋषियों ने जाना। यह आंख खोली, उन्होंने जाना है। ऐसी विनम्रता का भाव सत्य के परंपरा का बोध कि मुझसे पहले भी सत्य औरों को मिलता रहा है जानने वाले की अनिवार्य लक्षणा है। इसी भांति।
दूसरी बात कृष्ण कहते हैं, लुप्तप्राय हो गया वह सत्य। आपने आंख खोली और सूरज को जाना। जहां तक आपका सत्य लुप्तप्राय कैसे हो जाता है ? दो बातें इसमें ध्यान देने जैसी संबंध है, आप पहली बार जान रहे हैं। लेकिन आपके पहले इस हैं। कृष्ण यह नहीं कहते कि लुप्त हो गया, लुप्तप्राय। करीब-करीब पृथ्वी पर जब भी आंख खोली गई है, सूरज जाना गया है। सूरज को लुप्त हो गया। कृष्ण यह नहीं कहते कि लुप्त हो गया। क्योंकि सत्य इस भांति जानने की भी एक परंपरा है। आप पहले आदमी नहीं हैं। | यदि बिलकुल लुप्त हो जाए, तो उसका पुनआविष्कार असंभव है।
और ध्यान रहे, जिस आदमी को भी भ्रम पैदा हो जाता है कि उसको खोजने का फिर कोई रास्ता नहीं है। सत्य को मैं जानने वाला पहला आदमी हूं, उसको दूसरा भ्रम भी जैसे एक चिकित्सक किसी आदमी को कहे, मृतप्राय; तो अभी पैदा हो जाता है कि मैं अंतिम आदमी भी हूं। भ्रम भी जोड़े से जीते जीवित होने की संभावना है। लेकिन कहे, मर गया, मृत हो गया,
परा का।
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गीता दर्शन भाग-2 8
तो फिर कोई उपाय नहीं है। मृतप्राय का अर्थ है कि मरने के करीब __ हिंदू, हिंदू शास्त्रों में खो जाता है। मुसलमान, मुसलमान के है; मर ही नहीं गया। लुप्तप्राय का अर्थ है, लुप्त होने के करीब है, |
| शास्त्रों में खो जाता है। जैन, जैन के शास्त्रों में खो जाता है। और लुप्त हो ही नहीं गया।
कोई यह नहीं पूछता कि जब महावीर को ज्ञान हुआ, तो उनके पास सत्य सदा ही लुप्तप्राय होता है। क्योंकि एक दफे लुप्त हो जाए, कितने शास्त्र थे! शास्त्र थे ही नहीं। महावीर के हाथ बिलकुल तो फिर मनुष्य की सीमित क्षमता के बाहर है यह बात कि वह सत्य | | खाली थे। कोई नहीं पूछता कि जब मोहम्मद को इलहाम हुआ, तो को खोज सके। एक किरण तो बनी ही रहती है सदा। चाहे पूरा | कौन-सी किताबें उनके पास थीं! किताबें थीं ही नहीं। कोई नहीं सूरज न दिखाई पड़े, लेकिन एक किरण तो सदा ही किसी कोने से पूछता कि जीसस ने जब जाना, तो किस विश्वविद्यालय में शिक्षा हमारे अंधकारपर्ण मन में कहीं झांकती रहती है। जैसे कि मकान के लेकर वे जानने गए थे। अंधेरे में द्वार-दरवाजे बंद करके हम बैठे हैं, और खपड़ों के छेद | ___ जानने की घटना सदा ही निपट मौन और शून्य में घटी है। और से, कहीं एक छोटी-सी रंध्र से, छोटी-सी किरण भीतर आती हो। | हम सब जानने के लिए शब्द के मार्ग से यात्रा करते हैं। बड़ी इतना सूर्य से हमारा संबंध बना ही रहता है। वही संभावना है कि | उलटी यात्रा है। एक ही लाभ हो सकता है, और वह यह कि हम सूर्य को पुनः खोज पाएं, उसी किरण के मार्ग से। खोजते-खोजते इतने थक जाएं, इतने ऊब जाएं, कि शास्त्र को बंद
सत्य लुप्तप्राय ही होता है, लुप्त कभी नहीं होता। लुप्तप्राय का कर दें। इतना ही लाभ हो सकता है। शब्द से इतने परेशान हो जाएं अर्थ है कि हर युग में, हर क्षण में, हर व्यक्ति के जीवन में वह | कि शब्द से हाथ जोड़ लें। पढ़ते-पढ़ते इतना समझ में आ जाए कि किनारा और वह किरण मौजूद रहती है, जहां से सूर्य को खोजा जा पढ़ने से कुछ न होगा, इतना ही लाभ हो सकता है। . सकता है। यही आशा है। अगर इतना भी विलीन हो जाए, तो फिर सत्य के लुप्तप्राय होने की प्रक्रिया को थोड़ा समझ लेना जरूरी खोजने का कोई उपाय आदमी के हाथ में नहीं है।
| है। वह उपयोगी है सदा। सत्य के लुप्त होने की एक व्यवस्था है। दूसरी बात, लुप्तप्राय सत्य क्यों हो जाता है? जैसे कोई नदी वह व्यवस्था कैसी है? वह व्यवस्था ऐसी है कि महावीर ने जाना। रेगिस्तान में खो जाए; लुप्त नहीं हो जाती, लुप्तप्राय हो जाती है। | स्वभावतः, जिसने जाना, वह उससे कहेगा, जिसने नहीं जाना है। रेत को खोदें, तो नदी के जल को खोजा जा सकता है। ठीक ऐसे क्योंकि दूसरा अगर जानता ही हो, तो कहना फिजूल है। ही, जाने गए सत्य की परंपरा, सुने गए सत्य की परंपरा की रेत में इसलिए एक बार ऐसा भी हुआ कि महावीर और बुद्ध एक ही खो जाती है। जाने गए सत्य की परंपरा, द्रष्टा के सत्य की परंपरा, गांव में ठहरे, लेकिन मिले नहीं। एक ही गांव में भी कहना ठीक शास्त्रों की, शब्दों की परंपरा की रेत में खो जाती है। धीरे-धीरे | | नहीं, एक ही धर्मशाला के दो हिस्सों में ठहरे; एक कोने पर बुद्ध शास्त्र इकट्ठे होते चले जाते हैं, ढेर लग जाता है। और वह जो | | ठहरे, एक पर महावीर ठहरे, एक ही धर्मशाला में। मिलना नहीं किरण थी ज्ञान की, वह दब जाती है। फिर धीरे-धीरे हम शास्त्रों को हुआ! लोग सोचते हैं, बड़े अहंकारी रहे होंगे। मिलना तो था! ही कंठस्थ करते चले जाते हैं। फिर धीरे-धीरे हम सोचने लगते हैं, नहीं; अहंकार का कारण नहीं है। मिलना बिलकुल बेमानी, इन शास्त्रों को कंठस्थ कर लेने से ही सत्य मिल जाएगा। और सत्य | मीनिंगलेस था। कोई अर्थ ही न था मिलने का। मिलना ठीक ऐसे की सीधी खोज बंद हो जाती है। फिर हम उधार सत्यों में जीने लगते | ही था, जैसे दो आईनों को कोई एक-दूसरे के सामने रख दे। हैं। फिर राख ही हमारे हाथ में रह जाती है।
| बिलकुल बेकार है। आईने के सामने आप खड़े हों, तो सार्थक, लेकिन शास्त्रों के रेगिस्तान में भी सत्य सिर्फ लुप्तप्राय होता है, कुछ दिखाई पड़ता है। आईने के सामने आईना ही रख दें, तो लुप्त नहीं हो जाता। अगर कोई शास्त्रों के शब्दों को भी खोदकर बिलकुल बेकार है। आईना आईने को रिफ्लेक्ट करता रहता, कुछ खोज सके, तो वहां भी सत्य खोजा जा सकता है। लेकिन पहचान | नहीं अर्थ होता। आईने आपस में बातचीत नहीं करते। आईने सिर्फ बड़ी मुश्किल है। पहचान इसलिए मुश्किल है कि जिस सत्य से | चेहरों से बातचीत करते हैं। हम अपरिचित हैं, उसे हम शास्त्रों के शब्दों के रेगिस्तान में खोज बुद्ध और महावीर को अगर पास बिठा दें, तो जैसे दो शून्य पास न पाएंगे। संभावना यही है कि सत्य तो न मिलेगा, हम भी भटक | | बिठा दिए; उनका कोई अर्थ नहीं होता। शून्य को किसी अंक के जाएंगे। ऐसा ही हुआ है।
पास बिठाएं, तो अर्थ होता है। एक के पीछे शून्य रख दें, तो दस
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सत्य एक–जानने वाले अनेक
हो जाते हैं। दो के पीछे रख दें, तो बीस हो जाते हैं। और दो शून्यों आधी रात तक लिखता ही रहता था। क्योंकि बड़ा था काम और को आस-पास रख दें, तो कुछ मतलब नहीं होता। दो शून्य भी नहीं जिंदगी थी छोटी। और भरोसा नहीं था कि किताब पूरी हो सके। होते जुड़कर। शून्य दो नहीं होते; शून्य एक ही रहता है। शून्य का आधी किताब जब पूरी हो गई थी, एक दिन दोपहर को घर के कोई जोड़ नहीं होता। बुद्ध और महावीर नहीं मिले, क्योंकि दो शून्य | आस-पास जोर से शोरगुल मचा। लेकिन वह तो अपने काम में के जुड़ने का कोई अर्थ नहीं था। बात क्या होती? कहने को क्या | लगा रहा। शोरगुल बढ़ता चला गया। तब वह उठकर बाहर आया, था? बोलने को क्या था? बताने को क्या था?
उसने कहा, बात क्या है! लोग भाग रहे थे। पूछा, बात क्या है? इसलिए सत्य को जब भी कोई जानता है, तो जो नहीं जानते, किसी ने कहा, हत्या हो गई। तुम्हारे मकान के पीछे मर्डर हो गया। उनसे बोलता है। बस, उपद्रव शुरू हो जाता है। जो नहीं जानता, एक से पूछा; उसने कुछ कहा कि किस तरह हुआ। दूसरे से पूछा; वह सुनता है। स्वभावतः, जो कहा जाता है, वह कभी नहीं सुना | उसने कुछ कहा। वे सब आंखों देखे हुए, चश्मदीद गवाह थे। जाता; कुछ और ही सुना जाता है। हम वही सुन सकते हैं, जो हम | बर्क भागा हुआ अपने मकान के पीछे पहुंचा। वहां लोग मौजूद जानते हैं। अब यह बड़ी कठिनाई हो गई। यह पैराडाक्स हो गया! थे। भीड़ लगी थी। लाश सामने पड़ी थी। हत्यारा पकड़ लिया गया
हम वही सुन सकते हैं, जो हम जानते हैं। जो हम नहीं जानते, था। लेकिन सबके वर्सन अलग थे। देखने वाला कोई कह रहा था वह हम सुन नहीं सकते। नहीं; सुन तो लेंगे। कान सुनने का काम कि जिम्मेवार कौन है। कोई कह रहा था कि जो मारा गया, वह ठीक पूरा कर देंगे। लेकिन भीतर वह जो मन है, वह समझ नहीं पाएगा। | ही मारा गया। कोई कह रहा था, जिसने मारा, उसने बहुत बुरा नहीं; समझ भी लेगा, लेकिन कुछ और समझ लेगा, जो कहा नहीं | किया। कोई कह रहा था, हत्यारा जिम्मेवार नहीं है। कोई कह रहा गया है। हम वही समझते हैं, जो हम समझ सकते हैं।
था कि हत्यारा जिम्मेवार है। बर्क ने सबसे पूछा और लौटकर पंद्रह · कृष्ण अर्जुन से बोल रहे हैं। स्वभावतः, अर्जुन वही समझेगा, | साल जो किताब में मेहनत लगाई थी, उसमें आग लगा दी। उसने जो अर्जुन समझ सकता है। वह तो अर्जुन कभी नहीं समझ सकता, | | लिखा कि जब मेरे घर के पीछे हत्या हो जाए, और आंखों देखने जो कृष्ण बोल रहे हैं। क्योंकि अगर अर्जुन वह समझ सकता, तो | वाले लोगों की गवाहियां अलग हों, तो पांच हजार साल पहले क्या कृष्ण का बोलना फिजूल हो जाता, बेकार हो जाता।। हुआ था, इसको पांच हजार साल बाद मैं लिखं, यह व्यर्थ है। इस
र शिष्य के बीच फासला न हो. तब बातचीत हो सकती झंझट में मैं नहीं पहुंगा। बर्क ने अपने पत्र में लिखा है कि इतिहास है, लेकिन तब बातचीत बेकार हो जाती है। और गुरु और शिष्य | सरासर झूठ है। सच्चा इतिहास लिखा ही नहीं जा सकता। के बीच फासला हो, तब बातचीत हो नहीं सकती, हालांकि तब __ जैसे ही कृष्ण बोलते हैं, सत्य बदलने लगा। जैसे ही पहुंचा दूसरे बातचीत की जरूरत होती है! ऐसी स्वाभाविक कठिनाई है। के पास, रूप बदला, लुप्त होना शुरू हुआ। लेकिन यह तो मैंने
तो महावीर बोलते हैं उनसे, जो नहीं जानते। बुद्ध बोलते हैं बाहर की बात कही। अगर हम थोड़े और भीतर पहुंचें, तो और भी उनसे, जो नहीं जानते। जो नहीं जानते हैं, वे सुनते हैं; सुनकर अर्थ | एक कठिनाई है। सत्य बोला गया, तब तो लुप्त होता ही है, सुनने निकालते हैं। अर्थ उनके अपने होते हैं। बुद्ध अगर हजार लोगों में | वाले के कारण; लेकिन जब बोला जाता है, तो बोलने की प्रक्रिया बोलते हैं, तो हजार अर्थ होते हैं। मैं आपसे जो कुछ कहूंगा; इस | के कारण भी लुप्त होता है। भूल में मैं नहीं हो सकता कि आप सब उससे एक ही अर्थ निकाल | असल में सत्य है विराट, और शब्द है संकीर्ण। शब्द बहुत लेंगे। यह असंभव है। जितने यहां मित्र इकट्ठे हैं, उतने ही अर्थ | छोटा है, सत्य बहुत बड़ा है। उस सत्य को जैसे ही शब्द में रखने लेकर जाएंगे। उतने अर्थ मेरे बोलने में नहीं हैं, मेरे बोलने में | की कोई चेष्टा करता है, कठिनाई शुरू हो जाती है। इसलिए सभी सुनिश्चित एक ही अर्थ है। लेकिन आप अपने अर्थ लेकर जाएंगे। जानने वाले निरंतर कहने के बाद, यह कहते चले जाते हैं कि जो
एडमंड बर्क दुनिया का इतिहास लिख रहा था। कोई पंद्रह साल | कहना था, वह कहा नहीं जा सका। जो कहना चाहा था, वह उसने मेहनत की थी और आधा इतिहास लिख चुका था। पंद्रह | | अनकहा छूट गया। साल और, तीस साल; करीब अपनी पूरी जिंदगी की समझदारी का | ___ रवींद्रनाथ मर रहे थे। एक मित्र आया और उसने कहा कि समय वह इतिहास पर लगा रहा था। सुबह से उठता था, तो रात धन्यभागी हो तुम! तुमने तो छह हजार गीत लिखे। तुम्हें तो तृप्त हो
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गीता दर्शन भाग-2
जाना चाहिए, फुलफिल्ड। इतने गीत किसी एक आदमी ने नहीं गाए। रेगिस्तान में खोनी शुरू हुई। यात्रा उठी भी नहीं, पहला कदम उठा
रवींद्रनाथ ने आंख खोली और कहा कि बंद करो यह बातचीत। भी नहीं, कि भटकाव शुरू हुआ। ऐसा है। और अब तक इसके मैं तो परमात्मा से और कुछ कह रहा हूं। मैं यह कह रहा हूं कि जो लिए कोई उपाय खोजा नहीं जा सका। आगे भी खोजा नहीं जा गीत मैं गाना चाहता था, वह अभी तक गा नहीं पाया। उसी गीत सकता है। सदा ऐसा ही रहेगा। को गाने की कोशिश में छह हजार गीत लिखे जा चुके हैं। लेकिन । इसलिए कृष्ण कहते हैं कि सत्य लुप्तप्राय है। लेकिन लुप्तप्राय! जो गीत मैं गाना चाहता था वह अब भी अनगाया, अनसंग, अभी | मैं सुबह के सूरज का वर्णन करूं; बिलकुल वर्णन न हो पाए, फिर भी मेरे भीतर पड़ा है। ये छह हजार असफल चेष्टाएं हैं; छह हजार | भी मैं वर्णन सुबह के सूरज का ही कर रहा हूं। आप बिलकुल न फेल्योर्स। छह हजार बार कोशिश कर चुका। जो कहना था, वह | | समझ पाएं, फिर भी आप थोड़ा तो समझ ही जाएंगे कि सुबह का अभी भी अनकहा है। परमात्मा से प्रार्थना कर रहा हूं कि अभी तो | | वर्णन कर रहा हूं। पक्षियों के गीत मेरे वर्णन में सुनाई नहीं पड़ेंगे; मैं साज ही बिठा पाया था, अभी गाया कहां! और यह तो जाने का | | लेकिन फिर भी पक्षियों ने गीत गाए हैं, इतना तो मैं कह ही पाऊंगा। वक्त आ गया। यह तो ठोंक-पीटकर अभी साज बिठा पाया था: | सूरज की गर्मी मेरे शब्दों में न होगी; लेकिन सूरज गर्म था, उत्तप्त अभी गाया कहां था! अब कहीं लगता था कि गाने के करीब आ | था, सुखद था, इतनी खबर तो मैं दे ही पाऊंगा। और आप कितना रहा हूं, तो यह जाने का वक्त आ गया!
ही गलत समझें, जब आप किसी को कुछ कहेंगे इस संबंध में फिर, कबीर से पूछे, नानक से पूछे, मीरा से पूछे, किसी से भी पूछे, बात और बिगड़ जाएगी, लेकिन फिर भी सुबह के सूरज से ही वे यही कहेंगे कि जो कहना था, वह हम कह नहीं पाए। वह संबंधित होगी। अनकहा रह गया है। बड़े आश्चर्य की बात है। फिर भी कहा तो | | कितनी ही भूल-चूक होती चली जाए, रेगिस्तान में नदी कितनी है। कबीर ने कहा तो है। मीरा गाई तो। और जो कहना था, वह ही खोती चली जाए, उसका खोजना भी मुश्किल हो जाए, लेकिन अनकहा रह गया। बात क्या है?
कहीं रेत को उखाड़ने से उसकी बंदें पकड़ में आ ही जाएंगी। और बात यह है, बात ठीक ऐसी ही है, जैसे कि आप देखें सुबह अगर किसी ने सुबह का सूरज देखा हो, तो हजारवें आदमी की बात सूरज को उगते; पक्षियों को गीत गाते; वृक्षों को खिलते, फूलते। को सुनकर भी वह समझ जाएगा कि मालूम होता है, सुबह के सूरज . फिर घर जाएं, और कोई आपसे पूछे कि थोड़ा वर्णन करें, थोड़ा की बात करते हैं। रिकग्नाइज कर सकेगा। बताएं, कैसा था सूरज? आप कहें, बहुत कुछ कहें। फिर भी आप सत्य इतना तो सदा बच जाता है कि रिकग्नाइज किया जा सकता पाएंगे कि जो भी आपने कहा, वह धुंधली तस्वीर भी नहीं है, जो है। उसकी प्रत्यभिज्ञा हो सकती है। सत्य सदा ही लुप्तप्राय हो जाता
आपने देखा था। क्योंकि जो आप कहेंगे, उसमें सूरज की जरा भी है, लेकिन लुप्तप्राय होकर भी सत्य मौजूद होता है। गर्मी नहीं होगी। उसमें पक्षियों के गीतों का संगीत नहीं होगा। उसमें | दूसरी बात ध्यान रखने जैसी है कि सत्य कितना ही लुप्तप्राय हरियाली भी नहीं होगी सुबह की। उसमें सुबह की ठंडी हवाओं की | हो जाए, असत्य नहीं हो जाता है। तभी तो लुप्तप्राय है। अगर ताजगी भी नहीं होगी। उसमें फूलों के खिलने का आनंदभाव भी असत्य हो जाए, तो सत्य मर गया; फिर बचा नहीं, फिर बिलकुल नहीं होगा। वह जो सुबह की एक्सटैसी थी, वह जो सुबह की नहीं बचा। समाधिस्थ अवस्था थी प्रकति की. वह जो सबह का ध्यानमग्न रूप | मेरी तस्वीर उतारी जाए। फिर मेरी तस्वीर की तस्वीर उतारी जाए। था, वह कहीं भी नहीं होगा। और जब आप वर्णन करके चुक चुके फिर उस तस्वीर की तस्वीर उतारी जाए। हर निगेटिव फेंट और होंगे, तो आप कहेंगे कि कहा तो जरूर, लेकिन जो मैंने देखा था, फीका होता चला जाएगा। फिर भी तस्वीर मेरी ही रहेगी। और ऐसा वह इसमें कहीं आया नहीं।
| भी वक्त आ सकता है हजारवें निगेटिव पर कि बिलकुल पहचानना - फिर वह आदमी सुनकर किसी और को बताएगा। सत्य लुप्त मुश्किल हो जाए। मैं भी न पहचान सकूँ कि यह मेरा निगेटिव है। होना शुरू हुआ। कुछ तो आपने लुप्त किया। क्योंकि कहने में ही, लेकिन फिर भी निगेटिव मेरा ही रहेगा; कितना ही फीका, कितना कहने की प्रक्रिया में ही भूल हुई। फिर वह आदमी सुनेगा; फिर वह ही दूर, कितनी ही दूर की प्रतिध्वनि, लेकिन मेरी ही रहेगी। हो कहेगा, और सत्य लुप्त होना शुरू हो जाएगा। नदी चली और सकता है, मैं भी न पहचान पाऊं, तो भी, तो भी मेरी ही परंपरा में
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ॐ सत्य एक–जानने वाले अनेक ®
वह तस्वीर होगी।
अर्थ है, वह मैं आपको कहूं। सत्य के लुप्तप्राय होने का यही अर्थ है कि कितना ही लुप्त हो __ पहला तो यह, जो भी ऋषि होता, वह राजा हो जाता है। राजा जाए, फिर भी असत्य नहीं हो जाता है। सत्य की फीकी प्रतिध्वनि | ऋषि हो जाता है, ऐसा नहीं। जो भी ऋषि हो जाता है, वह एक तरह उसमें शेष रहती है। जो जानते हैं, वे उस प्रतिध्वनि को पुनः | की बादशाहत पा लेता है। जो भी ऋषि हो जाता है, वह राजा हो ही पहचान सकते हैं। जो जानते हैं, वे उस प्रतिध्वनि की प्रत्यभिज्ञा जाता है। कर सकते हैं।
सच तो यह है कि बिना ऋषि हुए राजा होने का सिर्फ धोखा होता है, राजा कोई होता नहीं। बिना ऋषि हुए तो भिखारी ही होते हैं,
राजा भी। पात्र बड़ा होता है भिक्षा का, इसलिए सबको दिखाई नहीं प्रश्न: भगवान श्री, दो बातें समझनी हैं। आपने सत्य पड़ता; बहुत बड़ा पात्र होता है, इसलिए दिखाई नहीं पड़ता। या शब्द का उपयोग किया है और प्रथम दो श्लोक में इसलिए भी दिखाई नहीं पड़ता कि बाकी भिखारी जरा छोटे भिखारी योग शब्द का उपयोग है। कृपया योग शब्द की होते हैं। भिखारियों में भी हायरेरकी होती है! छोटे भिखारी, बड़े परिभाषा व अर्थ समझाएं। और दूसरी बात, ऋषि भिखारी, पहुंचे हुए भिखारी! ऐसी उनकी हायरेरकी होती है। शब्द के साथ राज शब्द भी जुड़ा हुआ है। ऋषि के तो राजा जो है, वह भिखारियों के ऊपर सबसे ऊपर है, बदले राजर्षि शब्द का क्या विशेष अर्थ है? | भिखारियों की धारा में सबसे ऊपर है। पद उसका भिखारियों में
परम है। इसलिए भिखारियों की बड़ी दुनिया में राजा भी राजा
| मालूम पड़ता है; है तो भिखारी ही। जहां तक मांग है, वहां तक 1 त्य है अनुभूति; योग है अनुभूति की प्रक्रिया। सत्य है | | भिखारीपन है; जहां तक हम कुछ मांगते हैं और चाहते हैं, वहां तक रा दर्शन; योग है द्वार। सत्य जाना जाता है; जिससे जाना | भिखारी हैं।
जाता है, वह है योग। योग और सत्य एक ही सिक्के | स्वामी राम अमेरिका गए, तो वे अपने को बादशाह ही कहते के दो पहलू हैं। जिस मार्ग से यात्रा करनी पड़ती है, वह है योग; थे। वे जब भी बोलते थे, तो वे राम बादशाह कहते थे-खुद को और जिस मंजिल पर मार्ग पहुंच जाता है, वह है सत्य। और मंजिल ही। वे कहते थे कि आज राम बादशाह किसी के घर भोजन करने और मार्ग अलग-अलग नहीं हैं। मंजिल मार्ग का ही आखिरी छोर | गए थे। अमेरिका का तत्कालीन राष्ट्रपति राम से मिलने आया था। है; मार्ग मंजिल की ही शुरुआत है। पहला कदम भी आखिरी कदम उसे बड़ा हास्यास्पद लगा यह कि एक फकीर, जिसके पास कुछ है, क्योंकि पहला कदम आखिरी कदम का प्रारंभ है। और आखिरी | भी नहीं है, वह अपने को बादशाह कहे! तो उसने पूछा कि मुझे कदम भी पहला कदम है, क्योंकि पहले कदम के बिना आखिरी | थोड़ी हैरानी होती है। और सब तो ठीक है, लेकिन यह बादशाह कदम हो नहीं सकता है।
आप अपने को क्यों कहते हैं? इसलिए मैंने सत्य की बात कही, समझनी ज्यादा आसान | तो राम ने कहा, इसलिए कि अब ऐसी कोई भी चीज नहीं है, होगी। और योग की बात जानकर छोड़ी, क्योंकि आगे योग के | जिसकी मांग मेरे भीतर बची हो। अब मैं भिखमंगा नहीं हूं। अब संबंध में बहुत बात आएगी और तब योग को विस्तार से समझा | ऐसा कुछ भी नहीं है, जिससे तुम मुझमें लालच पैदा कर सको, जा सकता है।
ऐसा कुछ भी नहीं है जिसमें मुझे तुम लोभ में फंसा सको। इसलिए दूसरी बात पूछी है, राजऋषि कहा है।
अपने को बादशाह कहता हूं। और इसलिए भी अपने को बादशाह साधारणतः जो गलत अर्थ प्रचलित है, वह तो यही है कि अगर | | कहता हूं कि जिस दिन से अपना खयाल छोड़ा, उस दिन से सभी कोई राजा ऋषि हो जाए, तो राजऋषि है। गलत है अर्थः प्रचलित | अपना हो गया है। जिस दिन से यह खयाल छूटा कि मेरा है यह, है जरूर। सच तो यह है कि जो भी प्रचलित होता है, उसके सौ में | | उसी दिन से तेरा का खयाल भी विदा हो गया। सारी दुनिया अब निन्यानबे मौके गलत होने के होते हैं। प्रचलित होने के कारण ही मेरी है। चांद-तारे मेरे हैं। अब सब मेरा है, क्योंकि अब कुछ भी गलत होने के मौके होते हैं। राजऋषि का मेरे लिए तीन दिशाओं से मेरा नहीं है।
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गीता दर्शन भाग-2
जिस दिन कोई आदमी अपने छोटे-से घर को छोड़ देता है, उस दिन सारी पृथ्वी उसकी अपनी हो जाती है। असल में छोटे-से घर को इतना कसकर पकड़ता है कि पूरी पृथ्वी उसकी अपनी हो कैसे सकती है? हाथ फैले हुए चाहिए पूरी पृथ्वी को पकड़ने के लिए। तब छोटी चीज को कोई पकड़ेगा, तो फिर बड़े के लिए फैलाव नहीं
रह जाता।
राम ने कहा, इसलिए भी अपने को बादशाह कहता हूं कि जब भी भीतर देखता हूं, जब भी अपने भीतर झांकता हूं, तभी पाता कि अनंत खजाने, अनंत साम्राज्य, सब मेरा है। ऐसा कुछ भी नहीं है, जो मेरा न हो ।
तो राजऋषि का मैं तो अर्थ करता हूं, ऋषि राजा हो जाता है। सभी ऋषि राजऋषि हैं। एक दिशा से ऐसा अर्थ करना चाहूं । दूसरी दिशा से एक और अर्थ करना चाहूं ।
योग की दो प्रक्रियाएं प्रचलित रही हैं। या ज्ञान की या जानने की दो निष्ठाएं हैं। एक निष्ठा का नाम सांख्य है, और एक निष्ठा का नाम योग है। कृष्ण ने गीता में बहुत - बहुत बार इन दो निष्ठाओं को स्पर्श किया है। सांख्य-निष्ठा का अर्थ है, करना कुछ भी नहीं है, केवल जानना है। करने योग्य कुछ भी नहीं है; सिर्फ जानने योग्य है । रत्तीभर भी कुछ करने की जरूरत नहीं है; सिर्फ जानने की जरूरत है । जानने से ही सब मिल जाएगा। जानने से ही सब हो जाएगा; करने का कोई भी कारण नहीं है।
सांख्य से जो आदमी ज्ञान को उपलब्ध होता है; उसने हाथ भी नहीं हिलाया है। वह राजा की तरह अपने सिंहासन पर ही बैठा रहा है। उसने कुछ किया ही नहीं है। सच तो, उसके बिना कुछ किए सब हुआ है, होता रहा है। राजा का अर्थ ही यही है, उसके बिना कुछ किए सब हो जाए। अगर करना पड़े, तो फिर राजा नहीं है। राजा का जो भीतरी मौलिक अर्थ है, वह यही है कि जिसके बिना किए सब होता हो; जिसके भीतर इच्छा भी पैदा न हो पाए कि पूर्ति सामने मौजूद हो जाए। ठीक इन अर्थों में राजा कभी पृथ्वी पर होते नहीं। लेकिन सांख्य ऐसा ही राजयोग है, बिना कुछ किए सब मिल जाता है।
सांख्य का कहना ही यही है कि तुम करते हो, इसीलिए नहीं मिलता है। सांख्य का कहना यही है कि जिसे तुम खोज रहे हो, वह तुम्हारे भीतर मौजूद है। तुम खोज रहे हो, इसलिए भीतर नहीं देख पाते, क्योंकि खोज में बाहर उलझे रहते हो। करो खोज बंद; रुक जाओ बैठ जाओ। जैसे सिंहासन पर राजा बैठा हो, ऐसे बैठ
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| जाओ। कुछ मत करो। आंख करो बंद; सब छोड़ो; और पा लो | उसे, जो भीतर मौजूद है।
वह सदा से मौजूद है, लेकिन तुम इतने दौड़ रहे हो कि तुम्हारी | दौड़ की वजह से तुम वहां न पहुंच पाओगे, जो भीतर दौड़ने | वाला सदा बाहर जाता है। खोजने वाला बाहर खोजता है । करने वाला बाहर करता है।
ध्यान रहे, सब करना बाह्य है; भीतर कुछ भी नहीं किया जा सकता। भीतर तो वही जाता है, जो नान- डूइंग में, अक्रिया में उतरता है; अकर्म में जो नहीं करता कुछ, वह भीतर चला जाता है। जो कुछ करता है, वह बाहर भटक जाता है।
तो सांख्य कहता है, भीतर रखी है संपदा । तुम कुछ मत करो, तो पालो 1
लाओत्से ने चीन में कहा है, सीक, एंड यू विल लूज; खोजो, और तुमने खोया । सीक, एंड यू विल नाट फाइंड, खोजो, और तुम कभी न पा सकोगे। डू नाट सीक, एंड फाइंड; मत खोजो, और पा लो।
अब यह सांख्य की निष्ठा है लाओत्से में । खोजो मत, और पा लो। बड़ी उलटी बात है। करीब-करीब ऐसे ही, जैसा मैंने सुना कि एक मछली ने जाकर मछलियों की रानी से पूछा कि सागर के संबंध
बहुत सुनती हूं, कहां है यह सागर? कहां खोजूं कि मिल जाए? कहां जाऊं कि पा लूं ? कौन-सा है मार्ग? क्या है विधि ? क्या है उपाय? कौन है गुरु, जिससे मैं सीखूं? यह सागर क्या है ? यह सागर कहां है? यह सागर कौन है ?
वह रानी मछली हंसने लगी। उसने कहा, खोजा, तो भटक जाओगी। गुरु से पूछा, कि उलझन हुई। विधि खोजी, तो विडंबना है । खोजो मत पूछो मत। उस मछली ने कहा, लेकिन फिर यह सागर मिलेगा कैसे? तो उस रानी मछली ने कहा, सागर के मिलने की बात ही गलत है, क्योंकि सागर को तूने कभी खोया ही नहीं है। | तू सागर ही है। सागर में ही पैदा होती है; सागर में ही बनती है; सागर में ही जीती है; सागर में ही विदा होती है; सागर में ही लीन।
कुछ है, सागर ही है चारों तरफ। लेकिन उस मछली ने कहा, मुझे तो दिखाई नहीं पड़ता !
मछली को सागर दिखाई नहीं पड़ सकता, क्योंकि हम सिर्फ उसी को देख पाते हैं, जो कभी मौजूद होता है और कभी गैर-मौजूद हो जाता है। हम उसको नहीं देख पाते, जो सदा मौजूद है। सदा मौजूद दिखाई नहीं पड़ता।
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सत्य एक-जानने वाले अनेक
जैसे हमें हवा दिखाई नहीं पड़ती, ऐसे ही मछली को सागर | | खिले, तो राजयोगी हैं। खिलने के लिए कुछ करना नहीं पड़ता; दिखाई नहीं पड़ता। न दिखाई पड़ने का कारण सिर्फ यही है कि सदा | खिल जाते हैं। आकाश में बादल देखें, तो राजयोगी हैं। कुछ करते मौजद है। हम जब आंख खोले, तब भी मौजद था। जब हम आंख | नहीं; डोलते रहते हैं। कभी आकाश में देखी हो चील, परों को बंद करेंगे, तब भी मौजूद होगा। जो सदा मौजूद है, एवरप्रेजेंट है, | तिराकर रह जाती है थिर; पर भी नहीं हिलाती! डोलती है हवा पर। वह अदृश्य हो जाता है। इसलिए परमात्मा दिखाई नहीं पड़ता है। | उड़ती नहीं, तिरती है। तैरती भी नहीं, तिरती है। बस, पंखों को जो सदा मौजूद है, वह दिखाई नहीं पड़ सकता। दिखाई वही पड़ फैलाकर रह जाती है। हवा जहां ले जाए; डोलती रहती है। सकता है, जो कभी मौजूद है, और कभी गैर-मौजूद हो जाता है। | । राजयोग उस बात का नाम है, उस प्रक्रिया का, जहां व्यक्ति पूर्ण
सांख्य की निष्ठा कहती है, कुछ मत करो। करने के भ्रम में ही विश्राम में जीता है; कुछ करता नहीं, तिरता है। श्वास भी नहीं लेता मत पड़ो। न ध्यान, न धारणा, न योग-कुछ नहीं। कुछ करो ही अपनी तरफ से। भविष्य का विचार नहीं करता, क्योंकि भविष्य का मत। लेकिन न करना बहुत बड़ा करना है। बाकी सब करना बहुत | | जो विचार करेगा, वह तैरना शुरू कर देगा; उसके तनाव शुरू हो छोटे-छोटे करना है। बाकी करना सब कर सकते हैं हम। न करना! | जाएंगे। अतीत का विचार नहीं करता, क्योंकि जो अतीत का विचार प्राण कंप जाते हैं। कैसे न करो?
करेगा, वह टेंस हो जाएगा, वह रिलैक्स नहीं हो सकता, वह विश्राम सबसे कठिन करना, न करना है। इसलिए सांख्य सबसे कठिन | में नहीं हो सकता। पूर्ण वर्तमान में होता है, अभी और यहीं, हिअर योग है। सांख्य के मार्ग से जो जाते हैं, वे राजऋषि हैं। जो उस योग | | एंड नाउ। जो हो रहा है, उसमें है। और चील की तरह तिरता है। को साध लेते हैं, न करने को, निश्चित ही वे ऋषियों में राजा हैं। | ___जीसस एक गांव से गुजरे, और अपने शिष्यों से उन्होंने कहा कि
लेकिन जो नहीं साध पाते, उनके लिए फिर योग है-यह करो, देखो इन लिली के फूलों को। खेत में लिली के फूल खिले हैं। यह करो, यह करो। ऐसा नहीं कि उस करने से उनको मिल जाएगा। जीसस ने कहा, देखो इन लिली के फूलों को। सम्राट सोलोमन लेकिन करने से थकेंगे, परेशान होंगे, कर-करके मुश्किल में अपने पूर्ण वैभव में भी इतना शानदार न था, जितने ये लिली के पड़ेंगे; जन्म-जन्म भटकेंगे। आखिर में करने से इतने ऊब जाएंगे गरीब फूल शानदार हैं। इनके शानदार होने का राज क्या है? कि छोड़कर पटक देंगे और बैठ जाएंगे कि अब बहुत कर लिया; शिष्य क्या कहते! उन्हें तो राज का कुछ पता नहीं था। जीसस अब नहीं करते। और जब नहीं करेंगे, तब पा लेंगे। | उन लिली के फूलों को दिखाकर यह कह रहे हैं कि लिली के
लेकिन करने से गुजरना पड़ेगा उन्हें। उनका योग हठयोग | | छोटे-छोटे फूल सम्राट सोलोमन से भी ज्यादा शानदार हैं। क्या है-जिद्द से, कर-करके। मिलता तो तब है, जब न करना ही फलित बात है? सम्राट सोलोमन भी तनाव में जीएगा, लेकिन लिली के होता है, चाहे वह न करने से आया हो, और चाहे करने से आया | | फूलों को कोई तनाव नहीं है। न मौत की चिंता है, जो कल होगी; हो। मिलता तो तभी है, जब न करना फलित होता है। पूर्ण अकर्म, न जन्म की फिक्र है, जो कल हो चुका। कुछ भी करना नहीं है; हो तभी। और अकर्म में जो मिलता है, वह राजा जैसा मिलना है। । | रहा है सब। परमात्मा के हाथ में समर्पित हैं। जो परमात्मा करा रहा
मजदूर को करना पड़ता है, तब भोजन मिलता है। दुकानदार को | कुछ करना पड़ता है, तब भोजन मिलता है। राजा बैठा है अपने राजऋषि का अर्थ है, समर्पित; विश्राम को उपलब्ध व्यक्ति; जो सिंहासन पर; कुछ करता नहीं; सब मिलता है। ऐसा कोई राजा होता | कुछ करता नहीं; जो हो रहा है, उसे होने देता है। स्पांटेनियस, नहीं। राजा को भी बहुत कुछ करना पड़ता है। लेकिन यह राजा की | | सहज जिसकी जिंदगी है; सहज जिसका जीना है। मौत आ जाए, चरम धारणा है। राजऋषि का यहां जो अर्थ है, वह यही है कि जिसने | | तो इतनी ही सहजता से मर जाएगा। सम्मान कोई दे, तो इतनी ही बिना कुछ किए सब पा लिया, वह ऋषियों में राजा है। सहजता से ले लेगा। और अपमान कोई करे, तो इतनी ही सहजता और तीसरी बात, फिर हम सांझ बात करेंगे।
से पी जाएगा। दुख आए, तो इतनी ही सहजता से स्वीकृत है। और राजऋषि का एक तीसरा अर्थ भी खयाल में लेना जरूरी है। | सुख आए, तो इतनी ही सहजता से। कहीं कोई असहजता नहीं है, व्यक्ति में दो तरह के जीवन हो सकते हैं: तनाव से भरा, टेंस | | कोई तनाव नहीं है। जीवन जो भी ले आए, उसके लिए राजी है। लिविंग; और रिलैक्स्ड, विश्रामपूर्ण, सहज। फूल देखें वृक्षों पर यह राजीपन, टोटल एक्सेप्टिबिलिटी, समग्र स्वीकार।
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गीता दर्शन भाग-2
अगर ठीक से समझें, तो आस्तिकता का भी यही अर्थ है, समग्र स्वीकार । ऐसी चित्त दशा राजऋषि की है। इसलिए कृष्ण राजऋषि शब्द का उपयोग कर रहे हैं।
फिर शेष सांझ ।
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अध्याय4 दूसरा प्रवचन
भागवत चेतना का करुणावश अवतरण
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गीता दर्शन भाग-28
स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः। | हमारे न जानने से। और हम जान लें, तो भी सत्य बदलता नहीं भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम् ।। ३ ।। हमारे जानने से। वह ही यह पुरातन योग अब मैंने तेरे लिए वर्णन किया है, | हां, बदलते हम जरूर हैं। सत्य को न जानें, तो हम एक तरह के क्योंकि तू मेरा भक्त और प्रिय सखा है इसलिए । यह योग | होते हैं। सत्य को जान लें, तो हम दूसरे तरह के हो जाते हैं। सत्य बहुत उत्तम और रहस्य अर्थात अति मर्म का विषय है। वही है-जब हम नहीं जानते हैं, तब भी; और जब हम जानते हैं,
तब भी। ऐसा अगर सत्य न हो, तो फिर सत्य और असत्य में कोई
अंतर न रहेगा। +वन रोज बदल जाता है, ऋतुओं की भांति। जीवन | यह बहुत मजे की बात है कि असत्य हमारा इनवेंशन है, हमारा | परिवर्तन का एक क्रम है, गाड़ी के चाक की भांति | | आविष्कार है। सत्य हमारा इनवेंशन नहीं है। सत्य को हम निर्मित
घूमता चला जाता है। लेकिन चाक का घूमना भी एक नहीं करते, बनाते नहीं। असत्य को हम निर्मित करते हैं और बनाते न घूमने वाली कील पर ठहरा होता है। घूमता है चाक गाड़ी का, लेकिन किसी कील के सहारे, जो सदा खड़ी रहती है। कील भी घूम | जो मेरे द्वारा बनाया जा सकता है, वह असत्य होगा। और जाए, तो चाक का घूमना बंद हो जाए। कील नहीं घूमती, इसलिए | जिसके द्वारा मैं भी बनाया गया, और जिसमें मैं भी लीन हो चाक घूम पाता है।
जाऊंगा, वह सत्य है। कृष्ण नहीं थे, तब भी जो था; कृष्ण नहीं सारा परिवर्तन किसी अपरिवर्तित के ऊपर निर्भर होता है। | होंगे, तब भी जो होगा; औरों ने भी जिसे कहा, और भी आगे जिसे जीवन के परम नियमों में से एक नियम यह है कि दृश्य अदृश्य | | कहेंगे-वह सत्य है। पर निर्भर होता है, मृत्यु अमृत पर निर्भर होती है; पदार्थ परमात्मा सत्य नित्य है। इस नित्य सत्य को अर्जुन से कृष्ण कहते हैं, मैं पर निर्भर होता है। घूमने वाला परिवर्तित जगत, संसार, न घूमने | | पुनः तुझसे कहता हूं। और क्यों कहता हूं, उसका कारण बताते हैं। वाले अपरिवर्तित सत्य पर निर्भर होता है। विपरीत पर निर्भर होती | | वह कारण समझ लेने जैसा है। वह कहते हैं, क्योंकि तू मेरा सखा हैं चीजें।
है, मेरा मित्र है, मेरा प्रिय है। इसलिए जो दिखाई पड़ता है, उस पर ही जो रुक जाता है, वह | ऊपर से देखने पर यह बात बड़ी अजीब-सी लगेगी कि क्या रहस्य से वंचित रह जाता है। जो दिखाई पड़ता है, उसके भीतर जो | कृष्ण भी किसी शर्त के आधार पर सत्य को बताते हैं-मित्र है, न दिखाई पड़ने वाले को खोज लेता है, वह रहस्य को उपलब्ध हो सखा है, प्रिय है! मित्र न हो, सखा न हो, प्रिय न हो, तो कृष्ण फिर जाता है।
सत्य को नहीं बताएंगे? क्या सत्य को बताने की भी कोई शर्त, कोई कृष्ण कहते हैं, वही योग, वही सत्य पुरातन है, सदा से चला कंडीशन है? क्या कृष्ण उसको नहीं बताएंगे जो प्रिय नहीं, मित्र आता है जो। या कहें कि सदा से ठहरा हुआ है जो; वही जो पहले नहीं, सखा नहीं? तब तो कृष्ण भी पक्षपात करते हुए मालूम पड़ेंगे। भी ऋषियों ने कहा था, वही मैं तुझसे पुनः कहता हूं। लेकिन पुनः ऊपर से जो देखेगा, ऐसा ही लगेगा। लेकिन और थोड़ा गहरा कहता हूं वही, जो सदा से है। कुछ नया नहीं है। कुछ अपनी ओर | देखना जरूरी है। और कृष्ण जैसे व्यक्तियों के साथ ऊपर से देखना से नहीं है।
खतरनाक है। सत्य में अपनी ओर से कुछ जोड़ा भी नहीं जा सकता। सत्य को | ___ कृष्ण जब यह कहते हैं कि मैं तुझे सत्य की यह बात बताता हूं, नया करने का भी कोई उपाय नहीं है। सत्य है। सत्य के साथ सिर्फ क्योंकि तू मेरा प्रिय है, क्योंकि तू मेरा सखा है, मेरा मित्र है। इसके एक ही काम किया जा सकता है और वह यह कि हम उसकी तरफ पीछे कारण यह नहीं है कि कृष्ण उसे न बताएंगे जो मित्र नहीं, सखा मुंह करके खड़े हो सकते हैं, या पीठ करके खड़े हो सकते हैं। और नहीं, प्रिय नहीं। कारण यह है कि जो मित्र नहीं, प्रिय नहीं, सखा हम सत्य के साथ कुछ भी नहीं कर सकते हैं। एक ही काम कर । नहीं, वह पीठ करके खड़ा हो जाता है सत्य की ओर। प्रिय होने, सकते हैं, या तो हम जानें उसे, या हम न जानने की जिद करें और सखा होने, मित्र होने का कुल प्रयोजन इतना ही है कि अर्जुन मुंह अज्ञान में खड़े रहें। लेकिन हम न जानें, तो भी सत्य बदलता नहीं । करके खड़ा हो सकता है।
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भागवत चेतना का करुणावश अवतरण
सत्य को जानने की, सत्य को समझने की तैयारी मैत्री में संभव ___ इसलिए कृष्ण कहते हैं कि तू मित्र है, प्रिय है, सखा है, इसलिए है। शत्रु के साथ हम पीठ करके खड़े हो जाते हैं; द्वार बंद कर लेते | तुझे मैं यह पुनः उस सत्य की बात कहता हूं, जो सदा है, चिरस्थाई हैं। शत्रु का हम स्वागत नहीं कर पाते। कृष्ण तो बताने को राजी हो | | है, सनातन है, नित्य है। जाएंगे शत्रु को भी; लेकिन शत्रु अपने द्वार बंद करके खड़ा हो | ___ एक और भी बात ध्यान रख लेनी जरूरी है। कृष्ण यह याद क्यों जाएगा। यह शर्त कृष्ण की तरफ से नहीं है।
दिलाते हैं अर्जुन को कि तू सखा है, प्रिय है, मित्र है? इस बात को सत्य तो सभी को उपलब्ध है। सूर्य निकला है, सभी को याद दिलाने की जरूरत क्या है? अर्जुन मित्र है, सखा है, याद उपलब्ध है। लेकिन जिसे नहीं उपलब्ध करना है, वह आंख बंद | दिलाने की क्या जरूरत है? यहां भी एक बहुत बड़ा मनोवैज्ञानिक करके खड़ा हो सकता है। नदी बही जाती है, सभी को उपलब्ध है। सत्य खयाल में ले लेना जरूरी है। लेकिन जिसे नहीं नदी के पानी को देखना है, नहीं पानी को पीना हम इतने विस्मरण से भरे हुए लोग हैं कि अगर हमें निरंतर चीजें है, वह पीठ करके खड़ा हो सकता है। नदी कुछ भी न कर सकेगी। | याद न दिलाई जाएं, तो हमें याद ही नहीं रह जाती। हम प्रतिपल पीठ करके खड़े होने में आपकी स्वतंत्रता है।
भूल जाते हैं। हमारी स्मृति बड़ी दीन है, और हमारा विवेक अत्यंत इसलिए सत्य को जब भी किसी के पास समझने कोई गया हो, रुग्ण है। मित्र को भी हम भूल जाते हैं कि वह मित्र है; प्रिय को भी तो एक मैत्री का संबंध अनिवार्य है। अन्यथा सत्य को पहचाना नहीं| | हम भूल जाते हैं कि वह प्रिय है; निकट को भी हम भूल जाते हैं जा सकता, समझा नहीं जा सकता, सुना भी नहीं जा सकता। । । कि वह निकट है।
जिसके प्रति मैत्री का भाव नहीं, उसे हम अपने भीतर प्रवेश __ दूसरे को भूल जाना तो बहुत आसान है। हम अपने को ही भूल नहीं देते हैं। और सत्य बड़ा सूक्ष्म प्रवेश है। उसके लिए एक जाते हैं। हमें अपना ही कोई स्मरण नहीं रह जाता है। हम कौन हैं, रिसेप्टिविटी, एक ग्राहकता चाहिए।
यही स्मरण नहीं रह जाता है। हम किस स्थिति में हैं, यह भी स्मरण जब आप अपरिचित आदमी के पास होते हैं, तो शायद आपने | नहीं रह जाता है। हम करीब-करीब एक बेहोशी में जीते हैं। एक खयाल किया हो, न किया हो; न किया हो, तो अब करें; जब आप | नींद जैसे हमें पकड़े रहती है। क्रोध आ जाता है, तब हमें पता चलता अपरिचित, अजनबी आदमी के पास होते हैं, तो क्लोज्ड हो जाते है कि क्रोध आ गया। आ गया, तब भी पता बहुत मुश्किल से हैं, बंद हो जाते हैं। आपके सब द्वार-दरवाजे चेतना के बंद हो जाते चलता है। सौभाग्यशाली हैं, जिन्हें पता चल जाता है। हो गया, तब हैं। आप संभलकर बैठ जाते हैं; किसी हमले का डर है। अनजान | पता चलता है। लेकिन तब कुछ किया नहीं जा सकता। पक्षी हाथ
। आक्रमण का भय है। न हो आक्रमण, तो भी के बाहर उड गया होता है। लोग क्रोध कर लेते हैं. फिर कहते हैं अनजान आदमी अनप्रेडिक्टिबल है। पता नहीं क्या करे! इसलिए | कि हमें पता नहीं, कैसे हो गया! आपने ही किया, आपको ही पता तैयार होना जरूरी है। इसलिए अजनबी आदमी के साथ बेचैनी | नहीं? होश में थे, बेहोश थे? नींद में थे? लेकिन हम करीब-करीब अनुभव होती है। मित्र है, प्रिय है, तो आप अनआर्ड हो जाते हैं।। नींद में होते हैं। सब शस्त्र छोड़ देते हैं रक्षा के। फिर भय नहीं करते। फिर सजग कृष्ण अर्जुन को गीता में बहुत बार याद दिलाते हैं कि तू मेरा नहीं होते। फिर रक्षा को तत्पर नहीं होते। फिर द्वार-दरवाजे खुले मित्र है। बहुत बार, परोक्ष-अपरोक्ष, सीधे भी, कभी घूम-फिर कर छोड़ देते हैं।
| भी वे अर्जुन को याद दिलाए चले जाते हैं कि तू मेरा मित्र है। जब मित्र है, तो अतिथि हो सकता है आपके भीतर। मित्र नहीं है, तो भी कृष्ण को लगता होगा, अर्जुन बंद हो रहा है, खुल नहीं रहा है, अतिथि नहीं हो सकता। सत्य तो बहुत बड़ा अतिथि है। उसके लिए तभी वे कहते हैं, तू मेरा मित्र है; स्मरण कर। प्रिय है। और इसलिए हृदय के सब द्वार खुले होने चाहिए। इसलिए एक इंटिमेट ट्रस्ट, ही तो तुझसे मैं सत्य की बात कह रहा हूं। यह सुनकर शायद एक मैत्रीपूर्ण श्रद्धा अगर बीच में न हो, एक भरोसा अगर बीच में क्षणभर को अर्जुन की स्मृति लौट आए और वह खुला हो जाए, न हो, तो सत्य की बात कही तो जा सकती है, लेकिन सुनी नहीं जा निकट हो जाए, ओपेन हो जाए, और कृष्ण जिस सत्य के संबंध में सकती। और कहने वाला पागल है, अगर उससे कहे, जो सुनने में | | उसे जगाना चाहते हैं, उस जगाने की कोई किरण उसके भीतर पहुंच समर्थ न हो।
जाए। इसलिए कृष्ण बहुत बार गीता में बार-बार कहते हैं उसे कि
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गीता दर्शन भाग-20
तू मेरा मित्र है, तू मेरा प्रिय है, तू मेरा सखा है, इसलिए कहता हूं। प्राचीन है अर्जुन, अति पुरातन है, सनातन, अनादि, सबसे पहले,
यह, जब भी हम किसी के भी प्रति एक इंटिमेसी, एक समय नहीं हआ. तब भी यह सत्य था। क्यों? इसे याद न दिलाते. आंतरिकता से भरे होते हैं, तो एक क्षण में हमारी चेतना का तल | तो चल सकता था। बदल जाता है। हम कुछ और हो जाते हैं। जब हम किसी के प्रति | लेकिन अर्जुन से अगर कृष्ण कहें कि यह सत्य मैं ही दे रहा हूं, बहुत मैत्री और प्रेम से भरे होते हैं, तो हम बड़ी ऊंचाइयों पर होते तो शायद अर्जुन ज्यादा खुल न पाए, शायद बंद हो जाए। शायद हैं। और जब हम किसी के प्रति घृणा और शत्रुता से भरे होते हैं, | इतना भरोसा न कर पाए; शायद इतना ट्रस्ट पैदा न हो। तो कृष्ण तो हम बड़ी नीचाइयों में होते हैं। और जब हम किसी के प्रति उपेक्षा शुरू करते हैं अनादि से, किस-किस ने किस-किस से कहा। ऐसे से भरे होते हैं. तो हम समतल भमि पर होते हैं।
वे अर्जुन को राजी करते हैं, खुलने के लिए, ओपनिंग के लिए, द्वार सत्य के दर्शन तो वहीं हो सकते हैं, जब हम शिखर पर होते हैं, खुला रखने के लिए। अपनी चेतना की ऊंचाई पर। कृष्ण जो बात कह रहे हैं, अर्जुन | फिर याद दिलाते हैं कि मित्र है, प्रिय है। और जब अर्जुन को वे छलांग लगाए, तो ही समझ सकता है। अर्जुन अपनी जगह खड़ा पाएंगे कि वह ठीक ट्यूनिंग, ठीक उस क्षण में आ गया है, जहां रहे, तो नहीं समझ सकेगा। अर्जुन उछले थोड़ा, छलांग लगाए, तो मिलन हो सकता है, वहीं वे सत्य कहेंगे। इसलिए गीता में कुछ शायद जो सूर्य उसे दिखाई नहीं पड़ रहा अपनी जगह से, उसकी क्षणों में ट्यूनिंग घटित हुई है। किसी जगह अर्जुन बिलकुल कृष्ण एक झलक मिल जाए। कोई हर्ज नहीं, झलक के बाद वह अपनी के करीब आ गया, तब कृष्ण एक वचन बोलते हैं, जो बहुमूल्य है, जगह पर वापस लौट आएगा। लेकिन एक झलक भी जीवन को | जिसका फिर मूल्य नहीं चुकाया जा सकता। रूपांतरित करने का आधार बन जाती है।
लेकिन वह उसी समय, जब अर्जुन और कृष्ण की चेतना इसलिए कृष्ण कहते हैं, अर्जुन, तू मित्र मेरा, प्रिय मेरा, इसलिए | तादात्म्य को उपलब्ध होती है, तभी। जब बोलने वाला और सुनने तुझसे सत्य की बात कहता हूं। यह मित्रता की स्मृति अर्जुन को एक वाला एक हो जाते हैं, एक रस हो जाते हैं, तभी-मैं आपको छलांग लगाने के लिए है, ताकि अर्जुन किसी तरह कृष्ण के पास कहूंगा, याद दिलाऊंगा कि किन क्षणों में-तब महावाक्य गीता में आ जाए।
उत्पन्न होते हैं: तब जो कष्ण बोलते हैं. वह महावाक्य है। उसके ध्यान रहे, दो ही उपाय हैं संवाद के। या तो कृष्ण अर्जुन के पास | पहले नहीं बोला जा सकता। प्रतीक्षा करनी पड़ती है। खड़े हो जाएं उसी चित्त-दशा में, जिसमें अर्जुन है, तो संवाद हो सत्य को बोलना हो, तो प्रतीक्षा करनी पड़ती है। सत्य को सुनना सकता है। लेकिन तब सत्य का संवाद मुश्किल होगा। और या फिर हो, तो भी प्रतीक्षा करनी पड़ती है। आज की दुनिया तो बहुत जल्दी अर्जुन कृष्ण की चित्त-दशा में पहुंच जाए, तो फिर संवाद हो सकता | में है। इसलिए शायद, शायद इसीलिए सत्य की चर्चा बहुत है। तब संवाद सत्य का हो सकता है। दोनों के बीच पहाड़ और मुश्किल हो गई है। खाई का फासला है।
__ मैंने सुना है, एक फकीर के पास एक युवक सत्य की शिक्षा के यह चर्चा एक पर्वत के शिखर की और एक गहन खाई से चर्चा | लिए आया। पर उसने कहा, मुझे जल्दी है, मेरे पिता बूढ़े हो गए है। पीक टाकिंग टु दि एबिस। एक पर्वत का शिखर गौरीशंकर, | हैं। और घर मुझे जल्दी लौट जाना है। यह सत्य मैं कब तक जान पास में पहाड़ों के गड्ड में अंधेरे में दबी हुई खाई से बात करता है। | लूंगा? उस गुरु ने उसे देखा नीचे से ऊपर तक और कहा, कम से कठिन है चर्चा। भाषा एक नहीं, निकटता नहीं, बहुत मुश्किल है। कम तीन वर्ष तो लग ही जाएंगे। उस युवक ने कहा, तीन वर्ष! लेकिन खाई डर न जाए, अन्यथा और अंधेरे में छिप जाएगी और | भरोसा नहीं, मेरे पिता बचें या न बचें। कुछ और जल्दी नहीं हो सिकुड़ जाएगी। तो शिखर पुकारता है कि मित्र हूं तेरा, निकट हूं | सकता है? मैं जितना आप कहेंगे, उतना श्रम करूंगा; सुबह से तेरे। खुल; भय मत कर, सिकुड़ मत, संकोच मत कर। द्वार बंद सांझ तक। गुरु ने कहा, तब तो शायद दस वर्ष लग जाएंगे। उस मत कर। जो कहता हूं, उसे भीतर आ जाने दे।
शिष्य ने कहा, आप पागल तो नहीं हो गए? मैं कहता हूं, मैं बहुत अर्जुन को सब तरह का भरोसा दिलाने के लिए कृष्ण बहुत-सी | | श्रम करूंगा। रात सोऊंगा भी नहीं, जब तक आप जगाएंगे जागूंगा। बात कहते हैं। पहली बात तो उन्होंने यह कही कि यह सत्य अति | | रात-दिन सतत, कभी इनकार न करूंगा। जो भी करने को कहेंगे,
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9 भागवत चेतना का करुणावश अवतरण
करूंगा। लेकिन कुछ जल्दी न हो सकेगा? गुरु ने कहा, बहुत निकट लाने के लिए है, उसे आश्वस्त करने के लिए है। वह भूल मुश्किल है। तीस वर्ष से कम में होना मुश्किल है।
जाए, युद्ध है चारों तरफ; वह भूल जाए, जल्दी है; वह भूल जाए, उस युवक ने कहा, आप क्या कह रहे हैं! मेरे पिता वृद्ध हैं और संकट है; और वह सत्य के इस संवाद को सुनने को अंतस से तैयार मैं जल्दी में हूं। इसके पहले कि वे जगत से विदा हों, मुझे घर लौट हो जाए। इस आंतरिक तैयारी के लिए वे बहुत-सी बातें कहेंगे। जाना है। उस गुरु ने कहा, फिर तू लौट ही जा अभी। क्योंकि पिता | और जब अर्जुन तैयार होता है, तब वे एक महावाक्य कहते हैं। वृद्ध हैं, उनके लिए तो मैं कुछ नहीं कह सकता। लेकिन तू जब तक | थोड़े-से महावाक्य गीता में हैं, जिनका सारा फैलाव है। वृद्ध न हो जाए, तब तक यह सत्य नहीं मिलेगा। इसमें साठ-सत्तर वर्ष लग जाएंगे। उस युवक ने कहा, पुरानी बात पर वापस लौट आएं। वह तीन वर्ष वाली योजना ठीक है। गुरु ने कहा, अब
अर्जुन उवाच लौटना बहुत मुश्किल है, क्योंकि जो इतनी जल्दी में है, उसे बहुत
अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः । देर लग जाएगी।
कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति ।। ४ ।। वह शिष्य पूछने लगा, इतनी देर क्यों लग जाएगी जो जल्दी में अर्जुन ने पूछा, हे भगवान! आपका जन्म तो आधुनिक है? तो गुरु ने कहा, जो जल्दी में है, उसके साथ ट्यूनिंग बिठानी अर्थात अब हुआ है और सूर्य का जन्म बहुत पुराना है। बहुत मुश्किल है; उसके साथ तालमेल, उसके साथ एक आंतरिक | इसलिए इस योग को कल्प के आदि में आपने कहा था, संबंध बिठाना बहुत मुश्किल है। और संबंध न बैठे, तो मैं कह ही
यह मैं कैसे जानूं? न सकूँगा। क्योंकि जो मुझे कहना है, वह तो एक क्षण में भी हो सकता है। लेकिन वह क्षण कब आएगा, सवाल यह है। वह क्षण-तीन वर्ष भी लग सकते हैं, तीस वर्ष भी लग सकते हैं। और कष्ण ने कहा है कि मैंने ही समय के पहले, सृष्टि के अगर तू विश्राम चित्त से, सहजता से, चुपचाप प्रतीक्षा से मेरे पास पृ पूर्व में, आदि में सूर्य को कही थी यही बात। फिर सूर्य है, तो शायद वह क्षण जल्दी आ जाए। और तू जल्दी में है, तो तू ८ ने मनु को कही, मनु ने इक्ष्वाकु को कही और ऐसे इतने तनाव और इतनी बेचैनी में है कि वह क्षण कभी भी न आए। अनंत-अनंत लोगों ने अनंत-अनंत लोगों से कही। स्वभावतः, क्योंकि बेचैन चित्त के साथ संबंध जोड़ना बहुत कठिन है। | अर्जुन के मन में सवाल उठे, आश्चर्य नहीं है। वह पूछता है,
निश्चित ही, कृष्ण को तो अर्जुन के साथ संबंध जोड़ना जितना | | आपका जन्म तो अभी हुआ; सूर्य का जन्म तो बहुत पहले हुआ। कठिन हुआ होगा, इतना कठिन बुद्ध को अपने किसी शिष्य के | आपने कैसे कही होगी सूर्य से यह बात? । साथ कभी नहीं हआ: महावीर को अपने किसी शिष्य के साथ कभी कष्ण खींचने की कोशिश करते हैं अर्जन को, कि छलांग ले। नहीं हुआ; जीसस को, मोहम्मद को, कंफ्यूशियस को, लाओत्से | अर्जुन सिकुड़कर अपनी खाई में समा जाता है। वह जो सवाल उठाता को-किसी को अपने शिष्य के साथ इतना कठिन कभी न हुआ | है, वे सब सिकुड़ने वाले हैं। वह कहता है, मैं कैसे भरोसा करूं? होगा। क्योंकि युद्ध के मैदान पर सत्य को सिखाने का मौका कृष्ण ___ अब यह बड़े मजे की बात है। यह ध्यान रहे कि जो आदमी के अलावा और किसी को आया नहीं।
पूछता है, मैं कैसे भरोसा करूं, उसे भरोसा करना बहुत मुश्किल कितनी जल्दी न रही होगी! भेरियां बज गईं युद्ध की, | है। या तो भरोसा होता है या नहीं होता है। कैसे भरोसा बहुत शंख-ध्वनियां हो गई हैं. घोडे बेताब हैं दौड पडने को अस्त्र-शस्त्र
मुश्किल है। सम्हल गए हैं; योद्धा तैयार हैं जीवनभर की उनकी साधना आज | जो आदमी कहता है, कैसे भरोसा करूं? दूसरी बात के उत्तर में कसौटी पर कसने को; दुश्मन आमने-सामने खड़े हैं। और अर्जुन | भी वह कहेगा, कैसे भरोसा करूं? यह कैसे भरोसे का सवाल, ने सवाल उठाए। ऐसी क्राइसिस, ऐसे संकट के क्षण में सत्य की | | इनफिनिट रिग्रेस है। इसका कोई अंत नहीं है। शिक्षा बड़ी ही कठिन पड़ी होगी, बड़ी मुश्किल गई होगी। भरोसा किया जा सकता, नहीं किया जा सकता। लेकिन अगर
इसलिए कृष्ण बहुत बार जो बातें कह रहे हैं अर्जुन से, वह सिर्फ | | किसी ने पूछा, कैसे भरोसा करूं, हाउ टु बिलीव, कैसे करूं
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गीता दर्शन भाग-2
विश्वास ? फिर कठिन है। कठिन इसलिए है कि कैसे का सवाल ही अविश्वास में और गैर-भरोसे में ले जाता है।
अर्जुन संदिग्ध हो गया। यह कैसे हो सकता है? एब्सर्ड, बिलकुल व्यर्थ की बात है; असंगत। संगति भी नहीं, तर्क भी नहीं । कहते हैं, सूर्य को कही थी मैंने यही बात
देखें, कैसा मजा है! कृष्ण चाहते हैं कि अर्जुन को भरोसा आ जाए, इसलिए वे कहते हैं, सूर्य को भी मैंने कहा था, तुझसे भी वही कहता हूं। कृष्ण चाहते हैं जिससे भरोसा आ जाए; अर्जुन के लिए वही गैर - भरोसे का कारण हो जाता है।
पूछता है, सूर्य से, आपने? आप अभी पैदा हुए, सूर्य कब का पैदा हुआ ! जो बात कृष्ण ने कही है, अर्जुन उसके संबंध में सवाल नहीं उठा रहा। वह सत्य क्या है, जो सूर्य से कहा था आपने, वह यह नहीं पूछता। कंटेंट के बाबत उसका सवाल नहीं है। उसका सवाल उस व्यवस्था और कंटेनर के बाबत है, जो कृष्ण ने मौजूद किया। वह कहता है कि कैसे मानूं ?
यह ध्यान देने की बात है कि आज तक जगत में सत्य को जानने वाले लोगों ने न जानने वाले लोगों के मन में भरोसे के लिए जितने उपाय किए हैं, न जानने वाले भी कमजोर नहीं हैं, उन्होंने उन सब उपायों को भरोसा न करने का उपाय बना लिया।
जानने वालों ने जितने भी उपाय किए हैं कि न जानने वालों और उनके बीच में भरोसे का एक सेतु, ए ब्रिज आफ ट्रस्ट पैदा हो जाए कि जिसके आधार पर सत्य कहा जा सके; लेकिन न जानने वाले भी अपने न जानने की जिद्द में उस सेतु को टिकने ही नहीं देते। उस सेतु से जो आएगा, उसकी तो बात ही नहीं है। पहले तो वे उस सेतु पर ही संदेह खड़ा करते हैं कि यह सेतु हो कैसे सकता है ?
कृष्ण तो कहते हैं, मैं सखा, मित्र, प्रिय ! अर्जुन जो सवाल उठाता है, वह बहुत प्रेमपूर्ण नहीं है। क्योंकि प्रेम भरोसा है। प्रेम भरोसा है, निष्प्रश्न भरोसा । जहां सवाल है भरोसे पर कि क्यों? वहां प्रेम नहीं है। वहां प्रेम का अभाव है।
कभी आपने खयाल किया है कि जब भी जीवन में प्रेम की घड़ी होती है, तब आप क्यों, कैसे, क्या – सब भूल जाते हैं। प्रेम एकदम भरोसा ले आता है। और अगर प्रेम भरोसा न ला पाए, , तो फिर प्रेम कुछ भी नहीं ला सकता। और अगर प्रेम भरोसा न ला पाए, तो प्रेम है ही नहीं।
अर्जुन पूछता है, मानने योग्य नहीं लगती यह बात ! यह भी समझ लेने जैसा जरूरी है कि कृष्ण ने क्या कहा था !
सुबह मैंने आपको कहा था, कृष्ण जब कह रहे हैं कि यही मैंने कहा था, तो यह तो कृष्ण भी जानते हैं कि यह शरीर तो अभी पैदा | हुआ। यह अर्जुन ही पूछे, तब कृष्ण जानेंगे, ऐसा नहीं है। यह कृष्ण भी जानते हैं कि यह शरीर तो अभी पैदा हुआ है। और अगर इतना कृष्ण नहीं जानते, तो बाकी और कुछ पूछना उनसे व्यर्थ है। एक बार ऐसा हुआ। रामकृष्ण का चित्र किसी ने उतारा। फिर फोटोग्राफर चित्र को लेकर आया, तो रामकृष्ण उस चित्र के पैर पड़ने लगे। पास-पड़ोस बैठे शिष्यों ने कहा, क्या करते हैं परमहंस | देव ? लोग पागल कहेंगे! अपने ही चित्र के, और पैर पड़ते हैं?
भी
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रामकृष्ण खूब हंसने लगे। उन्होंने कहा, तुम क्या सोचते हो कि मुझे | इतना भी पता नहीं कि यह मेरा ही चित्र है ? और अगर इतना भी मुझे पता नहीं है, तो लोग पागल कहेंगे, तो ठीक ही कहेंगे। अगर इतना भी मुझे पता नहीं, तो लोग जो कहेंगे, ठीक ही कहेंगे ।
बहुत बार जिन्होंने जाना है, उन्होंने न जानने वालों को तो सलाह दी ही है; जो नहीं जानते हैं, वे भी जानने वालों को सलाह देने पहुंच जाते हैं। इस बात को भी भूलकर कि जब जानने वालों को भी | आपकी सलाह की जरूरत पड़ती है, तो फिर अब उसकी सलाह की आपको कोई जरूरत नहीं रह गई ।
रामकृष्ण ने कहा कि यह तो मुझे भी पता है कि तस्वीर मेरी है। | और यह कहकर फिर भी पैर पड़े और खड़े होकर तस्वीर को लेकर नाचने लगे। एक शिष्य ने कहा, आप क्या कर रहे हैं ? रामकृष्ण ने | कहा, कुछ समझने की कोशिश करो। यह चित्र मेरा ही है, इतना | ही नहीं, यह चित्र साथ किसी और चीज का भी है। उन्होंने कहा, वह हमें दिखाई नहीं पड़ती, आपका ही चित्र है। रामकृष्ण ने कहा, यह मेरे शरीर की आकृति है, सो तो ठीक; लेकिन जब यह चित्र | लिया गया, तब मैं गहरी समाधि में था। यह समाधि का भी चित्र है, मेरा ही नहीं। मैं तो सिर्फ रूप हूं। और मेरी जगह और भी रूप | हो सकता था। लेकिन भीतर जो घटना घट रही थी, उसका भी चित्र है। मैं उसी को नमस्कार कर रहा हूं।
लेकिन वह भीतर की घटना तो हमारी बाहर की आंखों को दिखाई नहीं पड़ती। अर्जुन को भी न दिखाई पड़ी, तो आश्चर्य नहीं है।
अर्जुन ठीक हमारे जैसा सोचने वाला आदमी है, ठीक तर्क से, गणित से हिसाब से । वह कहता है, आप? स्वभावतः, जो सामने | तस्वीर दिखाई पड़ रही है कृष्ण की, वह सोचता है, यही आदमी | कहता है ? तो इसकी तो जन्म तारीख पता है। सूर्य की तो | जन्म तारीख कुछ पता नहीं है । और यह आदमी जिस दिन पैदा
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भागवत चेतना का करुणावश अवतरण
हुआ, उस दिन भी सूरज निकला था। उसके पहले भी निकलता बहुत-बहुत अनेक जन्म हो चुके हैं, लेकिन उन्हें तू नहीं जानता और
मैं जानता हूं। उसका सवाल ठीक मालूम पड़ता है। हमें भी ठीक मालूम | इस संबंध में दो-तीन बातें स्मरणीय हैं। पड़ेगा। लेकिन वह इस भीतर के आदमी को देखने में असमर्थ है; एक तो, जो हम नहीं जानते, वह नहीं है, ऐसा मानने की जल्दी हम भी असमर्थ हैं।
| नहीं कर लेनी चाहिए। अर्जुन जो नहीं जानता है, वह नहीं है, ऐसी कृष्ण जिसकी बात कर रहे हैं, वह इस शरीर की बात नहीं है। निष्पत्ति निकाल लेनी बहुत चाइल्डिश, जुवेनाइल है, बचकानी है। वह उस आत्मा की बात है, जो न मालूम कितने शरीर ले चुकी और बहुत कुछ है जो हम नहीं जानते हैं, फिर भी है। हमारे न जानने से छोड़ चुकी, वस्त्रों की भांति। न मालूम कितने शरीर जरा-जीर्ण हुए, | नहीं नहीं हो जाता। लेकिन अर्जुन की जो भूल है, वह नेचरल पुराने पड़े और छूटे! वह उस आत्मा की बात है, जो मूलतः फैलेसी है, बड़ी प्राकृतिक भूल है। हम भी यही भूल करते हैं। परमात्मा से एक है। वह सूर्य के पहले भी थी। सूर्य बुझ जाएगा, | मनुष्य की सहज भूलों में एक भूल है, जो नहीं जानते, हम मानते उसके बाद भी होगी।
हैं, वह नहीं है। न मालूम किस भ्रांति के कारण हम ऐसा सोचते हैं जहां तक शरीरों का संबंध है, यह सूर्य हमारे जैसे न मालूम | कि हमारा जानना ही सब कुछ है। कितने करोड़ों शरीरों को बुझा देगा और नहीं बुझेगा। लेकिन जहां ___ अगर हमारा जानना ही सब कुछ है-अगर मैं आपसे पूछू कि तक भीतर के तत्व का संबंध है, ऐसे सूरज जैसे करोड़ों सूरज बुझ | उन्नीस सौ इकसठ, एक जनवरी थी या नहीं? आप कहेंगे, थी; मैं जाएंगे और वह भीतर का तत्व नहीं बुझेगा।
था। लेकिन अगर मैं पूर्वी कि एक जनवरी, उन्नीस सौ इकसठ की लेकिन उसका अर्जुन को कोई खयाल नहीं है, इसलिए वह कोई याददाश्त बताइए, अगर थी! तो क्या किया था सुबह उठकर? सवाल उठाता है। उसका सवाल, अर्जुन की तरफ से संगत, कृष्ण दोपहर क्या किया था? सांझ क्या बोले थे? रात नींद आई थी, नहीं की तरफ से बिलकुल असंगत। अर्जुन की तरफ से बिलकुल | आई थी? स्वप्न कौन-सा आया था? आप कहेंगे, कुछ भी याद तर्कयुक्त, कृष्ण की तरफ से बिलकुल अंधा। अर्जुन की तरफ से | नहीं है। अगर एक जनवरी, उन्नीस सौ इकसठ की कोई भी याद नहीं बड़ा सार्थक, कृष्ण की तरफ से अत्यंत मूढ़तापूर्ण। लेकिन अर्जुन | है, तो एक जनवरी, उन्नीस सौ इकसठ थी, इसके कहने का हक क्या कर सकता है! कृष्ण की तरफ से होगा मूढ़तापूर्ण, उसकी तरफ | क्या है? आप कहेंगे, थी तो जरूर, मैं था, लेकिन याद! याद से तो बहुत तर्कपूर्ण है। यद्यपि अंततः सभी तर्क अत्यंत मूर्खतापूर्ण बिलकुल नहीं है। सिद्ध होते हैं, लेकिन जब तक वे ऊंचाइयां नहीं मिलीं, तब तक ___ याद दिलाई जा सकती है। क्योंकि एक गहरा नियम है मन का
अर्जुन की भी मजबूरी है। और उसका सवाल उसकी तरफ से | कि जो भी जाना जाता है, वह कभी भूलता नहीं। विस्मृति असंभव बिलकुल संगत है।
| है। जिस बात को हम कहते हैं विस्मृति हो गई, उसका भी इतना ही
मतलब है कि हम उसे पकड़ नहीं पा रहे हैं। हम नहीं पकड़ पा रहे
| हैं, कहां रख गई वह याद, किस कोने-कातर में मन के समा गई! श्री भगवानुवाच
__ छोटा मन है, करोड़ों स्मृतियां हैं। मन को छांटना पड़ता है बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन। स्मृतियों को। छांट-छांटकर काम की बचा लेता है, बाकी को
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परंतप ।।५।। | कचरेघर में डाल देता है। लेकिन कचराघर भी भीतर ही है। जैसे भगवान बोले हे अर्जुन, मेरे और तेरे बहुत-से जन्म हो चुके अपने घर में कोई नीचे, तहखाने में चीजों को डालता चला जाता है, परंतु हे परंतप! उन सबको तू नहीं जानता है और मैं है, जो बेकार हैं। लेकिन बिलकुल बेकार नहीं है, कभी काम में आ जानता हूं।
| सकती हैं, इसलिए इकट्ठी भी करता चला जाता है।
हम भी अपने मन में सब इकट्ठा करते चले जाते हैं। इसलिए जो
आपको एक जनवरी उन्नीस सौ इकसठ याद न आती हो, वह क ष्ण ने अर्जुन से कहा, मेरे और तेरे, हे परंतप! आपको सम्मोहित करके, बेहोश किया जाए, तो याद आ जाती है।
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ॐ गीता दर्शन भाग-26
आप एक जनवरी उन्नीस सौ इकसठ का ऐसे ही वर्णन कर देंगे, जैसे | रहा है, और गालियां बक रहा है, और दुखी हो रहा है, और दुष्टता एक जनवरी उन्नीस सौ इकहत्तर का भी करना मुश्किल पड़ेगा। | बरत रहा है, तो मां सोचती है कि यह कहां से, कैसे ये सब कहां बिलकुल कर देंगे। बेहोशी की, सम्मोहन की अवस्था में सब याद | | सीख गया! दिखता है, कहीं दुष्ट-संग में पड़ गया है। आ जाएगा, सब उठ आएगा।
दुष्ट-संग में बहुत बाद में पड़ा होगा; दुष्ट-संग में बहुत पहले अभी मनोवैज्ञानिक सम्मोहन के द्वारा जन्म के पहले दिन तक की नौ महीने तक पड़ चुका है। और नौ महीने बहुत संस्कार संस्कारित स्मृति तक ले जाने में समर्थ हो गए हैं। पहले दिन जब आपका जन्म | हो गए हैं। उनकी भी स्मृतियां हैं। लेकिन और भी गहरे लोग गए हुआ था, कुछ भी तो याद न होगी उसकी। लोग कहते हैं, इसलिए | हैं। पिछले जन्मों की स्मृतियों में भी गए हैं। मान लेते हैं कि हुआ था। अगर कोई दिक्कत आ जाए और सारे | कृष्ण कहते हैं कि अर्जुन, जो तुझे पता नहीं है, वह मुझे पता है। प्रमाण पूछे जाएं, तो सिवाय उधार प्रमाणों के कोई प्रमाण न मिलेगा वे इतनी सरलता से कहते हैं कि जो तुझे पता नहीं है, वह मुझे पता आपके पास। कोई कहता है, इसलिए आप कहते हैं कि मैं पैदा | | है। वे इतनी सहजता से कहते हैं कि उनका वचन बड़ा प्रामाणिक हुआ था। लेकिन आपको कोई याद है? आप विटनेस हैं? उस | | और आथेटिक मालूम पड़ता है। घटना के गवाह हैं? आप कहेंगे, मैं तो गवाह नहीं हूं। तब बड़ी ध्यान रहे, झिझक कृष्ण में जरा भी नहीं है। जरा-सी भी झिझक मुश्किल है। आपके जन्म की गवाही आप न दे सकें, तो दूसरों की बताती है कि आदमी को खुद पता नहीं है। किसी और से पता गवाही का भरोसा क्या है? जन्म है आपका, गवाही है दूसरे की! होगा; सेकेंड हैंड पता होगा।
लेकिन पहले दिन जन्म की स्मृति भी भीतर है। और जिन्होंने | | कृष्ण कहते हैं, अर्जुन, जो तुझे पता नहीं है, वह मुझे पता है। और गहरे प्रयोग किए हैं, जैसे तिब्बत में लामाओं ने और गहरे | | हमारे और भी जन्म हुए हैं। मैं इसी जन्म की बात नहीं कर रहा हूं। प्रयोग किए हैं, तो मां के पेट में भी नौ महीने आप रहे। जन्म का लेकिन वे इतनी सरलता से कहते हैं, जरा भी झिझक नहीं। ठीक दिन
हीं है. जिसको हम जन्म-दिन कहते हैं। उसके ठीक और एक बात और ध्यान देने योग्य है। दार्शनिकों और ऋषियों नौ महीने पहले असली जन्म हो चुका। जिसे हम जन्म-दिन कहते | के वचनों में एक फर्क दिखाई पड़ेगा। दार्शनिक जब भी बोलेंगे, तो हैं, वह तो मां के शरीर से मुक्त होने का दिन है, जन्म का दिन नहीं। हाइपोथेटिकल बोलेंगे। वे बोलेंगे, इफ, यदि ऐसा हो, तो ऐसा नौ महीने तक सेटेलाइट था आपका शरीर; मां के शरीर के साथ | होगा। ऋषि जब बोलेंगे, तो उनका बोलना स्टेटमेंट का होगा, घूमता था, उपग्रह था। अभी इतना समर्थ न था कि स्वयं ग्रह हो वक्तव्य का होगा। वे कहेंगे, ऐसा है। सके। इसलिए घूमता था; सेटेलाइट था। अब इस योग्य हो गया | इसलिए जब पहली बार उपनिषद का अनुवाद हुआ पश्चिम में, कि मां से मुक्त हो जाए, अब अलग जीवन शुरू करे। लेकिन जन्म | तो पश्चिम के विचारक बहुत मुश्किल में पड़े कि उपनिषद के लोग तो उसी दिन हो गया, जिस दिन गर्भ धारण हुआ है। | कैसे हैं! ये सीधा कह देते हैं कि ब्रह्म है। पहले बताना चाहिए,
तो लामाओं ने इस पर और गहरे प्रयोग किए हैं और नौ महीने क्यों, क्या कारण है, क्या दलील है, क्या प्रमाण है; फिर निष्कर्ष की स्मृतियां भी उठाने में सफल हुए हैं। जब मां क्रोध में होती है, | देना चाहिए कि ब्रह्म है। ये तो सीधा कह देते हैं, कैटेगोरिकल, तब भी बच्चे की पेट में स्मृति बनती है। जब मां दुखी होती है, तब | हाइपोथेटिकल नहीं। सीधा वक्तव्य दे देते हैं कि ब्रह्म है। इसके भी बच्चे की स्मृति बनती है। जब मां बीमार होती है, तब भी बच्चे | आगे-पीछे कुछ भी नहीं। ये वक्तव्य ऐसे दे देते हैं, जैसे कोई कहे, की स्मृति बनती है। क्योंकि बच्चे की देह मां की देह के साथ | संयुक्त होती है। और मां के मन और देह पर जो भी पड़ता है, वह पश्चिम के जिन लोगों को यह चकित होने का कारण बना, संस्कारित हो जाता है बच्चे में।
| उसका आधार है। पश्चिम में ऋषियों की वाणी बहुत कम पैदा हुई। इसलिए अक्सर तो माताएं जब बाद में बच्चों के लिए रोती हैं | पश्चिम में दार्शनिक बोलते रहे, फिलासफर्स बोलते रहे। वे जो भी और पीड़ित और परेशान होती हैं, उनको शायद पता नहीं कि उसमें | कहते हैं, उसको दलील, आर्युमेंट से कहते हैं। लेकिन ध्यान रहे, कोई पचास प्रतिशत हिस्सा तो उन्हीं का है, जो उन्होंने जन्म के | दलील और तर्क इस बात की खबर देते हैं कि यह एक निष्कर्ष है, पहले ही बच्चे को संस्कारित कर दिया है। अगर बच्चा क्रोध कर | अनुभव नहीं। और सत्य एक अनुभव है, निष्कर्ष नहीं। ट्रथ इज़
सूरज है।
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भागवत चेतना का करुणावश अवतरण
नाट ए कनक्लूजन, बट एन एक्सपीरिएंस। निष्कर्ष नहीं है सत्य।। | जाना बड़ा कठिन है। जिसने शास्त्र से ध्यान सीखा, उसने कागज वह दो और दो चार होते हैं, ऐसा जोड़ा गया हिसाब नहीं है, जाना की नाव में यात्रा करने का विचार किया है। खतरनाक है वह यात्रा। गया अनुभव है।
उधार है ज्ञान, इसलिए झिझकता हुआ है। ज्ञान ने साहस खो इसलिए कृष्ण जब कहते हैं कि अर्जुन, तुझे पता नहीं और मुझे दिया। बल्कि और मजे की बात है, अज्ञान बहुत साहसी है आज। पता है। और जब मैं कहता हं कि सूर्य को मैंने कहा था, तो मैं किसी अज्ञान इतना साहसी कभी भी न था। और जन्म की बात कर रहा हूं। यह इस जन्म की बात नहीं है। ___ ध्यान रहे, अगर चार्वाक को कहना पड़ता था कि ईश्वर नहीं है,
एक और ध्यान देने की बात है, कि ज्ञान कृष्ण के समय या बुद्ध | | तो हजार दलीलें देनी पड़ती थीं, तब चार्वाक कहता था, ईश्वर नहीं के समय या महावीर के समय में इतना झिझकता हुआ नहीं था, | है। ईश्वर नहीं है, एक कनक्लूजन था, एक निष्पत्ति थी। हजार जितना आज है। बहुत बोल्ड था, बहुत साहसी था। जो कहना है, | दलील देता था और फिर कहता था, देखो, यह दलील, यह दलील, कहता था। आज ज्ञान बहुत झिझकता हुआ है। जो भी कहना है, | यह दलील; तब मैं कहता हूं कि ईश्वर नहीं है। हजार दलील देता वह सीधा कहना मुश्किल है। क्या कारण होगा? कारण एक ही है। | था, तब कहता था कि देखो, मैं कहता हूं, आत्मा नहीं है। ज्ञान बहुत आज जिसे हम ज्ञान कहते हैं, सौ में निन्यानबे मौके पर उधार होता | शक्तिशाली था, वह कहता था, ब्रह्म है—बिना दलील के। और है, इसलिए झिझकता है।
| अज्ञान बहुत कमजोर था; वह हजार दलील जुटाता था, तब कहता - एक साध्वी ने योग पर एक किताब लिखी, मुझे भेजी। देखा, | | था कि शक होता है आत्मा पर। किताब मुझे बहुत पसंद पड़ी; बहुत अच्छी लिखी। लेकिन दो-चार | | आज हालत बिलकुल उलटी है। आज जिसको कहना है, जगह मुझे ऐसा लगा कि उस साध्वी को योग का या ध्यान का कोई | आत्मा नहीं है, बिना दलील के कहता है, आत्मा नहीं है, ईश्वर नहीं भी अनुभव नहीं है। क्योंकि जो फिजूल बातें थीं, वह तो उसने बड़े | है; कोई दलील देने की जरूरत नहीं है। और जिसको कहना है, बलपूर्वक कहीं, और जो सार्थक बातें थीं, उनमें बड़ी झिझक थी। | ईश्वर है, वह हजार दलीलें इकट्ठी करता है कि यह कारण, यह
फिर दो-चार वर्ष के बाद वह साध्वी मुझे मिली। मैंने कुछ बात | | कारण, इसलिए। जैसे कि कुम्हार घड़े को बनाता है, ऐसे भगवान न की उस किताब की। थोड़ी देर के बाद उसने कहा, मुझे अकेले | जगत को बनाता है। कुम्हार, भगवान को सिद्ध करने के लिए में कुछ बात करनी है। मैंने कहा, पूछे। उसने कहा, मुझे ध्यान के | | दलील है। बेचारा कुम्हार, उसका कोई हाथ नहीं! इतनी कमजोर संबंध में कुछ बताएं कि कैसे करूं? मैंने कहा, चार वर्ष हुए तुम्हारी | | दलीलों पर कहीं ज्ञान खड़ा हुआ है? किताब देखी थी, तब भी मुझे लगा था कि ध्यान का तुम्हें कुछ पता | ज्ञान अनुभव है। नहीं होना चाहिए। क्योंकि जो-जो गहरी बात थी, उसमें झिझक थी। जब कृष्ण कहते हैं, बिना दलील; कृष्ण आर्युमेंट नहीं दे रहे हैं।
और जो-जो बेकार बात थी, बहुत बोल्ड, बहुत साहस से कही गई कोई आर्युमेंट ही नहीं देते। वे कहते हैं, अर्जुन तुझे पता नहीं और थी! उसने कहा, मुझे तो कुछ भी पता नहीं। फिर, मैंने कहा, वह | | मुझे पता है, इसलिए मैं कहता हूं। वे दलील नहीं जुटाते। किताब क्यों लिखी? उसने कहा, वह तो मैंने दस-पचास किताबें यह वक्तव्य सीधा और साफ है। और सीधा और साफ जब भी पढ़कर लिखी—लोगों के लाभ के लिए। मैंने कहा, जिस किताब वक्तव्य होता है, तो वह प्राणों के अंतस्तल को छेद पाता है। दलीलें को लिखने से भी तुम्हें लाभ नहीं हुआ, उस किताब को पढ़ने से | जहां नहीं पहुंचती हैं, वहां सीधे वक्तव्य पहुंच जाते हैं। प्रमाण जहां लोगों को लाभ होगा? तुम लिखने के चार साल बाद भी अभी | नहीं पहुंचते, वहां आंखों की गवाही पहुंच जाती है। ध्यान कैसे करें, यह पूछती हो; और तुमने उसमें ध्यान के चार अर्जुन दलील मांग रहा है। कृष्ण दलील नहीं दे रहे। अर्जुन प्रकार होते हैं और क्या-क्या होता है, सब गिनाया हुआ है! उसने | दलील ही मांग रहा है, कि कोई सर्टिफिकेट दिखाओ कि तुम थे। कहा, वह सब शास्त्रों में लिखा है।
तुम सूरज के पहले थे? कहीं किसी कारपोरेशन के दफ्तर में कहीं पर ध्यान को शास्त्रों से जो जानेगा, उसने सूरज नहीं देखा, सूरज | | कोई जन्म-तारीख? कहीं कुछ लिखा-पढ़ी है? नहीं; वे इतना ही की तस्वीर देखी। तस्वीर को हाथ में रखा जा सकता है, सूरज को | | कहते हैं कि अर्जुन, तू जानता नहीं और मैं जानता हूं। हाथ में नहीं रखा सकता। तस्वीर जला नहीं सकती, सूरज के पास | इतना साहस था जब सत्य में, तब अगर सत्य परिणाम लाता
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गीता दर्शन भाग-20
था, तो कुछ आश्चर्य नहीं है। और आज अगर अज्ञान साहसी है, खोली और कहा, उसका जवाब तो अभी तक नहीं मिला। उसके तो अज्ञान दुष्परिणाम लाता है, तो भी कुछ आश्चर्य नहीं है। | गुरु ने कहा, मूरख, मरे हुए लोग जवाब नहीं देते। उठ, और अपने
आज नास्तिक सारे जगत में जिस भाषा में बोलता है, वह उसी | घर जा! मर गया था, तो मर जाना था। जवाब देने की इतनी क्या ताकत की भाषा है, जिस ताकत में कभी कृष्ण, महावीर और बुद्ध | जल्दी थी? लेकिन मरने का कोई नाटक नहीं हो सकता है। बोले। आज उस ताकत की भाषा में मार्क्स, स्टैलिन और माओत्से __अब यह जो गुरु कह रहा है कि मर जा, वह समझ ही नहीं पा तुंग बोलते हैं। उसी ताकत की भाषा में। आज अगर पुरी के | रहा है, किस मृत्यु की बात हो रही है। जब गुरु कह रहा है, अरे, शंकराचार्य को बोलना है, तो ताकत नहीं है; तो फिर शास्त्र, वेद, । | फिर तू आ गया, तब भी वह नहीं समझ पा रहा है कि किसके आने पुराण, उन सबसे इकट्ठा करके बोलना है।
| की बात हो रही है। जिस अहंकार के मरने के लिए वह गुरु बात पुरी के शंकराचार्य कहते हैं कि कोई अगर सिद्ध कर दे कि शास्त्रों | कर रहा है, वह उसके खयाल में नहीं आता। ज्यादा से ज्यादा उसे में लिखा है कि गौवध होता था यज्ञों में, कोई अगर सिद्ध कर दे कि खयाल में आया कि इस शरीर को गिरा दो, आंख बंद करके पड़े शास्त्रों में लिखा है, तो मैं गौवध का विरोध छोड़ दूंगा। बड़ी कमजोर | रह जाओ। और क्या हो सकता है? दुनिया है। कोई अगर सिद्ध कर दे कि शास्त्रों में लिखा है कि गौवध शरीर केंद्रित दृष्टि शरीर के बाहर की बातों को सुन नहीं पाती। होता था, तो पुरी के शंकराचार्य, गौवध बंद हो, ऐसा आंदोलन | | अर्जुन भी शरीर केंद्रित है। उसकी सारी चिंतना, उसका सारा संताप छोड़ने को तैयार हैं! दलील और प्रमाण कोई दे दे। | शरीर केंद्रित, बाडी ओरिएंटेड है। वह कहता है, ये मेरे प्रियजन मर
लेकिन इतना साहस नहीं सत्य में कि वह सीधा कहे कि सब | | जाएंगे। कृष्ण कहते हैं, ये कोई नहीं मरने वाले हैं। ये पहले भी थे शास्त्रों में लिखा हो कि गौवध होता था, तो भी गौवध नहीं हो और फिर भी रहेंगे। वही-वही सवाल लौट-लौटकर चला आता सकता है, क्योंकि ऐसा हमारी आत्मा कहती है कि यह गलत है। अभी कृष्ण पहले समझाते हैं कि कोई ये मरेंगे नहीं। ये पहले है-ऐसा। ऐसा नहीं कह सकता कोई हिम्मतवर आज, तब फिर | भी थे, पीछे भी रहेंगे। तू इनकी फिक्र मत कर। कुछ समझता नहीं अर्थ नहीं है। कोई ऐसा नहीं कह सकता कि तुम नहीं जानते और | | है अर्जुन। अब वह फिर वही पूछता है, आप! आप सूर्य के पहले मैं जानता हूं। लेकिन ऐसा कोई कहना चाहे, तो नहीं कह सकता। कहां थे? आप तो अभी पैदा हुए हैं! कहना चाहे, तो बहुत मुश्किल में पड़ेगा।
| वही शरीर से बंधी हुई दृष्टि! लेकिन कृष्ण एक सीधा वक्तव्य ठीक ऐसी मुश्किल में पड़ेगा, मैंने सुना है, एक साधक एक गुरु | | देते हैं। दलील दे सकते थे। लेकिन जिनके पास अनुभव है, वे के पास बहुत दिन तक था। गुरु उससे कहता कि इस तरह ध्यान | दलील हमेशा पीछे देते हैं, वक्तव्य पहले दे देते हैं। जिनके पास करो कि तुम बचो ही न, बिलकुल मर जाओ, तभी परमात्मा | अनुभव नहीं है, वे दलील पहले देते हैं, वक्तव्य पीछे देते हैं। मिलेगा। उसने कई तरह की कोशिशें कीं, लेकिन मर कैसे जाए? | | जिनके पास अनुभव है, वे दलील का उपयोग सिद्ध करने के लिए रोज गुरु के पास आता और गुरु कहता कि तुम अभी भी हो! फिर नहीं करते। वे दलील का उपयोग ज्यादा से ज्यादा समझाने के लिए ध्यान क्या खाक होगा? मिटोगे नहीं, मरोगे नहीं, ध्यान नहीं होगा। करते हैं। वह बेचारा रोज लौट जाता। फिर दूसरे दिन सुबह आता कि फिर तो पहली तो बात यह समझ लें कि कृष्ण ने बेझिझक कहा कि अपनी खबर कर दे कि अभी तक ध्यान हुआ नहीं। गुरु उसे देखते | | तू नहीं जानता और मैं जानता हूं। इतना बेझिझक अनुभव ही हो से ही कहता, अरे! तुम अभी भी जिंदा हो?
सकता है। लेकिन गुरु भी झिझकते हुए हो सकते हैं। और तब अगर एक दिन उसने सोचा, यह कब तक चलेगा! सुबह वह पहुंचा, | | शिष्य झिझकते हुए हो जाएं, तो बहुत कठिनाई क्या है? गुरु भी गुरु के दरवाजे पर खड़ा ही हुआ था; गुरु ने कहा, अरे! उसने | सोच-विचार करके उत्तर देते हों, तो फिर शिष्य भी उत्तर से वंचित कहा, मत कहो। और एकदम गिरा और मर गया। वहीं गिरा और | रह जाएं, तो हैरानी क्या है? मर गया। आंखें बंद कर लीं, सांस रोककर पड़ रहा। गुरु पास | यह सोच-विचार नहीं है कृष्ण की तरफ, यह सीधी प्रतीति है कि आया, उसने कहा कि बिलकुल ठीक। अच्छा, मैंने तुम्हें कल एक | | तू नहीं जानता। यह ठीक वैसे ही है जैसे एक अंधे आदमी से कोई सवाल दिया था, उसका जवाब तो दो। उस आदमी ने एक आंख आंख वाला कहे कि सूरज है; मैं जानता हूं और तू नहीं जानता।
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भागवत चेतना का करुणावश अवतरण
यह इतनी ही सरल और सीधी बात उन्होंने कही है।
कल्पना करें, अगर आपको ऐसी जगह रखा जाए जहां कोई न | मरा हो और आपने कभी मरने की कोई घटना न देखी हो, आपने
मृत्यु शब्द न सुना हो, आपको किसी ने मौत के बाबत कुछ न अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्। बताया हो, क्या आप अपने ही तौर अकेले ही कभी भी सोच पाएंगे प्रकृति स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया।।६।। कि आप मर सकते हैं? नहीं सोच पाएंगे। यह निजी एकांत में आप मैं अविनाशी स्वरूप अजन्मा होने पर भी तथा सब भूत | न खोज पाएंगे कि आप मर सकते हैं, क्योंकि मृत्यु की कल्पना ही प्राणियों का ईश्वर होने पर भी अपनी प्रकृति को अधीन भीतर नहीं बनती। करके योगमाया से प्रकट होता हूं। | भीतर जो है, वह मरणधर्मा नहीं है। भीतर जो है, वह मरणधर्मा
नहीं है; वह अजन्मा भी है। असल में वही मरता है, जो जन्मता है।
| जो नहीं जन्मता, वही नहीं मरता है। कष्ण यहां चेतना कैसे प्रकट होती है पदार्थ में, परमात्मा । कृष्ण कहते हैं, मैं अजन्मा हूं, अजात, जो कभी जन्मा नहीं,
कैसे आविर्भूत होता है प्रकृति में, अदृश्य कैसे दृश्य अनबॉर्न। और इसलिए अनडाइंग हूं, मरूंगा भी नहीं। औरों की
के शरीर को ग्रहण करता है, अलौकिक कैसे लौकिक | भांति मैं जन्मा हुआ नहीं हूं, अर्जुन! बन जाता है, अज्ञात असीम अनंत कैसे सीमा और सांत में बंधता और तो सभी मानते हैं कि उनका जन्मदिन है। उनके मानने में है, उसका सूत्र कहते हैं।
ही उनकी भ्रांति है। ऐसा नहीं है कि वे जन्मे हैं. जन्मे तो वे भी नहीं वे कहते हैं. मैं और लोगों की भांति जन्मा हआ नहीं हैं। | हैं। लेकिन जिस दिन वे जान लेंगे कि वे जन्मे नहीं हैं. वे भी मेरे ही · यहां एक बात तो सबसे पहले ठीक से समझ लें कि जब वे | | भांति हो जाएंगे, वे भी मेरे ही रूप हो जाएंगे। कहते हैं, मैं और लोगों की भांति जन्मा हआ नहीं है, तो इसका __ यह जो अजन्मा है, जो कभी जन्मता नहीं है, वह भी तो आया जैसा अब तक मतलब लिया जाता रहा है, वैसा मतलब नहीं है। | है। वह भी तो उतरा है, आविर्भूत हुआ है। वह भी तो पैदा हुआ है। लोग कहेंगे कि यहां वे कह रहे हैं कि मैं भगवान का अवतार हूं, | वह भी तो जन्मा ही है। कृष्ण भी तो जन्मे ही हैं। बाकी लोग नहीं है। ऐसा नहीं कह रहे हैं। यहां वे इतना ही कह रहे | । कहानी है कि जरथुस्त्र पैदा हुआ, तो जैसे कि और बच्चे रोते हैं, हैं कि जन्मता तो कोई भी नहीं है, लेकिन दूसरे मानते हैं कि वे | | जरथुस्त्र रोया नहीं, हंसा। अब जरथुस्त्र वैसे ही थोड़े-से लोगों में जन्मते हैं; और जब तक वे मानते हैं कि जन्मते हैं, तब तक मरते | | एक है, जैसे कृष्ण। शायद पृथ्वी पर अकेला एक ही बच्चा जन्म हैं। उनकी मान्यता ही उनकी सीमा है। यहां वे कह रहे हैं, मैं औरों | के साथ हंसा है, वह जरथुस्त्र। घबड़ा गए लोग। घबड़ा ही जाएंगे। की भांति जन्मा हुआ नहीं हूं। यहां उनका प्रयोजन है कि मैं जानता | बच्चा पैदा हो और हंसने लगे खिलखिलाकर, तो घबड़ा ही जाएंगे। हूं भलीभांति, जैसा कि और नहीं जानते कि मैं अजन्मा हूं, मेरा क्योंकि हंसना बच्चे के लिए स्वाभाविक नहीं है, रोना बिलकुल कभी जन्म नहीं हुआ।
स्वाभाविक है। एक बहुत सोचने और खयाल में और कभी भीतर खोजने जैसी लेकिन कभी आपने सोचा कि बच्चे के लिए अगर रोना बात है। कितना ही मन में सोचें, आप यह कभी सोच न पाएंगे, स्वाभाविक है, तो बूढ़े के लिए रोते हुए मरना स्वाभाविक नहीं होना इनकंसीवेबल है, इसकी कल्पना नहीं बनती कि मैं मर जाऊंगा। चाहिए। क्योंकि जो बच्चे के लिए स्वाभाविक है, बूढ़े को कम से कितनी ही कोशिश करें इसकी कल्पना बनाने की, कल्पना भी नहीं कम अनुभव से इतना तो हो जाना चाहिए कि वह बच्चे के पार चला बनती कि मैं मर जाऊंगा। इसका खयाल ही भीतर नहीं पकड में| | जाए। आता कि मैं मर जाऊंगा। इसीलिए तो इतने लोग चारों तरफ मरते बच्चा रोता हुआ पैदा हो, माफ किया जा सकता है। बूढ़ा रोता हैं, फिर भी आपको खयाल नहीं आता कि मैं मर जाऊंगा। भीतर | हुआ मरे, तो माफ नहीं किया जा सकता। जिंदगी इतना भी न सिखा सोचने जाओ, तो ऐसा लगता ही नहीं कि मैं मरूंगा। भीतर मृत्यु | पाई कि बचपन में जन्म के साथ जो हुआ था, वह कम से कम मृत्यु के साथ कोई संबंध ही नहीं जुड़ता।
के साथ न हो!
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ॐ गीता दर्शन भाग-20
लेकिन बच्चे रोते हुए पैदा होते हैं और बूढ़े रोते हुए मरते हैं। सम्मोहन के मैंने कहा एक-दो सूत्र समझें, तो योगमाया समझ में असल में दोनों छोर हमेशा मिल जाते हैं। असल में दोनों छोर आ सके। वह भी एक ग्रेटर हिप्नोसिस है। कहें कि स्वयं परमात्मा बराबर एक से हो जाते हैं। बूढ़ा रोता हुआ मरता है, तो हमारी समझ | | अपने को सम्मोहित करता है, तो संसार में उतरता है, अन्यथा नहीं में आता है कि क्यों मरता है रोता हुआ, जिंदगी छूट रही है इसलिए। उतर सकता। परमात्मा को भी संसार में उतरना है-हम भी उतरते इसलिए हम सोचते हैं, रो रहा है। जिसे हम जिंदगी जानते थे, वह हैं, तो सम्मोहित होकर ही उतरते हैं। एक गहरी तंद्रा में उतरें, तो ही हाथ से जा रही है, इसलिए रो रहा है। लेकिन बच्चा क्यों रोता है ? | | पदार्थ में प्रवेश हो सकता है, अन्यथा प्रवेश नहीं हो सकता। इसलिए ठीक वही बात जो बूढ़े की है। उसकी भी कोई जिंदगी छूटती है। | जाग जाएं, तो पदार्थ के बाहर हो जाते हैं। और सम्मोहन में डूब जाएं, हमें दूसरा छोर दिखाई पड़ रहा है उसके छूटने का। बूढ़े का पहला तो पदार्थ के भीतर हो जाते हैं। छोर दिखाई पड़ रहा है छूटने का; बच्चे का दूसरा छोर दिखाई पड़ __ अगर किसी व्यक्ति को सम्मोहित किया जाए-जो कि दुनिया में रहा है छूटने का।
हजारों जगह प्रयोग किए गए हैं, खुद मैंने भी प्रयोग किए हैं और असल में बूढ़ा जो रोता है, वही रोना बच्चे के जन्म तक जारी | पाया कि सही हैं—आपको अगर सम्मोहित करके बेहोश किया रहता है। वे एक ही चीज के दो छोर हैं। इधर बूढ़ा रोता है, यह एक | जाए, फिर आपके हाथ में एक कंकड़ रख दिया जाए साधारण सड़क पर्दा गिरा नाटक का। यह आदमी पर्दे के पीछे गया, रोता हुआ पर्दे का उठाकर और कहा जाए, अंगारा रखा है आपके हाथ में। आप के पीछे गया। पर्दे के पीछे उतरा, रोता हुआ उतरा। उधर उसका चीख मारकर उस कंकड़ को-मेरे लिए और आपके लिए उस जन्म हो रहा है, इधर उसकी मौत हुई थी। इधर एक आदमी मरा, | अंगारे को फेंक देंगे और चीख मारेंगे, जैसे अंगारे में हाथ जल गया। उधर जन्मा। रोता हुआ मरता है, रोता हुआ जन्मता है। ___ यहां तक तो हम कहेंगे, ठीक है। आदमी गहरी बेहोशी में है।
जरथुस्त्र से किसी ने बाद में पूछा कि हमने सुना है, तुम हंसते | | उसे भ्रम हुआ कि अंगारा है। लेकिन बड़ा मजा तो यह है कि उस हुए पैदा हुए! तो जरथुस्त्र ने कहा कि ठीक सुना है, क्योंकि मैं उसके | | बेहोश आदमी के हाथ पर फफोला भी आ जाएगा। फफोला होश पहले हंसता हुआ मरा। हम हंसते हुए चले आ रहे थे पर्दे के पीछे | | में आने पर भी रहेगा, उतनी ही देर, जितनी देर असली अंगारे से से। लोगों ने पछा. तम हंसते हए क्यों मरे? तो जरथस्त्र ने कहा. पडा हआ फफोला रहता है। यह फफोला क्या है? यह योगमाया हंसते हुए इसलिए मरे कि लोग रो रहे थे और हम समझ रहे थे कि | | है। यह फफोला सिर्फ संकल्प से पैदा हुआ है, क्योंकि अंगारा हाथ हम मर ही नहीं रहे हैं, वे व्यर्थ रो रहे हैं; तो हंसी आ गई। पर रखा नहीं गया था, सिर्फ सोचा गया था।
कृष्ण कहते हैं, अजन्मा हूं मैं। यहां जिस मैं की बात कर रहे हैं, | ठीक इससे उलटा भी हो जाता है। अलाव भरे जाते हैं और लोग वह परम मैं, परमात्मा का मैं। मेरा कोई जन्म नहीं; फिर भी उतरा अंगारों पर कूद जाते हैं और जलते नहीं। वह भी संकल्प है। वह हूं इस शरीर में। तो फिर इस शरीर में उतरना क्या है ? उसको वे | | भी गहरा संकल्प है, इससे उलटा। सम्मोहन में अंगारा हाथ पर रख कहते हैं, योगमाया से।
दिया जाए और कहा जाए, ठंडा कंकड़ रखा है, तो फफोला नहीं इस शब्द को समझना जरूरी होगा, क्योंकि यह बहुत की, बहुत | | पडेगा। भीतर हमारी चेतना जो मान ले. वही हो जाता है। कुंजी जैसे शब्दों में से एक है, योगमाया। योगमाया से, इसका क्या । कृष्ण कहते हैं कि मैं—परमात्मा की तरफ से बोल रहे हैं कि अर्थ है ? इसका क्या अर्थ है ? थोड़ा-सा सम्मोहन की दो-एक बातें मैं-अपनी योगमाया से शरीर में उतरता है समझ लें, तो यह समझ में आ सकेगा।
__ शरीर में उतरना तो सदा ही सम्मोहन से होता है। लेकिन योगमाया का अर्थ है-या ब्रह्ममाया कहें या कोई और नाम दें, सम्मोहन दो तरह के हो सकते हैं। और यही फर्क अवतार और इससे कोई फर्क नहीं पड़ता–अर्थ यही है कि अगर आत्मा चाहे, | | साधारण आदमी का फर्क है। अगर आप जानते हुए, कांशसली, आकांक्षा करे, तो वह किसी भी चीज में प्रवेश कर सकती है। सचेत, शरीर में उतरें-जानते हुए–तो आप अवतार हो जाते हैं। आकांक्षा करे, तो किसी भी चीज के साथ संयुक्त हो सकती है। और अगर आप न जानते हुए शरीर में उतरें, तो आप साधारण आकांक्षा करे, तो जो नहीं होना चाहिए वस्तुतः, वह भी हो सकता | व्यक्ति हो जाते हैं। सम्मोहन दोनों में काम करता है। लेकिन एक है। संकल्प से ही हो जाता है।
स्थिति में आप सम्मोहित होते हैं प्रकृति से और दूसरी स्थिति में
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भागवत चेतना का करुणावश अवतरण
आप आत्म-सम्मोहित होते हैं, आटो-हिप्नोटाइज्ड होते हैं। आप | तो नए जन्म को धारण करने का कारण क्या रह जाएगा? इच्छा तो खुद ही अपने को सम्मोहित करके उतरते हैं। कोई दूसरा नहीं, कोई | मूर्छित-जन्म का कारण है। फिर क्या कारण रहेगा? अकारण तो प्रकृति आपको सम्मोहित नहीं करती।
कोई पैदा नहीं हो सकता। इसलिए अकारण कोई पैदा होता भी साधारणतः हमारा जन्म इच्छाओं के सम्मोहन में होता है। मैं | नहीं। लेकिन जब इच्छा विलीन हो जाती है और जब इच्छा मरूंगा। हजार इच्छाएं मुझे पकड़े होंगी, वे पूरी नहीं हो पाई हैं। वे | विलीन हो जाती है तभी-करुणा का जन्म होता है, कम्पैशन का मेरे मन-प्राण पर अपने घोंसले बनाए हुए बैठी हैं। वे मेरे मन-प्राण | जन्म होता है। को कहती हैं कि और शरीर मांगो, और शरीर लो; शीघ्र शरीर लो, __ कृष्ण, बुद्ध या महावीर जैसे व्यक्ति करुणा के कारण पैदा होते क्योंकि हम अतृप्त हैं; तृप्ति चाहिए। जैसे रात आप सोते हैं। और हैं। जो उन्होंने जाना, जो उनके पास है, उसे बांट देने को पैदा होते अगर आप सोचते हुए सोए हैं कि एक बड़ा मकान बनाना है, तो | | हैं। लेकिन यह जन्म कांशस बर्थ, सचेष्ट जन्म है। इसलिए उनकी सुबह आप पुनः बड़ा मकान बनाना है, यह सोचते हुए उठते हैं। । | पिछली मृत्यु जानी हुई होती है; यह जन्म जाना हुआ होता है। और रातभर आकांक्षा प्रतीक्षा करती है कि ठीक है, सो लो। उठो, तो . जो व्यक्ति अपनी एक मृत्यु और एक जन्म को जान लेता है, उसे वापस द्वार पर खड़ी है कि बड़ा मकान बनाओ।
अपने समस्त जन्मों की स्मृति वापस उपलब्ध हो जाती है। वह __रात आखिरी समय, सोते समय जो आखिरी विचार होता है, वह अपने समस्त जन्मों की अनंत श्रृंखला को जान लेता है। सुबह के समय, उठते वक्त पहला विचार होता है। खयाल करना इसलिए जब कृष्ण कह रहे हैं कि तुझे पता नहीं, मुझे पता है। तो पता चलेगा। अंतिम विचार, सुबह का पहला विचार होता है। और मैं औरों की भांति मूर्च्छित नहीं जन्मा हूं; सचेष्ट, अपनी ही मरते समय आखिरी विचार, जन्म के समय पहला विचार बन जाता योगमाया से, अपने को ही जन्माने की शक्ति का स्वयं ही सचेतन है। बीच में नींद का थोड़ा-सा वक्त है। वह खड़ा रहता है; इच्छा रूप से प्रयोग करके इस शरीर में उपस्थित हुआ हूं। तो वे एक बहुत पकड़े रहती है। और वह इच्छा आपको सम्मोहित करती है और नए आकल्ट, एक बहुत गुह्य-विज्ञान की बात कह रहे हैं। जन्म में यात्रा करवा देती है।
इस रहस्य की बात को ऊपर से समझा ही जा सकता है। जानना ___ जब कृष्ण कह रहे हैं, औरों की भांति, तो फर्क इतना ही है कि हो, तब तो भीतर ही प्रवेश करने के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं
और अपनी-अपनी इच्छाओं के सम्मोहन में नए जन्म में प्रविष्ट हुए | है। और कठिन नहीं है यह बात कि आप औरों की भांति की दुनिया हैं। उन्हें कुछ पता नहीं है। जानवरों की तरह गलों में रस्सियां बंधी से हटकर कृष्ण की भांति दुनिया में प्रवेश कर जाएं। औरों से हटने हों, ऐसे बंधे हुए खींचे गए हैं इच्छाओं से। इच्छाओं के पाश में बंधे | और कृष्ण के निकट आने का एक ही रास्ता है। पशुओं की भांति बेहोश, मूछित वे नए जन्मों में प्रविष्ट हुए हैं। न इस सत्य को पहचान लेना है कि भीतर जो है, वह अजन्मा है, उन्हें याद है मरने की, न उन्हें याद है नए जन्म की; उन्हें सिर्फ याद | | उसका कोई जन्म नहीं है। पहचान लेना, दोहराना नहीं। नहीं तो हैं अंधी इच्छाएं। और वे फिर जैसे ही शक्ति मिलेगी, शरीर मिलेगा, | | दोहराने की तो कोई कठिनाई नहीं है। सुबह बैठकर हम दोहरा
अपनी इच्छाओं को पूरा करने में लग जाएंगे। उन्हीं इच्छाओं को, | सकते हैं कि आत्मा अजर-अमर है, आत्मा अजर-अमर है। जिन्हें उन्होंने पिछले जन्म में भी पूरा करना चाहा था और पूरा नहीं दोहराते रहें, उससे कुछ भी न होगा। जानना पड़ेगा कि मेरे भीतर कर पाए। उन्हीं इच्छाओं को, जिन्हें उन्होंने और भी पिछले जन्मों में | जो है, वह कभी नहीं जन्मा है। पूरा करना चाहा था और पूरा नहीं कर पाए। उन्हीं इच्छाओं को, जिन्हें कैसे जानेंगे? पीछे लौटना पड़ेगा; भीतर, चेतना में, एक-एक उन्होंने जन्मों-जन्मों में पूरा करना चाहा था और पूरा नहीं कर पाए। कदम पीछे जाना पड़ेगा। याद करनी पड़ेगी लौटकर। अभी अगर उन्हीं को वे पुनः पूरा करने में लग जाएंगे। एक वर्तुल की भांति, एक लौटकर याद करेंगे, तो आमतौर से पांच साल तक की याद आ विसियस सर्कल की भांति, दुष्टचक्र घूमता रहेगा।
पाएगी, पांच साल की उम्र तक की, उसके पहले की याददाश्त खो कृष्ण जैसे व्यक्ति जानते हुए जन्मते हैं, किसी इच्छा के कारण गई होगी। बहुत बुद्धिमान और बहुत प्रतिभाशाली व्यक्ति होंगे, तो नहीं, कोई अंधी इच्छा के कारण नहीं। फिर किसलिए जन्मते होंगे? तीन साल तक की याद आ पाएगी, उसके पहले की याद खो गई जब इच्छा न बचे, तो कोई किसलिए जन्मेगा? जब इच्छा न बचे, | | होगी।
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गीता दर्शन भाग-2
वह जो आखिरी याद है आपकी समझ लें कि तीन साल की उम्र की आखिरी याद आपको आती है कि वह मेरी आखिरी याद है, उसके बाद शून्य हो जाता है - तो रोज रात को उस आखिरी याद को ही याद करते हुए, करते हुए सो जाएं, उसी को याद करते हुए सो जाएं। पता न चले कि कब आप याद करते रहे और कब नींद आ गई। उसको ही याद करते रहें, याद करते रहें, करते रहें, और नींद को आ जाने दें। आपकी याद करने की प्रक्रिया चलती ही रहे, जब तक कि आप सो ही न जाएं। जब तक होश रहे, चलाए रखें। तो वही याद हुक का काम करती है। जैसे कि कोई मछली को पकड़ता है कांटा डालकर। वह आखिरी याद आपके अचेतन चित्त में अंदर उतर जाती है। और किसी और याद को पकड़कर सुबह तक वापस आ जाती है। सुबह आपको एकाध और याद आएगी, जो तीन साल से भी पीछे की है। फिर उसका उपयोग करें।
और रोज ऐसा उपयोग करते रहें और रोज आप पाएंगे कि आप जन्म के करीब सरक हैं। फिर आपको एक दिन वह भी याद आ जाएगी, जिस दिन आपका जन्म हुआ। फिर उसको पकड़कर ध्यान करते रहें रात सोते वक्त, और तब आपको मां के पेट की याद आनी शुरू हो जाएगी। और तब आपको गर्भ धारण की याद आएगी। फिर उसको पकड़ लें, उस पर प्रयोग करते रहें। और तब आपको पिछले जन्म की मृत्यु की याद आएगी।
फिल्म उलटी चलेगी निश्चित ही, फिल्म उलटी चलेगी। पिछले जन्म की याद में पहले मृत्यु की याद आएगी, फिर आप बूढ़े होंगे, फिर जवान होंगे, फिर बच्चे होंगे, फिर जन्म होगा। याद उलटी होगी, जैसे फिल्म की रील को हम उलटा चला रहे हों। इसलिए पहचानने में थोड़ी कठिनाई होगी, वैसी कठिनाई होगी कि जैसे अगर फिल्म को हम उलटा चला दें या किसी उपन्यास को उलटा पढ़ना शुरू करें, तो कठिनाई हो । लेकिन अगर दो-चार दफे पढ़ें, तो उलटे पढ़ने का भी अभ्यास हो जाएगा। और एक दफा उलटा पढ़ लें, तो फिर सीधा भी पढ़ सकते हैं।
पहली दफा बहुत कठिनाई होगी, क्योंकि कुछ समझ में नहीं आएगा। उलटा- उलटा लगेगा सब कैसा उलटा नहीं हो जाएगा ! पहले मरेंगे, फिर बूढ़े होंगे, कठिनाई मालूम पड़ेगी। फिर जवान होंगे, बहुत कठिनाई मालूम पड़ेगी। फिर बच्चे होंगे, बहुत कठिनाई मालूम पड़ेगी। सब उलटा होगा।
लेकिन एक बार स्मृति आ जाए, तो कृष्ण जो कह रहे हैं, औरों में आपकी गिनती न रह जाएगी। और औरों में गिनती न रह जाए,
यही लक्ष्य है । औरों में गिनती रही आए, तो जीवन व्यर्थ है।
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ।। ७ ।। परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे ।। ८ ।। हे भारत ! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने रूप को रचता हूं, अर्थात प्रकट करता हूं।
साधु पुरुषों का उद्धार करने के लिए और दूषित कर्म करने वालों का नाश करने के लिए तथा धर्म स्थापन करने के लिए युग-युग में प्रकट होता हूं।
अं
तिम श्लोक की बात कर लें, फिर कल सुबह । मैंने कहा, कृष्ण जैसे लोग करुणा से पैदा होते हैं। वासना से नहीं, करुणा से । वासना और करुणा का थोड़ा भेद समझें, तो यह सूत्र समझ में आ जाएगा।
वासना होती है स्वयं के लिए, करुणा होती है औरों के लिए। वासना का लक्ष्य होता हूं मैं, करुणा का लक्ष्य होता है कोई और। वासना अहंकार केंद्रित होती है, करुणा अहंकार विकेंद्रित होती है। | ऐसा समझें कि वासना मैं को केंद्र बनाकर भीतर की तरफ दौड़ती
करुणा पर को परिधि बनाकर बाहर की तरफ दौड़ती है। करुणा, जैसे फूल खिले और उसकी सुवास चारों ओर बिखर जाए। करुणा ऐसी होती है, जैसे हम पत्थर फेंकें झील में; वर्तुल बने, लहर उठे और दूर किनारों तक फैलती चली जाए।
करुणा एक फैलाव है, वासना एक सिकुड़ाव है। वासना संकोच है, करुणा विस्तार है।
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कृष्ण कहते हैं, करुणा से; युगों-युगों में जब धर्म विनष्ट होता है, तब धर्म की पुनर्संस्थापना के लिए; जब अधर्म प्रभावी होता है, | तब अधर्म को विदा देने के लिए मैं आता हूं।
यहां ध्यान रखें कि यहां कृष्ण जब कहते हैं, मैं आता हूं, तो यहां वे सदा ही इस मैं का ऐसा उपयोग कर रहे हैं कि उस मैं में बुद्ध भी | समा जाएं, महावीर भी समा जाएं, जीसस भी समा जाएं, मोहम्मद भी समा जाएं। यह मैं व्यक्तिवाची नहीं है। असल में वे यह कह
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भागवत चेतना का करुणावश अवतरण
रहे हैं कि जब भी धर्म के जन्म के लिए और जब भी अधर्म के विनाश | रोता, अपने लिए रोता हूं। क्योंकि ऐसी चेतना जन्मी है, उसी को के लिए कोई आता है, तो मैं ही आता हूं। इसे ऐसा समझें, जब भी खोजते मैं हिमालय से यहां तक आया हूं। कहीं प्रकाश के लिए और अंधकार के विरोध में कोई आता है, तो ___ जब भी कोई महाकरुणावान चेतना पृथ्वी पर उतरती है, तो मैं ही आता हूं। यहां इस मैं से उस परम चेतना का ही प्रयोजन है। जिनके हृदय भी पवित्र हैं, उनके हृदयों में कंपन शुरू हो जाते हैं।
जो भी व्यक्ति अपनी वासनाओं को क्षीण कर लेता है, तब वह उन तक खबरें पहुंच जाती हैं। वह लहर, वह झील पर पड़ा हुआ करुणा के कारण लौट आ सकता है; युगों-युगों में, कभी भी, जब पत्थर उन तक लहरें ले जाता है। वे उस ध्वनि तरंग को समझ पाते भी जरूरत हो उसकी करुणा की, कोई लौट आ सकता है। उस हैं, वे भागे हुए चले आते हैं। व्यक्ति का कोई नाम नहीं रह जाता, कि वह कौन है। क्योंकि सब रोने लगा वह महायोगी। उसने कहा, दुखी हूं, क्योंकि मैं मर
सनाओं के नाम हैं। जब तक मेरी वासना है. तब तक मेरा जाऊंगा। मेरी तो मौत करीब आ गई, और मैं बद्ध के चरणों में न नाम है, तब तक मेरी एक आइडेंटिटी है।
बैठ पाऊंगा। अभी ही नमस्कार कर लेता हूं। उस बच्चे के पैरों में __इसलिए कृष्ण मुझसे नहीं कह सकते कि तुम कृष्ण हो। लेकिन | सिर रखकर वह योगी चला गया। अगर मेरे भीतर कोई वासना न रह जाए, निर्वासना हो जाए, तो कोई जब कृष्ण कहते हैं, तो आमतौर से लोग भूल समझ लेते हैं। वे अहंकार भी नहीं रह जाएगा, मेरा कोई नाम भी नहीं रह जाएगा। समझ लेते हैं कि अगर आज अधर्म होगा, दुष्ट होंगे, साधु कष्ट तब मेरा जन्म भी कृष्ण का ही जन्म है। अगर आपके भीतर कोई | | में होंगे, तो कृष्ण लौट आएंगे। कृष्ण नहीं लौटेंगे। जो भी लौटेगा, वासना न रह जाए, तो आपका जन्म भी कृष्ण का ही जन्म है। वही कृष्ण है। कृष्ण कोई व्यक्ति नहीं है। जहां भी कोई लौटेगा,
सल में ठीक से समझें तो हमारी अशद्धियां हमारे व्यक्तित्व वही कष्ण है। लेकिन जब भी जरूरत होती है. अंधेरा घना होता है. हैं। और जब हम शुद्धतम रह जाते हैं, तो हमारा कोई व्यक्तित्व नहीं | तो कोई प्रकाश किरण लौट आती है। क्यों लौट आती है? करुणा रह जाता। इसलिए कहीं भी कोई पैदा हो...।
के कारण। जरूरत हो तो ही लौटती है, अन्यथा कोई जरूरत नहीं। मोहम्मद ने कहा है कि मुझसे पहले भी आए परमात्मा के भेजे | आपके घर में कोई बीमार हो तो डाक्टर आता है, न हो तो कोई हुए लोग और उन्होंने वही कहा। उनके ही वक्तव्य को पूरा करने | जरूरत नहीं। अंधेरा हो तो ठीक, अंधेरा न हो तो कोई जरूरत नहीं। मैं भी आया हूं।
अगर पिछली पीढ़ी में ऐसी आत्माएं मरी हों जो कि वासना से मुक्त ___ जब जीसस का जन्म हुआ, तो सारी दुनिया से बुद्धिमान लोग | हो गई हों, लेकिन पृथ्वी पर कोई जरूरत न हो, तो वे न लौटेंगी। जीसस के गांव पहुंचे, बड़ी हजारों मील की यात्रा करके। क्योंकि लेकिन अगर जरूरत हो, तो लौट आ सकती हैं। जो भी इस पृथ्वी पर बुद्धिमान थे और जानते थे, उनको तत्काल जरूरत सदा है। अब तक तो ऐसा कोई समय नहीं आया, जब अनुभव हुआ कि कोई करुणा से प्रेरित आत्मा फिर जन्म गई। | जरूरत न रही हो। जरूरत सदा है। पृथ्वी सदा ही अंधेरे से भरी है। इसकी ध्वनियां उन तक पहुंची, इसकी लहरें उन तक पहुंची। पृथ्वी सदा ही अधर्म से भरी है। लौटना ही पड़ता है। लेकिन लौटने
जब बुद्ध का जन्म हुआ, तो हिमालय से एक महायोगी उतरकर का प्रयोजन स्वयं की कोई वासना नहीं है। लौटने का प्रयोजन दूसरों बुद्ध के गांव आया। बुद्ध के द्वार पर खड़ा हुआ। बुद्ध के पिता बुद्ध पर करुणा है। को लेकर योगी के चरणों में रख दिए और कहा कि आशीर्वाद दें, इस करुणा के दो कारण उन्होंने कहे, असाधुओं के विनाश के शुभ वचन कहें, शुभ कामनाएं करें। लेकिन वह योगी रोने लगा। लिए, दुष्टों के विनाश के लिए; साधुओं के उद्धार के लिए। ये जरा तो बुद्ध के पिता बहुत चिंतित हुए। उन्होंने कहा, कोई अपशगुन कठिन हैं दोनों बातें। इन्हें थोड़ा-सा खयाल में ले लेना जरूरी है। है? आप रोते हैं। उस योगी ने कहा. मेरे रोने का कारण दसरा है। ___ दुष्टों के विनाश के लिए! क्या दुष्टों की हत्या कर देंगे? मार अपशगुन नहीं, महाशगुन है। मैं रोता हूं इसलिए कि उस आदमी | | डालेंगे दुष्टों को? तब तो खुद ही दुष्ट हो जाएंगे। फिर वह करुणा का जन्म हुआ फिर, जिसकी कोई वासना नहीं है, जो करुणा से | न हुई। आया है। लेकिन मैं उसके चरणों में बैठने से वंचित रह जाऊंगा, । दुष्टों के विनाश का क्या अर्थ होता है? दुष्टों के विनाश का एक क्योंकि मेरी तो मौत की घड़ी करीब आ रही है। उसके लिए नहीं । ही अर्थ होता है कि दुष्टों में दुष्टता न रह जाए, तो दुष्टों का विनाश
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गीता दर्शन भाग-2100
हो जाता है। दुष्टों के विनाश का अर्थ यह नहीं कि तलवार से दो टुकड़े कर देंगे। क्योंकि तलवार से दो टुकड़े करने में दुष्ट का तो कुछ विनाश न होगा, जिसने विनाश किया वह भी दुष्ट हो जाएगा। दुष्ट के विनाश का क्या अर्थ है ? दुष्ट के विनाश का अर्थ है, दुष्ट की दुष्टता खो जाए। दुष्टता मिट जाए, तो ही दुष्ट का विनाश हुआ।
साधुओं के उद्धार के लिए यह और कठिन बात है। साधु का तो अर्थ ही यही है कि जिसके उद्धार की किसी को जरूरत न हो। साधु अगर अपना उद्धार न कर सके, तो साधु कैसा? दुष्ट न कर सके, समझ में आता है। कृष्ण कहें कि दुष्टों के उद्धार के लिए, चलेगा। लेकिन 'कृष्ण कहते हैं, दुष्टों के विनाश के लिए और साधुओं के उद्धार के लिए। तो साधारणतः हम सोचते हैं, शायद साधुओं को दुष्ट सताते होंगे, तो उनके उद्धार के लिए।
साधु बड़ा कमजोर है, अगर दुष्ट उसे सता पाए। असल में दुष्ट अगर साधु को सताए, तो दुष्ट को ही बदलना पड़ता है; साधु को नहीं बदलना पड़ता। दुष्ट साधु को सताकर अपनी ही बदलाहट के उपाय में लग रहा है। साधु को नहीं सता पाता ।
साधु को दुनिया में कोई भी नहीं सता पाता। और अगर साधु को दुष्ट सता पाते हैं, तो साधु के नाम से दूसरे ढंग के दुष्ट ही बैठे होंगे, अन्यथा नहीं। साधु नहीं होंगे। साधु को सताने का उपाय नहीं है। इसलिए भी उपाय नहीं है कि साधु का मतलब ही यही है कि जिसे अब सताओ और चाहे सम्मान करो, दोनों बराबर हो गए। उसे सताओगे कैसे? उसे जूते की माला पहना दो कि फूल की माला पहना दो, वह दोनों के लिए धन्यवाद देकर अपने रास्ते पर चल पड़ेगा। साधु को सताने का उपाय नहीं है। जिसे हम नहीं सता
फिर यह कृष्ण कहते हैं, साधु के उद्धार के लिए ! और यह भी बड़े मजे की बात है कि जिस युग में साधु हों, उसमें भी दुष्टों को साधु न सुधार पाएं और कृष्ण को आना पड़े, तो साधु बिलकुल नपुंसक हैं, इम्पोटेंट हैं। फिर साधु किसलिए हैं ?
नहीं; जिस युग में दुष्ट होते हैं, उस युग में साधु भी साधु नहीं होते। असल में दुष्टता से भरे हुए युग दुष्टों के युग होते हैं और पाखंडी साधुओं के युग होते हैं। साधु के उद्धार के लिए अर्थात पाखंड से उद्धार के लिए।
और मजा यह है कि दुष्ट का विनाश करना पड़ता है। क्योंकि दुष्टता कुछ है, जिसका विनाश किया जा सके। पाखंड नहीं, जिसका विनाश किया जा सके। पाखंड से सिर्फ उद्धार किया
है
कुछ
जा सकता है। दुष्टता का विनाश किया जा सकता है। दुष्टता का पाजिटिव अर्थ है । पाखंड सिर्फ एक चेहरा है, जिससे उद्धार किया जा सकता है। जिसे उतारकर रख दिया नीचे, तो पीछे का आदमी प्रकट हो जाता है।
साधु के उद्धार के लिए और दुष्ट के विनाश के लिए ! और जिस युग में साधु नहीं होते, उस युग में दुष्ट होते हैं। लेकिन साधु सदा होते हैं, तो फिर साधु पाखंडी होते हैं।
पाखंडी साधु के उद्धार के लिए ! अन्यथा साधु अगर सच में है, तो कृष्ण से कहेगा, क्षमा करें। आप कष्ट न करें, मैं उद्धार | कर लूंगा। अपना उद्धार तो कर ही लूंगा। आपको नाहक कष्ट न दूंगा। आप क्यों परेशान होते हैं।
अगर साधु सच में साधु होगा, तो दुष्ट उसे दुश्मन नहीं मालूम पड़ेगा। दुष्ट उसे सताता हुआ भी मालूम नहीं पड़ेगा। लेकिन साधु | के भीतर भी दुष्ट ही छिपा रहता है । फर्क, साधु और दुष्ट के बीच, | चेहरों का होता है। और इस अर्थ में दुष्ट कहीं ज्यादा ईमानदार, और साधु कहीं ज्यादा बेईमान होता है।
बेईमानी से उद्धार करना पड़े। धर्म का जब विनाश होता है, तो साधु कहां? क्योंकि अगर साधु होंगे, तो धर्म का विनाश कैसे | होगा? धर्म का विनाश तभी होता है, जब साधु नहीं होते। जब साधु नहीं होते, तभी धर्म का विनाश होता है। और जब धर्म का विनाश होता है, तभी अधर्म प्रभावी होता है।
मैं
एक सभा में था। एक बड़े साधु करपात्री जी बोले। बोलने के | बाद उन्होंने जनता से कुछ नारे लगवाए। उन्होंने पहला नारा लगवाया, धर्म की जय हो । तीन बार लोग चिल्लाए, धर्म की जय | हो । फिर पीछे उन्होंने नारा लगवाया, अधर्म का नाश हो
के साथ बैठे साधु से कहा, जब धर्म की जय हो गई, तो अधर्म बचेगा कैसे ? धर्म की जय हो गई, अधर्म का नाश हो गया। यह तो ऐसे ही हुआ कि लोगों से हम कहें कि दीए जलाओ, और फिर कहें, अंधेरा हटाओ। दोनों बातें बेमानी हैं। दीया जल गया, तो बात खतम हो गई। जब धर्म की जय हो गई तीन बार, अब कृपा | करके अधर्म का नाश मत करवाएं। अधर्म नाश हो गया। और | अगर धर्म की जय से नाश नहीं हुआ, तो अधर्म के नाश के नारे लगाने से नाश होने वाला नहीं है।
धर्म नहीं होता, क्योंकि धर्म के लिए भी पृथ्वी पर पैर रखने की | जगह चाहिए। धर्म को भी पृथ्वी पर पैर रखने की जगह चाहिए। | वह जगह साधुओं के हृदय हैं। अगर साधु न हों, तो धर्म को पैर
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भागवत चेतना का करुणावश अवतरण
रखने की जगह नहीं मिलती। धर्म तब अटक जाता है, त्रिशंकु हो
जाता है, आकाश में भटक जाता है। ___धर्म को पैर रखने के लिए साधुओं के हृदय चाहिए, अधर्म को पैर रखने के लिए असाधुओं के हृदय चाहिए। अधर्म भी खड़ा नहीं हो सकता; अधर्म भी हमारे सहारे खड़ा होता है, हमारे सहारे प्रकट होता है। धर्म भी हमारे सहारे प्रकट होता है। साधु हों, तो धर्म होता है, उसके लिए सहारे होते हैं। असाधु हों, अधर्म होता है, उसके लिए सहारे होते हैं। और जब अधर्म होता है, दुष्ट होते हैं; साधु नहीं होते, धर्म नहीं होता; तो कृष्ण कहते हैं कि मैं, अर्थात कोई भी चेतना जो अपनी सब वासनाओं से मुक्त हो जाती है, लौट आती है करुणावश–साधुओं के उद्धार के लिए, असाधुओं के विनाश के लिए। शेष कल सुबह हम बात करेंगे।
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अध्याय 4 तीसरा प्रवचन
दिव्य जीवन, समर्पित जीवन
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गीता दर्शन भाग-20
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः। | धारा सूख जाए; तट बने रहें और धारा न हो। तट बिना धारा के भी त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ।।९।। | हो सकते हैं। तट स्थूल हैं, दिखाई पड़ते हैं; धारा सूक्ष्म है, अगर हे अर्जुन! मेरा यह जन्म और कर्म दिव्य अर्थात अलौकिक | तट न हों तो दिखाई पड़नी बंद हो जाएगी। है। इस प्रकार जो पुरुष तत्व से जानता है, वह शरीर को जीवन सभी का अलौकिक है, लेकिन कृष्ण जोर देकर कहते हैं, त्यागकर फिर जन्म को नहीं प्राप्त होता है, | मेरा जीवन अलौकिक है। इस जोर का कारण क्या है? इस जोर के किंतु मुझे ही प्राप्त होता है।
दो कारण हो सकते हैं। एक तो यह कि दूसरों का जीवन अलौकिक | नहीं है, कृष्ण का जीवन अलौकिक है: ऐसा जो अर्थ लेंगे. वे भल
में पड़ेंगे। जीवन तो सभी का अलौकिक है, कृष्ण का ही नहीं। फिर वन विपरीत ध्रुवों का संगम है, अपोजिट पोलेरेटीज | कृष्ण क्यों जोर देकर कहते हैं कि मेरा जीवन अलौकिक है? UII का। यहां प्रत्येक चीज अपने विपरीत के साथ मौजूद वे इसलिए जोर देकर कहते हैं कि जिस दिन कोई अपने भीतर
___ है; अन्यथा संभव भी नहीं है। अंधेरा है, तो साथ में | के अलौकिक जीवन को जानेगा, उस दिन वह मुझसे भिन्न नहीं रह जुड़ा हुआ प्रकाश है। जन्म है, तो साथ में जुड़ी हुई मृत्यु है। जो | जाता; वह मुझसे एक ही हो जाता है। उस दिन से उसका जीवन विपरीत हैं, वे सदा साथ मौजूद हैं।
उसका नहीं रह जाता, परमात्मा का ही हो जाता है। मेरा जीवन जो हमें दिखाई पड़ता है, वह लौकिक है। जो हमारी इंद्रियों की | अलौकिक है, ऐसा जानते ही, जीवन मेरा नहीं रह जाता। इस तथ्य पकड़ में आता है, वह लौकिक है। जिसे हमारी आंख देखती और को ठीक से समझ लेना जरूरी है। कान सुनते और हाथ स्पर्श करते हैं, वह लौकिक है। हमारी इंद्रियों | जैसे ही बूंद ने जाना कि वह सागर है, वैसे ही बूंद बूंद नहीं रह के जगत का नाम लोक है। लेकिन इंद्रियों की पकड़ के बाहर भी। | जाती; सागर ही हो जाती है। जैसे ही व्यक्ति ने जाना कि मेरे भीतर कुछ सदा मौजूद है, वह अलौकिक है।
कुछ असीम भी मौजूद है, वैसे ही वह व्यक्ति नहीं रह जाता, इंद्रियां जिसे नहीं पकड़तीं, हाथ जिसे स्पर्श नहीं कर पाते, वाणी | असीम हो जाता है। जिसे प्रकट नहीं करती, मन जिसे समझ नहीं पाता, वह भी सदा यहां कृष्ण उस असीम की तरफ से ही कहते हैं कि मेरा जीवन मौजूद है; उस मौजूद का नाम अलौकिक है। वह लोक के साथ ही | अलौकिक है। इसलिए जो भी इस अलौकिक का दर्शन कर लेता निरंतर उपस्थित है।
है, वह मुझे उपलब्ध हो जाता है। इसलिए वे कहते हैं, मरकर वह जो व्यक्ति इंद्रियों पर ही अपने को समाप्त कर लेता है, उसे | | व्यक्ति नए जन्म को नहीं उपलब्ध होता, वह मुझे उपलब्ध हो अलौकिक का कोई संस्पर्श नहीं हो पाता। जो ऐसा मानकर बैठ जाता है। जाता है कि इंद्रियां ही सब कुछ हैं, वह अलौकिक से वंचित रह जन्म का अर्थ है, बूंद अभी अपने को बूंद ही मानती है; बूंद जाता है।
| अभी अपने को सीमा में बंधा हआ मानती है। न जन्म होने का अर्थ कृष्ण कहते हैं, मेरा यह जीवन अलौकिक है।
है कि बूंद ने अब सीमाओं के बाहर अतिक्रमण किया, ट्रांसेंडेंस जीवन सभी का अलौकिक है। जन्म और मृत्यु लौकिक है, | | हुआ। अब बूंद अपने को बूंद नहीं मानती; अब बूंद अपने को जीवन अलौकिक है। शरीर में जीवन है, लेकिन शरीर जीवन नहीं | | सागर ही जानती है। है। फूल में सौंदर्य है, लेकिन सौंदर्य फूल नहीं है। दीए में ज्योति | | कृष्ण कहते हैं, जो भी अलौकिक जीवन के अनुभव को उपलब्ध है, लेकिन ज्योति दीया नहीं है। यद्यपि ज्योति दीए के बिना प्रकट हो जाता है, वह फिर मुझे ही उपलब्ध हो जाता है। फिर उसका जन्म न हो सकेगी; इंद्रियों की पकड़ में न आ सकेगी। सौंदर्य फूल के | | नहीं होता; फिर उसका जीवन ही होता है। बिना तिरोहित हो जाएगा, खोजे से भी मिलेगा नहीं।
जन्म और मृत्यु का भ्रम जिन्हें है, उन्हें जीवन का अनुभव नहीं जीवन भी जन्म और मृत्यु के दो तटों के बीच बहती हुई धारा है। है। जिन्हें जीवन का अनुभव है, उन्हें जन्म और मृत्यु का भ्रम नहीं दोनों तट न होंगे, धारा दिखाई पड़नी बंद हो जाएगी। लेकिन फिर | | है। जब तक हमें लगता है, मैं जन्मा और मैं मरा, तब तक मुझे भी स्मरण रखें, तट धारा नहीं है। और ऐसा भी हो सकता है कि उसका पता नहीं चलेगा, जो जन्म और मृत्यु के तट के बीच अदृश्य
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दिव्य जीवन, समर्पित जीवन
बहता था, जो जीवन था। मुझे किनारों का पता है, बीच की धारा | जाती हैं। उस अदृश्य का नाम अलौकिक है। का कोई भी पता नहीं है। इन दोनों किनारों के बीच में तीसरी चीज इस अलौकिक को जो पुरुष जान लेता है, कृष्ण कहते हैं, वह भी थी; जीवन भी था। जन्म से शुरू हुआ, मृत्यु से तिरोहित हुआ, फिर शरीर में जन्म नहीं लेता। क्योंकि वह विराट शरीर के साथ एक लेकिन इन दोनों के बीच में जीवन भी था। वह जीवन, उसका हमें | हो जाता है। फिर उसे छोटे-छोटे शरीरों में जन्म लेने की जरूरत कोई पता नहीं है, वह अलौकिक है।
नहीं रह जाती। फिर वह मेरे साथ ही एक हो जाता है। यहां जब अलौकिक का अर्थ यह हुआ, इंद्रियों से पकड़ में आने योग्य कहते हैं कृष्ण, मेरे साथ, तो उसका अर्थ है अस्तित्व के साथ। वन नहीं है। अलौकिक का अर्थ यह हुआ कि पदार्थ को जिस भांति हम | विद दि एक्झिस्टेंस; वह जो समस्त अस्तित्व है, उसके साथ एक जानते हैं, उस भांति उसे जानने का उपाय नहीं है।
हो जाता है। फिर उसे अलग-अलग छोटे-छोटे घर बनाने की पत्थर को मुझे हाथ में उठाकर देखना है, तो मैं स्पर्श करके देख | जरूरत नहीं पड़ती। सकता हूं। आपको अगर मुझे देखना है, तो आपके शरीर के स्पर्श | बुद्ध को ज्ञान हुआ, तो ज्ञान की घड़ी के बाद आनंदमग्न हो से मैं आपको नहीं जानता; केवल आपके गृह को, आपके घर को | | उन्होंने जोर से कहा, मेरे मन! मेरे अहंकार! अब तक तुझे मेरे लिए जानता हूं। आप भीतर अछूते, अनटच्ड छूट जाते हैं। शरीर छू जाता | छोटे-छोटे घर बनाने पड़े, लेकिन अब तुझे मैं काम से मुक्त करता है, आपको नहीं छू पाता हूं। स्पर्श की सीमा है; वह पदार्थ के पार | हूं। अब तुझे मेरे लिए छोटे-छोटे घर न बनाने पड़ेंगे। नहीं जाती।
कृष्ण उसी का दूसरा हिस्सा कह रहे हैं। कह रहे हैं, छोटे घर इसलिए विज्ञान कठिनाई में पड़ गया है। क्योंकि विज्ञान का | | इसलिए नहीं बनाने पड़ेंगे कि घर नहीं रहेगा; छोटे घर इसलिए नहीं खयाल है, जो इंद्रियों के भीतर है, वही रियलिटी है, वही यथार्थ | | बनाने पड़ेंगे कि सारा विश्व, सारा अस्तित्व, वैसी चेतना का घर है; जो इंद्रियों के भीतर नहीं है, वह यथार्थ नहीं है। लेकिन अब | हो जाता है। फिर छोटे की जरूरत नहीं रह जाती। विज्ञान को रोज-रोज उन चीजों का पता चल रहा है, जो इंद्रियों की । स्वभावतः, जिसे हीरे मिल जाएं, वह कंकड़-पत्थर मुट्ठी से छोड़ सीमा के भीतर नहीं हैं।
देता है; और जिसे महल मिल जाएं, वह झोपड़ियों को भूल जाता जैसे आज तक किसी ने भी इलेक्ट्रिसिटी नहीं देखी। आप | है। जिसे अलौकिक का दर्शन हो जाए, लौकिक कंकड़-पत्थर कहेंगे, हम रोज देखते हैं। घर हमारे बल्ब जलता है, पंखा चलता जैसा हो जाता है; फिर उसमें प्रवेश की आकांक्षा नहीं रह जाती। है, रेडियो बजता है; हम रोज देखते हैं। लेकिन जो आप देख रहे यहां कृष्ण का यह जोर कि मेरा जीवन दिव्य और अलौकिक है, हैं, वह सिर्फ परिणाम है, विद्युत नहीं है। वह सिर्फ कांसिक्वेंस है, | इस बात का ही जोर है कि जीवन दिव्य और अलौकिक है। यहां रिजल्ट है, काज़ नहीं है। आप जो देख रहे हैं, वह विद्युत का | | कृष्ण जीवन के प्रतिनिधि की तरह बोलते हैं। और इससे बड़ी भ्रांति परिणाम है, काम है; विद्युत नहीं है। जब आप बल्ब को फोड़ देते | | होती है। उनकी भी मजबूरी है। हैं, तो विद्युत नहीं फूटती, सिर्फ विद्युत को प्रकट करने वाला जीसस भी इसी तरह बोलते हैं, और इसीलिए जीसस को सूली उपकरण टूट जाता है, इंस्ट्रमेंट टूट जाता है; विद्युत नहीं टूट जाती। | पर लटका दिया। क्योंकि समझने वालों ने समझा कि यह तो गलत
आप बिजली के तार को काट देते हैं, तब बिजली नहीं कटती; सिर्फ बात बोलते हैं। जीसस ने कहा कि वह परमात्मा जो आकाश में है बिजली का तार कटता है, जिससे बिजली बहती थी। जब आप और मैं, हम दोनों एक हैं। लोगों ने कहा, यह तो कुफ्र हो गया, यह बिजली के तार को पकड़ लेते हैं, तो जो झटका, जो शॉक आपको आदमी तो काफिर मालूम होता है! परमात्मा के साथ अपने को एक लगता है, वह भी बिजली नहीं है; वह भी बिजली का परिणाम है। बताता है! यह तो बड़ा अहंकारी मालूम होता है। हम सिर्फ बिजली का परिणाम जानते हैं, बिजली को नहीं जानते; नहीं; वे नहीं समझ सके, नहीं समझ पाए। वह अदृश्य है।
जब जीसस ने कहा कि मैं और परमात्मा एक है, तो जीसस यही अगर हम जीवन को इसी तरह खोजें, तो हम पाएंगे कि हम सिर्फ | कह रहे हैं कि मैं अब कहां हूं ? परमात्मा ही है। सूली पर लटका परिणाम जानते हैं। मूल कारण भीतर अदृश्य रह जाता है। जड़ें दिया लोगों ने। सूली पर लटके आखिरी क्षण में जीसस ने कहा, हे दिखाई नहीं पड़ती, शाखाएं दिखाई पड़ती हैं। जड़ें अदृश्य में रह प्रभु! इन्हें माफ कर देना, क्योंकि ये नहीं जानते कि क्या कर रहे हैं!
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गीता दर्शन भाग-26
जाता है।
क्या कर रहे हैं, यह तो जानते ही नहीं; क्या समझ रहे हैं, यह भी अप्रगट है, वह उनके भीतर प्रगट हो गया है। जो अभी हम नहीं नहीं जानते। गलत ही समझ रहे हैं।
| जानते अपने ही खजाने को, वह उन्होंने जान लिया है। वे हमारे सारे कृष्ण को हमने सूली नहीं लगाई; उसका कारण था। कृष्ण के | | भविष्य, हमारी सारी संभावनाओं की आवाज हैं। पीछे कोई पांच-दस हजार साल की ऐसे लोगों की परंपरा थी, हमने पूजा की; हम भी गलत समझे। जीसस को सूली लगाई; जिन्होंने बहुत बार यह कहा था कि हम परमात्मा हैं। हम इसे सुनने वे भी गलत समझे। मंसूर को मुसलमानों ने काट डाला; वे भी न के आदी हो गए थे। जीसस ने पहली दफा, पहली दफा यहदी जगत समझे। क्योंकि मंसर ने कहा, अनलहक! मैं ही ब्रह्म है। लोगों ने में घोषणा की कि मैं और परमात्मा एक हैं। लोगों की बर्दाश्त के | कहा, यह तो ज्यादती है; यह आदमी अहंकारी है। . बाहर हो गया। ऐसा नहीं कि हम समझ गए कृष्ण की बात, हम भी ___ हमने आज तक दुनिया में दो तरह की भूलें की हैं। न समझे, तो नहीं समझे। हमने नासमझी और तरह की की। जीसस को सुनने | सूली लगा दी। न समझे, तो पूजा कर ली। पूजा में हम सिंहासन वालों ने नासमझी और तरह की की।
| पर बिठा देते हैं और दूर कर देते हैं। सूली पर हम सूली पर लटका जीसस को सुनने वालों ने पहली दफा यह बात सुनी कि कोई देते हैं और दूर कर देते हैं। लेकिन दोनों हालत में हम यह बात आदमी कहता है, मैं परमात्मा हूं, मैं दिव्य हूं, मैं डिवाइन हूं। उन्होंने मानने को राजी नहीं होते कि यह आदमी हमारे भीतर की छिपी हुई कहा, यह तो ज्यादती हो गई! यह आदमी अहंकारी है, सूली पर संभावनाओं की आवाज है। लटका दो!
इसलिए कृष्ण दूसरे ही वचन में कहते हैं कि जो यह अनुभव कर हमने बहुत बार यह बात सुनी थी। उपनिषद कह गए थे; वेद | लेगा, फिर उसे जन्म की जरूरत नहीं; वह फिर मुझको उपलब्ध हो कह गए थे; कृष्ण की बात हमें नई नहीं थी। लेकिन हमने भी भूल | की। हमने कहा, यह आदमी भगवान है; इसकी पूजा करो। बड़ी कठिनाई है। उनकी कठिनाई भी है। आदमी के पास जो भाषा
सूली पर लटकाओ या पूजा करो, दोनों में ही भूल हो गई। | है, उसी भाषा में बोलना पड़ता है। उस भाषा में मैं के बिना बोले उन्होंने भूल की कि यह आदमी अपने को भगवान कह रहा है, सूली काम नहीं चल सकता, या फिर हमारी समझ में कुछ भी न आएगा। पर लगा दो। हमने भूल की कि यह आदमी अपने को भगवान ___ अगर परमात्मा भी जमीन पर उतरकर खड़ा हो, तो भी हमारी कहता है, पूजा करो। हम दोनों नहीं समझे।
| भाषा में ही उसे बोलना पड़ेगा। अगर वह अपनी भाषा में बोलेगा, जीसस का भी मतलब यही था कि जिस दिन तुम भी जानोगे तो हमें पागल मालूम पड़ेगा। उसे हमारी भाषा में ही बोलना पड़ेगा। कि तुम कौन हो, तब तुम जानोगे कि तुम भी परमात्मा हो। और और मजा यह है कि हमारी भाषा में बोले, तो भी हम नहीं समझ कृष्ण का भी मतलब यही है कि अगर तुम खोजोगे, झांकोगे भीतर, पाते; अपनी भाषा में बोले, तो भी नहीं समझ सकते। हमारी भाषा तो पाओगे कि तुम भी परमात्मा हो। मैं तुम्हारी संभावनाओं की | में भी बोले, तो भी हम नहीं समझ पाते; लेकिन अपनी भाषा में आहट हूं। मैं तुम्हारी संभावनाओं की सूचना हूं। मैं तुम्हारी | बोले, तब तो हम बिलकुल ही न समझ पाएंगे। हमारी भाषा में पोटेंशियलिटीज की तरफ से बोलता हूं। तुम जो हो सकते हो, मैं | बोले, तो कम से कम हम नासमझी कर पाते हैं। वह भी समझने उसका प्रतिनिधि हूं।
| का एक गलत ढंग है। लेकिन कोई शायद समझ ले, इसलिए कृष्ण इस बात को ठीक से समझ लें। कृष्ण कहते हैं, तुम जो हो सकते हमारी भाषा में बोलते हैं, मैं का प्रयोग करते हैं। हो, मैं उसका प्रतिनिधि हूं। तुम जो हो सकते हो, वह मैं हो गया | कृष्ण जैसे व्यक्तियों के भीतर मैं बचता नहीं। बचे, तो गीता हूं। तुम जो कल होओगे, वह मैं आज हूं। मैं तुम्हारा कल हूं। मैं बेकार है; फिर गीता पैदा नहीं हो सकती। लेकिन कृष्ण बार-बार तुम्हारा भविष्य हूं। मैं तुम्हारे भविष्य की तरफ से बोलता हूं। मैं शब्द का प्रयोग करते हैं।
लेकिन यह हम न समझे। हम समझे कि कृष्ण कह रहे हैं, वे हमारी भी कठिनाई है। जब वे मैं का प्रयोग करते हैं, तो हम भगवान हैं; ठीक है; पूजा करो। हम यह न समझे कि वे हमारे समझते हैं, जिस भांति हम मैं का प्रयोग करते हैं, उसी भांति वे भविष्य के प्रतिनिधि हैं, वे हमारी तरफ से बोल रहे हैं। जो हमारे भी करते होंगे। हमारे और उनके प्रयोग में बिलकुल ही कोई साम्य बीज में छिपा है, वह उनका वृक्ष हो गया है। जो हमारे भीतर अभी नहीं है।
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दिव्य जीवन, समर्पित जीवन
कृष्ण जब कहते हैं मैं, तो उनके मैं में सब तू समाए हुए हैं। और का केंद्र एक ही है। हां, कोई उसकी तरफ भागता, कोई उससे पीठ जब हम कहते हैं मैं, तो हमारे मैं में सब तू अलग हैं, बाहर हैं; कोई करके भागता, लेकिन वही दोनों के ध्यान में है। दोनों की अटेंशन, भी समाया हुआ नहीं है। कृष्ण के मैं में तू इनक्लूसिव है। हमारे मैं | | दोनों की एकाग्रता वही है। दोनों की एकाग्रता में भेद नहीं है। में तू एक्सक्लूसिव है, बाहर है।
___ जो आदमी स्त्री के पीछे भागता, उस आदमी की एकाग्रता, और हम जब बोलते हैं मैं, तो हम तू से फासला बताने के लिए बोलते | जो आदमी स्त्री को छोड़कर भागता, उस आदमी की एकाग्रता में हैं। कृष्ण जब बोलते हैं मैं, तो वे तू को ढांक लेने के लिए बोलते | | भेद नहीं है। उनका कनसनट्रेशन एक है-स्त्री। जो आदमी स्त्री हैं। लेकिन यह हमारे खयाल में नहीं आ सकता।
के लिए पागल है, उसके मन में भी स्त्री के चित्र चलते हैं। या जो उनका मैं इतना बड़ा है कि उस मैं के बाहर और कोई भी नहीं। | स्त्री आदमी के लिए पागल है, उसके मन में पुरुष के चित्र चलते और हमारा मैं इतना छोटा है कि उस मैं के भीतर हमारे सिवाय और | | हैं। और जो छोड़कर भागता है, विपरीत रूप से पागल हो जाता है, कोई भी नहीं। इस फर्क को खयाल में रखेंगे, तो बार-बार उनके मैं | उसके मन में भी चित्र चलते हैं। का प्रयोग ठीक से समझ में आ सकता है।
__ वीतराग का अर्थ है, पार हुआ। वीतराग तीसरी बात है। न राग, न विराग। जो राग और विराग दोनों के पार होता है, वह वीतराग
है। जिसके लिए बात बस व्यर्थ हो जाती है। वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामपाश्रिताः।
ध्यान रहे. जो आदमी कहता है. मैं धन का त्याग कर रहा हं. बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः।।१०।। | धन उसे व्यर्थ नहीं हुआ; धन उसे अभी भी सार्थक है। जो आदमी और हे अर्जुन! पहले भी राग, भय और क्रोध से रहित, कहता है, मैं लाखों त्याग किया हूं, उसके लिए भी व्यर्थ नहीं हुआ; अनन्य भाव से मेरे में स्थित रहने वाले, मेरे शरण हुए बहुत | अभी उसके लिए भी धन सार्थक है, मीनिंगफुल है। हां, मीनिंग से पुरुष, ज्ञानरूप तप से पवित्र हुए मेरे स्वरूप को | बदल गया, अर्थ बदल गया। पहले तिजोरी में बंद करने का अर्थ प्राप्त हो चुके हैं।
था, अब त्याग करने का अर्थ है; लेकिन अर्थ है। जो आदमी | तिजोरी में बंद कर रहा था, वह भी कह रहा था, मेरे पास इतने लाख
| हैं; और जिस आदमी ने त्याग किया, वह भी कह रहा है, मैंने इतने र पहले भी राग के ऊपर उठे, क्रोध से मुक्त हुए, मोह लाख का त्याग किया। लेकिन धन दोनों के लिए मूल्यवान है, II के पाश के बाहर, तप से पवित्र हुए पुरुष मेरे शरीर वेल्युएबल है। ___ को उपलब्ध हो चुके हैं!
— वीतराग वह है, जो कहता है, धन में कुछ अर्थ ही नहीं। न मैं राग के पार हुए, वीतराग हुए। वीतराग शब्द गहरा है और बहुत | | तिजोरी में बंद करता, न मैं त्यागता। धन में कुछ अर्थ नहीं। जिसके अर्थपूर्ण है। वीतराग का अर्थ वैराग्य नहीं है। वीतराग का अर्थ | लिए धन बस मिट्टी जैसा हो गया। जिसके लिए धन मिट्टी जैसा हो विराग नहीं है। विराग का अर्थ है, राग के विपरीत हुआ। वीतराग | गया, वह त्याग के अहंकार से भी नहीं भरता है। का अर्थ है, राग के पार हुआ।
बड़ी मीठी कथा है, याज्ञवल्क्य घर छोड़कर जाने लगा। उसकी राग का अर्थ है, एक आदमी धन के पीछे पागल है। धन को | | दो पत्नियां हैं, कात्यायिनी और मैत्रेयी। उसने उन दोनों को बुलाकर पकड़ता है। धन देखता है, तो लार टपक-टपक जाती है। रात-दिन | | कहा कि मेरी धन-संपदा आधी-आधी बांट देता हूं। मैं जाता हूं अब गिनता ही रहता है। विराग का अर्थ है, धन के विपरीत हुआ धन त्याग करके। अब मैं प्रभु की खोज में निकलता हूं। से भागता है। कोई धन उसके सामने करे. तो आंख फेर लेता है। मैत्रेयी राजी हो गई: साधारण स्त्री थी। साधारण स्त्री का कोई रुपया उसके पास रखे, तो छलांग लगाकर खड़ा हो जाता है। | मतलब, जिसे पति भी इसीलिए मूल्यवान होता है कि उसके पास
राग धन को पकड़ता है, विराग धन को छोड़ता है। विराग, | | संपत्ति है। ठीक है, पति जाता है, संपत्ति दे जाता है-कुछ भी नहीं विपरीत राग है; उलटा हुआ राग है। राग स्त्री के पीछे दौड़ता, पुरुष | जाता। मैत्रेयी राजी हो गई। वह ठीक स्त्री थी। के पीछे दौड़ता; विराग स्त्री से भागता, पुरुष से भागता; लेकिन दोनों | लेकिन कात्यायिनी ने एक सवाल उठाया। वह साधारण स्त्री न
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गीता दर्शन भाग-26
थी। कात्यायिनी ने कहा कि जो धन तुम्हें व्यर्थ हो गया, तो तुम मुझे वीतराग का अर्थ है, जिसका न कोई मित्र है, न कोई शत्रु। किसलिए दे जाते हो? अगर व्यर्थ है, तो बोझ मुझे मत दे जाओ। वीतराग का अर्थ है, जिसका चित्त किसी भी चीज से, किसी भी और अगर सार्थक है, तो तुम भी छोड़कर क्यों जाते हो? . कारण से बंधा हुआ नहीं है। मित्रता से भी बंधा हुआ नहीं; शत्रुता
कात्यायिनी ने बड़ा ठीक सवाल उठाया। अगर व्यर्थ है, राख है, | से भी बंधा हुआ नहीं। धूल है, तो मुझे देकर इतने गौरवान्वित क्यों होते हो? अगर सार्थक | | और ध्यान रहे, मित्र भी बांध लेते हैं और शत्रु भी बांध लेते हैं। है, तो छोड़कर कहां जाते हो? रुको! अगर सार्थक है, तो हम | | मित्रों की भी याद आती है, शत्रुओं की भी याद आती है। सच तो साथ-साथ भोगें। और अगर व्यर्थ है, तो मुझे भी उसी धन की यह है, शत्रुओं की थोड़ी ज्यादा आती है। मित्रों को भूलना आसान; खबर दो, जो सार्थक है, जिसकी खोज में तुम जाते हो। | शत्रुओं को भूलना कठिन है। राग को भूलना आसान; विराग को
याज्ञवल्क्य मुश्किल में पड़ गया होगा। अभी याज्ञवल्क्य सिर्फ | | भूलना कठिन है, बहुत कठिन है। प्रेम को भूलना आसान; घृणा विराग में जा रहा था। कात्यायिनी ने उसे वीतराग के डायमेंशन में, को भूलना कठिन है। शत्रु पीछा करते हैं, छाया की भांति पीछे होते वीतराग के आयाम में उन्मुख किया। अभी उसे सार्थक था धन, | हैं और बदला लेते हैं। सब विराग बदला लेता है।
तो बांटने को उत्सक था। अभी कछ न कछ अर्थ था उसे इसलिए एक बहत अदभत घटना घटती है मनष्य के मन में। धन में। छोड़ता था जरूर, लेकिन सार्थक था। अभी वह विराग की और वह घटना यह घटती है कि जो धन को पकड़ते हैं, वे दिशा में मुड़ता था। लेकिन कात्यायिनी ने उसे एक नई दिशा में, कभी-कभी इंटरवल्स में, बीच-बीच में छुट्टी भी लेते हैं। एक नए आयाम का इशारा किया। उसने कहा कि छोड़कर जाते हो, बीच-बीच में उनका मन आता है, छोड़ो सब; कुछ सार नहीं है। देकर जाते हो, गौरवान्वित हो कि काफी दे जा रहे हो, तो फिर तुम तेईस घंटे दुकान पर होते हैं; कभी घंटेभर मंदिर भी हो आते हैं। छोड़कर जाते नहीं। धन तुम्हें सार्थक है; धन तुम्हें पकड़े ही हुए है! | लेकिन ध्यान रहे, इससे उलटी घटना भी घटती है। जो चौबीस
कृष्ण कहते हैं, जो राग के पार हो जाता है-बियांड। वीतराग | | घंटे मंदिर में रहता है, उसका मन भी घंटे दो घंटे को बाजार में आ का अर्थ है, बियांड अटैचमेंट; डिटैचमेंट नहीं। वीतराग का अर्थ | | जाता है। वह भी छुट्टी लेता है। भला हिम्मत न हो, खुद न आ पाता है, आसक्ति के पार; विरक्त नहीं। विरक्त विपरीत आसक्ति में हो, लेकिन मन आ जाता है। होता है, पार नहीं होता। वह एक ध्रुव से दूसरे ध्रुव पर चला जाता विरागी भी छुट्टी पर होते हैं। चौबीस घंटे विरागी होना मुश्किल है; दोनों ध्रुव के पार नहीं होता। वह एक द्वंद्व के छोर से द्वंद्व के है। चौबीस घंटे रागी होना मुश्किल है। क्योंकि मन थक जाता है, दूसरे छोर पर सरक जाता है, लेकिन द्वंद्वातीत नहीं होता। ऊब जाता है एक ही चीज से। इसलिए जो रागी हैं, वे अक्सर विराग
कृष्ण कहते हैं, जो वीतराग हो जाता है, वह मेरे शरीर को | के सपने देखते हैं; और जो विरागी हैं, वे राग के सपने देखते हैं। उपलब्ध हो जाता है। वीतराग, वीतभय, वीतक्रोध; जो इन सबके | जो रागी हैं, वे कई बार सोचते हैं, सब छोड़-छाड़कर चले जाएं; पार हो जाता है। वीतलोभ। वह तीसरा ही आयाम है। थर्ड | सब बेकार है। जो विरागी हैं, वे कई बार सोचते हैं कि बड़ी मुश्किल डायमेंशन है।
में पड़ गए; नाहक छोड़-छाड़कर आ गए। इसमें कुछ सार नहीं है, तीन आयाम हैं जगत में। किसी चीज के प्रति राग, अर्थात उसे इस छोड़ने-छाड़ने में कुछ अर्थ नहीं है। पास रखने की इच्छा। किसी चीज के प्रति विराग, अर्थात उसे पास | । मन द्वंद्वों में डोलता रहता है। विश्राम चाहता है मन। इसलिए बुरे न रखने की इच्छा। और किसी चीज के प्रति वीतराग, अर्थात वह | आदमियों के भी अच्छे क्षण होते हैं, और अच्छे आदमियों के भी पास हो या दूर, अर्थहीन; उससे भेद नहीं पड़ता।
बरे क्षण होते हैं। ऐसा बरा आदमी खोजना मश्किल है. जिसके बुद्ध ने कहा है, राग का अर्थ है, प्रियजन घर आता, सुख मालूम | अच्छे क्षण न होते हों। और कभी-कभी बुरे आदमी अच्छे क्षणों में पड़ता। अप्रियजन घर आ जाता, तो दुख मालूम पड़ता। मित्र घर साधुओं को पार कर जाते हैं। और अच्छे आदमी भी खोजने से जाता, तो दुख मालूम पड़ता। शत्रु घर से जाता, तो सुख मालूम | मुश्किल हैं, जिनके बुरे क्षण न होते हों। और अच्छे आदमी भी, पड़ता। शत्रु के प्रति तो सभी विरागी होते हैं; मित्र के प्रति सभी रागी जब उनके बुरे क्षण होते हैं, तो असाधुओं को पार कर जाते हैं। होते हैं।
उसका कारण है। क्योंकि जो आदमी तेईस घंटे कोशिश करके
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दिव्य जीवन, समर्पित जीवन
अच्छा है, जब वह एक घंटे बुरा होगा, तो साधारण बुरा नहीं होगा । तेईस घंटे का बदला एक घंटे में चुकाना पड़ेगा। और जो आदमी तेईस घंटे बुरा है, वह जब एक घंटे के लिए अच्छा होगा, तो साधारण अच्छा नहीं होगा; अतिशय अच्छा हो जाएगा। तेईस घंटे की रुकी हुई अच्छाई बदला मांगती है।
कृष्ण इन दोनों की बात नहीं कर रहे हैं। कृष्ण कहते हैं, वीतराग । वीतराग को कभी छुट्टी नहीं लेनी पड़ती है, क्योंकि वीतराग द्वंद्व में नहीं होता। इसलिए सिर्फ वीतरागी पुरुष चौबीस घंटा एक-रस हो सकता है; न रागी हो सकता है, न विरागी हो सकता है। सिर्फ वीतराग एक-रस हो सकता है।
• वीतराग ऐसा होता है, जैसे हम सागर को कहीं से भी चखें, और वह नमकीन है। बस, ऐसा वीतरागी होता है; उसे हम कहीं से भी चखें, वह एक ही स्वाद है उसका। वह वेश्या के गृह में बैठकर भी वही होता है, जो प्रभु के मंदिर में बैठकर होता है। वह वेश्यागृह से भी नहीं डरता, मंदिर के लिए भी लोलुप नहीं होता। असल में इतना आश्वस्त होता है अपने में कि अब उसका न कोई भय है, न कोई लोभ है। इतना आश्वस्त, अपने में इतना भरोसे से भरा हुआ कि छुट्टी का उसे डर ही नहीं है।
एक बार ऐसा हुआ कि बुद्ध के एक भिक्षु को, गांव में गया था, एक वेश्या ने निमंत्रण दे दिया। और कहा कि इस वर्षाकाल में भिक्षु, मेरे ही घर चार महीने रुक जाओ! साधारण भिक्षु होता, विरागी होता, दुबारा लौटकर उस घर के सामने न जाता । वेश्या ने सोचा था कि भिक्षु इनकार कर देगा। कहेगा, तू वेश्या ! और मैं तेरे घर रुकूं ? नहीं; यह नहीं हो सकता। कहां भिक्षु, कहां संन्यासी, कहां वेश्या का घर !
उस भिक्षु ने कहा, आ जाऊंगा, लेकिन बुद्ध से आज्ञा लेनी पड़ेगी। तो मैं कल आज्ञा लेकर जवाब दे दूंगा। उस वेश्या ने कहा, और अगर बुद्ध ने आज्ञा न दी ? उस भिक्षु ने कहा, इतना आश्वस्त हूं अपने प्रति कि बुद्ध इनकार नहीं करेंगे। कहा, इतना आश्वस्त हूं अपने प्रति कि बुद्ध इनकार न करेंगे, बुद्ध मुझे जानते हैं। मंदिर और वेश्यागृह में मेरा स्वाद एक ही रहेगा। उसका भय न कर । नियम है, इसलिए आज्ञा मांगनी जरूरी है, अन्यथा कोई जरूरत नहीं है; मैं भी रुक जा सकता हूं।
दूसरे दिन भिक्षुओं के बीच उस भिक्षु ने खड़े होकर कहा कि एक बहुत मजेदार घटना घट गई। राह पर जाता था, एक वेश्या ने निमंत्रण दिया कि चार महीने वर्षाकाल, आने वाले वर्षाकाल में
उसके घर मेहमान बनूं । आज्ञा मांगता हूं। बुद्ध ने कहा, आज्ञा | मांगने की क्या जरूरत? जो संन्यासी वेश्या से डर जाए, वह संन्यासी ही नहीं है । जाओ! जब उसने निमंत्रण दिया, तो विश्राम करो। चार महीने वहीं रुको।
अनेक भिक्षुओं के प्राणों में लहरें दौड़ गईं। सुंदरी थी बहुत | वेश्या । सारे भिक्षुओं की नजर उस पर थी। गांव में गुजरते थे, तो किसी न किसी बहाने उस रास्ते जरूर निकल जाते थे; उस रास्ते पर भिक्षा जरूर मांग लेते थे। कौंध गई होंगी बिजलियां । मुश्किल खड़ी हो गई।
एक भिक्षु ने खड़े होकर कहा कि यह तो अनुचित है, संन्यासी का और वेश्या के घर में रुकना ! और आप आज्ञा देते हैं ?
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बुद्ध ने कहा, अगर तुम आज्ञा मांगो, तो नहीं दूंगा। क्योंकि संन्यासी और वेश्या से डरे, तो फिर वेश्या जीत गई, फिर हम हार गए। यह तो चुनौती है; चैलेंज है। एक वेश्या ने निमंत्रण दिया और वेश्या नहीं डरती कि संन्यासी उसे बदल लेगा और संन्यासी डरे कि वेश्या उसे बदल लेगी, तो हम हार गए। तुम्हें आज्ञा न दूंगा। लेकिन जिसने आज्ञा मांगी है, उसने कहा कि बड़ी मजेदार घटना घट गई है, एक वेश्या ने निमंत्रण दिया है। उसे आज्ञा है । वह अपने प्रति आश्वस्त है।
चार महीने वह भिक्षु वेश्या के घर था । वेश्या जैसा भोजन कराती, वैसा भोजन कर लेता । वेश्या भी बहुत चिंतित हुई । नाचने लगती, तो नाच देख लेता । गीत गाने लगती, तो गीत सुन लेता । वेश्या बहुत चिंतित हुई । सब उपाय उसने किए । अर्धनग्न होकर नाचती, तो भी देखता रहता। बहुत मुश्किल में पड़ी।
एक महीना बीता, दो महीने बीते। वेश्या सब तरह की कोशिश करके थक गई; लेकिन न तो उस भिक्षु ने कोई रस लिया, और न | विरस प्रकट किया। न तो उसने यह कहा कि सुंदर; खूब। न तों उसने वाह-वाह की; न उसने यह कहा कि बंद करो, बेकार है, हमें ठीक नहीं लगता; आंख बंद की। नहीं, यह भी नहीं किया। नाचती,
देखता । न नाचती, तो कभी यह भी न कहता कि आज नाचो ! आज नाचोगी नहीं? बस, घर में ऐसा रहा, जैसे हो ही न।
दो महीने बीत गए, वेश्या उसके पैरों पर गिर गई और उसने कहा कि मुझे राज बताओ। तुम तो कंपते ही नहीं। यहां न वहां । अगर | तुम विपरीतता भी दिखाओ, तो मैं कुछ कोशिश करूं। अगर तुम यह भी कहो कि यह गलत है, तो भी कुछ रास्ता बने। तुम कुछ तो कहो। तुम कोई वक्तव्य तो दो ! तुम कोई निर्णय तो लो। तुम इस
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गीता दर्शन भाग-20
पक्ष में या उस पक्ष में कुछ भी तो कहो
| एक्सपैंशन जो है, यह जो विस्तार है...। उस भिक्षु ने कहा, पक्ष में गया कि तू जीती और मैं हारा। हम | क्या कभी आपने सोचा कि ब्रह्म शब्द का अर्थ होता है, विस्तार, निष्पक्ष ही रहेंगे। तुझे जो करना है, तू कर; हमें जो करना है, हम वृहत, जो फैलता ही चलता गया; जिसके फैलाव का कोई अंत करते हैं। जब तू हमारे बाबत कोई पक्ष और विपक्ष नहीं लेती, हम | | नहीं है। ब्रह्म बड़ा साइंटिफिक शब्द है, बहुत वैज्ञानिक-धार्मिक क्यों लें?
| बहुत कम। ब्रह्म शब्द धार्मिक जरा भी नहीं, बिलकुल वैज्ञानिक चार महीने बीत गए। भिक्षुओं में तो बड़ी बेचैनी थी। न मालूम | टरमिनालाजी है। ब्रह्म का मतलब है, जो फैलता ही गया है, दि कितनी खबरें भिक्षु लेकर बुद्ध के पास आते। कोई खबर लाता कि एक्सपैंडिंग, जो फैलता ही चला जाता है; जिसके फैलाव का कोई गया वह आदमी। हमने नाचते देखा है कि वह वेश्या नाच रही है | अंत ही नहीं है। इस फैले हुए का नाम ब्रह्म है।
और वह देख रहा है! कोई कहता कि सुना आपने! वेश्या उसे बहुत | | इस फैले हुए, दिखाई पड़ने वाले अस्तित्व को कृष्ण कहते हैं, ही मिष्ठान्न खिला रही है और वह खा रहा है! कोई कहता, सुना मेरा शरीर। जो वीतराग हो जाता है, वह मेरे शरीर को उपलब्ध हो आपने! वेश्या ने उसे रेशम के वस्त्र दे दिए हैं और वह पहने हुए है! जाता है। कोई कहता. सना आपने। सब नियम. सब मर्यादाएं टट गई हैं। क्यों? आत्मा को तो हम उपलब्ध ही हैं. हमारी भल सिर्फ शरीर
बुद्ध सुनते और कहते कि ठीक है। लेकिन तुम चिंतित क्यों हो? की है। कृष्ण की आत्मा को तो हम अभी भी उपलब्ध हैं, लेकिन तुम उस भिक्षु में उत्सुक हो या उस वेश्या में? और डूबेगा वह, तो हम अपने-अपने शरीरों में अपने को बंद मान रहे हैं, वह हमारी वह डूबेगा; तुम्हारी परेशानी क्या है? खोएगा, तो वह खोएगा; तुम | भूल है। इसलिए कृष्ण आत्मा की बात नहीं करते। उसको तो हम इतने आतुर क्यों हो?
उपलब्ध ही हैं, सिर्फ यह शरीर की भूल भर टूट जाए हमारी। हमें चार महीने बाद वह भिक्षु आया, लेकिन अकेला नहीं था। साथ किसी दिन यह पूरा ब्रह्मांड अपना शरीर मालूम पड़ने लगे, बस। में एक भिक्षुणी भी थी; वह वेश्या भिक्षुणी हो गई थी। बुद्ध ने अपने आत्मा तो हम अभी भी हैं। आत्मा तो हमारी इस अज्ञान के क्षण भिक्षुओं को कहा कि देखो! भिक्षु लौट आया, साथ में एक भिक्षुणी में भी कृष्ण का हिस्सा है। हमारी भ्रांति है शरीर की सीमा की। अगर
भी लौट आई है। वेश्या से पूछा कि तुझे क्या हुआ? उसने कहा, शरीर की सीमा की भ्रांति टूट जाए, और हम कृष्ण के शरीर ' हुआ कछ भी नहीं: मैं हार गई। पहली बार मैं कहीं हारी। सदा मैं को कृष्ण का शरीर अर्थात ब्रह्मांड को उपलब्ध हो जाएं. तो जीतती रही; अब मैं हार गई। और अकंप इस आदमी को जाना। बात पूरी हो जाती है। इसलिए कृष्ण कहते हैं, मेरे शरीर को उपलब्ध वीतराग इस मनुष्य को जाना। और इसकी वीतरागता में जो शांति हो जाता है।
और जो आनंद अनुभव हुआ, वही खोजने मैं भी चली आई हूं। शरीर का क्या अर्थ है? शरीर का अर्थ है, आत्मा का आवरण। बुद्ध ने कहा, देखो! संन्यासी जीतकर लौट आया है, वीतराग था, शरीर का अर्थ है, आत्मा का गृह। अंग्रेजी का शब्द बाडी बहुत इसलिए। तुम हार जाते। तुम विरागी हो, तुम्हारे हारने का डर था। अच्छा है। जिसके भीतर आत्मा एंबाडीड है, जिसके भीतर शरीर
कृष्ण कहते हैं, जो वीतराग होता, वह मेरे शरीर को उपलब्ध हो | छिपा है। जाता है। इसमें बड़े मजे की बात है। वे कह रहे हैं, मेरे शरीर को। यह जो हमारा शरीर, हमें लगता है, मेरा शरीर! यह हमें क्यों अच्छा न होता क्या कि वे कहते, मेरी आत्मा को! लेकिन वे कहते लगता है? राग के कारण, विराग के कारण। अगर राग और विराग हैं, मेरे शरीर को, टु माई बाडी। अच्छा होता न कि वे कहते, मेरी दोनों छूट जाएं, तो यह मेरा शरीर है, ऐसा नहीं लगेगा। तब सब आत्मा को उपलब्ध हो जाता है। लेकिन कृष्ण कहते हैं, मेरे शरीर शरीर मेरे हैं। तब चांद-तारे मेरे शरीर के भीतर हो जाएंगे; तब मेरी को उपलब्ध हो जाता है।
जो चमड़ी है, वह असीम को छू लेगी। क्या राज है? राज बड़ा है।
राम कहते थे कि मैंने चांद-तारों को अपने शरीर के भीतर यह जो ब्रह्मांड है, यह जो विश्व है, यह शरीर है परमात्मा का। परिभ्रमण करते देखा। पागलपन की बात है। बिलकुल पागलपन यह जो दृश्य चारों ओर फैला है, यह शरीर है। ये चांद-तारे, यह की बात है! लेकिन ठीक कहते थे। जब भी कोई राग और विराग सूरज, यह अरबों-अरबों प्रकाश वर्ष की दूरियों तक फैला हुआ | | के एक क्षण को भी पार हो जाए, उसी क्षण अपने शरीर का स्मरण
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भूल जाता है, बाडीलेसनेस आ जाती है, शरीरहीन हो जाता है। और ये दोनों बातें एक ही हैं।
ब्रह्म के शरीर को उपलब्ध होना या अपने शरीर को भूल जाना, एक ही बात है। जो व्यक्ति अपने शरीर की सीमा को भूल जाता है, वह ब्रह्म के शरीर की सीमा के स्मरण से भर जाता है।
यह शरीर मेरा है, यह हमारे राग और विराग के कारण है। जब तक कोई चीज मेरी है और कोई चीज़ तेरी है, तब तक यह शरीर मेरा है। अगर ठीक से समझें, तो मेरे का भाव मेरा शरीर है। बहुत मनोवैज्ञानिक अर्थों में मेरे का भाव ही मेरा शरीर है। जहां तक मेरे का भाव है, वहां तक शरीर है। अगर मेरे का भाव बड़ा हो जाए, इतना बड़ा हो जाए कि वह ब्रह्म को घेर ले, ब्रह्मांड के साथ एक हो जाए, तो फिर सभी कुछ मेरा शरीर है। वस्तुतः सभी कुछ शरीर - वस्तुतः | लेकिन हमारी एक भ्रांति है।
किस जगह आप अपने शरीर को समाप्त मानते हैं? किस जगह? चमड़ी पर अपने शरीर को आप समाप्त मानते हैं। लेकिन आपकी चमड़ी हवा के बिना एक क्षण जी सकती है ? नहीं जी सकती। तो हवा भी आपकी चमड़ी के पार की एक पर्त है आपके शरीर की । उसके बिना आप नहीं जी सकते। हवा की पर्त अगर हटा ली जाए, तो आप जी नहीं सकते। जिसके बिना आप नहीं जी सकते, वह आपका शरीर है। जिसके बिना जीना मुश्किल हो जाएगा, वह आपका शरीर है।
रोआं- रोआं श्वास ले रहा है। आप इस भ्रांति में मत रहना कि आपकी सिर्फ नाक ही श्वास ले रही है। अगर आपके पूरे शरीर को पेंट कर दिया जाए, और सब रोएं बंद कर दिए जाएं, और सिर्फ नाक खुली छोड़ दी जाए, तो आप पांच-सात मिनट में मर जाएंगे। कितना ही फिर आप जोर से श्वास लो, कुछ न होगा। क्योंकि रोआं-रोआं श्वास ले रहा है; पूरा शरीर श्वास ले रहा है।
यह चारों तरफ हवा की जो पर्त है, वह भी आपकी चमड़ी है। उसके बिना आप नहीं जी सकते। दो सौ मील तक पृथ्वी के चारों तरफ हवा की पर्त है। लेकिन वह हवा की पर्त भी नहीं जी सकती, अगर उसके पास सूरज की किरणों का जाल न हो। वह हवा भी नहीं जी सकती। फिर दस करोड़ मील दूर तक सूरज की किरणों का जाल है; वह भी आपकी चमड़ी है। उसके बिना भी आप नहीं जी सकते।
वहां सूरज ठंडा हो जाए, तो हम यहां अभी ठंडे हो जाएंगे। हमको पता भी नहीं चलेगा कि हम ठंडे हो गए, क्योंकि पता चलने के लिए भी हमारा बचना जरूरी है। इसलिए सूरज जब ठंडा होगा,
तो हम लिखने के लिए बचेंगे नहीं; अखबार में खबर न निकाल | पाएंगे कि सूरज ठंडा हो गया। सूरज ठंडा हुआ कि हम ठंडे हुए। सूरज दस करोड़ मील दूर है, लेकिन सूरज की गर्मी हमारी पर्त है शरीर की। हम एंबाडीड हैं; सूरज की पर्त के भीतर हम हैं; एक बड़ा शरीर है।
लेकिन सूरज भी न बचे, अगर महासूर्यों से उसे दिन-रात शक्ति न मिलती हो। हमारा सूरज बड़ा छोटा है। ऐसे बहुत बड़ा है; हमसे बहुत बड़ा लगता है। पृथ्वी से कोई साठ हजार गुना बड़ा है। लेकिन और सूर्यों के मुकाबले बहुत मीडियाकर है, बहुत छोटा सूरज है। | रात को जो तारे दिखाई पड़ते हैं, वे महासूर्य हैं। हमारा सूरज कोई तीन-चार अरब महासूर्यों की भीड़ में एक छोटा-सा सूरज है, बहुत | मीडियाकर, बहुत मध्यमवर्गीय कोई बहुत बड़ा सूर्य नहीं है। उससे करोड़ों बड़े सूर्य हैं। अगर उन सूर्यों से उसे दिन-रात ऊर्जा न मिलती हो, तो वह कभी का ठंडा हो जाए। वे भी हमारा शरीर हैं।
हमारा शरीर समाप्त कहां होता है ? जहां ब्रह्मांड समाप्त होता हो, वहीं समाप्त होता है। उसके पहले समाप्त नहीं होता ।
एक छोटे-से फूल के खिलने में पूरा ब्रह्मांड सहयोगी है। एक | छोटा-सा फूल खिलता है घास का । इस घास के फूल के खिलने में अरबों-खरबों मील दूर बैठे हुए महासूर्यों का हाथ है; वे इसका शरीर हैं। उनके बिना यह न हो सके।
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तो कृष्ण कहते हैं कि जो वीतराग हो जाता है, जो मेरे तेरे के भाव से उठ जाता है; जो आकर्षण - विकर्षण के पार हो जाता है, वह मेरे शरीर को उपलब्ध हो जाता है।
मेरे शरीर का अर्थ है, समस्त ब्रह्मांड उसका शरीर बन जाता है। और जब ब्रह्मांड शरीर बनता है, तभी हमें ब्रह्म का पता चलता है कि हम कौन हैं ! मैं कौन हूं, हमें तब तक पता न चलेगा — निश्चित ही, जिन्हें अपने शरीर का भी पता नहीं, उन्हें अपनी आत्मा का क्या पता होगा ? जिन्हें शरीर का ही पता नहीं, उन्हें आत्मा का पता न हो सकेगा। जो अपने शरीर के संबंध में ही अज्ञानी हैं, वे अपनी आत्मा के संबंध में ज्ञानी कैसे हो सकेंगे ?
इसलिए कृष्ण का कहना बहुत अर्थपूर्ण है कि वे मेरे शरीर को उपलब्ध हो जाते हैं। और अर्जुन से वे कहते हैं कि तुझसे जो मैं कह रहा हूं, उससे पहले भी जिन-जिन पुरुषों ने वीतरागता पाई, वे मेरे शरीर को उपलब्ध हो गए हैं, वे मेरे साथ एक हो गए हैं।
दुई, दो का भाव भ्रम है, लेकिन बड़ा गहरा है। बड़ा गहरा है। लगता है कि हम अलग हैं। यह हमारा अलग होना बड़ी से बड़ी
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गीता दर्शन भाग-2
| शरण होती है।
भ्रांति, दि ग्रेटेस्ट इलूजन है। हम अलग जरा भी नहीं हैं। एक क्षण जाएंगे, तो शरण कौन जाएगा? और किसकी शरण जाएगा? को भी नहीं हैं। एक क्षण को भी हमें अलग कर दिया जाए, और इसीलिए मजेदार है यह वक्तव्य। हम विलीन हो जाएंगे; हम बचेंगे नहीं।
असल में जिस दिन न वह बचे, जो शरण जाता है; और न वह हमारे अलग होने की भ्रांति वैसी है, जैसे कि नदी की छाती पर बचे, जिसकी शरण जाता है, उसी दिन शरणागत होता है व्यक्ति। एक बबूला। पानी का बबूला उठ आया। तैर रहा है, चल रहा है, | | उसी दिन शरण पूरी हुई। जब तक आप बचे हैं और दूसरा बचा है, फिर रहा है, सूरज की किरणों में चमक रहा है। उस बबूले को भी तब तक आप सिर रख दें चरणों में, आपका अहंकार चरणों में नहीं लगता है, मैं अलग।
रखा जाता; वह भीतर खड़ा रहता है। जरा भी अलग नहीं है। जरा अलग करें नदी से और पता | ___ मंदिरों में जाकर देखें; सिर रखे हैं पत्थरों के चरणों में और चलेगा, कहीं भी न रहा। नदी के पानी की जरा पतली-सी पर्त | | अहंकार अकड़कर खड़े हैं। सिर जमीन पर झुका है, अहंकार उसका शरीर थी; वह पानी में खो गई। हवा का छोटा-सा आयतन | | आकाश में उठा है। सिर चरणों में झुका है, अहंकार चारों तरफ देख उसके भीतर,कैद था, वह मुक्त होकर हवा में मिल गया। बस, हम | रहा है कि कोई देखने वाला भी मंदिर में है या नहीं? हम कितनी नदी पर तैरते हुए बबूलों की भांति अलग हैं।
शरण चले गए हैं! अनन्य भाव से, जब न मैं बचे, न तू बचे, तभी इसलिए कृष्ण कहते हैं कि जो तुझसे पहले भी, कभी भी, जिसने भी जान लिया है इस सत्य को, वह मेरे शरीर को, वह ब्रह्मांड के शरण का अर्थ, समर्पण, सरेंडर। जब तक मैं बचता है, तब तक साथ एक हो जाता है।
समर्पण नहीं होता। इसलिए ध्यान रहे, कोई आदमी यह नहीं कह सकता कि मैं शरण जाता हूं। कोई आदमी शरण नहीं जा सकता,
क्योंकि जब तक कहने वाला मौजूद है कि मैं शरण जाता हूं, तब प्रश्नः भगवान श्री, अनन्य भाव से मेरी शरण हुए | | तक शरण नहीं होगी। जब मैं नहीं रह जाता, तब आदमी अनुभव
और ज्ञानरूपी तप से शुद्ध हुए-इन दो दशाओं का करता है कि शरण जा चुका, शरणागत हो गया। अर्थ और अधिक स्पष्ट करने की कृपा करें। ___ अनन्य भाव से, नहीं कोई दूसरा है उस तरफ, न कोई यहां, जिस '
दिन कोई ऐसी भाव-दशा में आता है जो मैंने कहा कि वीतराग
होने से फलित होती है-उस दिन शरणागति, उस दिन शरण, उस 27 नन्य रूप से मेरी शरण हुए-बहुत मजेदार है, बहुत दिन वह मेरी शरण आ पाता है, कृष्ण कहते हैं। मेरी शरण, वही 1 कंट्राडिक्टरी है, बहुत विरोधाभासी है।
भाषा उपयोग करनी पड़ रही है, जो नहीं करनी चाहिए, क्योंकि वहां धर्म के सभी सत्य पैराडाक्सेस हैं, विरोधाभासी हैं। कोई मेरा-तेरा नहीं है। विरोध आभास भर है।
दूसरी बात वे कहते हैं, ज्ञानरूपी तप से शुद्ध हुए। कृष्ण कहते हैं, अनन्य रूप से मेरी शरण हुए।
यह भी बहुत मजेदार वक्तव्य है, यह भी पैराडाक्सिकल अनन्य का अर्थ है, जो अपने को मझसे अन्य न माने। जो | है-ज्ञानरूपी तप से शुद्ध हुए। ज्ञानरूपी तप, इसे जोड़ने की क्या मुझको और अपने को भिन्न न माने, अन्य न माने, अदरनेसन जरूरत थी? तप से शुद्ध हुए, इतना कहना काफी न होता क्या? रहे-अनन्य हो। अनन्य भाव से मेरे साथ एक हो गया हो। | अक्सर ऐसा होता है कि अज्ञानी बहुत तप कर पाते हैं। असल में
लेकिन फिर दूसरी बात कहते हैं। जब एक ही हो गया हो, तो अहंकारी बहुत तप कर सकता है, क्योंकि अहंकारी हठी होता है। शरण होने की गुंजाइश कहां रही! क्योंकि शरण तो हम उसी के जा वह कहता है कि हम रहेंगे साठ दिन भूखे, तो रह सकता है। जरा सकते हैं, जो अन्य है, दि अदर। शरण तो हम उसी की जा सकते | | अहंकार कमजोर हो, तो साठ दिन भूखा रहना मुश्किल हो जाए। हैं, जो दूसरा है। जो दूसरा नहीं है, उसकी शरण हम कैसे जाएंगे? | | अहंकार कमजोर हो, तो साठ दिन भूखा रहना मुश्किल हो जाए;
कृष्ण कहते हैं, अनन्य रूप से मेरी शरण। एक हो जाओ मुझसे अहंकार मजबूत हो, तो आदमी साठ दिन भूखा रह सकता है। और मेरी शरण आ जाओ। बड़ी उलटी बात कहते हैं। एक हो अहंकारी तय कर ले कि हम पैर पर ही खड़े रहेंगे, अब कभी
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दिव्य जीवन, समर्पित जीवन
बैठेंगे न, तो खड़ा रह सकता है। गैर-अहंकारी तय कर ले, तो | हम अच्छी बात लाने के लिए भी अहंकार का उपयोग करते हैं। थोड़ी-बहुत देर में सोचेगा कि बहुत से बहुत लोग यही कहेंगे न कि | | बाप अपने बेटे से कहता है कि देखो, ऐसा आचरण करोगे, तो अपना वचन पूरा नहीं कर पाया! बैठ जाते हैं। अहंकारी कहेगा कि | हमारे कुल की बड़ी बदनामी होगी। आचरण बुरा है, ऐसा नहीं कह अब चाहे प्राण चले जाएं, लेकिन अब बैठ नहीं सकता। एक | | रहा है। वह यह कह रहा है कि ऐसा आचरण करने से कुल की बड़ी अहंकार की कसम हो गई।
बदनामी होगी। लोग क्या कहेंगे कि मेरा बेटा! और ऐसा कर रहा तो ध्यान रहे, अहंकारी अक्सर तपश्चर्या में उत्सुक हो जाते हैं। है? उसके बेटे के अहंकार को परसुएड किया जा रहा है। इसलिए तपस्वी अगर अहंकारी मिलते हों, तो आश्चर्य नहीं है। ___ चारों तरफ ग्रेट परसुएडर्स बैठे हुए हैं; चारों तरफ फुसलाने वाले
आमतौर से तपस्वी अहंकारी मिलते हैं। उसका कारण यह नहीं कि बैठे हुए हैं। वे अहंकार को फुसला रहे हैं। वे उस अहंकार को तपस्वी अहंकारी होते हैं. उसका बनियादी कारण यह है कि तरकीब-तरकीब से फुसलाकर हमसे काम करवा रहे हैं। अहंकारी आसानी से तपस्वी हो जाते हैं। असल में अहंकार जो भी हमारी पूरी जिंदगी अहंकार के आधार पर होने वाली तपश्चर्या है। जिद्द पकड़ ले, उसको पूरा करने की कोशिश करता है। ___ एक आदमी धन कमाता है, तो कोई कम तप नहीं करता। जंगल
तो सौ में अट्ठानबे तपस्वियों का मौका यह है कि वे अहंकार से में बैठे तपस्वियों से कम नहीं होता तप उसका; एक अर्थ में ज्यादा तपश्चर्या के रास्ते पर आते हैं। इसलिए हम तपस्या की खूब प्रशंसा | | ही होता है। करता क्या है बेचारा? दिनभर सुबह से सांझ तक धन करते हैं, शोभायात्रा निकालते हैं। कोई उपवास कर ले, तो | | इकट्ठा करने में लगा हुआ है। पागल की तरह दौड़ रहा है। शोभायात्रा निकलती है, जुलूस निकलता है; बैंड-बाजे बजाते हैं। जिंदगीभर दौड़ता है; तिजोरी भरकर मर जाता है। लेकिन धन
उपवास के लिए बैंड-बाजों की कोई जरूरत नहीं। लेकिन जिस अहंकार के लिए सुख है। जितना ज्यादा, उतना सुख है। बस, अहंकार से उपवास फलित हुआ है, वह बैंड-बाजे के बिना अहंकार धन को इकट्ठा करवा देता है। शिथिल हो जाएगा। उसके लिए बैंड-बाजा बिलकुल जरूरी है, एक आदमी दिल्ली की तरफ दौड़ता रहता है। अभी बहुत-से उसको जगाए रखने के लिए, फुसलाने के लिए। क्योंकि उस | लोग दौड़ रहे हैं। दिल्ली में ऐसा कुछ रस नहीं है। अहंकार में रस आदमी ने उपवास के लिए उपवास नहीं किया। अंत में यह है। कितना पागलपन चलता है! कितना बेचारा हाथ-पैर जोड़ता है बैंड-बाजा बजने वाला है, बहुत गहरे में इसकी आकांक्षा है। | किसी के भी कि किसी तरह मुझे दिल्ली पहुंचाओ! सब दांव पर
तो हम अहंकार को प्रोत्साहित करते हैं, क्योंकि अहंकार के लगा देता है, किसी तरह दिल्ली पहुंचाओ! एक अहंकार है। आधार पर तप हो सकता है। लो
| दिल्ली पहुंचकर वह समबडी हो जाता है, कुछ हो जाता है। फिर होता है, उससे आत्मा पवित्र नहीं होती और अपवित्र हो जाती है। और दौड़ पर दौड़ चलती जाती है। वर्तुल के भीतर वर्तुल हैं। फिर
इसलिए कृष्ण को कंडीशन लगानी पड़ी, ज्ञानरूपी तप। अकेला दिल्ली पहुंचकर केबिनेट में कैसे प्रवेश कर जाए! फिर सब तप काफी नहीं हैक्योंकि अज्ञानरूपी भी हो सकता है। अकेला | सिद्धांतों की बात करता है, लेकिन सिर्फ सिद्धांत अहंकार है, और तप काफी नहीं है, तप अज्ञान से भी निकल सकता है। और जब | | कोई सिद्धांत नहीं है। न कोई समाजवाद है, न कोई लोकतंत्र है, न तप अज्ञान से निकलता है, तो आत्मा को और भी अपवित्र कर कुछ है। जाता है। ज्ञान से निकलना चाहिए।
दुनिया में कोई सिद्धांत नहीं है आदमी के लिए। आदमी का ज्ञान से निकलने का क्या अर्थ हुआ? ज्ञान से तप कैसे | | गहरा सिद्धांत एक है, ईगो। फिर उस अहंकार के लिए निकलेगा? अज्ञान से तो निकल सकता है; बहुत आसान है। हमारी | | आभूषण-समाजवाद, लोकतंत्र, और-और न मालूम क्या-क्या! पूरी जिंदगी, अज्ञान के केंद्र, अहंकार पर खड़ी होती है। | वे सब आभूषण हैं उस एक सिद्धांत के।
बाप अपने बेटे से कहता है कि देखो पड़ोस का लड़का आगे | ___ सारी दुनिया अहंकार की तपश्चर्या में रत है। इन्हीं तपस्वियों को निकला जा रहा है! हमारे कुल की इज्जत खतरे में है। बेटे के | | हम धर्म की तरफ भी लगा देते हैं। ये ही तपस्वी धर्म में लग जाते
अहंकार को जगाता है। बेटा और रातभर पढ़ने में लग जाता है कि हैं। बैठ जाते हैं उपवास करके! अगर लोग न जाएं, तो बड़ी किसी तरह गोल्ड मेडल ले आए, क्योंकि इज्जत का सवाल है। मुश्किल हो जाती है।
पदार
आधार पर
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गीता दर्शन भाग-28
मेरे एक मित्र हैं। बड़े राजनैतिक नेता हैं। लोगों ने उनसे अनशन इस फर्क को ठीक से समझ लें। इसलिए पहले उन्होंने कहा, करवा दिया। लेकिन कुछ हालात ऐसे हो गए गांव के कि अनशन | अनन्य रूप से जो मेरी शरण; फिर कहा कि जो ज्ञानरूपी तप से तो उन्होंने किया, लेकिन लोग ज्यादा देखने-दाखने नहीं आए। मैं शुद्ध हुए हैं। उनके गांव गया था, उनको मिलने गया। पता चला अनशन करते ज्ञानरूपी तप सदा ही समर्पित है। ज्ञानरूपी तप के पीछे यह भाव हैं, तो मैंने कहा, देख आऊं। बड़ी मुश्किल में होंगे। नहीं है कि मैं तप कर रहा हूं; ज्ञानरूपी तप के पीछे यही भाव है कि __ गया तो सच में मुश्किल में थे मुझसे दिल की बात कही। कहा | परमात्मा जो करवा रहा है, वह मैं कर रहा हूं। वह अगर आग में कि बड़ी मुश्किल में पड़ गया हूं; कुछ हालात ऐसे उलझ गए हैं कि डाल देता है, तो आग में जलने को तैयार हूं। मैं नहीं जल रहा हूं। कोई देखने तक नहीं आ रहा है। और लोग आते-जाते रहते, एक ईसून करके एक फकीर औरत हुई जापान में समर्पित कैमरामैन फोटो उतारता रहता, अखबार में फोटो छपती रहती, तो जीवन की एक प्रतिमा। भोजन भी करती, तो पहले आंख बंद करके झेल भी लेते। अब सिवाय भूख के और कुछ नजर नहीं आता आकाश की तरफ, थाली सामने रखी हो, तो भी आंख बंद करके चौबीस घंटे। किसी तरह उपवास तुड़वाने का इंतजाम करवा दें। आकाश की तरफ देख लेती। कभी कहती कि ले जाओ। नहीं, क्या रास्ता होगा?
आज भोजन नहीं होगा। लोग कहते, क्या बात है? अभी तक तो कोई भी रास्ता निकाल लें। मेरी मांगें पूरी हों या न हों। मगर तुमने कुछ भी नहीं कहा था। पहले ही कह देना था। उसने कहा, अहंकार रास्ते खोजता है। फिर भी उन्होंने कहा कि इक्कीस दिन हो | जब तक भोजन सामने न आए, तब तक मैं प्रभु से पूछू भी कैसे! गए हैं मुझे। अब एकदम से तोड़ भी नहीं सकता। इज्जत का भी | मैं पूछी कि क्या करूं? क्या इरादे हैं? भोजन करूं, न करूं? आज सवाल है। तो प्रांत के चीफ मिनिस्टर आ जाएं, मोसंबी का एक | हां में उत्तर नहीं आता। भोजन ले जाओ। किसी दिन भोजन कर गिलास पिला दें और इतना ही कह दें कि हम आपकी मांगों पर | | लेती; कहती, हां में उत्तर आता है। मरने के एक दिन पहले आंख विचार करेंगे।
बंद कर आकाश की तरफ...। मैंने कहा, यह हो सकता है। इसमें बहुत कठिनाई नहीं है। । | पर लोगों को कभी भरोसा नहीं आया कि पता नहीं, ऊपर से कोई क्योंकि विचार करने में कोई झंझट नहीं है। विचार करेंगे। बस, | उत्तर आता है कि नहीं आता! यह अपने ही मन से उत्तर दे लेती है! उन्होंने कहा, इतना ही हो जाए तो काफी है। अब और मुझे कोई कभी खाना हो, तो खा लेती हो; कभी न खाना हो, तो न खाती हो। झंझट नहीं करनी है। मुझे उलझा दिया है शरारतियों ने और वे खुद लेकिन उस ईसून ने साठ वर्ष की उम्र तक कभी यह नहीं कहा भी दिखाई नहीं पड़ रहे हैं कि कहां हैं!
| कि मैंने एक भी उपवास किया। क्योंकि वह अहंकार से तो उठता लोग आते रहते, भीड़-भड़क्का बना रहता, तो उनको कष्ट न | न था। मेरे का तो कोई सवाल न था। उसने कोई हिसाब भी न रखा; होता। भूख झेली जा सकती थी। अगर अहंकार भरता हो, तो बड़ी | | जैसा कि साधु रखते हैं कि उन्होंने इस बार इतने उपवास किए, उतने से बड़ी भूख झेली जा सकती है। लेकिन अगर अहंकार भी न भरता | | उपवास किए। इस चौमासे में फलाने ने इतने उपवास किए। इसका हो, तो फिर कठिनाई हो जाती है।
कुछ हिसाब न था। ये कोई खाते-बही नहीं हैं कि इनके हिसाब रखे तपस्वियों को जरा आदर देना बंद कर दें, फिर आप देखेंगे, सौ | | जा सकें। लेकिन अहंकार खाते-बही रखता है। में से निन्यानबे विदा हो गए हैं। वे नहीं हैं अब कहीं। आदर मिले, | साठ साल! कभी कोई उससे कहता भी कि तूने कितने उपवास तो वे बढ़ते चले जाते हैं।
किए! वह कहती कि मैंने? मैंने एक भी उपवास नहीं किया। हां, कृष्ण बहुत जानकर कहते हैं कि ज्ञानरूपी तप से शुद्ध हुई | | कभी-कभी प्रभु ने भोजन का आनंद दिया और कभी-कभी उपवास आत्मा। और ज्ञानरूपी तप से ही शुद्ध होती है।
का आनंद दिया। ज्ञानरूपी तप कैसा होगा? क्योंकि अज्ञानरूपी तप में तो फिर साठ वर्ष उसके पूरे हुए। एक दिन उसने आकाश की अहंकार का शोषण है; अहंकार पर निर्भर है अज्ञानरूपी तप। तरफ-थाली सामने रखी थी-आकाश की तरफ देखकर कहा, ज्ञानरूपी तप किस बात पर निर्भर होगा? ज्ञानरूपी तप समर्पण पर | | भोजन ही नहीं; आज तो खबर आती है कि यह मेरा आखिरी दिन निर्भर होगा, अहंकार पर नहीं, सरेंडर पर।
| है। सांझ सूरज के ढलने के साथ मैं विदा हो जाऊंगी। और ठीक
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दिव्य जीवन, समर्पित जीवन
सांझ सूरज के ढलने के साथ वह विदा हो गई। सांझ सूरज ढला, बात समाप्त हो गई। वह आंख बंद करके बैठी थी और श्वास उड़ गई। तब लोगों को । जब तक मेरी मर्जी से तपश्चर्या होती है, तब तक अज्ञानरूपी पता चला कि जो आवाज उसे आती थी, वह ऐसी ही नहीं थी, जैसा | है। और जब उसकी मर्जी से तपश्चर्या होती है, तब ज्ञानरूपी हो हम सोचते थे। क्योंकि भोजन के मामले में धोखा हो सकता है. जाती है। वह अनन्य शरण का ही दूसरा रूप है। मौत के मामले में तो धोखा नहीं हो सकता।
और जब कोई समर्पित होकर तप से गुजरता है, तब आत्मा समर्पित तपश्चर्या ज्ञानरूपी तप है। परमात्मा के हाथों में जो पवित्र हो जाती है, तब भीतर सब शुद्ध हो जाता है। क्योंकि बड़ी जीए, वह जो ले आए-दुख तो दुख, सुख तो सुख, अंधेरा तो | से बड़ी अशुद्धि अहंकार है और बाकी सब अशुद्धियां अहंकार की अंधेरा, उजेला तो उजेला, भोजन तो भोजन, भूख तो भूख-वह ही बाई-प्रोडक्ट्स हैं। वे अहंकार से ही पैदा हुई हैं। जो ले आए, उसके लिए राजी होकर जो जीए, उसकी जिंदगी कभी आपने खयाल किया, अहंकार न हो, तो क्रोध पैदा हो ज्ञानरूपी तप है। उसका सारा जीवन एक तप है, लेकिन ज्ञानरूपी। सकता है? अहंकार न हो, तो क्रोध कैसे पैदा हो सकता है! कभी वह ईगोइस्ट, वह अहंकार की जिद नहीं है कि मैं कर रहा हूं ऐसा। | आपने खयाल किया है कि अहंकार न हो, तो लोभ पैदा हो सकता
साक्रेटीज एक सांझ अपने घर के बाहर गया। रात देर तक लौटा है? अहंकार न हो, तो लोभ कैसे पैदा हो सकता है! कभी आपने नहीं; लौटा नहीं! घर के लोग परेशान। बहुत खोजा, मिला नहीं। खयाल किया कि अहंकार न हो, तो ईर्ष्या पैदा हो सकती है? फिर सुबह तक राह देखने के सिवाय कोई रास्ता न रहा। अहंकार न हो, तो ईर्ष्या कैसे पैदा हो सकती है!
सुबह सूरज निकला, तब लोग खोजने गए। देखा कि बर्फ जम | । अहंकार मूल रोग है, मूल अशुद्धि है। बीमारी की जड़ है। बाकी गई है उसके घुटनों तक। रातभर गिरती बर्फ में खड़ा रहा। एक वृक्ष सारी बीमारियां उसी पर आए हुए पत्ते और शाखाएं हैं। इसलिए से टिका हुआ खड़ा है! आंखें बंद हैं। हिलाया। लोगों ने पूछा, यह समर्पण मूल साधना है। समर्पण का अर्थ है, अहंकार की जड़ काट क्या कर रहे हो? उसने आंख खोलीं; उसने कहा कि क्या हुआ? | | दो! अज्ञानरूपी तपश्चर्या पत्ते काटती है-पत्ते, शाखाएं। नीचे देखा। जैसे दूसरे लोग चकित थे, वैसा ही चकित हुआ। कहा | लेकिन ध्यान रखें, जैसा नियम बगीचे का है, वैसा ही नियम मन कि अरे! बर्फ इतनी जम गई! रात गई? सूरज निकल आया? तो के बगीचे का भी है। आप पत्ता काटें; पत्ता समझता है कि कि कलम लोगों ने कहा कि तम कर क्या रहे हो? होश में हो कि बेहोश? तम हो रही है। एक पत्ते की जगह चार निकल आते हैं। आप शाख रातभर करते क्या रहे?
काटें: शाखा समझती है. कलम की जा रही है। एक शाखा की उसने कहा, मैं कुछ भी न करता रहा। आज रात सांझ को जब | | जगह चार अंकुर निकल आते हैं। आप क्रोध काटें अहंकार को यहां आकर खड़ा हुआ, तारों से आकाश भरा था, दूर तक अनंत | | बिना काटे, और आप पाएंगे कि क्रोध चार दिशाओं में निकलना रहस्य; मेरा मन समर्पित होने का हो गया। मैंने आंख बंद करके | | शुरू हो गया। आप लोभ काटें बिना अहंकार को काटे, और आप
अपने को छोड़ दिया इस विराट के साथ। फिर मुझे पता नहीं क्या | पाएंगे, लोभ ने पच्चीस नए मार्ग खोज लिए! हुआ। करवाया होगा उसने, मैंने कुछ किया नहीं है।
अज्ञानरूपी तपश्चर्या शाखाओं से उलझती रहती है और मूल यह हुआ ज्ञानरूपी तप—समर्पित तपश्चर्या, सरेंडर्ड एटिटयूड।। | को पानी देती रहती है। अहंकार की जड़ को पानी डालती रहती है फिर जो हो जाए। फिर उसकी मर्जी।
और अहंकार से पैदा हुई शाखाओं को काटती रहती है। शाखाएं जीसस सूली लटकाए जा रहे हैं। एक क्षण को उनके मुंह से ऐसा फैलती चली जाती हैं। अहंकार की जड़ मजबूत होती चली है। निकला कि हे परमात्मा! यह क्या दिखला रहा है? क्या तूने मुझे | ज्ञानरूपी तपश्चर्या पत्तों से नहीं लड़ती, शाखाओं से नहीं छोड़ दिया? फिर एक क्षण बाद ही उन्होंने कहा, माफ कर। कैसी लड़ती, मूल जड़ को काट देती है। वह अनन्य भाव से अपने को बात मैंने कही! तेरी मर्जी पूरी हो। दाई विल बी डन। तेरी मर्जी पूरी | | समर्पित कर देती है। वह कह देती है, परमात्मा, तू ही सम्हाल। अब हो। फिर हाथ पर खीलियां ठोंक दी गईं; गर्दन सूली पर लटक गई| न क्रोध मेरा, न क्षमा मेरी। अब न सुख मेरा, न दुख मेरा। अब न लेकिन फिर जीसस, तेरी मर्जी पूरी हो, उसी भाव में हैं। जीसस की | | जीवन मेरा, न मृत्यु मेरी। अब तू ही सम्हाल। अब तू ही जो करे, यह सूली ज्ञानरूपी तपश्चर्या हो गई। समर्पित, तेरी मर्जी पूरी हो। कर। अब न मैं छोडूंगा, न पकडूंगा। अब न मैं भागूंगा; न मैं राग
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गीता दर्शन भाग-2
करूंगा, न विराग करूंगा। अब तू जो करवाए, मैं राजी हूं। इस राजीपन का नाम, इस एक्सेप्टेबिलिटी का नाम समर्पण है। इस समर्पण से सब शुद्ध हो जाता है, क्योंकि जड़ कट जाती है। जहां अहंकार नहीं, वहां अपवित्रता नहीं। और जहां अहंकार है, वहां अपवित्रता होगी ही। उसके रूप कुछ भी हो सकते हैं। और धार्मिक अपवित्रता अधार्मिक अपवित्रता से बदतर होती है।
साधारण अहंकार से तपस्वी अहंकार ज्यादा खतरनाक होता है। साधारण आदमियों के क्रोध से दुर्वासा के क्रोध की हम क्या तुलना कर सकते हैं? दुर्वासा के क्रोध की बात ही और है; वह क्रोध चरम | ऐसा साधारण आदमी ऐसा क्रोध नहीं कर सकता। क्योंकि साधारण आदमी ने तपश्चर्या से अहंकार को इतना पानी भी नहीं दिया है कि इतना क्रोध कर सके।
अज्ञानरूपी तपश्चर्या प्राणों को और अशुद्ध कर जाती है । ज्ञानरूपी तपश्चर्या शुद्ध कर जाती है।
शेष, संध्या हम बात करेंगे।
अभी आप रुकेंगे। एक पांच-सात मिनट एक समर्पित कीर्तन में सम्मिलित हों।
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अध्याय 4 चौथा प्रवचन
परमात्मा के स्वर
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गीता दर्शन भाग-2
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् । मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः । । ११ । । हे अर्जुन! जो मेरे को जैसे भजते हैं, मैं भी उनको वैसे हीं भजता हूं। इस रहस्य को जानकर ही बुद्धिमान मनुष्यगण सब प्रकार से मेरे मार्ग के अनुसार बर्तते हैं।
य
वचन बहुत अदभुत है। कृष्ण कहते हैं, जो मुझे जिस भांति भजते हैं, मैं भी उन्हें उसी भांति भजता हूं। और बुद्धिमान पुरुष इस बात को जानकर इस भांति बर्तते हैं।
भगवान भजता है! इस सूत्र में एक गहरे आध्यात्मिक रिजोनेंस की, एक आध्यात्मिक प्रतिसंवाद की घोषणा की गई है। संगीतज्ञ जानते हैं कि अगर एक सूने एकांत कमरे में कोई कुशल संगीतज्ञ एक वीणा को बजाए और दूसरे कोने में एक वीणा रख दी जाए - खाली, अकेली । कमरे में गूंजने लगे आवाजें एक बजती हुई वीणा की, तो कुशल संगीतज्ञ उस शांत पड़ी हुई वीणा के तारों को भी झंकृत कर देता है; रिजोनेंस पैदा हो जाता है। वह जो खाली पड़ी वीणा है, जिसे कोई भी नहीं छू रहा है, वह भी उस गूंजते संगीत से गुंजायमान हो जाती है। वह भी गूंजने लगती है; उससे भी संगीत का स्फुरण होने लगता है।
परमात्मा भी रिजोनेंस है; प्रतिध्वनि देता है। जैसे हम होते हैं, ठीक वैसी प्रतिध्वनि परमात्मा भी हमें देता है। हमारे चारों ओर वही मौजूद है। हमारे भीतर जो फलित होता है, तत्काल उसमें प्रतिबिंबित हो जाता है; वह दर्पण की भांति हमें लौटा देता है, हमारे प्रतिबिंबों को ।
कृष्ण कहते हैं, जो मुझे जिस भांति भजता है, उसी भांति मैं भी उसे भजता हूं। जो जिस भांति मेरे दर्पण के समक्ष आ जाता है, वैसी ही तस्वीर उस तक लौट जाती है।
परमात्मा कोई मृत वस्तु नहीं है, जीवंत सत्य है। परमात्मा कोई बहरा अस्तित्व नहीं है, कोई डंब एक्झिस्टेंस नहीं है, परमात्मा हृदयपूर्ण है। परमात्मा भी प्राणों के स्पंदन से भरा हुआ अस्तित्व है । और जब हमारे प्राणों में कोई प्रार्थना उठती है और हम परमात्मा की तरफ बहने शुरू होते हैं, तो आप मत सोचना कि यात्रा एक तरफ से होती है। यात्रा दोहरी है। जब आप एक कदम उठाते हैं परमात्मा की तरफ, तब परमात्मा भी आपकी तरफ कदम उठाता है।
यह हमें साधारणतः दिखाई नहीं पड़ता । यह साधारणतः हमारे खयाल में नहीं आता। यह खयाल में हमारे इसीलिए नहीं आता कि हम जीवन की क्षुद्रता में इस भांति उलझे हुए हैं कि उसकी गहरी प्रतिध्वनियों को पकड़ने की क्षमता खो देते हैं। हम इतने शोरगुल में डूबे हुए हैं कि वह जो धीमी-धीमी आवाजें अस्तित्व हमारे पास पहुंचाता है, वे हमें सुनाई नहीं पड़तीं। बहुत स्टिल स्माल वाइस, बड़ी छोटी आवाज है। बड़ी बारीक, महीन आवाज में ध्वनियां हम तक लौटती हैं, लेकिन हमें सुनाई नहीं पड़तीं। हम इतने उलझे होते हैं।
कभी खयाल किया हो; आप अपने कमरे में बैठे हैं, खयाल करें, तो पता चलता है कि बाहर वृक्ष पर चिड़िया आवाज कर रही | है। खयाल न करें, तो वह आवाज करती रहती है, आपको कभी पता नहीं चलता। रात के सन्नाटे से गुजर रहे हैं, अपने विचारों में खोए हुए हैं। पता नहीं चलता है कि बाहर झींगुर की आवाज है। होश में आ जाएं, चौंककर जरा रुक जाएं; सुनें, तो पता चलता है कि विराट सन्नाटा आवाज कर रहा है।
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ठीक ऐसे ही परमात्मा प्रतिपल हमें प्रतिध्वनित करता है, लेकिन झींगुर की आवाज से भी सूक्ष्म है आवाज सन्नाटे की आवाज से भी बारीक है। पक्षियों की चहचहाहट से भी नाजुक है। बहुत चुप | होकर, मौन होकर जो उसे पकड़ेगा, वही पकड़ पाता है।
गहरे मौन में, कृष्ण जो कहते हैं, उसका निश्चित ही पता चलता है। यहां उठती है एक ध्वनि, चारों ओर से उसकी प्रतिध्वनि लौट आती है और उसकी हमारे ऊपर वर्षा हो जाती है।
मैं एक पहाड़ पर था। कुछ मित्रों के साथ था। उस पहाड़ पर एक | जगह थी इकोप्वाइंट। वहां जाकर आवाज करते, तो पहाड़ियों की घाटियां सात बार उस आवाज को लौटा देतीं।
एक मित्र साथ थे, उन्होंने कुत्ते की आवाज में चिल्लाना शुरू | किया। पहाड़ चारों तरफ से कुत्ते की आवाज लौटाने लगे। वे खेल में ही कर रहे थे; पर खेल भी तो खेल नहीं है। मैंने उनसे पूछा कि तुम्हें और आवाजें करनी भी आती हैं, फिर कुत्ते की आवाज ही क्यों कर रहे हो ? उन मित्र ने कोयल की आवाज करनी शुरू की और पहाड़ की घाटियां कोयल की आवाज से गूंज कर हम पर लौटने लगी। मैंने उनसे कहा, पहाड़ वही लौटा देते हैं, जो हम उन तक |पहुंचाते हैं। सात गुना वापस कर देते हैं।
कृष्ण कहते हैं, जो जिस रूप में... ।
जिस रूप में भी हम अपने अस्तित्व के चारों ओर अपने प्राणों
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परमात्मा के स्वर
से प्रतिध्वनियां करते हैं, वे ही हम पर अनंतगुना होकर वापस लौट | नहीं चलता, जब हम जिंदगी को देते हैं अपने सिक्के। हमें पता तभी आती हैं। परमात्मा प्रतिपल हमें वही दे देता है, जो हम उसे चढ़ाते | चलता है, जब सिक्के लौटते हैं। हम जब बीज बोते हैं, तब तो पता हैं। हमारे चढ़ाए हुए फूल हमें वापस मिल जाते हैं। हमारे फेंके गए | | नहीं चलता; जब फल आते हैं, तब पता चलता है। और अगर फल पत्थर भी हमें वापस मिल जाते हैं। हमने गालियां फेंकी, तो वे ही | | विषाक्त आते हैं, जहरीले, तो हम रोते हैं और कोसते हैं। हमें पता हम पर लौट आती हैं। और हमने भजन की ध्वनियां फेंकी, तो वे नहीं कि यह फल हमारे बीजों का ही परिणाम है। ही हम पर बरस जाती हैं।
ध्यान रहे, जो भी हम पर लौटता है, वह हमारा दिया हुआ ही अगर जीवन में दुख हो, तो जानना कि आपने अपने चारों तरफ | लौटता है। हां, लौटने में वक्त लग जाता है। प्रतिध्वनि होने में दुख के स्वर भेजे हैं, वे आप पर लौट आए हैं। अगर जीवन में घृणा समय गिर जाता है। उतने समय के फासले से पहचान मुश्किल हो मिलती हो, तो जानना कि आपने घृणा के स्वर फेंके थे, वे आप पर | जाती है। वापस लौट आए। अगर जीवन में प्रेम न मिलता हो, तो जानना कि इस जगत में किसी भी व्यक्ति के साथ कभी अन्याय नहीं होता। आपने कभी प्रेम की आवाज ही नहीं दी कि आप पर प्रेम वापस | अन्याय नहीं होता, उसी का यह सूत्र है। लौट सके।
कृष्ण कहते हैं, जो जिस रूप में मुझे भजता है, मैं उसी रूप में इस जीवन के महा नियमों में से एक है, हम जो देते हैं, वह हम उसे भजता हूं। पर वापस लौट आता है।
अगर किसी व्यक्ति ने इस जगत को पदार्थ माना, तो उसे यह कृष्ण वही कह रहे हैं। वे कहते हैं, जो जिस रूप में मुझे भजता | | जगत पदार्थ मालूम होने लगेगा। क्योंकि परमात्मा उसी रूप में
लौटा देगा। अगर किसी व्यक्ति ने इस जगत को परमात्मा माना, • जिस रूप में, इस शब्द को ठीक से स्मरण रख लेना। जो जिस तो यह जगत परमात्मा हो जाएगा। क्योंकि यह अस्तित्व उसी रूप रूप में मुझे भजता है, मैं भी उसे उसी रूप में भजता हूं। मैं उसे वही | में लौटा देगा, जो हमने दिया था। लौटा देता हूं, इन दि सेम क्वाइन।
__हमारा हृदय ही अंततः हम सारे जगत में पढ़ लेते हैं। और हमारे वह कहानी तो हम सबको पता है। सभी को पता होगा। एक | | हृदय में छिपे हुए स्वर ही अंततः हमें सारे जगत में सुनाई पड़ने आदमी पर अदालत में मुकदमा चला। वकील ने उससे कहा कि तू | | लगते हैं। चांद-तारे उसी को लौटाते हैं, जो हमारे हृदय के किसी बोलना ही मत। तू तो इस तरह की आवाजें करना कि पता चले, | कोने में पैदा हुआ था। लेकिन अपने हृदय में जो नहीं पहचानता, गूंगा है। जब मजिस्ट्रेट पूछे, तभी तू गूंगे की तरह आवाजें करना। | लौटते वक्त बहुत चकित होता है, बहुत हैरान होता है कि यह कहां कहना, आ आ आ। कुछ भी करना, लेकिन बोलना मत। से आ गया? इतनी घृणा मुझे कहां से आई? इतने लोगों ने मुझे
अदालत में वही किया। फिर मुकदमा जीत गया। वह आदमी | | घृणा क्यों की? लौटे, खोजे, और वह पाएगा कि घृणा ही उसने बोल ही नहीं सकता था और उस पर जुर्म था कि उसने गालियां दीं, | भेजी थी। वही वापस लौट आई है। अपमान किया; यह किया, वह किया। मजिस्ट्रेट ने कहा, जो इसका एक अर्थ और खयाल में ले लें। जिस रूप में भजता है, आदमी बोल ही नहीं सकता, वह गालियां कैसे देगा, अपमान कैसे | इसका एक अर्थ मैंने कहा। इसका एक अर्थ और खयाल में ले लें। करेगा! वह छूट गया। बाहर आकर वकील ने कहा, मुकदमा जीत अगर कोई न भजता हो, किसी भी रूप में न भजता हो परमात्मा गए। अब मेरी फीस चका दो। उस आदमी ने कहा. आ आ आ। को. तो परमात्मा क्या लौटा देता है? अगर कोई भजता ही नहीं इन दि सेम क्वाइन। उसने उसी सिक्के में वापस फीस भी चका दी। परमात्मा को, तो परमात्मा भी न भजने को ही लौटाता है। अगर उस वकील ने कहा, बंद करो यह बात। यह अदालत के लिए कहा | कोई व्यक्ति जीवन से किसी भी तरह के संवाद नहीं करता, तो था। उस आदमी ने कहा, आ आ आ। उसने कहा, कुछ समझ | जीवन भी उसके प्रति मौन हो जाता है; जड़ पत्थर की तरह हो जाता आता नहीं कि आप क्या कह रहे हैं? हाथ से इशारा किया, आंख | है। सब तरफ पथरीला हो जाता है। जिंदगी में जिंदगी आती है हमारे से इशारा किया।
| जिंदा होने से। इसलिए जिंदा आदमी के पास पत्थर भी जिंदा होता जिंदगी भी उसी सिक्के में हमें लौटा देती है। हमें तब तो पता है और मरे हुए, मुर्दा तरह के आदमी के पास, जिंदा आदमी भी
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गीता दर्शन भाग-20
मुर्दा हो जाता है।
की बात करते हैं। ईश्वर कहां है? एक कवि के संबंध में मैं सुनता हूं कि वह अगर अपने जूते भी। मैं उनकी आंखों में देखता हूं, तो मुझे पता लगता है, उनकी पहनता. तो इस भांति. जैसे जते जीवित हों। अगर वह अपने आंखें पथरीली हैं। उन्हें ईश्वर कहीं भी दिखाई नहीं पड़ता। उसका सूटकेस को बंद करता, तो इस भांति, जैसे सूटकेस में प्राण हों। मैं | कारण यह नहीं है कि ईश्वर नहीं है। उसका कारण यह है कि उनके उसका जीवन पढ़ रहा था। उसका जीवन लिखने वालों ने लिखा है पास पत्थर की आंखें हैं। पत्थर की आंखों में ईश्वर दिखाई पड़ना कि हम सब समझते थे, वह पागल है। हम सब समझते थे, उसका मुश्किल है। उनकी आंखों में देखने की क्षमता ही नहीं मालूम दिमाग खराब है। वह दरवाजा भी खोलता, तो इतने आहिस्ते से कि पड़ती; उनकी आंखों में कुछ नहीं दिखाई पड़ता। दरवाजे को चोट न लग जाए। वह कपड़े भी बदलता, तो इतने प्रेम हां, उनकी आंखों में कुछ चीजें दिखाई पड़ती हैं; वे उन्हें मिल से कि कपड़ों का भी अपना अस्तित्व है, अपना जीवन है। | जाती हैं। धन दिखाई पड़ता है, उन्हें मिल जाता है। यश दिखाई पड़ता
निश्चित ही पागल था, हम तो व्यक्तियों के साथ भी ऐसा है, उन्हें मिल जाता है। जो दिखाई पड़ता है, वह मिल जाता है। जो व्यवहार नहीं करते कि वे जीवित हैं। आपने कभी अपने नौकर को नहीं दिखाई पड़ता है, वह कैसे मिलेगा? हम जितना परमात्मा को इस तरह देखा कि वह आदमी है ? नहीं देखते हैं। चारों तरफ जीवन उघाड़ना चाहें, उतना उघाड़ सकते हैं। लेकिन परमात्मा को उघाड़ने है, उसको भी हम मुर्दे की तरह देखते हैं; लेकिन वह कवि, जिन्हें के पहले, उतना ही हमें स्वयं भी उघड़ना पड़ेगा। हम साधारणतया मर्दा चीजें कहते हैं, उन्हें भी जीवन की तरह प्रार्थना. कृष्ण कहते हैं. भजन. भजना यह अपनी तरफ से देखता। मित्र समझते कि पागल है। लेकिन अंत में मित्रों ने जब परमात्मा के लिए पुकार भेजना है। और जब भी कोई हृदयपूर्वक जीवन उसका उठाकर देखा, तो उन्होंने कहा कि अगर वह पागल प्रार्थना से भर जाता है, तो आमतौर से हमें पता नहीं है कि प्रार्थना था, तो भी ठीक था। और अगर हम समझदार हैं, तो भी गलत हैं। का असली क्षण वह नहीं है जब आप प्रार्थना करते हैं। प्रार्थना का क्योंकि उसकी जिंदगी में दुख का पता ही नहीं है। पूरी जिंदगी में | | असली क्षण तब शुरू होता है, जब आपकी प्रार्थना पूरी हो जाती वह कभी दुखी नहीं हुआ।
है और आप प्रतीक्षा करते हैं। यह तो बाद में पता चला कि उस आदमी की जिंदगी में दुख की प्रार्थना के दो हिस्से हैं, ध्यान रखें। एक ही हिस्सा प्रचलित है। एक भी घटना नहीं है। उस आदमी को कभी किसी ने उदास नहीं दूसरे का हमें पता ही नहीं रहा है। और दूसरे का जिसे पता देखा। उस आदमी को कभी किसी ने रोते नहीं देखा। उस आदमी | | उसे प्रार्थना का ही पता नहीं है। की आंखों से आंसू नहीं बहे।
आपने प्रार्थना की, वह तो एकतरफा बात हुई। प्रार्थना के बाद पूरी जिंदगी इतने आनंद की जिंदगी कैसे हो सकी? जब उससे | | अब मंदिर से भाग मत जाएं। अब प्रार्थना के बाद मस्जिद को छोड़ किसी ने पूछा, तो उसने कहा, मुझे पता नहीं। लेकिन एक बात मैं | | मत दें। अब प्रार्थना के बाद गिरजे से निकल मत जाएं, एकदम जानता हूं। मैंने अगर पत्थर को भी छुआ, तो इतने प्रेम से कि जैसे | दुकान की तरफ। अगर पांच क्षण प्रार्थना की है, तो दस क्षण वह परमात्मा हो। बस, इसके सिवाय मेरी जिंदगी का कोई राज नहीं रुककर प्रतीक्षा भी करें। उस प्रार्थना को लौटने दें। वह प्रार्थना आप है। फिर मुझे सब तरफ से आनंद ही लौटा है।
| तक लौटेगी। और अगर नहीं लौटती है, तो समझना कि आपको जिस रूप में हम अस्तित्व के साथ व्यवहार करते हैं, वही | | प्रार्थना करने का ही कुछ पता नहीं। आपने प्रार्थना की ही नहीं है। व्यवहार हम तक लौट आता है। परमात्मा भी प्रतिपल रिस्पांडिंग। लेकिन आदमी प्रार्थना किया, और भागा! वह प्रतीक्षा तो करता है, प्रतिसंवादित होता है। बारीक है उसकी वीणा और स्वर हैं ही नहीं कि परमात्मा को पुकारा था, तो उसे पुकार का जवाब भी महीन: लेकिन प्रतिपल, जरा-सा हमारा कंपन उसे भी कंपा जाता | तो दे देने दो। जवाब निरंतर उपलब्ध होते हैं। कभी भी कोई प्रश्न है। जिस भांति हम कंपते हैं, उसी भांति वह कंपता है। अंततः जो | | खाली नहीं गया। और कभी कोई पुकार खाली नहीं गई। लेकिन हम हैं, वही हमारी जिंदगी में हमें उपलब्ध होता है।
की गई हो तब। अगर सिर्फ शब्द दोहराए गए हों, अगर सिर्फ इसलिए अगर एक आदमी कहता हो कि मुझे कहीं ईश्वर नहीं कंठस्थ शब्दों को दोहराकर कोई क्रिया पूरी की गई हो और आदमी मिला...मेरे पास लोग आते हैं; वे कहते हैं कि ईश्वर? आप ईश्वर वापस लौट गया हो, तो फिर नहीं, फिर नहीं हो सकता।
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परमात्मा के स्वर
आज ही कोई मुझे कह रहा था कि आपके ये संन्यासी सड़कों तरह जलाकर भस्म, राख कर डालना है। जो अपने मैं को जरा भी पर नाचते-गाते निकल रहे हैं, इससे फायदा क्या है? मैंने उनसे | बचाना चाहे, वह परम शक्ति के संपर्क में नहीं आ सकता। जैसे कहा, जाओ, और नाचो, और देखो! उन्होंने कहा, हमें कुछ | सूर्य के पास कोई पहुंचना चाहे, तो भस्म हो ही जाएगा। ऐसे ही फायदा दिखाई नहीं पड़ता। मैंने कहा, बिना नाचे मत कहो। नाचो | | परम शक्ति के पास कोई पहुंचना चाहे, तो स्वयं को मिटाए बिना पूरे हृदय से, फिर प्रतीक्षा करो। फायदे की बड़ी वर्षा हो जाएगी। | कोई रास्ता नहीं है। इसलिए परम साहस है, करेज है।
निश्चित ही फायदा नोटों में नहीं होगा, कि नोट बरस जाएंगे! धार्मिक व्यक्ति ठीक अर्थों में अपने को मिटाने के साहस से ही लेकिन नोटों से भी कीमती कुछ इस पृथ्वी पर है। और जिसके लिए पैदा होता है। इसलिए अधिक धार्मिक लोग इतना साहस तो नहीं नोट सबसे कीमती चीज है; उससे ज्यादा दरिद्र आदमी खोजना | कर पाते हैं। लेकिन फिर भी सूर्य के पास कोई न जा पाए, तो भी मुश्किल है। भिखारी है, भिखमंगा है। उसे कुछ भी पता नहीं है। | अंधेरे में ही रहे, ऐसा जरूरी नहीं है। छोटे मिट्टी के दीए भी जलाए
नाचो प्रभु के सामने और छोड़ दो फिर नाच को उसकी तरफ, | जा सकते हैं। और मिट्टी के छोटे से दीए में जो ज्योति जलती है, फिर लौटेगा। जो नाचकर प्रभु के पास गया है, नाचता हुआ प्रभु वह भी महासूर्यों का ही हिस्सा है। लेकिन वह जलाती नहीं, वह उसके पास भी आता है। जिसने गीत गाकर निवेदन किया है, उसने मिटाती नहीं; वह आपके हाथ में उपयोग की जा सकती है।
और महागीत में गाकर उत्तर भी दिया है। उसका ही आश्वासन देवता परम शक्ति के समक्ष दीयों की तरह हैं, छोटे दीयों की कृष्ण के द्वारा अर्जुन को इस सूत्र में दिया गया है।
तरह हैं। देवता उन आत्माओं का नाम है...इसे थोड़ा-सा समझ लेना जरूरी होगा, तभी यह बात ठीक से खयाल में आ सकेगी।
जैसे ही कोई व्यक्ति मरता है, इस शरीर को छोड़ता है, - कांक्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः।। साधारणतः सौ में निन्यानबे मौकों पर तत्काल ही जन्म हो जाता है।
क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा । । १२ ।। कभी-कभी, यदि व्यक्ति बहुत बुरा रहा हो, तो तत्काल जन्म और जो मेरे को तत्व से नहीं जानते हैं, वे पुरुष, इस मनुष्य मुश्किल होता है; या व्यक्ति बहुत भला रहा हो, तो भी तत्काल लोक में, कमों के फल को चाहते हुए देवताओं को पूजते हैं | | जन्म मुश्किल होता है। बहुत भले व्यक्ति के लिए भी गर्भ खोजने और उनके कमों से उत्पन्न हुई सिद्धि भी शीघ्र ही होती है। | में समय लग जाता है। वैसा गर्भ उपलब्ध होना चाहिए। बहुत बुरे
व्यक्ति को भी। मध्य में जो हैं, उन्हें तत्काल गर्भ उपलब्ध हो जाता
है। जो बहुत बुरे व्यक्ति हैं, उन्हें कुछ समय तक प्रतीक्षा करनी पड़ वन के परम सत्य को भी जो नहीं जानते, वे भी जीवन सकती है, करनी पड़ती है; जब तक उनके योग्य उतना बुरा गर्भ UII की बहुत-सी शुभ शक्तियों से लाभान्वित हो सकते | | उपलब्ध न हो सके। ऐसी आत्माओं को प्रेत पारिभाषिक शब्द
हैं। परमात्मा परम शक्ति है, लेकिन शक्ति और छोटे | है-ऐसी प्रतीक्षा कर रही आत्माओं का, जो नई देह को उपलब्ध रूपों में भी बहुत-बहुत मार्गों से प्रकट होती है।
नहीं हो पा रही हैं—बहुत बुरी हैं इसलिए। बहुत भली आत्माएं भी कृष्ण अर्जुन को इस सूत्र में कह रहे हैं कि जो मुझे उपलब्ध हो शीघ्र जन्म को उपलब्ध नहीं हो पातीं। ऐसी प्रतीक्षा करती आत्माओं जाते हैं, जो मेरी देह को उपलब्ध हो जाते हैं, वे जन्म-मरण से मुक्त का नाम देवता है। वह भी पारिभाषिक शब्द है। हो जाते हैं। लेकिन जो मुझे नहीं भी उपलब्ध होते सीधे, जो परम ___ जो सीधे परमात्मा से संबंधित नहीं हो पाते, वे भी चाहें तो
स्रोत से सीधे संबंधित नहीं होते, वे भी देवताओं से, देवताओं से संबंधित हो सकते हैं। बुरी आत्माएं बुरा करने के लिए उनकी पूजा कर, उनकी सन्निधि में आ, शुभ को उपलब्ध होते हैं। | आतर रहती हैं. देह न हो तो भी। अच्छी आत्माएं अच्छा करने के यहां दो-तीन बातें समझ लेने जैसी हैं।
लिए आतुर रहती हैं, देह न हो तब भी। इन आत्माओं का साथ मिल साधारणतः परम शक्ति के संपर्क में आना अति कठिन है। परम | | सकता है। इसका पूरा अलग ही विज्ञान है कि इन आत्माओं का शक्ति के संपर्क में आने के लिए बड़ी छलांग, बड़े साहस की साथ कैसे मिल सके। लेकिन आमंत्रण से, इनवोकेशन से, जरूरत है। परम शक्ति के संपर्क में आने का अर्थ अपने को पूरी निमंत्रण से इन आत्माओं से संबंधित हुआ जा सकता है। समस्त
ऊर्जा से
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गीता दर्शन भाग-2000
यज्ञ आदि शुभ आत्माओं से संबंध स्थापित करने की मनोवैज्ञानिक प्रयास फिर से करवा लेती हैं। प्रक्रियाएं थीं। जिसे दुनिया में ब्लैक मैजिक कहते हैं, उस तरह की ऐसे स्थान हैं, जहां आदमी के मन में शुभ फलित होता है। जिन्हें प्रक्रियाएं बुरी आत्माओं से संबंध स्थापित करने की प्रक्रियाएं थीं। हम तीर्थ कहते थे, उन तीर्थों का कोई और अर्थ नहीं है। जिन स्थानों
कृष्ण कहते हैं, जो सीधा मुझको न भी उपलब्ध हो, वह भी पर भली आत्माओं के संघट की संभावना अनेक-अनेक रास्तों से देवताओं की पूजा और अर्चना से शुभ कर्मों को करता हुआ, शुभ निर्मित की गई है, उन स्थानों पर आदमी जाकर अचानक भला कर्म को उपलब्ध हो सकता है। जो परम सत्य को उपलब्ध न भी हो, कर पाता है, जो उसके वश के बाहर दिखाई पड़ता है। वह भी शुभ को उपलब्ध हो सकता है।
। हम अकेले नहीं हैं। हमारे चारों ओर और बहुत शक्तियां काम दो कारणों से वह शुभ को उपलब्ध होगा। एक तो, जो शुभ की कर रही हैं। जब हम बुरा होना चाहते हैं, तो बुरी शक्तियां हमारे आकांक्षा करता है, वह शुभ कर्म करता है। आकांक्षा का सबूत | साथ खड़ी हो जाती हैं और हमारे हाथों का बल बन जाती हैं। और
और कुछ भी नहीं है सिवाय कर्मों के। हम जो करते हैं, वही गवाही जब हम अच्छा कुछ करना चाहते हैं, तब भी अच्छी शक्तियां हमारे है हमारी आकांक्षाओं की। हमारी डीड, हमारा कर्म ही हमारे प्राणों साथ खड़ी हो जाती हैं और हमारे हाथों का बल बन जाती हैं। की प्यास की खबर है।
तो कृष्ण कह रहे हैं, अच्छा कर्म करते हुए, देवताओं की शुभ कर्मों को करता हुआ।
अर्चना, प्रार्थना, पूजा से, जो व्यक्ति सीधा मुझ तक न भी पहुंचे लेकिन आदमी बहुत कमजोर है और शुभ कर्म भी आदमी | वह भी शुभ को उपलब्ध होता है। अकेला करना चाहे, तो अति कठिन है। वह अपने चारों तरफ व्याप्त जो शुभ की शक्तियां हैं, उनका सहारा ले सकता है। और कई बार जब आप कोई बड़ा शुभ कर्म करते हैं, तो आप खुद भी | प्रश्नः भगवान श्री, पिछली चर्चाओं के संबंध में दो अनुभव करते हैं, जैसे कोई और बड़ी शक्ति भी आपके साथ खड़ी चीजें स्पष्ट करें। दूसरे श्लोक के हिंदी अनुवाद में हो गई। जब आप कोई बहुत बुरा कर्म करते हैं, तब भी आपको | | लिखा गया है कि बहुत काल से इस पृथ्वी पर योग अनुभव होता है कि जैसे आप अकेले नहीं हैं। कोई और बुरी शक्ति | लुप्तप्राय हो गया है, किंतु संस्कृत श्लोक में योगो भी आपके साथ संयुक्त हो गई है।
नष्टः, ऐसा कहा गया है; अर्थात योग करीब-करीब हत्यारों ने अदालतों में बहुत बार बयान दिए हैं, और उनके लोप नहीं, बल्कि योग नष्ट हो गया है। कृपया इसके बयान कभी भी ठीक से नहीं समझे जा सके, क्योंकि अदालतों की बारे में थोड़ा समझाइए। समझ की सीमा है। अदालतों में हत्यारों ने सारी पृथ्वी पर अनेक और आठवें श्लोक के हिंदी अनुवाद में लिखा गया बार यह कहा है कि यह हत्या हमने नहीं की: जैसे हमसे करवा ली है कि साधुओं का उद्धार करने के लिए प्रकट होता गई है। लेकिन अदालत तो इस बात को नहीं मानेगी। मानेगी कि हूं, लेकिन संस्कृत में साधुओं के परित्राण के लिए झूठ है वक्तव्य। झूठ बहुत मौकों पर हो भी सकता है; बहुत मौकों | प्रकट होता हूं, ऐसा कहा गया है। कृपया 'साधुओं पर झूठ नहीं है।
के उद्धार' के स्थान पर 'परित्राण' का अर्थ स्पष्ट करें। जो लोग प्रेतात्म-विज्ञान पर थोड़ा-सा श्रम उठाए हैं, उनको इस बात का अनुभव होना शुरू हुआ है कि बुरी आत्माएं दूसरे व्यक्तियों को कमजोर क्षण में प्रभावित कर लेती हैं।
7 रित्राण का तो वही अर्थ है, जो उद्धार का है। उसमें ऐसे मकान हैं पृथ्वी पर, जिन मकानों में निरंतर हत्या होती रही ५ कोई भेद नहीं है। नष्टप्राय का या योग नष्ट हो गया, है, पीढ़ियों से। और जब उन मकानों के लंबे इतिहास को खोजा इसका लुप्तप्राय अर्थ करना भी गलत नहीं है। असल गया है, तो जानकर बड़ी हैरानी हुई कि हर बार हत्या का क्रम वही | में संस्कृत के 'नष्ट होने का अर्थ, जिस दिन उस शब्द का प्रयोग रहा है, जो पिछली बार हत्या का था। उन घरों में उन आत्माओं का किया गया, उस दिन नष्ट होने की जो परिभाषा थी, उसको ध्यान वास है, जो उस घर में आने वाले नए लोगों से हत्या करवाने का में रखकर करना पड़े।
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परमात्मा के स्वर
इस देश में कभी भी ऐसा नहीं समझा गया कि कोई चीज पूरी असंभव है। सिर्फ चीजें बदलती हैं, नए रूप लेती हैं। कितने ही नए तरह नष्ट हो सकती है। नष्ट होने का इतना ही मतलब होता है कि रूपों में मूलतः वे वही होती हैं, जो थीं। लेकिन उनको फिर पुनः नया वह लुप्त हो गई।
रूप, पुराने रूप में लाने को, पुराने को प्रगट करने के लिए कुछ आज विज्ञान भी इस बात से सहमति देता है। डिस्ट्रक्शन का अर्थ उपाय करना होता है। मिट जाना नहीं, सिर्फ लुप्त हो जाना है। क्योंकि कोई चीज पूरी तरह इसलिए कृष्ण का जो अर्थ है, वह लुप्तप्राय ही है। क्योंकि उस नष्ट हो ही नहीं सकती। एक रेत के छोटे-से कण को भी हम नष्ट | दिन नष्ट का यही अर्थ था। आज हमारे लिए दो अर्थ हैं। अगर हम नहीं कर सकते। हम सिर्फ रूपांतरित कर सकते हैं, लुप्त कर सकते | प्रयोग करते हैं, नष्ट हो गया। जब हम कहते हैं, फलां आदमी मर हैं। किसी और रूप में वह प्रगट हो जाएगा। नष्ट नहीं हो सकता। गया, तो हमारे लिए वही मतलब नहीं होता है, जो कृष्ण के लिए
इस पृथ्वी पर कोई चीज नष्ट नहीं होती और न कोई चीज सृजित था। कृष्ण के लिए तो मरने का इतना ही मतलब होता है कि उस होती है। जब हम कहते हैं, हमने कोई चीज बनाई, तो उसका | | आदमी ने फिर से जन्म ले लिया। हमारे लिए मरने का मतलब होता मतलब यह नहीं होता है कि हमने कोई नई चीज बनाई। उसका है, खतम हो गया; समाप्त हो गया। आगे कोई जन्म हमें दिखाई इतना ही मतलब होता है कि हमने कुछ चीजों को रूपांतरित किया। नहीं पड़ता। हमारी मृत्यु में अगला जन्म नहीं छिपा हुआ है। कृष्ण हमने रूप बदला।
की मृत्यु में भी अगला जन्म छिपा हुआ है। कृष्ण के लिए मृत्यु एक ___ पानी है। गर्म किया, भाप हो गई। पानी नष्ट हो गया। लेकिन द्वार है नए जन्म का; हमारे लिए द्वार है अंत का, समाप्ति का। क्या अर्थ हुआ नष्ट होने का? भाप होकर पानी अब भी है। और उसके आगे फिर कुछ नहीं है; अंधकार है। सब खो गया; सब नष्ट अगर थोड़ी ठंडक दी जाए और बर्फ के टुकड़े छिड़क दिए जाएं, हो गया। तो भाप अभी फिर पानी हो जाए। तो पानी नष्ट हुआ था कि लुप्त इसलिए कृष्ण अगर प्रयोग करें, धर्म मर गया, तो भी हर्जा नहीं हुआ था? '
है। क्योंकि उसका भी मतलब इतना ही होगा कि वह रूपांतरित हो पानी लुप्त हुआ भाप में; रूप बदला। फिर बर्फ छिड़क दी, पानी | गया किसी और जीवन में; कहीं और से छिप गया, कहीं और चला फिर प्रगट हआ। नष्ट नहीं हुआ था। नष्ट होता. तो वापस नहीं गया। लेकिन हम अगर कहें कि धर्म मर गया. तो हमारे लिए लौट सकता था। बहत ठंडा कर दें पानी को. तो बर्फ बन जाएगा। मतलब होगा. समाप्त हो गया: डेड एंड आ गया। पानी फिर नष्ट हो गया। पानी नहीं है अब, बर्फ है अब। लेकिन अंत नहीं आता। कृष्ण की भाषा में कोई शब्द अंतवाची नहीं है। बर्फ को गरमा दें, तो फिर पानी हो जाएगा।
सभी शब्द नए आरंभ के सूचक हैं। मृत्यु नया जन्म है। नष्ट होना इस जगत में, इस अस्तित्व में न तो कोई चीज नष्ट होती और नए रूप में खो जाना है। इसलिए नष्ट का अर्थ लुप्त ही है। और न कोई चीज निर्मित होती है। सिर्फ रूपांतरण होते हैं। इसलिए परित्राणाय का अर्थ भी उद्धार के लिए ही है, परित्राण के लिए ही संस्कृत का जो शब्द है, योग नष्ट हो गया, उसके लिए हिंदी का है। उसमें कुछ भूल नहीं हो गई है। अनुवाद में कोई भूल नहीं है। अनुवाद लुप्तप्राय करना बिलकुल ही ठीक है। ठीक इसलिए है कि अगर आज हिंदी में हम प्रयोग करें, नष्ट हो गया, तो लोग शायद यही समझेंगे कि नष्ट हो गया।
प्रश्नः भगवान श्री, पिछले एक प्रवचन में आपने कहा लेकिन जिस दिन इस नष्ट शब्द का प्रयोग कृष्ण ने किया था, है कि प्रत्येक मनुष्य अपने अच्छे और बुरे कर्मों के उस दिन नष्ट से कोई भी ऐसा नहीं समझता कि नष्ट हो गया। लिए स्वयं जिम्मेवार है, लेकिन आज सुबह की चर्चा क्योंकि उस दिन की समझ ही यही थी कि कुछ भी नष्ट नहीं होता में आपने कहा है कि सब कुछ विराट, ब्रह्म शक्ति के है। सभी चीजें रूपांतरित होती हैं। इसलिए अनुवादक ने ठीक नियमों के आधार पर होता है, तो व्यक्ति स्वयं कर्मों विवेक का उपयोग किया है। उसने लुप्तप्राय कहा। खो गया; नष्ट | के लिए जिम्मेवार कैसे होगा? नहीं हो गया। नष्ट कभी कुछ होता ही नहीं है। डिस्ट्रक्शन असंभव है। विनाश
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गीता दर्शन भाग-2
ब तक व्यक्ति है, तब तक अपने कर्मों के लिए जिम्मेवार है। जब व्यक्ति अपने को विराट में छोड़ देता है, तब जिम्मेवार नहीं है।
ज
इसे ठीक ऐसा समझें कि एक छोटा बच्चा अपने बाप का हाथ पकड़कर रास्ते पर चल रहा है। बच्चा गिर पड़े, बाप जिम्मेवार है। लेकिन लड़के ने बाप का हाथ छोड़ दिया और खुद ही चल रहा है; अब गिर पड़े, तो बाप जिम्मेवार नहीं है।
रिस्पांसिबिलिटी, उत्तरदायित्व आपके अपने ऊपर निर्भर है। अगर आप अहंकार के सहारे जीने की कोशिश में लगे हैं, तो आप अपने प्रत्येक कर्म के लिए जिम्मेवार हैं। बुरा किया है, तो आपने किया है; अच्छा किया है, आपने किया है। क्योंकि आपके प्रत्येक कर्म के पीछे आपके कर्ता का भाव खड़ा है।
लेकिन एक व्यक्ति ने समर्पण किया है सब विराट को । उसने कहा, जो तेरी मर्जी । बुरा करवाए, तो तू। अच्छा करवाए, तो तू । अगर उसने मंदिर बनाया और गांव में जाकर कहे कि मंदिर मैंने बनाया। और कल चोरी में पकड़ा जाए और कहे कि चोरी परमात्मा ने करवाई, तब फिर उस आदमी ने छोड़ा नहीं। तब फिर वह बेईमानी कर रहा है, अपने साथ भी और परमात्मा के साथ भी ।
नहीं, तब वह कहेगा कि परमात्मा ने मंदिर बनवाया, मैं कौन हूं! और तब वह कहेगा, परमात्मा ने चोरी कराई, मैं कौन हूं! और अगर अदालत उसे सजा दे दे, तो वह कहेगा, परमात्मा ने सजा दी। मैं कौन हूं!
तब फिर कठिनाई नहीं है। जब तक व्यक्ति कर्ता के भाव से जीता है, तब तक सारी जिम्मेवारी उसकी है। इसलिए है कि वह खुद अपने हाथ से जिम्मेवारी ले रहा है।
उसकी हालत करीब-करीब ऐसी है कि मैंने सुना है, एक फकीर एक ट्रेन में सवार हुआ। बैठा है सीट पर, लेकिन अपना बिस्तर अपने सिर पर रखे रहा। पास-पड़ोस के लोगों ने जरा चौंककर देखा । फिर किसी ने कहा कि महाशय ! बिस्तर नीचे आराम से रखें। आप यह क्या कर रहे हैं? उस फकीर ने कहा, लेकिन टिकट मैंने सिर्फ अपने लिए दिया, तो बिस्तर का बोझ ट्रेन पर डालना ठीक नहीं है। मैं अपने ही ऊपर बोझ रखे हुए हूं। लेकिन लोगों ने कहा कि महाशय, आप अपने सिर पर भी रखें, तब भी कोई फर्क नहीं पड़ता, ट्रेन पर बोझ पड़ ही रहा है। आप नीचे रखें कि सिर पर रखें। हां, सिर पर रखकर आप भर परेशान हो रहे हैं। ट्रेन पर कोई अंतर नहीं पड़ रहा है इससे ।
वह फकीर हंसने लगा, उसने कहा कि मैं तो सोचा कि अज्ञानी हैं यहां, इसलिए सिर पर रखूं। मुझे क्या पता कि इस कमरे में ज्ञानी हैं! उसने बिस्तर नीचे रख दिया। लोग और हैरान
हुए। उन्होंने | कहा, हम तुम्हारा मतलब न समझे ! उस आदमी ने कहा, मैं तो यह सोचकर कि तुम सब सारी जिंदगी का भार अपने ऊपर रखते होओगे, ऐसे सब भार परमात्मा पर है! लेकिन मकान बनाओगे तो | कहोगे, मैंने बनाया । बोझ तुम अपने ऊपर रखोगे । इसीलिए मैं बिस्तर अपने सिर पर रखकर बैठा कि तुम्हारे बीच यही संगत | होगा। लेकिन तुम बड़े ज्ञानी हो; अच्छा हुआ ।
इस फकीर ने हम सब की मजाक की, गहरी मजाक की और हृदय के गहरे घाव को की कोशिश की।
जब हम जिम्मेवार हैं, तब भी वस्तुतः तो परमात्मा ही जिम्मेवार है। लेकिन वस्तुतः का कोई सवाल नहीं है। तब तक हम अपने सिर पर बोझा रखने का कष्ट तो भोगेंगे ही। ट्रेन भला ही पूरे बोझ को ढोती हो, लेकिन जो आदमी पेटी अपने सिर पर रखे हुए है, वह तो | वजन ढोएगा ही; तकलीफ भोगेगा ही ! और सिर पर से पेटी गिर पड़े, तो हाथ-पैर उसका टूटेगा ही। इस बात के होते हुए भी कि ट्रेन पूरा बोझ ढो रही है।
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विराट सब चीजों के लिए जिम्मेवार है। लेकिन ध्यान रहे, विराट से समझौता नहीं हो सकता। आप ऐसा नहीं कह सकते कि कुछ के लिए मैं जिम्मेवार, कुछ के लिए तुम जिम्मेवार । जब बुरा हो, तो तुम जिम्मेवार; जब भला हो, तो मैं जिम्मेवार। वैसा नहीं चलेगा।
तो सब छोड़ दो विराट पर, या फिर सब अपने ही ऊपर रखना पड़ता है। अहंकारी सब अपने ऊपर रखकर चलता है। अधार्मिक सब अपने ऊपर रखकर चलता है। धार्मिक सब उस पर छोड़ देता है। लेकिन सब - टोटल । इसमें रत्तीभर बचाया नहीं जा सकता।
तो दोनों ही बातें दो तलों पर सही हैं। जहां तक आम आदमी का | संबंध है, वह हर चीज के लिए खुद ही जिम्मेवार होता है। और | इसलिए जिम्मेवारी का दुख भोगता है । जिम्मेवारी में दुख है, पीड़ा है, संताप है।
जो जानता है, वह सब छोड़ देता है प्रभु पर। फिर वह दुख नहीं भोगता । फिर वह स्वतंत्रता का सुख भोगता है। फिर वह सब दायित्वों से मुक्त होकर, फूल की तरह हल्का-फुल्का हो जाता है। फिर वह पक्षियों की तरह गीत गा सकता है और नदियों और झरनों | की तरह दौड़ सकता है और नाच सकता है। फिर उसकी जिंदगी किसी भी बोझ से दबी हुई नहीं है।
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ॐ परमात्मा के स्वर
और ध्यान रहे, बड़े मजे की बात है यह कि जो व्यक्ति जितना | | पर तीर रख जाएगा और वे मर जाएंगे। तू फिक्र न कर, तू सिर्फ परमात्मा पर छोड़ देता है, उतना ही बुरा कर्म मुश्किल हो जाता है। | उसके हाथ में निमित्त मात्र हो जा।
कर्म के लिए अहंकार का होना जरूरी है। जो व्यक्ति | लेकिन उसकी समझ में नहीं आ रहा है। वह कर्ता है। और जो जितना परमात्मा पर छोड़ देता है, उतना ही बुरा कर्म मुश्किल हो कर्ता है, वह निमित्त मात्र कैसे हो जाए? जिसे खयाल है, मैं करने जाता है। जो पूरा परमात्मा पर छोड़ देता है, उससे बुरा कर्म हो ही | वाला हूं, वह किसी के हाथ का माध्यम कैसे बन जाए? नहीं सकता। क्योंकि बुरे कर्म के लिए अहंकार अनिवार्य शर्त है। वह कबीर की तरह अर्जुन नहीं हो सकता। कबीर कहते हैं कि
और जो व्यक्ति जितने अहंकार से भरा होता है, उससे शुभ कर्म हो | | यह बांसुरी मैं बजा रहा हूं, इसमें मैं बांसुरी हूं, बांस की पोंगरी, स्वर नहीं सकता। क्योंकि अहंकार शुभ कर्म के लिए अनिवार्य बाधा है। | मेरे नहीं हैं। स्वर उसके हैं, परमात्मा के हैं। इसलिए अगर गीत के
इसलिए खुद पर जिम्मा लिया हुआ आदमी, पाप की गठरी को | | लिए कोई धन्यवाद देना हो, तो उसी को दे देना। मेरा कोई हाथ नहीं सिर पर बढ़ाता ही चला जाता है। असल में गठरी सिर्फ पाप की | | है। मैं तो सिर्फ बांस की पोंगरी हूं, जिसमें से स्वर उसके बहते हैं। होती है। पुण्य की गठरी, ऐसा शब्द आपने सुना नहीं होगा। पुण्य कृष्ण पूरी गीता में अर्जुन को कह रहे हैं, तू बांस की पोंगरी हो की कोई गठरी होती नहीं। पुण्य आया कि गठरी वगैरह से मुक्ति | जा। स्वर उसके बहने दे। तू यह मत सोच कि तू गा रहा है। तू बीच हो जाती है, सिर खाली हो जाता है। पाप की ही गठरी होती है, | में मत आ। तू हट जा। तू निमित्त हो जा। वही उसकी समझ में नहीं उसका ही बोझ और बर्डन होता है। पुण्य का कोई बोझ नहीं होता। आ रहा है।
जो व्यक्ति सब परमात्मा पर छोड़ देता है, वह हवा-पानी की ___ जब ये दो बातें मैं कहता हूं कि व्यक्ति जिम्मेवार है अपने प्रत्येक तरह सरल हो जाता है। फिर जो होता है, होता है। उसके लिए फिर | | कर्म के लिए, तो मेरा मतलब है, जब तक आपका अहंकार है, जब कोई कठिनाई नहीं है। कोई बोझ नहीं, कोई दायित्व नहीं; कोई पुण्य | तक व्यक्ति है, तब तक आपको जिम्मेवार होना पड़ेगा। व्यर्थ ही नहीं, कोई पाप नहीं; क्योंकि कोई कर्म नहीं।
आप जिम्मेवार हैं। ट्रेन में चढ़े हैं, गठरी सिर पर रखे हैं। कोई ट्रेन कृष्ण पूरे वक्त अर्जुन को यही समझा रहे हैं। अर्जुन पक्के बोझ | की जिम्मेवारी नहीं है। आप व्यर्थ परेशान हो रहे हैं। लेकिन जैसे से दबा हुआ है। बहुत रिस्पांसिबल आदमी मालूम होता है! बहुत | ही व्यक्ति ने अपने को छोड़ा, समर्पित किया, वैसे ही व्यक्ति दायित्वपूर्ण है। वह कहता है, ये मर जाएंगे, वे मर जाएंगे। जैसे जिम्मेवार नहीं है, विराट ही है। और विराट की कोई जिम्मेवारी नहीं वह बचाएगा, तो वे बच जाएंगे! जैसे वह न मारेगा, तो वे नहीं | | है। क्योंकि विराट किसके प्रति रिस्पांसिबल होगा? किसके प्रति मरेंगे। वह कुछ ऐसा अनुभव कर रहा है कि जैसे वह कोई सारे | | जिम्मेवार होगा? किसी के प्रति नहीं! व्यक्ति को जिम्मेवार होना अस्तित्व का सेंटर है; सब कुछ उसके ऊपर निर्भर है। वह जमाने | | पड़ेगा। विराट को जिम्मेवारी का कोई सवाल नहीं है। इनमें कोई की बातें कर रहा है कृष्ण से, कि इससे तो कुल का नाश हो जाएगा। | विरोध नहीं है। यह दो तलों पर चीजों को देखना है। इससे तो संतति विकृत हो जाएगी। इससे तो भविष्य में सब दो तल हैं। एक अज्ञानी का तल है, अज्ञानी के तल पर समझना अंधकार हो जाएगा। सधवाएं विधवाएं हो जाएंगी। पापाचरण पड़ेगा। एक ज्ञानी का तल है, ज्ञानी के तल पर भी समझना पड़ेगा। बढ़ेगा। वह सब बता रहा है। उसके कारण ! अगर वह युद्ध करेगा! और बहुत बार बड़ी उलझन होती है कि अज्ञानी होता तो अज्ञानी के अगर वह युद्ध से हट जाएगा, तो सब ठीक होगा? तो अब तो तल पर है और ज्ञानी के तल की बातें करने लगता है; तब बड़ी अर्जन कहीं भी नहीं है। लेकिन सब कहीं भी ठीक दिखाई नहीं कठिनाई खड़ी हो जाती है। ऐसा रोज होता है। हमारे देश में तो जरूर पड़ता। अर्जुन का भ्रम यही है कि वह सोच रहा है, सारा जिम्मा | | हुआ है। क्योंकि इस देश में ज्ञान की इतनी बातें थीं कि अज्ञानी भी मेरा है। मैं हूं सारी चीजों के बीच में।
उनको करना सीख गए। वे भी ज्ञान की बातें करने लगे। रहते अज्ञानी __ कृष्ण पूरे समय एक ही बात समझा रहे हैं कि तू अपने को सेंटर | | की तरह हैं, जीते अज्ञानी की तरह हैं, बोझ अज्ञानी का लिए रहते हैं। न मान। तू अपने को केंद्र न मान। तू व्यर्थ की उलझन में मत पड़। । | वक्त पर, मौके पर, ज्ञानी की तरह बातें करने लगते हैं। जो करवा रहा है, जो कर रहा है, उस पर तू छोड़ दे। उसे मारना है, मेरे पड़ोस में एक आदमी मर गया, तो मैं उनके घर गया। तो मारेगा। तेरे बहाने से, किसी और के बहाने से, किसी भी कंधे पास-पड़ोस के लोग इकट्ठे थे। सब समझा रहे थे कि आत्मा तो
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गीता दर्शन भाग-20
अमर है। मैंने सोचा, इस मुहल्ले में इतने ज्ञानी हैं! कहते हैं, आत्मा हैं। एक तल पर बहुत ऊंचा ज्ञान था और दूसरे तल पर हमारा अमर है! रोने की क्या जरूरत है? क्यों दुख मना रहे हैं? कोई मरता आदमी बहुत नीचे है। उस ऊंचे तल की बातें उसके कानों में पड़ तो है नहीं; शरीर ही मरता है। मैंने उनके चेहरे गौर से देख लिए कि गई हैं। वह वक्त-वक्त उनका उपयोग करता रहता है। वह कहता कभी जरूरत पड़े सलाह-मशविरे की, तो उनके पास चला जाऊंगा। है, सब संसार माया है। इधर कहता चला जाता है, सब संसार माया
फिर एक दिन पता लगा कि जो सज्जन अगुवा होकर समझाते है, और जिस-जिस चीज को माया कहता है, उसके पीछे जी-जान थे, आत्मा अमर है, उनके घर कोई मर गया। तो मैं भागा हुआ लगाकर दौड़ा भी चला जाता है! ये दो तल। पहुंचा। देखा, तो वे रो रहे हैं। मैं बहुत हैरान हुआ। फिर मैंने कहा, इसलिए मैंने जो बात कही, वह दो तल पर ही समझ लेनी उचित थोड़ी चुप्पी साधकर बैलूं। लेकिन हैरानी और बढ़ी। जिनके घर वे है। जब तक आपको पता है कि आप हो, तब तक समझना कि सब समझाने गए थे, वे लोग समझाने आए हुए थे। और कह रहे थे, | | जिम्मेवारी आपकी है। तब तक ऐसा मत करना कि आप भी बने आत्मा अमर है। काहे के लिए रो रहे हैं?
रहो और जिम्मेवारी परमात्मा पर छोड़ दो। ऐसा नहीं चलेगा। अगर अब ये दो तल की बातें हैं। जो आत्मा को अमर जानते हैं, उनकी जिम्मेवारी परमात्मा पर छोड़नी हो, तो आपको भी अपने को दुनिया बहुत अलग है। लेकिन बात उनकी चुरा ली गई है। और जो | | परमात्मा के चरणों में छोड़ देना पड़ेगा। वह अनिवार्य शर्त है। और आत्मा को मरने वाला मानते हैं, जानते हैं भलीभांति कि मरेगी; मरे | | जब तक आप अपने मैं को न छोड़ पाओ, उसके द्वार पर, तब तक या न मरे, उनका जानना यही है कि मरेगी; उनके पास यह चोरी की | | सारी जिम्मेवारी का बोझ अपने सिर पर रखना। वह ईमानदारी है, बात है। इस बात का वहां बड़ा उपद्रव खड़ा हो जाता है। ज्ञान की | | सिंसियरिटी है। ठीक है फिर। पाप किया है, पुण्य किया है, मैं चर्चा लोग सुनते हैं...।
जिम्मेवार हूं; क्योंकि जो भी किया है, वह मैंने किया है। एक संन्यासी के आश्रम में मैं कुछ दिन मेहमान था। तो वहां वे ___ और अगर ऐसा लगे कि नहीं, सब जिम्मेवारी विराट की है, तो रोज समझाते थे कि आत्मा शुद्ध-बुद्ध है। वह कभी अशुद्ध होती फिर इस मैं को उसके चरणों में रख आना। जिस दिन मैं को उसके ही नहीं। उनके सामने में लोगों को बेठे देखता था। वे कहते, जी चरणों में रख दो, और जिस दिन यह हिम्मत आ जाए कहने की कि महाराज, बिलकुल ठीक कह रहे हैं। मैंने उन लोगों से पूछा अकेले मैंने कुछ भी नहीं किया, सब उसने कराया है। वही है, मैं नहीं हूं।' में कि तुम कहते हो, जी, बिलकुल ठीक कह रहे हैं। वे बोले कि उसका ही फैला हुआ हाथ हूं। फिर उस दिन से आपकी कोई बिलकुल ठीक बात है; आत्मा बिलकुल शुद्ध है।
जिम्मेवारी नहीं है। लेकिन वे जो लोग उनके सामने पगड़ियां बांधकर और कहते लेकिन बड़े मजे की बात है कि उस दिन से आपके जीवन से थे, आत्मा बिलकुल शुद्ध है, वे सब तरह के चोर, सब तरह के बुरा एकदम विलीन हो जाएगा। क्योंकि बुरा घटित नहीं हो सकता ब्लैक मार्केटियर, सब तरह के उपद्रवों में सम्मिलित थे। वे उसी बिना अहंकार के। उस दिन से आपके जीवन में शुभ के फूल ब्लैक मार्केट से वहां मंदिर भी खड़ा करवाते थे। और बैठकर सुनते खिलने शुरू हो जाएंगे; सफेद फूलों से भर जाएगी जिंदगी। क्योंकि थे कि आत्मा शुद्ध-बुद्ध है। सदा शुद्ध है। वह कभी पाप करती ही | जहां अहंकार नहीं है, वहां शुभ्र फूल अपने आप खिलने शुरू हो नहीं; कभी पाप उससे होता ही नहीं। आत्मा ने कभी कुछ किया ही जाते हैं। नहीं। उनके मन को बड़ी राहत और कंसोलेशन मिलता होगा कि अपन ने ब्लैक मार्केट नहीं किया। अपन ने कोई चोरी नहीं की। आत्मा शुद्ध-बुद्ध है, बड़े प्रसन्न घर लौटे। वे प्रसन्न घर लौट रहे चातुर्वर्ण्य मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः। हैं, वे यहां सुनने सिर्फ यही आ रहे हैं कि आत्मा शुद्ध है अर्थात तस्य कर्तारमपि मां विख्यकर्तारमव्ययम् ।। १३ ।। अशुद्ध तो हो ही नहीं सकती। अब कितनी ही अशुद्धि करो, अशुद्ध | तथा हे अर्जुन! गुण और कर्मों के विभाग से ब्राह्मण, क्षत्रिय, होने का कोई डर नहीं है। यह ज्ञान की बात और अज्ञान की दुनिया वैश्य और शूद्र मेरे द्वारा रचे गए हैं। उनके कर्ता को भी, में जाकर बड़ा उपद्रव खड़ा करती है।
मुझ अविनाशी परमेश्वर को, तू अकर्ता ही जान । भारत के नैतिक पतन का कारण यह है, यहां दो तल की बातें
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परमात्मा के स्वर
कष्ण इस श्लोक में कहते हैं, गुण और कर्म के अनुसार | का उपाय नहीं है, जिससे हम गुण-भेद मिटा सकें। हम कितनी ही पा चार वर्ण मैंने ही रचे हैं! एक बात। और तत्काल दूसरी | बड़ी कम्युनिस्टिक सोसायटी को पैदा कर लें, कितना ही साम्यवादी
____बात कहते हैं कि फिर भी, उन्हें निर्माण करने वाले मुझ समाज निर्मित कर लें, गुण-भेद नहीं मिटा पाएंगे। धन को बराबर कर्ता को, तू अकर्ता ही जान।
बांट दें; कपड़े एक से पहना दें; मकान एक से बना दें; गुण भिन्न बहुत मिस्टीरियस, बहुत रहस्यपूर्ण वक्तव्य है। पहले हिस्से को ही होंगे। गुण में अंतर नहीं मिटाया जा सकेगा। कोई उपाय नहीं है। पहले समझ लें, फिर दूसरे हिस्से को समझें।
गुण व्यक्ति की आत्मा का हिस्सा है; बाह्य समाज व्यवस्था का वर्ण की बात ही असामयिक हो गई है। कृष्ण के इस सूत्र को हिस्सा नहीं है गुण। पढ़कर न मालूम कितने लोग बेचैनी अनुभव करते हैं। परमात्मा ने | | इसलिए पहली बात आपसे कहता है कि कृष्ण का यह खयाल रचे हैं वर्ण! कठिनाई मालूम पड़ती है। क्योंकि वर्गों के नाम पर कि यह वर्ण की व्यवस्था मैंने बनाई, यह व्यक्ति के आंतरिक इतनी बेहूदगी हुई है और वर्गों के नाम पर इतना अनाचार हुआ है, गुणधर्म की चर्चा है। इसका सामाजिक व्यवस्था से दूर का संबंध वर्णों की ओट और आड़ में इतना सड़ापन पैदा हुआ है, इतनी | है। गहरे में संबंध व्यक्ति के भीतर के निजी व्यक्तित्व से है,
सड़ांध पैदा हुई है कि भारत का पूरा हृदय ही कैंसर से ग्रस्त अगर इंडिविजुअलिटी से है। हुआ, तो वह वर्णों के सहारे हुआ है।
एक-एक व्यक्ति में गुण का भेद है। और गुण हम जन्म से लेकर - तो आज कोई भी विचारशील व्यक्ति जब इस सूत्र को पढ़ता है, पैदा होते हैं। गुण निर्मित नहीं होते, बिल्ट-इन हैं; पैदाइश के साथ तो थोड़ा या तो बेचैन होता है या जल्दी इसको पढ़कर आगे निकल बंधे हैं। वह जो मां और पिता से जो कण मिलते हैं हमें, हमारे सब जाता है। इस पर ज्यादा रुकता नहीं। ऐसा लगता है कि कुछ ठीक गुण उनमें ही छिपे हैं। नहीं है; आगे बढ़ो। पर मैं इस पर जरा रुकना चाहूं। क्यों? क्योंकि | आइंस्टीन इतनी बुद्धिमत्ता को उपलब्ध होगा, यह उसके पहले जीवन में सत्यों के आधार पर भी असत्य चल जाते हैं। सच तो यह | | अणु में छिपी हुई है। और आज नहीं कल, वैज्ञानिक पहले अणु की है कि असत्य के पास अपने पैर नहीं होते; उसे पैर सदा सत्य से | जांच करके खबर कर सकेंगे कि यह व्यक्ति क्या होगा। वैज्ञानिक ही उधार लेने पड़ते हैं। इसलिए असत्य बोलने वाला बहुत कसमें | तो यहां तक पहुंच गए हैं कि उनका खयाल है, जैसे आज बाजार खाता है कि जो मैं बोल रहा हूं, वह सत्य है। बेईमानी को भी | | में फलों की और फूलों की दुकान पर फूलों के बीजों के पैकेट ईमानदारी के वस्त्र पहनने पड़ते हैं। और दुनिया में जब भी कोई मिलते हैं, और अंदर बीज होते हैं और ऊपर फूल की तस्वीर होती सत्य जीवन-सिद्धांत प्रकट होता है, तो उसका भी दुरुपयोग किया | है, कि इन बीजों को अगर बो दिया, तो ऐसे फूल पैदा हो जाएंगे। गया है, किया जाता रहा है। लेकिन इससे सिद्धांत गलत नहीं होता। वैज्ञानिक कहते हैं, पच्चीस साल के भीतर, इस सदी के पूरे
एटम का विश्लेषण हआ। परिणाम में हिरोशिमा और होते-होते. हम आदमी के जीवाण को भी पैकेट में रखकर दकान नागासाकी का विध्वंस मिला। हिरोशिमा और नागासाकी के कारण पर बेच सकेंगे कि यह जीवाण इस तरह का व्यक्ति बन सकेगा। एटम के विश्लेषण का सिद्धांत गलत नहीं होता। लाख आदमी मर उसकी तस्वीर भी ऊपर दे सकेंगे। इसका मतलब यह हुआ कि वह गए, जलकर राख हो गए। और पीढ़ियों दर पीढ़ियों तक बच्चे | जो पहला अणु है, उसमें सारा बिल्ट-इन, सभी भीतर से निर्मित प्रभावित रहेंगे। पंगु, अपंग, अंधे, लंगड़े, लूले पैदा होंगे। लेकिन गुणों की व्यवस्था है। वह बाद में प्रकट होगी; मौजूद सदा से है। फिर भी अणु के विश्लेषण का सिद्धांत, थिअरी गलत नहीं होती | और उस गुण में बुनियादी भेद है। है। गलत उपयोग हुआ, यह हमारे कारण, सिद्धांत के कारण नहीं।। | | उन भेदों को कृष्ण कहते हैं, चार में मैंने बांटा। मैंने अर्थात प्रभु __ वर्ण के कारण जो-जो हुआ, उसके लिए हम जिम्मेवार हैं, हमने, चार में बांटा। प्रकृति ने, परमात्मा ने, जो भी नाम हम पसंद गलत लोग। उसके लिए वर्ण की वैज्ञानिक चिंतना जिम्मेवार नहीं है। करें, चार मोटे विभाजन किए हैं। और चार मोटे विभाजन हैं। यह
कृष्ण जब कहते हैं, तो वे दो शब्दों का उपयोग करते हैं। वे कहते बहुत संयोग की बात नहीं है कि दुनिया में जब भी जिन लोगों ने हैं, गुण और कर्म के अनुसार मैंने चार वर्ण बनाए। गुण और कर्म! | मनुष्यों के टाइप का विभाजन किया, तो विभाजन हमेशा चार में
व्यक्ति-व्यक्ति में गुणों का भेद है। और दुनिया में कोई समानता किया; चाहे कहीं भी किया हो।
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गीता दर्शन भाग-26
अभी पश्चिम के एक बहुत बड़े विचारक कार्ल गुस्ताव जुंग ने, ये जो ज्ञान की खोज में आतुर लोग हैं, ये ब्राह्मण हैं—गुण से। इस सदी के बड़े से बड़े मनोवैज्ञानिक ने, जब आदमियों के टाइप। दूसरा एक वर्ग है, जो शक्ति का खोजी है। जिसके लिए पावर, बांटे, तो उसने भी चार में बांटे। नाम अलग, लेकिन बांटे चार में शक्ति सब कुछ है; शक्ति का पूजक है। शक्ति मिली, तो सब ही। इसमें कुछ मजबूरी है। चार ही हैं प्रकार, मोटे। फिर तो मिला। वह कहीं से भी जीवन में शक्ति मिल जाए, तो उसी की यात्रा एक-एक व्यक्ति में थोड़े-थोड़े फर्क होते हैं, लेकिन मोटे चार ही में लगा रहेगा। यह जो शक्ति का खोजी है, वह भी एक टाइप है। प्रकार हैं।
| उसे इनकार नहीं किया जा सकता। क्षत्रिय उस गुण का व्यक्ति है। कुछ लोग हैं, जिनके जीवन की ऊर्जा सदा ही ज्ञान की तरफ ___ अर्जुन इसी गुण का व्यक्ति है; कृष्ण ने इसी सिलसिले में यह बहती है; जो जानने को आतुर और पागल हैं। जो जीवन गंवा देंगे, | बात भी कही है। वे उसे यही समझाना चाहते हैं कि तू अपने गुण लेकिन जानने को नहीं छोड़ेंगे।
को पहचान, तू अपनी निजता को पहचान और उसके अनुसार ही अब एक वैज्ञानिक जहर की परीक्षा कर रहा है कि किस-किस आचरण कर, अन्यथा तू मुश्किल में पड़ जाएगा। क्योंकि जब भी जहर से आदमी मर जाता है। अब वह जानता है कि इस जहर को कोई व्यक्ति अपने गुण को छोड़कर दूसरे के गुण की तरह व्यवहार जीभ में रखने से वह मर जाएगा. लेकिन फिर भी वह जानना चाहता करता है. तब बडी अडचन में पड़ जाता है। क्यों
क्योंकि वह वह काम है। हम कहेंगे, पागल है; बिलकुल पागल है! ऐसे जानने की कर रहा है, जो वह कर नहीं सकता। और उस काम को छोड़ रहा जरूरत क्या है?
है, जिसे वह कर सकता था। लेकिन हमारी समझ में न आएगा। वह ब्राह्मण का टाइप है। वह और जीवन का समस्त आनंद इस बात में है कि हम वही पूरी बिना जाने नहीं रह सकता। जीवन लगा दे, लेकिन जानकर रहेगा। | तरह कर पाएं जो करने को नियति, डेस्टिनी, जो करने को प्रभु ने वह जहर को जीभ में रखकर, उस आनंद को पा लेगा, जानने के उत्प्रेरित किया है। अन्यथा जीवन में कभी शांति नहीं मिल सकती, आनंद को, कि हां, इस जहर से आदमी मरता है। हम कहेंगे, इसमें आनंद नहीं मिल सकता। जीवन का आनंद एक ही बात से मिलता कौन-सा फायदा है ? उस आदमी को क्या मिल रहा है? हम समझ है कि जो फूल हममें खिलने को थे, वे खिल जाएं; जो गीत हमसे न पाएंगे। सिर्फ अगर हमारे भीतर कोई ब्राह्मण होगा, तो समझ | | पैदा होने को था, वह पैदा हो जाए। पाएगा, अन्यथा हम न समझ पाएंगे।
लेकिन अगर ब्राह्मण क्षत्रिय बन जाए, तो कठिनाई में पड़ आइंस्टीन को क्या मिल रहा है? सुबह से सांझ तक लगा है जाएगा। क्योंकि शक्ति में उसे कोई रस नहीं है। इसलिए आप देखें प्रयोगशाला में! क्या मिल रहा है? कौन-सा धन? यह सुबह से कि इस देश में ब्राह्मणों को इतना आदर दिया गया, लेकिन ब्राह्मण सांझ तक पागल की तरह ज्ञान की खोज में किसलिए लगा है? ने उतने आदर, सम्मान, सर्वश्रेष्ठ ऊपर होने पर भी कोई शक्ति पाई
नहीं, किसलिए का सवाल नहीं है। अंत का सवाल नहीं है, मूल नहीं। ब्राह्मण भिखारी का भिखारी रहा। उसने कोई शक्ति पाई नहीं। का सवाल है। मूल में गुण उसके पास ब्राह्मण का है। वह जानने वह दीन का दीन ही रहा। वह अपने झोपड़े में बैठकर ब्रह्म की खोज के लिए लगा हुआ है।
करता रहा। आदर उसे बहुत था। सम्राट उसके चरणों पर सिर रखते तो कृष्ण कहते हैं, गुण और कर्म।
थे। राज्य उसके चरणों में लोट सकते थे। लेकिन उसे कोई मतलब गुण भिन्न हैं, चार तरह के गुण हैं; चार तरह के आर्च टाइप हैं। | न रहा। वह अपनी खोज में लगा रहा ब्रह्म की, दूर जंगल में जुंग ने आर्च टाइप शब्द का प्रयोग किया है। चार तरह के मूल | बैठकर। पागल रहा होगा! हम कहेंगे, जब सम्राट ही पैर पर सिर प्रकार हैं। एक-जो ज्ञान की खोज में, जिसकी आत्मा आतुर है। | रखने आया था, तो कुछ तो मांग ही लेना था! जिसकी आत्मा एक तीर है, जो जानने के लिए, बस जानने के | | कणाद के जीवन में कथा है। कणाद ब्राह्मण का टाइप है। नाम लिए, अंतहीन यात्रा करती है।
| ही कणाद पड़ गया इसलिए कि कभी इतना अनाज भी घर में न __ अब जो लोग चांद पर पहुंचे हैं, चांद पर क्या मिल जाएगा? कुछ हुआ कि संग्रह कर सके रोज खेत में कण-कण बीन ले; कणों को बहुत मिलने को नहीं है। लेकिन जानने की उद्दाम वासना! चांद पर | बीनने की वजह से नाम पड़ गया, कणाद। सम्राट को खबर लगी भी नहीं रुकेंगे-और, और, और आगे। कहीं कोई सीमा नहीं है। कि कणाद कण बीन-बीनकर खेतों के खा रहा है। सम्राट ने आज्ञा
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परमात्मा के स्वर
दी कि भरो रथों को धन-धान्य से! चलो कणाद के पास।। कार्नेगी ने कहा कि नाराज क्यों होऊंगा! बिलकुल स्वाभाविक है,
बहुत धन-धान्य को लेकर सम्राट पहुंचा। कणाद के चरणों में | | तू एण्डू कार्नेगी बनना चाहे। उसने कहा, माफ करें। मैं यह नहीं सिर रखा और कहा कि मैं बहुत धन-धान्य ले आया हूं। दुख होता | कह रहा। मैं यह कह रहा हूं कि मैं फिर सेक्रेटरी ही होना चाहूंगा। है कि मेरे राज्य में आप रहें और आप कण बीन-बीनकर खाएं! एण्डू कार्नेगी ने कहा, पागल! तू एण्ड्र कार्नेगी नहीं बनना चाहता? आप जैसा महर्षि और कण बीने खेतों में, तो मेरा अपमान होता है। | उसने कहा, बिलकुल भूलकर नहीं। आपको जब तक नहीं जानता
तो कणाद ने कहा, क्षमा करें! खबर भेज देते; इतना कष्ट क्यों | था, तब तक तो कभी भगवान से प्रार्थना भी कर सकता था; अब किया? मैं तुम्हारा राज्य छोड़कर चला जाऊंगा। सम्राट ने कहा, | कभी नहीं कर सकता। उसने कहा, कारण क्या है? तो उसने कहा आप क्या करते हैं। कैसी बात कहते हैं? आप मेरी बात नहीं समझे! | कि मैंने अपनी डायरी में कारण नोट किया हुआ है। कणाद तो उठकर खड़े हो गए! ज्यादा तो कुछ था नहीं; जो दो-चार उसने अपनी डायरी में लिख छोड़ा था कि हे परमात्मा, भूलकर किताबें थीं, बांधने लगे।
| मुझे कभी एण्डू कार्नेगी मत बनाना। क्योंकि एण्डू कार्नेगी अपने सम्राट ने कहा, आप यह क्या करते हैं? कणाद ने कहा, तेरे दफ्तर में सुबह नौ बजे आता। चपरासी दस बजे आते। क्लर्क साढ़े राज्य की सीमा कहां है, वह बता। मैं सीमा छोड़ बाहर चला जाऊं। दस बजे आते। मैनेजर ग्यारह बजे आता। डायरेक्टर्स एक बजे क्योंकि मेरे कारण तू दुखी हो, तो बड़ा बुरा है। सम्राट ने कहा, यह आते। डायरेक्टर्स तीन बजे चले जाते। चार बजे मैनेजर चला जाता। मेरा मतलब नहीं है। मैं तो सिर्फ यह निवेदन करने आया कि बहुत फिर क्लर्क चले जाते। फिर चपरासी चले जाते। एण्डु कार्नेगी साढ़े धन-धान्य लाया हूं, वह स्वीकार कर लें।
| सात बजे शाम को जाता। मुझे कभी एण्ड कार्नेगी मत बनाना। कणाद ने कहा, उसे तू वापस ले जा! उसे तू वापस ले जा, __ अब यह एण्ड कार्नेगी दस अरब रुपए छोड़कर मरा है। लेकिन क्योंकि उस धन-धान्य की व्यवस्था और सुरक्षा और सुविधा कौन | मालिक नहीं था। मैनेजर भी नहीं था। चपरासी भी नहीं था। चपरासी करेगा? उसकी देख-रेख कौन करेगा? हमें फुर्सत नहीं है; हम | भी दस बजे आता; चपरासी भी साढ़े चार बजे चला जाता। एण्ड्र अपने काम में लगे हैं। थोड़ी-सी फुर्सत मिलती है; सुबह घूमने | कार्नेगी चपरासी से पहले मौजूद है; चपरासी के बाद दफ्तर छोड़ रहे निकलते हैं; उसी में खेत से कुछ दाने बीन लाते हैं, उससे काम | हैं! आखिर यह आदमी मैनेज कर रहा है, किसके लिए? चल जाता है। कोई झंझट हमें है नहीं। तू अपना यह सब वापस ले नहीं, लेकिन इसका भी अपना टाइप है। वह तीसरा टाइप है। जा। इसकी फिक्र कौन करेगा? और हम इसकी फिक्र करेंगे कि हम | वह धन, वैश्य का टाइप है। इसे प्रयोजन नहीं है, न ज्ञान से, न अपनी फिक्र करेंगे, जिस खोज में हम लगे हैं। तू जल्दी कर और | शक्ति से। इसे महाराज्यों से प्रयोजन नहीं है। इसे ब्रह्म से कोई वापस ले जा; और दोबारा इस तरफ मत आना। और अगर आना | | वास्ता नहीं है। इसे ब्रह्मांड से कुछ लेना-देना नहीं है। दूर के तारों हो, तो खबर कर देना। हम राज्य छोड़कर चले जाएंगे। हम कण | | से मतलब नहीं है। पास के रुपए काफी हैं। यह तिजोरी बड़ी करता कहीं भी बीन लेंगे; सभी जगह मिल जाएंगे।
जाए, भरता चला जाए। यह भी इसका टाइप है। यह वैश्य का अब यह जो आदमी है, इसे कण बीनने में सुविधा मालूम पड़ती | टाइप है। धन इसकी आकांक्षा है। है, क्योंकि कोई व्यवस्था नहीं करनी पड़ती है; कोई मैनेजमेंट में चौथा एक शूद्र का टाइप है; श्रम उसकी आकांक्षा है। ऐसा नहीं नाहक समय जाया नहीं करना पड़ता है। नहीं तो बहुत-से मालिक | है, जैसा हम साधारणतः समझाए जाते हैं कि कुछ लोगों को हम घूम-फिरकर मैनेजर ही रह जाते हैं। लगते हैं कि मालिक हैं, होते | मजबूर कर देते हैं श्रम के लिए; ऐसा नहीं है। अगर कुछ लोगों को कुल-जमा मैनेजर हैं।
| श्रम न मिले, तो उनके लिए जीना मुश्किल हो जाए। खाली सभी एण्ड कार्नेगी, अमेरिका का अरबपति मरा, तो उसने अपने लोग नहीं रह सकते। सेक्रेटरी से पूछा-ऐसे ही मजाक में—कि अगर दोबारा जिंदगी | अभी अमेरिका में कठिनाई आनी शुरू हुई है। क्योंकि श्रम का फिर से हम दोनों को मिले, तो तू मेरा फिर से सेक्रेटरी होना चाहेगा| | काम समाप्त होने के करीब है, मशीनें करने लगी हैं। और अमेरिका कि तू एण्डू कार्नेगी होना चाहेगा और मुझको सेक्रेटरी बनाना | | के सब बड़े विचारशील लोग–चाहे जेकस ईलूल हो, और चाहे चाहेगा? उस सेक्रेटरी ने कहा, आप नाराज तो न होंगे? एण्डू कोई और हों—वे सब इस चिंता में पड़े हैं कि दस-पंद्रह साल में
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गीता दर्शन भाग-28
सारा आटोमेटिक इंतजाम हो जाएगा। सब मशीनें काम कर देंगी। बाद आदमी इतना थक जाता है कि सात दिन के विश्राम की जरूरत तो अब सवाल यह है कि लोग काम मांगेंगे, तो हम काम कहां से || | पड़ती है। तो छुट्टी में विश्राम किया आपने? देंगे? और लोग काम मांगेंगे, क्योंकि लोग बिना काम रह नहीं नहीं, छुट्टी में लोग सैकड़ों-हजारों मील कार चलाए, बीच पर सकते। कुछ लोग तो रह ही नहीं सकते बिना काम। | पहुंचे। एक नहीं पहुंचा; नैक टु नैक कारें, एक-दूसरे से फंसी रहीं।
एक दिन मैं ट्रेन में सफर कर रहा था। थका था। किसी गांव से, I लाखों कारें पहुंच गईं। पूरी बस्ती समुद्र के तट पर पहुंच गई। जिस भीड़-भाड़ से लौट रहा था, तो मैंने सोचा कि अब चौबीस घंटे सोए बस्ती से भागे थे, लेकिन पूरी बस्ती भाग रही है, वह पूरी बस्ती ही रहना है। पर एक सज्जन और मेरे कंपार्टमेंट में थे। मैं जैसे ही वहां मौजूद हो गई। इससे तो अच्छा घर रह जाते, तो अब घर में कमरे में आया, मैंने उनकी तरफ देखा नहीं, क्योंकि देखा कि खतरा थोड़ा सन्नाटा रहता। क्योंकि सारी बस्ती बीच पर आ गई। अब सारी शरू हो जाए। वे कछ बातचीत शरू कर दें। मैंने जल्दी से आंख बस्ती बीच पर रही। फिर बीच से भागे। बंद की और मैं सोने लगा। उन्होंने कहा, क्या आप इतनी जल्दी | सारे अमेरिका में छुट्टी के दिन सर्वाधिक दुर्घटनाएं हो रही हैं। सोने लगे? मैंने कहा कि आप समझिए, मैं सो ही गया। मैं तो चादर क्योंकि छुट्टी के दिन लोग बिलकुल शैतानी के काम में लग जाते ओढ़कर सो रहा। घंटा भर, डेढ़ घंटे बाद मैं उठा, तो देखा कि वही हैं। क्या करें? फुर्सत खतरनाक है! जब तक मिली नहीं, तब तक अखबार वे पढ़ रहे थे, जब मैं सोया था। फिर उसको ही पढ़ रहे | आपको पता नहीं। अगर परी फर्सत मिल जाए, तो खतरनाक है। थे, फिर से पहले पेज से शुरू कर दिया था। मुझे देखा, तो उन्होंने | तब आपको पता चलेगा कि श्रम करने वाला भी एक टाइप है, जो जल्दी से अखबार बंद किया। मैंने कहा, आप पढ़िए, मैं तो फिर | बिना श्रम किए नहीं रह सकता। वापस सो जाने वाला हूं।
कृष्ण कहते हैं, ये चार गुण से विभाजित लोग हैं। शायद इन सुबह जब उठा, तब वे फिर कल वाला ही अखबार पढ़ रहे थे! चारों की जरूरत भी है। क्योंकि सारे लोग ज्ञान खोजें, तो जगत न मालूम कितनी बार पढ़ चुके थे! जब मुझे देखा, तो जरा संकोच अस्तित्व में नहीं रह जाए। और सारे लोग शक्ति खोजें, तो सिवाय में उन्होंने अखबार बंद करके रख दिया। मैं करवट लिए पड़ा रहा। | युद्धों के कुछ भी न हो। और सारे लोग धन खोजें, तो आदमी मर कभी वे खिडकी खोलते. कभी सटकेस खोलते, कभी यह चीज जाएं और तिजोरियां बचें। और सारे लोग श्रम करें, तो कोई इधर रखते, कभी वह चीज उधर रखते।
संस्कृति, कोई सभ्यता, कोई कला, कोई विज्ञान, कोई दर्शन, कोई दोपहर होते-होते मैंने देखा कि वे बिलकुल पागल हुए जा रहे हैं। धर्म-कुछ भी न हो। ये चारों कांप्लिमेंट्री हैं। इन चारों के बिना दोपहर को जब मैं खाना खाकर फिर सोने लगा, उन्होंने कहा, क्या | जगत नहीं हो सकता। आप गजब कर रहे हैं। फिर सोइएगा? कछ बातचीत नहीं करिएगा? इसलिए कृष्ण कहते हैं, ये चार, गुण से और कर्म से। मैंने कहा कि आप अपना काम जारी रखिए। मुझे कोई एतराज नहीं । ___ भीतर तो गुण हैं, उन गुणों से जुड़े हुए संयुक्त कर्म हैं। गुण ही है। आप बार-बार खिड़की खोलिए, बंद करिए! सूटकेस दबाइए, बाहर प्रगट होकर कर्म बन जाते हैं। भीतर जिनका नाम गुण है, उठाइए। जो आपको करना है। आप उसी अखबार को हजार दफे बाहर उनका नाम कर्म है। जब बीज में होते हैं, तो उनका नाम गुण पढ़िए, मुझे कोई एतराज नहीं है। आप मुझे भूलिए। मैं नहीं हूं। वे है; और जब प्रकट होकर संबंधित होते हैं, तो उनका नाम कर्म हो बोले, आपने खयाल कर लिया क्या? मैं डर रहा था कि आप क्या | जाता है सोचेंगे कि यह आदमी क्यों बार-बार खिड़की खोलता बंद करता है! गुण-कर्म से मैंने चार में बांटा, कृष्ण कहते हैं। लेकिन मैं क्या करूं, मैं खाली बहुत मुसीबत में हूं।
यह चार का विभाजन, कृष्ण की दृष्टि में ऊंचे-नीचे का विभाजन अब यह भी एक टाइप है, जो बिना काम के जी नहीं सकता। नहीं है। कृष्ण की दृष्टि में इसमें कोई हायरेरकी नहीं है। इसमें कोई
आज अमेरिका में दो दिन की छुट्टी हो गई है सप्ताह में, तो आप ऊपर और कोई नीचे नहीं है। ये चार जीवन के, शरीर के, चार अंग जानकर हैरान होंगे कि अमेरिका में एक कहावत है कि दो दिन की हैं, समान मूल्य के। एक के भी बिना तीन नहीं हो सकते। छुट्टी के बाद आदमी इतना थक जाता है कि एक सप्ताह विश्राम की विकृति उस दिन आनी शुरू हुई, जिस दिन हमने हायरेरकी जरूरत पड़ती है। यह बड़ी मुश्किल बात है! दो दिन की छुट्टी के बनाई। जिस दिन हमने कहा कि नहीं कोई ऊपर, और कोई नीचे।
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परमात्मा के स्वर
नहीं, श्रम भी उतना ही ऊपर है, जितना ज्ञान। और अगर किसी को | कृष्ण के लिए, जिस दिन वर्ण की उन्होंने बात कही, चारों वर्गों ज्ञान की पिपासा है और किसी को अगर श्रम की पिपासा है, तो | | में एक अंतर-सहयोग था, एक इनर को-आपरेशन था। एक श्रम की पिपासा का भी हकदार है आदमी कि अपनी पिपासा को आर्गेनिक यूनिटी थी। इन चारों के बीच एक शरीर-संबंध था। पूरी करे। ज्ञान की पिपासा का भी हकदार है आदमी कि अपनी ___इसलिए कृष्ण ने पीछे शरीर से तलना भी की है कि कोई सिर पिपासा को पूरी करे। और दोनों ही पिपासाएं विराट से मिली हैं, | है, कोई पैर है, कोई पेट है। अंग की भांति सारे वर्ण हैं। कोई जन्म से मिली हैं, बिल्ट-इन हैं। इसलिए गौरव की बात क्या है? | | नीचे-ऊपर नहीं है। लेकिन नीचे-ऊपर दिखाई पड़ता है। क्योंकि __ अगर मुझे सत्य की खोज की आकांक्षा है, तो इसमें गौरव की उन्होंने कहा कि सिर। सिर ऊपर मालूम होता है। पैर! पैर नीचे बात क्या है? यह मुझे वैसे ही मिली है, गिवेन है, वरदान है | मालूम होते हैं। लेकिन यह ऊपर-नीचे होना फिजिकल है। यह परमात्मा का, जैसे एक आदमी को श्रम की क्षमता मिली है। इसमें | ऊपर-नीचे होना मूल्यांकन नहीं है। यह मूल्यांकन, इसमें कोई अगौरव क्या है? कोई नीचे-ऊपर नहीं है। वह उसका बिल्ट-इन | वेल्युएशन नहीं है कि पैर नीच है, ऐसा नहीं है। अगर नीचा है, तो प्रोग्रेम है।
उसका कुल मतलब इतना है कि स्पेस में सिर ऊपर मालूम हो रहा एक फूल गुलाब बनने को हुआ है, एक फूल कमल बनने को | | है, पैर नीचे। लेकिन वह भी सब बातचीत काल्पनिक है। हुआ है, एक फूल जुही बना है, एक फूल चमेली बना है। दुनिया ___ एक आदमी किसी की छत पर खड़े होकर देखे, तो आपका सिर सुंदर है। जितने ज्यादा फूल हैं, उतनी ही सुंदर है। लेकिन गुलाब नीचे हो जाता है, उसका सिर ऊंचा हो जाता है। छोटे बच्चे करते गलाब होने की मजबरी में है। कमल कमल होने की मजबरी में है। हैं। कर्सी पर खड़े हो जाते हैं बाप के पास और कहते हैं. हम तमसे
कमल का कमल होना, कमल का गौरव नहीं है; वह कमल की | | बड़े हैं। फिजिकल! हैं भी बड़े, जब ऊपर हो गए। अगर सिर ऊपर 'नियति है, डेस्टिनी है। गुलाब का गुलाब होना भी गुलाब की | है पैर से, तो बेटा कुर्सी पर खड़ा होकर बड़ा है। डेस्टिनी है। और एक घास के फूल का घास का फूल होना भी | ___ तो छिपकली, जो आपके छत पर चल रही है आपके सिर के उसकी अपनी डेस्टिनी है।
ऊपर! छिपकली के बाबत क्या खयाल है? ब्राह्मण के ऊपर और मजे की बात यह है कि जब घास का फूल अपने पूरे सौंदर्य | छिपकली चल रही है! छिपकली बहुत ऊपर है! में खिलता है, तो किसी गुलाब के फूल से पीछे नहीं होता। आपके ये ऊपर-नीचे की बचकानी बातें हैं। इसमें कुछ भेद, कोई लिए होगा. क्योंकि बाजार में बेचेंगे. तो घास के फल का दाम नहीं मल्यांकन कष्ण के मन में नहीं है: किसी के मन में नहीं था। हमारे मिलेगा। लेकिन घास के फूल के लिए, खुद घास के फूल के लिए, | मन में पैदा हुआ। हमने थोपा। घास का फूल जब पूरी तरह खिलता है, तो उतनी ही एक्सटैसी में, __कृष्ण कहते हैं, गुण और कर्म के अनुसार मैंने विभाजित किया उतने ही हर्षोन्माद में होता है, जितना जब गुलाब का फूल अपनी | | व्यक्तियों को। पूरी पंखुड़ियों को खिलाकर नाचता है सूरज की रोशनी में। दोनों गुण, भीतरी क्षमता; कर्म, बाहरी अभिव्यक्ति; कर्म, अपने आनंद में होते हैं। और सूरज घास के फूल से यह नहीं कहता मैनिफेस्टेशन। कि शूद्र! हट, मैं सिर्फ गुलाब के फूलों के लिए आया हूं। नहीं, ___ ध्यान रहे, गुण जब कर्म बनता है, तभी दूसरों को पता चलता सूरज उतने ही आनंद से बरसता है घास के फूल पर। चांद उतने ही है। जब तक गुण गुण रहता है, तब तक किसी को पता नहीं चलता। आनंद से अमृत बरसाता है। हवाएं उतने ही आनंद से घास के फूल दूसरों को ही नहीं, खुद को भी पता नहीं चलता। खुद को भी पता को भी नृत्य और थपकी देती हैं, जितनी गुलाब के फूल को देती। तभी चलता है, जब गुण कर्म बनता है। जब एक व्यक्ति अपने को हैं। इसमें कोई भेद-भाव नहीं है।
प्रकट करता है अपने कर्मों में, तभी आपको भी पता चलता है और जगत के, अस्तित्व के भीतर कोई भेद-भाव नहीं है। गुण-भेद | उसको भी पता चलता है कि वह क्या है। है, भेद-भाव नहीं है। कोई नीचे-ऊपर नहीं है। विभाजन है, शत्रुता ___ गुण, बीज की तरह छिपा हुआ अस्तित्व है। कर्म, वृक्ष की तरह नहीं है। कोई एक-दूसरे के काफ्लिक्ट में नहीं है। संघर्ष नहीं है, | प्रकट अस्तित्व है। सहयोग है।
गुण और कर्म के अनुसार विभाजित मनुष्य हैं। इस विभाजन को
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गीता दर्शन भाग-20
कभी भी तोड़ा नहीं जा सकता। इस विभाजन को इनकार किया जा प्रश्नः भगवान श्री, अभी आपने कहा कि ब्राह्मण, सकता है। कानन बनाया जा सकता है कि ऐसा कोई विभाजन नहीं
की श्रेष्ठता, है। विधान बनाया जा सकता है, ऐसा कोई विभाजन नहीं है। हायरेकी नहीं है। लेकिन चेतना की ऊंचाइयों एवं लेकिन विभाजन जारी रहेगा।
चेतना के विकास को खयाल में रखने पर, क्या अगर हम एक कानून बना लें। और कोई कठिन नहीं है, हम | | ब्राह्मण की चेतना शूद्र की चेतना से श्रेष्ठ नहीं है? एक कानून बना दें कि स्त्री-पुरुषों के बीच कोई विभाजन नहीं है। कानून बनाया जा सकता है, मेजारिटी चाहिए! और हमेशा मेजारिटी हर तरह की बेवकूफी के लिए मिल सकती है। अगर नहीं ; चेतना किसी की श्रेष्ठ नहीं है। चेतना श्रेष्ठ होती आपकी धारा-सभा में, आपकी असेंबली और पार्लियामेंट में, | UI है अपने गुण को पूरा उपलब्ध कर लेने पर; किसी की बहुमत तय कर ले कि स्त्री-पुरुष में कोई फासला नहीं है, तो कानून
भी श्रेष्ठ हो जाती है। बन सकता है। लेकिन कानून बनने से प्रकृति नहीं बदल जाती। अगर ब्राह्मण ज्ञान के साथ आत्मसात हो जाए, तो उसकी चेतना
कानून बन भी गए हैं करीब-करीब। कानून ही नहीं बन गए, श्रेष्ठ हो जाती है। अगर क्षत्रिय शक्ति के साथ आत्मसात हो जाए. पश्चिम के मुल्कों ने स्त्री और पुरुष के बीच के फासले को गिराना एक हो जाए...। अर्जुन जब तीर चलाए, तो तीर और अर्जुन भी शुरू कर दिया है। तो पुरुष स्त्रियों जैसे होने की कोशिश में लग अलग-अलग न रह जाएं, अर्जुन तीर बन जाए। अर्जुन जब गए हैं; ताकि एक-दूसरे की तरफ थोड़ा-थोड़ा चलें, तो फासला | तलवार हाथ में ले, तो हाथ और तलवार के बीच का फासला गिर कम हो जाए। स्त्रियां पुरुषों जैसी होने लग गई हैं। स्त्रियां पुरुषों के | | जाए; हाथ और तलवार एक हो जाएं। तो ब्राह्मण जब ध्यान में पूरा कपड़े पहन रही हैं। पुरुष स्त्रियों के कपड़े पहनने की कोशिश में | लीन होकर ब्रह्म के साथ एक होता है, तो जिस अनुभव को उसकी लगे हैं। स्त्रियां बाल कटा रही हैं, पुरुष बाल लंबे कर रहे हैं! ऐसा चेतना उपलब्ध होती है, उसी अनुभव को अर्जुन की चेतना भी दोनों थोड़ा-थोड़ा चलेंगे, तो कहीं मिलन हो जाएगा, इस आशा में। | उपलब्ध हो जाएगी, जब वह घूमती हुई तलवार के साथ एक हो
लेकिन अगर स्त्रियों और पुरुषों को बिलकुल एक जैसी शकल | | जाएगा। अर्जुन के लिए वही ध्यान बन जाएगा। का भी बनाकर खडा कर दिया जाए, तो भी नियति का जो फासला जापान में मंदिर हैं. जिन मंदिरों पर तलवारों के चिह्न बने हुए हैं। है, वह नहीं गिर जाता। लेकिन उस फासले में कोई ऊंच-नीच नहीं | | जापान में क्षत्रियों का एक समूह हुआ, समुराई। मंदिरों पर तलवार! है। वह वर्टिकल नहीं है, हारिजांटल है। वह फासला ऊंचा-नीचा | और मंदिरों के भीतर तलवार सिखाने के लिए स्कूल हैं। कभी बहुत नहीं है।
चौंकने की बात मालूम पड़ती है! मंदिर के भीतर तलवार चलाने ठीक गुण और कर्म से भी जो भेद है, वह नियतिगत, स्वभावगत का स्कूल? तलवार की ट्रेनिंग? पागल हो गए हैं आप? मंदिर में है। उस स्वभावगत भेद को कृष्ण कहते हैं, मैंने ही निर्मित किया। | तलवार चलाना सिखाकर क्या करिएगा? __इस विभाजन को स्वाभाविक, परमात्मा से आया हुआ विभाजन लेकिन समुराई कहते हैं कि हम क्षत्रिय हैं। हम तो तलवार की वे कह रहे हैं। इन-बॉर्न, इन-बिल्ट, प्रकृति में ही छिपा हुआ, यही चमक पर जब एक हो जाएंगे, जब तलवार और हमारे बीच कोई उनका अर्थ है। और यह वे इसीलिए कह रहे हैं, ताकि अर्जुन को | फासला न रहेगा, तलवार का नृत्य ही जब हमारे प्राणों का नृत्य हो ठीक से खयाल आ जाए कि उसका अपना गुणकर्म क्या है। और जाएगा, हम बिलकुल एक हो सकेंगे; वही हमारा ध्यान है; वही वह उसके स्मरण को ध्यान में लेकर कर्म में सक्रिय हो सके, गुण हमारी समाधि है। वहीं से समाधि मिल जाएगी। को पहचानकर कर्म कर सके।
अगर श्रम का आतुर व्यक्ति अपने श्रम में इतना डूब जाए कि गुण और कर्म का मेल हो जाए, तो व्यक्ति के जीवन में एक पीछे कोई भी न बचे; फावड़े से खोदता है जमीन को या काटता है हार्मनी, एक अंतर-संगीत पैदा हो जाता है। गुण और कर्म का भेद लकड़ी को कुल्हाड़ी से, उसकी कुल्हाड़ी के उठने के साथ ही टूट जाए, तो व्यक्ति के जीवन में विसंगीत उत्पन्न हो जाता है। | उसका भी उठना हो, और कुल्हाड़ी के गिरने के साथ उसका भी एक प्रश्न है आखिरी। फिर हम सबह बात करेंगे।
गिरना हो, कुल्हाड़ी और उसके बीच कोई अंतर न रह जाए, तो वह
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परमात्मा के स्वर
उसी ध्यान को उपलब्ध हो जाता है, जो ब्राह्मण अपनी कुटी में बैठकर ध्यान करके उपलब्ध होता है।
ध्यान, चारों वर्ण के लोग अपने-अपने ढंग से उपलब्ध हो सकते हैं। और जो भी चेतना ध्यान को उपलब्ध हो जाती है, वह श्रेष्ठ हो जाती है। श्रेष्ठता का संबंध शूद्र, ब्राह्मण और वैश्य और क्षत्रिय से नहीं है। श्रेष्ठता का संबंध ध्यान से है। जो चेतना ध्यान को उपलब्ध हो जाए, किसी भी मार्ग से, वह चेतना श्रेष्ठता को उपलब्ध हो जाती है।
श्रेष्ठता ध्यान से उपलब्ध होती है। और चार तरह के ध्यान होंगे मोटे-शूद्र के लिए, ब्राह्मण के लिए, क्षत्रिय के लिए, वैश्य के लिए। तल्लीनता! इतनी तल्लीनता कि भीतर से कर्ता मिट ही जाए, एक हो जाए। यह एकता किसी भी भांति आ जाए। यह प्रयोगशाला में आ जाए वैज्ञानिक को; कि नृत्यकार को नाचते हुए आ जाए; यह वाद्य बजाने वाले वीणावादक को वीणा में आ जाए; यह शिक्षक को पढ़ाने में आ जाए; यह गिट्टी फोड़ने वाले को गिट्टी फोड़ने में आ जाए। कहीं भी आ जाए। यह ध्यान जहां भी आ जाए, वहीं श्रेष्ठता चेतना की उपलब्ध हो जाती है।
चेतना की श्रेष्ठता वर्ण पर निर्भर नहीं, चेतना की श्रेष्ठता ध्यान पर निर्भर है।
और कुछ सवाल होंगे, तो कल सुबह। आज की रात की बैठक
पूरी हुई।
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अध्याय 4 पांचवां प्रवचन
ত্রিতা র্পালা
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गीता दर्शन भाग-28
प्रश्नः भगवान श्री, कल के तेरहवें श्लोक की व्याख्या आकाश में बिजली चमकती है। यह वाक्य बिलकुल ही गलत है। में आपने चार वर्णों की बात कही। कृष्ण इस श्लोक अस्तित्व की दृष्टि से बिलकुल ही गलत है। इसमें ऐसा लगता है, के दूसरे हिस्से में कहते हैं कि इन चारों वर्षों की गुण | बिजली कुछ और है और चमकना कुछ और है। बिजली चमकती
और कर्मों के अनुसार रचना करते हुए भी मैं अकर्ता है। सच बात इतनी है कि चमकने का नाम बिजली है। इसमें ही रहता हूं।
चमकने वाला और, और चमकने की क्रिया और-ऐसी भ्रांति पैदा कृपया इसे स्पष्ट करें कि वे कैसे अकर्ता रहे? | होती है वाक्य से। बिजली चमकती है, ऐसा ठीक नहीं है। चमकता
है जो, उसका नाम बिजली है। चमकना बिजली है। .
हम कहते हैं, वर्षा बरसती है। एकदम ही गलत बात कहते हैं। करते हुए भी मैं अकर्ता हूं, कृष्ण का ऐसा वचन गहरे में वर्षा का मतलब है, जो बरस रही है। अब वर्षा बरसती है, यह पा समझने योग्य है। पहली बात, कर्म से कर्ता का भाव | .रिपीटीशन है, यह पुनरुक्ति है; यह व्यर्थ ही हम कह रहे हैं।
पैदा नहीं होता। कर्म अपने आप में कर्ता का भाव पैदा | ___ अगर हम किसी भी क्रिया के भीतर प्रवेश करें, तो हम कर्ता को करने वाला नहीं है। कर्ता का भाव भीतर मौजूद हो, तो कर्ता का कभी न पाएंगे; सिर्फ क्रिया ही मिलेगी। भीतर कौन मिलेगा भाव कर्म के ऊपर सवार हो जाता है। भीतर अहंकार हो, तो कर्म | लेकिन ? भीतर जरूर कोई है। वह कर्ता नहीं है. द्रष्टा है. साक्षी है। पर सवारी कर लेता है। ऐसे, कर्म अपने आप में, कर्ता के भाव का | | समस्त क्रियाओं के भीतर द्रष्टा है, साक्षी है। जन्मदाता नहीं है।
आपके पेट में भूख मालूम होती है। आप कहते हैं, मुझे भूख तो कृष्ण की बात तो छोड़ें एक क्षण को, हम भी चाहें, तो कर्म लगी है। जैसे कि आप भूख को लगा रहे हैं; जैसे कि आप कर्ता करते हए अकर्ता हो सकते हैं। कर्म ही कर्ता का निर्माता नहीं है। हैं! सचाई उलटी है। सचाई इतनी ही है कि आपको पता चलता कर्ता का निर्माता अहंकार का भाव है। और अहंकार का भाव इतना कि भख लगी है। आपको भख नहीं लगती। भख की क्रिया घट अदभुत है कि आप कुछ न करें, तो भी कुछ न करने का कर्ता भी रही है; आप सिर्फ जानते हैं कि भूख लगी है। अगर ठीक से हम बन जाता है।
कहें, तो कहना चाहिए कि मैं जान रहा हूं कि भूख लगी है। ऐसा' आप रास्ते पर चल रहे हैं; चलने की क्रिया घटित होती है। अगर नहीं कहना चाहिए, मुझे भूख लगी है। इस चलने के कर्म को बहुत गौर से देखें, तो आप भीतर कहीं भी | आपके सिर में दर्द है, तो भी आप में दर्द नहीं है; आप सिर्फ चलने वाले को न पाएंगे. सिर्फ चलने की क्रिया ही मिलेगी। कितना जान रहे हैं कि सिर में दर्द है। और जब आपको दर्द के मिटाने वाली ही खोजें, चलने वाला कहीं न मिलेगा। क्योंकि भीतर जो मौजूद | दवा दे दी जाती है, एस्पिरिन दे दी जाती है, तो आप यह मत सोचना है, वह चलता ही नहीं है। क्रिया चलने की बाहर ही होती है; भीतर | कि दर्द मिट गया। दर्द अपनी जगह है। लेकिन दर्द का जानने वाले चलने वाला कोई भी नहीं है। भीतर तो जो है, वह अचल है, चलता | तक पहुंचने का रास्ता टूट गया। अब आप जान नहीं रहे कि दर्द हो ही नहीं। कभी चला ही नहीं। आप हजारों मील की यात्रा कर चुके रहा है। जान नहीं रहे हैं, इसलिए अब आप कहते हैं कि अब सिर हों, तो भी भीतर जो है, वह अपनी ही जगह है। वह इंचभर भी नहीं | में दर्द नहीं हो रहा है। चला है। लेकिन अहंकार का भाव चलने की क्रिया पर सवार हो पिछले महायुद्ध में ऐसा हुआ कि फ्रांस में एक सैनिक के पैर में जाता है और कहता है, मैं चलता हूं।
बहुत चोट लगी। वह बेहोश हो गया। चोट ऐसी थी कि पैर बचाया रास्ते पर चलते वक्त गौर से देखना, चलने वाला कहीं भी नहीं जा सका। रात बेहोशी में ही घुटने से नीचे का हिस्सा काट मिलता है खोजने से? चलने की क्रिया है; सच। चलने वाला कहीं दिया गया। अंगूठे में बहुत तकलीफ थी, जब वह होश में था। भी नहीं है। लेकिन हमारी भाषा में कुछ बुनियादी भूलें हमारे सुबह जब वापस होश में आया, तो उसने कहा कि मेरे अंगूठे में अहंकार के कारण प्रवेश कर गई हैं। हमें ऐसा लगता है कि जब | | बहुत तकलीफ है। पर अंगूठा तो अब था ही नहीं! पास की नर्स ने चलने की क्रिया है, तो चलने वाला भी होना ही चाहिए। कहा, आप जरा फिर से सोचें। अंगूठे में तकलीफ है? मजाक में यह करीब-करीब बात वैसी ही है, जैसे हम कहते हैं कि ही कहा। उसने कहा, बहुत तकलीफ है।
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जीवन एक लीला
नर्स ने कंबल उठाकर बताया कि पैर के नीचे का हिस्सा तो अब का कोई बोध ही न बचे। बस, वह सिर्फ जानने वाला रह जाए। है ही नहीं। जो अंगूठा नहीं है, उसमें तकलीफ कैसे हो सकती है? | जिस दिन यह घड़ी आती है, उसी दिन समाधि फलित हो जाती उस आदमी ने देखा और उसने कहा कि दिखाई पड़ रहा है मुझे | | है। उसी दिन जीवन का परम सौभाग्य का क्षण आ जाता है। उसी भलीभांति कि पैर घुटने से नीचे का काट दिया गया है; नहीं है। | दिन हम वहां पहुंच जाते हैं, जहां जन्मों से पहुंचने की आकांक्षा है। लेकिन फिर भी मझे अंगठे में तकलीफ है। मैं भी क्या कर सकता उस दिन मंजिल मिल जाती है। वह यात्रा-पथ समाप्त होता है: हूं? उस सैनिक ने कहा, अगर अंगूठे में तकलीफ है, तो मैं भी क्या मुकाम आ जाता है। उस दिन हम मंदिर में प्रविष्ट होते हैं। उस दिन कर सकता हूं?
तीर्थ आ गया, जिस दिन हमने जाना कि अब कर्ता कोई भी नहीं है। डाक्टर बुलाए गए। समझा कि कुछ भ्रम हो गया है उस आदमी | सिर्फ देखने वाला, जानने वाला है। को। बहुत तकलीफ थी; भूला नहीं है। अब तो हो नहीं सकती। दूसरे अर्थों में भी कृष्ण के कहने का प्रयोजन है। परमात्मा के पास समझाने-बुझाने की कोशिश की। लेकिन उस आदमी ने कहा, मैं अहंकार नहीं हो सकता। क्यों? क्योंकि अहंकार अहंकारों के बीच पूरे होश में हूं। मुझे दिखाई पड़ रहा है कि अब पैर नहीं बचा, में ही हो सकता है; अकेला नहीं हो सकता। दो परमात्मा जगत में इसलिए तकलीफ होनी नहीं चाहिए। तर्कयुक्त मुझे भी मालूम नहीं हैं। अहंकार, मैं का भाव सदा तू के भाव से जुड़ा हुआ है। अगर पड़ती है बात। लेकिन मैं क्या कर सकता हूं! तकलीफ है! तू न बचे, तो मैं नहीं बच सकता। कोई अर्थ नहीं रह जाता उसमें। - फिर और खोजबीन की गई, तो पाया गया कि वह आदमी ठीक । इसलिए जितने आप भीड़ में होते हैं, उतने अहंकार से भर जाते कहता था, तकलीफ थी। तो बहुत मुश्किल हो गई। जो अंगूठा नहीं | | हैं। जितने एकांत में होते हैं, उतने अहंकार से खाली हो जाते हैं। है, उसमें तकलीफ कैसे हो सकती है? खोजबीन से पता चला कि __ अगर साधक एकांत की तरफ भागता रहा है, तो उसका कारण अंगूठे की तकलीफ जिन तंतुओं के द्वारा मस्तिष्क तक पहुंचती है, | | यह नहीं है कि वह समाज से भाग रहा है। उसका बहुत गहरे में वे अभी भी खबर दे रहे हैं। अंगूठा तो बहुत दूर है मस्तिष्क से, | कारण यही है कि अकेले में उसे अहंकार के विसर्जन की सुविधा बीच में तो तारों का जाल है. जो खबर पहुंचाते हैं। वे कंपते हैं और | मालूम पड़ती है। जैसे ही दूसरा मौजूद हुआ कि मेरा मैं भी खड़ा हो कंपकर खबर पहुंचाते हैं। वे अभी भी कंप रहे हैं। मस्तिष्क के पास जाता है। जो छोर है तंतु का, वह अभी भी कंपकर खबर दे रहा है कि दर्द है। आप अपने कमरे में अकेले बैठे हैं, कोई नहीं है। तब अहंकार अंगूठा नहीं है, और दर्द है!
| बहुत क्षीण होता है। होता है, क्योंकि आपके मन में दूसरे मौजूद असल में मस्तिष्क तक चेतना में कोई दर्द नहीं है। चेतना को | होते हैं। कमरे में तो मौजूद नहीं होते, मन में मौजूद होते हैं। मन में सिर्फ पता चलता है। अगर पता चलता रहे, तो ऐसा दर्द भी मालूम | | मौजूद होने के कारण थोड़ा-सा अहंकार शेष रहता है। पड़ेगा, जो नहीं है। और अगर पता न चले, तो ऐसा दर्द भी मालूम रात गहरी नींद में सो गए हैं। जब तक सपना चलता है, तब तक नहीं पड़ेगा, जो है।
अहंकार थोड़ा-सा मौजूद रहता है। लेकिन जब सपना भी बंद हो चेतना सिर्फ ज्ञाता है, नोअर है, विटनेसिंग है। सिर्फ एक जाता है, तब कोई अहंकार मौजूद नहीं रह जाता; तब आपके भीतर साक्षी-भाव है।
मैं का कोई भाव नहीं होता। इसलिए सुबह जब आप उठकर कहते हम भी क्रिया के भीतर कर्ता नहीं हैं। कर्ता हमारा भ्रम है। परमात्मा हैं कि रात बड़ी गहरी नींद आई, बड़ा आनंद आया; वह आनंद गहरी को ऐसा भ्रम नहीं हो सकता। इसलिए कृष्ण कहते हैं, यह सब करते नींद का नहीं है; वह आनंद मैं से मुक्त हो जाने के क्षणों का है। हुए भी मैं अकर्ता हूं। हम भी जिस दिन जानेंगे, पाएंगे यही कि सब | क्षणभर के लिए भी रात अगर इतनी गहरी नींद हो गई कि मैं न रहा, करते हुए भी अकर्ता हूं। लेकिन वह दिन दूर है। जिस दिन हम यह तो बड़ी गहरी ब्लिस, बहुत गहरे आनंद के लोक से संस्पर्श हो जाता जानेंगे, उस दिन हम भी परमात्मा का हिस्सा हो जाएंगे। है। एक स्वर्ग उस गहराई से आ जाता है, जो परमात्मा का है।
एक तो इस दृष्टि से इस सूत्र को समझें। यह साधक के लिए इसलिए सुषुप्ति समाधि के बहुत करीब है, और बहुत दूर भी। उपयोगी है कि वह धीरे-धीरे अकर्ता होता चला जाए, साक्षी बनता करीब इसलिए है कि जैसे समाधि में मैं मिट जाता है, वैसे ही चला जाए। एक दिन ऐसी घड़ी आ जाए कि उसकी जिंदगी में कर्ता सुषुप्ति में भी मिट जाता है। दूर इसलिए, कि सुषुप्ति में प्राकृतिक
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| गीता दर्शन भाग-21000
मूर्च्छा के कारण मैं मिटता है; और समाधि में व्यक्ति की सजगता कारण मैं मिटता है।
मैं मौजूदगी के लिए तू का होना जरूरी है। तू के बिना मैं के बनने का कोई उपाय नहीं है। मैं और तू पोलेरिटी है। जैसे कि बिजली ऋण और धन के बिना नहीं हो सकती । पाजिटिव इलेक्ट्रिसिटी अकेली नहीं हो सकती, निगेटिव के बिना। निगेटिव अकेली नहीं हो सकती, पाजिटिव के बिना । जैसे इस पृथ्वी पर पुरुष अकेले नहीं हो सकते, स्त्रियों के बिना स्त्रियां अकेली नहीं हो सकतीं, पुरुषों के बिना।
आपको शायद खयाल न आया हो, जब स्त्री आपके सामने मौजूद होती है, तब आपके भीतर का पुरुष बहुत सक्रिय हो जाता है। जब स्त्री मौजूद नहीं होती, तब निष्क्रिय हो जाता है। जब स्त्री
सामने पुरुष मौजूद होता है, तब स्त्रैणता आ जाती है; जब पुरुष नहीं रह जाता, तो स्त्रैणता विलीन हो जाती है।
दूसरा पोल सदा मौजूद चाहिए। मैं का दूसरा हिस्सा तू है । मैं और तू एक ही घटना के दो छोर हैं; जैसे एक ही डंडे के दो छोर । अगर तू गिर जाए, तो भी मैं गिर जाता है; अगर मैं गिर जाए, तो भी तू गिर जाता है। परमात्मा के लिए कोई तू नहीं है। इसलिए मैं के बनने का कोई उपाय नहीं है।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं, विशेषकर पश्चिम का एक मनोवैज्ञानिक पियागेट, जिसने पूरी जिंदगी, बच्चों में मैं का भाव कैसे पैदा होता है, इस पर समर्पित की है; उसकी बड़ी हैरानी की खोजें हैं। वह कहता है कि बच्चे में मैं का भाव बाद में पैदा होता है, तू का भाव पहले पैदा होता है। बच्चे को पहले दूसरों का पता चलता है, फिर अपना पता चलता है। ठीक भी यही है। बच्चे को पहले पता चलता है और लोगों का
इसलिए अक्सर बच्चे ऐसा नहीं कहते कि मुझे भूख लगी है। छोटा बच्चा कहता है, इसको भूल लगी है। यह भी उसके लिए दि अदर, और की तरह मालूम पड़ता है। छोटे बच्चे अक्सर अपना नाम लेते हैं, वे कहते हैं, बबलू को भूख लगी है! उनका नाम बबलू है। वे ऐसा नहीं कहते, मुझे भूख लगी है। अभी मुझे का भाव बहुत गहरा नहीं हुआ है। अभी बबलू भी थर्ड पर्सन है। कहता है, बबलू को नींद आ रही है।
पियागेट कहता है कि बच्चों को पहले तू का पता चलता है; फिर धीरे-धीरे मैं का पता चलता है। इसलिए बच्चे इतने भोले मालूम पड़ते हैं, क्योंकि मैं का पता चलने में जरा देर है अभी। अभी मैं का
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छोर निर्मित हो रहा है। जब निर्मित हो जाएगा, तो बच्चे कठिन और | कठोर हो जाएंगे।
इसलिए जब बच्चों में पहली दफा मैं पैदा होता है, तब रिबेलियन पैदा होता है। इसलिए एक उम्र है बच्चों की, जो रिबेलियन की है, विद्रोह की है, बगावत की है। जब पहली दफे बच्चे में मैं आता है, तब वह सब तरफ मैं की परीक्षा करता है। बाप | के खिलाफ, मां के खिलाफ, गुरु के खिलाफ वह मैं की परीक्षा करता है - मैं हूं ।
तो अगर मां कहती है कि यह मत करो, तो वह करके दिखाता है; नहीं तो पता कैसे चले कि मैं हूं ! अगर बाप कहता है, वहां मत जाओ, तो वह जाकर बताता है; नहीं तो पता कैसे चले कि मैं हूं? इसलिए बड़ी स्वाभाविक बात है कि बच्चे कुछ दिनों मां-बाप के खिलाफ लड़ते हैं। वह खिलाफ लड़कर ही, वे अपनी ईगो को मजबूत करते हैं।
यह मैंने इसलिए कहा कि परमात्मा के लिए मैं का कोई उपाय नहीं है, क्योंकि तू का कोई उपाय नहीं है।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, मैं करता हुआ भी अकर्ता हूं। मैं होते हुए भी न होने जैसा हूं । हूं, और फिर भी मैं नहीं हूं। क्योंकि तू का तो कोई उपाय नहीं है। परमात्मा किसको कहे तू? कोई उपाय नहीं है। इसलिए भी उनका यह वचन बहुत अर्थपूर्ण है। और एक तीसरे अर्थ में भी।
परमात्मा के लिए अस्तित्व ऐसे ही है, जैसे हमारे लिए शरीर । एक आर्गेनिक यूनिटी है। मैं अपने हाथ को तू नहीं कहता; मैं अपने हाथ को मैं ही कहता हूं। मैं अपने पैर को तू नहीं कहता; मैं अपने पैर को मैं ही कहता हूं। मेरा शरीर मेरा ही विस्तार है। परमात्मा के लिए समस्त अस्तित्व उसका ही विस्तार है। वही है। इसलिए जब परमात्मा कुछ निर्माण भी करता है, सृजन भी करता है, क्रिएट भी करता है, तो वह सृजन भी पराए का सृजन नहीं है। उस सृजन को भी समझ लेना उचित है।
एक चित्रकार एक चित्र बनाता है। तो जब चित्रकार चित्र बनाता है, तो चित्र अलग हो जाता है, चित्रकार अलग हो जाता है। फिर चित्रकार मर भी जाए, तो भी चित्र नहीं मरेगा; चित्र बना रहेगा। चित्र का अपना अस्तित्व हो गया। एक मूर्तिकार मूर्ति निर्माण करता है। मूर्ति अलग बन गई। मूर्तिकार न भी रहे, तो अब मूर्ति को कोई फर्क नहीं पड़ता। जैसे मां ने बेटे को जन्म दे दिया; अब मां मर जाएगी, तो भी बेटा रहेगा। अब बेटे का अस्तित्व अलग हो गया।
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जीवन एक लीला
ऐसे ही मूर्तिकार ने मूर्ति को जन्म दे दिया। मूर्ति अलग हो गई। मूर्ति | परमात्मा एक बवंडर की तरह अस्तित्व है। बीच में कोई मैं नहीं जन्मते ही तू हो गई। मूर्तिकार अब मूर्ति को मैं नहीं कह सकता, है, वहां सब बीच में शून्य है। चारों तरफ अस्तित्व की विराट अब उसको तू ही कहना पड़ेगा। अब मूर्ति का अपना अस्तित्व है। लीला है।
लेकिन एक नृत्यकार है, एक डांसर है। वह नाचता है। नाच इसीलिए हम जगत को परमात्मा की लीला कहते हैं। सृष्टि से भी अलग नहीं हो पाता। कितना ही नाचे, तो भी नृत्य और नर्तक एक सुंदर शब्द है वह, लीला, प्ले। क्योंकि खेल में अहंकार नहीं होता। ही रहते हैं। इसलिए हमने परमात्मा को नृत्य करते हुए नटराज की हमें हो जाता है। और जब खेल में अहंकार हो जाता है, तो खेल तरह सोचा; मूर्ति बनाते हुए नहीं सोचा; चित्र बनाते हुए नहीं सोचा। काम हो जाता है, फिर खेल नहीं रह जाता। हमें तो खेल में भी हो नृत्य करते हए सोचा। उसका गहरा रहस्य है। उसका कल कारण जाता है। दो आदमी ताश भी खेल रहे हों, तो अकड़ आ जाती है। यह है कि जैसे नर्तक और नत्य एक ही हैं: अगर नर्तक रुक जाए. शतरंज भी खेल रहे हों, तो तलवारें खिंच जाती हैं। हमें तो खेल में तो नृत्य रुक जाएगा। और बड़े मजे की बात है, अगर नृत्य रुक जाए, भी अहंकार आ जाता है, हार-जीत जोर से पकड़ जाती है। फिर वह तो नर्तक नर्तक नहीं रह गया; क्योंकि नर्तक तभी तक नर्तक है, जब खेल नहीं रहा, फिर तो वह काम ही हो गया; दुकान ही हो गई। तक नृत्य चल रहा है। नर्तक और नृत्य के बीच एक एकात्मता है; खेल तभी तक है, जब तक भीतर मैं नहीं है। लीला चल रही है। एक ही हैं वे। नर्तक नृत्य को अलग रखकर तू नहीं कह सकता और हारे, तो भी ठीक है; जीते, तो भी ठीक है। कोई खास फर्क नहीं न नर्तक नृत्य को अलग रखकर नर्तक रह सकता है।
पड़ता। हां, कभी-कभी ऐसा होता है। अगर बाप कभी बच्चे के तो परमात्मा के और सृष्टि के बीच जो संबंध है, वह नर्तक साथ खेल खेलता है, तो ऐसा होता है। बाप बच्चे के साथ खेल और नृत्य का है। न तो परमात्मा स्रष्टा रह सकता है सृष्टि को बंद खेलता है, तो ऐसा होता है, क्योंकि बच्चे के साथ अहंकार पकड़ने करके—इसलिए बंद ही नहीं कर सकता; नहीं तो स्रष्टा नहीं रह | में बाप को भी नासमझी मालूम पड़ती है। फिर हारने की, जीतने की जाएगा। बंद होना होगा ही नहीं। सृष्टि शाश्वत चलती ही रहेगी। | फिक्र नहीं करता। कई दफे तो खुद ही हार जाता है, क्योंकि बच्चा क्योंकि स्रष्टा और सष्टि एक हैं। दि क्रिएटर एंड दि क्रिएशन आर नहीं तो जीतेगा कैसे? खुद लेट जाता है; बच्चे को छाती पर बिठा वन। नर्तक और नृत्य की भांति। इसलिए सृष्टि को भी परमात्मा लेता है; और बच्चा खुशी से भर जाता है। और बच्चे की जीत की तू नहीं कह सकता। वहां भी तू के लिए कोई उपाय नहीं है, खुशी बाप की भी खुशी बन जाती है-हारकर। अब यह खेल है। गुंजाइश नहीं है, अवकाश नहीं है, जगह नहीं है, जहां वह तू को __परमात्मा के लिए जगत एक खेल है। कई बार हमें जिताता भी खड़ा कर सके।
है। बस, बच्चे की तरह। कई बार हम उसकी छाती पर भी होते हैं; इसलिए कृष्ण कहते हैं कि सब करते हुए भी मैं अकर्ता हूं। कर्ता पर बच्चे की तरह। भीतर उसके लिए कोई अहंकार नहीं है। ऐसी मुझे नहीं पकड़ पाता। मैं मुझे नहीं पकड़ पाता। कर्म अहंकार को
निरहंकार स्थिति की घोषणा. कष्ण ने इस वचन में की है। उसे निर्मित नहीं कर पाते हैं।
समझें। और धीरे से वह जीवन में कभी उतर आए, तो बड़ा करीब-करीब ऐसे ही, जैसे कभी गर्मी के दिनों में देखा हो सौभाग्य है। अंधड़। कभी हवा का तेज अंधड़ आता है गर्मी के दिनों में। धूल का बवंडर उठता है वर्तुलाकार। धूल के आकाश में बवंडर ऊंचे उठते चले जाते हैं। जब बवंडर चला जाए, तो जाकर जमीन को न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा । देखना, तो बहुत हैरानी होगी। बड़ा बवंडर था, बड़ा तूफान था। इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते । । १४ ।। निशान बन गए होंगे जमीन पर, उसके घूमने के। लेकिन बीच में कों के फल में मेरी स्पृहा नहीं है, इसलिए मेरे को कर्म एक सूनी खाली जगह भी होगी-शून्य; जहां कोई निशान नहीं लिपायमान नहीं करते। इस प्रकार जो मेरे को तत्व से होगा। उसी शून्य पर सारा बवंडर घूमा। जैसे कील पर चाक घूमता जानता है, वह भी कमों से नहीं बंधता है। है। उस खाली शून्य पर सारे बवंडर का तूफान आया; बीच में सब शून्य था।
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गीता दर्शन भाग-28
कष्ण कहते हैं, कर्मों के फलों में मेरी स्पृहा नहीं है, | लौटते हो? मन न कहता कि अरे, बिना मुकाम पाए वापस क्यों पा इसलिए कर्म मुझे लिप्त नहीं कर पाते हैं। और जो मुझे जाते हो? घूमने में खेल था; कर्म की स्पृहा न थी।
ऐसा जानता है, वह भी कर्मों के लिप्त होने से मुक्त हो परमात्मा कहीं पहुंचने को नहीं कर रहा है। यह परमात्मा का, जाता है।
अस्तित्व का, एक्झिस्टेंस का कोई उद्देश्य नहीं है। यह बड़ी कठिन कर्मों के फलों में स्पृहा नहीं है; कर्मों के फलों की आकांक्षा नहीं बात है समझनी। है। खेल और कर्म का यही फर्क है। फल की आकांक्षा हो, तो खेल अस्तित्व निरुद्देश्य है। निरुद्देश्य ही खिलते हैं फूल। निरुद्देश्य ही भी कर्म बन जाता। फल की आकांक्षा न हो, तो कर्म भी खेल बन गीत गाते हैं पक्षी। निरुद्देश्य ही चलते हैं चांद-तारे। निरुद्देश्य ही जाता। बस, कर्म और खेल का फर्क ही फल की आकांक्षा है। । | पैदा होता है जीवन और विलीन। हमें बहुत कठिन हो जाएगा! __ आप सुबह-सुबह घूमने निकले हैं-घूमने, जस्ट फार ए | ह्यूमन माइंड, मनुष्य का मन उद्देश्य के बिना कुछ भी नहीं समझ वाक–कोई पूछता है, कहां जा रहे हैं? आप कहते हैं, कहीं जा | पाता। हमें लगता है, बिना उद्देश्य! फिर किसलिए? यानी मतलब, नहीं रहा; घूमने जा रहा हूं। कहते हैं, कहीं जा नहीं रहा, घूमने जा | | हम फिर से पूछते हैं कि फिर उद्देश्य क्या? निरुद्देश्य है जीवन। रहा हूं, अर्थात फल का कोई सवाल नहीं है; कहीं पहुंचने का कोई | | इसका दूसरा अगर पर्याय बनाएं, तो होगा जीवन आनंद है अपने प्रयोजन नहीं है। कहीं पहुंचने को नहीं जा रहा। कोई मंजिल नहीं | में, उसके बाहर कहीं कोई पहुंचने की बात नहीं है। है, कोई मुकाम नहीं है, जहां के लिए जा रहा हूं। बस, घूमने जा | कृष्ण यही कहते हैं, परपजलेसनेस। कहते हैं, मेरे लिए कोई रहा हूं।
ऐसा नहीं है कि जो मैं कर रहा हूं, उसमें कोई मजबूरी, कोई इसी रास्ते से दोपहर को आप दुकान की तरफ भी जाते हैं। तब कंपल्शन नहीं है; आनंद है। सुबह बच्चे उठकर खेल रहे हैं, नाच आप बस घूमने नहीं जा रहे हैं, कहीं जा रहे हैं। रास्ता वही है, आप | रहे हैं—बस, ऐसे ही। बस, ऐसे ही सारा अस्तित्व आनंदमग्न है, वही हैं, पैर वही हैं। लेकिन कभी आपने फर्क देखा कि सुबह के आनंद के लिए ही। घूमने का आनंद और है; और दोपहर को दुकान की तरफ जाने का | । इसलिए कृष्ण के जीवन को हम लीला कहते हैं। राम के जीवन बोझ और है। रास्ता वही, आप वही, पैर वही, हवाएं वही, सूरज को चरित्र कहते हैं। राम का जीवन बड़ा गंभीर है। बड़े उद्देश्यपूर्ण वही, फर्क कहां है?
चलते मालूम पड़ते हैं। एक-एक बात का चुनाव है। यह करेंगे और फर्क-सुबह खेल था; दोपहर काम हो गया। सुबह स्पृहा न | | यह न करेंगे। ऐसा ठीक है और ऐसा गलत है। थी फल की। कहीं पहुंचने का कोई प्रयोजन न था। कर्म ही फल राम के जीवन में उद्देश्य की बड़ी स्पष्टता है। कृष्ण के जीवन में था। कर्म के बाहर कोई फल न था। घूम लिए, काफी है। घूमना उद्देश्य बिलकुल ही मटियामेट हो जाते हैं। कृष्ण के जीवन में बड़ी अपने आप में अंत था, एंड इन इटसेल्फ। पार कहीं कोई बात न | | निरुद्देश्यता है। इसलिए राम को हम आंशिक अवतार ही कह पाए; थी। कहीं जाना न था; कुछ पाना न था। कुछ पाने को न था; घूमना | | पूर्ण अवतार न कह सके। कृष्ण को हम पूर्ण अवतार कह सके, ही पाना था। वही क्षण, वही कत्य सब कछ था। उसके बाहर कोई क्योंकि परमात्मा जिस तरह परा निरुद्देश्य है, ऐसा ही यह व्यक्ति स्पृहा न थी। तब एक हल्कापन था पैरों में; पक्षियों के परों का | | भी पूरा निरुद्देश्य है। एक-एक कृत्य खेल की तरह है, काम की हल्कापन था। मन में हवाओं की ताजगी थी; आंखों में फूलों की | तरह नहीं है। सरलता थी। कहीं जा न रहे थे; कोई तनाव न था, कोई टेंशन न | पर कृष्ण जो यह वक्तव्य देते हैं. फल की स्पहा नहीं है। हमें था। एक-एक कदम स्पांटेनियस था। कहीं भी रुक सकते थे और समझना बहुत कठिन हो जाएगा। क्योंकि हम तो कहेंगे, फल की कहीं से भी वापस लौट सकते थे। कोई दबाव न था। कहीं खींचे स्पृहा न हो, तो हम कदम ही न उठाएंगे। अगर फल न पाना हो, न जा रहे थे; कहीं से धकाए न जा रहे थे। न तो पीछे से कोई धक्का | | तो हम कुछ करेंगे ही क्यों? हमें तो सारा कर्म फल प्रेरित है, रिजल्ट दे रहा था कि जाओ; न आगे से कोई खींच रहा था कि आओ। ओरिएंटेड है। फल आता हो, तो हम करेंगे। फल न आता हो तो? प्रत्येक कदम अपने आप में पूरा था, टोटल इन इटसेल्फ। कहीं भी फल न आता हो, तो हम क्यों करेंगे? हमारा जीवन वर्तमान में नहीं, रुक सकते थे, वापस लौट सकते थे। कोई न कहता कि वापस क्यों सदा भविष्य में है। हम आज नहीं जीते; सदा कल जीते हैं।
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जीवन एक लीला
कल कभी जी नहीं सकते, सिर्फ खयाल में ही रहते हैं। इसलिए अगर आपका प्रेमी आपके पास बैठा है, तो वर्तमान ही रह जाता हम जीते कम, मरते ही ज्यादा हैं। हम कहते हैं, कल। फल सदा है। फिर आप यह नहीं सोचते, कल क्या होगा? फिर आप वही कल है। फल का मतलब, कल।
जानते हैं, जो अभी हो रहा है। कल खो जाता है। फल कभी आज नहीं है। फल आज हो नहीं सकता। आज तो जब आप संगीत में डूब जाते हैं, तो कल खो जाता है। फिर आप कर्म ही हो सकता है; फल तो कल ही होगा। कल भी आ जाएगा, यह नहीं सोचते, कल क्या होगा? फिर आज ही, अभी, दिस वेरी तब भी फल आगे कल पर सरक जाएगा। कल फिर जब आज | मोमेंट, यही क्षण काफी हो जाता है। जब कोई भजन में लीन हो बनेगा, तो कर्म ही होगा।
गया, कीर्तन में डूब गया, तब यही क्षण सब कुछ हो जाता है। सारा आज सदा कर्म है: फल सदा कल है। आज, वर्तमान। कल, | अस्तित्व इसी क्षण में समाहित हो जाता है। सब सिकुड़कर, सारा भविष्य। फल सदा कल्पना में है। फल का कोई अस्तित्व नहीं है; अस्तित्व इसी क्षण में केंद्रित हो जाता है। इस क्षण के बाहर फिर अस्तित्व तो कर्म का है। परमात्मा भविष्य में नहीं जीता, क्योंकि कुछ भी नहीं है। परमात्मा कल्पना में नहीं जीता।
जीवन के जो भी आनंद के क्षण हैं, वे वर्तमान के क्षण हैं। कल्पना में कौन जीते हैं? इसे समझ लें, तो कृष्ण की यह बात परमात्मा तो प्रतिपल आनंद में है। इसलिए उसकी कोई फलाकांक्षा समझ में आ जाएगी। कल्पना में कौन जीते हैं? जो फ्रस्ट्रेटेड हैं, वे नहीं हो सकती। कल्पना में जीते हैं। जिनका जीवन विषाद से भरा है, दुख से भरा कृष्ण कहते हैं, जिस दिन कोई इस सत्य को समझ लेता है, उस है, वे कल्पना में जीते हैं। क्यों? क्योंकि कल्पना से वे अपने विषाद दिन वह भी फलातुर नहीं रह जाता। की परिपूर्ति करते हैं, सब्स्टीटयूट करते हैं।
अब मैं दूसरी बात आपसे कहूं। मैंने कहा, दुखी आदमी फलातुर ' आज जिंदगी इतनी उदास है कि कल के फल की आशा से उस होता है। और अब मैं आपसे यह भी कहूं कि फलातुर आदमी दुखी उदासी को हम मिटाए चले जाते हैं। आज तो जिंदगी में कुछ भी होता चला जाता है। यह विसियस सर्किल है, यह दुष्टचक्र है। नहीं है। कल के फूलों की आशा में आज को सजाए चले जाते हैं। दुखी होंगे, तो फल की आकांक्षा करेंगे। फल की आकांक्षा करेंगे, आज तो सब खाली और रिक्त है। कल का श्रृंगार, कल की आशा, दुखी होंगे। ये जुड़ी हुई बातें हैं दोनों। क्यों? दुखी होंगे, तो मैंने आज पैरों को गति देती है।
समझाया, फल की आकांक्षा क्यों करेंगे! क्योंकि इस क्षण के दुख कल भी यही हुआ था; कल भी यही होगा। आज होगा सदा को मिटाने का भविष्य की कल्पना के अतिरिक्त आपके पास कोई खाली, और कल होगा सदा भरा हुआ! और अंत में जब जिंदगी | भी उपाय नहीं है। दिखाई नहीं पड़ता, उपाय तो है। का जोड़ लगाइएगा, तो ध्यान रखें, जिंदगी कल का जोड़ नहीं है, कृष्ण उसी उपाय को बताते हैं, लेकिन वह हमें दिखाई नहीं जिंदगी आज का जोड़ है। सब खाली आज जब आखिर में जुड़ेंगे, पड़ता। हमें यही दिखाई पड़ता है कि कल्पना में भूल जाओ। इस तो पता चलेगा, हाथ खाली के खाली रह गए। क्योंकि जिंदगी आज क्षण को भूल जाओ। भरोसा रखो, कल सब ठीक हो जाएगा। का जोड़ है, कल का जोड़ नहीं है।
आज जिंदगी अभिशाप है, कल वरदान बन जाएगी। आज कांटे हैं, आज अस्तित्व है; कल तो सिर्फ कल्पना है, इमेजिनेशन है। कल कल फूल हो जाएंगे। भरोसा रखो! कल तो आने दो; कल सब कभी आता नहीं। पर आज है पीड़ा से भरा। अगर कल भी न रह ठीक हो जाएगा। कल तक प्रतीक्षा करने में इससे सहारा मिल जाता जाए, तो बहुत मुश्किल हो जाए; पैर का उठना मुश्किल हो जाए। | है। कंसोलेशन, सांत्वना बन जाती है। फिर कल आ जाता है।
यह जो हमारी दुख से भरी स्थिति है, इसके लिए हम फलातुर | लेकिन दुख के कारण फल के तीर हमने भविष्य में पहुंचाए। हैं। परमात्मा आनंदमग्न है। फलातुर होने की जरूरत नहीं है। सिर्फ | दुख के कारण कामना के सेतु बनाए-इंद्रधनुष के सेतु, रेनबो दुखी आदमी फलातुर होता है; दुखी चित्त फलातुर होता है। | ब्रिजेज-जिन पर चल नहीं सकते, जो सिर्फ दिखाई पड़ते हैं। पास आनंदित चित्त फलातुर नहीं होता। आप भी जब कभी आनंद में होते | | जाओ, खो जाते हैं। इसलिए कभी इंद्रधनुष के पास नहीं जाना हैं. तो भविष्य मिट जाता है और वर्तमान रह जाता है। जब भी। चाहिए। खो जाता है। दर से लगता है कि बना है। चाहो
अगर आप किसी के प्रेम में पड़ गए, तो भविष्य मिट जाता है। तो जमीन से आकाश में चले जाओ चढ़कर। पास भर न जाना।
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गीता दर्शन भाग-26
जाना खतरनाक है।
बुन लें। अब ड्रीम की कोई जगह न रही। अब रिअलिटी है; अब तो इच्छाओं के सेतु बनाते हैं कल में। बड़े प्रीतिकर लगते हैं। | तथ्य ही सामने रह गया। अब आज ही बचा। इंद्रधनुष के सब रंग होते हैं उनमें। शायद इंद्रधनुष से भी ज्यादा रंग ___ आज के साथ जीने की हमारी कोई आदत नहीं है। कल के साथ होते हैं। फिर कल आता है और इंद्रधनुष दिखाई नहीं पड़ता कि कहां ही सदा जीए थे। अब जीना बहुत मुश्किल है। इसलिए हम मौत है। तब दुख पैदा होता है। दुख था, इसलिए इंद्रधनुष बनाया; फिर | से डरते और भयभीत होते हैं। मौत, कल की मौत है; इससे हम इंद्रधनुष नहीं मिलता, तो दुख पैदा होता है। फिर और बड़े इंद्रधनुष डरते हैं। बनाते हैं। लगता है, शायद छोटे बनाए थे, इसलिए मिल नहीं | ___ कृष्ण कहते हैं—वह जो परम सत्ता है, उसकी तरफ से-कि मैं सके। लगता है, शायद थोड़ी कम मेहनत की, इसलिए कल्पनाएं आज ही जीता हं, अभी और यहीं। फल की स्पहा नहीं है। कल की अधूरी रह गईं। लगता है, शायद थोड़ा दौड़ने में कंजूसी हुई, आकांक्षा नहीं है। टुडे इज़ इनफ, आज काफी है। इसलिए पहुंच नहीं पाए। और जोर से दौड़ो, और बड़े धनुष जीसस अपनी प्रार्थना में कहते हैं, गिव मी टुडेज ब्रेड, आज की बनाओ, और फैलाओ कल्पना के जाल को, तो कल तृप्ति होगी। रोटी पर्याप्त है। फिर वह कल भी आ जाता है। फिर वे कल्पना के जाल भी अधूरे | न्यू मैन ने अपने गीत में लिखा है, आई डू नाट लांग फार दि और टूटे के टूटे रह जाते हैं। टूटे हुए इंद्रधनुष फिर बड़ा दुख देते डिस्टेंट सीन, दूर के दृश्यों की आकांक्षा नहीं है मुझे। वन स्टेप इज़ हैं। फिर और बड़ा करो। फिर जीवन से मृत्यु तक यही करते रहो। | इनफ फार मी, एक कदम काफी है। दूर के दृश्यों की आकांक्षा नहीं बनाओ इंद्रधनुष और खंडों को बटोरो। टूटे हुए इंद्रधनुषों को इकट्ठे मुझे एक कदम काफी है। करते चले जाओ। फिर आखिर में जिंदगी एक खंडहर, । कृष्ण कहते हैं, अभी और यहीं-हियर एंड नाउ—सब है। आर्चिओलाजी के काम का, और किसी काम का नहीं। खंडहर- फल की स्पृहा नहीं है मुझे। दो कारणों से। पुरातत्व के शोधियों के काम का। हाथ में कुछ भी नहीं; सिर्फ | एक तो आनंदमग्न चित्त अभी और यहीं होता है। और जैसा मैंने आशाओं के खंडहर; भग्न आशाओं के सेतु; खो गए सब! और | कहा कि दुख से कल की आकांक्षा पैदा होती; कल की आकांक्षा मौत सामने है। फिर सेतु बनाना भी मुश्किल हो जाता है। | से दुख घना होता; ऐसे ही यह भी आपसे कहूं, आनंदित चित्त में
इसलिए मौत से हम डरते हैं। मौत से डरने का कारण यह नहीं है कल की आकांक्षा पैदा नहीं होती। और कल की आकांक्षा जिस कि मौत से हम डरते हैं। क्योंकि जिससे हम परिचित नहीं हैं, उससे | चित्त में पैदा नहीं होती, उसका आनंद सघन होता है। उसका भी डरेंगे कैसे! जिसे हम जानते नहीं हैं, उससे डरेंगे कैसे! जिसे हमने अपना एक वर्तुल है। कभी देखा नहीं, उससे डरेंगे कैसे! डरने के लिए भी थोड़ा परिचय जितना-जितना कल की आकांक्षा नहीं होती, उतना-उतना आज जरूरी है। मौत से हम नहीं डरते। डरते हम इससे हैं कि मौत का | सघन आनंद से भरता चला जाता है। अनंत आनंद आज ही मतलब है, कल अब नहीं होगा। मौत का मतलब है, नो टुमारो नाउ। | सिकुड़कर मिलने लगता है। मौत का मतलब है, अब आगे कल नहीं है। फिर हमारे इंद्रधनुषों का | ___ परमात्मा क्षणजीवी है। लेकिन उसका क्षण इटरनिटी है; उसका क्या होगा? फिर हमारी कल्पनाओं के जाल का क्या होगा? हम तो क्षण अनंत है। एक क्षण ही अनंत है। हम भविष्यजीवी हैं। लेकिन सदा कल में ही जीए थे; आज तो कभी जीए नहीं थे। मौत कहती है, हमारा भविष्य सिवाय मृत्यु के और कुछ नहीं लाता। हमारा भविष्य बस, अब आज है; कल नहीं। तो हम क्या करें?
अमावस की रात के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं निर्मित करता। इसलिए मौत उदास कर जाती है। मौत नहीं करती उदास, कल | | हमारा भविष्य प्राणों में सिर्फ घाव छोड़ जाता है; अनजीए घाव। घाव का अभाव, कल का समाप्त हो जाना। अब कोई कल नहीं है: अब उस जीवन के, जो हमने जीया नहीं और जिसे हम चक गए हैं। आज ही है। अब हम मरे! अब हम अपने पर ही फेंक दिए गए। कृष्ण कहते हैं, जो इस बात को समझ लेता, जो मेरे इस स्वरूप थ्रोन बैक टु वनसेल्फ। अब कोई कल का उपाय न रहा, जिसमें को समझ लेता, वह भी मेरे जैसा हो जाता है। हम भरोसे खोज लें। अब कल का कोई उपाय न रहा, जिसमें हम आनंद की जिन्हें भी तलाश है, वे कल से मुक्त हो जाएं। सत्य सहारे बना लें। अब कल न रहा, जिसमें हम सपने गूंथ लें, सपने की जिन्हें भी खोज है, वे भविष्य को विदा कर दें। हां, दुख की
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जीवन एक लीला
जिन्हें तलाश है, वे कल को खोजें। नर्क के द्वार पर जिनको सकता है, जो बिलकुल गंभीर नहीं है। सिर्फ खेल समझ रहा है। खटखटाना है, वे भविष्य में सेतु बनाएं स्वप्नों के। स्वर्ग के द्वार | इसलिए ठीक है। को जिन्हें खोल लेना है। उनके लिए द्वार अभी और यहीं है। उसे राम का पार्ट दे दो, तो भी परा कर देगा: रावण का दे दो
लेकिन अभी और यहीं होने का राज क्या है, सीक्रेट क्या है ? | तो भी पूरा कर देगा। वह यह नहीं कहेगा कि रावण का पार्ट हम सीक्रेट है—फल की स्पृहा नहीं; कर्म काफी है। जो कर रहे हैं, | पूरा नहीं करते! खेल ही है, तो झंझट क्या है; चलेगा। राम का दे उतना ही काफी है। लेकिन वह कब होगा काफी? जब कर्म खेल दो, तो वह कहेगा, चलेगा। राम और रावण में उसे असंगति नहीं बन जाए, लीला बन जाए।
दिखाई पड़ेगी। इसलिए कि वह कहता है, पर्दे के पीछे न कोई राम लेकिन हम तो खेल को भी कर्म बना लेते हैं। हम तो इतने है, न कोई रावण है। वह पर्दे के बाहर खेल है, जो मर्जी; हम पूरा कशल हैं कि हम खेल को कर्म बना लेते हैं। कष्ण कहते हैं. कर्म | किए देते हैं। गंभीर नहीं है, क्योंकि खेल है जिंदगी। स्पृहा नहीं है को खेल बनाओ। हम दूसरे छोर हैं, ठीक उलटे। हम खेल को कर्म | भविष्य की, फल की, क्योंकि खेल है जिंदगी। परम अस्तित्व के बना लेते हैं! कृष्ण कहते हैं, जीवन नाटक हो जाए। हमने उलटी | लिए तो सभी कुछ खेल है; भविष्य है ही नहीं। कुशलता अर्जित की है। हम नाटक को जीवन बना लेते हैं। । यह आखिरी बात इस सत्र में आपसे कहं। हम समय को तीन
देखा है, सिनेमागृह में बैठे लोगों को? रूमाल गीले कर रहे हैं; | हिस्सों में बांटते हैं हम, ह्यूमन माइंड, मनुष्य का मन समय को आंसू पोंछ रहे हैं। पर्दे पर कुछ भी नहीं है, सिवाय छायाओं के। | तीन हिस्सों में बांटता है-भविष्य, वर्तमान, अतीत; पास्ट, प्रेजेंट, सिवाय प्रकाश के और छायाओं के मेल-जोल के, पर्दे पर कुछ भी | फ्यूचर। समय बंटा हुआ नहीं है। परमात्मा से अगर जाकर पूछेगे, नहीं है। खाली पर्दा है। आंसू पोंछ रहे हैं! हृदय की धड़कन बढ़ | तो वह कहेगा, तीन? समय तो सदा वर्तमान है। समय न तो पास्ट गई है। कोई का ब्लडप्रेशर बढ़ गया होगा! निकलते हैं सिनेमागृह है, और न फ्यूचर है। समय सिर्फ वर्तमान ही है। हम बांटते हैं। से, देखें लोगों के चेहरे, तो पता चलेगा, नाटक जिंदगी बन गई है। सच तो यह है कि अगर हम और थोड़ी बुद्धिमानी करें, तो हमें वह तो सिनेमागृह में अंधेरा रहता है, यह बड़ा अच्छा है। आदमी | वर्तमान को अलग कर देना चाहिए, क्योंकि वर्तमान का हमें कोई अपना चुपचाप रो लेता है; पोंछ लेता है; बैठ जाता है। देखें अनुभव ही नहीं है। हमें या तो अतीत का अनुभव है या भविष्य सिनेमागृह में! अब की बार सिनेमा न देखें, जाएं तो देखने वालों का। या तो हमें उस राख के ढेर का पता है, जो हमारी आकांक्षाओं को देखें। अच्छा तो यह हो, अपने को देखें, तो और मजा आएगा की हमारे पीछे लग गई है। या तो हमें उस सबका पता है, जो बीत कि क्या कर रहे हैं! यह क्या हो रहा है!
गया-अतप्ति के ढेर। और या हमें पता है वह. जो अभी नहीं कृष्ण कहते हैं, यह पूरा जीवन ही नाटक है। हम कहते हैं, | बीता; होना चाहिए, होगा-आकांक्षाओं के इंद्रधनुष। वर्तमान का नाटक! नाटक खद ही जीवन है। अगर यह बात दिखाई पड़ जाए | हमें कोई भी पता नहीं है। हमारे लिए समय अतीत और भविष्य है। कि फिल्म के पर्दे पर सिवाय विद्युत के किरणों के जाल के और ___ वर्तमान हम किसे कहते हैं ? हम वर्तमान उस क्षण को कहते हैं, कुछ भी नहीं, तो किसी दिन यह भी पता चल जाएगा कि इस पृथ्वी | जिस क्षण में हमारा भविष्य अतीत बनता है, दि फ्यूचर पासेस इनटु पर भी विद्युत की किरणों के जाल के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं | दि पास्ट। हम उस संक्रमण के क्षण को, ट्रांजीशन को, उस दरवाजे है। यहां भी कुछ भी नहीं है। तब यह सब नाटक हो जाता है, तब को वर्तमान कहते हैं, जिससे भविष्य अतीत बनता है; जिससे एक अभिनय हो जाता है।
| जीवन मृत्यु बनती है; जिससे जो नहीं था, वह नहीं था में वापस इसलिए कृष्ण एक कुशल अभिनेता हैं। बांसुरी भी बजा सकते | | चला जाता है। हैं, सुदर्शन भी उठा सकते हैं। परम ज्ञान की बात भी कर सकते हैं, ___ हमारे लिए वर्तमान सिर्फ एक द्वार है, बहुत बारीक, जिसे हम गंवार ग्वालों के साथ नाच भी सकते हैं। गीता का उपदेश भी दे | | कभी नहीं पकड़ पाते हैं कि वह कहां है। जब हम पकड़ पाते हैं, सकते हैं, स्त्रियों के वस्त्र उठाकर वृक्ष पर भी बैठ सकते हैं। ऐसा | | तब तक अतीत हो चुका होता है। जब तक हम नहीं पकड़ पाते हैं, इनकंसिस्टेंट, ऐसा असंगत आदमी पृथ्वी पर दूसरा नहीं हुआ है। | तब तक वह भविष्य रहता है। लेकिन परमात्मा की स्थिति बिलकुल लेकिन उस असंगति में एक राज है। इतना असंगत वही हो| और है। परमात्मा के लिए भविष्य है ही नहीं। और कोई अतीत भी
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गीता दर्शन भाग-28
नहीं है। परमात्मा के लिए सिर्फ वर्तमान है; मात्र वर्तमान। इसलिए | कृष्ण इसलिए कहते हैं, फल की कोई स्पृहा नहीं। भविष्य ही परमात्मा के लिए समय इटरनिटी है, एक अनंतता है। बहाव नहीं नहीं, फल की स्पृहा कैसे करेंगे। यही क्षण सब कुछ है। ऐसा जो है, एक अनंतता है; एक ठहरी हुई अनंतता। सब ठहरा हुआ है, जान लेता है, वह भी इसी स्थिति को उपलब्ध हो जाता है। सरोवर की भांति।
| इस सूत्र को गहरे में अनुभव करने की जरूरत है। यह सार सूत्रों परमात्मा के लिए काज और इफेक्ट नहीं हैं, कार्य और कारण | में से एक है। नहीं हैं। हमारे लिए हैं। कार्य का मतलब, भविष्य; कारण का मतलब, अतीत। वर्तमान, जिसमें से कारण कार्य बनता है या कार्य पुनः कारण बनता है। परमात्मा के लिए कार्य-कारण नहीं हैं। .. प्रश्नः भगवान श्री, बारहवें श्लोक में कहा गया है
हमारी स्थिति करीब-करीब ऐसी है, पूरे हमारे दिमाग की, चाहे कि कर्मफलों को चाहने वाले लोग देवताओं को पूजते वह वैज्ञानिक का दिमाग हो, चाहे दार्शनिक का हो, चाहे गहरे से हैं और उनके कर्मों की सिद्धि भी शीघ्र ही होती है। गहरे सोचने वाले का हो। मनुष्य के मस्तिष्क के सोचने का ढंग परंतु उनको मेरी प्राप्ति नहीं होती। इसलिए तू मेरे को करीब-करीब ऐसा है, जैसे कि एक छोटा-सा छेद हो दीवाल में ही सब प्रकार से भज। कृपया इसका अर्थ स्पष्ट करें। और एक बिल्ली कमरे के भीतर बंद हो। धुंधला प्रकाश हो। और और दूसरी बात, आठवें श्लोक में है, कि धर्म के हम छेद से देख रहे हों।
संस्थापन के लिए मैं आता हूं। धर्म के संस्थापन का बिल्ली निकले छेद के सामने से। पहले उसका चेहरा दिखाई अर्थ भी कृपया समझाएं। पड़े। छेद छोटा है। चेहरा दिखाई पड़ता है। फिर उसकी पीठ दिखाई पड़ती है। फिर उसकी पूंछ दिखाई पड़ती है। फिर बिल्ली लौटती है; फिर उसका चेहरा पहले दिखाई पड़ता है, फिर उसकी पीठ कर्मफलों की चाहना करने वाले लोग देवताओं को दिखाई पड़ती है, फिर उसकी पूंछ दिखाई पड़ती है। फिर हम कहते प भजते हैं। कर्मफल की चाहना करने वाला व्यक्ति हैं, हेड मस्ट बी दि काज एंड टेल मस्ट बी दि इफेक्ट। क्योंकि
परमात्मा को नहीं भज सकता। कर्मफल की चाहना हमेशा सिर के पीछे पूंछ है। कहीं से भी बिल्ली घूमती हो कमरे में, | करने वाला व्यक्ति देवताओं को ही भज सकता है। क्यों? क्योंकि हमारे छेद में से दिखाई पड़ता है पहले सिर, फिर पीठ, फिर पूंछ। परमात्मा के भजने की शर्त है, कर्मफल की चाहना न करना। निश्चित ही सिर कारण है, पूंछ कार्य है।
| परमात्मा के भजन का एक ही अर्थ है, कर्मफल की चाहना छोड़ बेचारी बिल्ली को पता ही नहीं। वहां हेड, टेल एक ही हैं; वहां देना; फल की आकांक्षा छोड़ देना। कोई कार्य-कारण नहीं हैं। वहां दोनों ही एक हैं। वहां बिल्ली के ___ तो फल के लिए तो परमात्मा को भजा ही नहीं जा सकता। वह लिए सिर और पूंछ एक ही चीज के दो हिस्से हैं। | कंडीशन में ही नहीं आता। वह बेशर्त! परमात्मा की शर्त ही यही है
परमात्मा के लिए बीज और वृक्ष, कार्य और कारण नहीं हैं; एक कि तू मेरे पास आएगा तभी, जब बिना कुछ मांगता हुआ आएगा। ही चीज के दो हिस्से हैं। परमात्मा के लिए जन्म और मृत्यु, अतीत | कुछ मांगा, तो मुझसे दूरी हो जाएगी। तेरी मांग ही दूरी बन जाएगी। और भविष्य नहीं हैं; एक ही चीज के दो छोर हैं। हेड एंड टेल, सिर | । असल में मांग बताती है कि परमात्मा की हमें जरूरत नहीं है। और पूंछ। हमारे लिए सब दिक्कत है। हमारे देखने के ढंग की परमात्मा की सेवाओं की जरूरत है। सर्विसेस आर नीडेड; वजह से सारी दिक्कत है। बहुत छोटा छेद है हमारे सोचने का। वह | परमात्मा की कोई जरूरत नहीं है। एक आदमी को अपनी दुकान में छोटा छेद क्यों है? क्योंकि वर्तमान बहुत छोटा है हमारा, इसलिए | सफलता पानी है; चुनाव में जीत जाना है। किसी को धन कमाना छेद छोटा है। वर्तमान बड़ा हो जाए, छेद बड़ा हो जाए। वर्तमान ही | | है; किसी को बीमारी से मुक्ति पानी है। किसी को चाहे गए व्यक्ति रह जाए, तो सब दीवाल गिर जाती है। फिर अस्तित्व को हम वैसा | से विवाह करना है। परमात्मा की सेवाओं की जरूरत है, कि उससे ही जानते हैं, जैसा वह है। अस्तित्व में न तो कुछ बीता है, न कुछ | विवाह करा दो, जिससे करना चाहता हूं; उस कुर्सी पर पहुंचा दो, होने वाला है। सब है। सब मौजूद है।
जहां चढ़ना चाहता हूं। लेकिन मांग बताती है कि परमात्मा की
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जीवन एक लीला 0
जरूरत नहीं है। मांग ही फासला है। फल की जरूरत है! और । के ही पार हो जाता है। कर्ता के ही पार हो जाता है। इसलिए शुभ परमात्मा मिलता है उसको, जिसको फल की आकांक्षा नहीं है। आत्माएं जन्म लेने को आतुर हैं और शुभ करने को आतुर हैं।
इसलिए कर्मों के फल की चाहना करने वाला मेरे निकट नहीं | | इसलिए जो लोग कर्मों के फल चाहते हैं, वे देवताओं को भजते हैं। आता, कृष्ण कहते हैं, मेरे निकट आएगा ही नहीं। क्योंकि मेरी शर्त | वे शुभ आत्माओं से सहायता मांगते हैं। इनसे सहायता मिल सकती ही पूरी नहीं करता। दि कंडीशन इज़ नाट फुलफिल्ड। शर्त ही यही है। इसमें कोई कठिनाई नहीं है। है कि बिना कुछ चाहे मेरे पास आओ, तो ही मेरे पास आ सकते हो। इसलिए कृष्ण कहते हैं कि मुक्ति के लिए तो तू मुझको भज। - अस्तित्व की भी शर्ते हैं। सौ डिग्री तक पानी गर्म हो जाए, तो शक्ति के लिए भजना हो, तो देवताओं को भज। मुक्ति के लिए भाप बन जाता है। निन्यानबे डिग्री तक गर्म हो, तो भी भाप नहीं भजना हो, तो तू मुझको भज। बनता; तो भी पानी ही रहता है। तो भाप कह सकती है कि सौ डिग्री लेकिन परमात्मा के निकट जाने की शर्त बड़ी कठिन है। सौ तक बनो तुम, तो आ जाओगे मेरे पास। आकाश कह सकता है कि डिग्री तक गर्म होना पड़े, भाप बनना पड़े, इवोपरेट होना पड़े। सौ डिग्री तक गर्म हो जाओ, तो बदलियां बन जाओगे, मुझमें तैर अहंकार जब तक भाप न हो जाए, हवा-हवा न हो जाए, तब तक सकोगे। लेकिन अगर सौ डिग्री तक गर्म नहीं होते, तो फिर पानी आकाश की तरफ उड़ान नहीं होती है। और अहंकार तब तक नहीं ही रहो और पृथ्वी पर ही चलो। फिर पानी ही रहो और नीचे की मिटता, जब तक फल-आकांक्षा शेष रहती है। तरफ बहो।
इसलिए वे कहते हैं कि तू अगर मुक्त होना चाहे अर्जुन, अगर कभी खयाल किया है आपने? पानी नीचे की तरफ बहता है, | तू सब दुखों से, सब संतापों से, सब पीड़ाओं से, सब बंधनों से भाप ऊपर की तरफ उठती है! सिर्फ सौ डिग्री की शर्त पूरी हो जाने | मुक्त होना चाहे, तो तू मुझे भज। से ऐसा हो जाता है कि भाप आकाश की तरफ उठने लगती है। लेकिन मुझे भजने का मतलब क्या? मुझे भजने का मतलब यह समुद्र आकाश की तरफ दौड़ने लगता है। और पानी हिमालय पर, है कि जैसे मैं कर्म की स्पृहा से, फल की स्पृहा से, भविष्य की गौरीशंकर पर भी हो, तो भी गड्डों की तरफ दौड़ता चला जाता है; आकांक्षा से, फलाकांक्षा से मुक्त हूं, ऐसा ही तू भी फलाकांक्षा से नीचे उतरता चला जाता है।
मुक्त हो जा। मेरे भांति बर्त। कर्म कर, कर्ता न रह जा। चल, चलने कर्मफलों की आकांक्षा परमात्मा के बीच व्यवधान है। वाला न रह जा। उठ-बैठ, उठने-बैठने वाला न रह जा। कर, लेकिन
इसलिए कृष्ण कहते हैं, जो कर्मों के फल के लिए भजता है, वह | | भीतर से कर्ता को विदा कर दे। होने दे, जो होता है। परम शक्ति के मुझे नहीं भज सकता। वह मेरी जगह सिर्फ देवताओं को भजता है। हाथों में साधन मात्र हो जा-समर्पित, निमज्जित। अपने को छोड़।
देवताओं का मैंने रात आपको अर्थ किया, वे आत्माएं जो शरीर | तो तू समस्त दुखों से, समस्त बंधनों से मुक्त हो सकता है। नहीं ले पातीं, लेकिन अत्यंत शुभ हैं। लेकिन शरीर लेने को आतुर और दूसरी बात पूछी है, धर्म-संस्थापना के लिए, इसका क्या हैं अभी; अभी मुक्त नहीं हो गई हैं।
अर्थ है? ध्यान रहे, मुक्त वही होता है, जो न शुभ रह जाता, न अशुभ; धर्म नष्ट कभी नहीं होता। कुछ भी नष्ट नहीं होता, तो धर्म तो न गुड, न बैड। शुभ आत्मा भी मुक्त नहीं होती; अशुभ आत्मा भी नष्ट होगा ही नहीं! धर्म कभी नष्ट नहीं होता, लेकिन लुप्त होता मुक्त नहीं होती। अशुभ आत्मा भी बंधी रहती है अपने अशुभ कर्मों है। लुप्त होने के अर्थों में नष्ट होता है। उसकी पुनर्संस्थापना की से, लोहे की जंजीरों से। शुभ आत्मा बंधी रहती है अपने शुभ कर्मों निरंतर जरूरत पड़ जाती है। उसकी पुनर्प्रतिष्ठा की निरंतर जरूरत से, सोने की जंजीरों से। जंजीरों में फर्क है। बुरी आत्मा के पास पड़ जाती है। लोहे की जंजीरें हैं, कुरूप, जंग खाई हुई। शुभ आत्मा के पास अधर्म कभी अस्तित्ववान नहीं होता। जैसे धर्म कभी चमकदार, पालिश्ड, सुसंस्कृत, सोने की जंजीरें हैं, हीरे-जवाहरातों अस्तित्वहीन नहीं होता, अधर्म कभी अस्तित्ववान नहीं होता। से जड़ी। बाकी बंधन दोनों के हैं।
लेकिन बार-बार, फिर भी उस अस्तित्वहीन अधर्म को हटाने की शुभ आत्माएं भी मुक्त नहीं होती हैं। मुक्त तो वही होता है, जो जरूरत पड़ जाती है। शुभ-अशुभ के पार हो जाता है। बंधन के ही पार हो जाता है। कर्म इसे थोड़ा समझें। क्योंकि यह बड़ी उलटी बात मालूम पड़ेगी!
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गीता दर्शन भाग-28
जो धर्म कभी नष्ट नहीं होता, उसकी संस्थापना की क्या जरूरत अधर्म, जो नहीं है; धर्म, जो सदा है। है? और जो अधर्म कभी होता ही नहीं, उसके मिटाने की क्या | सूरज स्रोत है प्रकाश का। अंधेरे का स्रोत पता है, कहां है? कहीं जरूरत है? लेकिन ऐसा भी है।
| भी नहीं है। सूरज से आ जाती है रोशनी। अंधेरा कहां से आता है? अंधेरा है। अंधेरा है नहीं। रोज मिटाना पड़ता है, और है बिलकुल फ्राम नो व्हेयर। कोई सोर्स नहीं है। नहीं! अंधेरे का कोई अस्तित्व नहीं है। अंधेरा एक्झिस्टेंशियल नहीं कभी आपने पूछा, अंधेरा कहां से आता है? कौन डाल देता है है। अंधेरा कोई चीज नहीं है। फिर भी है।
इस पृथ्वी पर अंधेरे की चादर? कौन आपके घर को अंधेरे से भर __ यह मजा है, यह पैराडाक्स है जिंदगी का, अंधेरा है नहीं, फिर | देता है ? प्रकाश का तो स्रोत है—सूरज। अंधेरे का स्रोत कहां है? भी है। काफी है। घना होता है। डरा देता है। प्राण कंपा देता है। | स्रोत नहीं है, क्योंकि है ही नहीं अंधेरा, नहीं तो स्रोत भी होता।
और नहीं है! अंधेरा सिर्फ प्रकाश की अनुपस्थिति है। सिर्फ एब्सेंस कहीं से आता, कहीं जाता। जब सुबह सूरज आ जाता है, तो अंधेरा है। जैसे कमरे में आप थे और बाहर चले गए; तो हम कहते हैं, कहां चला जाता है? कहीं सिकुड़कर छिप जाता है ? कहीं नहीं अब आप कमरे में नहीं हैं। अंधेरा इसी तरह है। अंधेरे का मतलब सिकुड़ता, कहीं नहीं जाता। है ही नहीं; कभी था नहीं। अंधेरा कभी इतना ही है कि प्रकाश नहीं है।
नहीं है, फिर भी रोज उतर आता है! प्रकाश सदा है, फिर भी रोज इसलिए अंधेरे को तलवार से काट नहीं सकते। अंधेरे को गठरी सांझ जलाना पडता और खोजना पडता है। में बांधकर फेंक नहीं सकते। दुश्मन के घर में जाकर अंधेरा डाल ऐसा ही धर्म और अधर्म है। अंधेरे की भांति है अधर्म; प्रकाश नहीं सकते, कि डाल दो इसके घर में अंधेरा, दुश्मन के। अंधेरा | की भांति है धर्म। रोज, प्रतिदिन खोजना पड़ता है। . डाल नहीं सकते। अंधेरा घर के बाहर निकालना हो, तो धक्का | | युग-युग में, कृष्ण कहते हैं, लौटना पड़ता है। मूल स्रोत से धर्म देकर निकाल नहीं सकते। धक्का देते-देते आप घर के बाहर को फिर वापस पृथ्वी पर लौटना पड़ता है। सूर्य से फिर प्रकाश को निकल जाओगे, अंधेरा पीछे ही रहेगा।
| वापस लेना पड़ता है। यद्यपि जब प्रकाश नहीं रह जाता सूर्य का, ___ अंधेरा है नहीं। सब्स्टेंशियल नहीं है। अंधेरे में कोई सब्स्टेंस नहीं | तो हम मिट्टी के दीए जला लेते हैं। केरोसिन की कंदील जला लेते है। कोई कंटेंट नहीं है। अंधेरे में कोई वस्तु नहीं है। अंधेरा अवस्तु हैं। उससे काम चलाते हैं। लेकिन काम ही चलता है। कहां सूरज! है, नो-थिंग है, नथिंग है। अंधेरे में कुछ है नहीं। लेकिन फिर भी - कहां कंदीलें! बस, काम ही चलता है। है। रात प्राण कंप जाते हैं अंधेरे में। डर लगता है जाने में। इतना तो | | तो जब कृष्ण जैसे व्यक्तित्व नहीं होते पृथ्वी पर, तब छोटे-मोटे है कि डरा दे। इतना तो है कि कंपा दे। इतना तो है कि गड्ढे में गिरा | दीए, कंदीलें केरोसिन की, धुआं भी काफी निकलता है उनमेंदे। इतना तो है कि हाथ-पैर टूट जाएं।
| रोशनी कम ही निकलती है, धुआं ही ज्यादा निकलता है लेकिन अब यह बड़ी मुश्किल की बात है। जो नहीं है, उसके होने से | | उनसे भी काम चलाना पड़ता है। तथाकथित साधु-संतों की भीड़ आदमी गड्ढे में गिर जाता है। अब यह कहना नहीं चाहिए, क्योंकि | | ऐसी है, केरोसिन आयल, मिट्टी का तेल। मगर रात में बड़ी कृपा एब्सर्ड है। जो नहीं है, उसके होने से आदमी गड्ढे में गिर जाता है! | है उसकी। रात में बड़ी कृपा है उसकी, थोड़ा-सा धीमा-धीमा, जो नहीं है, उसके होने से हाथ-पैर टूट जाते हैं ! जो नहीं है, उसके | | दो-चार-दस फीट पर रोशनी पड़ती रहती है। लेकिन बार-बार होने से चोर चोरी कर ले जाते हैं। जो नहीं है, उसके होने से हत्यारा | | अंधेरा सघन हो जाता है, और बार-बार करुणावान चेतनाओं को हत्या कर देता है!
| लौट आना पड़ता है, जो आकर फिर सूरज से भर दें। कई बार ऐसा नहीं तो है बिलकुल। वैज्ञानिक भी कहते हैं, नहीं है। उसका कोई | | भी होता है कि सूरज जैसी चेतनाओं को आमने-सामने नहीं देखा अस्तित्व नहीं है। अस्तित्व है प्रकाश का। अब जिसका अस्तित्व | जा सकता। है, उसको रोज लाना पड़ता है। रोज सांझ दीया जलाओ। न __ आपने कभी खयाल किया, सूरज को कभी आप आमने-सामने जलाओ, तो अंधेरा खड़ा है।
नहीं देखते, दीए को मजे से देखते हैं। इसलिए साधु-संतों से तो कृष्ण कहते हैं, धर्म संस्थापनार्थाय! धर्म की संस्थापना के | | सत्संग चलता है, कृष्ण जैसे लोगों के आमने-सामने मुश्किल हो लिए; दीए को जलाने के लिए, अधर्म के अंधेरे को हटाने के लिए। जाती है। एनकाउंटर हो जाता है, झंझट हो जाती है, कई दफे तो
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जीवन एक लीला
आंखें चौंधिया जाती हैं। सच, सूरज की तरफ देखें, तो रोशनी कम | पहले होने वाले मुमुक्षु पुरुषों द्वारा भी इस प्रकार जानकर मिलेगी, आंखें बंद हो जाएंगी, अंधेरा हो जाएगा। सूरज को आदमी | | कर्म किया गया है; इससे तू भी पूर्वजों द्वारा सदा से किए तभी देखता है, जब ग्रहण लगता है, अन्यथा नहीं देखता कोई।
हुए कर्म को ही कर। अब यह बड़े मजे की बात है! ग्रहण लगे सूरज को लोग देखते हैं। पागल हो गए हैं? सूरज बिना ग्रहण के रोज अपनी पूरी ताकत से मौजूद है; कोई नहीं देखता। ग्रहण लगा कि लोग देखते हैं। क्या
ष्ण कहते हैं, ऐसा जानकर, ऐसा स्पृहा से फल की बात है? ग्रहण लगने से थोड़ा भरोसा आता है, अपन भी देख
मुक्त होकर, कर्ता से शून्य होकर, अहंकार से बाहर सकते हैं। थोड़ा सूरज कम है। अधूरा है। शायद इतने जोर से हमला
होकर, पहले भी पूर्वपुरुषों ने भी कर्म किया है, ऐसा नहीं करेगा।
ही तू भी कर्म कर। इसलिए कृष्ण जैसे व्यक्तियों को कभी भी समझा नहीं जाता; ___ पूर्वपुरुषों ने भी ऐसा ही कर्म किया है, कर्ता से मुक्त होकर। हमेशा मिसअंडरस्टैंड किया जाता है। और जिनको आप समझ लेते | जैसे, जनक। कहीं जनक का नाम भी कृष्ण ने पहले लिया हैं, समझ लेना, केरोसिन की कंदील। अपने घर में जलाई-बुझाई; है—जनकादि। वे कर्म करते रहे हैं कर्ता से मुक्त होकर। यह क्यों अपने हाथ से बत्ती नीची-ऊंची की। जैसी चाही, वैसी की। जब याद दिलाते हैं कृष्ण ? क्योंकि अक्सर ऐसा होता है कि जब तक जैसी चाही, वैसी की। जिनको आप समझ पाते हैं, समझ लेना कि हम फल की स्पृहा करते हैं, तब तक कर्म करते हैं। और जब हम घर के मिट्टी के दीए। जिनको आप कभी नहीं समझ पाते, आंखें कहते हैं फल की स्पृहा नहीं करते, तो हम फिर अकर्म करते हैं। चौंधिया जाती हैं, हजार सवाल उठ जाते हैं, मुश्किल पड़ जाती फिर हम कहते हैं, अब हम जाते हैं। है-समझना कि सूरज उतरा।
दो बातें हमारे लिए संभव मालूम पड़ती हैं। या तो हम फल की इसलिए कृष्ण को हम अभी तक नहीं समझ पाए। न क्राइस्ट को आकांक्षा करेंगे, तो कर्म करेंगे; या फल की आकांक्षा छोड़ेंगे, तो समझ पाए। न बद्ध को, न महावीर को. न मोहम्मद को। इनको | कर्म भी छोड़ेंगे। हम किसी को नहीं समझ पाते। इस तरह के व्यक्ति जब भी पृथ्वी इसलिए दो तरह के नासमझ पृथ्वी पर हैं। फल की आकांक्षा पर आते हैं, हमारी आंखें चौंधिया जाती हैं। फिर नहीं समझ पाते, करने वाले गृहस्थ और फल की आकांक्षा के साथ कर्म छोड़ देने तो फिर हजारों साल तक समझने की पीछे कोशिश करनी पड़ती है। | वाले संन्यासी। दो तरह के नासमझ पृथ्वी पर हैं। फल की आकांक्षा जब वे हट जाते हैं, तब हजारों साल तक; जब आंख के सामने नहीं | के साथ कर्म करने वाले गृहस्थ, फल की आकांक्षा के साथ कर्म रहते, तब हम अपने-अपने मिट्टी के दीए जलाकर और समझने की | भी छोड़ देने वाले संन्यासी-ये एक ही चीज के दो पहलू हैं। कोशिश करते हैं।
गृहस्थ कहता है कि हम कर्म कैसे करें बिना फल की आकांक्षा के? पुनः संस्थापना के लिए!
तो छोड़ देता है। नष्ट नहीं होता धर्म कभी, खो जरूर जाता है। अधर्म कभी ___ कृष्ण बहुत तीसरी बात कह रहे हैं। वे कह रहे हैं, तू कर्म तो कर स्थापित नहीं होता, छा जरूर जाता है। ऐसा समझ में आ सके, तो और फल की आकांक्षा छोड़ दे। आईअस है, बड़ा सूक्ष्म है; पर ठीक। अधर्म कभी स्थापित नहीं होता, छा जरूर जाता है। धर्म बड़ा रूपांतरकारी है; बड़ा ट्रांसफार्मिंग है। कभी नष्ट नहीं होता, खो जरूर जाता है। उसे पुनः पुनः खोजना __ अगर एक आदमी ने फल की आकांक्षा के साथ कर्म भी छोड़ पड़ता है। पुनः-पुनः स्थापित करना पड़ता है।
दिया, तो कुछ भी तो नहीं किया। यह तो कोई भी कर सकता था। एक श्लोक और ले लें।
फल की आकांक्षा के साथ कर्म के छोड़ने में, कुछ भी तो खूबी नहीं है। जैसे फल की आकांक्षा के साथ कर्म करने में कुछ खूबी नहीं
है, वैसे ही फल की आकांक्षा के साथ कर्म छोड़ देने में भी कुछ भी एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः । खूबी नहीं है। कोई भी विशेषता नहीं है। कोई भी साधना नहीं है। कुरु कमैव तस्मात्त्वं पूर्वः पूर्वतरं कृतम् ।। १५ । । । यह तो बड़ी आसान बात है। इसमें तो कुछ कठिनाई नहीं है। यह
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ॐ गीता दर्शन भाग-26
तो गृहस्थ ही पीठ करके खड़ा हो गया; मन जरा भी नहीं बदला।
कृष्ण कहते हैं, कर्म तो तू कर, कर्ता मत रह जा। कृष्ण कहते हैं, गृहस्थ तो तू रह, और संन्यासी हो जा। और कहते हैं, ऐसा पूर्वपुरुषों ने भी किया है। यह सिर्फ भरोसे के लिए, आश्वासन के लिए-कि तू घबड़ा मत! ऐसा मत सोच कि ऐसा कभी नहीं किया गया है। ऐसा पहले भी किया गया है।
सच में ही इस पृथ्वी पर जो लोग ठीक से जाने हैं, उन्होंने कर्ता को छोड़ दिया और कर्म को जारी रखा है।
ठीक संन्यासः कर्ताहीन, कर्म-सहित। ठीक संन्यासः अहंकार-मुक्त, कर्म-संयुक्त। ठीक संन्यासः स्वयं को छोड़ देता, शेष सबको जारी रखता है। ऐसे ठीक-ठीक संन्यास की, सम्यक संन्यास की, ऐसे राइट रिमंसिएशन की कृष्ण अर्जुन को शिक्षा देते हैं।
शेष हम रात बात करेंगे। पांच मिनट आप रुकेंगे। पांच मिनट कीर्तन में सम्मिलित हों। कर्ता को छोड़कर नाचें। पांच मिनट आनंद से भरें। और विदा हो जाएं।
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अध्याय 4 छठवां प्रवचन
वर्ण-व्यवस्था का मनोविज्ञान
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गीता दर्शन भाग-20
किं कर्म किमकति कक्योऽप्यत्र मोहिताः। ये प्रतिकर्म वैसे ही हैं, जैसे बटन दबाई और बिजली का बल्ब रते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ।। १६ ।। जल गया; बटन बुझाई और बिजली का बल्ब बुझ गया। बिजली कर्म क्या है और अकर्म क्या है, ऐसे इस विषय में बुद्धिमान का बल्ब भी सोचता होगा कि मैं कर्म करता हूं जलने का, बुझने का। पुरुष भी मोहित है, इसलिए मैं वह कर्म अर्थात कर्मों का लेकिन बिजली का बल्ब जलने-बुझने का कर्म नहीं करता है। कर्म तत्व तेरे लिए अच्छी प्रकार कहूंगा, जिसको जानकर तू उससे कराए जाते हैं। बटन दबती है, तो उसे जलना पड़ता है। बटन अशुभ अर्थात संसार-बंधन से छूट जाएगा। बुझती है, तो उसे बुझना पड़ता है। यह उसकी स्वेच्छा नहीं है।
इसको ऐसा लें, किसी ने आपको गाली दी। और अगर आप
गाली का उत्तर देते हैं, तो थोड़ा सोचें, यह गाली का उत्तर आपने कर्म क्या है और अकर्म क्या है, बुद्धिमान व्यक्ति भी | दिया या देना पड़ा? अगर दिया, तो कर्म हो सकता है; देना पड़ा, पा निर्णय नहीं कर पाते हैं। कृष्ण कहते हैं, वह गूढ तत्व तो प्रतिकर्म होगा। मैं तुझसे कहूंगा, जिसे जानकर व्यक्ति मुक्त हो जाता आप कहेंगे, दिया, चाहते तो न देते। तो फिर चाहकर कोशिश
करके देखें, तब आपको पता चलेगा। हो सकता है. ओंठों को रोक अजीब-सी लगेगी यह बात; क्योंकि कर्म क्या है और अकर्म लें, तो भीतर गाली दी जाएगी। तब आपको पता चलेगा, गाली क्या है, यह तो मूढजन भी जानते हैं। कृष्ण कहते हैं, कर्म क्या है | मजबूरी है; बटन दबा दी है किसी ने। और अगर कोई गाली दे, और अकर्म क्या है, यह बुद्धिमानजन भी नहीं जानते हैं। | और आपके भीतर गाली न उठे, तो कर्म हुआ। तो आप कह सकते
हम सभी को यह खयाल है कि हम जानते हैं, क्या है कर्म और हैं, मैंने गाली न देने का कर्म किया। क्या कर्म नहीं है। कर्म और अकर्म को हम सभी जानते हुए मालूम कर्म का अर्थ है, सहज। प्रतिकर्म का अर्थ है, प्रेरित, इंस्पायर्ड। पड़ते हैं। लेकिन कृष्ण कहते हैं कि बुद्धिमानजन भी तय नहीं कर | कारण है जहां बाहर, और कर्म आता है भीतर से, वहां कर्म नहीं है। पाते हैं कि क्या कर्म है और क्या अकर्म है। गूढ़ है यह तत्व। तो हम चौबीस घंटे प्रतिकर्म में ही जीते हैं। बुद्ध, या महावीर, या फिर पुनर्विचार करना जरूरी है। हम जिसे कर्म समझते हैं, वह कर्म कृष्ण, या क्राइस्ट जैसे लोग कर्म में जीते हैं। उनके जीवन में नहीं होगा; हम जिसे अकर्म समझते हैं, वह अकर्म नहीं होगा। प्रतिकर्म खोजे से भी नहीं मिलेगा।
हम किसे कर्म समझते हैं? हम प्रतिकर्म को कर्म समझे हुए हैं, एक आदमी बुद्ध के ऊपर आकर थूक गया है। तो वे मुस्कुराए। रिएक्शन को एक्शन समझे हुए हैं। किसी ने गाली दी आपको, और | उन्होंने अपनी चादर से थूक को पोंछ लिया। और उस आदमी से
आपने भी उत्तर में गाली दी। आप जो गाली दे रहे हैं, वह कर्म न पूछा, और कुछ कहना है? हुआ; वह प्रतिकर्म हुआ, रिएक्शन हुआ। किसी ने प्रशंसा की, वह आदमी भी विचलित हुआ होगा। क्योंकि जब किसी के
और आप मुस्कुराए, आनंदित हुए; वह आनंदित होना कर्म न ऊपर थूकें, तो शायद पृथ्वी पर इसके पहले किसी ने भी नहीं कहा हुआ; प्रतिकर्म हुआ, रिएक्शन हुआ।
होगा कि और कुछ कहना है! आपने कभी कोई कर्म किया है! या प्रतिकर्म ही किए हैं? वह आदमी थोड़ा झिझका। उत्तर उसे सूझा नहीं। क्योंकि बुद्ध ने
चौबीस घंटे, जन्म से लेकर मृत्यु तक, हम प्रतिकर्म ही करते हैं; | | बड़ी अड़चन में डाल दिया। बुद्ध कोई प्रतिकर्म करते, तो वह आदमी हम रिएक्ट ही करते हैं। हमारा सब करना हमारे भीतर से उत्तर तैयार लेकर आया होगा। प्रतिकर्म की हम सब की तैयारी है। सहज-जात नहीं होता, स्पांटेनियस नहीं होता। हमारा सब करना | | बुद्ध अगर पूछते, क्यों थूका? तो शायद वह उत्तर तैयार करके लाया हमसे बाहर से उत्पादित होता है, बाहर से पैदा किया गया होता है। | हो। जैसे परीक्षा में लोग अपने उत्तर तैयार करके ले जाते हैं, ऐसे हम
किसी ने धक्का दिया, तो क्रोध आ जाता है। किसी ने | जिंदगी में एक-एक कदम रिहर्सल पहले कर लेते हैं। पहले तैयारी फूलमालाएं पहनाईं, तो अहंकार खड़ा हो जाता है। किसी ने गाली कर लेते हैं कि अगर थूकूँगा, तो कोई यह कहेगा, तो मैं यह कहूंगा। दी, तो गाली निकल आती है। किसी ने प्रेम के शब्द कहे, तो लेकिन जो तैयारी होती है, वह प्रतिकर्म की होती है। गदगद हो प्रेम बहने लगता है। लेकिन ये सब प्रतिकर्म हैं। बुद्ध जैसा आदमी तो कभी-कभी हजारों वर्षों में मिलता है। तो
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वर्ण-व्यवस्था का मनोविज्ञान
बुद्ध जैसे आदमी की तो तैयारी नहीं होती। दो-तीन-चार साल के, | बात समाप्त हो गई है। इससे ज्यादा इस कर्म में मैं नहीं पड़ता हूं। परीक्षार्थी, प्रश्नपत्र देख लेते हैं; क्वेश्चंस देख लेते हैं। तैयारी कर बुद्ध ने कहा कि मैं तुम्हारा गुलाम नहीं हूं। लेते हैं। लेकिन बुद्ध जैसा प्रश्न तो कभी लाखों-करोड़ों वर्ष में एक प्रतिकर्म गुलामी है, स्लेवरी है; दूसरा आपसे करवा लेता है। बार उठता है। क्योंकि कर्म ही कभी करोड़ों वर्षों में एक आदमी जब दूसरा आपसे कुछ करवा लेता है, तो आप गुलाम हैं, मालिक करता है; बाकी सारे लोग प्रतिकर्म करते हैं।
नहीं। कर्म तो वे ही कर सकते हैं, जो गुलाम नहीं हैं। वह आदमी मुश्किल में पड़ गया। उसने कहा, आप भी क्या इसलिए कृष्ण अगर कहते हैं, तो ठीक ही कहते हैं, कि बुद्धिमान पूछते हैं! उसे कुछ और न सूझा।
| भी नहीं समझ पाते हैं कि क्या कर्म है और क्या अकर्म है। बुद्ध ने कहा, मैं ठीक ही पूछता हूं। कुछ और कहना है? उसने अकर्म तो और भी कठिन है फिर। कर्म ही नहीं समझ पाते। कहा, लेकिन मैंने कुछ कहा नहीं, आपके ऊपर थूका है! प्रतिकर्म को हम कर्म समझते हैं; और अकर्मण्यता को हम अकर्म
बुद्ध ने कहा, तुमने थूका, लेकिन मैं समझा कि तुमने कुछ कहा समझते हैं। अकर्मण्यता को, कुछ न करने को, बैठे-ठालेपन को, है। क्योंकि थूकना भी कहने का एक ढंग है। शायद मन में इतना इनएक्शन को हम नान-एक्शन समझ लेते हैं। कुछ न करने को हम क्रोध है तुम्हारे कि शब्दों से नहीं कह पाते, इसलिए थूककर कहा है। समझते हैं, अकर्म हो गया। एक आदमी कहता है कि हम कुछ नहीं
कई बार शब्द असमर्थ होते हैं, बुद्ध ने कहा। मैं ही कई बार करते, तो सोचता है, अकर्म हो गया। बहुत-सी बातें कहना चाहता हूं, शब्दों में नहीं कह पाता, तो फिर लेकिन अकर्म बहुत बड़ी क्रांति-घटना है, म्यूटेशन है। सिर्फ न इशारों में कहनी पड़ती हैं। तुमने इशारा किया; मैं समझ गया। करने से अकर्म नहीं होता। क्योंकि जब आप बाहर नहीं करते, तो
उस आदमी ने कहा, लेकिन आप कुछ नहीं समझे। मैंने क्रोध मन भीतर करता रहता है। जब आप बाहर करना बंद कर देते हो, किया है! बुद्ध ने कहा, मैंने बिलकुल ठीक समझा कि तुमने क्रोध मन भीतर करना शुरू कर देता है। किया है। तो उस आदमी ने पूछा, आप क्रोध क्यों नहीं करते हैं? आपने देखा होगा, आरामकुर्सी पर बैठ जाएं, हाथ-पैर ढीले कर
बुद्ध ने कहा, तुम मेरे मालिक नहीं हो। तुमने क्रोध किया, | दें-अकर्म में हो गए; हम सब की परिभाषा में। कुछ भी नहीं कर इसलिए मैं भी क्रोध करूं, तो मैं तुम्हारा गुलाम हो गया। मैं तुम्हारे रहा है आदमी, इनएक्टिव है, आरामकुर्सी पर लेटा है। लेकिन उस पीछे नहीं चलता हूं। मैं तुम्हारी छाया नहीं हूं। तुमने क्रोध किया, आदमी की खोपड़ी में एक खिड़की बनाई जा सके, तो पता चले बात खतम हो गई। अब मुझे क्या करना है, वह मैं करूंगा। कि वह आदमी कितने कामों में लगा हुआ है!
बुद्ध ने कुछ भी न किया। वह आदमी चला गया। दूसरे दिन हो सकता है, इलेक्शन लड़ रहा हो; जीत गया हो; दिल्ली पहुंच क्षमा मांगने आया, और बुद्ध से कहने लगा, क्षमा कर दो! सिर गया हो। न मालूम क्या-क्या कर रहा हो! जितना वह कुर्सी पर से रख दिया पैरों पर; आंसू गिराए आंखों से। जब सिर उठाया, बुद्ध दौड़कर भी नहीं कर सकता था, उतना कुर्सी पर लेटकर कर सकता ने कहा, और कुछ कहना है?
है। कुर्सी पर से दौड़कर कुछ करता, तो समय बाधा डालता। उस आदमी ने कहा, आप आदमी कैसे हो!
दिल्ली इतनी जल्दी नहीं पहुंच सकता था। लेकिन कुर्सी पर लेटकर बुद्ध ने कहा, मैं समझ गया। मन में कोई भाव इतना घना है कि दिल्ली पहुंचने में समय का कोई व्यवधान नहीं; स्थान की कोई नहीं कह पाते शब्दों से, आंसुओं से कहते हो; सिर को पैर पर बाधा नहीं; न कोई ट्रेन पकड़नी पड़ती है, न कोई हवाई जहाज रखकर कहते हो-गेस्चर्स, मुद्राओं से। कल भी, कल भी कुछ पकड़ना पड़ता है; न वोटर्स के सिरों की सीढ़ियां बनानी पड़ती कहना चाहते थे, नहीं कह पाए; आज भी कुछ कहना चाहते हो, हैं—कुछ नहीं करना पड़ता है। आरामकुर्सी पर लेटा, दिल्ली नहीं कह पाए।
पहुंचा! इच्छा ही कर्म बन जाती है। उस आदमी ने कहा, मैं क्षमा मांगने आया हूं। मुझे क्षमा कर दें। | जो बाहर से काम रोककर बैठ जाते हैं, वे अकर्मण्य तो हो जाते बुद्ध ने कहा, मैंने तुम पर क्रोध ही नहीं किया, इसलिए क्षमा हैं, कर्महीन दिखाई पड़ते हैं; लेकिन भीतर बड़ी सक्रियता, बड़े करने का तो कोई उपाय ही नहीं है। जैसे कल मैंने देख लिया था गहन कर्म का जाल चलने लगता है। कि तुमने थूका, ऐसे आज देखता हूं कि तुमने पैरों पर सिर रखा। रात आप पड़े हैं, सोए हैं। दिखता है ऊपर से, बिलकुल ही
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गीता दर्शन भाग-26
अकर्म में पड़े हैं; लेकिन भीतर सपनों का जाल बुन रहे हैं। दिनभर तो भीतर का कर्ता भी विदा हो जाता है। तब बाहर कर्म रह जाते हैं। भी जो नहीं बुन पाए, वह रातभर बुनेंगे। दिन में जो हत्याएं नहीं कर लेकिन वे कर्म कर्ता-शून्य होते हैं। उनके पीछे अकर्ता होता है, पाए, रात में करेंगे। दिन में जो व्यभिचार नहीं कर पाए, रात में अकर्म होता है। और चंकि पीछे अकर्ता होता है, इसलिए प्रत्युत्तर करेंगे। दिन में जो नहीं हो सका, वह रात में पूरा किया जाएगा। से नहीं पैदा होते वे। वे सहज-जात होते हैं। जैसे वृक्षों में फूल आते रातभर गहन कर्म से चेतना गुजरेगी।
हैं, ऐसे उस व्यक्ति में कर्म लगते हैं। आप में कर्म लगते नहीं; तो कृष्ण तो सोए हुए आदमी को भी नहीं कहेंगे कि यह अकर्म | दूसरों के द्वारा खींचे जाते हैं। में है। वे कहेंगे, अकर्म का पता तो तब चलेगा, जब भीतर गहरे में आप थोड़ा सोचें। अगर राबिन्सन क्रूसो की तरह आप एक कर्म की वासना न रह जाए, जब भीतर गहरे में मन शून्य और मौन | | निर्जन द्वीप पर छोड़ दिए जाएं, तो आपके कितने कर्म एकदम से हो जाए, जब भीतर गहरे में कर्म की सूक्ष्म तरंगें न उठे-तब होगा | | बंद नहीं हो जाएंगे? अकेले हैं आप। आपका प्रेम बंद हो जाएगा; अकर्म।
| आपकी घृणा बंद हो जाएगी। आपका क्रोध बंद हो जाएगा। और यह बड़े मजे की बात है, यह बहुत ही मजे की बात है कि अहंकार किसको दिखाइएगा? साज-शृंगार किसके सामने जिसके भीतर अकर्म होगा, उसके बाहर प्रतिकर्म कभी नहीं होता। करिएगा? सब बंद हो जाएगा। किसके सामने अकड़कर जिसके भीतर अकर्म होता है, उसके बाहर कर्म होता है। चलिएगा? सब बंद हो जाएगा। बाहर से सब गिर जाएगा।
कर्म सहज है-दूसरे की प्रतिक्रिया में नहीं, दूसरे के प्रत्युत्तर में | सुना है मैंने, राबिन्सन क्रूसो की नाव जब डूबी, और वह एक नहीं-सहज, अपने से भीतर से आया हुआ, जन्मा हुआ। | निर्जन द्वीप पर लगा; द्वीप पर लगने के बाद उसे खयाल आया,
जिस व्यक्ति के भीतर अकर्म होता है, उसके बाहर कर्म होता नाव आधी डूबी हुई अभी भी दिखाई पड़ रही है। उसने सोचा, कुछ है। और जिस व्यक्ति के भीतर गहन कर्म होता है, उसके बाहर जरूरत की चीजें हों तो उठा लाऊं। खयाल आया, निर्जन द्वीप है, प्रतिकर्म होता है, रिएक्शन होता है।
| अकेला हूं; कुछ बच जाए सामान साथ, तो ले आऊं। इसलिए कृष्ण अगर यह कहते हैं, तो ठीक ही कहते हैं, गहन है | | वापस गया। एक पेटी उठाई। खोली, मन प्रसन्न हो गया, स्वर्ण यह राज, गूढ़ है यह रहस्य, बुद्धिमान भी तय नहीं कर पाते कि कर्म की अशर्फियां ही अशर्फियां थीं। फिर एकदम से खुशी खो गई, क्या है, अकर्म क्या है! अर्जुन, तुझे मैं कहूंगा वह गूढ़ रहस्य; फिर मन उदास हो गया। फिर पेटी बंद करके उसने वहीं छोड़ दी। क्योंकि उसे जो जान लेता, वह मुक्ति को उपलब्ध हो जाता है। क्या हुआ? स्वर्ण-अशर्फियां दिखाई पड़ी, तो बड़ा प्रसन्न हुआ
जो व्यक्ति भी कर्म और अकर्म के बीच की बारीक रेखा को कि अच्छा हुआ, स्वर्ण-अशर्फियां मिल गईं। लेकिन पीछे खयाल पहचान लेता है, वह स्वर्ग के पथ को पहचान लेता है। जो व्यक्ति | | आया क्षणभर बाद, निर्जन है द्वीप; न है बाजार, न है कोई और; भी कर्म और अकर्म के बीच के बहुत नाजुक और सूक्ष्म विभेद को | | स्वर्ण की अशर्फियों का करूंगा क्या? फिर वे स्वर्ण की अशर्फियां, देख लेता है, उसके लिए इस जगत में और कोई सूक्ष्म बात जानने | जो बड़ी बहुमूल्य थीं, वहीं छोड़ दी उसने, उसी डूबती नाव में छोड़ को शेष नहीं रह जाती।
दी; और तट पर बैठकर डूबती हुई नाव को, और अशर्फियों को तो दो बातें स्मरण रख लें। हम जिसे कर्म कहते हैं, वह प्रतिकर्म | | डूबता हुआ देखता रहा। उन्हें बचाकर लाने की इच्छा ही न रही। है, कर्म नहीं। हम जिसे अकर्म कहते हैं, वह अकर्मण्यता है, आप, पूना के पास नाव डूब रही हो, तो स्वर्ण की अशर्फियां अकर्म नहीं। कृष्ण जिसे अकर्म कहते हैं, वह आंतरिक मौन है; | ऐसे छोड़ पाएंगे? नहीं छोड़ पाएंगे। जब आप स्वर्ण की अशर्फियां वह अंतर में कर्म की तरंगों का अभाव है; लेकिन बाहर कर्म का | बचाकर लौट रहे हों नदी से, और मैं आपसे पूर्वी कि आपने स्वर्ण अभाव नहीं है।
की अशर्फियां बचाने का कर्म किया? तो आप कहेंगे, हां। लेकिन जब अंतर में कर्म की तरंगों का अभाव होता है, तो कर्ता खो कृष्ण कहेंगे, सिर्फ प्रतिकर्म किया। स्वर्ण की अशर्फियां बचाना भी जाता है। क्योंकि कर्ता का निर्माण अंतर में उठी हुई कर्म की तरंगों आपका प्रतिकर्म है, क्योंकि वह एक बड़े बाजार की अपेक्षा में हो का संघट है, जोड़ है। भीतर जो कर्म की वासना है, वही इकट्ठी | रहा है। अगर निर्जन द्वीप पर होता, तो आप न कर पाते। वह कर्म होकर कर्ता बन जाती है। अगर भीतर कर्म की कोई तरंगें नहीं हैं. नहीं है।
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वर्ण-व्यवस्था का मनोविज्ञान
इसलिए बुद्ध जैसे आदमी स्वर्ण की अशर्फियां यहीं बाजार की | | खून अमिश्रित, अलग-अलग था। तो जैसे ही कोई आत्मा मरती, भीड़ में भी नहीं बचाएंगे। अगर बुद्ध और महावीर सारी धन-संपत्ति उसे चुनने के लिए स्पष्ट मार्ग थे मरने के बाद। एक आत्मा जैसे ही को छोड़कर, इस बड़े संसार में सड़कों पर भिखारी की तरह खड़े मरती, वह अपने गुण-कर्म के अनुसार शूद्र के घर पैदा होती, या हो गए, तो उसका कारण है। क्योंकि धन और संपत्ति को बचाना | ब्राह्मण के घर पैदा होती। प्रतिकर्म है, कर्म नहीं है। क्योंकि राबिन्सन क्रूसो ने एकांत द्वीप पर | भारत ने आत्मा को नया जन्म लेने के लिए चैनेल्स दिए हुए थे, नहीं बचाईं, तो बुद्ध इस भरी हुई भीड़ के महासागर में भी नहीं | | जो पृथ्वी पर कहीं भी नहीं दिए गए। इसलिए भारत ने मनुष्य की बचाएंगे। वे जानते हैं कि अशर्फियां किसी और को दृष्टि में रखकर | | आत्मा और जन्म की दृष्टि से गहरे मनोवैज्ञानिक प्रयोग किए, जो बचाई जा रही हैं। बेकार हो गईं। बुद्ध तो वही बचाएंगे, जो निर्जन पृथ्वी पर और कहीं भी नहीं हुए। एकांत द्वीप पर भी बचाने जैसा है। बुद्ध तो अपने को ही बचाएंगे, __ जैसे कि एक नदी बहती है। नदी का बहना और है, अनियंत्रित। बाकी सबकी फिक्र छोड़ देंगे।
| फिर एक नहर बनाते हैं हम। नहर का बहना और है, नियंत्रित और हमारा सारा कर्म प्रतिकर्म है, इसे अगर ठीक से देख लिया, तो व्यवस्थित। भारत ने समाज के गुण-कर्म के आधार पर नहरें बनाईं हमारा सारा अकर्म भीतरी कर्म बन जाता है-यह भी दिखाई पड़ नदियों की जगह, बहुत व्यवस्थित। उन व्यवस्थित नहरों का जाएगा।
विभाजन इतना साफ किया कि आदमी मरे, तो उसकी आत्मा को और कृष्ण कहते हैं, इसकी ठीक मध्यम रेखा को देख लेने से | चुनाव का सीधा-स्पष्ट मार्ग था कि वह अपने योग्य जन्म को ग्रहण व्यक्ति मुक्त होता है। इसलिए अर्जुन, मैं तुझसे कर्म और अकर्म | कर ले। इसलिए बहुत कभी-कभी ऐसा होता कि करोड़ में एक शूद्र की विभाजक रेखा की बात करूंगा।
ब्राह्मण के गुण का पैदा होता। कभी ऐसा होता कि करोड़ में एक ' वे अगले सूत्रों में उसकी बात करेंगे।
ब्राह्मण शूद्र के गुण का पैदा होता। अपवाद! अपवाद के लिए नियम नहीं बनाए जाते। और जब कभी ऐसा होता, तो उसके लिए
नियम की चिंता करने की जरूरत नहीं होती थी। प्रश्नः भगवान श्री, पिछली चर्चा के संबंध में एक कोई विश्वामित्र क्षत्रिय से ब्राह्मण में प्रवेश कर जाता। कोई प्रश्न है। कहा गया है, गुण और कर्म के अनुसार | नियम की चिंता न थी। क्योंकि जब कभी ऐसा अपवाद होता, तो मानव के चार मोटे विभाग बनाए गए। अब यदि शूद्र | प्रतिभा इतनी स्पष्ट होती कि उसे रोकने का कोई कारण न होता था। घर में जन्म पाया हुआ आदमी ब्राह्मणों के लक्षणों से | लेकिन वह अपवाद था; उसके लिए नियम बनाने की कोई जरूरत युक्त हो, तो उसे अपना निजी कर्तव्य निभाना चाहिए न थी। वह बिना नियम के काम करता था। या ज्ञान-मार्ग और ब्राह्मण जैसा जीवन ही उसके लिए | लेकिन आज स्थिति वैसी नहीं है। भारत की वह जो विभाजन हितकर हो सकता है, कृपया इसे स्पष्ट करें। की व्यवस्था थी आत्मा के चुनाव के लिए, वह बिखर गई।
अच्छे-भले लोगों ने बिखरा दी। कई दफे भले लोग ऐसे बरे काम
करते हैं, जिसका हिसाब लगाना मुश्किल है। क्योंकि जरूरी नहीं र समें दो-तीन बातें खयाल में ले लें। एक तो, आज से || | है कि भले लोगों की दृष्टि बहुत गहरी ही हो। और जरूरी नहीं है र अगर हम तीन हजार साल पीछे लौट जाएं और यही |कि भले लोगों की समझ बहुत वैज्ञानिक ही हो। भला आदमी भी
सवाल मुझसे पूछा जाए, तो मैं कहूंगा कि शूद्र के घर | छिछला हो सकता है। पैदा हुआ हो, तो उसे शूद्र का काम ही निभाना चाहिए। लेकिन | उखड़ गई सारी व्यवस्था। अब नहरें साफ नहीं हैं। हालत नदियों आज यह न कहूंगा। कारण? कारण है।
जैसी हो गई है। नहरें भी हैं, खंडहर हो गई हैं; उनमें से पानी जब भारत ने वर्ण की इस व्यवस्था को वैज्ञानिक रूप से बांटा इधर-उधर बह जाता है। अब कोई व्यवस्था साफ नहीं है। अब हुआ था, विभाजन स्पष्ट थे। शूद्र, क्षत्रिय, वैश्य और ब्राह्मण के इतनी साफ नहीं कही जा सकती यह बात। बीच कोई आवागमन न था, कोई विवाह न था, कोई यात्रा न थी। लेकिन नियम वही है। नियम में अंतर नहीं पड़ता। जो अंतर पड़ा
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गीता दर्शन भाग-26
है, वह व्यवस्था के जीर्ण-जर्जर हो जाने की वजह से है। आज भी, | | हैं। वे हजार तर्क उपस्थित करते हैं। उनके तर्कों का जवाब पुरानी मौलिक रूप से, सिद्धांततः, जो व्यक्ति जहां पैदा हुआ हो, बहुत परंपरा के लोगों के पास बिलकुल नहीं है। और ऐसे लोग आज न संभावना है. सौ में नब्बे मौके यही हैं कि अपने जीवन की व्यवस्था के बराबर हैं, जिनके पास आधनिक तर्क की चिंतना हो और परानी को वह उन्हीं मार्गों से खोजे, तो शीघ्रता से शांति को और विश्राम | | अंतर्दृष्टि हो। ऐसे लोग न के बराबर हैं। इसलिए कठिनाई में पड़ को उपलब्ध हो सकेगा; अन्यथा बेचैनी में और तकलीफ में पड़ेगा। गई है बात।
आज समाज में जो इतनी बेचैनी और तकलीफ है, उसके पीछे | | अगर मेरा वश चले, तो मैं चाहूंगा कि वह जीर्ण-जर्जर व्यवस्था वर्ण का टूट जाना भी एक कारण है।
| फिर से सुस्थापित हो जाए। उदाहरण के लिए एक-दो बात आपसे एक सुनियोजित व्यवस्था थी। चीजें अपने-अपने विश्राम से | | कहूं कि कई दफे कैसी कठिनाई होती है। अपने मार्ग को पकड़ लेती थीं। अब हरेक को मार्ग खोजना पड़ेगा, आज से पचास साल पहले सारे यूरोप और अमेरिका ने निर्णायक बनना पड़ेगा, निर्णीत करना पड़ेगा। उस निर्णय में बड़ी | बाल-विवाह की व्यवस्था तोड़ी। हिंदुस्तान में भी हिंदुस्तान के जो बेचैनी, बड़ी प्रतिस्पर्धा, बड़ा कांप्टीशन, बड़ी स्पर्धा होगी। बड़ी | समझदार थे, और हिंदुस्तान के समझदार सौ साल से पिछलग्गू चिंता और बड़ी बेचैनी पैदा होगी।
समझदार हैं। उनके पास कोई अपनी प्रतिभा नहीं है। जो पश्चिम में कुछ भी तय नहीं है। सब तय करना है। और आदमी की जिंदगी| | होता है, वे उसकी दुहाई यहां देने लगते हैं। लेकिन पश्चिम में जो करीब-करीब तय करने में नष्ट हो जाती है। फिर भी कुछ तय नहीं | | होता है, पश्चिम के लोग तर्क का पूरा इंतजाम करते हैं। इन्होंने भी हो पाता। कुछ तय नहीं हो पाता। लेकिन टूट गई व्यवस्था। और दुहाई दी कि बाल-विवाह बुरा है। फिर हमने भी बाल-विवाह के मैं समझता हूं कि लौटानी करीब-करीब मुश्किल है। क्यों? | खिलाफ कानून बनाए। व्यवस्था तोड़ी। अब अगर आज कोई
क्योंकि भारत ने जो एक छोटा-सा प्रयोग किया था, वह लोकल बाल-विवाह करता भी होगा, तो अपराधी है! था, स्थानिक था; भारत की सीमा के भीतर था। आज सारी सीमाएं लेकिन आप जानकर हैरान होंगे कि विगत पंद्रह वर्षों...। टूट गई हैं। आज सारी जमीन इकट्ठी हो गई है। जिन कौमों ने कोई | | अमेरिका के सौ बड़े मनोवैज्ञानिकों के एक आयोग ने रिपोर्ट दी है, प्रयोग नहीं किए थे वर्ण के, वे सारी कौमें आज भारत की कौम और और रिपोर्ट में कहा है कि अगर अमेरिका को पागल होने से बचाना उन सब की दष्टियां हमारी दष्टियों के साथ इकटी हो गई हैं। आज है. तो बाल-विवाह पर वापस लौट जाना चाहिए सारी दुनिया, गैर-वर्ण वाली दुनिया, बहुत बड़ी है। और वर्ण का | अभी हिंदुस्तान के समझदारों को पता नहीं चला। इनको पता भी प्रयोग करने वाले लोग बहुत छोटे रह गए।
| पचास साल बाद चलता है! क्यों लौट जाना चाहिए बाल विवाह और उन छोटे लोगों में भी, जो वर्ण के समर्थक हैं, वे नासमझ पर? पचास साल में ही अनुभव विपरीत हुए। सोचा था कुछ और, हैं; और जो वर्ण के विरोधी हैं, बड़े समझदार हैं। वर्ण के समर्थक | | हुआ कुछ और। बिलकुल नासमझ हैं। वे इसीलिए समर्थन किए जाते हैं कि उनके पहला अनुभव तो यह हुआ कि बाल-विवाह ही थिर हो सकता शास्त्र में लिखा है। लेकिन समर्थकों के पास भी बहुत वैज्ञानिक | है। चौबीस साल के बाद किए गए विवाह थिर नहीं हो सकते। दृष्टि नहीं है। और न उनके पास कोई मनोवैज्ञानिक पहुंच है कि वे | क्योंकि चौबीस साल की उम्र तक दोनों ही व्यक्ति, स्त्री और पुरुष, समझें कि बात क्या है। वे सिर्फ इसलिए दोहराए चले जाते हैं कि | | इतने सनिश्चित हो जाते हैं कि फिर उन दो के बीच तालमेल नहीं बाप-दादों ने कहा था। उनकी अब कोई सुनेगा नहीं। अब कोई हो सकता। वे दोनों अपने-अपने ढंग में इतने ठहर जाते हैं, फिक्स्ड चीज इसलिए सही नहीं होगी भविष्य में, कि बाप-दादों ने कही थी। | हो जाते हैं, कि फिर समझौता नहीं हो सकता।
डर तो यह है कि अगर बाप-दादों का बहुत नाम लिया, तो चीज | इसलिए पश्चिम में तलाक बढ़ते चले गए। आज अमेरिका में सही भी हो, तो गलत हो जाएगी। बाप-दादों ने कहा था, तो जरूरत पैंतालीस प्रतिशत तलाक हैं। करीब-करीब आधे तलाक हैं। जितनी कुछ गलत कहा होगा; आज हालत ऐसी है।
| शादियां होती हैं हर साल, उससे आधी शादियां हर साल टूटती भी और जो आज विरोध में हैं वर्ण की व्यवस्था के, वे बड़े समझदार हैं। यह संख्या बढ़ती चली जाएगी। हैं। समझदार मतलब, ज्ञानी नहीं; समझदार मतलब, बड़े तर्कयुक्त। बाल-विवाह एक बहुत मनोवैज्ञानिक तथ्य था। तथ्य यह था कि
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वर्ण-व्यवस्था का मनोविज्ञान
छोटे बच्चे झुक सकते हैं; लोच है उनमें एक युवक और एक युवती, जब पक गए, तब उनमें झुकना असंभव हो जाता है। तब वे लड़ ही सकते हैं, झुक नहीं सकते। टूट सकते हैं, झुक नहीं सकते। इसलिए आज पश्चिम में पुरुष और स्त्री दुश्मन की भांति खड़े हैं। पति और पत्नी, एक तरह का युद्ध है, एक तरह की लड़ाई है।
एक अमेरिकी मनोवैज्ञानिक ने किताब लिखी है, इंटीमेट वार । आंतरिक युद्ध, प्रेमपूर्ण युद्ध - ऐसा कुछ अर्थ करें। और प्रेमपूर्ण युद्ध, यानी विवाह | इंटीमेट वार जो है, विवाह के ऊपर किताब है; कि दो आदमी प्रेम का बहाना करके साथ-साथ लड़ते हैं, चौबीस घंटे ! इसका कारण ?
इसका कारण कुल इतना है। कोई बेटा अपनी मां को बदलने का कभी नहीं सोचता कि दूसरी मां मिल जाती, तो अच्छा होता। कोई बेटा अपने बाप को बदलने का नहीं सोचता कि दूसरा बाप मिल
तो बहुत अच्छा होता। कोई भाई अपनी बहन को बदलने का नहीं सोचता कि दूसरी बहन मिल जाती, तो अच्छा होता। क्यों ? क्या दूसरी बहनें अच्छी नहीं मिल सकतीं ? क्या दूसरे बाप अच्छे नहीं मिल सकते ? क्या दूसरी मां के अच्छे होने में कोई असुविधा है इतनी बड़ी पृथ्वी पर ? नहीं; यह खयाल नहीं आता। क्योंकि इतने बचपन में जब कि मन बहुत नाजुक और कोमल होता है, बच्चा मां से राजी हो जाता है।
बाल-विवाह के पीछे एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया थी कि जिस तरह मां से बच्चा राजी हो जाता है, उसी तरह वह पत्नी से भी राजी हो जाता है। फिर वह सोचता ही नहीं कि दूसरी पत्नी भी हो। जैसे मां दूसरी हो, ऐसा नहीं सोचता ; पिता दूसरा हो, ऐसा नहीं सोचता; ऐसे ही पत्नी भी पत्नी भी उसके साथ-साथ इतनी निकटता से बड़ी होती है कि स्वभावतः, दूसरी पत्नी हो या दूसरा पति हो, यह खयाल ही नहीं उठता।
लेकिन चौबीस साल या पच्चीस साल या तीस साल की उम्र में शादी होगी, तो यह बात बिलकुल असंभव है कि यह खयाल न उठे। जिसमें न उठे, वह आदमी बीमार होगा, उसका दिमाग खराब होगा। तीस साल की उम्र तक जिस युवक ने हजार स्त्रियों को देखा-पहचाना, हजार बार सोचा कि इससे शादी करूं कि उससे करूं, इससे करूं कि उससे करूं! तीस साल के बाद शादी की, फिर कलह और उपद्रव शुरू हुआ। उसे खयाल नहीं आएगा कि पड़ोस की स्त्री से शादी हो जाती तो ज्यादा बेहतर होता ?
मैंने सुना है, एक पत्नी अपने पति को सुबह दफ्तर विदा करते
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| वक्त कह रही है कि आपका व्यवहार ठीक नहीं है। सामने देखो; सामने की पोर्च में देखो। पति ने उस तरफ आंख उठाकर देखा । पत्नी ने कहा, देखते हैं! पति अपनी पत्नी से विदा ले रहा है, तो | कितना गले लगकर चुंबन दे रहा है। ऐसा तुम कभी नहीं करते! उसके पति ने कहा, मेरी उस औरत से कोई पहचान ही नहीं है । वैसा करने का तो मेरा भी मन होता है, पर उस औरत से मेरी कोई पहचान ही नहीं है।
यह अमेरिका में मजाक घट सकती है। कल भारत में भी घटेगी। लेकिन भारत ऐसा पहले कभी सोच नहीं सकता था; इसको मजाक भी नहीं सोच सकता था। यह सिर्फ बेहूदगी मालूम पड़ती। यह | मजाक भी नहीं मालूम पड़ सकती थी। इसके कारण थे । कारण बहुत साइकोलाजिकल थे, बहुत गहरे थे ।
फिर एक और ध्यान लेने की बात है कि बाल-विवाह का मतलब है, दो बच्चों में सेक्स का तो खयाल नहीं उठता, सेक्स का कोई सवाल नहीं होता, कामवासना का कोई सवाल नहीं होता। दो छोटे बच्चों की शादी कर दी, तो उनके बीच कोई कामवासना नहीं होती। कामवासना आने के पहले उनके बीच मैत्री बन जाती है।
लेकिन जब दो बच्चे बच्चे नहीं होते, जवान होते हैं; और उनकी हम शादी करते हैं, मैत्री नहीं बनती पहले, पहले कामवासना आती | है। और जब कामवासना पहले आएगी, तो संबंध बहुत जल्दी विकृत और घृणित हो जाएंगे। उनमें कोई गहराई नहीं होगी; छिछले होंगे। और जब कामवासना चुक जाएगी, तो संबंध टूटने के करीब पहुंच जाएंगे। क्योंकि और तो कोई संबंध नहीं है।
जिन दो बच्चों ने कामवासना के जगने के पहले मित्रता स्थापित कर ली, कल कामवासना भी विदा हो जाएगी, तो भी मित्रता बचेगी। लेकिन जिन दो जवानों ने कामवासना के बाद मित्रता | स्थापित की, उनकी मित्रता स्थापित होती नहीं, मित्रता सिर्फ | कामवासना का बहाना होती है। जब कल कामवासना क्षीण हो जाएगी, तब मित्रता भी टूट जाएगी।
आज अमेरिका में किन्से जैसा मनोवैज्ञानिक कहता है कि बाल-विवाह पर वापस लौट जाना चाहिए। अन्यथा पूरा समाज रोगग्रस्त हो जाएगा।
मैं आपसे कहता हूं, पचास साल बाद दुनिया के मनोवैज्ञानिक कहेंगे कि वर्ण-व्यवस्था पर वापस लौट जाना चाहिए । लेकिन पचास साल बाद कहेंगे वे । और हिंदुस्तान के विचारक तो सौ साल बाद ! जब वे कह चुकेंगे, तब इनकी बुद्धि में थोड़ा-सा
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ॐ गीता दर्शन भाग-2 0
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हलन-चलन होगा।
लेकिन कठिनाई क्या है? वर्ण-व्यवस्था बहुत गहरी मनोवैज्ञानिक व्यवस्था है। आप कठिनाई इसमें नहीं थी। शूद्र होने में कठिनाई नहीं है। ब्राह्मण जानकर हैरान होंगे, अगर आज के भी मनोविज्ञान के सारे तथ्य होने में कठिनाई नहीं है। कठिनाई पैदा हुई जिस दिन हमने समझा, आपके खयाल में आ जाएं. तो बहत हैरान होंगे। मनोवैज्ञानिक ब्राह्मण ऊपर है और शद्र नीचे है। उस दिन शद्र के मन में भी वासना कहते हैं कि तीन वर्ष की उम्र में बच्चा अपनी जिंदगी का पचास जगी कि मैं ऊपर जाऊं। उस दिन ब्राह्मण के मन में भी डर जगा कि प्रतिशत ज्ञान सीख चुका होता है। पचास प्रतिशत! तीन वर्ष की उम्र | मुझे कोई नीचे न उतार दे। तब चीजें स्वस्थ न रह गईं। सब बीमार का बच्चा पचास प्रतिशत बातें सीख चुका जिंदगी की। अब बाकी हो गया। जिंदगी में, सत्तर साल में पचास प्रतिशत ही सीखेगा।
अगर वर्ण की व्यवस्था कभी लौटेगी और मुझे लगता है, __ और यह भी मजे की बात है कि यह जो पचास प्रतिशत तीन मनुष्य की जाति को अगर स्वस्थ होना हो, तो लौटेगी अगर साल की उम्र में सीखा गया है, यह फाउंडेशन है, यह बुनियाद है। | कभी लौटेगी, तो ऊपर-नीचे की तरह नहीं लौटेगी। इसको अब कभी नहीं बदला जा सकता। बाद में जो सीखेगा, वह चार सीढ़ियों पर चार आदमी खड़े हो जाते हैं। एक ऊपर की इसके ऊपर बनाया हुआ भवन है, जो बदला जा सकता है। जिसे सीढ़ी पर, एक नीचे की सीढ़ी पर, दो बीच की सीढ़ियों पर। ऐसी बदला जा सकता है, वह बुनियाद नहीं है। और अगर इसकी | सीढ़ी दर सीढ़ी वर्ण की व्यवस्था नहीं लौटेगी। कृष्ण के मन में भी बनियाद बदली, तो यह बच्चा विक्षिप्त हो जाएगा।
वैसी व्यवस्था नहीं है। किसी समझदार के मन में वैसी व्यवस्था इसलिए अगर वर्ण की व्यवस्था यह कहती है कि शूद्र के घर में नहीं रही। पैदा हुआ बच्चा अपने ही परिवार की व्यवस्था, अपने ही जीवन के चार आदमी एक ही जमीन पर खड़े हैं, एक समतल भूमि ढंग से अपने जीवन की नियति को पाने के प्रयास में लगे; ब्राह्मण पर-ऐसी व्यवस्था लौटेगी। वर्ण समतल भूमि पर खड़े हो सकें, का बच्चा अपनी ही नियति से, अपनी व्यवस्था से अपनी खोज में | | तो लौट सकते हैं। और तब प्रत्येक व्यक्ति को, उसकी जिंदगी जहां लगे, तो बहुत मनोवैज्ञानिक है यह बात। क्योंकि तीन साल की उम्र बड़ी हुई, जैसी बड़ी हुई, उसी मार्ग से खोज लेना शांति की दृष्टि में आधा ज्ञान पूरा हो जाता है। और तेरह-चौदह साल की उम्र तक से, आनंद की दृष्टि से, संतोष की दृष्टि से, अंततः चेतना की । सारा ज्ञान करीब-करीब पूरा हो जाता है।
उपलब्धि की दृष्टि से उपयोगी है। और अगर वह यहां-वहां जाता यह जानकर आप चकित होंगे, पिछले महायद्ध में अमेरिका में है...। मिलिट्री में भर्ती होने वाले स्नातकों, ग्रेजुएट्स की मानसिक ___ यह प्रश्न करीब-करीब ऐसा है—अगर हम टेक्नोलाजिकली, परीक्षाएं ली गईं, तो जो औसत उम्र मिली ग्रेजुएट्स की, वह साढ़े तकनीकी ढंग से समझें तो यह ऐसा है कि कोई हमसे पूछे कि तेरह साल—मानसिक उम्र! फौज में भर्ती होने वाले, युनिवर्सिटी एक डाक्टर अगर वकालत करना चाहे, तो हर्ज तो नहीं है कोई? से निकले हुए स्नातकों की मानसिक उम्र इतनी निकली, जितनी | एब्सर्ड है! क्योंकि अगर उसने डाक्टर होने की शिक्षा ली है और साढ़े तरह साल के बच्चे की होती है। उनकी उम्र किसी की बाइस जिंदगी के कीमती समय को डाक्टर होने में गंवाया है, तो अब होगी, किसी की चौबीस, किसी की बीस–शारीरिक उम्र। लेकिन | वकालत करने वह जाएगा, तो उपद्रव ही होने वाला है। कोई मानसिक उम्र साढ़े तेरह वर्ष निकली! तब तो सारी दुनिया के | अदालत उसको आज्ञा न देगी कि आप वकालत करें। अदालत मनोवैज्ञानिक चिंतित हो गए। इसका मतलब क्या हुआ? | कहेगी कि फिर वकील होने की ट्रेनिंग लें फिर से, तब लौटें। और
इसका मतलब यह हुआ कि अगर हम सारी दुनिया की मानसिक | तब भी, तब भी कठिनाई होगी। क्योंकि जो भी ट्रेनिंग हमने ले ली, उम्र निकालें, तो दस साल, नौ-दस साल से ज्यादा नहीं निकलेगी। | उसको अनट्रेंड नहीं किया जा सकता। जो भी हमने जान लिया, इसका यह मतलब हुआ कि तेरह-चौदह साल की उम्र तक आदमी उसको भुलाया नहीं जा सकता। का मन करीब-करीब पक्का और मजबूत हो जाता है। अगर इस वर्ण की व्यवस्था एक बहुत तकनीकी व्यवस्था थी। उसमें शूद्र मन के विपरीत कुछ मार्ग उसने चुना, तो उसकी जिंदगी एक के जीवन का अपना ढंग है, अपनी व्यवस्था है। ब्राह्मण के जीवन फ्रस्ट्रेशन और विषाद का मार्ग होगी।
का अपना ढंग, अपनी व्यवस्था है। क्षत्रिय के जीवन का अपना
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वर्ण-व्यवस्था का मनोविज्ञान
ढंग, अपनी व्यवस्था है। वह सारी की सारी व्यवस्था एक प्रशिक्षण | आज। आज तो कोई भी जहां है, वहां रहने को राजी नहीं है, दौड़ है। वह बचपन से घर में मिल रहा है। बच्चा बड़ा हो रहा है और | | ही रहा है। उस दौड़ के दुष्परिणाम दिखाई पड़ रहे हैं। प्रशिक्षण मिल रहा है। बच्चा बड़ा हो रहा है बाप के साथ, मां के | मैं उन ब्राह्मणों के पक्ष में नहीं हूं, जो इसलिए भयभीत हैं कि अगर साथ, भाइयों के साथ, और प्रशिक्षण जारी है। उसकी ट्रेनिंग हो रही | | शूद्र ब्राह्मण हो जाएं, अगर शूद्र भी ज्ञानवान हो जाएं, तो उनकी कोई है; उसके खून, हड्डी, मांस, मज्जा में चीजें डाली जा रही हैं, पहुंच | | बपौती छिन जाएगी। उनके पक्ष में नहीं हूं। जिन ब्राह्मणों को ऐसा डर रही हैं। जब वह जवान होता है, तब वह निर्मित हो चुका। अब उचित है कि उनकी बपौती छिन जाएगी, उनके पास कोई बपौती ही नहीं है। है कि जो उसके भीतर निर्मित हुआ है, वह उस दिशा से ही खोजे। | जिन ब्राह्मणों को यह डर है कि कोई और जान लेगा, तो उनका कुछ
कठिनाई तो तब है, जब उस दिशा से पाया न जा सके। पाया | | छिन जाएगा, उन्होंने कुछ जाना ही नहीं है। ब्रह्म किसी की बपौती जा सकता है। कोई ब्राह्मण ऐसे किसी सत्य को नहीं पा लिया है, नहीं है। ज्ञान और सत्य किसी की बपौती नहीं है। जो शूद्र शूद्र रहकर न पा सकता हो। कोई शूद्र ऐसी किसी शांति ब्राह्मण को भयभीत होने की जरूरत नहीं है। भयभीत इसीलिए को नहीं पा लिया है, जो कि ब्राह्मण ब्राह्मण होकर न पा सकता हो। है कि वह ब्राह्मण नहीं है। शूद्र को भी भयभीत होकर कुछ और कोई क्षत्रिय किसी ऐसी चीज को नहीं पा लिया है, जो कि शूद्र शूद्र | होने की जरूरत नहीं है। जरूरत इसीलिए पड़ रही है कि वह भी रहकर न पा सकता हो।
नहीं समझ पा रहा है कि शूद्र होने का क्या अर्थ है! शूद्र शब्द ही नपा सकता हो, तब सवाल उठता है। लेकिन जहां तक आत्मिक निंदा का हो गया है। ब्राह्मण शब्द ही पूजा का हो गया है। जब ऐसी अनुभव का संबंध है, जहां तक परमात्मा के द्वार की खोज की बात विकृति हो गई है, तो शूद्र रोके नहीं जा सकते; वे तो दौड़ेंगे और है, वहां तक कहीं से भी उसे पाया जा सकता है। और अपने ही कर्म ब्राह्मणों की पंक्ति में सम्मिलित होंगे। दौडेंगे. वैश्य बनेंगे। दौडेंगे. में और अपने ही गुण के अनुसार बर्तते हुए सरलता से पाया जा क्षत्रिय बनेंगे। और यह सारी की सारी दौड़ पूरे समाज को एक सकता है, अन्यथा चीजें अकारण ही जटिल हो जाती हैं। मिश्रित ढंग दे देगी। जैसा कि सारी दुनिया में है। सिर्फ भारत में एक
अमिश्रित व्यवस्था थी, जहां चीजें बंटी थीं—पैरेलल, समानांतर।
और हमने एक गहरा प्रयोग किया था। प्रश्नः भगवान श्री, प्रश्न का दूसरा हिस्सा रह गया __ मैं तो अपनी तरफ से यही सुझाव दूंगा कि शूद्र शूद्र होने के गुण है, जिसमें आप यह कहना चाहते थे कि आज के युग और कर्म के अर्थ को समझे। वह बहुत मीनिंगफुल है। और अगर में शूद्र के घर में उत्पन्न हुआ ब्राह्मण क्या करेगा? उसे ऐसा लगे कि नहीं, उसकी जीवन की नियति वह नहीं है।
लेकिन ध्यान रहे, उसे ऐसा लगे भीतर से कि उसकी नियति यह
नहीं है, तो उसे जो लगे नियति, वह उस तरफ जाए। लेकिन दूसरे का वस्था विकृत हुई है। चीजें अस्तव्यस्त हो गई हैं। आज | की स्पर्धा में न जाए। इसलिए ब्राह्मण न होना चाहे कि ब्राह्मण बहुत स्प शूद्र के घर में उत्पन्न हुआ बेटा, पहली तो बात, मुझसे | मजे लूट रहे हैं, इसलिए मैं ब्राह्मण हो जाऊं। तब वह अपने
___ पूछने नहीं आएगा कि मैं क्या करूं। हमारे उत्तरों पर। | गुण-कर्म का विचार नहीं कर रहा है। निर्भर नहीं रहेगा। शूद्र का बेटा, शूद्र का बेटा है, यह मानने को ही कोई ब्राह्मण इसलिए शूद्र न हो जाए कि शूद्र आज बड़ी प्रिफरेंस राजी नहीं है, पहली बात। इनकार कर चुका है। उसने ब्राह्मण होने पा रहे हैं! प्रिविलेज्ड क्लास है इस वक्त शूद्रों की। इस वक्त शूद्र की कोशिश शुरू कर दी है। ब्राह्मण ने वैश्य होने की कोशिश शुरू जो हैं, जैसे कभी ब्राह्मण प्रिविलेज्ड थे, ऐसे आज शूद्र हैं। आज, कर दी है। वैश्य ने कुछ और होने की कोशिश शुरू कर दी है। सब मुझे पता है भलीभांति कि न मालूम कितनी यूनिवर्सिटीज में, न किसी और कोशिश में लगे हैं। वे सब कोशिश में लगे हैं कुछ और | मालूम कितने कालेजों और स्कूलों में, न मालूम कितने लड़कों ने होने की।
| अपने को शुद्र गिनाया हुआ है, जो कि शुद्र नहीं हैं। क्योंकि शूद्र पूरा समाज, जो जहां खड़ा है, वहां खड़े होने को राजी नहीं है। | को स्कालरशिप भी है; शूद्र को नौकरी में भी स्थान नियत है। आज कहीं और जाने के लिए आतुर है। एक विक्षिप्तता है समाज में नहीं कल, ब्राह्मण भी शूद्र होने को आतुर हो सकता है।
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गीता दर्शन भाग-20
क्योंकि शूद्र किसलिए आतुर है ब्राह्मण होने को? क्योंकि | का निरीक्षण करके लिखे कि यह बच्चा क्या हो सकता है, इसका ब्राह्मण कल तक प्रिविलेज्ड क्लास थी; महत्वपूर्ण थी। उसका | | झुकाव क्या है, इसका एप्टिटयूड क्या है!
ह्मण होना ही पर्याप्त था। कल शद्र होना भी महत्वपर्ण हो सकता। यह वही बात हो गई। अगर मनोवैज्ञानिक तय कर दे कि है। और जैसी हालत चल रही है, उसमें हो जाएगा। और जो शूद्र | | एप्टिट्यूड क्या है, और वह कह दे कि इस बच्चे को शूद्र होना है, के घर में पैदा नहीं होगा, वह भगवान को कोसेगा कि एकदम गलत | इसको मजदूर होना चाहिए; तो फिर क्या हुआ? फिर वापस वर्ण बात की। शूद्र के घर में पैदा करते, तो इलेक्शन में भी सुनिश्चित | लौटा! सीट थी। जगजीवनराम से पूछिए! शूद्र होना गुण है! और कोई भी | हमने जन्म से तय किया था; अब जन्म से तय न हुआ। जन्म से गुण न हो, तो शूद्र होना भी गुण है अब! जैसा कभी ब्राह्मण होना तय करना परमात्मा के हाथों में छोड़ना था। प्राइमरी स्कूल में एक गुण था!
| मनोवैज्ञानिक के हाथ में छोड़ना है, जो कि परमात्मा जैसे कुशल तो मैं तो कहूंगा, जरा जल्दी मत करो शूद्रों से, ब्राह्मण होने की। हाथ नहीं हो सकते। कम से कम मनोवैज्ञानिक के हाथ, ब्राह्मण शूद्र हो जाएंगे। जगजीवनराम कौन न होना चाहेगा? | मनोवैज्ञानिक खुद आधे पागल हैं, इनके हाथ में तय करवाना कि जगजीवनराम में वैसे कोई भी गुण न हों, लेकिन शूद्र होना बड़ा बच्चा क्या बने-शूद्र, कि ब्राह्मण, कि क्षत्रिय, किं वैश्य-क्या गुण है!
बने? कहां जाए? इसकी जीवन-यात्रा क्या हो? एक मनोवैज्ञानिक यह आज की जो विकृत स्थिति है, इसमें कोई मेरी सलाह से नहीं | तय करे! रुकने वाला है। लेकिन मेरी अपनी समझ यही है। आज तो दौड़ हमने जो सोचा था, वह ज्यादा गहरा था। हमने सोचा था कि शुरू हो गई है। बीमारी चल चुकी है। रोकना करीब-करीब | यह जीवन की व्यवस्था आत्मा का अपना झुकाव है। और परमात्मा असंभव है। लेकिन जो मुझे ठीक लगता है, वही मुझे कहना | के नियमों के अनुसार, जन्म के साथ ही क्यों न तय हो जाए? चाहिए। मुझे तो ठीक यही लगता है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने | आत्मा क्यों न अपने ही चुनाव से उस घर में पैदा हो जाए, जहां गुण-कर्म को ठीक से जांच-पड़ताल कर ले, फिर आगे बढ़े।। | उसका एप्टिटयूड हो, जहां उसका झुकाव हो।
अभी पश्चिम के मनोवैज्ञानिक सलीवान या पर्ल्स या और दूसरे | यह बहुत आश्चर्य की बात है। हिंदुस्तान में शूद्रों को हुए कोई मनोवैज्ञानिक इस सुझाव पर खड़े हैं कि प्रत्येक स्कूल में एक-एक | दस हजार वर्ष होते हैं। दस हजार वर्षों में शूद्रों ने कोई बगावत नहीं मनोवैज्ञानिक होना चाहिए अनिवार्य रूप से, प्रत्येक प्राइमरी स्कूल | की, कोई विद्रोह नहीं किया। अगर शूद्र अपने भाग्य से बहुत में। क्यों? क्योंकि वे कहते हैं कि जब तक बच्चे का गुणधर्म न | | नाखुश थे, तो बगावत हो जानी चाहिए थी। लेकिन वे नाखुश नहीं समझा जा सके, तब तक तय नहीं करना चाहिए कि उसे क्या शिक्षा | | थे। उनका एप्टिटयूड मेल खा रहा था; वे नाखुश नहीं थे, असंतुष्ट दी जाए। बाप तय नहीं करे; क्योंकि बाप को क्या पता कि बच्चे नहीं थे। का गुणधर्म क्या है? यह बच्चा गणितज्ञ बन सकता है कि संगीतज्ञ, | इधर दो सौ वर्षों में अंग्रेजी-व्यवस्था के बाद नाखुश होने शुरू यह बाप कैसे तय करेगा? रुझान से, कि बाप को संगीत अच्छा | हुए। पहली बार एक ऐसी समाज-व्यवस्था सत्ता में आई इस मुल्क लगता है, इसलिए तय कर ले कि मेरा लड़का संगीतज्ञ हो जाए? | | में, जिसको वर्ण की आंतरिक धारणा का कोई भी पता नहीं था। लेकिन लड़के में गुणधर्म है या नहीं? या बाप तय कर ले कि उसने चीजों को तोड़ना शुरू किया। उसने वर्णों और वर्गों को लड़का इंजीनियर हो जाए, क्योंकि इंजीनियर की बाजार में कीमत | | लड़ाना शुरू किया। उसने हिंदू को मुसलमान से लड़ाया, इतना ही है, मार्केट वैल्यू है! तो फिर, लेकिन लड़का इंजीनियर होने का | | नहीं; उसने शूद्र को ब्राह्मण से लड़ाया। उसने सारा अस्तव्यस्त कर गुणधर्म लिए है या नहीं?
| दिया। उसने भारत की बहुत गहरी जड़ें, जो हजारों सालों में हमने पश्चिम का मनोवैज्ञानिक कह रहा है कि आज जगत में जो इतना | | आरोपित की थीं, सब हिला डालीं। आज तो सब अव्यवस्थित है। संताप है, उसका कुल कारण यह है कि कोई भी अपनी जगह पर फिर भी मैं यही कहूंगा कि व्यक्ति अपने गुणधर्म को ही सोचे। नहीं है। इसका क्या मतलब हुआ? इसलिए वे कहते हैं, एक-एक | | जन्म की बहुत फिक्र न भी करे, तो भी बहुत आंतरिक सोच-समझ, मनोवैज्ञानिक बिठा दो हर प्राइमरी स्कूल में, जो चार साल बच्चों | | इंट्रास्पेक्शन से सोचे कि मैं क्या हो सकता हूं! अगर उसे लगता हो
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वर्ण-व्यवस्था का मनोविज्ञान
कि वह ब्राह्मण हो सकता है, तो ब्राह्मण की यात्रा पर निकल जाए। अगर उसे लगे कि वह शूद्र हो सकता है, तो शूद्र की यात्रा पर निकल जाए। नहीं तो मनोवैज्ञानिक से पूछे। मगर राजनीतिज्ञ से न पूछे। अभी वह राजनीतिज्ञ से पूछ रहा है। अंधे अंधों को मार्गदर्शन दें, तो जो हो सकता है, वह हो रहा है।
प्रश्नः भगवान श्री, एक छोटा प्रश्न, उस पर कुछ कहिए। आधुनिक युग में डाक्टर, इंजीनियर और पोलिटीशियन को आप कौन-से वर्ण में रखेंगे ?
क्टर, इंजीनियर इनको किस वर्ण में रखेंगे!
पोलिटीशियन ?
पो
`लिटीशियन? वर्णसंकर! पोलिटीशियन का कोई वर्ण होता है ? पोलिटीशियन का कोई वर्ण नहीं होता; वर्णसंकर! क्योंकि पोलिटीशियन कोई धंधा नहीं है; जैसे प्रास्टीटयूशन कोई धंधा नहीं है।
टेक्नीशियन जो है, वह शूद्र के वर्ण में जाएगा, किसी भी भांति का टेक्नीशियन । शूद्र, सब तरह के शिल्प शूद्र में जाएंगे। इंजीनियर शूद्र में जाएगा। सब तरह के टेक्नीशियन; जो किसी टेक्नीक पर जीते हैं, तकनीक पर जीते हैं, शिल्प पर जीते हैं, कार्य की कुशलता और क्राफ्ट पर जीते हैं, वे सब शूद्र में जाएंगे।
शूद्र छोटा वर्ण नहीं है, बहुत अदभुत है, और बहुत बड़ा है; और बहुत बहुमूल्य है। उसकी अपनी महत्ता है। समस्त शिल्पी शूद्र में जाएंगे।
डा
लेकिन अगर कोई इंजीनियर इंजीनियरिंग न करता हो, प्योर इंजीनियर हो — जैसा प्योर मैथमेटीशियन होता है। एप्लाइड मैथमेटीशियन तो शूद्र में जाएगा; प्योर मैथमेटीशियन ब्राह्मण जाएगा। एक इंजीनियर, जो कि कोई मकान न बनाता हो, कोई सड़क न बनवाता हो, कुछ करता न हो, लेकिन इंजीनियरिंग के संबंध में केवल मानसिक शोध और खोज करता हो, तो फिर वह ब्राह्मण में चला जाएगा।
एक डाक्टर अगर चीरा - फाड़ी करता हो, मलहम पट्टी करता
हो, तो शूद्र में जाएगा। शिल्पी है। लेकिन एक डाक्टर, न तो चीरा- फाड़ी करता हो, न मलहम पट्टी करता हो, लेकिन मेडिसिन की खोज करता हो, सिर्फ औषधियों की खोज करता हो, तो फिर ब्राह्मण में चला जाएगा। एक डाक्टर अगर न औषधियों की खोज करता हो, न मलहम पट्टी करता हो, सिर्फ दवाइयां बेचता हो, तो वैश्य में चला जाएगा।
यह निर्भर करेगा, इट डिपेंड्स कि वह आदमी क्या करता है। उसके करने से तय होगा कि वह किस वर्ण में जाता है। अगर वह शिल्पी है, काम महत्वपूर्ण है, तो वह शूद्र में चला जाएगा। अगर वह व्यवसायी है और धन महत्वपूर्ण है, तो वह वैश्य में चला जाएगा। अगर वह सिर्फ शक्ति की खोज में है, सत्ता की खोज में है; जो भी वह कर रहा है, उसके करने के माध्यम से वह शक्ति की ही पूजा कर रहा है...। अगर एक फिजिसिस्ट, एक भौतिकी | वैज्ञानिक इसलिए अणु का विस्फोट कर रहा हो कि अणु विस्फोट से वह प्रकृति पर विजय पा लेगा, तो वह क्षत्रिय है । लेकिन अगर वह अणु - विस्फोट सिर्फ इसलिए कर रहा हो कि अणु के विस्फोट से वह विश्व की मूल शक्ति के निकट पहुंच जाएगा, | जिज्ञासा कर रहा हो, तो वह ब्राह्मण है।
ये जो चार वर्ण हैं, ये एप्टिट्यूड हैं, ये झुकाव हैं। फिर मिश्रित वर्ण के लोग भी होंगे, कि जो दो काम कर रहे हैं, तीन काम कर | रहे हैं, चार काम कर रहे हैं। तो वे मिश्रित होंगे; उनमें सब वर्णों के झुकाव होंगे। लेकिन फिर भी एक वर्ण उनमें महत्वपूर्ण होगा, जो केंद्रीय होगा।
पोलिटीशियन के लिए मैंने कहा कि वह वर्ण में नहीं होगा । उसके वर्ण में होने का उपाय नहीं है।
मैंने सुना, एक बहुत बड़े राजनीतिज्ञ से किसी ने पूछा... । | चुनाव था और वह खड़ा था मंच पर बड़ी मुश्किल में पड़ा था। | बड़ी मुश्किल में इसलिए पड़ा था, जैसा कि राजनीतिज्ञ हमेशा पड़े रहते हैं। बड़ी मुश्किल में पड़ा था, मुश्किल यह थी कि चुनाव | कांस्टिट्यूएंसी, चुनाव का क्षेत्र और जो लोग मौजूद थे, वे आधे-आधे बंटे थे; आधे लेफ्टिस्ट थे, आधे राइटिस्ट थे। आधे वामपंथी थे, आधे वामपंथी नहीं थे; विरोधी थे । एक आदमी ने खड़े होकर पूछा कि आप लेफ्टिस्ट हैं? दक्षिणपंथी हैं, वामपंथी हैं- कौन हैं ? वह मुश्किल में पड़ा। क्योंकि वह कहे कि वामपंथी है, तो दक्षिणपंथी नाराज हो जाएं; वह कहे दक्षिणपंथी है, तो वामपंथी नाराज हो जाएं। उसने टालने की कोशिश की। फिर किसी
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गीता दर्शन भाग-20
ने पूछा कि ठीक से जवाब दो, आप बाएं जाओगे कि दाएं? उसने सूक्ष्म, बारीक। पता नहीं चलता, रहस्यपूर्ण है। कब कर्म कर्म कहा, मैं तो सीधा जाऊंगा। बाएं-दाएं बिलकुल जाता ही नहीं। | होता, कब अकर्म होता, यह तो है ही कठिनाई। कर्म कभी-कभी
लायड जार्ज एक चुनाव में खड़ा था। पिछले चुनाव में वह किसी | | निषिद्ध कर्म भी होता है, तब और कठिनाई है। निषिद्ध कर्म के और दल की तरफ से लड़ा; इस चुनाव में किसी और दल की तरफ | संबंध में थोड़ी बात खयाल में ले लेनी चाहिए। से लड़ रहा था। किसी ने खड़े होकर पूछा कि आप क्या हैं? आप निषिद्ध कर्म को दो ढंग से सोचा जा सकता है। एक तो, कि हम कंजरवेटिव हैं? लिबरल हैं? सोशलिस्ट हैं, कम्यूनिस्ट हैं-क्या | कुछ कर्मों को तय कर लें कि ये निषिद्ध हैं, जैसा कि अदालत करती हैं? उसने कहा, मैं पोलिटीशियन हूं; मैं सिर्फ राजनीतिज्ञ हूं। मैं है, कानून करता है। कानून, कर्म तय कर लेता है कि ये निषिद्ध हैं। और कोई नहीं हूं।
चोरी करना निषिद्ध है; हत्या करना निषिद्ध है; आत्महत्या करना राजनीतिज्ञ का कोई धंधा नहीं है। असल में गैर-धंधी लोगों का | निषिद्ध है। कुछ कर्म तय कर लिए हैं। ये निषिद्ध हैं, ये नहीं करने धंधा है। जिनके पास कोई धंधा नहीं है, जिनके वर्ण का कोई | चाहिए। ठिकाना नहीं है, कोई एप्टिटयूड नहीं है। जिंदगी में जिन्हें कुछ और | लेकिन कानून बहुत बारीक नहीं होता। धर्म और भी बारीक करने योग्य नहीं लगता...।
खोज करता है। धर्म जानता है कि कभी-कभी कोई कर्म किसी लेकिन अगर ठीक व्यवस्था हो, अगर ठीक व्यवस्था हो तो जो | परिस्थिति में निषिद्ध हो जाता है और किसी परिस्थिति में निषिद्ध लोग राजनीति पर सोचते हैं, पोलिटीशियंस नहीं, पोलिटिकल | | नहीं होता। हत्या साधारणतया निषिद्ध है, युद्ध के मैदान पर निषिद्ध थिंकर्स-वे तो ब्राह्मण होंगे। लेकिन जो राजनीति को चलाते हैं, | नहीं होती है। अगर ठीक व्यवस्था हो, सुसंगत व्यवस्था हो, तो वे टेक्नीशियन | निषिद्ध निर्णीत चीज नहीं है; परिस्थिति के साथ बदल जाती है। होंगे! तो वे शूद्र में जाएंगे।
और कभी-कभी तो ऐसा होता है कि दो निषिद्ध कर्मों के बीच लेकिन अभी उनकी कोई स्थिति नहीं है। अभी वे वर्णसंकर हैं। विकल्प खडा हो जाता है. आल्टरनेटिव हो जाता है। क्या करो। इसलिए मैंने वर्णसंकर कहा है।
सच बोलो, तो हिंसा हो जाती है। हिंसा बचाओ, तो झूठ बोलना पड़ता है। फिर क्या करो? दो निषिद्ध कर्म आड़े खड़े हो जाते हैं।
एक को बचाओ, तो दूसरा निषिद्ध कर्म होता है। दूसरे को बचाओ, कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः।। तो पहला हो जाता है। अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः।।१७।। बहुत पुरानी एक तार्किक गुत्थी है। एक आदमी अपने रास्ते से कर्म का स्वरूप भी जानना चाहिए और अकर्म का स्वरूप । गजर रहा है, एक ब्राह्मण। सीधा-सादा आदमी है। एक कसाई भी जानना चाहिए तथा निषिद्ध कर्म का स्वरूप भी जानना | भागा हुआ आया है। वह अपनी गाय को खोज रहा है, जो उसके चाहिए, क्योंकि कर्म की गति गहन है। हाथ से छूटकर भाग गई है। वह उस आदमी से पूछता है, ब्राह्मण
से कि यहां से एक गाय भागी गई है? हाथ में उसके काटने की
कुल्हाड़ी है। ब्राह्मण देखता है, कसाई है। आंखें बताती हैं, हाथ की क हते हैं कृष्ण, कर्म का स्वरूप, अकर्म का स्वरूप और कुल्हाड़ी बताती है, खून के धब्बे बताते हैं। वह कहता है, गाय यहां पा निषिद्ध कर्म का स्वरूप जानना चाहिए, क्योंकि कर्म से गई है? गाय किस तरफ गई है? की गति गहन है।
___ वह ब्राह्मण मुश्किल में पड़ गया। बड़ी मुश्किल में पड़ गया। निषिद्ध कर्म, वे कर्म जो करने योग्य नहीं हैं, उनका स्वरूप भी उसने किताब में पढ़ा है कि झूठ बोलना निषिद्ध कर्म है। लेकिन जानना चाहिए।
सच बोले, तो यह कसाई गाय को पकड़ लेगा और हत्या करेगा। पहले सूत्र में कर्म और अकर्म की बात की। अब वे तीसरा एक | तो मैं भी भागीदार हो जाऊंगा। और गोहत्या तो निषिद्ध है ही। सभी और तत्व जोड़ते हैं। वे कहते हैं, निषिद्ध कर्म, उसका स्वरूप भी | | हत्याएं निषिद्ध हैं। फिर हत्या में भागीदार होना निषिद्ध है। अब जानना चाहिए क्योंकि कर्म की गति गहन है। गहन मतलब.
| अगर झूठ बोलूं, तो भी निषिद्ध कर्म हो जाएगा; सच बोलूं, तो भी
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वर्ण-व्यवस्था का मनोविज्ञान
निषिद्ध कर्म होकर रहेगा। वह ब्राह्मण मुश्किल में पड़ गया। | कीटाणु पैदा हो जाए। तो वर्षा में पैर ही मत रखो; निषिद्ध कर्म है।
उस कसाई ने कहा कि जल्दी बोलो। पता हो, तो बोलो; नहीं | किस चीज को निषिद्ध कहें? जीसस से पूछो, मोहम्मद से पूछो, पता हो, तो कहो कि नहीं पता है। उस ब्राह्मण ने कहा, मैं बहुत | | महावीर से पूछो, राम से पूछो, कनफ्यूशियस से पूछो। अगर मुश्किल में पड़ गया हूं। जरा मुझे सोचने दो। निषिद्ध कर्मों का | | सबकी बातें सुन लो, तो आदमी हिल भी न सके, सांस भी न ले सवाल है। उस कसाई ने कहा, पागल, मैं पूछता हूं, मेरी गाय कहां | | सके। देखा है न, जैन साधु-साध्वी मुंह पर पट्टी बांधे हुए हैं! वह है? निषिद्ध कर्मों का कोई सवाल नहीं है। सिर्फ गाय का सवाल सांस से बचाने के लिए, कि सांस की गर्म हवा आस-पास के है। गाय कहां गई है? तू जानता हो, देखा हो, बोल! न जानता हो, कीटाणुओं को मार देगी, तो निषिद्ध कर्म हो जाए! तो नाक पर पट्टी न देखा हो, वैसा बोल! उसने कहा कि अभी ठहरो। सवाल निषिद्ध बांधे हुए हैं। गर्म हवा पट्टी में रुक जाए, तो थोड़ी हवा के कर्मों का है।
कीटाणुओं को बचाने की सुविधा हो जाएगी। मुश्किल है! जिंदगी जटिल है। उसमें चीजें ऐसी नहीं होतीं, जैसी शास्त्रों में और ऐसा नहीं है कि इन बड़े तीर्थंकरों, अवतारों, समझदारों, होती हैं। शास्त्र सरल है, हालांकि लोग शास्त्रों को जटिल समझते | | बुद्धिमानों, ज्ञानियों की बात से मुश्किल होती है। जिंदगी जटिल हैं और जिंदगी को सरल समझते हैं। शास्त्र बिलकुल सरल हैं; | है। वे जो भी कह रहे हैं, सब ठीक कह रहे हैं। लेकिन सभी की जिंदगी बहुत जटिल है। क्योंकि शास्त्रों के सब सवाल निर्णीत | | बातें जिंदगी के निश्चित पहलू को छू पाती हैं! और जिंदगी रोज सवाल हैं; जिंदगी के सब सवाल अनिर्णीत हैं। वहां प्रतिपल तय अनिश्चित है। सब बदल जाता है। करना पड़ता है कि क्या करूं? और ऐसे क्षण रोज आ जाते हैं, जब महावीर ने कहा कि खेती मत करो, क्योंकि खेती निषिद्ध कर्म कोई शास्त्र साथ नहीं देता, स्वयं ही निर्णय करना पड़ता है। । | है; क्योंकि खेती में बहुत हिंसा होती है। होगी ही। इसलिए महावीर - इसलिए कृष्ण कहते हैं, जटिल है, गहन है कर्म की गति। उस को मानने वाले लोगों ने खेती बंद कर दी। खेती बंद कर दी, लेकिन कर्म की गहन गति को ठीक समझने के लिए पहले तो निषिद्ध कर्म | महावीर ने कभी सोचा न होगा कि खेती बंद करके ये और भी के तत्व को ठीक से समझ लेना चाहिए। कर्म और अकर्म को तो | | निषिद्ध कर्म न करने लगें! खेती तो बंद कर दी और महावीर के समझना ही चाहिए, निषिद्ध कर्म को भी ठीक से समझ लेना अधिकतम मानने वाले क्षत्रिय थे, क्योंकि महावीर क्षत्रिय थे। चाहिए। क्योंकि कर्म और अकर्म तो अल्टिमेट है, आखिरी सवाल अधिकतम मानने वाले क्षत्रिय थे, तलवार उठा नहीं सकते; क्योंकि है। लेकिन निषिद्ध कर्म, डे टु डे, इमीजिएट है, रोज का सवाल है। जब खेती नहीं कर सकते, तो तलवार उठाना तो बहुत निषिद्ध हो उठे नहीं, कि तय करना पड़ता है कि क्या करें!
जाएगा। युद्ध में जा नहीं सकते; सैनिक का काम कर नहीं सकते; रात आप करवट बदलते हैं। निषिद्ध कर्म करते हैं करवट क्षत्रिय रहे नहीं। खेती कर नहीं सकते किसान रहे नहीं। अब क्या बदलकर! आप कहेंगे, क्या पागलपन की बात करते हैं! रात | उपाय है? शूद्र होने की हिम्मत नहीं है। ब्राह्मण दरवाजे बंद किए करवट नहीं बदलेंगे, तो क्या होगा? महावीर की किताब पढ़ें। | बैठे हैं; वे भीतर घुसने न देंगे। सिवाय वैश्य होने के उन्हें कोई रास्ता महावीर का शास्त्र कहता है कि रात करवट बदलना निषिद्ध है। | नहीं रह गया। इसलिए समस्त महावीर के मानने वाले व्यापारी हो महावीर ने करवट नहीं बदली। रातों-रात एक ही करवट सोए। गए, वैश्य हो गए। क्योंकि रात करवट बदलें, पास में कोई कीड़ा-मकोड़ा दब जाए, | लेकिन वैश्य होकर उन्होंने इतनी हिंसा की, जितनी कि वे तो उसकी हत्या हो जाए। संभावना है, रात है, अंधेरा है, करवट | | किसान होकर कभी न करते! कभी न करते इतनी हिंसा। लेकिन बदली, कीड़ा-मकोड़ा दब जाए। तो एक ही करवट सोना, कम से दिखाई नहीं पड़ती है। रुपए को आप हाथ में लो, हिंसा का कम हिंसा की संभावना रहेगी। एक करवट तो सोना ही पड़ेगा। बिलकुल पता नहीं चलता। रुपया बिलकुल साफ मालूम पड़ता है। जितने मर गए, मर गए। दूसरी करवट से बचो; निषिद्ध कर्म है। | उसमें कहीं खून का धब्बा नहीं होता। हालांकि रुपए में जितने खून
महावीर जमीन पर पैर भी फूंककर रखेंगे। सूखी जमीन पर पैर | के धब्बे होते हैं, किसी और चीज में नहीं होते। लेकिन वह दिखाई रखेंगे; इसलिए महावीर वर्षा में यात्रा नहीं करेंगे। क्योंकि गीली | | नहीं पड़ता। एकदम साफ है। जमीन में कीटाणु पैदा हो जाते हैं। पानी पड़ जाए, गीली जमीन हो,। कहना चाहिए, स्वच्छ हिंसा है; एकदम साफ-सुथरी, क्लीन
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6 गीता दर्शन भाग-26
वायलेंस! कहीं कोई धब्बा नहीं, दाग नहीं। धुला हुआ रुपया है;। जो पुरुष कर्म में अकर्म को देखे, और जो पुरुष अकर्म में तिजोरी में सम्हालकर रखा है। कहीं कुछ पता नहीं चलता कि | कर्म को देखे, वह पुरुष मनुष्यों में बुद्धिमान है और वह किसकी गर्दन कटी इसमें; किसके प्राण गए इसमें; कौन सूली योगी संपूर्ण कर्मों का करने वाला है। लटका किसकी जमीन बिकी किसका मकान मिटा: कौन विधवा हुई; क्या हुआ-इसका कुछ पता नहीं चलता। रुपया बड़ा अदभुत है। वह सब तरह के खून से गुजरे, सब तरह
डी-सी बात इस संबंध में समझ लें। के अपराध से गुजरे, हमेशा ताजा बाहर आता है। वह कभी बासा
कष्ण कहते हैं, जो कर्म में अकर्म को देखे और अकर्म नहीं होता। कितने ही हाथों से गुजरे, कुछ भी उपद्रव उस पर बीते, में कर्म को देखे, वह व्यक्ति ज्ञानवान है। वह हमेशा साफ धुला बाहर निकल आता है। जब आपके हाथ में कर्म में अकर्म को देखे, उलटा। कर्म में अकर्म को देखने का आता है, तब उसके पास कोई इतिहास नहीं बचता। इतिहास खतम | | अर्थ हुआ, करते हुए भी जाने कि मैं कर्ता नहीं हूं। करते हुए भी हो जाता है। रुपया सीधा-साफ होता है। रुपए का कोई इतिहास जाने कि मैं कर्ता नहीं हूं। करते हुए भी ऐसा तभी जाना जा सकता नहीं बचता।
है, जब साक्षी का भाव हो। फिर रुपए इकट्ठे किए। इसलिए महावीर को मानने वाले- आप भोजन कर रहे हैं। भोजन करते हुए भी जाना जा सकता है महावीर ने खुद कभी न सोचा होगा कि मेरे मानने वाले! महावीर | | कि आप भोजन नहीं कर रहे हैं। अगर साक्षी हों, तो आप देखेंगे नग्न खड़े हैं रास्तों पर; धन-दौलत छोड़ दी है सब; सोचा भी न कि शरीर को ही भूख लगी है, शरीर ही भोजन कर रहा है, मैं देख होगा कि मेरे मानने वालों के पास इस मुल्क में सबसे ज्यादा रहा हूं। कठिन नहीं है। थोड़े से जागकर देखने की बात है। धन-दौलत इकट्ठी हो जाएगी। मगर निषिद्ध कर्म से हो गई। कहा स्वामी राम अमेरिका की एक सड़क से गुजर रहे हैं। कुछ लोगों तो ठीक ही था; निषिद्ध कर्म बताया था, ठीक बताया था; लेकिन | ने गालियां दीं; और कुछ लोगों ने मजाक किया। हंसते हुए लौटे। यह सोचा न था कि एक तरफ से निषिद्ध कर्म बचे, तो दूसरी तरफ | जहां ठहरे थे, वहां खिलखिलाकर आकर हंसने लगे। तो घर के से प्रकट हो सकता है।
लोग चिंतित हुए। उन्होंने कहा, क्या हो गया? अकारण हंसते हैं! इसलिए कृष्ण कहते हैं, कर्म की गति गहन है। इधर से छोड़ो, | राम ने कहा, अकारण नहीं हंसता। आज बड़ा ही मजा आया। रास्ते उधर से पकड़ लेती है। उधर से छोड़ो, इधर से पकड़ लेती है। तो | में ऐसा हुआ कि कुछ लोग राम को मिल गए। निषिद्ध कर्म क्या है, इसे ठीक से जान लेना जरूरी है। और जो इसे घर के लोग थोड़े हैरान हुए। वे राम की भाषा से परिचित न थे। ठीक से नहीं जान पाए, तो कर्म-अकर्म को जानना तो बहुत दूर है; राम को मिल गए। ऐसा खुद राम कह रहे हैं? अक्सर वह निषिद्ध कर्मों में ही जीवन को गंवा देता है। एक से | __ और फिर वे लोग राम को गालियां देने लगे और हंसी-मजाक बचता है, दूसरे में उलझ जाता है। जिंदगी का रास्ता कुएं और खाई करने लगे। राम बड़ी मुश्किल में पड़े। राम बड़ी दिक्कत में पड़ के बीच है। इधर गिरो तो कुआं है, उधर गिरो तो खाई है। और बीच गए। उनकी हंसी-मजाक और उनकी गाली के बीच ऐसा राम में चलना बहुत कठिन है। बारीक है; तलवार की धार जैसा है। कहने लगे कि राम बड़ी मुश्किल में पड़े। हम भी खड़े देखते थे। इतना बारीक है कि सम्हलना मुश्किल है बीच में।
राम बड़ी मुश्किल में पड़े। वे लोग गाली देने लगे। तो घर के लोगों किस चीज को कृष्ण निषिद्ध कहेंगे, वह उनके आगे के सूत्र में | ने कहा, आप बातें कैसी कर रहे हैं! होश में तो हैं? नशा वगैरह हम उनकी व्याख्या को समझें।
तो नहीं किया है! आखिरी सूत्र ले लें; फिर हम सुबह बात करेंगे।
राम ने कहा, नशे में तुम हो! मैं होश में हूं, इसीलिए ऐसी बात कर रहा हूं। नशे में होता, तो मेरी आंख से आग निकल रही होती
और मुंह से गालियां निकल रही होतीं। नशे में होता, तो मैं समझ कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः। जाता कि वे मुझे ही गाली दे रहे हैं, मुझ पर ही हंस रहे हैं। होश में स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत् । । १८ ।। | था, इसलिए मैंने देखा, राम को गाली पड़ रही है, राम पर हंस रहे
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वर्ण-व्यवस्था का मनोविज्ञान
हैं। हम खड़े देखते रहे।
रहा है। वह जो बैठा हुआ है वृक्ष के नीचे आंखें मूंदे हुए, वही राम, और हम खड़े देखते रहे, ये दो चीजें हो गईं। | चांद-तारे और सूरज भी चला रहा है। जब आप भोजन कर रहे हैं, तो राम भोजन कर रहे हैं; आप जरा लेकिन वह दूसरी घटना है। पहले तो कर्म में अकर्म का अनुभव खड़े होकर देखें। आप जरा पीछे खड़े हो जाएं और देखें कि राम हो, तो फिर अकर्म में कर्म का अनुभव होता है। भोजन कर रहे हैं। राम को भूख लगी, राम को नींद लगी-आप | और जो इस गहन प्रतीति को उपलब्ध हो जाता है, कृष्ण कहते खड़े पीछे देख रहे हैं। यह पीछे खड़े होकर देखने की कला ही हैं, वह ज्ञान को, सत्य को, सत्य के अनुभव को उपलब्ध हो जाता कर्म को अकर्म बना देती है। तब व्यक्ति करते हुए न करने जैसा हो | जाता है।
__ और साथ ही आपसे यह भी कह दूं कि जो व्यक्ति साक्षी बन और इससे भी जटिल बात दूसरी कृष्ण कहते हैं कि तब न करते | | जाता है, उसे निषिद्ध कर्म क्या है, यह पहले से तय नहीं करना हुए भी कर्ता जैसा हो जाता है। वह और भी कठिन है बात समझनी। | पड़ता। जब भी जरूरत होती है, जैसे ही वह साक्षी होता है, दिखाई यह तो पहली बात समझ में आ सकती है कि अगर साक्षी-भाव पड़ जाता है कि यह निषिद्ध है और यह निषिद्ध नहीं है। इसे सोचना हो, तो कर्म होते हुए भी ऐसा नहीं लगता कि मैं कर रहा हूं; देख | | नहीं पड़ता। उसकी हालत ठीक ऐसे हो जाती है...। रहा हूं कि हो रहा है। दूसरी बात और भी गहरी है कि न करते हुए | जैसे एक कमरा है अंधेरा। एक अंधा आदमी है; उसे कमरे के भी कर रहा है। इसका क्या मतलब हआ?
बाहर जाना है, तो वह पूछता है, दरवाजा कहां है? स्वभावतः, अंधे __ असल में जब कोई व्यक्ति पहली घटना को उपलब्ध हो जाता | | आदमी को दरवाजे का पता नहीं है। वह पूछता है, दरवाजा कहां है कि करते हए न करने को अनभव करने लगता है. तब अनिवार्य है? अगर कोई बता दे, बता भी दे, तो भी कछ फर्क नहीं पड़ता। रूप से दूसरी गहराई भी उपलब्ध हो जाती है कि वह न करते हुए अंदाज हो जाता है, अनुमान हो जाता है; फिर भी लकड़ी से भी अनुभव करता है कि कर रहा हूं। क्यों? क्योंकि जो व्यक्ति ऐसा | टटोलता है कि दरवाजा कहां है! बता दिया, तो भी टटोलता है! जान लेता है कि मैं साक्षी हूं, वह व्यक्ति अपने को स्वयं से तो तोड़ | टटोलता है, तो भी सीधे दरवाजे पर थोड़े ही पहुंच जाता है। कौन लेता है और सर्व से जोड़ देता है। जो व्यक्ति ऐसा जान लेता है कि टटोलने वाला सीधा पहुंच सकता है? कभी खिड़की को छूता है, मैं नहीं कर रहा हूं, सब हो रहा है, मैं देख रहा हूं, उसका परमात्मा | कभी कुर्सी को छूता है। फिर टटोल-टटोलकर कहां दरवाजा है, और उसके बीच तादात्म्य हो जाता है।
पता लगाता है। फिर वह कुछ भी नहीं करता। हवाएं चल रही हैं, तो भी वह | __ लेकिन आंख वाला आदमी? आंख वाला आदमी पूछता नहीं, जानता है, मैं ही चला रहा हूं। चांद-तारे घूम रहे हैं, तो वह जानता | | दरवाजा कहां है? निकलना है; उठता है और निकल जाता है। है, मैं ही चला रहा हूं।
आपने कभी खयाल किया, जब आप दरवाजे से निकलते हैं. पहले राम कभी एक दिन बहुत खुशी में आ गए, तो उन्होंने हंसकर सोचते हैं, दरवाजा कहां है! फिर देखते हैं कि यह रहा दरवाजा। कहा कि तुम्हें पता है, मैंने ही सबसे पहले चांद-तारों को गति दी | फिर सोचते हैं, इसी से निकल जाएं। फिर निकल जाते हैं। ऐसी थी। मैंने ही सबसे पहले चांद-तारों को इशारा किया और चला | कोई प्रक्रिया होती है? नहीं; आपको पता ही नहीं चलता कि दिया। लोगों ने कहा, आप? आपने? भरोसा नहीं आता। तो राम | | दरवाजा कहां है और आप निकल जाते हैं। दिखता है, तो दरवाजे ने कहा, अगर तुम समझते हो कि राम ने चला दिया, तो ठीक | से निकल जाते हैं। समझते हो, भरोसे के लायक बात नहीं है। लेकिन मैं कह रहा हूं, | ठीक ऐसे ही जिस व्यक्ति की साक्षी-भावना गहरी हो जाती है, मैंने चला दिया, राम ने नहीं। फिर वही बात।
उसे दिखाई पड़ता है, निषिद्ध कर्म क्या है। दिखाई पड़ता है। वह जो भीतर है, अगर जान ले कि मैं साक्षी हूं, तो परमात्मा के | टटोलना नहीं पड़ता, पूछना नहीं पड़ता, सोचना नहीं पड़ता, शास्त्र साथ एक हो जाता है। फिर जो भी हो रहा है, वही कर रहा है। फिर | | नहीं खोलने पड़ते। बस, दिखाई पड़ता है कि निषिद्ध कर्म क्या है। वह अगर खाली भी बैठा हुआ है, तो भी वही कर रहा है। हवाएं और जो निषिद्ध है, वह फिर नहीं किया जा सकता। और जो निषिद्ध भी वही चला रहा है, वृक्ष भी वही उगा रहा है, फूल भी वही खिला | नहीं है, वही किया जा सकता है। बस, वह निकल जाता है। आप
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0 गीता दर्शन भाग-2 0
उससे पूछेगे, तो उसको पीछे पता चलेगा कि मैंने वह कर्म नहीं किया। उसे पता नहीं चलता कि मैने नहीं किया, क्योंकि इतना पता चलना भी सिर्फ अंधों के लिए है। साक्षी-भाव आंख बन जाता है।
इस संबंध में हम सुबह और बात करेंगे। पांच मिनट आप रुकेंगे। संन्यासी पांच मिनट परमात्मा के लिए समर्पण का गीत गाएंगे, नाचेंगे। कोई मित्र उसमें सम्मिलित होना चाहें, उनके साथ सम्मिलित हो जाएं। अन्यथा पांच मिनट बैठे रहें; देखें; और फिर विदा हो जाएं।
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अध्याय 4 सातवां प्रवचन
कामना-शून्य चेतना
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गीता दर्शन भाग-26
यस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः।
कामना का अर्थ है, दौड़। जहां मैं खड़ा हूं, वहां नहीं है आनंद। ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः । । १९ ।। जहां कोई और खड़ा है, वहां है आनंद। वहां मुझे पहुंचना है। और और हे अर्जुन, जिसके संपूर्ण कार्य कामना और संकल्प से मजे की बात यह है कि जहां कोई और खड़ा है, और जहां मुझे रहित है, ऐसे उस ज्ञान-अग्नि द्वारा भस्म हुए कमों वाले | आनंद मालूम पड़ता है, वह भी कहीं और पहुंचना चाहता है। वह पुरुष को ज्ञानीजन भी पंडित कहते हैं। | भी वहां होने को राजी नहीं है। उसे भी वहां आनंद नहीं है। उसे भी
कहीं और आनंद है।
कामना का अर्थ है, आनंद कहीं और है, समव्हेयर एल्स। उस कामना और संकल्प से क्षीण हुए, कामना और संकल्प जगह को छोड़कर जहां आप खड़े हैं, और कहीं भी हो सकता है 41 की मुक्तिरूपी अग्नि से भस्म हुए...। चेतना की ऐसी | आनंद। उस जगह नहीं है, जहां आप हैं। जो आप हैं, वहां आनंद
दशा में जो ज्ञान उपलब्ध होता है, ऐसे व्यक्ति को | नहीं है। कहीं भी हो सकता है पृथ्वी पर; पृथ्वी के बाहर, ज्ञानीजन भी पंडित कहते हैं। इसमें दो-तीन बातें गहरे से देख लेने | चांद-तारों पर; लेकिन वहां नहीं है, जिस जगह को आप घेरते हैं। की हैं।
जिस होने की स्थिति में आप हैं, वह जगह आनंदरिक्त एक तो, ज्ञानीजन भी उसे पंडित कहते हैं।
है-कामना का अर्थ है। अज्ञानीजन तो पंडित किसी को भी कहते हैं। अज्ञानीजन तो कामना से मुक्ति का अर्थ है, कहीं हो या न हो आनंद, जहां आप पंडित उसे कहते हैं, जो ज्यादा सूचनाएं संगृहीत किए हुए है। हैं, वहां पूरा है; जो आप हैं, वहां पूरा है। संतृप्ति की पराकाष्ठा अज्ञानीजन तो पंडित उसे कहते हैं, जो शास्त्र का जानकार है। | कामना से मुक्ति है। इंचभर भी कहीं और जाने का मन नहीं है, तो अज्ञानीजन तो पंडित उसे कहते हैं, जो तर्कयुक्त विचार करने में कामना से मुक्त हो जाएंगे। कुशल है।
कामना के बीज, कामना के अंकुर, कामना के तूफान क्यों उठते ज्ञानीजन उसे पंडित नहीं कहते। ज्ञानीजन तो उसे पंडित कहते हैं? क्या इसलिए कि सच में ही आनंद कहीं और है? या इसलिए हैं, जो कामना और संकल्प को छोड़कर चेतना की उस शुद्ध कि जहां आप खड़े हैं, उस जगह से अपरिचित हैं? . अवस्था को उपलब्ध होता है, जहां ज्ञान का सीधा साक्षात्कार है, । अज्ञानी से पूछिएगा, तो वह कहेगा, कामना इसलिए उठती है इमीजिएट रिअलाइजेशन है। अज्ञानीजन पंडित उसे कहते हैं, जो कि सुख कहीं और है। और अगर वहां तक जाना है, तो बिना कि ज्ञानीजनों ने जो कहा है, उसका संग्रह रखकर बैठा है। ज्ञानीजनकामना के मार्ग से जाइएगा कैसे? ज्ञानी से पूछिएगा, तो वह उसे पंडित कहते हैं, जो उधार नहीं है; जिसका सत्य से सीधा, बिना कहेगा, कामना के अंधड़ इसलिए उठते हैं कि जहां आप हैं, जो मध्यस्थ के, संपर्क है, संस्पर्श है। यह संस्पर्श उसका ही हो सकता | आप हैं, उसका आपको कोई पता ही नहीं है। काश, आपको पता है, जिसकी चेतना से कामना और संकल्प क्षीण हुए हों। इसलिए चल जाए कि आप क्या हैं, तो कामना ऐसे ही तिरोहित हो जाती है, दूसरी बात खयाल में ले लेनी जरूरी है कि कामना और संकल्प के | जैसे सुबह सूरज के उगने पर ओस-कण तिरोहित हो जाते हैं।' क्षीण होने का क्या अर्थ है?
___ जोसआ लिएबमेन ने एक छोटी-सी कहानी लिखी है। लिखा है. कामना का क्षीण होना तो हमारी समझ में आ सकता है जहां | एक यहूदी फकीर बहुत परेशान है, बहुत कष्ट में है। जैसे कि सभी वासनाएं गिर गईं, इच्छाएं गिर गईं; जहां कुछ पाने का खयाल गिर | लोग हैं। आदमी खोजना मुश्किल है, जो परेशान न हो। अब तक गया। कामना के विरोध में तो बहुत वक्तव्य हैं; पर थोड़ा उसे भी मैंने तो ऐसा आदमी नहीं देखा, जो परेशान न हो। गृहस्थ भी परेशान ठीक से समझ लें। फिर संकल्प भी क्षीण हो जाए! उसे समझना | | हैं, संन्यस्त भी परेशान हैं। गृहस्थ भी कहीं और पहुंचना चाहते हैं, थोड़ा कठिन पड़ेगा।
| कहीं और-धन की यात्रा में, यश की यात्रा में। संन्यस्त भी कहीं कामना का अर्थ है, जो नहीं है, उसकी चाह। कामना के क्षीण | और पहुंचना चाहते हैं—आत्मा की यात्रा में, परमात्मा की यात्रा में, होने का अर्थ है, जो है, उस पर पूर्णताः। जो नहीं है, उसकी चाह | | मोक्ष की यात्रा में। लेकिन कहीं और पहुंचने की दौड़ जारी है। कामना है। जो है, उसके साथ पूरी तृप्ति, कामना से मुक्ति है। । और जो कहीं और पहुंचना चाहता है, वह तनाव में होगा,
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कामना-शून्य चेतना
परेशान होगा। वह शांत नहीं हो सकता। अगर मोक्ष भी पाना है,
वासना काम कर रही है, कामना काम कर रही है। अगर परमात्मा को भी पाना है, तो फिर वासना काम कर रही है । फिर कामना काम कर रही है। फिर कामना दग्ध नहीं हुई।
और मजा तो यह है कि परमात्मा उसे ही मिलता है, जिसकी कामना दग्ध हो । उसे ही मिलता है कि जिसके द्वार पर परमात्मा भी दस्तक दे, तो वह कहे, विश्राम करो; जल्दी न करो, ऐसी कोई जल्दी नहीं है। हम यहां भी काफी मजे में हैं! मोक्ष भी दरवाजे खोले और वह आदमी कह सके कि हम यहीं मोक्ष में हैं, दरवाजे खोलने की कोई भी जरूरत नहीं है। ऐसे ही व्यक्ति के लिए मोक्ष उपलब्ध होता है। ऐसे ही व्यक्ति की तरफ परमात्मा आता है, जो परमात्मा से भी कह दे कि ठहरो ।
संन्यासी भी परेशान और पीड़ित है। कामना ने रूप बदला, कामना नहीं बदली। कामना ने आब्जेक्ट बदला, विषय बदला, कामना नहीं बदली। धन की जगह धर्म हुआ; सुख की जगह स्वर्ग हुआ; पदार्थ की जगह परमात्मा हुआ; मकान की जगह मंदिर हुआ | विषय बदला, आब्जेक्ट बदला, रूप बदला, ढंग बदला; कामना नहीं बदली। कामना फिर नए रूपों पर नए विषयों पर दौड़ने लगी। कामना अपनी जगह है।
जब तक कोई आदमी कहीं पहुंचना चाहता है, जब तक किसी आदमी का कोई लक्ष्य है, तब तक वह कामना के बाहर नहीं है। जब तक उद्देश्य है, तब तक कामना बाहर नहीं है।
लिएबमेन ने यह जो फकीर की कहानी लिखी, फकीर भी परेशान है! मैंने कहा, संन्यासी भी परेशान है; बहुत दुखी है, बहुत पीड़ित है । जीवन बीत गया प्रार्थना करते, अब तक स्वर्ग से कोई खबर नहीं मिली ! जीवन बीत गया प्रभु के द्वार पर हाथ जोड़े, अब भी हाथ खाली हैं!
एक रात सोते समय उस बूढ़े फकीर ने परमात्मा से कहा, बहुत चुका! कितनी प्रार्थना करूं? और कितनी पूजा करूं? और कब तक तुम्हें पुकारूं ? अब थक गया। अब तक तुम से सुख मांगे,
अब तुमसे सुख नहीं मांगता। अब तुम से इतना ही मांगता हूं कि कम से कम मेरे दुख किसी और को दे दो और किसी दूसरे के दुख मुझे दे दो, तो भी चलेगा। मुझसे ज्यादा दुखी आदमी पृथ्वी पर दूसरा नहीं है।
सभी को ऐसा खयाल है कि उससे ज्यादा दुखी आदमी पृथ्वी पर दूसरा नहीं है । क्यों? खयाल के कारण हैं। क्योंकि हमें अपने भीतर
के, हृदय के दुख के कांटे दिखाई पड़ते हैं। दूसरों के हृदय के तो दुख के कांटे दिखाई नहीं पड़ते। दूसरों के हृदय तक पहुंचने का हमारे पास कोई उपाय नहीं है। दूसरों के चेहरे दिखाई पड़ते हैं।
और चेहरे से ज्यादा धोखे की और कोई चीज नहीं है। चेहरा फसाड है, धोखा है। चेहरा बनाया हुआ है। ओरिजिनल फेस तो | कम लोगों के पास होते हैं, पेंटेड फेस होते हैं। मौलिक चेहरा तो बहुत कम लोगों के पास होता है। कभी किसी कृष्ण, कभी किसी बुद्ध के पास मौलिक चेहरा होता है; वही जो चेहरा उनका है। | अन्यथा चेहरे तैयार किए होते हैं। दिखाने के लिए तैयार किए होते हैं। मास्क, मुखौटे होते हैं। और एक-एक आदमी बहुत-से चेहरे अपने पास रखता है। जब जैसी जरूरत पड़ी, चेहरा लगा लेता है।
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दूसरे का चेहरा दिखाई पड़ता है, मुस्कुराहटें दिखाई पड़ती हैं दुनिया में। दूसरों के हृदय तो दिखाई नहीं पड़ते, नहीं तो आंसुओं के ढेर लग जाएं। सच तो यह है कि लोग मुस्कुराते ही इसलिए हैं, ताकि भीतर के आंसुओं को छिपा सकें।
चेहरे बड़े प्रसन्न मालूम होते हैं, बड़े ताजे ! हृदय बिलकुल बासे । चेहरों पर जो दिखाई पड़ता है, उससे धोखे में मत आ जाना। वे ड्राइंगरूम की तरह हैं, घरों में बैठकखाने की तरह हैं। जो बाहर से आते हैं, उनको दिखाने के लिए बैठकखाना होता है। रहने के लिए नहीं होता है बैठकखाना । घर के लोग उसमें रहते नहीं हैं। सिर्फ दिखाई पड़ते हैं । जब बाहर से कोई आता है, तो बैठकखाने में दिखाई पड़ते हैं । रहते घर के दूसरे हिस्सों में हैं, दिखाई पड़ते हैं बैठकखानों में! चेहरे बैठकखाने हैं।
वह फकीर भी धोखे में आ गया। लोगों के चेहरे देखे । उसने | देखा, लोग हंसते हैं, मुस्कुराते हैं । और मैं अपने भीतर देखता हूं, तो सिवाय दुख के कुछ और नहीं है। तो उसने परमात्मा से कहा, छोड़ो यह फिक्र सुख देने की। अब तो मैं इसके लिए भी राजी हूं | कि किसी दूसरे का दुख मुझे दे दो । मेरा दुख किसी और को दे दो । फिर वह सो गया।
रात उसने एक स्वप्न देखा कि कोई आकाश से आवाज गूंजती है कि सब लोग अपने दुखों को गठरियों में बांधकर नगर के केंद्रीय हाल में पहुंच जाएं। फकीर समझा कि सुन ली गई मेरी प्रार्थना । बांधे अपने दुख; बांधी गठरी; भागा। रास्ते पर देखा कि सारा गांव अपनी-अपनी गठरी लेकर भागा जा रहा है। लोगों की गठरियों की तरफ देखा, तो थोड़ा घबड़ाया। क्योंकि कोई गठरी अपने से छोटी नहीं दिखाई पड़ती थी। लेकिन फिर भी गठरियां बंद थीं और दुख
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गीता दर्शन भाग-2
भीतर थे। हो सकता है, दुख ज्यादा सहने योग्य हों।
आएं। और गठरियां काफी लंबी और बड़ी थीं। अपनी ही गठरी अपरिचित का भी तो आकर्षण होता है। जिसे नहीं जानते, उस भवन में सबसे छोटी मालूम पड़ती थी। उसका भी तो आकर्षण होता है। अपने सुख से भी आदमी ऊब | अपनी गठरी उठाकर फकीर थोड़ा संतृप्त हुआ, उसने चारों तरफ जाता है; दूसरे के दुख में भी आकर्षण होता है। साथ रहते-रहते देखा, लेकिन बड़ा हैरान हुआ, सभी ने अपनी गठरियां वापस उठा अपने सुख से भी ऊब जाता है। सच तो यह है कि सुख जितना ली थीं! पूछा भी लोगों से उसने कि बदल क्यों नहीं लेते? दौड़े तो उबाने वाला, बोर्डम पैदा करने वाला होता है, उतना दुख नहीं होता। | बहुत तेजी से थे। उन्होंने कहा, अपनी ही गठरी छोटी दिखाई पड़ी! दुखी आदमी ऊबे हुए नहीं दिखाई पड़ते; सुखी आदमी ऊबे हुए। चेहरे उखड़ गए। हृदय दिखाई पड़ते हैं, तो ऐसा ही हो जाता है। दिखाई पड़ते हैं-बोर्ड!
दूसरे की तरफ हम दौड़ते हैं, क्योंकि लगता है, दूसरा सुखी है, सोचा कि ठीक है, कोई हर्जा नहीं। गठरियों में, पता नहीं, हम दुखी हैं। कामना का बीज यही है। दूसरे जैसे होना चाहते हैं, किस-किस तरह के नए दुख तो होंगे कम से कम। दुख की क्योंकि लगता है, दूसरा सुखी है, हम दुखी हैं। कामना का बीज बदलाहट भी बड़ी राहत देती है।
यही है। अक्सर हम यही करते रहते हैं, खुद बदलते रहते हैं। एक दुख । अज्ञानी से पूछे, तो वह कहेगा, नहीं; दूसरी जगह सुख है, को छोड़ते हैं, दूसरे को पकड़ लेते हैं। एक को डायवोर्स दिया, इसलिए दौड़ते हैं। ज्ञानी से पूछे, तो वह कहेगा, इसलिए दौड़ते हैं, दूसरे से मैरिज की। एक दुख को छोड़ा, दूसरे से विवाह किया। पर क्योंकि हमें पता ही नहीं कि हम अपनी जगह कौन हैं? क्या हैं? दुख के बदलने के बीच में जो थोड़ा-सा खाली वक्त मिलता है, | तो जो अपने भीतर डूबे, जो थोड़ा-सा आत्मा को जान ले, वही वह काफी सुख देता है। एक दुख उतारने में, दूसरा चढ़ाने में बीच कामना से मुक्त हो सकता है। अन्यथा नहीं मुक्त हो सकता है। में जो ट्रांजीशन का पीरियड है, वह जो थोड़ी-सी राहत का वक्त | | आत्मा को जाना कि कामना तिरोहित हो जाती है; या कामना है, वह भी काफी सुख देता है।
| तिरोहित हो जाए, तो आत्मा जान ली जाती है। ये एक ही सिक्के सोचा कि चलो, बदल ही लें।
के दो पहलू हैं। भवन में पहुंच गए। फिर दूसरी आवाज गूंजी कि सब अपनी | दूसरी बात और भी कठिन है। कृष्ण कहते हैं, संकल्प भी...। गठरियों को भवन की खूटियों पर टांग दें। सभी ने दौड़कर खंटियों | संकल्प का अर्थ है, विल पावर। संकल्प भी छोड़ दो। पर अपनी गठरियां टांग दीं। सभी तेजी से दौड़े कि कहीं ऐसा न हो | | साधारणतः, अगर कार्लाइल जैसे विचारकों से पूछे, तो वे कहेंगे, कि खूटियां समाप्त हो जाएं; कहीं ऐसा न हो कि अपनी गठरी अपने | | संकल्प तो प्राण है। विल चली जाएगी, विललेस हो जाओगे, हाथ में ही रह जाए। बड़ी तेजी थी। लेकिन खंटियां काफी थीं और संकल्पहीन हो जाओगे, तो इंपोटेंट हो जाओगे, क्लीव हो जाओगे। सबके दुख टंग गए।
कुछ बचेगा ही नहीं तुम्हारे पास। और फिर आवाज गूंजी कि अब जिसे जो गठरी चुननी हो, वह लेकिन कृष्ण कहते हैं, संकल्प से भी...। चुन ले। फकीर भागा तेजी से। लेकिन आप हैरान होंगे, फकीर | | संकल्प का उपयोग ही क्या है? जब तक कामना है, तब तक दूसरे की गठरी उठाने नहीं भागा; अपनी गठरी ही उठाने भागा। | उपयोग है। जब कामना नहीं, तो संकल्प का कोई उपयोग नहीं। क्योंकि जब सिरों से गठरियां उतरी और खंटियों से लटकी और | | जब तक इच्छा पूरी करनी है, तब तक इच्छाशक्ति की जरूरत है। उनके दुख उनके बाहर भी झांकते हुए दिखाई पड़ने लगे, तब वह | | और जब इच्छा ही नहीं है, तो इच्छाशक्ति का क्या करिएगा? वह घबड़ाया कि कोई मेरी गठरी न उठा ले। वह भागा। और उसने | बोझ हो जाएगी। उसे भी छोड़ दो। जल्दी से अपनी गठरी उठाई कि कहीं ऐसा न हो कि कोई अपनी | हमें इच्छाशक्ति की जरूरत है, क्योंकि इच्छाएं पूरी करनी हैं, तो गठरी उठा ले और झंझट में पड़ जाएं।
| पैरों में ताकत चाहिए दौड़ने की। कामना पूरी करनी है, तो शक्ति जब खूटियों पर गठरी टांगी उसने, तब उसे पता चला कि दुख | चाहिए, मंजिल तक पहुंचने की। वही संकल्प है। हैं, तो भी अपने हैं, परिचित हैं। इतने दिन से परिचित रहने की वजह ___ संकल्पहीन की हम निंदा करते हैं, कि तुम कुछ डिसीजन नहीं से आदी भी हो गए हैं। पता नहीं, अपरिचित दुख कौन-सा दुख ले ले पाते, संकल्पहीन हो; तुम कुछ निर्णय नहीं कर पाते, तुम कुछ
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ॐ कामना-शून्य चेतना
पक्का नहीं कर पाते, मजबूत नहीं कर पाते। कुछ कर नहीं पाते, | है। क्योंकि सब लोग बाहर की तरफ दौड़ते हैं, वह भीतर ही भीतर हम उसकी निंदा करते हैं। निंदा हम इसीलिए करते हैं कि कामनाएं दौड़ता है। फिर भीतर दौड़ने से कहीं पहुंच तो सकते नहीं; कोल्हू तो उसके भीतर बहुत हैं और संकल्प नहीं है।
के बैल बन जाते हैं। वहीं-वहीं वर्तुल की तरह घूमते रहते हैं। फिर ___ अगर कामनाएं बहुत हों और संकल्प न हो, तो आदमी पागल | जिंदगी बड़ी कठिनाई में हो जाती है। हो जाएगा। क्योंकि पहुंचने की इच्छा बहुत है और चलने की ताकत और यह भी स्मरणीय है कि शक्ति के दो रूप हैं। अगर वह बिलकुल नहीं है, तो वह आदमी बड़ी कठिनाई में पड़ जाएगा। वह वासनाओं की तरफ दौड़े, तो क्रिएटिव होती है। वह कुछ सृजन वैसी ही कठिनाई में पड़ जाएगा, जैसे वृद्धजन कामवासना से | | करती है; कामनाओं का, वासनाओं का, सपनों का, आकांक्षाओं तकलीफ में पड़ जाते हैं। वृद्ध हैं; शरीर ने साथ छोड़ दिया; अब | | का सृजन करती है। अगर आकांक्षाएं, वासनाएं, कामनाएं छूट कोई शक्ति नहीं है कामवासना को पूरी करने की; लेकिन मन अभी | | जाएं, तो शक्ति सृजन नहीं करती। संकल्प की शक्ति फिर स्वयं कामवासना के विचार उठाए चला जाता है!
को ही विनाश करने लगती है, डिस्ट्रक्टिव हो जाती है। ध्यान रहे, युवा अवस्था में कामवासना उतनी पीड़ा नहीं देती, | | इसलिए कृष्ण का दूसरा सूत्र पहले सूत्र से भी बहुमूल्य और क्योंकि वासना भी होती है, शक्ति भी होती है। वृद्धावस्था में | स्मरणीय है, संकल्प भी छोड़ देता है जो व्यक्ति...। कामवासना बुरी तरह पीड़ा देती है। क्योंकि शक्ति खो गई होती है; __ वासनाएं छोड़ देता है, संकल्प छोड़ देता है। यह भी छोड़ देता वासना नहीं खोती। वासना अपनी जगह खड़ी रहती है। है कि मुझे कहीं पहुंचना है; यह भी छोड़ देता है कि मैं कहीं पहुंच
संकल्प की हम बात करते हैं कि संकल्प बढ़ाओ, विल पावर सकता हूं। यह भी छोड़ देता है कि कोई मंजिल है; और यह भी बढ़ाओ। क्योंकि वासनाएं अगर पूरी करनी हैं, तो बिना संकल्प के छोड़ देता है कि मैं कोई यात्री हूं! यह भी छोड़ देता है कि मुझे कोई पूरी न होंगी। लेकिन अगर वासनाएं छोड़ देनी हैं, तब संकल्प की | दूर के फल तोड़ लाने हैं; और यह भी छोड़ देता है कि मैं तोड़कर कोई भी जरूरत नहीं है: तब तो समर्पित हो जाओ। तब नाहक की ला सकता है। शक्ति बोझ बन जाएगी।
ऐसा कामना-शून्य, संकल्परिक्त हुआ व्यक्ति ज्ञान को उपलब्ध ध्यान रहे, शक्ति अगर प्रयोग न की जाए, तो आत्मघाती हो | | होता है। क्यों? ऐसा व्यक्ति ज्ञान को उपलब्ध क्यों हो जाता है कि जाती है, स्युसाइडल हो जाती है। इसे मैं फिर दोहराता हूं, शक्ति | | जिसको ज्ञानी भी पंडित कहते हैं? अगर प्रयुक्त न हो, तो स्वयं का ही विनाश करने लगती है। ऐसा व्यक्ति इसलिए ज्ञान को उपलब्ध हो जाता है कि ऐसा
इसलिए कृष्ण बहुत मनोवैज्ञानिक सत्य कह रहे हैं। लेकिन क्रम | व्यक्ति दर्पण की भांति निर्मल और ठहरा हुआ हो जाता है। कभी से कह रहे हैं। वे कह रहे हैं, पहले वासना-कामना से क्षीण, | देखी है झील आपने? जब लहरें चलती होती हैं, तो झील दर्पण संकल्प से क्षीण।
नहीं बन पाती। लेकिन झील पर लहरें न चलें, झील शांत हो __ अगर कोई वासनाओं के पहले संकल्प छोड़ दे, तो बहुत कठिनाई | जाए-दौड़े न, चले न, रुक जाए; ठहर जाए; मौन हो जाए, में पड़ जाएगा। बहुत-बहुत कठिनाई में पड़ जाएगा, बड़ा दीन और विश्राम में चली जाए तो झील दर्पण बन जाती है। फिर झील की हीन हो जाएगा। पहले वासना चली जाए, तो फिर संकल्प का बचना | सतह मिरर का काम करती है, दर्पण का काम करती है। फिर खतरनाक। क्योंकि फिर शक्ति करेगी क्या? और जब शक्ति बाहर | चांद-तारे उसमें नीचे झलक आते हैं। फिर आकाश का सूरज उसमें नहीं जा पाती, दौड़ नहीं पाती, जब शक्ति सक्रिय नहीं हो पाती, तो | | प्रतिबिंबित होता है। पूरा आकाश छोटी-सी झील पकड़ लेती है। फिर भीतर सक्रिय हो जाती है। और फिर भीतर ही दौड़ने लगती है। | अनंत आकाश, विराट आकाश, जिसकी कोई सीमा नहीं, एक शक्ति जब भीतर दौड़ती है, तो आदमी पागल हो जाता है। छोटी-सी झील की छाती में प्रतिबिंबित हो जाता है।
शक्ति जब बाहर दौड़ती है, तब भी पागल होता है। लेकिन तब | | ठीक ऐसा ही होता है। जब चित्त पर कोई वासना की लहर नहीं नार्मल पागल होता है, जैसे सभी पागल हैं। इसलिए बहत दिक्कत 1. और जब चित पर कामना का कोई झंझावा नहीं आती। लेकिन जब शक्ति भीतर दौड़ने लगती है, तब जब चित्त अपने ही भीतर घूमती शक्ति से आंदोलित नहीं होता, तब एबनार्मली पागल हो जाता है; असाधारण रूप से पागल हो जाता चित्त भी एक झील की भांति मौन, ठहर गया होता है। उस ठहराव
होता. और
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गीता दर्शन भाग-2600
में दर्पण बन जाता है। उस दर्पण में विराट परमात्मा इस छोटे-से | | मालूम पड़ता है। क्वांटिटेटिव अंतर है। न जानने वाले और ज्यादा
आदमी के हृदय में भी प्रतिफलित होता है; आमने-सामने हो जाता | जानने वाले में क्वांटिटी का अंतर है। आपने दो किताबें पढ़ी हैं, है। विराट है परमात्मा, हम बड़े छोटे हैं। छोटी है झील, बड़ा है | उसने दस पढ़ी हैं। आप दो क्लास पढ़े हैं, उसने दस क्लास पढ़ी आकाश!
हैं। आपके पास प्राइमरी का सर्टिफिकेट है, उसके पास यूनिवर्सिटी __कल एक मुसलमान बहन मुझसे कह रही थी कि कुरान में जब का। लेकिन अंतर क्वांटिटी का है, क्वालिटी का नहीं। अंतर मैंने पढ़ा, अल्ला हू अकबर, बड़ा है परमात्मा, तो कुछ समझ में | परिमाण का, मात्रा का है, गुण का नहीं। नहीं आया कि मतलब क्या है!
लेकिन जब कोई व्यक्ति परमात्मा को जान लेता है, तो यह कोई सच ही बड़ा है परमात्मा। बहुत बड़ा है। जितना हम कंसीव कर | बड़ा सर्टिफिकेट नहीं है छोटे सर्टिफिकेट के मुकाबले। यह कोई सकें, जितना हम सोच सकें, उससे सदा बड़ा है। बड़े का मतलब | | प्राइमरी की डिग्री के मुकाबले पीएच.डी. की डिग्री नहीं है। यह यह नहीं कि हमने नाप लिया है कि इतना बड़ा है। बड़े का इतना ही | कोई डिग्री ही नहीं है। मतलब कि हमारे सब नाप बेकार हो गए हैं।
हमारे पास जो शब्द है डिग्री के लिए, वह बहुत बढ़िया हैध्यान रहे, बड़े का मतलब यह नहीं कि हम नाप चुके, मेजर्ड। उपाधि। उपाधि का मतलब बीमारी भी होता है। असल में ऐसा नहीं कि हमने नापा और पाया कि बड़ा है। ऐसा कि हमने नापा | | उपाधिग्रस्त आदमी, डिग्रीधारी, बीमार ही होता है। क्योंकि सब
और पाया कि कोई मेजरमेंट, कोई नाप काम नहीं आता, बहुत बड़ा | | उपाधियां, सब डिग्रियां अहंकार को और भारी करती चली जाती है! अल्ला हू अकबर, बहुत बड़ा है! हमारे सब माप बेकार हैं। वह हैं। और सब उपाधियां, और सब डिग्रियां कामना और वासना को जो इतना बड़ा है, वह इस आदमी के छोटे-से हृदय के साथ कैसे | और गतिमान करती हैं। सब उपाधियां संकल्प को और दौड़ाती हैं। साक्षात्कार हो सकेगा?
नहीं, जिसे ज्ञानी भी पंडित कहते हैं, यह उपाधिमुक्त है। यह कभी आपने देखा कि एक छोटे-से दर्पण में भी बहुत बड़ा | | डिग्रीलेस है। इसकी कोई उपाधि नहीं है। इसके पास कोई प्रमाणपत्र साक्षात्कार हो जाता है। छोटे-से दर्पण में विराट सूर्य का प्रतिफलन | | नहीं है जानने का। यह स्वयं ही प्रमाणपत्र है जानने का। इसकी हो जाता है। दर्पण फिर भी बड़ा है। छोटी-सी आंख गौरीशंकर को | | स्वयं की आंखें गवाही हैं। इसके हृदय से उठते हुए स्वर गवाही हैं। ' भी पकड़ लेती है। विराट एवरेस्ट को छोटी-सी आंख पकड़ लेती | | इसका रो-रोआं, इसका उठना-बैठना गवाही है। है। माना कि होगे विराट, माना कि आंख बड़ी छोटी है, लेकिन | एक फकीर रिझाई के पास जापान का सम्राट गया और उसने प्रतिफलन की क्षमता अनंत है, दि कैपेसिटी टु रिफ्लेक्ट। छोटी है | कहा कि मैं कैसे जानें कि तुमने जान लिया? तो उस फकीर ने कहा
आंख, लेकिन प्रतिफलन की क्षमता अनंत है। इसलिए आंख | कि मुझे देखो-मेरे उठने को, मेरे बैठने को, मेरे बोलने को, मेरे एकदम छोटी नहीं है। एक अर्थ में एवरेस्ट छोटा पड़ जाता है। एक चुप होने को, मेरी आंखों को, मेरे जागने को, मेरे सोने को-मुझे अर्थ में एवरेस्ट छोटा पड़ जाता है!
| देखो। उस सम्राट ने कहा, तुम्हें देखने से क्या होगा? कोई और एक अर्थ में भक्त के हृदय के सामने भगवान छोटा पड जाता है। प्रमाण नहीं है? उस फकीर ने कहा, और कोई भी प्रमाण नहीं है। इस अर्थ में, अनंत है विराट, लेकिन भक्त के छोटे-से हृदय में भी मैं ही प्रमाण हूं। मैंने अगर उसे जाना है, तो तुम मेरे उठने में उसका पूरा प्रतिफलित हो जाता है। असीम पूरा पकड़ लिया जाता है। उठना जानोगे। मैंने अगर उसे जाना है, तो तुम मेरे देखने में उसकी
लेकिन यह हृदय होना चाहिए मौन, शांत, वासना-संकल्प से | आंख को देखता हुआ पाओगे। अगर मैंने जाना है, तो जब मैं तुम्हें रिक्त और खाली। और तब ज्ञानी भी–ज्ञानी अर्थात जो जानते हैं, | हृदय से लगाऊंगा, तो तुम मेरे हृदय में उसकी धड़कन सुन वे भी-ऐसे व्यक्ति को पंडित कहते हैं। और ध्यान रहे, कृष्ण की | | पाओगे। और कोई प्रमाण नहीं है। और अगर यह तुम न पहचान यह शर्त बड़ी कीमती है। क्योंकि जो नहीं जानते, वे किसी को पंडित | सको, तो और कोई उपाय नहीं है। मैं कोई गवाह खड़े नहीं कर कहें, इसका कोई भी मूल्य नहीं है। इसका कोई भी मूल्य नहीं है। | सकता हूं। मैं ही गवाह हूं। और अगर मैं गवाह नहीं बन पाता हूं,
जो नहीं जानते हैं, वे किसी को पंडित कहें, इसका क्या मूल्य हो तो फिर कोई उपाय नहीं है। सकता है ? वे उसी को पंडित कहते हैं, जो उनसे ज्यादा जानता हुआ कृष्ण कहते हैं, ज्ञानीजन भी उसे पंडित कहते हैं।
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कामना-शून्य चेतना
अज्ञानीजन तो किसी को भी पंडित कहते हैं। अंधों में काना भी र ऐसा पुरुष, ऐसी चेतना को उपलब्ध पुरुष, ऐसी राजा हो जाता है! नहीं, उसका कोई मूल्य नहीं है।
II चेतना को उपलब्ध व्यक्ति संसार के आसरे आनंदित ___ यह स्मरण में रखना कि इस आखिरी वक्तव्य ने पंडितों की दो नहीं होता। ऐसे पुरुष का आनंद परमात्मा से ही स्रोत कोटियां कर दीं। एक वे पंडित, जिनके पास परिमाण में ज्ञान है; | पाता है। ऐसा व्यक्ति संसार के कारण सुखी नहीं होता। ऐसा मात्रा है ज्ञान की एक। लेकिन वे कंप्यूटर से ज्यादा नहीं हैं। उनके व्यक्ति सुखी ही होता है-अकारण। जहां तक संसार का संबंध पास बंधे हुए उत्तर हैं, रटे हुए। उनके अपने उत्तर नहीं हैं। उत्तर है-अकारण। किसी और के हैं; वे केवल दोहराने का काम कर रहे हैं। वे केवल _अगर कोई रामकृष्ण से पूछे, क्यों नाच रहे हो? तो रामकृष्ण दलाल हैं, उससे ज्यादा नहीं हैं। उत्तर उपनिषद के होंगे, कि बुद्ध कोई भी सांसारिक कारण न बता सकेंगे। वे यह न कह सकेंगे कि के होंगे, कि कृष्ण के होंगे, कि महावीर के होंगे। उनके अपने नहीं | लाटरी जीत गया हूं। वे यह न कह सकेंगे, यश हाथ लग गया है। हैं, इसलिए आथेंटिक नहीं हैं, इसलिए प्रामाणिक नहीं हैं। जब कोई वे यह न कह सकेंगे कि बहुत लोग मुझे मानने लगे हैं। व्यक्ति कहता है अपने से-तब! जानकर-तब! ।
अगर कबीर से हम पूछे कि क्यों मस्त हुए जा रहे हो? यह मस्ती और यह दुनिया बहुत सुलझी हुई हो सकती है, अगर ये नंबर | | कहां से आती है ? तो संसार में कारण न बता सकेंगे। दो के पंडित थोड़े कम हों। या न हों, तो बड़ा सुखद हो सकता है। ___ हमारी मस्ती हमेशा सकारण होती है, कंडीशनल होती है। शर्त जो नहीं जानता, वह जानने वाले की तरह बोलकर भारी नुकसान | होती है उसकी। घर में बेटा हुआ है, तो बैंड-बाजे बज रहे हैं। पहुंचाता है।
| धन-संपत्ति आ गई है, तो फूलमालाएं सजी हैं। हमारा सुख बाहर, जो जानता है, वह चुप भी रह जाए, तो भी लाभ पहुंचाता है। | हमसे बाहर कहीं से आता है। इसलिए देर नहीं लगती और हमारा जो नहीं जानता है, वह बोले, तो भी नुकसान पहुंचाता है। सौ में सुख तत्काल दुख बन जाता है। बहुत देर नहीं लगती। क्योंकि निन्यानबे मौके पर लोग जानते नहीं हैं, सिर्फ जाने हुए की बातों को | जिसका भी सुख संसार-आश्रित है, उसका सुख क्षणभर से ज्यादा जानते हैं। सेकेंड हैंड भी नहीं कहना चाहिए; हजारों हाथों से गुजरी | नहीं हो सकता। क्योंकि संसार ही क्षणभर से ज्यादा नहीं होता है। हुई बातों को जानते हैं। सब सड़ गया होता है। अज्ञानीजन उनको संसार पर आश्रित जो भी है, वह सभी क्षणभर है। पंडित कहते हैं।
जैसे कि हवाओं के झोंके में वृक्ष का पत्ता हिल रहा है। यह वृक्ष लेकिन ज्ञानीजन उसे पंडित कहते हैं, जिसने आमना-सामना का पत्ता क्षणभर से ज्यादा एक स्थिति में नहीं हो सकता; क्योंकि किया, एनकाउंटर किया; जिसके हृदय और परमात्मा के हृदय के जिस हवा में हिल रहा है, वही क्षणभर से ज्यादा एक स्थिति में नहीं
• सब पर्दे गिरे। और जिसके हृदय ने परमात्मा रहती है। वह हवा ही तब तक और आगे जा चकी है। नदी में जो के हृदय का संस्पर्श किया; जिसने आंखों में आंखें डालकर लहर उठ रही है, वह जिस पवन के झोंकों से उठ रही है, क्षणभर परमात्मा में झांका; और जिसने परमात्मा को आंखें डालकर अपने | | से ज्यादा नहीं रह सकती; क्योंकि क्षणभर से ज्यादा वह पवन का भीतर झांकने दिया; जो झील की तरह आकाश से मिला, मौन झील झोंका ही नहीं रह जाता है। की तरह-उसे पंडित, उसे ही पंडित कहा जा सकता है। संसार क्षणभंगुरता है। वहां सब कुछ क्षणभर है। उस पर
आश्रित सुख क्षण से ज्यादा नहीं है। आया नहीं, कि गया! आने
और जाने में बड़ा कम फासला है। त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रयः। __मैं अभी एक कवि की दो पंक्तियां देख रहा था, मुझे बहुत कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किंचित्करोति सः।।२०।। | | प्रीतिकर लगीं। जरा-सा फासला किया है और पंक्तियों का अर्थ और जो पुरुष सांसारिक आश्रय से रहित सदा परमानंद | बदल गया है। पहली पंक्ति है : वसंत आ गया। और दूसरी पंक्ति परमात्मा में तृप्त है, वह कर्मों के फल और संग अर्थात | है: वसंत आ, गया। पहली पंक्ति है: वसंत आ गया। आ गया कर्तृत्व-अभिमान को त्यागकर कर्म में अच्छी प्रकार बर्तता | | वसंत। और दूसरी पंक्ति है : आ, गया वसंत। वह आ गया को हुआ भी कुछ भी नहीं करता है।
| तोड़ दिया है दूसरी पंक्ति में, दो टुकड़ों में! आ को अलग कर दिया
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गीता दर्शन भाग-26
जाती है।
है, गया को अलग कर दिया है।
| निचोड़ने में सफल हो जाते हैं। और कर्म का अभिमान तब आहत इतना ही फासला है, आ गया सुख; आ, गया सुख। पहचान हो जाता है, पीड़ित हो जाता है, धूल-धूसरित हो जाता है, जब आप भी नहीं पाते कि आ गया, और दूसरी पंक्ति घटित हो जाती है। सच | दूसरों से सुख निचोड़ने में सफल नहीं हो पाते; निचोड़ते सुख हैं तो यह है कि जैसे ही हम पहचानते हैं कि सुख आ गया, सुख जा | | और दुख निचुड़ आता है। चुका होता है। इतना ही क्षण, क्षणभर की धुन बजती है और चली कर्म का अभिमान सफलता का अभिमान है। सफलता
अभिमान है। सफलता किस बात की? दूसरे से सुख निचोड़ लेने कृष्ण कहते हैं, संसार-आश्रित ऐसे पुरुष के सुख नहीं हैं। की। सारी सफलताएं दूसरों से सुख निचोड़ लेने की सफलताएं हैं। ऐसे पुरुष का आनंद आश्रित आनंद नहीं है। अनाश्रित, | जब आप सफल हो जाते हैं, तब अभिमान भर जाता है; तब आप अनकंडीशनल, बेशर्त, अकारण है। ऐसे पुरुष का आनंद कहीं से | फूलकर कुप्पा हो जाते हैं; जैसे कि रबर के गुब्बारे में बहुत हवा भर आता नहीं, इसलिए फिर कहीं जा भी नहीं सकता। ऐसे पुरुष का | दी गई हो। पर गुब्बारे को बेचारे को पता नहीं कि वह जो फूल रहा आनंद परमात्मा पर, ब्रह्म पर, ब्रह्म से ही स्रोत पाता है। ब्रह्म से है, वह फूटने के रास्ते पर है। ज्यादा फूलेगा, तो फूटेगा। अर्थात स्वयं से ही। अपनी ही गहराइयों से उठते हैं झरने। अपने | लेकिन फूलते वक्त किसको पता होता है कि फूटने के रास्ते की ही अंतस से आता है आनंद। फिर खोता नहीं, क्योंकि ब्रह्म | | यात्रा होती है। फूलते वक्त मन आनंद से भरता जाता है। मन होता क्षणभंगुर नहीं है।
| है, और हवाएं भर जाएं, और फूल जाऊं; और सफलताएं मिल संसार क्षणभंगुर है, इसलिए संसार से आया सुख क्षणभंगुर है। | जाएं, और फूल जाऊं! ब्रह्म शाश्वत है. इटरनल है। इसलिए ब्रह्म से जिसके स्रोत जड गए। लेकिन हमें पता नहीं कि फलना केवल फटने का मार्ग है। उसका आनंद शाश्वत है; लेकिन अकारण। ऐसा व्यक्ति कब हंसने | सफलता अंततः विफलता का द्वार है। तो जो भी सफल होगा, लगेगा, पता नहीं। ऐसा व्यक्ति कब नाचने लगेगा, पता नहीं। ऐसा विफल होगा। जो भी सुखी होगा, दुखी होगा। जो भी अभिमान को व्यक्ति कब आनंद के आंसुओं को बरसाने लगेगा, पता नहीं। ऐसे | भरेगा, आज नहीं कल फूटेगा और पंक्चर होगा। और जब व्यक्ति के भीतर स्रोत हैं, जो अकारण फूटते रहते हैं। और ऐसा अभिमान पंक्चर होता है, जैसे नर्क टूट पड़ा सब ओर से! व्यक्ति जिसे पा रहा है भीतर से, उसे कभी भी खोता नहीं है। स्वभावतः, जब अभिमान भरता है, तो ऐसा लगता है, स्वर्ग बरस ___ दो तरह के आश्रय हैं अस्तित्व में। पर-आश्रय; दूसरे के आश्रय रहा है सब ओर से। से मिला सुख। दूसरे के आश्रय से मिला हुआ सुख, दुख का ही ऐसा पुरुष, कृष्ण कहते हैं, कर्म के अभिमान से नहीं भरता है। दूसरा नाम है, दुख का ही चेहरा है। उघाड़ेंगे बूंघट और पाएंगे कि | भर ही नहीं सकता; क्योंकि ऐसा पुरुष पर से असंबंधित हो जाता दुख आया। एक, स्व-आश्रित। उसे स्व-आश्रित कहें या । है। यह बड़े मजे की बात है और थोड़ी सोच लेने जैसी। आश्रयमुक्त कहें। पराश्रित सुख से स्व-आश्रित दुख भी ठीक है। अक्सर अभिमान को हम स्व से संबंधित समझते हैं, अभिमान हालांकि स्व-आश्रित दख होता नहीं। कहता हं एंफेसिस के लिए. सदा पर से संबंधित है। अभिमान को हम अक्सर स्वाभिमान तक पराश्रित सुख से स्व-आश्रित दुख भी बेहतर है। क्योंकि उघाड़ेंगे | कह देते हैं। हम उसे स्व से संबंधित समझते हैं कि अभिमान जो चूंघट और पाएंगे सुख।
| है, वह स्वयं की चीज है। अभिमान स्वयं की चीज नहीं है। इस स्व-आश्रित सुख को ही कृष्ण इस सूत्र में कह रहे हैं। | अभिमान पर की है, पर से संबंधित चीज है। इसलिए अकेले में संसार-आश्रित जिसके सुख नहीं हैं, आनंद नहीं है; | अभिमान को इकट्ठा करना मुश्किल है। अकेले में अभिमान नहीं संसार-आश्रित झंझावातों पर जिसके चित्त की लहरें आंदोलित नहीं | हो सकता। अदर ओरिएंटेड है। दूसरा चाहिए। . होती; जो संसार की बांसुरी पर नाचता नहीं-उस पुरुष को कर्म | इसलिए आपने देखा होगा, रास्ते पर अकेले जा रहे हों, तो एक करते हुए कर्म का अभिमान नहीं आता है।
| तरह से जाते हैं। सुनसान रास्ता हो, तो एक तरह से चलते हैं। फिर आएगा भी कैसे! कर्म का अभिमान कब आता है, खयाल है | | कोई रास्ते पर निकल आया कि रीढ़ सीधी हो जाती है। कोई और आपको? कर्म का अभिमान तब आता है, जब आप दूसरों से सुख आ गया रास्ते पर, तो अकड़ आ जाती है। दूसरे को देखा कि
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ॐ कामना-शून्य चेतना
अकड़े! दूसरा मौजूद हुआ कि भीतर कुछ गड़बड़ हुई। दूसरा वहां | न करने जैसा होता। ऐसा पुरुष सब करते हुए भी, करने के बाहर आया कि इधर भीतर भी कोई और आया। वह दूसरे की मौजूदगी | होता। ऐसे पुरुष के लिए कर्म का जगत अभिनय का जगत हो तत्काल भीतर मैं को पैदा कर देती है। और फिर अगर दूसरे ने हाथ | जाता। एक्शन का जगत, एक्टिंग का जगत हो जाता। जोड़ लिए, तो फिर अभिमान का गुब्बारा फूला! या दूसरा भी ऐसा पुरुष सब करता है और सांझ जब सोता है, तो ऐसे सो जाता अकड़कर बिना हाथ जोड़े निकल गया, तो अभिमान का गुब्बारा | | है किए हुए को झाड़कर, जैसे दिनभर की धूल को वस्त्रों से झाड़कर सिकुड़ा। वह सब दूसरे पर निर्भर है। या दूसरा अगर ऐसा हुआ कि | | सांझ सो जाता है। ऐसे किए हुए को झाड़कर सो जाता है। सुबह जब आपको ही हाथ जोड़ने पड़े, तो बड़ी पीड़ा है, बड़ी पीड़ा है! उठता है, तो फिर ताजा, फ्रेश। ताजा, कल के कर्मों के भार से बंधा
यह जो अभिमान है, यह पराश्रित भाव है; इसका सुख भी, | | हुआ नहीं; कल जो किया था, उसकी रेखाओं से दबा हुआ नहीं। इसका दुख भी।
कल जो हुआ; उसकी धूल से गंदा नहीं, ताजा, फिर ताजा। जो व्यक्ति स्वयं से संबंधित हो जाता है-स्वयं के मूल स्रोतों | | असल में कल भी दूर है। हर क्षण ऐसा पुरुष, हर क्षण अतीत से, ब्रह्म से, अस्तित्व से-उसका अभिमान खड़ा नहीं होता फिर। के बाहर हो जाता है। हर क्षण, गए हुए क्षण और गए हुए कर्म के अभिमान खो ही जाता है। जो स्वयं है, उसके पास अभिमान नहीं | बाहर हो जाता है। कुछ उस पर टिकता नहीं है; सब विदा हो जाता होता। और जो स्वयं नहीं है, सिर्फ दूसरों के खयालों का जोड़ है, | | है। क्योंकि टिकाने और अटकाने वाला अहंकार नहीं है। अटकाने
और दूसरे क्या कहते हैं, पब्लिक ओपिनियन ही है जिसका जोड़, | | वाली चीज उसके ऊपर नहीं है, जहां कर्म अटकते हैं और कर्ता अखबार की कटिंग को इकट्ठा करके जिसने अपने को बनाया | | निर्मित होता है। ऐसा पुरुष करते हुए न करता हुआ है। ऐसा पुरुष है कि किस अखबार में क्या बात छपी है उसके बाबत, पड़ोसी न करते हुए भी करता हुआ है। क्या कहते हैं, गांव के लोग क्या कहते हैं, दूसरे क्या कहते | ऐसा पुरुष ठीक ऐसा है, जैसा कबीर ने कहा कि बहुत जतन से हैं-दूसरों के ओपिनियन को इकट्ठा करके जो खड़ा है, वह | | ओढ़ी चदरिया, बहुत जतन से ओढ़ी। जतन से! बड़ा प्यारा शब्द आदमी अभिमान को बढ़ाए जाता है। बढ़ता है, तो रस आता है। | | है जतन। बड़ी होशियारी से, बड़ी कुशलता से चादर ओढ़ी; और
रस वैसा ही, जैसा खुजली को खुजलाने से आता है। और कोई ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं। रस नहीं है। खुजली खुजलाने का रस! बड़ा अच्छा लगता है, बड़ा __ कबीर ने मरते वक्त कहा है कि बहुत संभालकर ओढ़ी चादर, मीठा लगता है। लेकिन उसे पता नहीं है कि वे सब नाखून जो मिठास | | जीवन की चादर; और फिर ज्यों कि त्यों धरि दीन्हीं। जैसी मिली ला रहे हैं, थोड़ी देर में लहू ले आएंगे। और वे नाखून जो मिठास ला थी, वैसी ही रख दी। जरा भी रेखा नहीं छूटी। पूरी जिंदगी के रहे हैं, थोड़ी देर में ही पायजनस हो जाएंगे। उसे पता नहीं कि वे | | अनुभव की, कर्म की कोई रेखा, कोई धब्बा, कोई दाग चादर पर नाखून जो रस ला रहे हैं और मिठास दे रहे हैं, जल्दी ही सेप्टिक हो नहीं छूटा। ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं चदरिया। जाएंगे। उसे पता नहीं है; खुजला रहा है। जितना खुजलाता है, उतनी ऐसा पुरुष सब करते हुए भी न करता है। वह चादर को ऐसा का
समालम पड़ती है: उतनी खजली बढती है। खजली बढती है. ऐसा ही परमात्मा को सौंप देता है कि संभालो। जैसी दी थी. वैसी तो खुजलाना पड़ता है। खुजली के भी सुख हैं।
ही वापस लौटाता हूं। अहंकार का सुख, अभिमान का सुख, खुजली का सुख है। | यह जो कर्म के बीच अकर्म की स्थिति है, बड़ी जतन की बहुत बीमार, बहुत रुग्ण है, लेकिन है। अंततः पीड़ा है, लेकिन | है-बड़े होश की, बड़ी अवेयरनेस की, बड़े साक्षी-भाव की। प्रारंभ में सुख का भाव है।
जहां सध जाती है, वहां जीवन मिल जाता है। जहां नहीं सध पाती, कृष्ण कहते हैं, ऐसा पुरुष कर्म के अभिमान से नहीं भरता। भर | | वहां जीवन के नाम पर हम सिर्फ धोखे में होते हैं। नहीं सकता। ऐसे पुरुष के पास अभिमान नहीं बचता, जिसको भर सके। गुब्बारा ही खो जाता है, जिसमें कि अभिमान को भरा जा
निराशार्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः । ऐसा पुरुष करते हुए भी अकर्ता होता। ऐसा पुरुष करते हुए भी | शारीर केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् ।। २१ ।।
मिठास
सके।
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गीता दर्शन भाग-2
और जीत लिया है अंतःकरण और शरीर जिसने, तथा त्याग | वासना अपने जाल बुनती रहती है। भोजन का काम आटोमैटिक दी है संपूर्ण भोगों की सामग्री जिसने, ऐसा आशारहित पुरुष | होता है, यंत्रवत होता है, मशीन की तरह होता है। होशपूर्वक नहीं केवल शरीर संबंधी कर्म को करता हुआ भी पाप को नहीं होता, बेहोशी में होता है। आपकी कोई जरूरत ही नहीं होती। आप प्राप्त होता है।
| कहीं भी हों, दुकान पर बैठे रहें, दिमाग से, मन से; हाथ भोजन
को मुंह में डालते रहेंगे; जीभ उसको भीतर सरकाती रहेगी; पेट
| उसको पचाता रहेगा-यंत्रवत। आपकी मौजूदगी नहीं होती। नसने छोड़ी आशा, आकांक्षा, भविष्य, फल की स्पृहा; - कृष्ण या बुद्ध जैसे व्यक्ति जो करते हैं, वही करते हैं। पूरे मौजूद IUI जिसने छोड़ा अभिमान, जिसने छोड़ा दूसरे की आंखों | । होते हैं। उनकी टोटल प्रेजेंस वहां होती है। यह अंतर गहरा है और
में अपने प्रतिबिंब को इकट्ठा करने का मोह-ऐसा इसके गहरे परिणाम हैं। क्या गहरे परिणाम होंगे? व्यक्ति कर्म की जो आवश्यकता है, या जो आवश्यक कर्म हैं शरीर जो व्यक्ति भोजन करते हुए पूरा भोजन करते समय मौजूद है, के, उन्हें करता रहता है। भूख लगती है, भोजन कर लेता है। नींद वह ज्यादा भोजन कभी न कर पाएगा। वह कम भोजन भी न करेगा, आती है, सो जाता है। सर्दी लगती है, वस्त्र ओढ़ लेता है। गर्मी | ज्यादा भी न करेगा। जो व्यक्ति भोजन करते हुए मौजूद नहीं है, लगती है. वस्त्र अलग कर देता है। जो आवश्यक है शरीर के लिए. | बहुत कम संभावना है कि वह सम्यक आहार कर सके। वह या तो करता रहता है, लेकिन फिर कर्मबंध को उपलब्ध नहीं होता। कम करेगा, या ज्यादा करेगा। अगर वासना बहुत तेजी से दौड़ रही
महावीर भी उठते और चलते हैं, वैसे ही जैसे कोई और उठता | है, जल्दी भागने को है, तो कम करेगा। या कम समय में ज्यादा और चलता है। बुद्ध भी भोजन करते हैं, वैसे ही जैसे कोई और भी | करेगा, वह भी खतरनाक है। और ज्यादा तो करेगा ही। क्यों? भोजन करता है। कृष्ण भी वस्त्र पहनते हैं, वैसे ही जैसे कोई और | शरीर अंधा है, शरीर के पास अपनी आंख नहीं है। शरीर पर पहनता है। लेकिन बिलकुल वैसे ही नहीं; बुनियादी अंतर भी है। काम को छोड़ना, अंधे के हाथ में काम को छोड़ना है। शरीर ठीक वैसे ही नहीं, गहरे में भेद है। और बड़ा भेद है। गहरे में जो | | मैकेनिकल है, हैबीचुअल है। ग्यारह बजे आप रोज खाना खाते हैं। भेद है, वह देख लेना चाहिए।
| भूख न भी लगी हो, तो भी शरीर कहता है, भूख लगी है। अगर जब साधारणतः कोई आदमी भोजन करता है, तो सिर्फ भोजन घड़ी किसी ने आगे-पीछे कर दी हो और अभी दस ही बजे हों, घड़ी नहीं करता। भोजन करते हुए और बहुत कुछ भी करता है। में ग्यारह बज जाएं; घड़ी देखी, शरीर फौरन कहता है, भूख लगी!
आप खयाल करना, जब भोजन करते हों। सिर्फ भोजन नहीं अभी ग्यारह बजे नहीं हैं। करते, भोजन करते हुए और हजार काम भी आपका मन करता ___ ग्यारह बजे भूख लगती है। एक घंटे खाना न खाएं, तो लोग रहता है। हो सकता है, दुकान पर हों, दफ्तर में हों, बाजार में हों, कहते हैं, भूख मर जाती है। अगर भख आथेंटिक हो, असली हो, मंदिर में हों; भोजन की थाली पर हों और साथ ही दुकान पर हों। | तो बढ़नी चाहिए; मरनी नहीं चाहिए। भूख थी ही नहीं, सिर्फ होता ही है। फिर इससे उलटा भी होता है, होगा ही, कि दुकान पर | हैबीचुअल ट्रिक, शरीर की आदत कि रोज चौबीस घंटेभर बाद पेट होंगे और भोजन की थाली पर होंगे।
| में चीजें डाली जाती हैं। ठीक चौबीस घंटे बाद उसने कहा कि __भोजन करते हुए, साधारणतः, हम भोजन ही नहीं करते और | डालो, समय हो गया। अंधे की तरह, मशीन की तरह, यंत्र की तरह हजार काम भी करते हैं। कृष्ण जैसा या बुद्ध या महावीर जैसा | सूचना कर देता है। फिर कल जितनी डाली थीं, उतनी डालो। व्यक्ति जब भोजन करता है, तब भोजन ही करता है! फिर और __ कल की जरूरत और हो सकती थी, आज की जरूरत और। रोज कुछ नहीं करता। एक तो यह अंतर स्पष्ट समझ लें। यह अंतर | जरूरत बदलती जाती है। बचपन में जरूरत और होती है, जवानी गहरा है! ऊपर से दिखाई नहीं पड़ता है। भीतर से खोजेंगे, तो में और होती है, बुढ़ापे में और होती है। दिखाई पड़ेगा।
जवानी की आदत खाने की, बुढ़ापे में भी नहीं छूटती। शरीर को क्यों? हम भोजन करते हुए और पच्चीस काम मन में क्यों करते | जरूरत कम रह जाती है, लेकिन शरीर पुरानी आदत से उतना ही हैं? क्योंकि वासना है। भोजन का काम शरीर करता रहता है, खाए चला जाता है। तो जवानी में जिस भोजन ने शरीर को फायदा
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ॐ कामना-शून्य चेतना 0
पहुंचाया, वही भोजन बुढ़ापे में नुकसान पहुंचाने लगता है। क्योंकि बोकोजू ने कहा, जिस दिन तुम यह कर पाओगे, उस दिन तुम्हें भोजन कम होना चाहिए। उम्र के साथ कम होते जाना चाहिए। मेरे पास पूछने आने की जरूरत न रहेगी। जिस दिन तुम यह कर
लेकिन यह होश कौन रखे? यह होश रखने वाला तो मौजूद ही पाओगे, उस दिन मैं ही तुम्हारे पास पूछने चला आऊंगा। उस नहीं रहा कभी। वह तो कभी दुकान पर होता है, कभी बाजार में आदमी ने कहा, लेकिन नहीं, मानो; हम भी यही करते हैं। होता है। कभी दूसरे गांव में होता है। कभी कहीं होता है, कभी कहीं बोकोजू की बात वह समझ नहीं पाया। होता है। सिर्फ भोजन की थाली पर नहीं होता है।
एक और फकीर के बाबत मैंने सुना है। एक दिन बोलता था एक कृष्ण जैसे, बुद्ध जैसे व्यक्ति जब भोजन करते हैं, तो सिर्फ | मंदिर में, एक आदमी ने बीच में खड़े होकर पूछा कि बंद करो यह भोजन करते हैं। इसलिए असम्यक आहार कभी नहीं हो पाता है। बातचीत! मेरा गुरु था, वह नदी के एक किनारे खड़ा होता और असम्यक बांधता है, सम्यक मुक्त करता है। जो भी चीज सम्यक उसके शिष्य नदी के दूसरे किनारे खड़े होते। फलांग भर का है, वह कभी बंधन नहीं बनती। और जो भी चीज सम्यक से फासला होता। उस तरफ शिष्य हाथ में कैनवस ले लेते, और इस यहां-वहां डोली कि बंधन बन जाती है।
तरफ से गुरु अपनी कलम से लिखता, और उस तरफ कैनवस पर __ ऐसा जागा हुआ पुरुष शरीर के कर्मों को आवश्यक मानकर लिखावट पहुंच जाती थी। ऐसा कोई चमत्कार तुम कर सकते हो? होशपूर्वक करता है; बंधता नहीं।
उस फकीर ने कहा कि नहीं; ऐसे छोटे-मोटे चमत्कार हम नहीं , और भी एक बात, कि जब हम होशपूर्वक करते हैं, तो हम चीजों | करते। तो उस आदमी ने पूछा, तुम क्या चमत्कार कर सकते हो? का उपयोग करते हैं। और जब हम बेहोशी से करते हैं, तो चीजें | उसने कहा, हम तो एक ही चमत्कार कर सकते हैं कि जब नींद हमारा उपयोग कर लेती हैं।
आती है, तब सो जाते हैं; जब भूख लगती है, तब खाना खा लेते . खयाल करना, चीजों को आप खाते हैं या चीजें अपने आपको हैं। उस आदमी ने कहा, यह कोई चमत्कार है? आपके भीतर पहुंचा देती हैं? पेट भर गया है और मिठाइयां सामने | लेकिन कृष्ण इसी चमत्कार की बात कर रहे हैं। यह चमत्कार आ गई हैं। तो आप इस भ्रम में होते हैं कि आप चीजों को भीतर | है, और बड़ा चमत्कार है। वह तो मदारी भी कर सकते हैं, जो पहले डाल रहे हैं। अगर चीजों के पास जबान हो, तो वे कहें कि हम तुम्हें गुरु की बात बताई। मदारी ही करेंगे। लेकिन दूसरा बहुत बड़ा भीतर डालने के लिए मजबूर कर रहे हैं। हम तुम्हारे भीतर जा रहे मिरेकल है। . हैं। और चूंकि हम तुम्हारे भीतर जाना चाहते हैं, इसलिए हम तुम्हारा शरीर के आवश्यक कर्मों को होशपूर्वक, साक्षी-भाव से, उपयोग कर रहे हैं तुम्हारे भीतर जाने के लिए।
सम्यक रूप से जो निपटा देता है, वह कर्मों के बंधन में नहीं पड़ता वे कर्म हमें बांध लेते हैं, जिनमें हम मजबूर होते हैं। वे कर्म हमें है। वह करते हुए भी मुक्त है। उसे कुछ भी नहीं बांधता है। नहीं बांधते, जिनमें हम स्वेच्छया स्वतंत्र होते हैं। जिस भोजन को ध्यान रहे, अति बांधती है, दि एक्सट्रीम इज़ दि बांडेज। अति आपने किया है, वह आपको नहीं बांधता; लेकिन जिस भोजन ने | | | बंधन है, मध्य मुक्ति है। लेकिन मध्य में वही हो सकता है, जो आपको करने के लिए मजबूर किया है, वह आपको बांधता है। जो | बहुत होश से भरा हुआ है-जतन। वह कबीर के शब्द जतन से नींद आप सोए हैं, वह आपको नहीं बांधती; लेकिन जिस नींद में भरा हुआ है। बड़े होश से भरा हुआ है, वही मध्य में रह सकता आप पड़े रहे हैं, वह नींद आपको बांध लेती है।
है। जरा चूके कि अति शुरू हो जाती है। झेन फकीर हुआ, बोकोजू। और बोकोजू के पास किसी ने जाकर या तो आदमी ज्यादा खा लेता है, या उपवास कर देता है। ज्यादा पूछा कि तुम्हारी साधना क्या है ? तो बोकोजू ने कहा, मेरी साधना? | खाने वाले अक्सर उपवास कर देते हैं। ज्यादा खाने वालों को करना मेरी कोई साधना नहीं है। जब नींद आती है, तब मैं सो जाता हूं। पड़ता है उपवास। इसलिए जब भी जिस समाज में ज्यादा खाना हो जब नींद टूटती है, तब मैं उठ आता हूं। जब भूख लगती है, तब मैं | | जाता है, उसमें उपवास का कल्ट पैदा हो जाता है। गरीब समाजों खा लेता हूं। जब भूख नहीं लगती है, तब मैं उपवासा रह जाता हूं। | में उपवास का सिद्धांत नहीं चलता। अमीर समाजों में उपवास का उस आदमी ने कहा, छोड़ो यह बकवास! यह कोई साधना हुई? सिद्धांत जारी हो जाता है। यह तो हम भी करते हैं।
__ आज अमेरिका में उपवास का कल्ट जोर पर है। सब ओवर
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गीता दर्शन भाग-28
फीडिंग चलता है, तो उपवास चलेगा। ज्यादा आदमी खाए जा रहा | ___ कल की जरूरत कल तथ होगी; क्योंकि आज जो भोजन किया, है, पांच-पांच बार खा रहा है, तो फिर उपवास करना पड़ता है। हो सकता है, कल वह भोजन न मिले। कल अगर भूखे रहे, तो फिर जो उपवास करता है, उपवास तोड़कर फिर जोर से खाने में | नींद कम हो जाएगी। क्योंकि भोजन पेट में हो, तो पचाने के लिए लगता है।
नींद को लंबा हो जाना पड़ता है। अगर ज्यादा देर में पचने वाला अति सदा अति पर परिवर्तित हो जाती है। इसलिए जो आदमी | भोजन पेट में हो, तो नींद को और लंबा हो जाना पड़ता है। अगर उपवास करता है, उपवास में करता क्या है ? उपवास तोड़कर क्या | जल्दी पच जाने वाला भोजन पेट में हो, तो नींद सिकुड़ जाती है, खाएगा. इसका विचार करता है। जितना भोजन का विचार कभी छोटी हो जाती है। कल अगर दिनभर मजदरी की. गडे खोदे. तो नहीं किया था, उतना उपवास में करता है। उपवास में सभी नींद लंबी हो जाती है। कल अगर दिनभर आरामकुर्सी पर बैठकर पाकशास्त्री हो जाते हैं! एकदम भोजन का चिंतन करते हैं! सारा | | विश्राम किया, तो नींद सिकुड़ जाती है, छोटी हो जाती है। रस भोजन पर वर्तुल बना लेता है। एक अति से दूसरी अति! फिर | रोज, प्रतिपल, इसलिए जो होश से जीता है, वह रोज जो जरूरी जब ज्यादा भोजन कर लेते हैं, ज्यादा भोजन से परेशान होते हैं, तो | है, उसमें जीता है। गैर-जरूरी को काटता चला जाता है। कट ही उपवास का खयाल पकड़ता है। लेकिन मध्य में नहीं ठहरते।। जाता है गैर-जरूरी। होशपूर्ण चित्त में गैर-जरूरी अपने आप गिर
कृष्ण जिस आदमी की बात कर रहे हैं, वह न अति भोजन करता जाता है। है, न अल्प भोजन करता है। वह उतना ही करता है, जितना जरूरी गैर-जरूरी बांधता है; आवश्यक कर्म बांधते नहीं। इसलिए है, नेसेसरी है। आवश्यक कभी नहीं बांधता, अनावश्यक बांध कृष्ण ठीक कहते हैं, आवश्यक कर्म करता है ऐसा व्यक्ति। और लेता है।
आवश्यक कर्म शरीर के बांधते नहीं हैं। अनावश्यक गिर जाता है। __ आवश्यक का कौन निर्धारण करे? कोई दूसरा नहीं कर सकता। अनावश्यक के साथ जंजीरें भी गिर जाती हैं। मैं नहीं कह सकता, आपके लिए क्या आवश्यक है। एक आदमी के लिए तीन घंटे की नींद आवश्यक हो सकती है; एक आदमी के लिए छः घंटे की हो सकती है। तीन घंटे वाला छः घंटे वाले को | प्रश्नः भगवान श्री, आपने अभी कहा कि शरीर अंधा । कहेगा, तामसी हो। छः घंटे वाला अगर कमजोर हुआ, तो अपने है, यांत्रिक है। लेकिन अन्यत्र आप यह भी कहते हैं को तामसी समझकर तीन घंटे की नींद शुरू कर देगा। अगर कि शरीर की अपनी प्रज्ञा है, बाडी विजडम है। कृपया ताकतवर हुआ, तो तीन घंटे वाले को कहेगा, तुमको इन्सोमेनिया इसे स्पष्ट करें। और दूसरी चीज, इस श्लोक में कहा है, अनिद्रा है। तुम इलाज करवाओ। अगर तीन घंटे वाला कमजोर गया है, जीत लिया है अंतःकरण जिसने और हुआ, तो डाक्टर के पास ट्रैक्वेलाइजर के लिए पहुंच जाएगा। अगर दी है संपूर्ण भोगों की सुख-सामग्री। कृपया इसका ताकतवर हुआ, तो कहेगा कि हम साधक हैं; हम तीन घंटे सोते |
भी अर्थ समझाएं। हैं। क्योंकि कृष्ण ने कहा है गीता में, या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी, कि जब सब सोते हैं, तब संयमी जागते हैं; हम इसलिए जागते हैं रात में।
श्चय ही, शरीर की अपनी प्रज्ञा है। लेकिन वह प्रज्ञा कोई नियम नहीं हो सकता। एक-एक व्यक्ति की जरूरत IUI वैसी है, जैसे अंधे आदमी की होती है। शरीर प्रज्ञाचक्षु अलग-अलग है। इतनी अलग-अलग है जिसका कोई हिसाब है। शरीर की अपनी इंटेलिजेंस है, पर मेकेनिकल नहीं। उम्र के साथ जरूरत बदलेगी। काम के साथ जरूरत | इंटेलिजेंस है, यांत्रिक प्रज्ञा है। बदलेगी। विश्राम के साथ जरूरत बदलेगी। भोजन के साथ जरूरत | जैसे. शरीर की प्रज्ञा का. बाडी विजडम का क्या अर्थ है? शरीर बदलेगी। प्रतिदिन के मन की अवस्था के साथ जरूरत बदलेगी। की प्रज्ञा का यह अर्थ है कि आपको हृदय की धड़कन तो नहीं एक आदमी भी तय नहीं कर सकता कि मैं आज छः घंटे सोया, तो धड़कानी पड़ती, शरीर धड़काता रहता है। अगर आपको धड़कानी कल भी छः घंटे ही सोऊं।
पड़े, तो सत्तर साल की उम्र तक मुश्किल से कोई आदमी कभी
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कामना-शून्य चेतना
पहुंचे। जरा चूके, कि गए! एकाध दिन भूल गए, एकाध दिन तो | छोटा-मोटा काम नहीं है। लेकिन यह बुद्धिमत्ता है प्रज्ञाचक्षु वाली, बहुत दूर है, पांच-सात सेकेंड भूल गए, गए!
अंधे आदमी वाली। शरीर हृदय को चलाता रहता है। खून आप नहीं चलाते, शरीर जिस अर्थ में मैंने कहा है कि शरीर की अपनी प्रज्ञा है, वह और चलाता है। आपको चलाना पड़े, तो बड़ी मुश्किल हो जाए। सच | | अर्थ है-इस अर्थ में। और अभी जब मैं कह रहा हूं कि शरीर अंधा तो यह है कि एक छोटे-से आदमी के शरीर में, एक पांच फीट के | | है, वह इस अर्थ में कि अगर आप शरीर की क्रियाओं के पास शरीर में इतना काम चलता है कि वैज्ञानिक कहते हैं कि अगर इतना | मौजूद नहीं हैं, तो शरीर आदतों से चलने लगता है। पूरा काम हमें फैक्टरी में करना पड़े, तो दस वर्गमील की फैक्टरी एक आदमी सिगरेट पी रहा है। अक्सर सिगरेट पीने वाला बनानी पड़े। इतना काम आप नहीं चला रहे हैं, शरीर चला रहा है। | आदत से पीता है। कब उसका हाथ भीतर चला जाता है खीसे में, लेकिन आटोमैटिक, यंत्र की तरह चला रहा है।
कब पाकेट बाहर निकाल लेता है, इसका उसे कोई होश नहीं होता। उसकी अपनी इंटेलिजेंस है। इंटेलिजेंस का मतलब है कि उसे | कब उसके मुंह में सिगरेट लग जाती है, माचिस जल जाती है, भी फिक्र करनी पड़ती है हजार तरह की, लेकिन वह है मेकेनिकल। सिगरेट जल जाती है, धुआं बाहर-भीतर होने लगता है, इसका उसे जैसे आपके हाथ में घाव हो गया। दूसरे दिन मवाद इकट्ठी हो जाती होश नहीं होता। यह बिलकुल यंत्रवत चलता है। होश आ जाए, है। यह आपने इकट्ठी नहीं की; यह शरीर ने भेजी है। आपको पता | | तो धुआं बाहर-भीतर करने की स्टुपिडिटी करने वाला आदमी जरा है, मवाद क्यों इकट्ठी हो जाती है! पता भी नहीं होगा कि क्यों इकट्ठी | मुश्किल से मिलेगा। क्योंकि कर क्या रहा है? कर इतना ही रहा है हो जाती है।
| कि धुएं को बाहर ले जा रहा है, भीतर ले जा रहा है। जिसे आप मवाद कहते हैं, वह खून के सफेद कण हैं, व्हाइट __ अब धुएं को बाहर-भीतर करना, पैसा खर्च करके खून को पार्टिकल्स हैं। खून में दो तरह के कण हैं, सफेद और लाल। लाल जहरीला करना, उम्र को कम करना बेहोशी में ही हो सकता है; कण कमजोर कण हैं, डेलीकेट हैं। सफेद कण शक्तिशाली कण | होश में नहीं हो सकता। और या फिर आदमी स्युसाइडल हो, हैं, मजबूत हैं। शरीर में घाव हो गया; शरीर फौरन सफेद कणों को | आत्मघाती हो, तो हो सकता है। लेकिन आत्मघात भी बेहोशी में भेजता है घाव के आस-पास, सेफ्टी मेजर के लिए। | ही हो सकता है; होश में नहीं हो सकता।
जैसे कि आपके गांव पर हमला हो जाए, तो आप मिलिट्री के | | जरा कोशिश करें एक दिन सिगरेट होशपूर्वक पीने की। सिगरेट दस्ते को खड़ा कर देते हैं गांव के बाहर। सैनिक भेज देते हैं। | पीएं, आंख बंद करके मेडिटेट करें धुएं पर–कि यह भीतर गया;
औरत-बच्चों को हटा लेते हैं फौरन पीछे, कि हटो। हट जाओ। | यह बाहर गया; यह भीतर गया। थोड़ी देर में लगेगा, कि मैं आदमी दुकानें अलग कर लो। मिलिट्री के जवानों को खड़ा कर देते हैं। | | हूं कि पागल हूं! यह मैं कर क्या रहा हूं? बहुत मूढ़ता मालूम हमला हो गया! .
| पड़ेगी, बहुत ईडियाटिक। लेकिन काफी मूढ़ हैं; इसलिए मूढ़ता पर जब शरीर पर घाव होता है, तो बाहर से हमला हो गया। शरीर | | भी धंधे चलते हैं। अपने मिलिट्री के जवानों को फौरन वहां भेज देता है। वे सफेद कण अमेरिका की सीनेट ने पीछे, दो-तीन वर्ष पहले तय किया कि जवान हैं उसके। जिसको आप मवाद कहते हैं, वह मवाद नहीं है। | सब सिगरेट पर लाल अक्षरों में, बड़े अक्षरों में लिख दो कि वह शरीर के सफेद कण हैं खून के, जिनकी पर्त को वह वहां भेज | | स्वास्थ्य के लिए हानिप्रद है। दिस इज़ हार्मफुल टु हेल्थ, बड़े देता है। उनकी पर्त पूरे घाव को घेर लेती है। उस पर्त को पार करके | अक्षरों में लिख दो। बाहर के कीटाणु अब शरीर में प्रवेश नहीं कर सकते। उस पर्त में | पहले सिगरेट के मालिकों ने बहुत विरोध किया कि इससे तो घिरकर भीतर शरीर अपना काम शुरू कर देता है, नई चमड़ी को | | बहुत नुकसान हो जाएगा। मुकदमे चलाए। अदालत में ले गए निर्माण करने का। जब तक चमड़ी निर्मित न हो जाए, तब तक | | मामले को कि इससे तो बहुत नुकसान हो जाएगा। क्योंकि आदमी मवाद की पतली पर्त बाहर के कीटाणुओं को शरीर के भीतर प्रवेश | | अगर हर बार सिगरेट के डब्बे पर पढ़ेगा कि यह स्वास्थ्य के लिए नहीं करने देगी। वे फाइटर्स हैं।
हानिप्रद है, तो सिगरेट के धंधे का नुकसान हो जाएगा। लेकिन लेकिन यह सब है। शरीर की भी अपनी बुद्धिमत्ता है। यह कोई| मनोवैज्ञानिकों ने कहा, घबड़ाओ मत। जो धुएं को बाहर-भीतर कर
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गीता दर्शन भाग-26
लेता है, वह लाल स्याही को भी भूल जाएगा। और यही हुआ। | क्या अर्थ?
तीन-चार महीने में करोड़ों रुपए का धंधा कम हो गया सिगरेट सुख-सामग्री को छोड़कर का अर्थ, सामग्री को छोड़कर नहीं। का; लेकिन फिर वापस अपनी जगह हो गया! जो आदमी धुएं को | सुख-सामग्री को छोड़कर! सामग्री और सुख-सामग्री में फर्क है। बाहर-भीतर करने में होश नहीं रख पाता, वह लाल स्याही को वस्तुएं, अगर सिर्फ आवश्यक हैं और उनसे आप सुख नहीं कितनी देर तक देखेगा? डब्बे पर लिखा है, लिखा रहे; अब कौन | | खींचते अपने भीतर, सिर्फ जरूरत पूरी करते हैं, तो वे सुख-सामग्री पढ़ता है? उसको कोई नहीं पढ़ता।
नहीं हैं। लेकिन अगर वस्तुएं आवश्यक नहीं हैं, अनावश्यक हैं, आदमी बेहोश है। और जब तक बेहोश है, तब तक शरीर और सिर्फ सुख के स्रोत बनाते हैं आप उनको...। . यांत्रिक आदतें पकड़ लेता है। और यांत्रिक आदतें बंधन का कारण जैसे कि एक स्त्री है, सेर भर सोना लटकाए हुए घूम रही है। बन जाती हैं।
| पागलखाने में होना चाहिए। क्योंकि शरीर पर सेर भर सोना होशपूर्वक आदमी यांत्रिक आदतें नहीं पकड़ता है; पकड़ता ही लटकाने की कोई भी जरूरत नहीं है। शरीर की तो कोई जरूरत नहीं नहीं यांत्रिक आदतें। होशपूर्वक आदमी अपना हाथ भी नहीं हिलाता | | है। नुकसान पहुंच रहा है। लेकिन सोने से शरीर की कोई जरूरत व्यर्थ। हाथ भी हिलाता है, तो होशपूर्वक हिलाता है। | पूरी नहीं की जा रही है। सोना सुख-सामग्री है। सुख-सामग्री क्यों
बुद्ध एक गांव से गुजर रहे हैं। बुद्ध होने के पहले की बात है। | है सोना? क्योंकि जिन-जिन की आंखों में वह सोना चमकेगा, एक मक्खी कंधे पर आकर बैठ गई है। आनंद साथ में था। बुद्ध | उन-उन की आंखें चौंधिया जाएंगी। वे मानेंगे कि हां, कोई है, उससे बात कर रहे थे। बात जारी रखी और बेहोशी में-जैसा कि | समबडी। और कुछ मतलब नहीं है। पति भी प्रसन्न है अपनी स्त्री हम सब करते हैं—मक्खी को हाथ से उड़ा दिया। होशपूर्वक नहीं, | पर सोना लटकवाकर। उसकी पत्नी पर सोना लटका हो, तो बाजार जतनपूर्वक नहीं, कांशसली नहीं; बात जारी रही, धक्का मारा हाथ | | में उसकी क्रेडिट बढ़ जाती है। उसकी पत्नी पर सोना, उसका का और उड़ा दिया। फिर रुक गए, उदास हो गए। आनंद ने पूछा, चलता-फिरता विज्ञापन है, कि यह आदमी भी कुछ है। क्या हुआ? बुद्ध थोड़ी देर खड़े रहे, फिर हाथ ले गए उस जगह, | - पुरुष होशियार है। सोना खुद नहीं लादते, पत्नियों पर लदवा जहां मक्खी बैठी थी कभी, अब नहीं थी। फिर उड़ाया मक्खी को, | दिया है! पहले खुद ही लादते थे; फिर धीरे-धीरे बुद्धिमत्ता आई। जो कि अब थी ही नहीं। फिर हाथ नीचे लाए। आनंद ने कहा, क्या | समझे कि यह काम तो औरत से ही लिया जा सकता है। इसके लिए करते हैं आप? क्या उड़ाते हैं? कंधे पर कुछ नहीं है। | नाहक हम क्यों परेशान हों! पहले लादते थे।
बुद्ध ने कहा, मैं उड़ाकर देख रहा हूं फिर से, जैसा कि मुझे उड़ाना __ सुख-सामग्री को छोड़कर! सामग्री को छोड़कर, कृष्ण नहीं कह चाहिए था-होशपूर्वक। उस बार मैंने बेहोशी में मक्खी को उड़ा रहे हैं। सामग्री छोड़ी नहीं जा सकती। जीवन के लिए सामग्री की दिया। अपना ही हाथ बेहोशी में काम करे, तो खतरनाक काम भी | जरूरत है। जितनी जरूरत है, उतनी बिलकुल ठीक है। सबकी कर सकता है। आज मक्खी उड़ाता है, कल किसी की गर्दन दबाजरूरत भी भिन्न है। इसलिए प्रत्येक अपना निर्णय करे कि उसकी सकता है। अगर आज मक्खी को मैंने बिना जतन के उडा दिया. क्या जरूरत है। और निर्णय कठिन नहीं है। विदाउट माइंडफुलनेस-बुद्ध का शब्द है, स्मृतिपूर्वक, विद | कपड़े आपने शरीर को ढांकने के लिए पहने हैं? सर्दी बचाने के माइंडफुलनेस–अगर मैंने स्मृतिपूर्वक नहीं उड़ाया मक्खी को, तो लिए पहने हैं? कि किसी की आंखों को तिलमिलाने के लिए पहने कल क्या भरोसा है कि मेरे हाथ किसी की गर्दन न दबा दें! दबा हैं? आप खुद पक्की तरह जान सकते हैं। जब आईने के सामने सकते हैं। तो मैं खड़ा होकर उस तरह उड़ा रहा है, जैसे कि उड़ाना सुबह खड़े हों, तब आपको पक्का पता चल जाएगा कि यह कोट चाहिए था। और अगली बार स्मरण रखूगा कि जतनपूर्वक, | आप किसलिए पहन रहे हैं। यह सर्दी के लिए पहन रहे हैं? तन स्मृतिपूर्वक मक्खी को उड़ाऊं, अन्यथा कर्म का बंधन हो सकता है। ढांकने के लिए पहन रहे हैं? कि किसी की आंखों में तिलमिलाहट
बेहोश कर्म बंधन है। होशपूर्वक कर्म बंधन से मुक्ति है। | पैदा करनी है? कि किसी को हीन दिखलाना है? कि इस आशा में दूसरी बात पूछी है कि कृष्ण कहते हैं, सुख-सामग्री को | पहन रहे हैं कि आज कोई जरूर छूकर पूछेगा कि किस भाव से छोड़कर-स्वयं को जीतकर, सुख-सामग्री को छोड़कर-इसका | | लिया है!
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कामना - शून्य चेतना
सुख
सुख-सामग्री, तो होशपूर्ण व्यक्ति जो है, वह छोड़ देता है। छोड़ देता है सामग्री से । ऐसी सामग्री व्यर्थ बोझ है, जो सिर्फ सुख के खयाल से है। और सुख कुछ मिलता नहीं, सिर्फ बोझ ही लगता है। कुछ मिलता नहीं है सुख। कई बार तो इतना बोझ भरता चला जाता है कि जिसका कोई हिसाब नहीं ।
मैं एक बहुत बड़े आदमी के घर में कुछ दिन पहले मेहमान था। तो उनके बैठकखाने में बैठने की जगह भी नहीं है! चलना-फिरना भी मुश्किल है। इतनी सुख - सामग्री भर दी है बैठकखाने में कि बैठकखाने के बाहर खड़े होकर ही उसका सुख लिया जा सकता है, भीतर जाकर नहीं ! बेकार हो गया बैठकखाना, बैठकखाना बैठने के लिए है। वह बैठने के लायक नहीं रहा है। वह अजायबघर बना लिया है उन्होंने! उसमें चलते-फिरते डर भी रखना पड़ता है कि उनकी कोई मूर्ति न गिर जाए; कहीं कोई धक्का न लग जाए। महंगी चीजें हैं। वह खुद भी जरा सम्हलकर ही गुजरते हैं वहां से। बैठकखाना आराम के लिए है। लेकिन वह गया !
लेकिन वह बैठकखाना बैठने के लिए बनाया नहीं गया है। वह तो किन्हीं दूसरों की आंखों में भाव पैदा करने के लिए बनाया गया है। और जब दूसरे की आंख में भाव पैदा होता है, तो रस आता है, सुख आता है।
सुख दूसरे की आंख से आता है, बड़े मजे की बात है, भीतर से नहीं आता। कोई आदमी आकर कह देता है कि हां, आपका बंगला तो बहुत सुंदर बना है, तो सुख आता है।
कलकत्ते में मैं एक घर में ठहरता था। जब भी उनके घर जाता था— नया मकान बनाया था, कलकत्ते में सबसे अच्छा मकान था, स्वीमिंग पूल था, बगीचा था, सब था, बहुत अच्छा था - उसकी बात करते नहीं थकते थे वे। कहीं से भी बात शुरू करो, मकान पर पहुंच जाती! दो मिनट से ज्यादा कहीं न चलती। ब्रह्म से शुरू करो, मकान आ जाए! कहीं से शुरू करो। मैंने सब तरफ से बातचीत शुरू करके देख ली। लेकिन कोई उपाय नहीं। दो मिनट से ज्यादा आप चल नहीं सकते, ट्रैक वापस मकान पर आ जाए। मैंने मोक्ष से, ब्रह्म से बात शुरू करके देखी। मैंने उनसे मोक्ष की कुछ बातचीत शुरू की। मिनट डेढ़ मिनट में उन्होंने कहा, एक बात तो बताइए कि मोक्ष में मकान होते हैं कि नहीं ? और उन्होंने कहा कि यह मकान बनाया...। बस, शुरू कर देते थे वे कहीं से भी !
फिर दो साल बाद उनके घर मेहमान हुआ, तो उन्होंने मकान की बात न की । जरा चिंतित हुआ। मैंने कई बार मकान की बात
छेड़ी, लेकिन कुछ भी करो, कहीं से भी छेड़ो, वे टाल जाते । स्वीमिंग पूल की कितनी ही तारीफ करो, वे टाल जाते । वे दूसरी बातें उठा लेते। मैंने पूछा, बात क्या है? गड़बड़ क्या हो गई? पहले मैं नहीं छेड़ता था, आप छेड़ते थे; अब मैं छेड़ता हूं, आप नहीं | छेड़ते ! उन्होंने कहा, देखते नहीं हैं बगल में? बगल में एक बड़ा मकान बन गया, उनसे भी बड़ा। अब क्या खाक मकान की बात करनी है! जब तक उससे बड़ा न बना लें, तब तक अब ठीक है। निकलता नहीं हूं बगीचे में, उन्होंने कहा। क्योंकि निकलो बाहर, तो वह मकान दिखाई पड़ता है !
यह जो हमारा चित्त है, कृष्ण कहते हैं, सुख की सामग्री को छोड़कर...।
सामग्री को छोड़ने की बात जरा भी नहीं है। सामग्री अपनी जगह | है । पर उससे सुख को खींचना पागलपन है। सामान से सुख नहीं मिलता; ज्यादा से ज्यादा सुविधा मिल सकती है। सामग्री ज्यादा से ज्यादा कनवीनियंस हो सकती है, सुख नहीं। लोग सुविधा को सुख समझकर भूल में पड़ते हैं। सुविधा बिलकुल ठीक है, ओ के । सुख पागलपन है। सुविधा जरूरत हो सकती है। सुख ? सुख मिलता ही नहीं है बाहर से, सामग्री से; सुख मिलता है स्वयं से।
इसलिए कृष्ण दूसरी बात कहते हैं, स्वयं को जीतकर ! असल में दो तरह की जीत हैं इस जगत में। एक वे लोग हैं, जो वस्तुओं को जीतते रहते हैं। छोटी कार से बड़ी कार जीतते हैं। छोटे | मकान से बड़ा मकान जीतते हैं। बस, वस्तुओं को जीतते रहते हैं। आखिर में पाते हैं, वस्तुएं तो जीत लीं, खुद को हार गए। मरते वक्त पता चलता है, जो जीता था, वह पड़ा रह गया और हम चले। तब कुछ सामान साथ ले जाना मुश्किल हो जाता है। पंछी जाए अकेला! वह सब जो जीता था, पड़ा रह जाता है।
कुछ वे लोग हैं, जिन्हें बुद्धिमान कहें, जो वस्तुओं को नहीं जीतते । क्योंकि जो जानते हैं, वस्तुएं हम नहीं थे, तब भी थीं; हम नहीं होंगे, तब भी होंगी। और वस्तुओं की जीत असली जीत नहीं | है, अपनी जीत असली जीत है। स्वयं को जीतते हैं।
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जो वस्तुओं को जीतता है, वह स्वयं को हारता चला जाता है। वस्तुओं पर दांव बढ़ता चला जाता है और स्वयं की हार गहरी होती चली जाती है। नजर वस्तुओं पर लग जाती है, स्वयं से चूक जाती है । फिर कोई स्वयं को जीतता है। कृष्ण उसकी बात कर रहे हैं कि ऐसा व्यक्ति स्वयं को जीत लेता - आत्म-विजय।
महावीर ने कहा है, तुम सब हार जाओ और स्वयं को जीत लो,
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गीता दर्शन भाग-2
तो तुम विजेता हो। और तुम सब जीत लो और स्वयं को हार जाओ, तो तुमसे ज्यादा पराजित और कोई भी नहीं है ।
आपको पता हो या न हो, महावीर के लिए जिन जो नाम मिला, वह इसीलिए मिला। जिन का मतलब है, जीत लेने वाला, जिसने जीत लिया स्वयं को। जिन का अर्थ है, जिसने जीत लिया स्वयं को ।
जो जिन बन जाता, जो स्वयं को जीत लेता, फिर इस जगत में उसे पाने योग्य कुछ भी नहीं रह जाता। इस जगत में क्या, कहीं भी पाने योग्य कुछ नहीं रह जाता। लोक में, अलोक में, कहीं भी उसे पाने योग्य कुछ नहीं रह जाता। जिसने स्वयं को पाया, उसने सब | पा लिया। जिसने स्वयं को खोया, उसने सब खो दिया। बस, स्वयं के जीते जीत है।
ऐसा पुरुष स्वयं को जीतकर सुख की सामग्री के व्यर्थ बोझ से मुक्त हो जाता है। अभिमान से भरता नहीं । कर्म करते हुए अकर्म में जीता है। सब जरूरी करते हुए भी उसके ऊपर कोई रेखा नहीं छूटती । वह जतनपूर्वक चादर को परमात्मा के हाथ में सौंप देता है। उस पर कोई दाग, कोई धब्बा नहीं होता है।
आज सुबह इतना ; फिर सांझ हम बात करेंगे। पांच मिनट आप सब रुकेंगे। और जिनमें थोड़ी भी हिम्मत हो, वे भी कीर्तन में भाग लें। पांच मिनट डूबें।
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अध्याय 4 आठवां प्रवचन
मैं मिटा, तो ब्रह्म
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गीता दर्शन भाग-2
यदृच्छालाभसंतुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः । समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते ।। २२ ।। और अपने आप जो कुछ आ प्राप्त हो, उसमें ही संतुष्ट रहने वाला और द्वंद्वों से अतीत हुआ तथा मत्सरता अर्थात ईर्ष्या से रहित, सिद्धि और असिद्धि में समत्व भाव वाला पुरुष कर्मों को करके भी नहीं बंधता है।
'प्राप्त हो उसमें संतुष्ट, द्वंद्वों के अतीत- इन दो बातों को ठीक से समझ लेना उपयोगी है।
जो मिले, उसमें संतुष्ट ! जो मिले, उसमें संतुष्ट कौन हो सकता है? चित्त तो जो मिले, उसमें ही असंतुष्ट होता है। चित्त तो संतोष मानता है उसमें, जो नहीं मिला और मिल जाए। चित्त जीता है उसमें, जो नहीं मिला, उसके मिलने की आशा, आकांक्षा में। मिलते ही व्यर्थ हो जाता है । चित्त को जो मिलता है, वह व्यर्थ हो जाता है; जो नहीं मिलता है, वही सार्थक मालूम होता है।
चित्त सदा ही, सदा ही असंतुष्ट है। चित्त का होना ही असंतोष है। अगर ऐसा कहें तो ज्यादा ठीक होगा कि चित्त और असंतोष एक ही चीज के दो नाम हैं। ऐसा नहीं कि चित्त असंतुष्ट होता है, बल्कि ऐसा कि चित्त ही असंतोष है। क्योंकि जिस क्षण संतुष्टि आती है, उसी क्षण चित्त भी चला जाता है। असंतोष के साथ ही मन भी चला जाता है। जिनके भीतर असंतोष न रहा, उनके भीतर मन भी न रहा।
मन उसकी आकांक्षा में ही जीता है, जो नहीं मिला है। इसलिए मन के लिए जरूरी है कि जो मिला है, उससे असंतुष्ट हो; और जो नहीं मिला है, उसमें संतोष की कामना में जीए। जो नहीं मिला है, उसमें संतोष खोजे; और जो मिल जाए, उसमें असंतोष खोजे। यह हमारी चित्त-दशा है।
ऐसा भी नहीं है कि जो आज हमें नहीं मिला है और लगता है कि कल मिल जाए, संतोष मिलेगा; तो कल मिल जाने पर संतोष मिल जाएगा। ऐसा भी नहीं है। कल मिलते ही अचानक हम पाएंगे कि हमारा असंतोष आ गया उस पर, जो मिला और हमारा संतोष हट गया उस पर, जो अभी नहीं मिला है।
करीब-करीब जैसे आकाश का क्षितिज है, हॅराइजन है | दिखता है थोड़ी ही दूर, आकाश जमीन से मिलता हुआ । चलें खोजने । जितना बढ़ेंगे, उतना ही वह आकाश भी आगे बढ़ता जाता है। वह
कहीं पृथ्वी को छूता नहीं; सिर्फ छूता हुआ मालूम पड़ता है, प्रतीत | होता है। एपियरेंस भर है स्पर्श का, पृथ्वी और आकाश का । कहीं छूता नहीं है। बढ़ते जाएं; पूरी पृथ्वी का पूरा चक्कर लगा लें, वह कहीं छूता हुआ मिलेगा नहीं। और फिर भी कहीं भी ऐसा न होगा कि आगे छूता हुआ न दिखाई पड़े। हमेशा आगे छूता हुआ दिखाई पड़ेगा। जब पहुंचेंगे उस जगह, तब तक वह आगे हट चुका होगा।
संतोष भी हमारे लिए क्षितिज रेखा की भांति है, सदा आगे दिखाई पड़ता है - थोड़े और आगे चलें, वहां संतोष है! जहां हैं, वहां असंतोष है। जहां हैं, वहां आकाश छूता नहीं, दूर कहीं छूता है संतोष, आकाश, क्षितिज ! बढ़ें; पहुंचें वहां ; पाते हैं पहुंचकर कि आकाश आगे हट गया।
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आपकी वजह से आकाश आगे नहीं हटता है। आपसे आकाश | इतना नहीं डरता है । छूता होता, तो छूता ही रहता। नहीं, आप बढ़ गए, इसलिए आकाश भाग नहीं गया। आकाश कहीं भी छूता ही नहीं है; सिर्फ भ्रम होता है छूने का। आपके बढ़ने से आकाश हटता नहीं है। आकाश कभी छूता ही नहीं था; सिर्फ आपको भ्रम हुआ था छूने का। ऐसे ही चित्त सदा ही भविष्य में संतोष के भ्रम में जीता है।
कृष्ण उलटी बात कह रहे हैं। वे कहते हैं, जो पुरुष जो मिल जाए, उसमें संतुष्ट हो, तो फिर उसे कर्मबंध नहीं बांधते।
इन दोनों की प्रक्रियाओं को समझ लेना चाहिए। जैसी हमारी स्थिति है, उसमें जो मिलता है, वही असंतोष लाता है। रहस्य क्या है ? कारण क्या है ?
मैं एक घर में मेहमान था । बहुत चिंतित थे गृहपति ! रात नींद खो थी। मैंने उनकी पत्नी को पूछा, बात क्या है? उनकी पत्नी ने कहा, आप न ही पूछें। पूछेंगे तो आप हंसेंगे, मजाक उड़ाएंगे। मैंने कहा, फिर भी उसने कहा, ऐसा है कि इस साल मेरे पति को पांच लाख का लाभ हो गया है; इससे बड़े चिंतित हैं। मैंने कहा, इसमें | चिंतित होने की क्या बात है? तो उसने कहा, आप उनसे पूछना; वे आपको बताएंगे कि पांच लाख की हानि हो गई। मैंने कहा, तुम | पहेलियां बूझती हो? तुम कहती हो, पांच लाख का लाभ हुआ। उनसे पूछूंगा, तो वे बताएंगे, पांच लाख की हानि हुई !
उसने कहा, ऐसा ही हुआ है। लाभ पांच लाख का हुआ है। लेकिन उनको पहले खयाल था, दस लाख का होगा। इसलिए पांच लाख की हानि हो गई ! वे बहुत परेशान हैं।
सच ही रात मैंने उनसे पूछा, कुछ तकलीफ है ? चिंतित दिखाई पड़ते हैं! उन्होंने कहा, तकलीफ कुछ नहीं, बहुत है। इस साल पांच
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* मैं मिटा, तो ब्रह्म ॐ
लाख की हानि हो गई। मैंने कहा, लेकिन आपकी पत्नी कहती है, धन्यवाद का जो भाव है, वह उसी व्यक्ति में हो सकता है, पांच लाख का लाभ हुआ है। उन्होंने कहा, वह कुछ भी नहीं; दस | | जिसकी अपेक्षा कोई भी नहीं। जब अपेक्षा कोई भी नहीं, तो जो भी लाख बिलकुल पक्के थे।
मिल जाता है, जो भी, उसमें भी वरदान खोजा जा सकता है। और असंतोष का राज है। असंतोष की भी अपनी कीमिया है, केमिस्ट्री | जब अपेक्षा बहुत होती है, तो जो भी मिल जाता है, उसमें ही है! वह केमिस्ट्री यह है, जितना बड़ा असंतोष पाना हो, उतनी बड़ी अभिशाप का आविष्कार हो जाता है; उसी में अभिशाप खोज लिया अपेक्षा चाहिए। छोटी अपेक्षा से बड़ा असंतोष नहीं पाया जा सकता। जाता है। खोज हम पर निर्भर है। अगर असंतोष कमाना हो, तो बड़ी अपेक्षाओं के आकाश फैलाने जो प्राप्त हो जाए, उसमें संतुष्ट कौन होगा? जिसने और ज्यादा चाहिए। जितनी बड़ी अपेक्षा, उतना बड़ा असंतोष।
| प्राप्त नहीं करना चाहा। सच, जिसने प्राप्त ही कुछ नहीं करना काश, इस आदमी की अपेक्षा, दस लाख की न होकर पांच लाख चाहा। उसे जो भी मिल जाए, वही काफी है, जरूरत से ज्यादा है। की होती, तो हानि बिलकुल न होती। अगर इस आदमी की अपेक्षा और एक बार किसी व्यक्ति को यह रहस्य पता चल जाए, तो दो लाख की होती, तो तीन लाख अतिरिक्त लाभ होता। अगर इस संतोष के आनंद की कोई सीमा नहीं है। असंतोष के दुख की कोई आदमी की कोई भी अपेक्षा न होती, तो पांच लाख का शुद्ध लाभ | सीमा नहीं है; संतोष के आनंद की कोई सीमा नहीं है। असंतोष के था, हानि का कोई प्रश्न न था। अगर इसकी अपेक्षा बिलकुल न नर्क का कोई अंत नहीं है; संतोष के स्वर्ग का भी कोई अंत नहीं है। होती, तो पांच नए पैसे के लिए भी यह परमात्मा को धन्यवाद दे | लेकिन संतुष्ट...। पाता। अपेक्षा दस लाख की थी; पांच लाख के लिए भी धन्यवाद | सुकरात सुबह बैठा है अपने घर के द्वार पर। कुछ बात चलती नहीं दे पा रहा है। पांच लाख जो नहीं मिले, उनके लिए क्रोधित है। है। कोई प्रश्न पूछ रहा है सुकरात से, वह जवाब दे रहा है। उसकी ' अपेक्षा जितनी बड़ी, उतना बड़ा असंतोष। अपेक्षा जितनी छोटी, | | पत्नी चाय बनाकर लाई है; पीछे खड़ी है। वह क्रोध से भर गई है। उतना कम असंतोष। अपेक्षा शून्य, असंतोष बिलकुल नहीं। ऐसा | सुकरात ने उस पर ध्यान नहीं दिया; वह अपनी बात में तल्लीन है। गणित है।
स्वभावतः, शायद पत्नियों की सबसे बड़ी आकांक्षा, पति उन पर कृष्ण कहते हैं, जो पुरुष जो मिल जाए, उसमें संतुष्ट है...।। ध्यान दे, इससे ज्यादा दूसरी नहीं है। क्रोध से भर गई। इतने क्रोध
कौन-सा पुरुष संतुष्ट होगा? वही पुरुष, जो अपेक्षारहित जीता से भर गई कि उसने केतली भरी हुई गर्म पानी की सुकरात के ऊपर है, जिसका कोई एक्सपेक्टेशन नहीं है। जो ऐसे जीता है, जैसे जीने डाल दी। उसका आधा चेहरा जल गया। के लिए कोई अपेक्षा की जरूरत नहीं है। फिर जो भी मिल जाता है,। | जो प्रश्न पूछ रहा था, वह घबड़ा गया। उसने सुकरात से कहा वही धन्यभाग। उसके लिए ही वह प्रभु को धन्यवाद दे पाता है। । | कि यह क्या हो गया? सुकरात ने कहा, कुछ भी नहीं हुआ। आधा ___ फकीर जुनैद एक रास्ते से गुजरता था। जोर का एक पत्थर रास्ते | | चेहरा बच गया है! प्रभु को धन्यवाद। पूरा चेहरा भी जल सकता पर पैर से टकराया। लहूलुहान हो गया पैर। जुनैद नीचे झुक गया। | था। सुकरात हंस रहा है, आधे जले चेहरे में। क्योंकि उसकी दृष्टि
और हाथ जोड़कर परमात्मा की तरफ धन्यवाद देने लगा। साथ में | जले हुए चेहरे पर नहीं, उसकी दृष्टि बचे हुए चेहरे पर है। मित्र थे, उन्होंने कहा, जुनैद पागल तो नहीं हो गए! हमने कभी सुना __ पैर में जरा-सा काटा गड़ जाए हमें, तो ऐसा लगता है, सारी नहीं कि किसी के पैर में पत्थर लगे, लहू गिरे, और वह परमात्मा | | दुनिया व्यर्थ हुई। कोई परमात्मा नहीं है। सब बेकार है। अन्याय को धन्यवाद दे। जन्नैद ने कहा, फांसी भी लग सकती थी। जन्नैद ने चल रहा है सारे जगत में। मेरे पैर में, और कांटा? कहा, फांसी भी लग सकती थी। धन्यवाद देते हैं परमात्मा को कि | | शरीर के हजार-हजार सुखों के लिए कभी परमात्मा को धन्यवाद सिर्फ पैर में पत्थर लगा, और निपटे। फांसी भी लग सकती थी। । न दिया; एक छोटे से कांटे के लिए शिकायत भारी है!
यह जुन्नैद, जिन मित्र की मैंने कहानी कही, उनसे ठीक उलटा __मैंने सुना है, एक फकीर बहुत दिनों तक एक बादशाह के साथ है। यह कहता है, फांसी भी लग सकती थी। लेकिन जुनैद को था। और बादशाह का बड़ा प्रेम उस फकीर पर हो गया। इतना प्रेम अगर फांसी भी लग जाए, तो भी वह धन्यवाद दे पाता; क्योंकि हो गया कि बादशाह सोता भी रात, तो फकीर को अपने कमरे में फांसी से बड़े दुख भी हैं।
ही सुलाता। दोनों सदा साथ होते। एक दिन शिकार पर गए थे,
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भटक गए मार्ग। दिनभर के भूखे-प्यासे एक वृक्ष के नीचे पहुंचे। कृष्ण कहते हैं कि जो मिल जाए, उसमें जो संतुष्ट है—जो मिल लेकिन एक ही फल वृक्ष में लगा था। बादशाह ने अपने घोड़े पर | जाए, जो प्राप्त हो जाए, उसमें जो राजी है; आभार से भरा, से हाथ बढ़ाकर फल तोड़ा। लेकिन जैसी उसकी आदत थी, पहले | | अनुगृहीत—और द्वंद्व के पार...। दूसरी बात वे कहते हैं, द्वंद्व के फकीर को खिलाता था कुछ भी-प्रेम से। फल की उसने फांकें पार, द्वंद्वातीत, बियांड दि डुअलिटी। दो के बाहर। काटी, छह टकड़े किए, एक फकीर को दिया।
| संतुष्ट हो जाना भी बहुत कठिन है, फिर भी उतना कठिन नहीं, फकीर ने खाया और उसने कहा कि बहुत स्वादिष्ट, अदभुत! | जितना द्वंद्व के बाहर हो जाना है। द्वंद्व क्या है? ऐसा फल कभी खाया नहीं। एक फांक और दे दें। दूसरी फांक भी | सारा जीवन ही द्वंद्व है हमारा। हम दो में ही जीते हैं। प्रेम करते फकीर खा गया। कहा, बहुत अदभुत! सम्राट से कहा, एक फांक | हैं किसी को; लेकिन जिसे प्रेम करते हैं, उसे ही घृणा भी करते हैं।
और दे दें। सम्राट को थोड़ी ज्यादती तो मालूम पड़ी। फल था एक, | कहेंगे, कैसी बात कहता हूं मैं! लेकिन सारी मनुष्य-जाति का भूखे थे दोनों। लेकिन तीसरी फांक भी दे दी। फकीर ने कहा, बहुत | अनुभव यह है। और अब तो मनसशास्त्री इस अनुभव को बहुत खूब, एक फांक और! सम्राट को जरा कठिन मालूम पड़ा, लेकिन | प्रगाढ़ रूप से स्वीकार कर लिए हैं कि जिसे हम प्रेम करते हैं, उसे फिर भी एक फांक और दे दी। फिर आखिर में तो एक ही फांक | ही घृणा करते हैं। बची। फकीर ने कहा, बस, एक और! सम्राट ने कहा, ज्यादती कर द्वंद्व है हमारा मन। जिसे हम चाहते हैं, उसे ही हम नहीं भी चाहते रहे हो। मैं भी भूखा हूं! फकीर ने हाथ से फांक छीन ली। सम्राट ने | हैं। जिससे हम आकर्षित होते हैं, उसी से हम विकर्षित भी होते हैं। कहा, रुक जाओ। फांक वापस लौटा दो। यह सीमा के बाहर हो | जिससे हम मित्रता बनाते हैं, उससे हम शत्रुता भी पालते हैं। ये गया। मेरा तुम पर प्रेम है, इसका क्या मतलब, तुम्हारा मुझ पर जरा | दोनों हम एक साथ करते हैं। थोड़ा किसी एकाध घटना में उतरकर भी प्रेम नहीं?
| देखेंगे, तो खयाल में आ जाएगा। सम्राट ने हाथ से फांक वापस छीन ली; मुंह में रखी। कड़वी | __ जिससे आप प्रेम करते हैं, उससे आप चौबीस घंटे प्रेम कर पाते जहर थी। थूक दी। कहा, पागल तो नहीं हो! तुम पांच फांकें खा | हैं? नहीं कर पाते। घंटेभर प्रेम करते हैं, तो घंटेभर घृणा करते हैं। क्यों गए? और शिकायत क्यों न की? उस फकीर ने कहा कि जिन सुबह प्रेम करते हैं, तो सांझ घृणा करते हैं। सांझ लड़ते हैं, तो सुबह हाथों से बहुत मीठे फल खाने को मिले, उनकी एक छोटे-से कड़वे | फिर दोस्ती कायम करते हैं। पूरे समय घृणा और प्रेम का धूप-छांव फल की शिकायत? और इसीलिए सब फांकें लेता गया कि कहीं की तरह खेल चलता है। पता न चल जाए, अन्यथा शिकायत पहुंच ही गई। जिन हाथों से | जिसको आदर करते हैं, उसके ही प्रति मन में अनादर भी पालते इतने मीठे फल खाने को मिले, उन हाथ से एक छोटी-सी कड़वी | हैं। मौके की तलाश में होते हैं, कब अनादर निकाल सकें। जिसको फांक की शिकायत!
फूलमाला पहनाते हैं, किसी दिन उस पर पत्थर फेंकने की इच्छा भी ऐसा व्यक्ति संतुष्ट हो सकता है। संतोष की भी अपनी केमिस्ट्री | मन में रहती है। वह इच्छा दबी हुई प्रतीक्षा करती है। फिर किसी दिन है, अपनी कीमिया है, अपना गणित है।।
बहाना खोजकर वह इच्छा बाहर आती है। पत्थर भी फेंक लेते हैं। जो है, उसे ठीक से देखें, तो संतोष के लिए बहत है। जो नहीं। हमारा मन प्रतिपल दोहरा है, डबल-बाइंड। इसलिए जो है, उसके प्रति आंखों को दौड़ाते रहें, तो जो है, वह कभी दिखाई | बुद्धिमान हैं, जैसे कि चाणक्य ने—जो कि चालाकों में, अधिकतम नहीं पड़ता; और जो नहीं है, उसके सपने मन को घेर लेते हैं और | बुद्धिमान आदमियों में एक है-चाणक्य ने कहा है, राजाओं को असंतोष को पैदा कर जाते हैं।
| सलाह दी है कि अपने मित्र को भी वह बात मत बताना, जो तुम शत्रु सत्य संतोष के लिए काफी है। असंतोष के लिए सपने चाहिए। को नहीं बताना चाहते हो। क्यों? क्योंकि चाणक्य ने कहा, भरोसा यथार्थ संतोष के लिए काफी है, असंतोष के लिए कल्पना चाहिए। कुछ भी नहीं है; जो आज मित्र है, वह कल शत्रु हो सकता है। सारे जगत में लोग कल्पना के कारण असंतुष्ट हैं, यथार्थ के कारण __पश्चिम में चाणक्य का समानांतर एक आदमी हुआ, मैक्यावेली। नहीं। यथार्थ पर्याप्त संतोष दे सकता है। लेकिन कल्पना? कल्पना | वह भी चालाकों में इतना ही बुद्धिमान है। उसने कहा है, ध्यान सीमा के बाहर पीड़ा देती है।
रखना, जिस बात को तुम गुप्त नहीं रख सकते, तुम्हारा मित्र भी नहीं
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रख सकेगा। इसलिए मित्र को भूलकर मत बताना। क्योंकि जब तुम खुद ही गुप्त नहीं रख सके और मित्र को बताना पड़ा, तो तुम इस भ्रांति में मत पड़ना कि तुम जिस बात को गुप्त नहीं रख सके, उसको तुम्हारा मित्र रख सकेगा। वह भी किसी को बता देगा। और फिर, आज मित्र है, वह कल शत्रु हो सकता है।
मैक्यावेली ने एक बात और कही; उसने यह कहा कि शत्रु प्रति भी इस तरह की बातें मत कहना, जिन्हें कि कल लौटाना मुश्किल हो जाए। क्योंकि जो आज शत्रु है, वह कल मित्र हो सकता है । फिर कठिन होगा। फिर लौटाना मुश्किल होगा।
असल में शत्रु और मित्र दो चीजें नहीं हैं, एक ही साथ घटित होती हैं। आप किसी आदमी को बिना मित्र बनाए शत्रु बना सकते हैं? ? बहुत मुश्किल है। अब तक तो नहीं हो सका पृथ्वी पर यह । बिना मित्र बनाए किसी को शत्रु बनाया जा सकता है ? असंभव है। शत्रु बनाने के लिए भी मित्र की सीढ़ी से गुजरना ही पड़ता है। शत्रु बनाने के लिए भी पहले मित्र ही बनाना पड़ता है। तो ऐसा भी समझ सकते हैं कि जिसको मित्र बनाया, अब उसके शत्रु बनने की 'संभावना घनीभूत हो गई।
जब कृष्ण कहते हैं, द्वंद्वातीत ... ।
मन तो जीता है द्वंद्व में, सदा द्वंद्व में। मन तो जीता है सदा विकल्प में। सदा ही दो विकल्प खड़े रहते हैं। जो आप करते हैं, उसके खिलाफ भी आपका मन पूरे वक्त भीतर कहता रहता है। एक
भी आप उठाते हैं, तो मन का दूसरा हिस्सा कहता है, मत उठाओ। मन कभी भी सौ प्रतिशत, हंड्रेड परसेंट नहीं होता । एक हिस्सा निरंतर ही विरोध करता रहता है। जिस आदमी का मन ऐसी हालत से भरा है, वह आदमी द्वंद्व में घिरा है। वह सदा ही द्वंद्व में घिरा रहेगा। यह द्वंद्व अगर बहुत तीव्र हो जाए, तो वह आदमी दो खंडों में टूट जाएगा, जिसको मनोवैज्ञानिक सीजोफ्रेनिया कहते हैं। वह आदमी दो खंडों में टूट जाएगा। वह एक ही आदमी दो आदमियों की तरह हो जाएगा।
लेकिन हम इतने ज्यादा नहीं टूटते । हमारी टूट तरल होती है, लिक्विड होती है। हम बिलकुल नहीं टूट जाते दो खंडों में। लेकिन हमारे दो खंड जारी रहते हैं। लेकिन फिर भी हैं तो सीजोफ्रेनिक, हैं तो दोहरे ।
जो आपकी प्रशंसा करता है, कल आपको एकदम हैरानी होती है कि उसने आपकी निंदा की। आप गलती में हैं। आपको मनोवैज्ञानिक सत्य का पता नहीं है। जिसने प्रशंसा की, वह बदला
चुकाएगा। वह आज नहीं कल, कहीं निंदा करेगा, तब कंपनसेशन हो पाएगा। उसने एक काम कर दिया, अब उससे उलटा काम नहीं करेगा, तो संतुलन नहीं हो पाएगा। जिसने एक तरफ प्रशंसा की, वह कल कहीं न कहीं जाकर निंदा करेगा। जब प्रशंसा करे, तभी समझ लेना । निंदा की प्रतीक्षा मत करना, वह कहीं करेगा।
फ्रायड ने लिखा है अपने संस्मरणों में, अगर घने से घने मित्र भी एक-दूसरे के संबंध में यहां-वहां जो कहते हैं, वह अगर उन्हें पता चल जाए, तो इस पृथ्वी पर एक भी मित्रता टिक नहीं सकती। घने से घने, इंटीमेट से इंटीमेट, निकट से निकट मित्र भी एक-दूसरे खिलाफ यहां-वहां जो कहते हैं, अगर वह सबको पता चल जाए, तो इस पृथ्वी पर एक भी मित्रता नहीं टिक सकती।
कारण है उसका। मन सदा ही परिपूर्ति खोजता है। उसका दूसरा हिस्सा भी है, वह मांग करता है कि मुझे भी पूरा करो।
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स्कूल में शिक्षक पढ़ाता है बच्चों को कैसे डरे हुए बैठे रहते हैं बच्चे ! सिर नहीं हिलाते । श्वास लेते नहीं मालूम पड़ते । और शिक्षक ने पीठ फेरी ब्लैकबोर्ड पर लिखने को, कि देखें, उनके चेहरे बदल गए ! जितना शिक्षक ने उनको डराया था सामने से, पीठ के पीछे अगर उसको पता चल जाए – अगर शिक्षक के दो आंखें खोपड़ी के पीछे भी हों तो उसे पता चले कि ये बच्चे जो इतने सीधे बैठे थे, ये पीछे क्या-क्या कर लेते हैं। वे कंपनसेशन कर रहे हैं, कुछ और नहीं कर रहे।
वे इतना ही कर रहे हैं कि इतनी देर तक जो आदर मांगा, उसका बदला चुका देते हैं। फिर वे हलके हो जाते हैं। न चुका पाएं, तो बहुत कठिनाई है। इसलिए बहुत होशियार लोगों ने ही तख्ता उलटा रखा हुआ है। शिक्षक को बीच-बीच में घूमना पड़े, नहीं तो | ये बच्चे मुश्किल में पड़ जाएंगे। अगर पांच-छह घंटे इनको इकट्ठा ही दबाव करना पड़े एक हिस्से का, तो ज्यादा खतरनाक है। इनका बीच-बीच में निकास होता रहे, कैथार्सिस होती रहे । शिक्षक जब भी मुड़ता है तख्ते पर लिखने को, तब वे मुंह भी बना लेते हैं, | टोपियां भी उछाल देते हैं, एक-दूसरे की तरफ इशारा भी कर देते हैं। तब तक हलके हो जाते हैं। शिक्षक लौटा, तब तक वे फिर राजी हो जाते हैं आदर देने को ।
ऐसी हम सबकी चित्त की दशा है। डबल - बाइंड है।
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यह जो द्वंद्व है, यह बहुत ऊपर भी है, बहुत गहरे भी है। सतह पर भी है, गहराइयों में भी है। गहराइयों में भी सदा द्वैत चलता रहता है। दिन में आदमी ने उपवास किया है, रात भोजन के सपने देखेगा।
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कंपनसेशन है। दिन में आदमी भला है, ईमानदार है, रात सपने में भले आदमियों के सपने अनिवार्यतया बुरे आदमी जैसे होते हैं। चोरी करेगा। वह चोर वाला हिस्सा भी भीतर है। ईमानदार के साथ | | और बुरे आदमी के सपने अनिवार्यतया भले आदमी जैसे होते हैं। बेईमान भी भीतर है। वह बेईमान क्या करेगा? अगर आपने दिन डबल-बाइंड है माइंड। अच्छे आदमी बुरे सपने देखते हैं; बुरे भर उसे बेईमानी न करने दी, तो रात बेईमानी करके अपनी तृप्ति | | आदमी अच्छे सपने देखते हैं। चोर और बेईमान सपने में कर लेगा।
साधु-संन्यासी होने की बातें सोचते हैं। साधु और संन्यासी सपने मैंने सुना है, एकनाथ तीर्थयात्रा को गए। तो गांव के लोगों ने कहा में चोर और बेईमान हो जाते हैं! वह दूसरा हिस्सा है मन का। वह कि हम भी चलें; बहुत लोग साथ हो लिए। गांव में एक चोर भी था। भीतर प्रतीक्षा करता है। वह प्रतीक्षा करता है कि कब? अगर कहीं उस चोर ने भी एकनाथ को कहा, मैं भी चलूं? एकनाथ ने कहा, भाई मौका नहीं मिला, तो सपने में मौका खोज लेता है। तू जाहिर आदमी है। फिर बहुत यात्री साथ होंगे, कोई गड़बड़ हो, यह जो चित्त है, यह अनिवार्यतया द्वंद्वात्मक है, डायलेक्टिकल परेशानी हो! तो तू एक कसम खा ले कि चोरी नहीं करेगा, तो हम है। मन के काम करने का ढंग द्वंद्वात्मक है। इसलिए अगर कोई साथ ले लें। तो उस आदमी ने कहा, कसम खा लेता हूं कि चोरी नहीं विश्वासी आदमी है, आस्थावान, श्रद्धालु–तो बहुत हैरानी करूंगा। कसम खा ली, तो एकनाथ ने साथ ले लिया। | होगी-अगर विश्वासी आदमी है, तो उसके भीतर गहरे में संदेह
एक-दो रातें तो ठीक बीतीं, लेकिन तीसरी-चौथी रात से | छिपा रहेगा। अगर बहुत संदेह करने वाला आदमी है, तो उसके मुश्किल शुरू हो गई। पर मुश्किल बड़ी अजीब थी। अजीब यह | भीतर गहरे में विश्वास छिपा रहेगा। थी, चीज किसी की चोरी नहीं जाती थी, लेकिन एक के बिस्तर की। इसलिए अक्सर ऐसा होता है कि जो लोग जिंदगीभर आस्तिक चीज दूसरे के बिस्तर में चली जाती थी। एक की पेटी की चीज दूसरे होते हैं, मरने के करीब-करीब नास्तिक होने लगते हैं। क्यों? की पेटी में चली जाती थी। मिल जातीं सब चीजें सुबह, लेकिन | क्योंकि जिंदगीभर तो उन्होंने ऊपर विश्वास को सम्हाला; वह संदेह बड़ी हैरानी होती कि रात कौन मेहनत लेता है? और किसलिए | का हिस्सा भीतर दबा रहा। फिर वह धीरे-धीरे उभरना शुरू होता मेहनत लेता है?
है। वह कहता है, जिंदगीभर तो विश्वास कर लिया, क्या मिल एकनाथ को खयाल आया कि वह चोर तो कुछ नहीं कर रहा है! गया? वह भीतर का संदेह ऊपर आना शुरू होता है। अक्सर ऐसा रात जागते रहे। देखा, कोई बारह बजे रात वह उठा। इस बिस्तर | होता है कि जिंदगीभर के अविश्वासी मरते समय विश्वासी हो जाते की चीज दूसरे बिस्तर में कर दी, उस पेटी की इसमें कर दी। किसी | हैं। भीतर का विश्वास का पहलू ऊपर उभर आता है। का तकिया खींचकर किसी के नीचे रख आया।
मन द्वंद्वात्मक है, दोहरा है। मन का काम ठीक वैसा ही है, जैसे एकनाथ ने कहा, तू यह क्या करता है? उस चोर ने कहा, मैंने इस जगत में सारी चीजें द्वंद्वात्मक हैं, पोलर हैं। यहां सारी चीजें कसम चोरी न करने की खाई थी, लेकिन कम से कम अदल-बदल द्वंद्व से जीती हैं। अगर हम प्रकाश को मिटा दें, तो अंधेरा मिट तो करने दें! क्योंकि दिनभर किसी तरह अपने को रोक लेता हूं, | | जाएगा। आप कहेंगे, कैसी बात कह रहा हूं? प्रकाश को बुझा देते लेकिन रात बहुत मुश्किल हो जाती है। फिर उस चोर ने कहा, फिर | | हैं, तो अंधेरा तो और बढ़ता है; मिटता नहीं। लेकिन प्रकाश का लौटकर मुझे अपना धंधा भी तो करना है! अगर अभ्यास बिलकुल | | बुझाना, प्रकाश का मिटाना नहीं है। अगर पृथ्वी पर प्रकाश टूट गया, तो आप ही कहिए, क्या हालत होगी? ऐसे अभ्यास भी बिलकुल न रह जाए, तो अंधेरा बिलकुल नहीं रहेगा। नहीं रहेगा रहेगा। फिर मैं किसी का नुकसान भी नहीं कर रहा हूं। सुबह सब | इसलिए भी, कि अंधेरे का पता ही तब तक चलता है, जब तक चीजें मिल जाती हैं। अक्सर तो मैं ही बता देता हूं कि जरा उसके | हमें प्रकाश का पता है। अन्यथा पता भी नहीं चल सकता। रहे तो बिस्तर में देख लो। कहीं हो!
भी पता नहीं चल सकता। __ हम भी अपनी रात में यही कर रहे हैं। दिन में जो-जो चूक गया, | | अगर हम जन्म को बंद कर दें, तो मृत्यु मिट जाएगी; क्योंकि रात कंपनसेशन कर रहे हैं। अगर भले आदमियों के सपने देखे | | जन्म ही नहीं होगा, तो मरने को कोई खोजना मुश्किल हो जाएगा। जाएं, तो बड़ी हैरानी होती है। अगर बुरे आदमियों के सपने देखे | | अगर हम मृत्यु को रोक दें, तो जन्म को रोकना पड़ेगा। जाएं, तो भी बड़ी हैरानी होती है।
यही तो दिक्कत हुई है सारी दुनिया में। पिछले दो सौ वर्षों के
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ॐ मैं मिटा, तो ब्रह्म
चिकित्सा के विकास ने मृत्यु की दर कम कर दी। इसलिए अब | आ जाए। संतति निरोध और बर्थ कंट्रोल के लिए हमें कोशिश करनी पड़ती | जब सुख आए, तो भीतर मैं जानूं कि यह सुख आया, लेकिन है। उधर मृत्यु की दर कम हुई, इधर जन्म की दर कम करनी पड़ेगी। | मैं सुख नहीं हूं। क्योंकि अगर मैं सुख हूं, तो दुख फिर कभी नहीं
जिंदगी विरोधों के बीच संतुलन है। और जिंदगी विरोध से | आ सकता। लेकिन थोड़ी देर में दुख आ जाता है। जब दुख आए, चलती है। सारी जिंदगी द्वंद्व है। और सारी जिंदगी के आधार में मन | तो मैं जानूं कि यह दुख आया, लेकिन मैं दुख नहीं हूं! क्योंकि अगर है, माइंड है।
मैं दुख हूं, तो फिर सुख कभी नहीं आ सकता। लेकिन अभी सुख " इसलिए जो लोग, जैसे मार्क्स, एंजिल्स और लेनिन और माओ, था और फिर सुख आ जाएगा। जो लोग मन के ऊपर आत्मा में भरोसा नहीं करते, वे लोग सुख आता है, दुख आता है; घृणा आती, प्रेम आता; मित्रता डायलेक्टिकल मैटीरियलिज्म, द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की बात करते आती, शत्रुता आती; हार होती, जीत होती; सम्मान मिलता, हैं। वे कहते हैं, पदार्थ द्वंद्व से चलता है। इसलिए वे वर्ग-संघर्ष की अपमान मिलता-सब द्वंद्व हैं। इनके पार अगर मैं तीसरे को बात करते हैं. कि समाज भी दंद्र से चलेगा। गरीब को अमीर के पकडकर स्मरण से भर जाऊं कि मैं इन दोनों से भिन्न. दोनों से खिलाफ लड़ाना पड़ेगा, तब समाज चलेगा। सब समाज द्वंद्व है। अन्य, दोनों से अलग जानने वाला हूं, देखने वाला हूं, विटनेस हूं, अगर मन ही सब कुछ है, तो जिंदगी में संघर्ष के अलावा और कुछ | साक्षी हूं, तो मैं द्वंद्व के पार हो जाता हूं। भी नहीं है।
__ कृष्ण कहते हैं, जो द्वंद्व के पार हो जाता है अर्जुन, वह समस्त लेकिन कृष्ण कहते हैं, द्वंद्वातीत, द्वंद्व के बाहर, द्वंद्व के पार, | कर्मों के बंधन से छूट जाता है। बियांड डायलेक्टिक्स, दो के बाहर होता है अर्जुन जो, वही केवल | __ असल में बंधन मात्र द्वंद्व के हैं। निर्द्वद्व स्वतंत्र है। द्वंद्व में घिरा, कर्म के बंधन से मुक्त होता है।
बंधन में है। घृणा के भी बंधन हैं, प्रेम के भी बंधन हैं। सम्मान के लेकिन दो के बाहर कौन हो सकता है? मन तो नहीं हो सकता। | भी बंधन हैं, अपमान के भी बंधन हैं। और प्रशंसा के भी बंधन हैं, मन तो जब भी रहेगा, दो के भीतर ही रहेगा। दो के बाहर, मन को | | और निंदा के भी। मित्र भी बांध लेते हैं, और शत्रु भी। अपने भी भी जो जानता है, वही हो सकता है; मन को भी जो पहचानता है, | बांधते हैं, और पराए भी। सब बांध लेता है। हार भी बांध लेती है, वही हो सकता है। घृणा द्वंद्व के बाहर नहीं हो सकती। प्रेम द्वंद्व के | और जीत भी। बाहर नहीं हो सकता। लेकिन जो प्रेम और घृणा को जानने वाला ___ लेकिन जो दोनों को जानता है और दोनों के पार अपने को देख ज्ञाता है, नोअर है, वह बाहर हो सकता है।
पाता है, वह बंधन के पार हो जाता है। उसे फिर कोई भी नहीं बांध ___ मैं बैठा हूं। सुबह हो गई, सूरज निकला। देखा कि रोशनी भर पाता। बांध भी लो, तो भी नहीं बांध पाते। बंधे हुए भी वह बंधन गई चारों तरफ। फिर सांझ आई, सूरज डूबा। देखा कि अंधेरा छा | | के बाहर ही होता है, क्योंकि वह जानता है, मैं अलग, मैं भिन्न, गया चारों तरफ। फिर सुबह हुई, फिर सूरज निकला, फिर प्रकाश |में पृथक। फैल गया। मैंने देखा चारों तरफ अंधेरे को आते, मैंने देखा चारों | यह जो पृथकता का बोध है, यह जो साक्षी का भाव है, वह तरफ प्रकाश को आते। मैंने देखा जाते प्रकाश को; मैंने देखा जाते | द्वंद्वातीत ले जाता है। अंधेरे को। लेकिन मैं जिसने प्रकाश को भी देखा और अंधेरे को | जो मिल जाए, जो प्राप्त हो, उसमें तृप्त, चित्त के द्वंद्वों के पार भी देखा-न तो प्रकाश हूं और न अंधेरा हूं। मैं दोनों से अलग | जो व्यक्ति है, वह कर्म करते हुए भी कर्म के बंधन में नहीं पड़ता तीसरा हूं, दि थर्ड।
है-ऐसा कृष्ण, अत्यंत ही वैज्ञानिक बात, अर्जुन से कहते हैं। यह जो तीसरा है, अगर इसका मुझे स्मरण आ जाए, तो मैं दो के बाहर हो जाऊं। तीसरे की याद आ जाए, तो दो के बाहर हुआ जा सकता है। यदि तीसरे का स्मरण आ जाए, तो दो के बाहर हुआ
गतसङ्गस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः। जा सकता है।
यज्ञायाचरतः कर्म समय प्रविलीयते ।। २३ ।। मन के द्वंद्व के बाहर वही हो सकेगा, जिसे तीसरे का स्मरण | क्योंकि आसक्ति से रहित ज्ञान में स्थित हुए चित्त वाले,
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गीता दर्शन भाग-2
यज्ञ के लिए आचरण करते हुए मुक्त पुरुष के संपूर्ण कर्म नष्ट हो जाते हैं।
सक्तिरहित, ज्ञानपूर्वक कर्म करते हुए पुरुष के समस्त
आ कर्मबंधन क्षीण हो जाते हैं, सब बंधन, सब परतंत्रताएं
गिर जाती हैं। आसक्तिरहित, अनअटैच्ड, अनआइडेंटिफाइड, तादात्म्य-मुक्त ! इस सूत्र में आसक्तिरहित का क्या अर्थ है ? थोड़ा आसक्ति में उतरें, तो खयाल में आ जाए!
सुना है मैंने, एक घर में आग लग गई है। स्वभावतः, गृहपति छाती पीटता है और रो रहा है। भीड़ लगी गई है। आग बुझाई जा रही है, बुझती नहीं। आंखें आंसुओं से भरी हैं। वह आदमी होश खो दिया है। तभी पास-पड़ोस के लोगों में से कोई भागा हुआ आया और उसने कहा, रोओ मत। घबड़ाओ मत। जल जाने दो। बेफिक्र रहो। क्योंकि तुम्हारे लड़के ने मुझे पक्का पता है, कल ही यह मकान बेच दिया। सौदा हो चुका है।
आंख से आंसू ऐसे तिरोहित हो गए, जैसे थे ही नहीं। रोना खो गया। संयत हो गया वह आदमी। जैसे और सब लोग खड़े थे, ऐसे वह भी खड़ा हो गया। उसने कहा, मुझे कुछ पता ही नहीं था। उसके ओंठों पर मुस्कुराहट आ गई। मकान अब भी जल रहा है, वैसा ही, थोड़ा ज्यादा । लपटें और बढ़ गई हैं। लेकिन इसके भीतर की लपटें एकदम खो गईं! वहां अब भी आग है, लेकिन यहां भीतर हृदय में कोई आग न रही, कोई जलन न रही।
और तभी उसका बेटा दौड़ा हुआ आया और उसने कहा कि क्या खड़े देखते हैं आप? क्योंकि उस आदमी से बात तो हुई थी, लेकिन उसने आदमी भेजकर खबर भेज दी कि जले हुए मकान को मैं खरीदने वाला नहीं हूं। बयाना नहीं हो पाया था। सौदा टूट गया है।
आंसू फिर वापस आ गए हैं। आदमी फिर छाती पीटकर चिल्लाने लगा। मकान अब भी जल रहा है ! वैसा ही जल रहा है। भीतर फिर आग आ गई।
इस बीच क्या फर्क पड़ा? मकान को कुछ पता भी नहीं चला होगा बेचारे को, कि इस बीच बड़ा नाटक हो गया है। लेकिन हुआ क्या?
थोड़ी देर के लिए अनअटैच्ड हो गया वह आदमी। थोड़ी देर के लिए आसक्तिरहित हो गया। जो अपना नहीं है, बात समाप्त हो गई। अपना है, तो बात समाप्त नहीं होती। मेरा था मकान, तो आग भीतर तक पहुंचती थी। मेरा नहीं है, तो आग अब भीतर नहीं
पहुंचती। आग अब भी जल रही है। तो मेरे से ही आग भीतर तक पहुंचती थी, मेरे के मार्ग से। मेरे को ही हिलाकर आग भीतर आती थी। मेरे के द्वार से ही आग भीतर प्रवेश करती थी। बीच में पता चला, मेरा नहीं है; द्वार बंद हो गया। मकान जलता रहा; भीतर लपट पहुंचनी बंद हो गई। थोड़ी देर को, इस नाटकीय घटना में, आसक्ति टूट गई। मेरा न रहा।
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काश, वह आदमी बुद्धिमान होता ! काश, इस घटना को देख पाता ! तो फिर जिंदगीभर के लिए लपटों के बाहर हो सकता था। लेकिन वह नहीं होगा। क्योंकि वह फिर रो रहा है। वह वहीं फिर उन्हीं लपटों में घिर गया; वही दरवाजा उसने फिर खोल दिया।
आसक्तिरहित का अर्थ है, इस जगत में मेरा कुछ भी नहीं है। मेरे का भाव, मेरे का भाव ही मेरी आसक्ति है। ममत्व ही आसक्ति है।
लेकिन मेरे के बड़े विस्तार हैं। मेरा बेटा भी मेरी आसक्ति है। मेरा मकान भी मेरी आसक्ति है। मेरा धर्म भी मेरी आसक्ति है । मेरा | शास्त्र भी मेरी आसक्ति है। मेरा परमात्मा तक मेरी आसक्ति है। जहां-जहां मेरा जुड़ेगा, वहां-वहां आसक्ति जुड़ जाएगी। जहां-जहां से मेरा विदा हो जाएगा, वहां-वहां से आसक्ति विदा हो जाएगी।
लेकिन मेरा कब विदा होगा? जब तक मैं है, तब तक मेरा विदा नहीं होगा। एक जगह से हटेगा, दूसरी जगह लग जाएगा ।
मैंने कहा कि इस ड्रैमेटिक घटना में, इस नाटकीय घटना में थोड़ी देर के लिए वह आदमी आसक्तिरहित हो गया, तो आप गलत मत समझ लेना। थोड़ी देर के लिए वह आदमी इस मकान के प्रति आसक्तिरहित हो गया। लेकिन उसकी आसक्ति दूसरी तरफ चली गई, उस धन में, जो इस मकान से मिलने वाला है। मकान बिक चुका; अपना नहीं रहा । बिकने से जो मिल गया धन, वह अपना हो गया। मेरा, हटा मकान से जुड़ गया कहीं और।
इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि मेरा कहीं भी जुड़ जाए। कहीं भी जुड़ जाए, उतना ही काम शुरू हो जाता है। घर छोड़कर कोई चला | जाए, तो फिर मेरा आश्रम हो जाता है। मेरा मंदिर, मेरी मस्जिद !
आश्चर्यजनक है आदमी! मेरे के बिना मानता ही नहीं है। मेरे को लेकर ही चलता है साथ। मंदिर भी जाए, तो मेरा बना लेता है। |परमात्मा का कोई मंदिर नहीं है पृथ्वी पर कोई इसका मेरा मंदिर है, कोई उसका मेरा मंदिर है। इसलिए तो फिर दो मेरों में कभी-कभी टक्कर हो जाती है। तो मंदिरों-मस्जिदों में आग लग जाती है; खून-खराबा हो जाता है।
अभी तक हम पृथ्वी को ऐसा नहीं बना पाए, जहां कि हम वह
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मैं मिटा, तो ब्रह्म
मंदिर बना सकें, जो कि मेरा न हो, तेरा हो - उसका हो, परमात्मा का हो। कोई मंदिर नहीं बना पाए। सब आशाएं की थीं मंदिर बनाने की इसी तरह कि परमात्मा का बन जाए, लेकिन सब मंदिर आखिर में किसी के मेरे मंदिर सिद्ध होते हैं।
यह जो मेरा हैं, यह बदल सकता है। मिटता तब तक नहीं, जब तक मैं भीतर केंद्र पर है।
ऐसा समझें कि एक दीया जल रहा है। और दीए की रोशनी चारों तरफ दीवाल पर पड़ रही है। वह जो दीवाल पर रोशनी पड़ रही है, वह मेरा है। और वह जो दीए की ज्योति जल रही है, वह मैं है । जब तक मैं की ज्योति जलती रहेगी, तब तक मेरे की रोशनी कहीं न कहीं पड़ती रहेगी। दीवाल से हटाइएगा, तो कहीं और पड़ेगी; कहीं और से हटाइएगा, तो कहीं और पड़ेगी। जब तक कि ज्योति न बुझ जाए, मैं फ्लेम, वह जो मैं का, अहंकार का बीच में जलता हुआ दीया है, वह न बुझ जाए, तब तक मेरा बनता ही रहेगा।
इस दीए को उठाओ मकान से और मंदिर में रख दो। कोई फर्क नहीं पड़ता, मंदिर मेरा हो जाएगा। मंदिर की दीवालों पर यह रोशनी फैल जाएगी। इस दीए को उठाओ और जंगल के झाड़ के नीचे रख दो; जंगल के झाड़ों पर इसकी रोशनी फैल जाएगी। वे मेरे हो जाएंगे। इस दीए को जहां ले जाओ, वहीं मेरा पहुंच जाएगा। यह दीए की जो ज्योति है मैं की, यह का स्रोत है, उसका मूल उदगम है।
आसक्तिरहित केवल वही हो सकता है, जो अहंकाररहित है।
आसक्ति अहंकार के जुड़ने का परिणाम है। आसक्ति अहंकार का विकीरण है, रेडिएशन है। जैसे दीए से किरणें दौड़ती हैं, ऐसा मैं से मेरा दौड़ता है। और जहां भी पड़ जाता है, वहीं पकड़ जाता है।
और भी एक मजे की बात है कि जिसे हम मेरा समझ लेते हैं, वह हमारे मैं से आइडेंटिफाइड हो जाता है; उसका तादात्म्य हो जाता है।
समझें, एक व्यक्ति की पत्नी चल बसती है। जब पत्नी मरती है, वह छाती पीटता है, रोता है। तो आप इतना ही मत सोचना कि पत्नी मर गई है, इसलिए रोता है। इसलिए तो रोता ही है, बहुत गहरे में उसके मैं का भी एक खंड मर गया। यह मेरी पत्नी सिर्फ मेरी पत्नी ही न थी; मेरे मैं का भी एक हिस्सा थी । मेरे भीतर के मैं का एक खंड टूट गया, बिखर गया। अब मैं अधूरा हूं कुछ। अब मैं आधा-आधा हूं। इसलिए पत्नी को अगर अर्द्धांगिनी या पति को अगर अर्द्धांग कहने का खयाल रहा है, तो गहरा है।
जब भी मेरा कुछ मिटता है, टूटता है, तभी मैं भी कुछ टूटता और बिखर जाता हूं। थोड़ा एक क्षण को सोचें, आपके पास जो-जो
| चीज ऐसी है, जिसको आप मेरा कहते हैं, अगर वह छीन ली जाए, तो आपके पास कितना मैं बचेगा ? अगर सब छीन ली जाए, तो | आपके मैं की ज्योति बहुत स्टार्ड, भूखी हो जाएगी, जैसे दीए का | सब तेल निकाल लिया। ज्योति रह गई बुझी बुझी । जलती भी है, तो ऐसा लगता है कि अब गई, अब गई! तेल तो सब निकल गया। | जब भी हमारा कुछ मेरा टूटता है, तो भीतर मैं भी टूटता है। क्योंकि | वह मेरा सिर्फ रोशनी ही नहीं है, वह मेरा तेल भी बनता है।
इसलिए आदमी मेरे को बढ़ाता रहता है, ताकि मैं को मजबूत कर ले। जितना बड़ा मकान हो, उतना बड़ा मैं हो जाता है । जितना बड़ा राज्य हो, उतना बड़ा मैं हो जाता है। जितना बड़ा धन हो, उतना | बड़ा मैं हो जाता है। जब धन चला जाता है, तो भीतर मैं भी सिकुड़ | जाता है। तेल खो गया; बाती बुझने लगी। बाती कष्ट में पड़ जाती है। कभी-कभी तो इतने कष्ट में पड़ जाती है कि आदमी जी नहीं सकता, आत्महत्या कर लेता है। तेल बिलकुल नहीं बचता; मरने के सिवाय उपाय नहीं बचता। मर ही जाता है। मेरा गया कि मैं भी मरने की तैयारी जुटा लेता है।
यह जो कृष्ण का कहना है, आसक्तिरहित कर्म करता हुआ... । तब जब कोई आसक्तिरहित कर्म करता है, तो उसका कर्म कैसा है ? उसका कर्म कहीं भी मेरे को निर्माण नहीं करता । उसका जीवन कहीं भी किसी से तादात्म्य स्थापित नहीं करता। वह किसी को नहीं कहता, मेरा । कहीं भी गहरे में उसके भाव मेरे का उठता नहीं। जीता है, मेरे से रहित होकर जीता है। तब जीवन यज्ञ हो जाता है। तब ऐसा कर्म आसक्तिरहित, जीवन को यज्ञ बना देता है। तब पूरा जीवन एक पवित्र हवन हो जाता है।
ऐसा पुरुष, अर्जुन से कृष्ण कहते हैं, फिर सारे बंधन उसके क्षीण हो जाते हैं।
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फिर कोई बंधन का उपाय नहीं रह जाता। क्योंकि बंधन पैदा ही होते हैं मेरे से। बंधन पैदा होते हैं मैं से। मैं से ही जन्मते हैं अंकुर और बनते हैं जंजीरें। मैं के ही आधार पर ढालते हैं हम अपने कारागृह । मैं से ही हम सजा लेते हैं अपने कारागृहों की दीवालों को। लेकिन इससे फर्क नहीं पड़ता। अगर हमने कारागृह की जंजीरों को सोने की भी बना लिया, और अगर हमने कारागृह की दीवालों को सुंदर चित्रों से भी सजा लिया, तो भी कारागृह कारागृह है और हम कैदी हैं।
हम सब अपनी कैद को अपने साथ लेकर चलते हैं। वह मेरे की कैद हमारे साथ चलती रहती है। इसलिए अगर आपको अकेला
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गीता दर्शन भाग-20
जंगल में छोड़ दिया जाए, तो आप थोड़े इम्पावरिश्ड हो जाते हैं, एक पैसा देने में भी इधर-उधर मुंह कर रहे थे, वे सब आस-पास दरिद्र हो जाते हैं, दीन हो जाते हैं।
खड़े हो गए और कहने लगे कि धन्यभाग हमारे कि आपके दर्शन __ मैंने सुना है, एक सम्राट ने अपने बेटे को घर से निकाल दिया। हुए। लेकिन अब वह देख भी नहीं रहा है। अब वह आदमी वह किसी बात पर नाराज हआ और घर से निकालने की आज्ञा दे दी। नहीं है, जो था एक क्षण पहले। सब बदल गया! क्या हो गया? फिर बारह वर्ष बाद; बूढ़ा बाप, एक ही था बेटा; फिर याद लौटने मेरा वापस लौट आया-राज्य, साम्राज्य, सम्राट! अब उसकी लगी। फिर मन के दूसरे हिस्से ने बहुत बार कहा होगा, बहुत बुरा आंखें जमीन की तरफ नहीं देखती हैं। अब जिनके सामने वह हाथ किया। इतना क्या बड़ा अपराध था? इतनी भी क्या बात थी? माफ | जोड़कर खड़ा था और जो उसकी तरफ देख नहीं रहे थे, वे उससे किया जा सकता था। फिर दूसरा हिस्सा मन का लौट आया। वजीरों कह रहे हैं, महाराज! कोई उसके पैर दबा रहा है। लेकिन वह बैठा को भेजा खोजने, कि खोज लाओ।
है। उसकी आंखें आकाश की तरफ देख रही हैं। अब ये बारह साल, वह राजा का लड़का, कुछ जानता तो नहीं था। राजा | कीड़े-मकोड़े हैं। अब ये आदमी नहीं हैं, आस-पास जो खड़े हैं। का लड़का था, जानने का कोई सवाल भी न था। न ठीक से कभी | | थोड़ी देर पहले इनके सामने वह कीड़ा-मकोड़ा था; आदमी नहीं पढ़ा-लिखा था, न कभी कुछ सीखा था। बस, थोड़ा नाच-गाने का | था। अगर इन्होंने एकाध पैसा उसके कटोरे में डाला था, तो सिर्फ जरूर उसे शौक था। तो गांवों में भीख मांगने लगा नाच-गाकर। | इसलिए कि हटो भी, जाओ भी। कोई दया करके नहीं, सिर्फ और कुछ कर नहीं सकता था।
| परेशानी हटाने को। क्या, हो क्या गया? __बारह साल बाद, भरी दोपहर में, सूरज जल रहा है, तेज धूप | अभी मैं बिलकुल बुझा-बुझा था! अब मैं बिलकुल सजग बरसती है आग जैसी, वह नंगे पैर एक साधारण-सी होटल के | होकर, अब पूरी शक्ति से जल रहा है। मेरे की दुनिया वापस लौट सामने अपने टीन के कटोरे को बजाकर गा रहा है और लोगों से | | आई। रथ, राज्य, साम्राज्य-सब वापस आ गया। अब दीए को पैसे मांग रहा है। पैसे मांग रहा है कि पैरों में फफोले पड़ गए हैं। | तेल मिल गया। अब लपट जोर से जल रही है। अब मैं कोई जते की सब नीचे की तली टट गई है. उखड गई है। मझे कछ पैसे साधारण ज्योति न रही: मशाल हो गई। दे दो, तो इस गरमी में...। दस-पांच पैसे उसके कटोरे में पड़े हैं। | कृष्ण कहते हैं, आसक्तिरहित होकर पुरुष जब बर्तता है कर्मों कपड़े वही पुराने हैं, जो बारह साल पहले पहने हुए घर से निकला | | में, तो उसका जीवन यज्ञ हो जाता है—पवित्र। उससे, मैं का जो था। पहचानना बहुत मुश्किल है।
पागलपन है, वह विदा हो जाता है। मेरे का विस्तार गिर जाता है। लेकिन एक वजीर का रथ वहां से गुजरा। रोका उसने रथ को। | आसक्ति का जाल टूट जाता है। तादात्म्य का भाव खो जाता है। चेहरा पहचाना मालूम पड़ा। कपड़े पुराने थे, लेकिन शाही थे। फट | | फिर वह व्यक्ति जैसा भी जीए, वह व्यक्ति जैसा भी चले, फिर वह गए थे, चीथड़े हो गए थे, लेकिन कहीं-कहीं से जरी भी दिखाई व्यक्ति जो भी करे, उस करने, उस जीने, उस होने से कोई बंधन पड़ती थी। उतरा, पास जाकर देखा, चेहरा तो वही था। वजीर पैरों | निर्मित नहीं होते हैं। क्यों? पर गिर पड़ा। कहा, क्षमा करें। पिता ने माफी मांगी है। आपको क्योंकि मैं की टकसाल के अतिरिक्त मनुष्य के बंधन निर्माण का वापस बुलाया है।
कहीं कोई कारखाना नहीं है। क्योंकि ईगो के, अहंकार के अतिरिक्त __ एक क्षण, और वह राजकुमार जैसे मेटामार्कोसिस से गुजर | जंजीरों को ढालने के लिए कोई और फौलाद नहीं है। क्योंकि मैं के गया। सब ट्रांसफार्मेशन हो गया। सब रूपांतरण हो गया। हाथ से | अतिरिक्त मनुष्य को अंधा करने के लिए, गड्ढों में गिराने के लिए उसने फेंक दी वह कटोरी, जिसमें पैसे थे। पैसे सड़क पर बिखर और कोई जहर नहीं है। इसलिए आसक्तिरहित! गए। उसकी आंखों की रोशनी बदल गई। उसके हाथ-पैर का ढंग लेकिन आसक्तिरहित वही होगा, जिसका मेरा खो जाए। मेरा बदल गया। उसकी रीढ़ सीधी हो गई। उसने वजीर से कहा कि उसका खोएगा, जिसका मैं खो जाए। जाओ, पहले स्नान का इंतजाम करो। अच्छे वस्त्र लाओ। जूते । शून्य की तरह ऐसा पुरुष जीता है। शून्य की तरह जीना यज्ञरूपी खरीदो। सारा इंतजाम करो।
| जीवन को उपलब्ध कर लेना है। फिर कोई बंधन निर्मित नहीं होते वह रथ पर जाकर बैठ गया। चारों तरफ भीड़ लग गई। जो उसे
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B मैं मिटा, तो ब्रह्मल
ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हवियाग्नौ ब्रह्मणा हुतम् । उसके पहले यह नहीं दिखाई पड़ेगा। उसके पहले तो यही दिखाई ब्रह्मव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना । । २४ ।। | पडेगा कि मैं ही हं. और बाकी शेष सब मेरा साधन है। मैं ही हं अर्पण अर्थात सुवादिक भी ब्रह्म है, और हवि अर्थात हवन सब कुछ। चांद-तारे मेरे लिए घूमते हैं। अस्तित्व मेरे इर्द-गिर्द करने योग्य द्रव्य भी ब्रह्म है, और ब्रह्मरूप अग्नि में ब्राह्मरूप | चक्कर काटता है। मैं ही हूं सब कुछ, धुरी सारे अस्तित्व की। और कर्ता के द्वारा जो हवन किया गया है, वह भी ब्रह्म ही है, सब मेरा साधन है। इसलिए ब्रह्मरूप कर्म में समाधिस्थ हुए उस पुरुष द्वारा जो जब तक ऐसा दिखाई पड़ता है, जब तक ऐसा ईगोसेंट्रिक विजन प्राप्त होने योग्य है, वह भी ब्रह्म ही है। | है, जब तक ऐसी दृष्टि है अहं-केंद्रित, तब तक यह ब्रह्म की बात
| नितांत व्यर्थ मालूम पड़ेगी। यह सिर्फ शब्दों का जाल मालूम
पड़ेगी। सभी ब्रह्म? नहीं; ऐसा नहीं मालूम पड़ सकता है। यह कब 1 ब, सर्व, जो भी है—कर्म, कर्ता, किया गया; बोला मालूम पड़ेगा? रा गया, सुना गया; देखा गया, दिखाया गया इस पहले सूत्र को ध्यान में रखें, तो यह दूसरा सूत्र खुल सकेगा।
जगत में जो भी है, इस अस्तित्व में जो भी है, कृष्ण | पहले सूत्र को ध्यान में रखें, आसक्तिरहित हुआ जो व्यक्ति है, उसे इस सूत्र में कहते हैं, वह सभी ब्रह्म है। लेकिन ऐसा कब दिखाई | बहुत शीघ्र दिखाई पड़ने लगेगा। उसके डोर्स आफ परसेप्शन, पड़ता है?
उसके देखने के नए द्वार खुल जाएंगे। उसे दिखाई पड़ेगा कि सभी जब तक मैं दिखाई पड़ता है, तब तक ऐसा दिखाई नहीं पड़ता में वही है-सभी में, चारों ओर। कि सभी ब्रह्म है। ऐसा तभी दिखाई पड़ता है, जब मैं दिखाई नहीं अभी तो हम इसे थोड़ा समझने की कोशिश करें। देखने की पड़ता; तभी दिखाई पड़ता है कि सब ब्रह्म है।
| कोशिश तो दुरूह है, समझें। लेकिन समझने को जानना न समझ . दो ही तरह के अनुभव हैं। जिनका अनुभव मैं का अनुभव है, लें। समझ लें, पर इतना भी समझ लें कि यह हमने समझा है, जाना उन्हें कृष्ण का यह वचन सरासर व्यर्थ मालूम पड़ेगा। है भी फिर। | नहीं। जानना तो बहुत दुरूह, बहुत आर्युअस है। लेकिन समझ फिर है भी।
लेना भी बड़ा सौभाग्य है। क्योंकि समझ लें, तो शायद कल जानने . जिनका एक ही अनुभव है, मैं का, और जिनका जगत मैं के की यात्रा पर भी निकल पाएं। लेकिन हम बहत होशियार हैं। हम इर्द-गिर्द बना हुआ एक परकोटा है; जिन्होंने सदा ही मैं को केंद्र समझने को ही ज्ञान समझ लेते हैं। हम समझकर मान लेते हैं कि पर रखकर जीवन को देखा है—ऐसा हम सभी ने देखा है जो बिलकुल ठीक है। ईगोसेंट्रिक हैं, जो अहं-केंद्रित होकर जीए और अनुभव किए हैं, __मेरे पास एक सूफी फकीर को लाया गया। जो लाए थे, उन्होंने उनके लिए कृष्ण का यह वचन सरासर व्यर्थ मालूम पड़ेगा। क्योंकि कहा, इन्हें सब तरफ परमात्मा ही परमात्मा दिखाई पड़ता है। इन्हें कहां है ब्रह्म? कहीं कोई ब्रह्म दिखाई नहीं पड़ता! दिखाई भी नहीं कण-कण में परमात्मा दिखाई पड़ता है। वृक्ष में, पत्थर में, पौधों पड़ेगा। ऐसा व्यक्ति ब्रह्म को देखने के लिए अंधा है। और जिस में, चांद-तारों में, मकानों में सब तरफ इन्हें परमात्मा ही दिखाई चीज के प्रति हम अंधे हैं, उस चीज को हम वापस आंख पाए बिना पड़ता है। मैंने कहा, बहुत शुभ है। इससे ज्यादा शुभ और क्या हो देख नहीं सकते।
सकता है! मैंने उन फकीर से पूछा कि आपने यह देखने का अभ्यास अहंकार अंधापन है ब्रह्म को देखने में।
किया, कि आपको बस दिखाई पड़ता है? उन्होंने कहा, नहीं, मैंने ऐसा कब दिखाई पड़ेगा, सभी कुछ–यज्ञ भी ब्रह्म, हवन की | अभ्यास किया है, वर्षों अभ्यास किया है। वर्षों तक देखने की विधि भी ब्रह्म, हवन में जलती अग्नि भी ब्रह्म, हवन में चढ़ाई गई | कोशिश की, तब दिखाई पड़ा। मैंने कहा, कैसे कोशिश की? तो आहुति भी ब्रह्म, हवन में चढ़ाने वाला भी ब्रह्म, हवन में मंत्र उन्होंने कहा कि बस, मैंने इस तरह का भाव करना शुरू किया। उदघोष करने वाला भी ब्रह्म-ऐसा कब दिखाई पड़ेगा कि सब | वृक्ष के पास खड़ा होता, तो मन में सोचता, ब्रह्म है, परमात्मा है, ब्रह्म है?
प्रभु है। वृक्ष नहीं है, ईश्वर है। सोचता-सोचता, तीस वर्ष मैंने ऐसे यह तब दिखाई पड़ेगा, जब एक अंधापन मैं का टूट जाता है। । | सोचते-सोचते बिताए। तब मुझे अब सब में ब्रह्म दिखाई पड़ता है।
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गीता दर्शन भाग-200
मैंने कहा, एक तीन दिन यह सोचना बंद कर दें। उन्होंने कहा, उससे पानी है, वह दूसरा है, अन्य है। क्या होगा? मैंने कहा, आप तीन दिन बंद करें, फिर हम बात करेंगे। मिट्टी की एक पतली दीवाल घड़े के भीतर के पानी को और नदी
लेकिन दूसरे दिन सुबह वे मुझसे बहुत नाराज हो गए। और के पानी को अलग-अलग करती है। टूट जाए घड़ा, फूट जाए उन्होंने कहा कि आपने मेरी बड़ी हानि कर दी। मैंने रात में ही सोचना घड़ा, पानी बाहर का और भीतर का एक हो जाता है। छोड़ा कि मुझे दीवालें दीवालें दिखाई पड़ने लगी! ब्रह्म दिखाई नहीं | अहंकार की झीनी-सी दीवाल मुझे और ब्रह्म को अलग-अलग पड़ा। यह प्रोजेक्शन, मैंने उनसे कहा, यह प्रोजेक्शन हुआ। | करती है। टूट जाए दीवाल, फूट जाए अहंकार का घड़ा, मैं और __ अहंकार अभ्यास कर सकता है देखने का कि सबमें ब्रह्म है। ब्रह्म एक हो जाते हैं। और तब ही दिखाई पड़ता है कि सभी लेकिन वह अभ्यास सिर्फ एक सपना होगा। अहंकार के रहते | कुछ-तब ऐसा भी दिखाई नहीं पड़ता है कि ब्रह्म कण-कण में हुए-मैं भी हूं और सब में ब्रह्म है, यह नहीं हो सकता। हां, इतना | | है—तब ऐसा दिखाई पड़ता है कि ब्रह्म ही कण-कण है, में भी हो सकता है कि मैं अपने को धोखे में डाल लूं। आटोहिप्नोटाइज | | नहीं। क्योंकि जब हम कहते हैं, कण में ब्रह्म है, तो ऐसा लगता है, कर लूं, सम्मोहित कर लूं कि हां, सब ब्रह्म है। ऐसा मानकर चलने | कण भी अलग है और उसके भीतर ब्रह्म भी कहीं है। लगू कि सब ब्रह्म है। मानता रहूं, मानता रहूं; अपने को धोखा देता नहीं, जब घड़ा टूटता है मैं का, तो ऐसा नहीं दिखाई पड़ता कि रहूं, धोखा देता रहूं, तो एक दिन ऐसी घड़ी आ जाएगी कि मेरे मन | | कण-कण में ब्रह्म है। ऐसा दिखाई पड़ता है कि कण-कण और ब्रह्म का ही जाल चारों तरफ फैल जाएगा और मुझे दिखाई पड़ेगा, सब | | एक ही चीज के दो नाम हैं। अस्तित्व और ब्रह्म एक ही चीज के दो ब्रह्म है। लेकिन वह मन का ही जाल होगा। वह ब्रह्म का अनुभव | | नाम हैं। फिर ऐसा कहना भी अच्छा नहीं मालूम पड़ता है कि ईश्वर न होगा। वह अहंकार का ही धोखा और डिसेप्शन होगा। वह ब्रह्म है। फिर तो ऐसा ही कहना अच्छा मालूम पड़ता है कि है और का अनुभव न होगा।
| ईश्वर, एक ही बात है। जो है, वह ईश्वर ही है। अस्तित्व ही ब्रह्म ब्रह्म का अनुभव अभ्यास से नहीं मिलता है। ब्रह्म का अनुभव है, अस्तित्व ही! अहंकार के विसर्जन से मिलता है। इस बात को ठीक से खयाल में ऐसी प्रतीति के लिए भीतर से मैं की दीवाल का टूट जाना जरूरी ले लेंगे। ब्रह्म का अनुभव अहंकार के अभ्यास से नहीं मिलता, है। बहुत बारीक है दीवाल, ट्रांसपैरेंट भी है, पारदर्शी है, इसलिए ब्रह्म का अनुभव अहंकार के विसर्जन के अभ्यास से मिलता है। पता भी नहीं चलता। यह बहुत मजे की बात है।
अहंकार खो जाए, में न रह जाऊं, तो जो रह जाएगा, वह ब्रह्म अगर पत्थर की दीवाल हो, ट्रांसपैरेंट न हो, आर-पार दिखाई मालूम पड़ेगा। मैं रहूं, और जो दिखाई पड़ता है, उस पर ब्रह्म को | | न पड़ता हो, तो दीवाल का पता चलता है। अगर आप कांच की आरोपित करूं, इम्पोज करूं, तो धीरे-धीरे ऐसा हो जाएगा कि मुझे | | दीवाल बनाएं, ट्रांसपैरेंट हो, तो पता भी नहीं चलता है कि दीवाल ब्रह्म दिखाई पड़ने लगे। लेकिन वह ब्रह्म, ब्रह्म नहीं, मेरा ही भ्रम | है; क्योंकि आर-पार दिखाई पड़ता है। है। वह ब्रह्म, ब्रह्म का अनुभव नहीं, मेरी ही कल्पना का फैलाव |
| इसलिए मैं की दीवाल अगर पत्थर जैसी सख्त होती. तब तो हमें है। वह फैलाया जा सकता है।
आर-पार दिखाई ही न पड़ता; हम अपने मैं के भीतर बंद हो जाते इस सूत्र में ध्यान रख लेना जरूरी है कि जब कृष्ण कहते हैं, | | और सारी दुनिया बाहर बंद हो जाती, आर-पार कोई संबंध ही न सभी कुछ ब्रह्म हो जाता है, ऐसे व्यक्ति को, ऐसे पुरुष को, ऐसी रहता। लेकिन मैं की दीवाल ट्रांसपैरेंट है, पारदर्शी है; कांच की चेतना को सभी कुछ ब्रह्म हो जाता है। कब? जब उस मैं की ज्योति । दीवाल है। आर-पार साफ दिखाई पड़ता है। इसलिए खयाल ही बुझ जाती है, जब उस मैं का दीया टूट जाता है। तब उपाय नहीं नहीं आता कि बीच में कोई दीवाल है। रहता कुछ और का, वही बच रहता है।
कांच के पास खड़े हैं। बाहर का सब दिखाई पड़ रहा है। सूरज ठीक वैसे ही, जैसे एक घड़ा है। पानी से भरा है, नदी में चल | दिखाई पड़ता है। चांद-तारे दिखाई पड़ते हैं। कांच की दीवाल दिखाई रहा है। नदी में तैर रहा है, पानी से भरा हुआ घड़ा। उस पानी से | नहीं पड़ती। ऐसी कांच की दीवाल है। लेकिन है। प्रमाण क्या है कि भरे हए घडे को भी ऐसा नहीं मालम पडता कि जो पानी भीतर है. है? प्रमाण यही है कि मैं आपसे अलग मालम पडता है। जहां वही बाहर है। घड़ा कहता है, यह मेरा पानी है। बाहर जो नदी का | अलगपन का बोध हो रहा है, वहां बीच में कोई दीवाल है, कोई
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7 मैं मिटा, तो ब्रह्म
फासला है, कोई डिस्टेंस है, वह दिखाई पड़े या न दिखाई पड़े। हम बाहर वही देखते हैं, जो हमारे भीतर है। हम बाहर वही
कृष्ण के इस सूत्र में डिस्टेंसलेस, दूरीरहित हो जाने का खयाल | खोजते हैं, जो हमारे भीतर है। चोर चोर को खोज लेता है। बेईमान है। कोई दूसरा नहीं है, वही है। जिस क्षण ऐसा दिखाई पड़ता है | बेईमान को खोज लेता है। साधु साधु को खोज लेता है। एक ही कि वही है, एक ही है, उस क्षण कैसा बंधन? फिर जंजीर भी वही | गांव में आज रात कई यात्री उतरेंगे। कोई वेश्यालय को खोज लेगा, है। उस क्षण कैसा शत्रु? फिर शत्रु भी वही है। उस क्षण कैसा कोई मंदिर को खोज लेगा—उसी गांव में! हम वही खोज लेते हैं, दुख ? फिर दुख भी वही है। उस क्षण कैसी बीमारी? फिर बीमारी | जो हम हैं। भी वही है।
सुना है मैंने, एक रात एक फकीर के घर में एक चोर घुस गया। सुना है मैंने, एक सूफी फकीर के हृदय में नासूर हो गया। गहरा आधी रात थी। सोचा, सो गया होगा फकीर। भीतर गया, तो हैरान घाव। उसमें कीड़े पड़ गए। जिंदगीभर वह नमाज पढ़ने मस्जिद में हुआ। मिट्टी का छोटा-सा दीया जलाकर फकीर कुछ चिट्ठी-पत्री जाता रहा; लेकिन जब से उसके इस घाव में कीड़े पड़े, उसने नमाज लिखता था। घबड़ा गया चोर। छुरा बाहर निकाल लिया। फकीर ने पढ़नी बंद कर दी। पास-पड़ोस के लोगों ने कहा, क्या काफिर हुए ऊपर देखा और कहा कि छुरा भीतर रखो। शायद ही कोई जरूरत जा रहे हो? क्या आखिरी वक्त में अपनी जिंदगी खराब करनी है? पड़े। फिर कहा कि थोड़ा बैठ जाओ, मैं चिट्ठी पूरी कर लूं, फिर दोजख में जाना है? नर्क में पड़ना है? जिंदगीभर पुकारा परमात्मा तुम्हारा क्या काम है, उस पर ध्यान दूं। ऐसी बात, कि चोर भी को, अब नमाज क्यों नहीं पढ़ते हो?
घबड़ाकर बैठ गया! उस फकीर ने कहा, पढ़ता हूं अब भी। लेकिन अब झुक नहीं चिट्ठी पूरी की। फकीर ने पूछा, कैसे आए? सच-सच बता दो। सकता हूं, इसलिए मस्जिद नहीं आता। क्योंकि नमाज में झुकना | | ज्यादा बातचीत में समय खराब मत करना; अब मेरे सोने का वक्त पड़ेगा। उन्होंने कहा, पागल! नमाज बिना झुके होगी कैसे? और | | हुआ। उस चोर ने कहा, अजीब हैं आदमी आप! देखते नहीं, छुरा झुकने में एतराज क्या है? उस फकीर ने कहा, झुकता हूं, तो ये जो | हाथ में लिए हूं। आधी रात आया हूं। काले पकड़े पहने हूं। चोरी मेरे घाव में कीड़े पड़ गए हैं, ये नीचे गिर जाते हैं। फिर इनको | | करने आया हूं! फकीर ने कहा, ठीक। लेकिन गलत जगह चुनी। उठाकर रखना पड़ता है। कभी-कभी किसी को चोट भी लग जाती | और अगर यहां चोरी करने आना था, तो भलेमानस, पहले खबर है। और कभी-कभी कोई मर जाए। उन्होंने कहा, तुम कैसे पागल | | भी तो कर देते; हम कुछ इंतजाम करते। यहां चुराओगे क्या? हो! इन कीड़ों के लिए इतने परेशान क्यों हो? उस फकीर ने कहा, | मुश्किल में डाल दिया मुझे आधी रात आकर। और इतनी दूर आ कीड़ों के लिए नहीं, अपने लिए ही परेशान हूं। वे भी मैं ही हूं। | गए, खाली हाथ जाओगे, यह भी तो बदनामी होगी। और पहला जिसकी नमाज पढ़ रहा हूं, जो नमाज पढ़ रहा है, नमाज में जो कीड़े | ही मौका है कि मेरे घर भी किसी चोर ने ध्यान दिया। आज हमको गिर जाएं और मर जाएं, वे तीनों अलग-अलग नहीं हैं।
भी लगा कि हम भी कुछ हैं। कभी कोई आता ही नहीं इस तरफ। ऐसी प्रतीति हो, तो ही खयाल आ सकता है इस सूत्र का, कि | | तो ठहरो, मैं जरा खोजूं। कभी-कभी कोई-कोई कुछ भेंट कर जाता इस सूत्र का क्या अर्थ है। इस सूत्र का अर्थ है कि एक ही का | है। कहीं कुछ पड़ा हो, तो मिल जाए। विस्तार है। दो की भ्रांति है; एक का विस्तार है।
दस रुपए कहीं मिल गए। उस फकीर ने उसको दिए और कहा इस सूत्र को कृष्ण ने द्वंद्व के अतीत होने के बाद क्यों कहा है? कि यह तुम ले जाओ। रात बाहर बहुत सर्द है। अपने शरीर पर जो इसीलिए कहा है कि जब तक भीतर का द्वंद्व न मिटे, तब तक बाहर कंबल था, वह भी उसे दे दिया। वह चोर बहुत घबड़ाया! उसने का द्वंद्व भी नहीं मिट सकता। इसलिए पहले कहा कि द्वंद्वातीत हो कहा, आप बिलकुल नग्न हो गए! रात सर्द है। फकीर ने कहा, मैं जाता है जो पुरुष; फिर कहते हैं, सब ब्रह्म हो जाता है। | तो झोपड़े के भीतर हूं। लेकिन तुझे तो दो मील रास्ता भी पार करना
भीतर का दंद्र टट जाए. भीतर के मन के दो खंड मिट जाएं. एक | पड़ेगा। और रुपयों से तो कपड़े अभी मिल नहीं सकते। रुपयों से हो जाए भीतर, तो बाहर भी ज्यादा दिन दो नहीं रहेंगे। भीतर का | तन ढंक नहीं सकता। तो यह कंबल ले जा। फिर मैं तो भीतर है। एक बाहर के एक को खोज लेगा। भीतर के दो बाहर भी दो को | और फिर कब! इस गरीब की झोपड़ी पर कोई कभी चोरी करने निर्मित कर देते हैं।
आया नहीं। तूने हमें अमीर होने का सौभाग्य दिया। अब हम भी
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गीता दर्शन भाग-20
कह सकते हैं किसी से कि हमारे घर भी चोरों का ध्यान है! तू जा। | | रहा सदा। और जब तक मेरे सिर में दर्द रहा, मैं नास्तिक थी। मुझे मजे से जा। हम बड़े खुश हैं!
ईश्वर पर भरोसा न आया। पर यह कभी खयाल न आया कि चोर चला गया। फकीर अपनी खिड़की पर बैठा हुआ उसे देखता | सिरदर्द भी मेरी नास्तिकता का कारण हो सकता है। यह तो जब मेरा रहा। ऊपर आकाश में चांद निकला है पूर्णिमा का। आधी रात। | | सिरदर्द ठीक हो गया और मैं स्वस्थ हुई, तब धीरे-धीरे मैंने पाया चारों तरफ चांदनी बरस रही है। उस रात उस फकीर ने एक गीत | | कि मेरी नास्तिकता चली गई और मैं आस्तिक हो गई! तब मुझे लिखा और उस गीत की पंक्तियां बड़ी अदभुत हैं। उस गीत में उसने खयाल में आया कि वह सिरदर्द ही मेरी नास्तिकता का कारण था। लिखा कि चांद बहुत प्यारा है! बेचारा गरीब चोर! अगर मैं यह चांद भीतर सिर में दर्द बना रहे चौबीस घंटे, तो बाहर परमात्मा दिखाई भी उसे भेंट कर सकता! लेकिन अपनी सामर्थ्य के बाहर है। यह पड़ना मुश्किल हो जाता है। जब भीतर पीड़ा हो, तो बाहर पीड़ा चांद भी काश, मैं उस चोर को भेंट कर सकता! बेचारा गरीब चोर! | दिखाई पड़ने लगती है। जब भीतर असंतोष हो, तो बाहर असंतोष लेकिन अपनी सामर्थ्य के बाहर है।
दिखाई पड़ने लगता है। फिर वह चोर पकड़ा गया—कभी, कुछ महीनों बाद। अदालत भीतर जो है, वही बाहर प्रतिफलित होकर फैल जाता है। संसार ने इस फकीर को भी पूछा बुलाकर कि इसने चोरी की? फकीर ने हमारा ही बड़ा फैलाव है; हम ही जैसे बड़े मैग्नीफाइंग ग्लास से कहा कि नहीं। क्योंकि जब मैंने इसे दस रुपए भेंट किए, तो इसने | देखे गए हों। जैसे हमको ही बहुत बड़ा करके देखा गया हो। संसार धन्यवाद दिया। और जब मैंने इसे कंबल दिया, तो इसने मुझे बहुत | - हमारा ही बड़ा फैलाव है। मनाया कि आप ही रखिए; रात बहुत सर्द है। यह आदमी बहुत | जब तक भीतर द्वंद्व है, डुएलिटी है, तब तक संसार में भी द्वंद्व भला है। वह तो मैंने ही इसे मजबूर किया, तब बामुश्किल, बड़े है। तब तक पदार्थ भी अलग दिखाई पड़ेगा, आत्मा भी अलग संकोच में यह कंबल ले गया था।
दिखाई पड़ेगी। तब तक सब चीजों में द्वंद्व दिखाई पड़ेगा। तब तक फिर उसको दो साल की सजा हो गई। कुछ और चोरियां भी थीं। । | ब्रह्म दिखाई नहीं पड़ सकता। क्योंकि ब्रह्म अद्वंद्व, अद्वैत, दुई-मुक्त फिर सजा के बाद छुटा, तो सीधा भागा हआ उस फकीर के चरणों अनुभव है। में आया। उसके चरणों में गिर पड़ा कि तुम पहले आदमी हो, भीतर द्वंद्व मिट जाए...। इसलिए कृष्ण ने पहले सूत्र में कहा, जिसने मुझसे आदमी की तरह व्यवहार किया। अब मैं तुम्हारे चरणों द्वंद्वातीत होता जो पुरुष, और अब इस सूत्र में कहते हैं, सब कुछ में हूं। अब तुम मुझे आदमी बनाओ। तुमने व्यवहार मुझसे पहले | ब्रह्म हो जाता है। और जब सब ब्रह्म हो जाता है, तो जीवन की जो कर दिया आदमी जैसा, अब मुझे आदमी बनाओ भी। उस फकीर | | परम निधि है, वह उपलब्ध हो जाती है। ने कहा, और मैं कर भी क्या सकता था?
एक अंतिम श्लोक और। जो हमारे भीतर होता है, वही दिखाई पड़ता है।
अगर फकीर के भीतर जरा भी चोर होता, तो वह पुलिस वाले को चिल्लाता। पास-पड़ोस में चिल्लाहट मचा देता कि चोर घुस प्रश्नः भगवान श्री, पिछले श्लोक के काव्य, 'ब्रह्मरूपी गया। लेकिन फकीर के भीतर अब कोई चोर नहीं है। तो मकान में कर्म में समाधिस्थ व्यक्ति' का क्या अर्थ है। चोर भी आ जाए, तो भी चोर नहीं मालूम पड़ता, दुश्मन नहीं मालूम पड़ता; मित्र ही मालूम पड़ता है।
हमारे भीतर जो है, वही हमें बाहर दिखाई पड़ने लगता है। भीतर | ग ह आखिरी बात ले लें, श्लोक कल सुबह लेंगे। अगर द्वंद्व है, तो बाहर भी द्वंद्व दिखाई पड़ने लगता है।
4 ब्रह्मरूपी कर्म में समाधिस्थ व्यक्ति! .. सिमन वेल ने—पश्चिम की एक बहुत विचारशील महिला, जब सब ओर ब्रह्म ही रह जाता है, कर्ता भी ब्रह्म हो अभी-अभी कुछ वर्षों पहले मरी; कम उम्र में मर गई। पर उस छोटी | जाता है फिर, फिर कर्म भी ब्रह्म हो जाता है। जब सब ओर ब्रह्म ही - उम्र में भी उसने बहुत कीमत की बातें लिखीं। उनमें उसने एक | है, तो मैं श्वास लेता हूं, तो भी ब्रह्म ही भीतर जाता है; श्वास कीमती बात लिखी कि मेरी तीस साल की उम्र तक मेरे सिर में दर्द | छोड़ता हूं, तो ब्रह्म ही बाहर जाता है। जन्मता हूं, तो ब्रह्म ही
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मैं मिटा, तो ब्रह्म
जन्मता; विदा होता हूं जीवन से, तो ब्रह्म ही विदा होता। लहर का उठना भी वही, लहर का गिरना भी वही । जागता हूं, तो ब्रह्म जागता है; सोता हूं, तो ब्रह्म सोता है। खाता हूं, तो ब्रह्म खाता, और ब्रह्म कोही । भजता हूं, तो ब्रह्म भजता, और ब्रह्म को ही । जब ब्रह्म ही सब कुछ है, एक ही अस्तित्व सब कुछ है, तो सभी कर्म ब्रह्म की ही तरंगें हो जाते हैं।
ब्रह्मरूपी कर्म में समाधिस्थ !
फिर ऐसे व्यक्ति को, जो इतने कर्म में भी लगा रहे, फिर भी भीतर समाधिस्थ रहता है; क्योंकि कर्म अब ब्रह्मरूपी हुए। अब वह श्वास भी लेता है, तो उसी की । भोजन भी करता है तो उसी का। उठता, तो वही । बैठता, तो वही। अब जब सभी ब्रह्मरूपी हो जाता, तो समाधि नहीं तो और क्या होगा? बीच में समाधि खड़ी हो जाती है।
जब सभी ब्रह्म है, तो चिंता तो मिट जाती। जब सभी ब्रह्म है, तो असुरक्षा तो मिट जाती। जब सभी ब्रह्म है, तो भय तो मिट जाता। जब सभी ब्रह्म, है, तो सारा तनाव जाता। तब सारे काम होते, जैसे हवाएं बहतीं – ऐसे; जैसे पानी बहता – ऐसे; जैसे आकाश में बादल चलते - ऐसे | जैसे वृक्षों में फूल खिलते-ऐसे, सब कर्म सहज होते हैं। करने नहीं पड़ते; ब्रह्म ही कराता है। और इसके बीच में, वह जो पुरुष ऐसे अनुभव में होता है, समाधिस्थ हो जाता है। समाधिस्थ का अर्थ ?
समाधि शब्द बड़ा कीमती है। बना है वह उसी से, जिससे बनता है समाधान । ऐसा पुरुष समाधिस्थ हो जाता है अर्थात समाधान को उपलब्ध हो जाता है। उसके जीवन में कोई समस्या नहीं रह जाती, कोई प्राब्लम नहीं रह जाता। उसके जीवन में कोई प्रश्न नहीं रह जाता। उसके जीवन में कोई उलझन नहीं रह जाती। सुलझ जाता है।
समाधिस्थ हो जाता है अर्थात समाधान को उपलब्ध हो जाता है, सुलझ जाता है। उसके जीवन में कुछ भी पूछने योग्य, खोजने योग्य, जानने योग्य, पाने योग्य, कोई भी प्रश्न नहीं रह जाता है। निष्प्रश्न हो जाता है।
ब्रह्म को सब ओर जो अनुभव करता है, वह ब्रह्म के साथ एक हो जाता है । और ब्रह्म जैसी गहरी समाधि में है, ऐसी ही गहरी समाधि में वह भी खो जाता है।
कभी छोटे-छोटे प्रयोग करें, तो खयाल में आ जाए। कभी जमीन पर लेट जाएं किसी बगीचे के एकांत में जाकर । आंखें न झपकें। पलकें खुली रखें, अपलक। आकाश को देखते रहें एकटक । बिना
आंख झपके, सिर्फ विराट आकाश को देखते रहें थोड़ी देर । और आप एक अदभुत अनुभव से गुजरेंगे। जब बिना आंखें झपके आकाश को देखते रहेंगे, देखते रहेंगे, थोड़ी देर में आप पाएंगे, आपके भीतर भी आकाश है; बाहर भी आकाश है। और थोड़े | गहरे देखते रहेंगे, तो पाएंगे कि भीतर और बाहर एक ही, आकाश ही आकाश है। और तब परम विश्राम और परम समाधानका अनुभव होगा।
यह छोटा-सा मैं कह रहा हूं। आकाश उतना बड़ा नहीं है, जितना ब्रह्म ।
जब कोई व्यक्ति अपने बाहर सब तरफ ब्रह्म को ही देखता है; जैसे आपने थोड़ी देर आकाश को देखा, ऐसा जब कोई प्रतिपल चारों ओर ब्रह्म को ही देखता है, तो बाहर भी ब्रह्म और भीतर भी ब्रह्म; और दोनों के बीच बड़ा सुर-संगीत निर्मित हो जाता है। दोनों के बीच बड़ा तालमेल है, दोनों के बीच बड़ी ट्यूनिंग है।
आर.डब्लू.टाइन ने एक छोटी-सी किताब लिखी है। उसका नाम है, इन ट्यून विद दि इनफिनिट- - अनंत के साथ एकरस,
एकतान बद्ध । कभी आकाश के साथ प्रयोग करें; छोटा प्रयोग है। परमात्मा, ब्रह्म बड़ा आकाश है, विराट आकाश है। लेकिन एक बड़ा विराट | आकाश - हमारे अनुभव के लिए तो बहुत विराट - हमारे ऊपर छाया हुआ है, छत की भांति । कभी उसके नीचे लेट जाएं सीधे । सब भूल जाएं। आकाश को देखते रहें। आंख बंद न करें, अपलक देखते रहें। आंसू बहें, बहने दें। आकाश को देखते रहें। थोड़ी ही देर में पाएंगे, भीतर भी आकाश समा गया। और जब दोनों तरफ आकाश होंगे, तो दोनों आकाश की वार्ता शुरू हो जाएगी, डायलाग शुरू हो जाएगा। इन ट्यून विद दि इनफिनिट और तब एक सुर संगम बजने | लगेगा। दोनों के बीच एक संगीत का आदान-प्रदान शुरू हो | जाएगा। और एक समाधान की झलक मिलेगी।
वह झलक बड़ी छोटी है— तिनके जैसी है, एक बूंद जैसी है। कृष्ण जिस झलक की बात कह रहे हैं, वह विराट सागर जैसी है। लेकिन इससे भी रस का पता चलेगा कि जब किसी व्यक्ति को सारा जगत ब्रह्म हो जाता है, तो उसके भीतर भी ब्रह्म पूरा का पूरा खड़ा हो जाता है । फिर इन दोनों, बाहर और भीतर के बीच, सुर-तान एक हो जाती है। फिर दोनों मिट जाते हैं। बाहर-भीतर का बोध मिट जाता है। फिर एक ही रह जाता है। उस एक के अनुभव का नाम समाधि है।
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गीता दर्शन भाग-26
शेष कल सुबह। अभी पांच मिनट कीर्तन और नृत्य संन्यासी करेंगे। साथ हों उनके नाचें भी। ताली बजाएं। उनको प्रोत्साहन भी दें। और उसके बाद, पांच मिनट के बाद फिर हम यहां से विदा हो जाएंगे।
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अध्याय 4 नौवां प्रवचन
यज्ञ का रहस्य
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गीता दर्शन भाग-20
दैवमेवापरे यज्ञं योगिनः पर्युपासते। __ जो गहरे देख पाता है, उसे मील का पत्थर रोकता नहीं, बढ़ाता ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति । । २५।। | है। जो गहरे नहीं देख पाता, वह मील के पत्थर पर रुक जाता है और दूसरे योगीजन देवताओं के पूजनरूप यज्ञ को ही | और बैठ जाता है। अच्छी प्रकार उपासते हैं अर्थात करते हैं और दूसरे ज्ञानीजन | मील का पत्थर बोल नहीं सकता। प्रतीक गूंगे हैं, बोल नहीं परब्रह्म परमात्मा रूप अग्नि में यज्ञ के द्वारा ही यज्ञ को | सकते। जो समझ पाए, समझ पाए। न समझ पाए, न समझ पाए। हवन करते हैं।
धर्म को बहुत-से प्रतीक खोजने पड़े, उस अनुभव को बताने के | लिए, जो पारलौकिक है। दो-चार प्रतीक मैं आपको खयाल में दं,
तो यज्ञ का प्रतीक भी समझ में आ सके। और तब यह भी समझ म ज्ञ के संबंध में थोड़ा-सा समझ लेना आवश्यक है। | | में आ सके कि यज्ञ के साथ भी मील के पत्थर का प्रयोग हो गया 4 धर्म अदृश्य से संबंधित है। धर्म आत्यंतिक से संबंधित है। कुछ लोग प्रतीक को पकड़कर मील के पत्थर पर ही बैठ गए
है। पाल टिलिक ने कहा है, दि अल्टिमेट कंसर्न।। | हैं। वे आग जला रहे हैं, घी डाल रहे हैं, गेहूं फेंक रहे हैं और आत्यंतिक, जो अंतिम है जीवन में-गहरे से गहरा, ऊंचे से | | सोच रहे हैं, काम का अंत हुआ! सोच रहे हैं, बात पूरी हुई। यज्ञ ऊंचा-उससे संबंधित है। जीवन के अनुभव के जो शिखर हैं, | के प्रतीक का यह अवरोध की तरह उपयोग हुआ। यह प्रतीक अब्राहिम मैसलो जिन्हें पीक एक्सपीरिएंस कहता है, शिखर | गतिमान भी हो सकता है, डायनेमिक हो सकता है, गत्यात्मक हो अनुभव, धर्म उनसे संबंधित है।
सकता है, आगे ले जा सकता है; लेकिन उन्हीं को, जो इस प्रतीक __स्वभावतः, गहन अनुभव जब अभिव्यक्त किया जाए, तो | में गहरे समझने के लिए चेष्टा करें। कठिनाई होती है। उस अनुभव के लिए हमारी जिंदगी में न तो कोई | | मनुष्य के अनुभव में अग्नि गहरा प्रतीक बन सकती है। क्योंकि शब्द होते हैं। उस अनुभव के लिए हमारे व्यवहार में प्रतीक खोजने | | अग्नि में कुछ खूबियां हैं। पहली खूबी तो यह है कि अग्नि की भी कठिन हो जाते हैं। ठीक-ठीक समानांतर शब्दों की कोई | | लपट सदा ही ऊपर की तरफ दौड़ती है। सदा ही। अग्नि की लपट संभावना नहीं है। इसलिए धर्म मेटाफोरिक हो जाता है; इसलिए | सदा ही ऊपर की तरफ दौड़ती है, ऊर्ध्वगामी है। जैसे ही मनुष्य की धर्म प्रतीकात्मक, संकेतात्मक, सिंबालिक हो जाता है। वह जो चेतना धार्मिक होनी शुरू होती है, ऊर्ध्वगामी हो जाती है, ऊपर की आत्यंतिक अनुभव है, उसे पृथ्वी की भाषा में प्रकट करने के लिए | तरफ दौड़ने लगती है। इसलिए बहुत प्रारंभ में ही यह खयाल आ रूपक, प्रतीक और संकेत चुनने पड़ते हैं, निर्मित करने पड़ते हैं। | गया कि अग्नि प्रतीक बन सकती है भीतर की चेतना के ऊर्ध्वगमन
वे ही संकेत अभिव्यक्ति भी लाते हैं, वे ही संकेत अंत में का, ऊपर उठने का। अवरोध भी बन जाते हैं। अभिव्यक्ति उनके लिए बनते हैं वे संकेत, | | दूसरी खूबी अग्नि की यह है कि अग्नि में कुछ भी अशुद्ध हो, जो उन संकेतों पर रुकते नहीं; इशारों को पकड़ते नहीं, पार निकल | तो जल जाता है। सोने को डाल दें, अशुद्ध जल जाता है, शुद्ध जाते हैं। और जो उन इशारों को पकड़कर रुक जाते हैं, उनके लिए। निखरकर बाहर आ जाता है। जिन्होंने धर्म की चेतना की ज्योति का अवरोध हो जाते हैं।
| अनुभव किया, उनको भी पता लगा कि उस ज्योति में, जो भी मील का पत्थर लगा है। तीर का निशान बना है। जो उस मील अशद्ध है, वह जल जाता है और जो शद्ध है, वह निखर आता के पत्थर के पास ही मंजिल को समझकर रुक जाता है, वह मील | है। अग्नि और भी गहरा प्रतीक बन गई धर्म का। का पत्थर उसके लिए अवरोध हो गया। इससे तो अच्छा होता कि | फिर तीसरी अग्नि की खूबी है कि लपट थोड़ी दूर तक ही दिखाई रास्ते पर कोई मील के पत्थर न होते। उसे रुकने की कोई जगह न | | पड़ती है, फिर अदृश्य में खो जाती है। जरा दिखी, और खोई। मिलती। वह मंजिल तक पहुंच जाता। लेकिन मील के पत्थर लगाने | जिनको भी चेतन के ऊर्ध्वगमन का अनुभव हुआ है, वे जानते हैं वाले ने चलने के सहारे के लिए मील के पत्थर लगाए। और वह | कि थोड़ी दूर तक ही पता चलता कि मैं हूं, फिर मैं होने का पता नहीं जो तीर का निशान है, वह कहता है कि आगे, और आगे। यहां | चलता; फिर तो ब्रह्म में लीन हो जाता सब। जरा-सी झलक अपने नहीं रुक जाना है।
| होने की, और फिर सर्व के होने में खो जाता है। इसलिए अग्नि और
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ॐ यज्ञ का रहस्य
भी गहरा प्रतीक बन गई। लपट झलकी भी नहीं, और खोई। ऊपर की उठती हुई लपटें, रोज सुबह दी गई आहुति, पढ़े गए उठी भी नहीं, और ब्रह्म के साथ एक हुई।
मंत्र-रिमेंबरिंग हैं, गांठ हैं। और जिनको उन प्रतीकों का अर्थ पता सागर में गिर जाए बूंद, खोजनी बहुत कठिन है, लेकिन फिर भी था, उनके लिए वह सिर्फ अग्नि न थी, वह चेतना की लपट थी। कंसीवेबल है कि हम खोज लें। आखिर बूंद कहीं तो है ही। सागर जिन्हें प्रतीकों का अर्थ पता था, उनके लिए डाली गई आहुति गेहूं नहीं में गिर जाए बूंद, खोजनी कठिन है कि हम उस बूंद को फिर से पा था, घी नहीं था, जीवन था। वे प्रतीक थे; गांठ की तरह प्रतीक थे। लें, लेकिन फिर भी अकल्पनीय नहीं है। सोच तो सकते ही हैं कि फिर खो जाते हैं सब प्रतीक। जड़ चीजें हाथ में रह जाती हैं। फिर बूंद कहीं तो होगी ही। कोई न कोई उपाय खोजा जा सकता है कि पागलों की तरह अग्नि जलती रहती, उसमें लोग गेहूं और घी और वापस खोज लें। लेकिन अग्नि की लपट खो जाए आकाश में, तो कुछ-कुछ डालते रहते। और कंठस्थ किए हुए सूत्रों को दोहराए कंसीवेबल भी नहीं है कि हम उसे वापस पा लें।
जाते! जो दोहराने वाले होते हैं, वे भी खरीदे गए होते हैं। हर यज्ञ जो खो गया ब्रह्म में, वह प्वाइंट आफ नो रिटर्न पर पहुंच जाता | | के पीछे झगड़ा होता है, किस ब्राह्मण को ज्यादा मिल गया, किसको है। वह वापस नहीं लौट सकता। वहां से वापसी नहीं है। इसलिए | कम मिल गया; क्या हुआ, क्या नहीं हुआ! किसकी फीस कितनी! अग्नि का प्रतीक गहरा प्रतीक बन गया। और जब पहली बार अग्नि | ___ फीस के लिए कहीं यज्ञ किए जा सकते हैं? शुल्क लेकर कहीं यज्ञ बनी, तो मेटाफर थी, सूचक थी। ऋषियों के आश्रम में जलती | | धर्म की तरफ इशारे किए जा सकते हैं? धंधा बनाया जा सकता है ही रहती सदा। यज्ञ की ज्योति बढ़ती ही रहती सदा आकाश की | | धर्म को? जब धर्म धंधा बन जाता है, तब धर्म नहीं रह जाता। धंधे तरफ। आस-पास से निकलते हुए साधक निरंतर स्मरण कर पाते | | को तो धर्म बनाया जा सकता है; धर्म को धंधा नहीं बनाया जा उस लपट से, रिमेंबर कर पाते, भीतर की लपट को निरंतर ऊपर | सकता। लेकिन हुआ उलटा है। धंधे को तो धर्म कोई नहीं बनाता; उठाने का।
धर्म को बहुत लोग धंधा बना लेते हैं। उस अग्नि में जो भी आहुति डाली जाती, उस अग्नि में जो भी | ___ यह कृष्ण जिस यज्ञ की बात कर रहे हैं, वह प्रतीकात्मक है। तब डाला जाता, वह सब प्रतीक था अपने को डालने का, स्वयं को | | पूरा जीवन ही यज्ञ है। तब पूरा जीवन ही यज्ञ है। और यह स्मरण डालने का। अपने को निरंतर डालते रहना है यज्ञरूपी अग्नि में। वे | आ जाए, तो समस्त कर्म यज्ञ हैं। तब समस्त जीवन आहुति है। तब सब प्रतीक थे। उन प्रतीकों को निरंतर उपस्थित रखना अर्थपूर्ण था। | | स्वयं को बना लेना है हवन का कुंड; सब समर्पित कर देना है उस
अर्थपूर्ण ऐसे ही, जैसे एक आदमी बाजार जाए; कुछ लाना है | | कुंड में। डाल देना है स्वयं को; जला देना है स्वयं को। जल जाए खरीदकर। भूल न जाए, तो कुर्ते के छोर में गांठ लगा लेता है। अहंकार। बाजार में दिन में दस बार गांठ पर नजर जाती है, खयाल आ जाता __पूछ सकेंगे, पूछने का मन होगा कि गेहूं जैसी चीज क्यों डाली है, कुछ लाना है। गांठ से कोई संबंध नहीं है लाने का। बिना गांठ गई? के भी लाया जा सकता है। लेकिन गांठ स्मरण के लिए आधार बन ___ वह भी वैसा ही प्रतीक है, जैसी अग्नि। गेहूं है बीज। छिपा है सकती है। चुभती रहेगी; खयाल बनाए रखेगी, कुछ लाना है। सब उसमें, अभी प्रकट नहीं हुआ। अब इस बीज को जमीन में बो स्मृति को जगाए रखेगी। दिन में पच्चीस बार, हजार काम में डूबे दें, तो प्रकट होगा; अंकुर निकलेगा; वृक्ष बनेगा। और एक बीज हए जब भी नजर जाएगी कर्ते की गांठ पर. खयाल आएगा. कछ करोड बीज बन जाएगा। लाना है। सांझ होते तक भूलना मुश्किल होगा। सांझ होते-होते जब गेहूं को डालते हैं यज्ञ में, तो प्रतीक है इस बात का कि तक भूलना मुश्किल होगा। सांझ घर जो लाना है, लेकर आदमी | अहंकार जब बीजरूप हो, तभी डाल देना। उसको बो मत देना लौट आएगा। गांठ के बिना भूलना हो सकता था। गांठ के साथ | जमीन में। अन्यथा अहंकार में अंकुर आ जाएंगे। हर अंकुर में भूलना मुश्किल है।
सैकड़ों बीज लग जाएंगे। हर बीज में फिर सैकड़ों अंकुर लगने की लेकिन कोई गांठ की पूजा करने लग जाए, तो भी भूल जाएगा। संभावना पैदा हो जाएगी। और अहंकार विराट वृक्ष की तरह बढ़ता क्योंकि तब गांठ स्मरण नहीं कराएगी, पूजा करवाएगी। | चला जाएगा। बीज की तरह डाल देना उसे। जब बीज हो, तभी
सारे प्रतीक गांठ की तरह हैं। गुरुकुल में जलती हुई अग्नि, यज्ञ डाल देना। अंकुरित मत करना। सींचना मत। खाद मत डालना।
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गीता दर्शन भाग-20
बढ़ाना मत। उसको स्ट्रेंथन मत करना, मजबूत मत करना, पोषण | | पीछे; रूपांतरण होगा पीछे। सीधे घी पैदा नहीं होता—इसे खयाल मत करना। जब बीजरूप ही हो, तभी डाल देना।
रखें-पैदा होने की प्रक्रिया है, प्रोसेस है। पैदा करेंगे, तो ही पैदा स्वभावतः, बीज के लिए उन पुराने दिनों में गेहूं से निकट और | | होगा। अगर आदमी न हो पृथ्वी पर, तो घी पैदा नहीं होगा। दूध पैदा कोई चीज न थी! निकटतम, अधिकतम प्रभावी, जीवन जिस पर | | होगा, घी पैदा नहीं होगा। मनुष्य की चेतना ने घी को जन्म दिया। निर्भर था, उस गेहूं को दग्ध कर देना, राख। ऐसे ही अहंकार को | अगर मनुष्य न हो पृथ्वी पर, तो भलाई पैदा नहीं होगी। भलाई दग्ध कर देना, राख। निर्बीज हो जाना अहंकार की दृष्टि से। | को मनुष्य की चेतना ने जन्म दिया। इसलिए अगर घी का प्रतीक
अब बीज के साथ दो काम किए जा सकते हैं। जमीन में गड़ाएं, खयाल में आ गया हो, तो बहुत आश्चर्यजनक नहीं है। सहज है। तो बीज अंकुरित होगा; करोड़ों बीज पैदा कर जाएगा। आग में डाल जिनके पास थोड़ी-सी भी काव्य की दृष्टि है, वे उघाड़ सकते हैं दें, तो बीज अंकुरित नहीं होगा, सिर्फ राख हो जाएगा। उसके पीछे बात को कि क्यों यह प्रतीक खयाल में आ गया होगा। कोई रेखा नहीं छूट जाएगी यात्रा की।
मथना पड़ता है, मंथन करना पड़ता है। घी को जन्माना पड़ता अग्नि में डाले गए बीज, बीजरूपी अहंकार को डालने के | | है। भलाई मनुष्य के श्रम का फल है। ऐसे ही नहीं मिलती। गेहूं प्रतीक थे।
बिना आदमी के भी होता रहेगा। बीज गिरते रहेंगे। अंकुर निकलते घी भी फेंका गया है यज्ञ में। क्यों फेंका गया होगा? किस रहेंगे। आदमी नहीं होगा, तो भी पौधे होंगे, बीज होंगे; चलती रहेगी प्रतीक, किस मेटाफर के खयाल से?
यात्रा। लेकिन घी नहीं होगा पृथ्वी पर।आदमी नहीं होगा, तो भलाई देखा होगा, घी को डालें अग्नि में, तो अग्नि की लपटें बढ़ती नहीं होगी पृथ्वी पर। शुभ नहीं होगा। हैं। घी के डालने से अग्नि की लपट बढ़ती है, तीव्र होती है, - तो जिन दिनों, जिस कृषि के जगत में गीता जन्मी, जिस कृषि के उज्ज्वल होती है, प्रखर होती है, तेज होती है। घी के डालते ही | जगत में वेद जन्मा, जिस कृषि के प्रतीकों की दुनिया के बीच यज्ञ
अग्नि में त्वरा आती है। गेहूं को डालिएगा, तो अग्नि की त्वरा कम की धारणा जन्मी, घी निकटतम प्रतीक था शुभ का। होगी। गति क्षीण होगी, क्योंकि अग्नि की ताकत गेहूं को जलाने में अब यह मजे की बात है, अशुभ को डालें जीवन की चेतना में, लगेगी। तो जो लपट बनने की शक्ति थी, वह बंटेगी। लेकिन घी | तो अशुभ जल जाएगा, लेकिन जीवन की चेतना को क्षीण करेगा। को डालिए, तो अग्नि की ताकत घी को जलाने में नहीं लगती, घी | | अशुभ जलेगा, तो भी जीवन की चेतना को क्षीण करेगा। शुभ को की ताकत ही अग्नि को बढ़ाने में लगती है।
भी डालें जीवन की चेतना में, तो शुभ जीवन की चेतना को क्षीण जीवन की जो ज्योति है, उसमें दो काम करने हैं। उसमें बुराई को नहीं करेगा, बढ़ाएगा। डालकर दग्ध करना है और भलाई को डालकर उस ज्योति को | दूसरी बात भी खयाल रख लें कि अंततः शुभ को भी जला देना बढ़ाना है। घी भलाई का निकटतम प्रतीक हो सकता था, जिन दिनों है। शुभ जलेगा और ज्योति बढ़ेगी। लेकिन जला देना है उसे भी। वह प्रतीक खोजा गया। घी भलाई का निकटतम प्रतीक हो सकता उसे भी बचा नहीं लेना है। अन्यथा वह भी बंधन बन जाएगा। था। कई कारणों से।
| घी रहस्यपूर्ण है इन अर्थों में। जल भी जाता है, मिट भी जाता एक तो स्निग्ध है, इसलिए उसका दूसरा नाम स्नेह भी है, प्रेम है, जीवन की धारा को ऊपर की तरफ गतिमान भी कर जाता है। भी है। और भी कई कारणों से। घी प्रकृति में सीधा पैदा नहीं होता। लपटों को प्राण दे जाता है, आकाश की तरफ दौड़ने का बल दे गेहूं प्रकृति में सीधे पैदा होता है। अहंकार प्रकृति में सीधा पैदा होता | | जाता है; और जल भी जाता है, खो भी जाता है, विदा भी हो जाता है, बुराई सीधी पैदा होती है। भलाई को पैदा करने के लिए बड़ा | है। कहीं कोई रूपरेखा नहीं छूट जाती। कहीं कोई रूपरेखा नहीं छूट श्रम उठाना पड़ता है। वह सीधी पैदा नहीं होती; उसकी डायरेक्ट जाती। यज्ञ में फेंका गया घृत आस-पास सिर्फ एक सुवास छोड़ बर्थ नहीं होती।
| जाता है, सिर्फ एक सुगंध छोड़ जाता है। शुभ जब जलता है, तो घी सीधा पैदा नहीं होता। दूध बनेगा, दही बनेगा, मथा जाएगा, सुगंध छोड़ जाता है। वह सुवास व्याप्त हो जाती है चारों ओर। फिर घी निकलेगा। बहुत होगा दूध, बहुत होगा दही, थोड़ा-सा घी | | साधु के पास शुभ होता है। संत के पास शुभ की सिर्फ सुवास निकलेगा। बड़ा होगा श्रम, छोटी-सी भलाई निकलेगी। श्रम होगा होती है, शुभ नहीं होता। साधु अग्नि में जलता हुआ घृत है, संत
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जल गया घृत है। शुभ भी जल गया है; सिर्फ सुवास रह गई है। मेरे जैसे आदमी की कठिनाई भारी है। भारी इसलिए है कि मैं जिनके पास बहुत तीव्र नासारंध्र हैं, वे ही केवल उस सुवास को | | देखता हूं कि प्रतीक के पीछे प्राण हैं। और भारी इसलिए है कि मैं पकड़ सकेंगे।
| देखता हूं कि आपके हाथ में लाश है। तब मेरी कठिनाई भारी है। इसलिए साधु को पहचानना बहुत आसान; संत को पहचानना | | तब एक दिन मैं कहता हूं, पागल हैं आप; और फिर भी मैं जानता बहुत कठिन। साधु को कोई भी पहचान लेता है, क्योंकि शुभ | हूं कि प्रतीक सार्थक है। दूसरे दिन कहता हूं, सार्थक है प्रतीक। तब दिखाई पड़ता है। संत को पहचानना कठिन हो जाता है, क्योंकि आप पाते हैं कि असंगत है यह आदमी। क्योंकि कल कहा था कि शुभ दिखाई नहीं पड़ता। शुभ अब पारदर्शी भी नहीं रह जाता। शुभ | गलत है; आज कहते हैं, सही है। कल तुम्हें गलत कहा था, प्रतीक अब चारों तरफ स्पर्श नहीं किया जा सकता। अब शुभ खो जाता | को नहीं। आज प्रतीक को सही कह रहा हूं, तुम्हें नहीं। दोनों ही है सुवास में।
| करना पड़ेंगे। ऐसा यह यज्ञ का प्रतीक। कृष्ण कहते हैं, जीवन ही जिसका यज्ञ | __ प्रतीक के भीतर गहरा छिपा हुआ राज है, उसे बचाना जरूरी है। हो जाए; यज्ञ को ही जो यज्ञ में समर्पित कर दे, ऐसा व्यक्ति, ऐसा | | लेकिन आपके हाथ में जो प्रतीक है, वह मुर्दा है, उसे मिटाना भी व्यक्ति ही जीवन का चरम अनुभव है; ऐसी चेतना ही परात्परब्रह्म | जरूरी है। और ये दोनों बातें हो पाएं, तो धर्म का रहस्य समझ में को जान पाती है; अल्टिमेट को, आत्यंतिक को जान पाती है। आता है, अन्यथा नहीं आता।
ये प्रतीक सड़ जाते हैं। सब प्रतीक सड़ जाते हैं; अपने कारण नहीं, हमारे कारण। क्योंकि हमारी जो प्रतीकों की पकड़ है, वह नीचे के छोर से होती है। और जो प्रतीकों को जन्म देता है, वह ऊपर | प्रश्नः भगवान श्री, इसमें दो प्रकार के यज्ञों की बात के छोर से जन्म देता है। जो प्रतीक को जन्म देता है, वह आकाश बताई गई है। पहला है, योगीजन देवताओं के पूजनरूप की तरफ से प्रतीक को निर्मित करता है। और हम जब प्रतीक को यज्ञ की ही अच्छी तरह उपासना करते हैं, लेकिन दूसरे पकड़ते हैं, तब जमीन की तरफ से पकड़ते हैं।
ज्ञानीजन परमात्मा रूप अग्नि में यज्ञ के द्वारा ही यज्ञ जो अग्नि के प्रतीक को देता है, वह चेतना के लिए प्रतीक को हवन करते हैं। योगियों का यज्ञ और ज्ञानियों का खोजता है। और हम जब अग्नि को पकड़ते हैं, तो अग्नि को ही यज्ञ, कृपया इनका अर्थ स्पष्ट करिए। पकड़ते हैं। फिर अग्नि की पूजा चलती है। फिर हम गेहूं को जलाते रहते हैं। फिर हम घी को जलाते रहते हैं। फिर हम सब भूल जाते हैं कि घी क्या है, अग्नि क्या है, यज्ञ क्या है। सब भूल जाते हैं। | - सा मैंने पहले कहा, दो तरह की निष्ठाएं हैं, सांख्य की एक थोथा, मरा हुआ, डेड सिंबल हाथ में रह जाता है। फिर उसके | UI और योग की। इसलिए इन दो निष्ठाओं के कारण धर्म आस-पास हम घूमते रहते हैं, भटकते रहते हैं-सदियों तक।
के सदा ही दो रूप हो जाते हैं। बस, दो ही; इससे और बड़ी कठिनाई तो तब पैदा होती है कि जब कोई व्यक्ति इस ज्यादा नहीं होते। भटकाव का विरोध करे, तो धर्म का दुश्मन मालूम पड़ता है। कोई | सांख्य की निष्ठा है कि ज्ञान ही काफी है। सौ में से एक आदमी कहे कि यह पागलपन है, तो निश्चित ही धर्म का दुश्मन मालूम | कभी सांख्य को समझ पाता है। योग की निष्ठा है कि ज्ञान काफी पड़ेगा। क्योंकि हम कहेंगे, कृष्ण तो गीता में कहते हैं, और आप | नहीं है; कुछ करेंगे, कुछ कर्म होगा–साधना, अभ्यास-तो ही पागलपन कहते हैं। लेकिन जिसे कृष्ण गीता में कहते हैं और जिसे | ज्ञान फलित होगा। सौ में से निन्यानबे आदमी योग को ही समझ आप पकड़े हैं, उसमें आकाश और जमीन का फासला हो गया। पाते हैं। अगर कृष्ण भी वापस लौट आएं, तो आपको पागल कहेंगे। । दो तरह के लोग हैं, इसलिए दो तरह की निष्ठाएं हैं। कर्माभिमुख,
कर्म की तरफ अभिमुख, एक्शन ओरिएंटेड लोग हैं। और ट्रांसेंडेड। हर प्रतीक पार हो जाने के लिए है। और जब प्रतीक पार ज्ञानाभिमुख, ज्ञान की ओर उन्मुख, नालेज ओरिएंटेड लोग हैं। मोटा नहीं होते, तो संप्रदाय खड़े होते हैं।
| विभाजन दो का है। इसलिए कृष्ण जगह-जगह दो की बात करते हैं।
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वे जगह-जगह कहते हैं, योगीजन, ज्ञानीजन। वे दोनों ही निष्ठाओं, जब वे साधना करते थे राधा संप्रदाय की; तो राधा संप्रदाय की को स्वीकार करते हैं।
मान्यता है, कृष्ण ही पुरुष हैं। और जब कोई उस साधना में जाता दोनों ही निष्ठाएं सही हैं, क्योंकि दो तरह के लोग हैं। अगर एक है, तो अपने को राधा मानकर ही, चाहे पुरुष हो तो भी, अपने को ही निष्ठा सही है, अगर सांख्य ही सही है, ऐसा किसी का आग्रह | | स्त्री मानकर ही जाता है। रामकृष्ण जब छह महीने तक अपने को हो, तो बाकी निन्यानबे प्रतिशत लोगों को परमात्मा तक पहुंचने का | | कृष्ण की राधा मानकर साधना करते थे, तो बड़े अदभुत अनुभव कोई मार्ग नहीं है। अगर योग ही सही है, तो वह एक प्रतिशत लोगों | हुए। साधारण अनुभव नहीं, जो भीतर घटते हैं; असाधारण, जो को परमात्मा तक पहुंचने का कोई मार्ग नहीं है। नहीं; जितने तरह | बाहर तक पहुंच जाते हैं। के लोग हैं, उतने तरह के मार्ग हैं। मोटा विभाजन दो का है। रामकृष्ण की चाल बदल गई, स्त्रियों जैसी हो गई। उनके स्तन
इसलिए वे इस यज्ञ की चर्चा में भी दो की बात करते हैं। वे कहते | | उभर आए। उनकी आवाज स्त्रैण हो गई। और एक बहुत बड़ा हैं, योगीजन पूजन से...। पूजन क्रिया है। पूजन पद्धति है। उस चमत्कार घटित हुआ कि वे मासिक धर्म से होने लगे। पद्धति से यज्ञ कर रहे हैं। ज्ञानीजन ज्ञान से ही; उनके लिए ज्ञान ही यह अगर दो-चार हजार साल पहले घटी हुई घटना होती, तो यज्ञ है, जानना ही उनके लिए करना है। योगी के लिए करना ही हम कहते, कहानी होगी। अभी-अभी तक इसके आंखों देखे गवाह जानना है। ज्ञानी के लिए जानना ही करना है। दोनों एक ही सिक्के भी मौजूद थे। इतने भाव से भर गए वे राधा के, कि स्त्रैण हो गए। के दो पहलू हैं। कृष्ण जैसे व्यक्ति को, जो ज्ञानी और योगी इतना आत्मसात कर लिया इस बात को कि राधा हूं, कि भूल गए साथ-साथ हैं, जो दोनों को जानते हैं, जो दोनों मार्गों को पहचानते कि पुरुष हैं। और जब मन भुल जाए, तो शरीर उसके पीछे चला हैं, उनके लिए कोई भेद नहीं है।
जाता है। शरीर सदा अनुगामी है। अभी रामकृष्ण ने अपने जीवन में एक अनूठा प्रयोग किया, ___ अगर ठीक से समझें, तो जो भी शरीर में प्रकट होता है, वह उसके सदियों बाद। एक अर्थ में शायद अनूठा। रामकृष्ण को अनुभव | | बहुत पहले बीजरूप में मन में प्रकट होता है, अन्यथा शरीर में प्रकट हुआ। तो आमतौर से अनुभव हो जाए, तो बात समाप्त हो जाती | नहीं होता। अगर कोई स्त्री है, तो वह भी उसके पिछले जन्म के मन है। एक मार्ग से भी आप मंजिल पर पहुंच जाएं, तो आप फिर इस का बीजरूप अंकुर आज आया है। और आज अगर कोई पुरुष है, चिंता में नहीं पड़ते कि दूसरे मार्गों से भी पहुंचकर देखें। क्या | तो वह भी उसके पिछले जन्म का बीजरूप अंकुर आज आया है। जरूरत है? बात समाप्त हो जाती है।
पिछले जन्म की यात्रा जहां छूट जाती है, मन में जो बीज रह जाते हैं, लेकिन रामकृष्ण को अनुभव के बाद दूसरे मार्गों से भी पहुंचने | | वे ही फिर सक्रिय हो जाते हैं, गतिमान हो जाते हैं। का खयाल आया। तो उन्होंने इस्लाम की भी साधना की। उन्होंने रामकृष्ण का अनेक-अनेक मार्गों से वहीं पहुंच जाना। कृष्ण ईसाइयत की भी साधना की। उन्होंने सांख्य के मार्ग को भी खोजा। | ऐसी ही बात कहते हैं पूरी गीता में। इसलिए गीता कई अर्थों में उन्होंने योग के मार्ग को भी खोजा। उन्होंने भक्तों की, वैष्णवजनों असाधारण है। कुरान एक निष्ठा का शास्त्र है; दूसरी निष्ठा की की यात्रा भी की। उन्होंने सब तरफ से देखा। आखिर में पाया कि | | बात नहीं है। बाइबिल एक निष्ठा का शास्त्र है; दूसरी निष्ठा की सभी रास्ते वहीं पहुंच जाते हैं; सभी मार्ग वहीं पहुंच जाते हैं। तो बात नहीं है। महावीर के वचन एक निष्ठा के वचन हैं; दूसरी निष्ठा रामकृष्ण ने बाद में कहा कि जैसे पहाड़ पर चढ़ने वाले बहुत-से की बात नहीं है। बुद्ध के वचन एक निष्ठा के वचन हैं; दूसरी निष्ठा रास्ते अंततः शिखर पर पहुंच जाते हैं, ऐसे ही...।
की बात नहीं है। गीता असाधारण है। मनुष्य के अनुभव में जितनी जब वे एक तरह की साधना करते थे, तब ठीक निष्ठा से पूरा निष्ठाएं हैं, उन सारी निष्ठाओं का निचोड़ है। उसी में डूब जाते। जब वे इस्लाम की साधना कर रहे थे, सूफी | । इसलिए अगर मुसलमान कहें कि कुरान हमारा है, तो एक अर्थ साधना से गुजर रहे थे, तो उन्होंने मंदिर जाना बंद कर दिया। वे एक | में सही कहते हैं। लेकिन हिंदू अगर कहें कि गीता हमारी है, तो उस लुंगी बांध लिए और मस्जिद में ही पड़े रहने लगे; छह महीने। फिर | | अर्थ में सही नहीं कहते। इसलिए सही नहीं कहते कि गीता सबकी एक दिन आकर दक्षिणेश्वर उन्होंने कहा, पहुंच गया वहीं। जहां यह | हो सकती है। मंदिर ले गया, वहीं मस्जिद भी ले गई।
ऐसी कोई निष्ठा नहीं है जो मनुष्य-जाति में प्रकट हुई हो,
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जिसके सूत्र, बीज-सूत्र गीता में नहीं हैं। सब मार्गों की, सब द्वारों कहेगा, बिना किए कुछ भी नहीं हो सकता। और कृष्णमूर्ति कहेंगे, की इकट्ठी। यह हो इसलिए सका, यह नहीं होता, अगर | कुछ भी करने से कुछ नहीं होगा। करने का कोई सवाल ही नहीं है। अर्जुन-कृष्ण ने पहले सांख्य की बात कही, अगर अर्जुन राजी हो | | किया, कि फंसे। किया, कि कभी नहीं पहुंचोगे। और गुरजिएफ जाए, तो गीता आगे न बढ़ती। लेकिन अर्जुन समझ न पाया सांख्य | | कहेगा कि नहीं किया, तो डूबे; नहीं किया, तो तुम नहीं ही कर रहे की बात। इसलिए फिर दूसरी बात कृष्ण को करनी पड़ी। अर्जुन वह हो, कहां पहुंच गए हो? भी न समझ पाया; फिर तीसरी बात करनी पड़ी। अर्जुन वह भी न लेकिन कृष्णमूर्ति भी एक निष्ठा की बात कर रहे हैं, सांख्य की। समझ पाया; चौथी बात करनी पड़ी!
नई कोई बात नहीं है। नई लगती है, क्योंकि सांख्य इतना परम यह गीता का श्रेय अर्जुन को है। यह अर्जुन समझ ही नहीं पाया। | | विज्ञान है कि जब भी प्रकट होता है, तभी नया लगता है; उसकी वह सवाल उठता ही चला गया। जब एक मार्ग लगा कृष्ण को कि परंपरा नहीं बन पाती। वह इतना गहन और सूक्ष्म है कि उसकी धारा नहीं उसकी पकड़ में आता, नहीं उसके साथ बैठता तालमेल, तब बार-बार टूट जाती है। एक प्रतिशत लोग तो मुश्किल से उसको उन्होंने दूसरी बात की; तब तीसरी बात की; तब चौथी बात की। समझ पाते हैं। तो उसकी धारा कैसे बने?
मोहम्मद को भी अर्जुन मिल जाता, तो कुरान ऐसी ही बन सकती| योग की धारा बन जाती है। क्योंकि योग को निन्यानबे प्रतिशत थी; नहीं मिला। महावीर को भी मिल जाता, तो उनके वचन भी | | लोग समझ सकते हैं, चाहें तो। कोई कठिनाई नहीं है। इसलिए योग ऐसे हो सकते थे; नहीं मिला। अर्जुन जैसा पूछने वाला कभी-कभी | की परंपरा बन जाती है, ट्रेडीशन बन जाती है। सांख्य की कोई मिलता है। कृष्ण जैसे उत्तर देने वाले बहुत बार मिलते हैं। | परंपरा नहीं बनती। इसलिए नहीं बनती कि कभी-कभी कोई एकाध
यह ध्यान रखना, जो जानता है उसे उत्तर देना बहुत आसान है; | | आदमी ठीक से समझ पाता है कि न करने से भी हो सकता है। जो नहीं जानता है, उसे प्रश्न भी ठीक से पूछना बहुत कठिन है। ___ इसलिए जब भी सांख्य प्रकट होता है, तो नया मालूम पड़ता है। इसलिए अर्जुन एक अर्थों में, पूरी मनुष्य-जाति ने जितने सवाल | | और जब भी योग प्रकट होता है, तो परंपरा मालूम पड़ती है। और उठाए हैं. उन सबका सारभत है। परी मनष्य-जाति में मनष्य के मन सांख्य का चिंतक कहेगा. परंपरा से कछ भी न होगा। और योग ने जितने सवाल उठाए हैं, उन सारे सवालों को वह उठाता चला | | का चिंतक कहेगा, परंपरा के बिना कुछ भी न होगा। गया। वह पूरी मनुष्य-जाति के रिप्रेजेंटेटिव की तरह कृष्ण के सामने लेकिन कृष्णमूर्ति को सुविधा है। जो लोग भी एक निष्ठा की अड़कर खड़ा हो गया। कृष्ण को उसके उत्तर देने पड़े। एक-एक वह | | बात करते हैं, वे बहुत कंसिस्टेंट हो सकते हैं, संगत हो सकते हैं। पूछता चला गया, एक-एक उन्हें उत्तर देने पड़े। वह एक-एक उत्तर | | जिंदगीभर एक ही बात कहनी है! तो कृष्णमूर्ति तीस-चालीस साल को नकारता गया; भुलाता गया; दूसरे की खोज करता चला गया। | | से एक ही बात कहे चले जाते हैं। एक ही स्वर! बिलकुल संगत
इसलिए कृष्ण बार-बार दो मूल निष्ठाओं की बात निरंतर करेंगे। | हैं। उनमें असंगति नहीं खोजी जा सकती। गुरजिएफ में भी असंगति वे कहेंगे, योगीजन; वे कहेंगे, ज्ञानीजन। दोनों एक ही जगह पहुंच | नहीं खोजी जा सकती। बिलकुल संगत हैं। पूरी जिंदगी एक ही बात जाते हैं। लेकिन दोनों के पहुंचने के मार्ग बड़े भिन्न हैं। योगी कर्म, | | कहता है। क्रिया, अभ्यास से पहुंचते हैं। ज्ञानी अकर्म, अक्रिया, अनभ्यास से। मेरे जैसे आदमी में असंगति खोजी जा सकती है। मैं दोनों __ अगर इस सदी में हम पकड़ना चाहें, तो पश्चिम में एक आदमी निष्ठाओं की बात कह रहा हूं। मेरे सामने जैसा आदमी होता है, हुआ, गुरजिएफ। वह योगीजन का ठीक-ठीक प्रतीक है। आप वैसी बात कहता हूं। अगर मुझे लगता है, यह आदमी योग से पहुंच कहेंगे कि भारत से कोई नाम नहीं लेता! दुर्भाग्य है; कोई नाम है| सकता, तो मैं कहता हूं, क्रिया से। अगर मुझे लगता है, यह आदमी नहीं ऐसा। ठीक-ठीक प्रतीक योगी का था जार्ज गुरजिएफ। अभी योग से नहीं पहुंच सकता, तो मैं कहता हूं, अक्रिया से। तब कुछ वर्ष पहले मरा। सांख्य का अगर ठीक-ठीक प्रतीक खोजना कठिनाई खड़ी हो जाती है। अगर वे दोनों आदमी मिल जाते हैं, तो हो, तो कृष्णमूर्ति। सौभाग्य कि भारत उनका नाम ले सकता है। बहुत कठिनाई खड़ी हो जाती है। और अक्सर तो मुझे दोनों बातें __ अगर गुरजिएफ और कृष्णमूर्ति को आमने-सामने खड़ा कर दें, एक ही साथ कहनी पड़ती हैं। तो दुश्मन मालूम पड़ेंगे-बिलकुल दुश्मन! क्योंकि गुरजिएफ इसलिए कृष्ण की गीता भी समझनी मुश्किल है। अगर
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गुरजिएफ कृष्ण की गीता पढ़ेगा, तो भी उसमें गलतियां निकाल श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुइति । लेगा। वे गलतियां निकाल लेगा, जो सांख्य के वचन हैं। अगर शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति । । २६ ।। कृष्णमूर्ति गीता पढ़ेंगे, तो वे भी गलतियां निकाल लेंगे। वे गलतियां | और अन्य योगीजन श्रोत्रादिक सब इंद्रियों को संयमरूप निकाल लेंगे. जो योग के वचन हैं। लेकिन दोनों हालत में कष्ण के | अग्नि में हवन करते हैं अर्थात इंद्रियों को विषयों से रोककर साथ अन्याय हो जाएगा।
अपने वश में कर लेते हैं और दूसरे योगी लोग शब्दादिक मार्ग हैं अलग, मंजिल है एक। और हर मार्ग पर अलग घटनाएं विषयों को इंद्रियरूप अग्नि में हवन करते हैं घटती हैं। अगर मैं बाएं तरफ के रास्ते से पहाड़ चढ़ता हूं, तो हो अर्थात राग-द्वेष रहित इंद्रियों द्वारा विषयों को ग्रहण करते सकता है, मुझे फूलों से लदे हुए वृक्ष मिलें। और आप अगर दाएं
हुए भी भस्मरूप करते हैं। रास्ते से पहाड़ चढ़ते हों, तो हो सकता है, आपको सिवाय चट्टानों, पथरीली चट्टानों के कुछ भी न मिले।
और हो सकता है, जब हम दोनों मिलें, तो हम कहें कि हमारे प र कृष्ण ने दो निष्ठाओं की बात कही। दोनों रास्ते बिलकुल अलग हैं, मंजिल भी अलग होगी। क्योंकि पिएक वे, जो इंद्रियों का संयम कर लेते हैं। जो इंद्रियों मेरे रास्ते पर तो फूल ही फूल हैं, और तुम्हारे रास्ते पर पत्थर ही
को विषयों की तरफ-विषयों की तरफ इंद्रियों की जो पत्थर हैं। अब कहां फूल! कहां पत्थर! दोनों का कोई मेल हो नहीं | | यात्रा है, उसे विदा कर देते हैं; यात्रा ही समाप्त कर देते हैं। जिनकी सकता। हम दुश्मन हैं। और जो रास्ता फूलों से गुजरता है, वह वहीं | इंद्रियां विषयों की तरफ दौड़ती ही नहीं हैं। संयम का अर्थ समझेंगे, कैसे पहुंचेगा, जहां वह रास्ता पहुंचता है, जो पत्थरों से गुजरता है! तो खयाल में आए। दूसरे वे, जो विषयों को भोगते रहते हैं, फिर ऐसी हमारी बुद्धि है।
| भी लिप्त नहीं होते। ये दोनों भी यज्ञ में ही रत हैं। लेकिन पहाड़ को कोई तकलीफ नहीं आती। वह फूलों वाले | एक वे, जो इंद्रियों को विषयों तक जाने ही नहीं देते—उसकी रास्ते को भी शिखर पर पहुंचा देता है; और पत्थरों वाले रास्ते को | | अलग साधना है—इंद्रियों और विषयों के बीच में जो सेतु है, ब्रिज भी शिखर पर पहुंचा देता है। पहाड़ को इसमें कोई इनकंसिस्टेंसी है, उसे ही तोड़ देते हैं। दूसरे वे, जो इंद्रियों को विषयों तक जाने दिखाई नहीं पड़ती। कोई अड़चन ही नहीं मालूम होती। वह कहता | देते हैं, लेकिन इंद्रियों और लिप्त हो जाने में जो सेतु है, उसे तोड़ है कि इस रास्ते से आओ, तो भी शिखर पर आ जाओगे। उस रास्ते देते हैं। से आओ, तो भी। तुम्हारे रास्ते पर लाल फूल खिलते हों, तो कोई अब यह दो सेतुओं का जो तोड़ना है, वह खयाल में ले लेना हर्ज नहीं; और तुम्हारे रास्ते पर सफेद फूल खिलते हों, तो कोई हर्ज जरूरी है। दोनों ही स्थितियों से एक ही परम अवस्था उपलब्ध नहीं; और तुम्हारे रास्ते पर फूल खिलते ही न हों, तो कोई हर्ज नहीं; | होती है।
और तुम्हारे रास्ते पर कांटे ही कांटे खिलते हों, तो भी कोई हर्ज | पहले, पहले को खयाल में लें, इंद्रियों को विषयों तक नहीं नहीं। ध्यान एक ही रखना जरूरी है कि तुम ऊपर की तरफ उठ रहे जाने देते! हो कि नहीं उठ रहे हो। अगर ऊपर की तरफ उठ रहे हो, तो शिखर इंद्रियां विषयों की तरफ भागती ही रहती हैं। रास्ते पर गुजरे हैं पर आ जाओगे।
आप। सुंदर भवन दिखाई पड़ गया, कि सुंदर चेहरा दिखाई पड़ इसलिए कृष्ण यज्ञ की बात करते हैं। वह
| गया, कि सुंदर काया दिखाई पड़ गई, कि सुंदर कार दिखाई पड़ का प्रतीक है। चाहे योगी करते हों-भजन से, पजन से, आसन गई आपको पता ही नहीं चलता कि जब आपने कहा. संदर है, से, प्राणायाम से किसी भी तरह। और चाहे ज्ञानीजन करते | | तभी इंद्रियां दौड़ चुकीं। ऐसा नहीं कि सुंदर है, ऐसा जानने के बाद हों-ध्यान से, निदिध्यासन से, समाधि से, न कुछ करने में, न | | इंद्रियां दौड़ना शुरू करती हैं। इंद्रियां दौड़ चुकी होती हैं। उनका कुछ करने से वे भी पहुंच जाते हैं। इसलिए दोनों का उन्होंने | कनक्लूजन है यह, सुंदर है, यह निष्कर्ष है। दौड़ गई इंद्रियों का, अलग उल्लेख किया है।
पहुंची इंद्रियों का निष्कर्ष है यह कि सुंदर है।।
ऐसा मत सोचना आप कि आप सुंदर चेहरा देखकर आकर्षित
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होते हैं; आप आकर्षित होते हैं, इसलिए चेहरा सुंदर दिखाई पड़ता इससे विपरीत काम भी चलता है पूरे समय। अगर स्त्रियां है। आकर्षण की घटना सूक्ष्म है और बड़े अदृश्य में घट जाती है। | परफ्यूम डालकर निकलती हैं या पुरुष, तो वे छूने का दूसरा काम सौंदर्य की घटना सूक्ष्म नहीं है और विचार में पता चलती है। कर रहे हैं। वे छुए जाने का काम कर रहे हैं। शरीर से सबको नहीं
लेकिन आमतौर से हम उलटी बातें करते हैं। सूक्ष्म का हमें पता | छुआ जा सकता। लेकिन एक परफ्यूम डालकर बड़े सूक्ष्म तल पर, नहीं चलता। हम कहते हैं, यह चेहरा आकर्षक मालूम पड़ता है, गंध से, सब को छुआ जा सकता है। सभ्यता हाथ से छूने की तो क्योंकि सुंदर है। सचाई उलटी है। यह चेहरा सुंदर मालूम पड़ता है, | | आज्ञा सबको नहीं देती। नियंत्रण है, लाइसेंस है। लेकिन गंध से तो क्योंकि आकर्षित कर चुका है। क्योंकि यही चेहरा दूसरे को सुंदर सबको छुआ जा सकता है! नहीं मालूम पड़ता; तीसरे को सुंदर नहीं मालूम पड़ता। अगर उनको आवाज, गंध, ध्वनि, दृश्य, दर्शन–वे सब छूते हैं। जब आप आकर्षित नहीं कर पाया है, तो सुंदर नहीं है। सुंदर हमारी निष्पत्ति | सज-संवरकर घर से निकलते हैं, तो आप दूसरों की आंख से छुए है, कारण नहीं। सुंदर की वजह से कोई आकर्षित नहीं होता; | जाने का निमंत्रण लेकर निकल रहे हैं। और अगर कोई आंख से न आकर्षित होने की वजह से सुंदर का निष्कर्ष लेता है। यह हमारा | छुए, तो आप बड़े उदास लौटेंगे। बौद्धिक निष्कर्ष है। इंद्रियों ने तो अनुभव किया है आकर्षण का; दूसरों की आंख का स्पर्श भी लोरी का काम करता है, थपकी बुद्धि ने निर्णय लिया है सुंदर का। इंद्रियां पहुंच चुकीं; इंद्रियों ने का काम करता है। जब आप निकलते हैं और कई आंखें आपको स्पर्श कर लिया।
| छूती हैं, तब आपके भीतर कोई गुदगुदी छूट जाती है। इंद्रियों की गति सूक्ष्म है। ऐसा नहीं कि जब आप किसी के शरीर ___ यह दोहरा काम चल रहा है, छूने का, छुए जाने का। इंद्रियां को छूते हैं, तभी इंद्रियां छूती हैं। इंद्रियों के छूने के अलग-अलग प्रतिपल इस काम में संलग्न हैं। आपको पता भी नहीं चलता कि मार्ग हैं। आंख देखती है, और छू लेती है। देखना आंख के छूने का | यह हो रहा है। यह खयाल में भी नहीं आता। ढंग है। सुनना कान के छूने का ढंग है। स्पर्श हाथ के छूने का ढंग बर्न ने एक किताब लिखी है, गेम्स दैट पीपुल प्ले। उसमें स्पर्श है। ये सब छूने के ढंग हैं। सब इंद्रियां छूती हैं। एक लिहाज से हाथ | | के भी एक खेल की उसने चर्चा की है, और ठीक चर्चा की है। का रेंज उतना ज्यादा नहीं है छूने में, जितना आंख का है, जितना __ आप रास्ते पर निकलते हैं; और एक आदमी कहता है, हलो! कान का है। आंख बहुत दूर स्पर्श कर लेती है। लेकिन आंख भी उसने आपको छुआ। यू हैव बीन टच्ड, आवाज से। उसने एक स्पर्श करती है।
थपकी दी, अच्छे तो हो! गदगद हुए। रीढ़ ऊंची हुई। अच्छा लगा। जब आप किसी के चेहरे को अब दुबारा देखें, तो आप खयाल | | लेकिन वही आदमी एक दिन पास से निकला और उसने हलो नहीं करना कि आपकी आंख ने उसके चेहरे को स्पर्श किया या नहीं! | कहा। आप छुए नहीं गए। भीतर कुछ उदास हुआ; फ्रस्ट्रेशन हुआ। लेकिन हमारा खयाल यह है कि हाथ से ही छुआ जाता है; इसलिए | | क्या बात है? इस आदमी ने आज हलो नहीं कहा! हम भूल में पड़ते हैं। आंख से भी छुआ जाता है। कान से भी छुआ | अगर तीस दिन के लिए आप गांव के बाहर चले गए और तीस जाता है। गंध से भी छुआ जाता है। ये सब हमारे छूने के ढंग हैं। | दिन बाद आए, और जो आदमी आपको रास्ते पर मिलकर सिर्फ
इंद्रिय का अर्थ है, स्पर्श की व्यवस्था, उपकरण। सब इंद्रियां | हलो कहता था, उसने अगर आज भी सिर्फ हलो कहा, तो भी आप स्पर्श करती हैं।
डिप्राइव्ड अनुभव करेंगे, क्योंकि तीस हलो उसके ऊपर ऋण हैं! सूक्ष्म स्पर्श दूर से हो जाते हैं। स्थूल स्पर्श पास से करने पड़ते | आपको लगेगा कि यह आदमी, उनतीस हलो का क्या हुआ? नहीं हैं। हाथ सबसे स्थूल है; बहुत निकट न आ जाए, तो छू नहीं | तो तीस दिन के बाद अगर वह मिलेगा, तो वह कहेगा, हलो। सकता। इसलिए जिसे हमारी इंद्रियां छूना चाहती हों, हाथ सबसे | | कहिए, कैसे हैं! तबियत तो ठीक! बहुत दिन से दिखाई नहीं पड़े। आखिर में छूता है। पहले आंख छुएगी, फिर नाक छुएगी, कान | ___ वह स्ट्रोक दे रहा है। वह तीस स्ट्रोक पूरे करे, तो तृप्ति मिलेगी। छुएंगे। और जब दूसरा व्यक्ति आंख से छूने के लिए राजी हो | | अगर नहीं पूरे किए, और सिर्फ हलो कहकर निकल गया, तो जाएगा, कान से छुए जाने को राजी हो जाएगा, नाक से छुए जाने | | आपको लगेगा, कुछ कमी है। तीस दिन बाद दिखाई पड़ा हूं, तो को राजी हो जाएगा, तब हाथ छुएंगे।
तीस स्ट्रोक उधार हो गए। तीस स्पर्श! वह पूरे करने चाहिए। तो
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0 गीता दर्शन भाग-20
वह करेगा पूरा। वह खड़े होकर कहेगा, कैसा है; मौसम कैसा है? | | जगेगी, डिजायर पैदा होगी-और, और, और सुनूं। और सुनाई कहां गए थे? अच्छे रहे? कुछ मतलब की बातें नहीं हैं, लेकिन | | पड़े, तो स्पर्श हो गया। इंद्रिय ने रस लेना शुरू कर दिया। इंद्रिय स्पर्श। स्पर्श मिल जाएंगे; आप तृप्त होकर अपने रास्ते पर बढ़ | सिर्फ उपकरण न रही, मालिक हो गई। इंद्रिय ने सिर्फ देखा नहीं, जाएंगे। उसको भी स्पर्श मिल जाएंगे, वह भी अपने रास्ते पर बढ़ इंद्रिय ने पकड़ भी लिया। जाएगा। दोनों खुश हैं। छू लिया एक-दूसरे को।
| जो योगी इंद्रिय को विषय से तोड़ता है, वह विषय और इंद्रिय इंद्रियां पूरे समय स्पर्श को लालायित और स्पर्श देने को और के बीच स्पर्श को, संस्पर्श को तोड़ता है। देखना तो नहीं तोड़ा जा लेने को आतुर हैं। ले रही हैं।
| सकता। देखने से तोड़ने से कुछ फर्क नहीं पड़ता। अगर आपने तो जिस व्यक्ति को इंद्रियों को विषयों तक जाने से रोकना है, | आंखें फोड़ लीं, तो आप बहुत हैरान होंगे। अगर आपने आंखें फोड़ उसे इंद्रियों की इस सूक्ष्म स्पर्श-व्यवस्था के प्रति जागरूक होना लीं, तो जो काम आंख से आप करते थे, वह ट्रांसफर हो जाएगा पड़ेगा। अत्यंत सूक्ष्म व्यवस्था है। आपको पता चलने के पहले | | कान के पास। इसलिए अंधों के कान तेज हो जाएंगे। आंख से घटित हो जाता है। इतना शीघ्रता से घटित होता है इंद्रिय का स्पर्श, स्पर्श करने का जो काम था, वह काम भी कान को मिल जाएगा। कि आपको पता ही तब चलता है, जब घटित हो जाता है। इसके । इसलिए अंधों के कान तेज हो जाएंगे। अंधे कान से दोहरा काम प्रति जागना पड़े। इसे देखना पड़े। इसको स्मरण रखना पड़े। । | लेने लगेंगे। सुनने का स्पर्श भी उसी से करेंगे; देखने का स्पर्श भी
गुरजिएफ कहेगा, रिमेंबरिंग। मैंने कहा कि वह इस युग के उसी से करेंगे। इसलिए अंधे आपके पैर की आवाज भी पहचानने योगीजन में से एक कीमती व्यक्ति! वह कहेगा, रिमेंबर रखो; पूरे | लगेंगे, कौन आदमी आता है! आंख वाला कभी नहीं पहचान वक्त स्मरण रखो कि क्या हो रहा है।
सकता। आंख वाले को कभी पता ही नहीं चलता कि पैर में आवाज तुम्हारी आंख सिर्फ देख रही है या स्पर्श भी कर रही है, इन दोनों | भी होती है। लेकिन अंधे को बिलकुल पता होता है। कमरे में कौन में फर्क है। एक साधारण-सी स्त्री चली आ रही है, तो आंख सिर्फ आ रहा है, अंधा आदमी उसके पैर के पदचाप से जानता है-कौन देखती है, स्पर्श नहीं करती। सुंदर स्त्री चली आ रही है, आंख आ रहा है। उसको आंख का काम भी कान से ही लेना पड़ता है। देखती ही नहीं, स्पर्श भी करती है। साधारण-सा पुरुष चला आ कान को दोहरे स्पर्श करने पड़ते हैं। रहा है, तो आंख सिर्फ देखती है, जस्ट सीइंग। सुंदर पुरुष चला | | आंख फोड़ लेने से कुछ न होगा। आंख से स्पर्श विदा होना आ रहा है, तब देखती ही नहीं, स्पर्श भी करती है। | चाहिए। लेकिन कब होगा? जब आप जागेंगे, तो स्पर्श विदा हो
फर्क कैसे पता चलेगा? अगर सिर्फ देखा हो, तो पीछे कोई लकीर जाएगा। क्या करेंगे? नहीं छूटेगी। और अगर स्पर्श भी किया हो, तो पीछे लकीर छूटेगी। | जब भी देखें, तब होश से यह भी देखें कि स्पर्श हो रहा है कि अगर सिर्फ देखा हो, तो लौटकर नहीं देखना पड़ेगा; अगर स्पर्श भी नहीं! सिर्फ देख रहे हैं? धीरे, धीरे, धीरे, फासला साफ दिखाई किया हो, तो लौटकर भी देखना पड़ेगा। अगर सिर्फ देखा हो, तो पड़ने लगेगा। जैसे अक्सर होता है, रात आप बिजली बुझाते हैं, तो स्मति नहीं बनेगी; अगर स्पर्श भी किया हो, तो स्मति बनेगी। अगर कमरे में अंधेरा मालम पड़ता है। फिर थोडी देर देखते रहें. देखते सिर्फ देखा हो, तो कल भी देखू, ऐसी आकांक्षा नहीं जगेगी; अगर रहें, देखते रहें, तो अंधेरा फीका होने लगता है। थोड़ी रोशनी मालूम स्पर्श किया हो, तो फिर-फिर देखू, ऐसी आकांक्षा जगेगी। पड़ने लगती है। ठीक ऐसे ही; देखें, देखते-देखते फासला दिखाई
आंख से सिर्फ देखने का काम लें, स्पर्श करने का नहीं, तो कृष्ण पड़ने लगता है। और साफ दिखाई पड़ने लगता है कि मैंने स्पर्श जो कह रहे हैं, पहली घटना घट सकती है। हाथ से सिर्फ छूने का | | किया, कि देखा। और जब आप पाएंगे कि दिखाई पड़ने लगा स्पर्श काम लें, स्पर्श करने का नहीं। अब आप कहेंगे, छूना और स्पर्श | | किया, तभी आपको अनुभव हो जाएगा कि इंद्रियां जहां-जहां स्पर्श करना तो बिलकुल एक ही बात है। वही फर्क जो मैंने आंख के लिए करती हैं, वहीं-वहीं बंधन को निर्मित करती हैं। जहां-जहां स्पर्श कहा, सिर्फ देखने का काम आंख से, स्पर्श करने का नहीं। कान नहीं करतीं, वहां-वहां बंधन निर्मित नहीं होता। से काम सुनने का, स्पर्श करने का नहीं। कोई आवाज कान सुनता। संयमी का अर्थ है, जो इंद्रियों से उपकरण का काम लेता, भोग है, ठीक। लेकिन मीठी लग गई, तो छू ली गई। फिर आकांक्षा का नहीं। संयमी का अर्थ है, जो इंद्रियों से भोगता नहीं, केवल
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यज्ञ का रहस्य
उपयोग लेता है। असंयमी का अर्थ है, जो इंद्रियों से उपयोग कम लेता, भोग ज्यादा लेता। आंख से देखना उपयोग है। आंख से भोगना, स्पर्श करना, उपयोग नहीं है; भोग है। भोग बंधन है, उपयोग बंधन नहीं है।
इस स्पर्श की सूक्ष्म व्यवस्था को स्मरणपूर्वक देखने से व्यवस्था क्रमशः टूटती चली जाती है।
लेकिन आपने शायद ही सोचा होगा कि संयम का यह अर्थ है ! संयम का तो यह अर्थ है, स्त्री दिखाई पड़े, तो आंख बंद कर लो। संयम का तो यह अर्थ है कि जहां स्त्रियां हों, वहां रहो ही मत । संयम का तो यह अर्थ है, देखो मत, सुनो मत छुओ मत। ऐसा हमने संयम का अर्थ लिया हुआ है। यह संयम का अर्थ नहीं है। इससे संयम फलित नहीं होता, सिर्फ दमन, सप्रेशन फलित होता है । और दमन संयम नहीं है। दमन भीतर उबलता हुआ असंयम है। बाहर नहीं जा पाता, भीतर उबलता है।
और ध्यान रहे, केटली से भाप बाहर चली जाए, यही उचित है, बजाय भीतर रहे। क्योंकि तब केटली फूटेगी और एक्सप्लोजन होगा । दो-चार की जान भी लेगी। इसलिए साधारण असंयमी आदमी इतना खतरनाक नहीं होता, जितना दमित असंयमी आदमी खतरनाक होता है। क्योंकि उसके भीतर बहुत जहर इकट्ठा हो जाता है। जब भी फूटता है, तो ज्यादा दूर तक नुकसान पहुंचाता है। और जब भी फूटता है, तो फिर पूरी तरह फूटता है ।
सप्रेशन संयम नहीं है; दमन संयम नहीं है।
संयम जागरण है— होश, रिमेंबरिंग, स्मृति। इसको प्रयोग करके देखें |
प्रियजन है आपका कोई | हाथ हाथ में ले लेते हैं उसका प्रेम से। तब हाथ हाथ में रखें, आंख बंद कर लें, स्मरण करें, स्पर्श हो रहा
कि सिर्फ छू रहे हैं। बारीक है फासला, पर खयाल में आ जाएगा; दिखाई पड़ जाएगा। कभी लगेगा, स्पर्श कर रहे हैं। कभी लगेगा, छू रहे हैं। कभी लगेगा, दोनों काम एक साथ चल रहे हैं। और ध्यान रहे, अगर सिर्फ छू रहे हैं, तो थोड़ी ही देर में पसीने के सिवाय अनुभव में और कुछ भी नहीं आएगा। अगर स्पर्श कर रहे हैं, तो कविता अनुभव में आएगी; पसीने का पता ही नहीं चलेगा।
अगर प्रियजन का हाथ हाथ में लेकर बैठे हैं और अगर सिर्फ छू रहे हैं, तो थोड़ी ही देर में ऊब जाएंगे। और मन होगा कि कब हाथ हाथ छूटे अब । लेकिन अगर स्पर्श भी कर रहे हैं, तो ऐसा होगा कि कोई हाथ न छुड़ा दे। अब यह हाथ हाथ में ही रहा आए। अब
यह हाथ हाथ से जुड़ ही जाए। कविता पैदा होगी, स्वप्न पैदा होगा, रोमांटिक, रोमांच का जगत शुरू होगा।
इसे देखते रहें और प्रयोग करते रहें, तो पहली घटना घट सकती | है संयम की, अर्थात विषयों तक इंद्रियों का रस तिरोहित हो जाता है। विषय तक इंद्रियां जाती हैं उपयोग के लिए, भोग के लिए नहीं । सेतु टूट गया। तब जो व्यक्ति है, वह संयमी है। ऐसा संयमी व्यक्ति, कृष्ण कहते हैं, उपलब्ध हो जाता है।
दूसरा, कृष्ण कह रहे हैं, भोग करते हुए भी, भोग में होते हुए भी इंद्रियों को विषयों से बिना तोड़े हुए, छूना ही नहीं, स्पर्श करते हुए भी, ज्ञानीजन बाहर हो जाते हैं। उसकी प्रक्रिया और भी सूक्ष्म होगी, क्योंकि वह एक प्रतिशत के लिए है। यह अभी जो मैंने कहा, निन्यानबे प्रतिशत के लिए है। यह भी कठिन है। वह और भी कठिनतर है। स्पर्श करते हुए, इंद्रियों का उपयोग ही नहीं, भोग करते हुए। फिर क्या करें ? फिर कैसे सेतु टूटेगा ? भोग करते हुए भी, पूरा भोग करते हुए भी, जो भोग के क्षण में जाग सकता है; भोग के क्षण में... !
भोजन कर रहे हैं। स्वाद की तरंगें बह रही हैं। स्वाद में उतरा रहे, डूब रहे। ठीक उस क्षण में स्वाद के प्रति जो जाग जाए, देखे कि डूब रहा, उतरा रहा; भागता नहीं, तोड़ता नहीं; डूब रहा, उतरा रहा, स्वाद ले रहा, पूरी तरह ले रहा। पूरी तरह लूं और होश से भर जाऊं, तो अचानक दिखाई पड़ेगा, मैं भोक्ता नहीं हूं; भोग है; मैं द्रष्टा हूं। भोग है; मैं द्रष्टा हूं, भोक्ता नहीं हूं।
द्रष्टा का भोक्ता - भाव गिर जाता है। तो वह भोगता रहे! संगीत को सुनेगा; कान गदगद होंगे, आनंदातिरेक में नाचने लगेंगे। कान
भीतर तरंगें उठकर सुख देने लगेंगी। कान पूरी तरह रसमग्न हो जाएगा । स्पर्श करेगा ध्वनि को, संगीत को । लेकिन भीतर जो | चेतना है, वह जागकर देखेगी : ऐसा हो रहा है; दिस इज़ हैपनिंग | और ऐसे स्मरण से कि ऐसा हो रहा है, तत्काल कोई गहरा सेतु टूट जाता है; जहां से भीतर की चेतना भोक्ता नहीं रह जाती, सिर्फ द्रष्टा रह जाती है।
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इस मार्ग से भी ज्ञानीजन उस परात्पर सत्य को उपलब्ध हो जाते । कृष्ण ने फिर ये दो बातें कहीं। ये अलग-अलग जरा भी नहीं हैं। व्यक्ति की बात है, उसे क्या निकटतम सुलभ मालूम पड़ सकता है।
दूसरा कठिन सिर्फ इसलिए है कि डर यही है कि हम अपने को धोखा दे लें । वही उसकी कठिनाई है। डिसेप्शन का डर है।
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गीता दर्शन भाग-28
आत्मवंचना का डर है। दूसरे की असली कठिनाई आत्मवंचना है। | अक्सर पहली साधना में आत्मवंचना की संभावना न होने से सुगम एक आदमी कह सकता है कि ठीक है। हम तो वेश्या के घर नृत्य है। दूसरी साधना में आत्मवंचना की संभावना होने से दुर्गम है। देखते हैं. साक्षी रहते हैं। रस लेते हैं परा. लेकिन ज्ञानीजन की तरह। लेकिन दोनों बातें कष्ण ने कहीं. कि ऐसा भी लेते हैं। परीक्षा बहुत कठिन है।
सकता है। लेकिन परीक्षाएं भी निकाली गई हैं। तंत्र ने बहुत-सी परीक्षाएं ___ महावीर और बुद्ध पहली साधना के व्यक्ति हैं, संयम के। कृष्ण निकालीं। एक अदभुत परीक्षा तंत्र ने निकाली है, वह मैं आपसे | खुद दूसरी साधना के व्यक्ति हैं। इसीलिए तो कृष्ण और महावीर कहूं। क्योंकि विश्व में वैसा प्रयोग और कहीं हुआ नहीं। के व्यक्तित्व बिलकुल उलटे मालूम पड़ सकते हैं। तो जैनियों ने
वह परीक्षा यह थी कि जो व्यक्ति कहता है कि मैं भोगते हुए भी कृष्ण को तो नर्क में डाल दिया है। स्वाभाविक है, लाजिकल है। तटस्थ होता हूं, द्रष्टा होता हूं; तंत्र ने कहा कि तुम शराब पीओ जैन-चिंतन से कृष्ण को नर्क में डालना बिलकुल उचित है। क्योंकि और शराब पीते हुए तुम होश में रहो; और हम शराब पिलाए चले वह जो पहली निष्ठा है, वह सोच ही नहीं पा सकती कि यह स्त्रियों जाएंगे, तुम होश में रहना। अगर घटना घट गई है साक्षी की, द्रष्टा के साथ नाचता हुआ आदमी, यह सैकड़ों स्त्रियों के प्रेम में मग्न की-भोगते हुए–तो शराब में भी होश कायम रहना चाहिए। आदमी, यह युद्ध में खड़ा हुआ आदमी, यह हिंसा के लिए अर्जुन क्योंकि नशा करेंगी इंद्रियां; तुम जागे रहना; तुम मत सो जाना। | को प्रेरणा देता हुआ आदमी मुक्त कैसे हो सकता है? वह निष्ठा
तो तंत्र ने एक अदभुत प्रक्रिया निकाली नशे की—शराब, सोच ही नहीं सकती। इसलिए नर्क में डाल दिया। गांजा, अफीम। और आखिर तक बात वहां पहुंची कि जब अफीम, लेकिन कृष्ण आदमी तो कीमती थे। तर्क ने तो कह दिया कि नर्क गांजा. इस सबका भी कोई असर नहीं हआ साधक पर और वह में डाल दो. लेकिन हृदय भी तो है। तो जैनों ने कष्ण को नर्क में भी जागा ही रहा, उतने ही होश में, जितने होश में वह बिना नशे का डाला, लेकिन फिर हृदय ने बगावत भी की। क्योंकि आखिर कृष्ण था, तब सांप से भी जीभ पर कटाने के प्रयोग किए गए और उसमें | | को देखा भी है, जाना भी है, पहचाना भी है। नाचा हो स्त्रियों के भी जागा रहा। सांप जीभ पर काट लिया है, जहर हो गया। आदमी साथ, लेकिन इस आदमी की आंख में कोई नाच नहीं था। लड़ा हो मर जाए! और वह भीतर की चेतना की ज्योति जागी हुई है। युद्ध में, लेकिन इस आदमी के हृदय में कोई क्रोध नहीं था।
यह आमतौर से हमको कठिन मालूम पड़ता है कि तो तर्क ने तो कहा कि हमारी निष्ठा के बिलकुल प्रतिकूल है, साधु-संन्यासी गांजा पीएं, शराब पीएं। वह कभी परीक्षा थी। कभी असंयमी है, इसलिए नर्क में तो जाना ही चाहिए। लेकिन हृदय ने वह परीक्षा थी, अब वह रोज का उपक्रम है। रोज सांझ को गांजा | कहा, आंखें भी तो देखी हैं; आदमी भी तो देखा है। इसलिए जैनियों पी रहे हैं! कभी वह एक बहुत गहरी परीक्षा थी। लेकिन दूसरे वर्ग ने आने वाले कल्प में पहला तीर्थंकर कृष्ण को बनाया। नर्क में की ही परीक्षा है, पहले वर्ग की परीक्षा वह नहीं है।
डाला अभी, लेकिन आने वाले कल्प में पहले तीर्थंकर कृष्ण ही योगी उस परीक्षा में नहीं खरा उतरेगा; वह परीक्षा ही उसकी नहीं होंगे। कंपनसेशन है। है। उसने तो स्पर्श को ही तोड़ दिया है। उसने इंद्रिय और विषय के बुद्धि ने कहा कि डालो नर्क में, क्योंकि असंयमी मालूम पड़ता बीच संबंध ही तोड़ दिया है। दूसरे की परीक्षा है; जो कहता है, है। हृदय ने कहा, लेकिन आंख भी तो देखो! इस आदमी की चाल संबंध मैंने कायम रखा है. लेकिन मैं संबंध के रहते हए असंबंधित और ढंग भी तो देखो। रहा है स्त्रियों के बीच. ले और असंग हो गया हूं। वह उसकी परीक्षा है। और अगर बेहोशी | नहीं आती स्त्रियों की। नाचता रहा, लेकिन थिर है, वैसा ही जैसा रासायनिक सारे शरीर में पहुंच गई, फिर भी चेतना होश में जागी बुद्ध अपने सिद्धासन पर थिर होते हैं। युद्ध में खड़ा रहा, लेकिन हुई है; उस बिंदु पर कोई अंतर नहीं पड़ा है...।
| हिंसा इस आदमी के मन में कहीं भी दिखाई नहीं पड़ती। इसकी यह परीक्षा क्यों निकाली गई? क्योंकि आत्मप्रवंचना का डर है, आंखों में वे रेशे नहीं हैं, जो क्रोध के और हिंसा के रेशे होते हैं। धोखे का डर है। एक आदमी कह सकता है कि हम तो अच्छे कपड़े |
|| मोर-मुकुट बांधकर खड़ा रहा, लेकिन कोई गौर से देखे, तो कृष्ण पहनते हैं, लेकिन कोई रस नहीं है। हम तो साक्षी-भाव से पहनते के मोर-मुकुट के पीछे महावीर की नग्नता, दिगंबरत्व साफ-साफ हैं। दूसरे को कोई नुकसान नहीं है; नुकसान उसी को है। इसलिए है। मगर मोर-मुकुट भी तो दिखाई पड़ते हैं। मोर-मुकुट की वजह
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यज्ञ का रहस्य ॐ
से नर्क में डाला; लेकिन पीछे जो नग्नता दिखाई पड़ती है कि मोर-मुकुट के पीछे भी यह आदमी ऐसा ही है, जैसे दिगंबर हो, नग्न खड़ा हो; उसकी वजह से पहला तीर्थंकर भी बनाया!
यह दूसरी निष्ठा के व्यक्ति हैं कृष्ण। और ध्यान रहे, यह बड़े मजे की बात है, दूसरी निष्ठा का व्यक्ति पहली निष्ठा के व्यक्ति को बिलकुल विपरीत मालूम पड़ेगा, स्वाभाविक। पहली निष्ठा के व्यक्ति को दूसरी निष्ठा का व्यक्ति विपरीत मालूम पड़ेगा, वैसे ही दूसरी निष्ठा के व्यक्ति को पहली निष्ठा का व्यक्ति विपरीत मालूम पड़ेगा।
लेकिन कृष्ण दोनों निष्ठाओं को समान भाव से गीता में कहे चले जाते हैं। दोनों निष्ठाओं का अनुभव, दोनों निष्ठाओं की यात्रा, दोनों निष्ठाओं को आकाश से देखने की क्षमता; दोनों निष्ठाएं एक जगह पहुंचा देती हैं, इसकी प्रतीति उनकी प्रगाढ़ है। पूरी गीता में जगह-जगह समन्वय का यह स्वर, यह सिंथेटिक भाव मिलेगा। वही खूबी भी है। ___ अब शेष सांझ लेंगे। अभी पांच-दस मिनट संन्यासी कीर्तन में डूबते हैं, आप भी सम्मिलित हों, अन्यथा देखें।
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अध्याय 4 दसवां प्रवचन
संन्यास की नई
अवधारणा
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ॐ गीता दर्शन भाग-20
सर्वाणांन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे। | ही समर्पित कर देते हैं। आत्मसंयमयोगाग्नौ जुह्वति ज्ञानदीपिते ।। २७ ।। यह समर्पण प्राणों का समर्पण है। यह समर्पण अपना ही समर्पण और दसरे योगीजन संपर्ण इंद्रियों की चेष्टाओं को तथा | है। क्योंकि हम जिसे अब तक जानते हैं स्वयं का होना, वह हमारी प्राणों के व्यापार को ज्ञान से प्रकाशित हुई परमात्मा में | इंद्रियों के जोड़ के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। हम जिसे कहते स्थितिरूप योगाग्नि में हवन करते हैं। . हैं अपनी अस्मिता, अपना होना, अपना बीइंग, वह हमारी इंद्रियों
के जोड़ के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। और जब कोई अपनी
समस्त इंद्रियों को, अपने समस्त जोड़ को परमात्मा को चढ़ा देता, 27 ज्ञानी परमात्मा को भेंट भी करे, तो क्या भेंट करे? | तो पीछे चढ़ाने वाला और जिसको चढ़ाया गया है वह, वे दोनों एक I अज्ञानी न परमात्मा को जानता, न स्वयं को जानता। | ही हो जाते हैं। क्योंकि पीछे परमात्मा ही बचता है। अगर हम अपनी
न उसे उसका पता है, जिसको भेंट करनी है; न उसका | सारी इंद्रियां परमात्मा को चढ़ा दें, तो हमारे भीतर सिवाय परमात्मा पता है, जिसे भेंट करनी है। स्वभावतः, उसे यह भी पता नहीं है कि के फिर और कोई भी नहीं बचता है। क्या भेंट करना है।
इंद्रियों के द्वारा हम संसार से जुड़ते हैं। इंद्रियां हमारे उपकरण हैं अज्ञानी जिन चीजों से आसक्त होता है, उन्हीं को परमात्मा को संसार से संयक्त होने के। आंख से हम रूप से जडते हैं. आंख से भेंट भी कर आता है। जो उसे प्रीतिकर लगता है, वही वह परमात्मा | हम प्रकाश से जुड़ते हैं। कान से हम स्वर से, ध्वनि से जुड़ते हैं। के चरणों में भी चढ़ाता है। भोग लगता है प्रीतिकर, भोजन लगता | ऐसे हमारी पांचों इंद्रियों के द्वार से हम संसार से जुड़ते हैं। इंद्रियों है प्रीतिकर, तो परमात्मा के द्वार पर चढ़ा आता है। फूल लगते हैं। | से जाएं, तो संसार में पहुंच जाएंगे। इंद्रियों को छोड़कर जाएं, तो प्रीतिकर, तो परमात्मा के चरणों में रख आता है। सोचता है, शायद | | परमात्मा में पहुंच जाएंगे। इंद्रियां द्वार हैं संसार की तरफ। अगर जो उसे प्रीतिकर है, वही परमात्मा को भी प्रीतिकर है। | इंद्रियों से लौट आएं पीछे, तो परमात्मा में पहुंच जाएंगे।
लेकिन अज्ञान में जो प्रीतिकर है, वह ज्ञान में प्रीतिकर नहीं रह | जो सीढ़ी मकान के नीचे लाती है, वही सीढ़ी मकान के ऊपर भी जाता। हमें जो प्रीतिकर है, हमारी स्थिति में जो प्रीतिकर है, उसे ले जाती है। जो रास्ता आपको यहां तक ले आया, वही रास्ता परमात्मा के द्वार पर चढ़ाने योग्य समझने की भूल अज्ञान में ही आपको वापस आपके घर तक भी ले जाएगा। लेकिन यहां आते होती है।
समय और घर लौटते समय, रास्ता भी वही होगा, आप भी वही कृष्ण कहते हैं इस सूत्र में कि ज्ञानीजन, योगीजन, अपनी इंद्रियों होंगे। फर्क क्या पड़ेगा? फर्क इतना ही पड़ेगा, आपका रुख, को ही उस परमात्मा की अग्नि में आहुति दे देते हैं।
आपका चेहरा बदल जाएगा। इधर आते हुए चेहरा इस तरफ होगा, हम जब भी परमात्मा को कुछ भेंट करते हैं, तो इंद्रियों के विषयों | पीठ घर की तरफ होगी; घर जाते समय चेहरा घर की तरफ होगा, में से कुछ भेंट करते हैं। इंद्रियां जो चाहती हैं, उसे हम परमात्मा को पीठ इस तरफ होगी। भेंट करते हैं। ज्ञानीजन, योगीजन इंद्रियों को ही उसकी अग्नि में | संसार में जाते समय इंद्रियों की तरफ उन्मुख होकर, मुंह करके आहुति दे देते हैं। भेद को ठीक से समझ लेना जरूरी है। | संसार में जाना पड़ता है। परमात्मा की तरफ, स्वयं की तरफ आते
फूल लगता है प्रीतिकर; नासापुटों को सुगंध लगती है मधुरः | | समय, इंद्रियों की तरफ पीठ कर लेनी पड़ती है और लौटना पड़ता आंखों को रूप लगता है आकर्षक। हम फूल को चढ़ा देते हैं | परमात्मा के चरणों पर। ज्ञानीजन सुगंध की इंद्रिय को ही चढ़ा देते | | इंद्रियां ही द्वार हैं संसार में ले जाने के, इंद्रियां ही द्वार बनती हैं हैं, फल को नहीं। हमें भोजन लगता है प्रीतिकर, स्वाद लगता है। परमात्मा में आने के। इंद्रियां एंटेंस हैं संसार में और एक्जिट हैं मधुर, हम स्वादिष्ट फलों को, मिष्ठानों को परमात्मा के द्वार पर | परमात्मा में। रख देते हैं। ज्ञानीजन, योगीजन स्वाद को ही-स्वादिष्ट को | । इसलिए कृष्ण कहते हैं, ज्ञानीजन अपनी इंद्रियों को ही उसके नहीं—स्वाद को ही उसकी अग्नि में समर्पित कर देते हैं। इंद्रियों को हवन में, उसके यज्ञ की अग्नि में, उस परमात्मा में समर्पित कर देते ही। जो प्रीतिकर लगता है, वह नहीं; जिसे प्रीतिकर लगता है, उसे हैं। उनका ही होम लगा देते हैं। तब जो पीछे शेष रह जाता है वह,
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संन्यास की नई अवधारणा
और जिसे होम दिया है वह, दो नहीं रह जाते । फिर यज्ञ करने वाला, यज्ञ, यज्ञ जिसकी प्रार्थना में किया गया वह, सब एक ही हो जाते हैं। इंद्रियों से छूटते ही व्यक्ति में और समष्टि में कोई भेद नहीं । इंद्रियों से छूटते ही दृश्य विदा हो जाता, अदृश्य से मिलन हो जाता। इंद्रियों के छूटते ही रूप विदा हो जाता, अरूप से मिलन हो जाता। इंद्रियों के छूटते ही आकार खो जाता, निराकार में निमज्जन हो जाता है। इंद्रियां ही हमारे आकार की जन्मदात्री, रूप की निर्माता, संसार की व्यवस्थापक हैं। इंद्रियों के तिरोहित होते ही सब खो जाता है विराट में, निराकार में।
इसलिए ज्ञानीजन इंद्रियों को ही — इंद्रियों के उपभोगों को नहीं, इंद्रियों को ही - जिनसे सब उपभोग किए, उनको ही, परमात्मा को समर्पित कर देते हैं।
यह समर्पण ही समर्पण है, बाकी सब धोखा है। ऐसा त्याग ही त्याग है, बाकी सब त्याग प्रवंचना है। ऐसा अपने को ही खो देने की सामर्थ्य ही समर्पण है। बाकी सब अपने को बचा लेने का उपाय है।
फूल को चढ़ाकर हम कुछ भी तो नहीं चढ़ाते । फूल तो परमात्मा को चढ़े ही हुए हैं। आप तोड़कर सिर्फ उनके प्राणों को नष्ट करते हैं। पौधों पर चढ़े हुए भी फूल परमात्मा की ही गौरव गाथा गाते हैं। आप उनको तोड़कर सिर्फ मार डालते हैं, हत्या करते हैं, और कुछ नहीं करते। और यहां वे विराट परमात्मा को समर्पित थे ही, आप तोड़कर अपने घर में हाथ से बनाए हुए, होममेड परमात्मा पर जाकर उनको चढ़ाते हैं !
नहीं, इससे कुछ न होगा। और परमात्मा के सामने मिठाइयों के थाल रखने से कुछ न होगा। क्योंकि सभी कुछ उसके सामने सदा रखा ही हुआ है। सभी कुछ उसकी मौजूदगी में सदा है। सारा विश्व ही उसके सामने है। आपकी थाली बहुत अर्थ न लाएगी।
चढ़ाना ही हो, तो चढ़ाने की चीज स्वयं के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। हमारे पास अपने अतिरिक्त और कुछ भी तो नहीं है। इसे गणित समझें। इसे गणित समझें कि मौत के समय आपसे जो छीना जाएगा, वही यज्ञ में चढ़ाया जाए, तो ही यज्ञ पूरा होता है । मौत के समय जो आपसे छीना जाएगा, अगर आप उसी को स्वेच्छा से समर्पित करते हैं, तो ही परमात्मा के चरणों तक आपकी पुकार और प्रार्थना पहुंच पाती है। मृत्यु में जो जबर्दस्ती घटित होगा, साधक, भक्त, योगी, उसे सहज अपनी ही ओर से परमात्मा के चरणों में रख देता है।
इसलिए फिर उसकी मृत्यु नहीं आती, क्योंकि उसके पास छीने
| जाने को भी कुछ नहीं बचता। इंद्रियां उसने दे दीं, जो छिन सकती थीं। और शरीर इंद्रियों का जोड़ है; शरीर भी दे दिया उसने, जो छिन सकता था । और अहंकार सारे इंद्रियों के अनुभव का संघट है। इंद्रियों के साथ वह भी गया।
इंद्रियों के साथ ही सब कुछ चला जाता है, जो मौत में छीना | जाता है। जो साधारणजन मौत में छोड़ते हैं, छुड़ाया जाता है, वह असाधारणजन स्वयं ही परमात्मा के चरणों में समर्पित कर देते हैं। यही है यज्ञ, यही है हवन, यही है होम । इसके अतिरिक्त सब धोखे हैं।
धोखे देने में हम कुशल हैं। दूसरों को, अपने को, परमात्मा को भी हम धोखा देने से बचते नहीं ।
अनेक-अनेक प्रकार के हम धोखे अपने आस-पास खड़े कर लेते हैं। और धर्म के नाम पर हमने हजार धोखे खड़े कर लिए हैं। | इस सूत्र को पढ़ते रहेंगे हम रोज, और फिर भी सूत्र को पढ़कर हम फूल ही चढ़ाते रहेंगे। इस सूत्र को पढ़ते रहेंगे रोज, फिर भी मिठाइयां चढ़ाते रहेंगे। इस सूत्र को पढ़ते रहेंगे रोज, लेकिन इंद्रियां हम से न चढ़ाई जाएंगी। स्वाद नहीं, सुवास का उपकरण नहीं; हम अपने को बचाकर और सब चढ़ाते रहे हैं। शायद, अपने को बचाने के लिए ही हम कुछ और चढ़ा रहे हैं। हमने परमात्मा को कोई बच्चा समझा है, जिसे हम खिलौने पकड़ा देते हैं। इन खिलौनों से नहीं हो सकता है कुछ |
कृष्ण कहते हैं, जो ऐसा कर पाता है, वही परम सत्य को, परम आनंद को, परम आशीष को उपलब्ध होता है।
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प्रश्न ः भगवान श्री, श्लोक के दूसरे हिस्से में कहा गया है, ज्ञान से प्रकाशित हुई परमात्मा में स्थितिरूप योगाग्नि में हवन ! इसमें योगाग्नि का अर्थ स्पष्ट करने की कृपा करें।
सा मैंने कहा, इंद्रियों के भोग चढ़ाने से कुछ भी न होगा; ऐसे ही बाहर जो अग्नि जलती है, उसमें चढ़ाने से भी कुछ न होगा। बाहर की अग्नि में चढ़ाना हो, तो इंद्रियां चढ़ाई भी कैसे जा सकती हैं ? बाहर की अग्नि में तो | इंद्रियों के विषय ही चढ़ाए जा सकते हैं, इंद्रियां नहीं चढ़ाई जा
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गीता दर्शन भाग-2
सकतीं। बाहर की अग्नि में तो फूल ही चढ़ाए जा सकते हैं, गंध की आकांक्षा कैसे चढ़ाई जा सकती है ! बाहर की अग्नि में तो आकृत वस्तुएं ही चढ़ाई जा सकती हैं, आकार देने वाली दृष्टि कैसे चढ़ाई जा सकती है ! बाहर की अग्नि तो दृष्टि को छू भी न पाएगी। स्वभावतः, अगर इंद्रियां चढ़ानी हैं, तो योगाग्नि में, योग से उत्पन्न हुई अग्नि में।
योग से उत्पन्न हुई अग्नि क्या है? इसे थोड़ा समझना पड़ेगा। यह थोड़ी आकल्ट साइंस की बात है। योग से उत्पन्न अग्नि क्या है? तो पहले तो यह समझें कि अग्नि क्या है। अग्नि दो वस्तुओं के भीतर छिपी हुई विद्युत का संघर्षण है। प्रत्येक वस्तु के भीतर विद्युत छिपी है। शायद यह कहना भी ठीक नहीं है। यही कहना ठीक है । कि प्रत्येक वस्तु विद्युत कणों के जोड़ का ही नाम है। विज्ञान भी यही कहेगा; फिजिसिस्ट, भौतिकविद भी यही कहेंगे। प्रत्येक वस्तु इलेक्ट्रांस का जोड़ है, विद्युत कणों का जोड़ है। जो वस्तुएं आपको दिखाई पड़ रही हैं चारों तरफ, वे भी वस्तुएं नहीं हैं; विद्युत ऊर्जा, इलेक्ट्रिक एनर्जी ही हैं।
प्रत्येक वस्तु को हम तोड़ें, एक मिट्टी के टुकड़े को हम तोड़ें तोड़ें और अगर आखिरी परमाणुओं पर पहुंचें, तो फिर विद्युत कण ही हाथ लगते हैं, पदार्थ खो जाता है। एनर्जी ही हाथ लगती है; ऊर्जा, शक्ति ही हाथ लगती है; पदार्थ खो जाता है।
अतिसूक्ष्म ! अतिसूक्ष्म कहना भी ठीक नहीं, सूक्ष्म से भी पार । विद्युत के कणों, कण कहना भी ठीक नहीं। क्योंकि विद्युत का कण नहीं होता। कण तो पदार्थ के होते हैं। विद्युत की तो लहर होती है, वेव होती है, तरंग होती है। शक्ति में कण नहीं होते, शक्ति में तरंगें होती हैं। अभी हिंदी में कोई शब्द ठीक नहीं है। लेकिन अंग्रेजी में एक जर्मन शब्द उपयोग होता है, क्वांटा। क्वांटा का मतलब है, कण भी, तरंग भी। कण इस खयाल से कि पदार्थ का आखिरी हिस्सा है; तरंग इस खयाल से कि वह आखिरी हिस्सा पदार्थ नहीं है, विद्युत है।
तो क्वांटा से बना हुआ है सारा जगत। बाहर-भीतर, सब तरफ क्वांटा से बना हुआ है। ये जो विद्युत कण, लहरें, तरंगें प्रत्येक पदार्थ को निर्मित की हैं, अगर इनका घर्षण किया जाए, तो अग्नि उत्पन्न होती है ! अग्नि, विद्युत के बीच हुए घर्षण का परिणाम है।
अगर आप अपने दोनों हाथ भी घिसें, तो भी दोनों हाथ गर्म हो जाते हैं; अग्नि पैदा होनी शुरू हो जाती है। अगर आप तेजी से दौड़ें, तो पसीना आना शुरू हो जाता है; क्योंकि हवा और आपके
बीच घर्षण हो जाता है। घर्षण से शरीर उत्तप्त हो जाता है। जब आपको बुखार चढ़ आता है, तब भी आपका शरीर उत्तप्त हो जाता है, क्योंकि शरीर के भीतर, बाहर से आए हुए बीमारी के कीटाणुओं में और आपके शरीर के रक्षक कीटाणुओं में घर्षण शुरू हो जाता है, संघर्ष । उस घर्षण के परिणाम में फीवर, बुखार पैदा हो जाता है। बुखार कोई बीमारी नहीं है, केवल बीमारी की सूचना है कि शरीर के भीतर गहरा संघर्ष छिड़ा हुआ है। इसलिए शरीर उत्तप्त हो जाता है।
शरीर एक विशेष उत्ताप में रहे, तो ही हम जीवित रह सकते हैं। अगर यहां अट्ठानबे डिग्री से दो-चार डिग्री नीचे गिर जाए, तो प्राण संकट में पड़ जाते हैं। वहां एक सौ दस डिग्री के आगे प्राण तिरोहित
हो
जाते हैं । दस-पंद्रह डिग्री का जीवन है! बस, दस-पंद्रह डिग्री के बीच में उत्ताप हो, तो हम जीवित रहते हैं। नीचे हो जाए, तो सब | ठंडा हो जाए; ऊपर हो जाए, तो सब इतना गर्म हो जाए कि जीवन | न बच सके न इस ठंडक में, न उस गर्मी में। ऐसा पंद्रह डिग्री के बीच हमारा जीवन है।
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पूरे समय शरीर जो है, वह थर्मोस्टैट का काम करता है। पूरे समय शरीर भीतरी व्यवस्था से शरीर की गर्मी को समान रखने की कोशिश करता है, शरीर की अग्नि को समान रखने की कोशिश करता है।
इस अग्नि को हम बाहर आग लगाकर किसी आदमी को बिठा दें, तो वह जल जाए। बाहर हमने क्या किया ? बाहर भी घर्षण से अग्नि पैदा होती है। जब आप दियासलाई को रगड़ रहे हैं, तब भी | आपने दियासलाई और हाथ की काड़ी में बहुत शीघ्रता से घर्षण को उपलब्ध होने वाले पदार्थ लगा रखे हैं, जो जल्दी से घर्षण में आग पकड़ लेते हैं। फिर आपने आग लगा दी, चिता जल गई। अब आदमी को उसमें रख दिया, वह जल जाएगा।
अभी-अभी ठीक दो महीने पहले यू.पी. के एक छोटे से गांव में एक सिक्ख साधु ने योगाग्नि से अपने को जलाया है। किसी तरह की अग्नि का उपयोग नहीं किया; आंख बंद करके बैठ गया और आग की लपटें उससे निकलनी शुरू हुईं, सब जल गया। फिर डाक्टरों ने सर्टिफिकेट भी पीछे दिया है कि किसी तरह के पेट्रोल, | किसी तरह की आग के किसी उपकरण का कोई उपयोग नहीं किया गया है । अग्नि अनजाने स्रोत से - डाक्टर्स ने जो लिखा | है – अनजाने स्रोत से भीतर से ही पैदा हुई है; बाहर से कोई अग्नि का लक्षण नहीं है। वह राख हो गया आदमी जलकर ।
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संन्यास की नई अवधारणा
योगाग्नि का अर्थ है, शरीर के भीतर ही अग्नि को पैदा किया जा | आपरेशन किया जा सकता है। वे परमाणु अगर काट दिए जाएं, तो सकता है। यह योगाग्नि दो प्रकार की हो सकती है। एक ऐसी, जैसा आदमी को फिर सुगंध नहीं आएगी। अगर वे परमाणु बहुत ज्यादा मैंने इस उदाहरण में आपको कहा, दो महीने पहले घटी एक गुरुद्वारे | किसी एक ही गंध में रखे जाएं, तो धीरे-धीरे इम्यून हो जाते हैं और की यह घटना। एक साधु ने अपने को योगाग्नि से जला लिया। | उस गंध को पकड़ने में असमर्थ हो जाते हैं। सब राख हो गया। भीतर से आग बाहर की तरफ आई। पहले ___ इसलिए अगर एक आदमी पाखाना ढोता रहता है जिंदगीभर, तो उसके भीतर के अंग जले हैं, फिर बाहर के अंग जले हैं। भीतर सब | | उसे पाखाने में गंध आनी बंद हो जाती है। इसलिए बंद हो जाती है राख हो गया; बाहर बहुत कुछ बच भी गया। अग्नि भीतर से बाहर कि उसके नासापुट के जो अणु गंध को पकड़ते हैं, वे मृत हो जाते की तरफ आई है। मेडिकल साइंस की पकड़ के बाहर है; जिन हैं; बार-बार एक ही आघात से वे समाप्त हो जाते हैं। अगर आप चिकित्सकों ने रिपोर्ट दी है, वे भी चकित और अवाक हैं। उनके नई साबुन खरीदकर लाते हैं, तो पहले दिन गंध आती है; दूसरे दिन पास कोई एक्सप्लेनेशन, कोई व्याख्या नहीं है। क्या हुआ? | कम, तीसरे दिन कम, चौथे दिन विदा हो जाती है। शायद आप
शरीर के भीतर भी घर्षण पैदा करने की यौगिक प्रक्रियाएं हैं। इस | सोचते होंगे कि साबुन के ऊपर ही गंध थी, तो आप गलती में हैं। घर्षण से दो काम लिए जा सकते हैं। अनेक बार योगी अपने शरीर तीन-चार दिन में आप इम्यून हो जाते हैं। आपको फिर गंध का पता को इस घर्षण से उत्पन्न अग्नि में ही समाहित करते हैं। यह एक नहीं चलता। उपयोग है। यह मृत्यु के समय उपयोग में लाया जा सकता है। ये जो सूक्ष्म परमाणु हैं, ये योगाग्नि से जलाए जा सकते हैं। ये
एक दूसरा उपयोग है, जिसका कृष्ण प्रयोग कर रहे हैं। योगाग्नि | | भीतर ही जलकर राख हो जाते हैं; इनका फिर पता ही नहीं चलता। में अपनी इंद्रियों को समाहित, अपनी इंद्रियों को समर्पित कर देते | ये समर्पित किए जा सकते हैं। ये अतिसूक्ष्म हैं। इनके लिए हैं। वह दूसरा उपयोग है; वह जीते-जी किया जा सकता है। उसमें । | अतिसूक्ष्म घर्षण की जरूरत है। उसकी प्रक्रियाएं हैं; उसके अपने
और भी सूक्ष्म अग्नि पैदा करने की बात है। वह अग्नि भी भीतर । | यौगिक मेथड्स और विधियां हैं कि ये सूक्ष्म परमाणु कैसे क्षीण हो पैदा हो जाती है। उस अग्नि से शरीर नहीं जलता, लेकिन शरीर के | | जाएं, विदा हो जाएं। लेकिन इनको विदा करने के पहले की रस जल जाते हैं। उस अग्नि से शरीर नहीं जलता, लेकिन इंद्रियों अनिवार्य शर्त पूरी होनी जरूरी है, अन्यथा योगाग्नि पैदा नहीं होती। के रस और आकांक्षाएं जल जाती हैं। उससे शरीर नहीं जलता, __ वह पहले सूत्रों में कृष्ण ने कहा है, आसक्तिरहित, इंद्रियों के लेकिन इंद्रियों के जो सूक्ष्म तंतु हैं, वे जल जाते हैं।
रस से मुक्त, संयमी, इंद्रियों और विषयों के बीच जिसने सेतु को ___ इंद्रियों के सूक्ष्म तंतु हैं, इससे वैज्ञानिक भी राजी हैं। और अगर | तोड़ा-ऐसे व्यक्ति की चर्चा पहले सूत्रों में की गई है। उसके बाद इंद्रियों के सूक्ष्म तंतु अलग कर लिए जाएं, तो इंद्रियां व्यर्थ हो जाती | योगाग्नि की बात कही जा रही है। ऐसा व्यक्ति योगाग्नि पैदा कर हैं; इसके लिए भी वैज्ञानिक राजी हैं।
सकता है; और भीतर से ही, बिना किसी बाह्य सहायता के उन सारे __ जैसे आप जब सुगंध ले रहे हैं, तो शायद आपको तो खयाल सूक्ष्म अणुओं को समर्पित कर देता है उस अग्नि में, जिनके कारण नहीं, खयाल का कोई कारण भी नहीं, कि आपकी नाक के इंद्रियां आंतरिक सक्रियता लेती हैं। नासापुटों में बहुत सूक्ष्म, सुगंध को पकड़ने वाले, सुगंध की तरंगों ___ अभी इस पर बहुत केमिकल खोज भी चलती है। और आधुनिक को पकड़ने वाले कण हैं।
बायो-केमिस्ट्री, जीव-रसायन इस पर बड़े काम करती है। क्यों? जब आप सर्दी-जुकाम में होते हैं, आपको सुगंध नहीं आती। क्योंकि बहुत-सी बातें पकड़ में आनी शुरू हुई हैं। जैसे यह पकड़ क्यों? आपके पास नाक पूरी की पूरी है; नासापुट पूरे हैं; सुगंध में आना शुरू हुआ कि एक खास प्रकार का रासायनिक द्रव्य कहां खो गई? सुगंध इसलिए नहीं आती कि जब आप सर्दी में होते | अगर शरीर में न हो, तो आदमी क्रोध नहीं कर सकता। एड्रिनल, हैं. तो आपकी नाक के भीतर के सब रेशे सजन से भर जाते हैं। अगर इस तत्व को, जो कि बहुत थोड़ी-सी मात्रा में शरीर में और वे जो छोटे-छोटे परमाणु पकड़ते हैं गंध को, वे दब जाते हैं| किन्हीं-किन्हीं ग्रंथियों के भीतर छिपा है, अगर उसे अलग कर दिया और पकड़ने में असमर्थ हो जाते हैं। बलगम के नीचे वे परमाणु दब । | जाए, तो आदमी क्रोध नहीं कर सकता। जाते हैं और सुगंध को पकड़ने में असमर्थ हो जाते हैं। उनका | पावलव ने बहुत-से कुत्तों के एड्रिनल ग्लैंड्स को काट डाला।
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ॐ गीता दर्शन भाग-20
कुत्ते जो जंगली थे, खुंखार थे, जरा-सी बात में जी-जान ले सकते | जब भौंक ही नहीं सकते! सब बेकार है। यहां राजनीतिक शरण
और दे सकते थे, उनका एड्रिनल द्रव्य अलग कर देने के बाद, वे | अगर दिलवाने में कछ सहायता कर सको. तो अब मैं लौटकर नहीं कुत्ते और सब तरह से स्वस्थ हैं, वही के वही हैं, ऊपर से कोई | जाना चाहता। अंतर नहीं; दो, चार, दस बूंदों का रासायनिक द्रव्य उनके भीतर से | किसी न किसी दिन कोई तानाशाही सरकार बायो-केमिस्ट्री का अलग कर लिया गया, फिर आप उनको कितना ही सताइए, | उपयोग करेगी ही। क्योंकि बायो-केमिस्ट्री ने जो नए सूत्र दिए हैं, कोंचिए, टोंचिए, परेशान करिए, वे भौंक भी नहीं सकते! क्या हो | | योग को बहुत पहले से पता है। लेकिन योग से कभी खतरा नहीं गया? दस बूंद रासायनिक द्रव्य उनके शरीर के भीतर से बाहर हो | हो सकता था, क्योंकि दूसरा आदमी आपके ऊपर कुछ नहीं करता गया, तो इस कुत्ते के भीतर क्या हो गया? इसकी सारी ताकत दस | था; आप अपने ऊपर कुछ करते थे। बंद में थी? इसका चिल्लाना, भोंकना, दौड़ना, इसकी गति, सब बायो-केमिस्ट्री कहती है, अब जैसे सेक्स हारमोंस खोज लिए उस दस बूंद में थी! वैज्ञानिक कहते हैं, उसी दस बूंद में थी। | गए। एक बूढ़े आदमी को भी अगर सेक्स हारमोन के इंजेक्शन दे
वैज्ञानिक इसे ऊपर से अलग कर सकते हैं, इसलिए बड़ा खतरा | | दिए जाएं, तो वह जवान की तरह सेक्सुअली पोटेंट हो जाता है; भी है। खतरा यह है कि आज नहीं कल कोई टोटेलेटेरियन हुकूमत, | | वह जवान आदमी की तरह कामोत्तेजक शक्तियों से भर जाता है। कोई तानाशाही सरकार लोगों के शरीर के भीतर से अगर एड्रिनल | | और अगर जवान के भीतर से भी सेक्स हारमोंस अलग कर लिए ग्रंथियों को अलग करवा दे, तो आप बगावत नहीं कर सकेंगे। | जाएं, तो वह बूढ़े की तरह शिथिल और कामशक्ति में एकदम दीन भौंक ही नहीं सकेंगे, बगावत तो बहुत दूर की बात है। बगावत के | | हो जाता है। लिए भौंकना बिलकुल जरूरी है।
आप देखते हैं रास्ते पर चलते हुए बैल को और सांड को! फर्क मैंने सुना है कि एक अंतर्राष्ट्रीय कुत्तों की प्रदर्शनी लंदन में हो | | कुछ भी नहीं है; थोड़े-से हारमोंस का फर्क है। बैल के हारमोन काट रही थी। उसमें एक रूसी कुत्ता भी प्रदर्शनी के लिए आया हुआ था। दिए गए हैं। उसके हारमोन विकसित नहीं हो पाए, उसके सेक्स स्वभावतः, कुत्तों में आपस में बातचीत चलती थी। इंग्लैंड के कुत्ते | | हारमोन तोड़ दिए गए हैं। सांड के सेक्स हारमोन मौजूद हैं। दस बैल से उस रूसी कुत्ते ने पूछा कि बंधु, इंग्लैंड के हाल-चाल कैसे हैं? | | एक सांड के मुकाबले भी कुछ नहीं हैं। किसी दिन कोई तानाशाही । उस कुत्ते ने कहा, हाल-चाल ऐसे तो सब ठीक हैं, लेकिन कई | सरकार आदमियों की हालत बैलों जैसी कर दे सकती है। . चीजों की बहुत तंगी है। भोजन बहुत ठीक से नहीं मिलता। दूध भी । बायो-केमिस्ट्री जो आज कह रही है कि शरीर के भीतर जितना मिलना चाहिए, नहीं मिलता। हड्डी-मांस की भी थोड़ी रासायनिक द्रव्य हैं, बहुत सूक्ष्म मात्रा में, जिनके अंतर से, बाहर तकलीफ है। वहां रूस में क्या हाल-चाल हैं? उस कुत्ते ने कहा, | | से भी अंतर करने से, व्यक्ति के भीतर अंतर पैदा होता है। योग आनंद ही आनंद है; बहुत हड्डी-मांस है, बहुत दूध है; खाने को | बहुत पहले से जानता है इस सत्य को। और योगाग्नि उस प्रक्रिया जितना चाहिए उतना है। सोने के लिए विश्राम-गृह है। सब अच्छा | | का नाम है, जिसके द्वारा इन भीतरी रासायनिक व्यवस्था में अंतर है। एकदम सब अच्छा है।
पैदा किया जाता है। अब इस योगाग्नि को पैदा करने की बहत फिर थोड़ी देर बाद चारों तरफ देखकर कि कोई सुन तो नहीं रहा, विधियां हैं। दो-तीन संक्षिप्त बात आपसे कहूं, जिससे खयाल में वह पास सरक आया और उसने कहा, बंधु, एक थोड़ी-सी बात में | आ जाए कि यह योगाग्नि कैसे पैदा हो। सहायता करोगे? इंग्लैंड के कुत्ते ने कहा, कौन-सी सहायता? | | कभी आपने खयाल किया कि अगर आप उपवास करें, तो उसने कहा कि मैं राजनीतिक शरण इंग्लैंड में लेना चाहता हूं। पर आपके भीतर शीतलता खो जाती है, सब रूखा-रूखा हो जाता है, उस इंग्लैंड के कुत्ते ने पूछा, तुम्हें तो वहां सब सुख हैं। तुम यहां ड्राइनेस पैदा हो जाती है। और अगर आप पानी भी न पीएं-और किसलिए आना चाहते हो? मैं तो मन में सोच रहा था, दुर्भाग्य | | तभी उपवास पूरा है। अगर आप खाना न लें और पानी पीते रहें, हमारा कि यहां इंग्लैंड में पैदा हुए; रूस में पैदा होते तो बेहतर था! | तो उपवास बिलकुल अधूरा है। अगर आप पानी भी न लें, भोजन उसने कहा, और सब तो सुख है, लेकिन भौंकने की आजादी | भी न लें, तो एक विशेष समय की सीमा के बाद शरीर उस हालत बिलकुल नहीं है। तो सुखों का भी क्या करेंगे, उस कुत्ते ने कहा, में हो जाता है, जिस हालत में सूखी लकड़ियां होती हैं। गीली
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संन्यास की नई अवधारणा
लकड़ी को ईंधन नहीं बनाया जा सकता। आग कम पैदा होती है, धुआं ज्यादा पैदा होता है। सूखी लकड़ी चाहिए।
उपवास का प्रयोग योगाग्नि पैदा करने के लिए, शरीर को सुखाने के लिए किया गया था । विशेष उपवास की प्रक्रिया के बाद शरीर उस हालत में आ जाता है कि समस्त भीतरी शरीर की व्यवस्था सूखी, ड्राई हो जाती है। उसमें जरा से ही प्रयोग से अग्नि पैदा हो जाती है। जरा-से ही प्रयोग से। तो एक तो उपवास योगाग्नि पैदा करने की प्रक्रिया का अनिवार्य अंग था।
दूसरा, अग्नि की धारणा! जब शरीर बिलकुल भीतर रूखी हालत में हो, सूखी हालत में हो, गीला न हो, तब अग्नि की धारणा । सुना होगा, पढ़ा होगा आपने, सूर्य पर त्राटक । वह अग्नि की धारणा के लिए अभ्यास है। इसलिए जो नहीं जानता योगाग्नि की पूरी प्रक्रिया को, उसे भूलकर सूर्य पर त्राटक नहीं करना चाहिए, • अन्यथा आंखें खराब करेगा, और कुछ भी नहीं ।
सूर्य पर त्राटक योगाग्नि पैदा करने का एक अभ्यास मात्र है, एक फ्रेगमेंट, एक खंड- अंश । जब सूर्य पर कोई आंख रखकर निश्चित समय पर, निश्चित प्रक्रिया से पर ध्यान करता है, तो उसके भीतर आंखों के द्वारा इतनी सूर्य किरणें इकट्ठी हो जाती हैं। कि ये सूर्य किरणें उपवास के साथ मन के भीतर आंख बंद करके ज्योति की, अग्नि की धारणा करने से सक्रिय हो जाती हैं और भीतर सूक्ष्म अग्नि पैदा हो जाती है।
लेकिन यह पूरी एक आकल्ट प्रोसेस है। इसमें कुछ हिस्से मैं छोड़ रहा हूं, अन्यथा कोई ऐसे ही कुतूहलवश प्रयोग करे, तो खतरे में पड़ सकता है। इसलिए आप इतने से कर न पाएंगे; इतना मैं सिर्फ समझाने के लिए कह रहा हूं। इसके कुछ हिस्से छोड़े दे रहा हूं, जिनके बिना यह प्रक्रिया पूरी नहीं हो सकती। वे हिस्से तो निजी और व्यक्तिगत तौर से ही साधक को बताए जा सकते हैं। लेकिन मोटे अंग मैंने आपको बता दिए।
जब भीतर अग्नि पैदा होती है, तो उसके दो प्रयोग हो सकते हैं। या तो इंद्रियों के सूक्ष्म रस को समर्पित कर दिया जाए उस अग्नि में, तो व्यक्ति पूरी तरह जीवित होगा, लेकिन पूरा रूपांतरित हो जाएगा; दूसरा ही हो जाएगा। और इस अग्नि का अंततः मृत्यु के समय भी उपयोग किया जा सकता है। तब शरीर को पूरा ही समर्पित किया जा सकता है।
कृष्ण ने इसीलिए साधारण अग्नि की बात नहीं कही, योगाग्नि की बात कही है कि योगाग्नि में अपनी इंद्रियों को समर्पित कर दे
जो, वह मुक्त, वह समस्त बंधनों के बाहर हो जाता है।
द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे । स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः ।। २८ । । और दूसरे कई पुरुष ईश्वर - अर्पण बुद्धि से लोक सेवा में द्रव्य लगाने वाले हैं, वैसे ही कई पुरुष स्वधर्म पालन रूप तपयज्ञ को करने वाले हैं, और कई अष्टांग योगरूप यज्ञ को करने वाले हैं; और दूसरे अहिंसादि तीक्ष्ण व्रतों से युक्त यत्नशील पुरुष भगवान के नाम का जप तथा भगवत्प्राप्ति विषयक शास्त्रों का अध्ययन रूप ज्ञानयज्ञ के करने वाले हैं।
कृ
ष्ण ने इस सूत्र में और बहुत - बहुत मार्गों से इस धर्म-यज्ञ को करने वाले लोगों का उल्लेख किया है। एक-एक को क्रमशः समझ लेना उपयोगी होगा। पहला, ईश्वर - अर्पण भाव से सेवा को यज्ञ समझ लेने वाले लोग। ईश्वर - अर्पण भाव से सेवा को धर्म बना लेने वाले लोग, वे भी वहीं पहुंच जाते हैं। लेकिन शर्त है, ईश्वर - अर्पण भाव से ।
सेवा अहंकार - अर्पित भी हो सकती है। जब मैं सेवा करूं किसी की और चाहूं कि वह मेरे प्रति अनुगृहीत हो, तो अहंकार - अर्पित हो गई सेवा | अगर चाहूं सेवा करके कि वह मुझे धन्यवाद दे, तो अहंकार - अर्पित हो गई सेवा ।
|
सेवा मैं करूं और चाहूं परमात्मा को धन्यवाद दे; अनुग्रह परमात्मा का। मैं बीच में जरा भी नहीं करूं, और हट जाऊं। मुझे पता ही न चले कि मैंने सेवा की; इतना ही पता चले कि परमात्मा ने मुझसे काम लिया। मुझे सेवक होने का कभी बोध भी न हो; सिर्फ परमात्मा का उपकरण होने का बोध हो। मैं कुछ कर रहा हूं, ऐसा कर्ता का भाव सेवा में न आए। प्रभु करवा रहा है, मैं उसके इशारों पर चल रहा हूं। जैसे हवा में वृक्ष के पत्ते डोलते, या सूखे पत्ते उड़ते अंधड़ में, या नदी पर तिनका तैरता ; नदी जहां ले जाए, चला जाता। अंधड़ जहां ले जाए सूखे पत्ते को, उड़ जाता।
ऐसा ईश्वर - अर्पण भाव से जो व्यक्ति सेवा करता है, उसके लिए सेवा भी साधना बन गई। उसके लिए सेवा भी उपासना है। उसके लिए सेवा भी प्रार्थना है। लेकिन अकेली सेवा प्रार्थना नहीं | है; ईश्वर - अर्पण भाव के कारण प्रार्थना है। ईश्वर - अर्पण - जो भी
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गीता दर्शन भाग-2
फल है, वह ईश्वर को अर्पित; जो भी कर्म है, वह मेरा; जो भी | आप। गर्भ में थी बात। कुछ पता न था। दिया छाता उठाकर। अगर प्रतिफल है, वह प्रभु का-ऐसी दृष्टि हो, तो इस मार्ग से भी | | उसने धन्यवाद दे दिया, तो भी पता नहीं चलेगा। प्रसन्न होकर अपने परमात्मा तक पहुंचा जा सकता है।
रास्ते पर चले जाएंगे। लेकिन अगर वह धन्यवाद न दे; चुपचाप सरल दिखती है बात। योगाग्नि की बात तो बहुत कठिन दिखती | | छाता बगल में ले और ऐसा चल पड़े, जैसे आप थे ही नहीं; तब है। लेकिन आपसे मैं कहूं, योगाग्नि की बात सरल है; यह | | आपको अखरेगा। तब आपको पता चलेगा कि कहीं कोई गहरे में, ईश्वर-अर्पण की बात कठिन है।
अचेतन में कोई आकांक्षा थी; उसी आकांक्षा ने छाता उठवाया, जो सरल दिखाई पड़ता है, वह सरल होता है, ऐसा जरूरी नहीं | अन्यथा सवाल क्या था। है। जो कठिन दिखाई पड़ती है बात, वह कठिन होती है, ऐसा ___ मां जब बेटे को जन्म देती है, तो इसलिए नहीं देती कि बुढ़ापे में जरूरी नहीं है। अक्सर धोखा होता है।
उससे सेवा लेगी। नहीं; कहीं इसका कोई पता नहीं होता। जब असल में जो सरल दिखाई पड़ती है, उसके सरल दिखाई पड़ने | | रात-रातभर जागती; बीमारी में, अस्वास्थ्य में, पीड़ा में महीनों सेवा में ही खतरा है। सरल हो नहीं सकती। सरल दिखाई पड़ती है। करती: वर्षों तक बेटे को बड़ा करती. तब उसे कभी खयाल नहीं
लगता है, ठीक; यह बिलकुल ठीक। सेवा करेंगे, होता। लेकिन एक दिन बेटा बहू को लेकर घर आ जाता है और ईश्वर-अर्पित कर देंगे। लेकिन ईश्वर-अर्पण, अहंकार का | | अचानक मां देखती है कि उस बेटे की आंख अब मां को देखती ही जरा-सा रेशा भी भीतर हो, तो नहीं हो सकता। रेशा मात्र भी | नहीं है। तब उसे अचानक खयाल आता है कि क्या मैंने इसलिए अहंकार का भीतर हो, तो ईश्वर-अर्पण भाव नहीं हो सकता। जब | | तुझे नौ महीने पेट में रखा था? क्या इसलिए मैं रात-रातभर जागी तक मैं हूं-जरा-सा भी, रंच मात्र भी-तब तक परमात्मा के लिए | थी? क्या इसलिए मैंने तुझे इतना बड़ा किया? पाला-पोसा, तेरे अर्पित नहीं हो सकता हूं।
लिए चक्की पीसी, गिट्टियां फोड़ी-इसलिए? जब देखेंगे इसको गौर से, तो पाएंगे ईश्वर-अर्पण अति कठिन __बेटा तो पैदा हो गया बहुत वर्ष पहले, लेकिन अहंकार अब तक है। करने में मैं प्रवेश कर जाता है। किया नहीं, कि उसके पहले ही | | प्रेगनेंट था। अब तक भीतर छिपा था। गर्भ में बैठा था। मौका पाकर मैं खड़ा हो जाता है। रास्ते पर जा रहे हैं, पता भी नहीं होता, किसी | बाहर निकला। उसने कहा, इसलिए! मां के भीतर अहंकार है; यह का छाता गिर गया है हाथ से। आप उठाकर दे देते हैं; तब पता भी | बहू के आने तक उसे प्रतीक्षा करनी पड़ती है। बहू के आने पर पैदा नहीं होता है कि कहीं कोई अहंकार है, कि सेवा कर रहा हूं, कुछ | | होता है। चोट पड़ती है। रहा भीतर, अन्यथा आ नहीं जाएगा। पता नहीं होता। स्पांटेनियस, सहज किसी का छाता गिरा, आपने सेवक तो बहुत हैं दुनिया में; कृष्ण उनकी बात नहीं कर रहे हैं। उठाया। लेकिन वह आदमी छाता बगल में दबाए, आपको | | सेवक जरूरत से ज्यादा हैं! हमेशा हाथ जोड़े खड़े रहते हैं कि सेवा बिलकुल न देखे और अपने रास्ते पर चला गया। तब फौरन पता का कोई अवसर। लेकिन जरा सोच-समझकर सेवा का अवसर चलता है कि अरे! इस आदमी ने धन्यवाद भी न कहा। माना कि | | देना। क्योंकि जो आदमी पैर पकड़ता है, वह सिर्फ गर्दन पकड़ने पहले से धन्यवाद की कोई आकांक्षा न थी; सोचा भी न था। लेकिन | | की शुरुआत है। जब भी कोई कहे, सेवा के लिए तैयार हूं, तब रही होगी जरूरत गहरे में कहीं, अन्यथा पीछे कहां से आ जाएगी? | | कहना, इतनी ही कृपा करो कि सेवा मत करो। क्योंकि पैर तुम
जो बीज में नहीं है, वह वृक्ष में आ नहीं सकता। जो पहले से | | पकड़ोगे, फिर गर्दन हम कैसे छुड़ाएंगे? और अगर आपने पैर नहीं है, वह पीछे प्रकट नहीं हो सकता। जो गर्भ में नहीं है, उसका पकड़ने दिया और गर्दन न पकड़ने दी, तो वह आदमी कहेगा, मैंने जन्म नहीं हो सकता। हां, गर्भ में दिखाई नहीं पड़ता। जन्म होता है, | | नौ महीने तक तुम्हारे पैर इसलिए पकड़े? रात-रातभर जागा और तो दिखाई पड़ता है। मां अगर गर्भवती नहीं है, तो जन्म नहीं दे | इसलिए सेवा की कि गर्दन न पकड़ने दोगे? सकती है। प्रेगनेंट होना चाहिए! जो भी प्रकट होता है, वह पहले | | सब सेवक खतरनाक सिद्ध होते हैं। क्योंकि सब सेवा प्रेगनेंट है: पहले, पीछे गर्भ में होना चाहिए।
अहंकार-अर्पित हो जाती है। बहुत मिसचीवियस सिद्ध होती है। दिया था छाता उठाकर, तब जरा भी तो खयाल नहीं था कि मैं | बहुत उपद्रवी सिद्ध होती है। जिस मुल्क में जितने ज्यादा सेवक हैं, धन्यवाद मांगंगा, कि चाहंगा; जरा भी खयाल नहीं था। प्रेगनेंट थे उस मल्क का भगवान के सिवाय और कोई बचाने वाला नहीं है।
हिए
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संन्यास की नई अवधारणा
लेकिन कृष्ण इन सेवकों की बात नहीं कर रहे हैं। कृष्ण कह रहे - बुद्धि तो सदा ही कहेगी, कर्म किया मैंने, तो फल मिले मुझे। हैं, ईश्वर-अर्पण पहले। हां, जिस दिन किसी को चारों ओर ईश्वर बुद्धि का गणित साफ है। ठीक भी है। कर्म किया मैंने, फल मिले ही ईश्वर दिखाई पड़ने लगे, फिर वह आपकी सेवा नहीं कर रहा | मुझे। है, वह परमात्मा की ही सेवा कर रहा है। फिर वह धन्यवाद मांगता | कृष्ण बड़ी अबौद्धिक बात कहते हैं, कर्म करो तुम, फल दे दो नहीं, धन्यवाद देता है कि आपने सेवा करने दी, अनुगृहीत हूं। प्रभु को! तो बुद्धि कहेगी, कर्म भी कर ले प्रभु, फल भी ले ले वही। अनुग्रह है आपका कि सेवा करने दी; क्योंकि मेरी प्रार्थना, मेरी हमें क्यों फंसाता? हमारा क्या लेना-देना है? हम तो कर्म करेंगे, साधना, मेरी आराधना पूरी हो सकी।
तो फल भी लेंगे हम। गणित सीधा और साफ है। ठीक दुकान और परमात्मा सब ओर दिखाई पड़ने लगे, तो सेवा प्रभु-अर्पित हो | बाजार का गणित है! सकती है। या भीतर अहंकार बिलकुल न रह जाए, तो सेवा कर्म करेंगे हम, तो फल वह कैसे लेगा? यह तो अन्याय है, प्रभु-अर्पित हो सकती है।
सरासर अन्याय है। और अगर कहीं कोई अदालत हो विश्व के प्रभु-अर्पण की कीमिया योगाग्नि से कम कठिन नहीं, ज्यादा ही | | नियंता की, तो वहां हम सबको फरियाद करनी चाहिए कि कर्म करें कठिन है। योगाग्नि तो टेक्निकल है, उसका तो तकनीक है। | हम, फल लो तुम! फल दें तुम्हें और कर्म करें हम? यह तो सरासर तकनीक अगर पूरा किया जाए, तो योगाग्नि पैदा होगी ही। लेकिन | लूट है! प्रभु-अर्पण टेक्निकल नहीं है। प्रभु-अर्पण बड़े भाव की उदभावना नहीं, बुद्धि के लिए यह गणित काम नहीं करेगा। इसलिए बुद्धि है; बड़े भाव का जन्म है। टेक्नोलाजी से उसका संबंध नहीं है, की समझ कभी भी इस स्थिति में नहीं पहुंच पाती कि कर्म मेरा, टेक्नीक से उसका संबंध नहीं है। टेक्नीक के लिए तो कठिन से | | फल तेरा। सिर्फ हृदय की समझ पहुंच पाती है। कठिन चीज सरल हो सकती है। क्योंकि टेक्नीक विकसित किया | लेकिन हृदय की समझ का क्या मतलब होता है ? समझ तो सब जा सकता है। लेकिन भाव-अर्पण के लिए कोई टेक्नीक विकसित | | बुद्धि की है हमारे पास। हृदय की हमारे पास कोई समझ नहीं है। नहीं हो सकता। उसके लिए तो समझ चाहिए।
| हृदय की समझ का मतलब यह है कि श्वास मुझे मिलती है, तो और ध्यान रहे, नासमझ आदमी भी टेक्नीशियन हो सकता है। परमात्मा से; प्राण मुझे मिलता है, तो परमात्मा से। जन्म मुझे अगर योगाग्नि की कला पूरी कोई सीख ले, तो कोई भी जो कला मिलता है, तो परमात्मा से; जीने का क्षण मुझे मिलता है, तो पूरी सीख गया है, योगाग्नि पैदा कर सकता है। कितनी ही कठिन परमात्मा से। अगर मैं न जीता होता, तो कोई भी तो उपाय नहीं था हो, फिर भी बहुत कठिन नहीं है। लेकिन भाव-समाधि, कि मैं किसी से भी कह सकता कि मैं जीता क्यों नहीं हूं? अगर मैं ईश्वर-अर्पण बड़ी अंडरस्टैंडिंग, बड़ी गहरी समझ की बात है। | अस्तित्व में न होता, तो शिकायत करने की भी तो कोई जगह न थी
और गहरी समझ की अर्थात एक तो वह समझ है, जो बुद्धि से | | कि मैं अस्तित्व में क्यों नहीं हूं? और अगर आज मैं अस्तित्व में हूं, आती है; वह बहुत गहरी नहीं होती है। एक और समझ है, जो हृदय तो मैं यह भी तो नहीं जानता कि मैं अस्तित्व में क्यों हूं? से आती है।
___ जब अस्तित्व के दोनों ही छोर अज्ञात हैं, तो तर्क से उन्हें नहीं ईश्वर-अर्पण बद्धि से कभी भी नहीं हो सकता, यह भी खयाल खोला जा सकता, क्योंकि तर्क सिर्फ ज्ञात को खोल सकता है।
श्वर-अर्पण बद्धि से कभी नहीं हो सकता। क्योंकि अज्ञात तर्क के लिए बिलकल बेमानी है। अज्ञात में तो हृदय ही बुद्धि कभी भी अहंकार के पार नहीं जाती है। बुद्धि सदा कहती है, टटोलता है। अज्ञात में तो टटोला ही जा सकता है। मैं। कभी-कभी हृदय कहता है, तू। बुद्धि तो सदा कहती है, मैं। । न मुझे पता है कि मैं कहां से आता, न मुझे पता है कि मैं कहां
इसलिए जब भी आप प्रेम में होते हैं, तब बुद्धि को छुट्टी दे देनी जाता। न मुझे पता है कि मैं क्यों हूं, न मुझे पता है कि अगली सांस पड़ती है। क्योंकि तू कहने का क्षण आ गया। अब हृदय से कहना आएगी कि नहीं आएगी। जहां इतना सब अज्ञात है, जहां सारा का पड़ा। इसलिए बुद्धिमान से बुद्धिमान आदमी प्रेम के क्षणों में सारा मेरा होना ही अज्ञात शक्तियों पर निर्भर है, वहां मेरा किया बुद्धिमान नहीं होता; बालक जैसा हो जाता है; छोटे बच्चे जैसा हो हुआ कर्म, पागलपन की बात है। जब मैं ही अज्ञात शक्तियों का जाता है।
| किया हुआ कर्म हूं, तो मेरा कर्म भी अज्ञात शक्तियों का किया हुआ
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गीता दर्शन भाग-20
कर्म है। जब मैं खुद ही अज्ञात से जन्मा हूं, तो मेरे हाथ से होने | हिंसा का मार्ग बता रहे हैं! वाला भी अज्ञात से ही जन्म रहा है। मैं सिर्फ बीच का माध्यम हूं। | नहीं; अहिंसा के मार्ग का अर्थ बहुत गहरा है, जितना कि
लेकिन तर्क और बुद्धि की बात नहीं है; क्योंकि तर्क और बुद्धि | अहिंसक कभी भी नहीं समझ पाते। अहिंसक-तथाकथित पूछती है, क्यों? और जहां क्यों का उत्तर नहीं मिलता, तर्क और अहिंसक, जो समझते हैं कि वे नानवायलेंट हैं; अहिंसा, बुद्धि वहां से लौट आती है। और वह कहती है, वह हमारा क्षेत्र नानवायलेंस के मानने वाले हैं उनको भी पता नहीं कि अहिंसा नहीं है। वह है ही नहीं। जहां क्यों का उत्तर नहीं मिलता, वह है ही का क्या अर्थ है। किसी महावीर को कभी पता होता है कि अहिंसा नहीं। जहां क्यों का उत्तर मिल जाता है, वही है। लेकिन हृदय वहां | का क्या अर्थ है। खोजता है, जहां क्यों का उत्तर नहीं है।
अहिंसा का यह अर्थ नहीं है कि तुम किसी को मत मारो। क्योंकि और बड़े मजे की बात है कि जीवन के समस्त गहरे प्रश्न बुद्धि अगर अहिंसा का यह मतलब है कि तुम किसी को मत मारो, तब के लिए खुलने योग्य नहीं हैं, मिस्टीरियस हैं। बुद्धि से कुछ भी | तो अहिंसा का यह मतलब हुआ कि आत्मा मर सकती है! तो गहरा प्रश्न खुला नहीं कभी, सिर्फ उलझा; और-और भी उलझा | महावीर तो निरंतर चिल्लाकर कहते हैं कि आत्मा अमर है। जब है। थोड़ा-सा खुलता लगता है, तो हजार नई उलझनें खुल जाती महावीर कहते हैं, आत्मा अमर है, तो तुम मार ही कैसे सकते हो? हैं, और कुछ भी नहीं खुलता।
जब मार ही नहीं सकते हो, तो हिंसा की बात ही कहां रही? हां, अज्ञात से आता हूं मैं, अज्ञात को जाता हूं, इसलिए मेरे हाथों से | इतना ही कर सकते हो कि शरीर और आत्मा को अलग कर दो। भी जो हो रहा है, वह भी अज्ञात ही कर रहा है। अगर मैंने किसी | तो शरीर सदा से मरा हुआ है और आत्मा कभी मरी हुई नहीं है। तो के पैर दबा दिए हैं; और अगर मैंने राह चले किसी गिरे आदमी को | मरे हुए को, गैर-मरे हुए से अगर किसी ने अलग भी कर दिया, उठा दिया है. और अगर मैंने चौरस्ते पर खडे होकर किसी को बतातो हर्जा क्या है? कछ भी तो हर्ज नहीं है। दिया है कि बाएं से जाओ तो नदी पर पहुंच जाओगे; तो यह मेरी | महावीर खुद कहते हैं, आत्मा अमर है, इसलिए महावीर का यह
अंगुली का इशारा, यह मेरे हाथों की ताकत, मेरी नहीं है। यह | मतलब नहीं हो सकता अहिंसा से कि तुम किसी को मारो मत। ताकत और ये इशारे भी सब अज्ञात से मुझ में आते हैं और मुझ से महावीर का भी मतलब यही है और कृष्ण का भी मतलब यही है फिर अज्ञात में चले जाते हैं।
| कि मारने की इच्छा मत करो। मरता तो कोई कभी नहीं, लेकिन ऐसी हृदय की समझ गहरी हो जाए, तो व्यक्ति ईश्वर-अर्पण मारने की इच्छा की जा सकती है। और पाप मारने से नहीं लगता, कर पाता है। और तब ईश्वर-अर्पित सेवा भी वही कर जाती है, जो | | मारने की इच्छा से लगता है। मरता नहीं है कोई। योगाग्नि को समर्पित इंद्रियों से होता है।
मैंने एक पत्थर उठाया और आपका सिर तोड़ देने के लिए फेंका। कृष्ण और भी गिनाते हैं, वे कहते हैं, अहिंसादि मार्गों से! | नहीं लगा पत्थर और किनारे से निकल गया। कुछ चोट नहीं
अहिंसा से जो चलता है, वह भी वहीं पहुंच जाता है। बड़ी पहुंची; कहीं कुछ नहीं हुआ। लेकिन मेरी हिंसा पूरी हो गई। असल कंट्राडिक्टरी बात मालूम पड़ती है; बड़ी विरोधी बात मालूम पड़ती | | में मैंने पत्थर फेंका, तब हिंसा प्रकट हुई। पत्थर फेंकने की कामना है। क्योंकि कृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं कि तू हिंसा की फिक्र मत | की, आकांक्षा की, वासना की, तभी हिंसा पूरी हो गई। पत्थर फेंकने कर, क्योंकि कोई मरता ही नहीं, अर्जुन। मरने का खयाल ही भ्रम की वासना की, तब भी हिंसा मेरे सामने प्रकट हुई। पत्थर फेंकने है। न कोई कभी मरा, न कोई कभी मरेगा। तू हिंसा की बात ही मत की वासना कर सकता हूं, इसकी संभावना मेरे अचेतन में छिपी है, कर। तू युद्ध में उतर जा।
तभी हिंसा हो गई। मैं हिंसा कर सकता हूं, तो मैंने हिंसा कर दी। ये कृष्ण यहां बीच में एक छोटा-सा वाक्य उपयोग करते हैं कि हिंसा का संबंध किसी को मारने से नहीं, हिंसा का संबंध मारने अहिंसादि मार्गों से चले हुए लोग भी वहीं पहुंच जाते हैं! की वासना से है। तो जब कृष्ण कहते हैं, अहिंसा के मार्ग से भी! ___ अहिंसा का मार्ग क्या है? अहिंसा का मार्ग क्या यह है कि मैं वे जो किसी को मारने की वासना से मुक्त हो जाते हैं। तो इसे जरा किसी को न मारूं? अगर यह है, तो कृष्ण की बात फिर उलटी है, समझना पड़ेगा। जो उन्होंने पहले कही उससे। फिर तो कृष्ण जो बता रहे हैं, वह वे जो किसी को मारने की वासना से मुक्त हो जाते हैं, वे भी
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संन्यास की नई अवधारणा
पहुंच जाते हैं वहीं, जहां कोई योग से, कोई सांख्य से, कोई सेवा से, प्रभु- अर्पण से पहुंचता है।
अहिंसा की कामना या हिंसा की वासना से मुक्त हो जाने का क्या अर्थ है ?
बहुत मजे की बात है कि ये सारे भिन्न-भिन्न मार्ग बहुत गहरे में कहीं एक ही मूल से जुड़े होते हैं। जब तक मनुष्य के मन में इंद्रियों
लोभ है, तब तक हिंसा से मुक्ति असंभव है। जब तक आदमी इंद्रियों को तृप्त करने के लिए विक्षिप्त है, तब तक हिंसा से मुक्ति असंभव है।
इंद्रियां पूरे समय हिंसा कर रही हैं। जब आपकी आंख किसी के शरीर पर वासना बन जाती है, तब हिंसा हो जाती है। तब आपने बलात्कार कर लिया। अदालत में नहीं पकड़े जा सकते हैं आप, क्योंकि अदालत के पास आंखों से किए गए बलात्कार को पकड़ने का अब तक कोई उपाय नहीं है। लेकिन जब आंख किसी के शरीर पर पड़ी और आंख मांग बन गई, काम बन गई, वासना बन गई; और आंख ने एक क्षण में उस शरीर को चाह लिया, पजेस कर लिया; एक क्षण में उस शरीर को भोगने की कामना का धुआं चारों तरफ फैल गया – बलात्कार हो गया। आंख से हुआ, आंख शरीर का हिस्सा है। आंख से हुआ, आंख के पीछे आप खड़े हैं। आंख से हुआ, आपने किया हिंसा हो गई। हिंसा सिर्फ छुरा भोंकने से नहीं होती, आंख भौंकने से भी हो जाती है।
इंद्रियां जब तक आतुर हैं भोगने को, तब तक हिंसा जारी रहती है। इंद्रियां जब भोगने को आतुर नहीं रहतीं, तभी हिंसा से है। छुटकारा
जिसे हम हिंसा कहते हैं, वह कब पैदा होती है? यह सूक्ष्म हिंसा छोड़ें; जिसे हम हिंसा कहते हैं, स्थूल, वह कब पैदा होती है ? वह तभी पैदा होती है, जब आपकी किसी कामना में अवरोध आ जाता है, अटकाव आ जाता है। तभी पैदा होती है। अगर आप किसी के शरीर को भोगना चाहते हैं और कोई दूसरा बीच में आ जाता है; या जिसका शरीर है, वही बीच में आ जाता है कि नहीं भोगने देंगे - तब हिंसा शुरू होती है।
जब भी आपकी इंद्रियां भोगने के लिए कहीं कब्जा मांगती हैं। और कब्जा नहीं मिल पाता, तभी हिंसा शुरू हो जाती है। स्थूल हिंसा शुरू हो जाती है। सूक्ष्म हिंसा पहले, भाव हिंसा पहले, फिर हिंसा सक्रिय होती और स्थूल बन जाती है।
कृष्ण कहते हैं, अहिंसा के मार्ग से भी, अर्थात इंद्रियों से जिसने
अब मांगना छोड़ दिया, इंद्रियां जिसके भिक्षापात्र न रहीं; इंद्रियों से जिसने छेदना छोड़ दिया, इंद्रियां जिसके शस्त्र न रहीं; इंद्रियों से जिसने आक्रमण छोड़ दिया।
महावीर का एक बहुत कीमती शब्द यहां खयाल में रख लेना उपयोगी होगा। महावीर ध्यान के पहले प्रतिक्रमण शब्द का उपयोग करते हैं। ध्यान में जाना हो, तो पहले प्रतिक्रमण ।
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कभी आपने सोचा है कि प्रतिक्रमण का मतलब होता है, आक्रमण से उलटा ! आक्रमण का मतलब है, दूसरे पर हमला। प्रतिक्रमण का मतलब है, आक्रमण की सारी शक्तियों को अपने में वापस लौटा ले जाना। एग्रेशन आक्रमण। प्रतिक्रमण, रिग्रेशन; कमिंग बैक टु वनसेल्फ | आंख गई आप पर आक्रमण करने को, तो हिंसा हो गई। और मैंने आंख को वापस लौटा लिया उसकी पूरी कामना के साथ अपने भीतर अपने भीतर, गहरे में वहां, जहां से उठती है कामना, वहीं उसे ले गया वापस - तो यह हुआ प्रतिक्रमण | और जब प्रतिक्रमण हो, तभी महावीर कहते हैं कि ध्यान हो सकता है, अन्यथा ध्यान नहीं हो सकता। क्योंकि आक्रमण करने वाली इंद्रियों के साथ ध्यान कैसा ? प्रतिक्रमण करने वाली इंद्रियों के साथ ध्यान फलित हो सकता है।
कृष्ण कहते हैं, अहिंसा के मार्ग से भी, अर्थात आक्रमण जो नहीं
कर रहा ।
—
अब ध्यान रखें, अगर ठीक से समझें, तो किसी भी तल पर | आक्रमण की कामना हिंसा है - किसी भी तल पर सूक्ष्म से सूक्ष्म तल पर भी आक्रमण की इच्छा हिंसा है। अनाक्रमण, नान-एग्रेशन, प्रतिक्रमण, शक्तियों को लौटा लेना वापस अपने में आंख लौट जाए आंख के मूल में; कान लौट जाए कान के मूल में; स्वाद लौट जाए स्वाद के मूल में; फैलाव बंद हो; सब सिकुड़ आए अपने मूल में जब ऐसा प्रतिक्रमण फलित हो, तब व्यक्ति ध्यान को उपलब्ध हो पाता है।
अहिंसा का अर्थ है, प्रतिक्रमण, लौटना, कमिंग बैक टु वनसेल्फ | हिंसा का मतलब है, जाना दूसरे के ऊपर, किसी भी रूप में दूसरे के ऊपर जाना। दूसरे पर जाना ! यह हिंसा शत्रुतापूर्ण भी हो सकती है, मित्रतापूर्ण भी हो सकती है। जो नासमझ हैं, वे शत्रुता | के ढंग से दूसरे पर जाते हैं; जो होशियार हैं, वे मित्रतापूर्ण ढंग से | दूसरों के ऊपर जाते हैं।
लेकिन जब तक कोई दूसरे पर जाता है, तब तक हिंसा है। और जब कोई दूसरे पर जाता ही नहीं, अपने जाने को ही वापस लौटा
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गीता दर्शन भाग-28
लेता है, तब अहिंसा है। इस अहिंसा के क्षण में भी वही हो जाता एक प्रक्रिया है। दो-तीन उसके अंग हैं, उनकी आपसे बात कर दूं। है, जो योगाग्नि में जलकर होता है।
पहला तो, जो जहां है, वह वहां से हटे नहीं। क्योंकि हटते इसलिए कृष्ण कहते हैं, अहिंसादि मार्गों से भी। | केवल कमजोर हैं; भागते केवल वे ही हैं, जो भयभीत हैं। और जो
ऐसे वे और मार्ग भी गिनाते हैं। ऐसे बहुत मार्ग हैं। इसमें उन्होंने संसार को भी झेलने में भयभीत है, वह परमात्मा को नहीं झेल दो-चार ही गिनाए। कोई एक सौ बारह मार्ग हैं, जिनसे व्यक्ति वहां | | सकेगा, यह मैं आपसे कह देता हूं। जो संसार का ही सामना करने पहुंच सकता है, जहां पहुंचकर और आगे पहुंचने को कुछ शेष नहीं | | में डर रहा है, वह परमात्मा का सामना कर पाएगा? नहीं कर रह जाता; उसे पा सकता है, जिसे पाकर फिर पाने का कोई अर्थ | | पाएगा, यह मैं आपसे कहता हूं। संसार जैसी कमजोर चीज जिसे नहीं रह जाता। आप्तकाम हो जाता है।
डरा देती है, परमात्मा जैसा विराट जब सामने आएगा, तो उसकी | आंखें ही झप जाएंगी; वह ऐसा भागेगा कि फिर लौटकर देखेगा
| भी नहीं। यह क्षुद्र-सा चारों तरफ जो है, यह डरा देता है, तो उस प्रश्नः भगवान श्री, दो-तीन दिनों से अनेकानेक | विराट के सामने खड़े होने की क्षमता नहीं होगी। और फिर अगर श्रोतागण आपके आस-पास दिखाई पड़ने वाले नव | परमात्मा यही चाहता है कि लोग सब छोड़कर भाग जाएं, तो उसे संन्यास और नव संन्यासियों के संबंध में कुछ बातें सबको सबमें भेजने की जरूरत ही नहीं है। आपके स्वयं के मुख से ही सुनना चाहते हैं। कृपया नहीं; उसकी मर्जी और मंशा कुछ और है। मर्जी और मंशा यही इस संबंध में कुछ कहें।
| है कि पहले लोग क्षुद्र को, आत्माएं क्षुद्र को सहने में समर्थ हो जाएं, ताकि विराट को सह सकें। संसार सिर्फ एक प्रशिक्षण है,
एक ट्रेनिंग है। म ह जो भी मैं कह रहा हूं, संन्यास के संबंध में ही कह इसलिए जो ट्रेनिंग को छोड़कर भागता है, उस भगोड़े को, प रहा हूं। यह सारी गीता संन्यास का ही विवरण है। और एस्केपिस्ट को मैं संन्यासी नहीं कहता हूं। जीवन जहां है, वहीं।
____ जिस संन्यास की मैं बात कर रहा हूं, वह वही संन्यास संन्यासी हो गए, फिर तो भागना ही नहीं। पहले चाहे भाग भी जाते, है, जिसकी कृष्ण बात कर रहे हैं।
तो मैं माफ कर देता। संन्यासी हो गए, फिर तो भगाना ही नहीं। फिर करते हुए अकर्ता हो जाना; करते हुए भी ऐसे हो जाना, जैसे मैं | तो वहीं जमकर खड़े हो जाना। क्योंकि फिर संन्यास अगर संसार करने वाला नहीं हूं-बस, संन्यास का यही लक्षण है। | के सामने भागता हो, तो कौन कमजोर है? कौन सबल है? फिर
गृहस्थ का क्या लक्षण है? गृहस्थ का लक्षण है, हर चीज में तो मैं कहता हूं, अगर इतना कमजोर है कि भागना पड़ता है, तो कर्ता हो जाना। संन्यासी का लक्षण है, हर चीज में अकर्ता हो जाना। फिर संसार ही ठीक। फिर सबल को ही स्वीकार करना उचित है।
संन्यास जीवन का, जीवन को देखने का और ही ढंग है। बस, तो पहली तो बात मेरे संन्यास की यह है कि भागना मत। जहां ढंग का फर्क है। संन्यासी और गृहस्थी में, घर का फर्क नहीं है, खड़े हैं, वहीं, जिंदगी के सघन में पैर जमा कर! लेकिन उसे ढंग का फर्क है। संन्यासी और गृहस्थी में जगह का फर्क नहीं है, | प्रशिक्षण बना लेना। उस सबसे सीखना। उस सबसे जागना। उस भाव का फर्क है। संन्यासी और गृहस्थी में, परिस्थिति का फर्क | सबको अवसर बना लेना। पत्नी होगी पास, भागना मत। क्योंकि नहीं है, मनःस्थिति का फर्क है। संसार में जो है। हम सभी संसार पत्नी से भागकर कोई स्त्री से नहीं भाग सकता। पत्नी से भागना तो में होंगे। कोई कहीं हो—जंगल में बैठे, पहाड़ पर बैठे, | | बहुत आसान है। पत्नी से तो वैसे ही भागने का मन पैदा हो जाता गिरि-कंदराओं में बैठे-संसार के बाहर जाने का उपाय, है। पति से भागने का मन पैदा हो जाता है। जिसके पास हम होते परिस्थिति बदलकर नहीं है। संसार के बाहर जाने का उपाय, हैं, उससे ऊब जाते हैं। नए की तलाश मन करता है। मनःस्थिति बदलकर, बाई दि म्यूटेशन आफ दि माइंड, मन को ही पत्नी से भागना बहुत आसान है। भाग जाएं; स्त्री से न भाग रूपांतरित करके है।
| पाएंगे। और जब पत्नी जैसी स्त्री को निकट पाकर स्त्री से मुक्त न मैं जिसे संन्यास कह रहा हूं, वह मन को रूपांतरित करने की हो सके, तो फिर कब मुक्त हो सकेंगे! अगर पति जैसे प्रीतिकर
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संन्यास की नई अवधारणा
मित्र को निकट पाकर पुरुष की कामना से मुक्ति न मिली, तो फिर | अगर आप बीस आदमी पिकनिक को जाएं, तो आप पाएंगे कि छोड़कर कभी न मिल सकेगी।
| पिकनिक पर आप पहुंचे, चार-पांच ग्रुप में टूट जाएंगे। बीस आदमी इस देश ने पति और पत्नी को सिर्फ काम के उपकरण नहीं | इकट्ठे नहीं रहेंगे। तीन-तीन, चार-चार की टुकड़ी हो जाएगी। सीमा समझा; सेक्स, वासना का साधन नहीं समझा है। इस मुल्क की | है। तीन-तीन चार-चार में टूट जाएंगे। अपनी-अपनी बातचीत गहरी समझ और भी, कुछ और है। और वह यह है कि पति-पत्नी | शुरू कर देंगे। दो-चार हिस्से बन जाएंगे। बीस आदमी इकट्ठे नहीं अंततः-प्रारंभ करें वासना से अंत हो जाएं निर्वासना पर। हो पाते। ऐसी आदमी की सीमा है। एक-दूसरे को सहयोगी बनें। स्त्री सहयोगी बने पुरुष को कि पुरुष सारी मनुष्यता एक है, यह साधारण आदमी की सीमा के बाहर स्त्री से मुक्त हो सके। पुरुष सहयोगी बने पत्नी को कि पत्नी पुरुष | है सोचना। सब मंदिर, सब मस्जिद उसी परमात्मा के हैं, यह की कामना से मुक्त हो सके। ये अगर सहयोगी बन जाएं, तो बहुत | सोचना मुश्किल है। साधारण की सीमा के लिए कठिन होगा। शीघ्र निर्वासना को उपलब्ध हो सकते हैं।
लेकिन संन्यासी असाधारण होने की घोषणा है। लेकिन ये इसमें सहयोगी नहीं बनते। पत्नी डरती है कि कहीं | तो दूसरी बात, संन्यास धर्म में प्रवेश है-हिंदू धर्म में नहीं, पुरुष निर्वासना को उपलब्ध न हो जाए। इसलिए डरी रहती है। मुसलमान धर्म में नहीं, ईसाई धर्म में नहीं, जैन धर्म में नहीं-धर्म अगर मंदिर जाता है, तो ज्यादा चौंकती है; सिनेमा जाता है, तो में। इसका क्या मतलब हुआ? हिंदू धर्म के खिलाफ? नहीं। विश्राम करती है। चोर हो जाए, समझ में आता है; प्रार्थना, | | इस्लाम धर्म के खिलाफ? नहीं। जैन धर्म के खिलाफ? नहीं। वह भजन-कीर्तन करने लगे, समझ में बिलकुल नहीं आता है। खतरा | | जो जैन धर्म में धर्म है, उसके पक्ष में; और वह जो जैन है, उसके है। पति भी डरता है कि पत्नी कहीं निर्वासना में न चली जाए। | | खिलाफ। और वह जो हिंदू धर्म में धर्म है, उसके पक्ष में; और वह • अजीब हैं हम! हम एक-दूसरे का शोषण कर रहे हैं, इसलिए | जो हिंदू है, उसके खिलाफ। और वह जो इस्लाम धर्म में धर्म है, इतने भयभीत हैं। हम एक-दूसरे के मित्र नहीं हैं। क्योंकि मित्र तो | | उसके पक्ष में; और वह जो इस्लाम है, उसके खिलाफ। सीमाओं वही है, जो वासना के बाहर ले जाए। क्योंकि वासना दुख है और के खिलाफ, और असीम के पक्ष में। आकार के खिलाफ, और वासना दुष्पूर है! वासना कभी भरेगी नहीं। वासना में हम ही मिट निराकार के पक्ष में। जाएंगे, वासना नहीं मिटेगी। तो मित्र तो वही है, पति तो वही है, संन्यासी किसी धर्म का नहीं, सिर्फ धर्म का है। वह मस्जिद में पत्नी तो वही है, मित्र तो वही है, जो वासना से मुक्त करने में साथी ठहरे, मंदिर में ठहरे, कुरान पढ़े, गीता पढ़े। महावीर, बुद्ध, बने। और शीघ्रता से यह हो सकता है।
लाओत्से, नानक, जिससे उसका प्रेम हो, प्रेम करे। लेकिन जाने कि __ इसलिए मैं कहता हूं, पत्नी को मत छोड़ो, पति को मत छोड़ो; | जिससे वह प्रेम कर रहा है, यह दूसरों के खिलाफ घृणा का कारण किसी को मत छोड़ो। इस प्रशिक्षण का उपयोग करो। हां, इसका नहीं, बल्कि यह प्रेम भी उसकी सीढ़ी बनेगी, उस अनंत में छलांग उपयोग करो परमात्मा तक पहुंचने के लिए। संसार को बनाओ लगाने के लिए, जिसमें सब एक हो जाता है। नानक को बनाए सीढ़ी। संसार को दुश्मन मत बनाओ; बनाओ सीढ़ी। चढ़ो उस सीढ़ी, बनाए। बुद्ध-मोहम्मद को बनाना चाहे, बुद्ध-मोहम्मद को पर; उठो उससे। उससे ही उठकर परमात्मा को छुओ। और संसार | बनाए। कूद जाए वहीं से। पर कूदना है अनंत में। सीढ़ी बनने के लिए है, इसलिए पहली बात।
और इस अनंत का स्मरण रहे, तो इस पृथ्वी पर दो घटनाएं घट दूसरी बात, संन्यास अब तक सांप्रदायिक रहा है, जो कि दुखद | सकती हैं। संन्यासी जहां है वहीं रहे, तो करोड़ों संन्यासी सारी पृथ्वी है, जो कि संन्यास को गंदा कर जाता है। संन्यास धर्म है, संप्रदाय पर हो सकते हैं। संन्यासी छोड़कर भागे, तो ध्यान रखना, भविष्य नहीं। गृहस्थ संप्रदायों में बंटा हो, समझ में आता है। उसके कारण | | में, बीस साल, पच्चीस साल के बाद, इस सदी के पूरे होते-होते, हैं। जिसकी दृष्टि बहुत सीमित है, वह विराट को नहीं पकड़ पाता। संन्यास अपराध होगा, क्रिमिनल एक्ट हो जाएगा। वह हर चीजों में सीमा बनाता है, तभी पकड़ पाता है। हर चीज को | | रूस में हो गया, चीन में हो गया, आधी दुनिया में हो गया। खंड में बांट लेता है, तभी पकड़ पाता है। आदमी-आदमी की | | आज रूस और चीन में कोई संन्यासी होकर नहीं रह सकता। सीमाएं हैं।
क्योंकि वे कहते हैं, जो करेगा मेहनत, वह खाएगा। जो मेहनत नहीं
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गीता दर्शन भाग-2
करेगा, वह शोषक है, एक्सप्लायटर है; इसको हटाओ। वह अपराधी है।
बिखर गई ! चीन में बड़ी गहरी परंपरा थी संन्यास की— बिखर गई, टूट गई। मोनेस्ट्रीज उखड़ गईं। तिब्बत गया। शायद पृथ्वी पर सबसे ज्यादा गहरे संन्यास के प्रयोग तिब्बत ने किए थे, लेकिन सब मिट्टी हो गया। हिंदुस्तान में भी ज्यादा देर नहीं लगेगी । लेनिन ने कहा था उन्नीस सौ बीस कि कम्यूनिज्म का रास्ता मास्को से पेकिंग, और पेकिंग से कलकत्ता होता हुआ लंदन जाएगा। कलकत्ते तक पैर सुनाई पड़ने लगे। लेनिन की भविष्यवाणी सही होने का डर है।
संन्यास अब तो एक ही तरह बच सकता है कि संन्यासी स्वनिर्भर हो । समाज पर, किसी पर निर्भर होकर न जीए। तभी हो सकता है स्वनिर्भर, जब वह संसार में हो, भागे न । अन्यथा स्वनिर्भर कैसे हो सकता है ?
थाईलैंड में चार करोड़ की आबादी है, बीस लाख संन्यासी हैं ! मुल्क घबड़ा गया है। लोग परेशान हो गए हैं। बीस लाख लोगों को चार करोड़ की आबादी कैसे खिलाए, कैसे पिलाए, क्या करे ! अदालतें विचार करती हैं कानून बनाने का । संसद निर्णय लेती है। कि कोई सख्त नियम बनाओ कि सिर्फ सरकार जब आज्ञा दे किसी आदमी को, तब वह संन्यासी हो सकता है। जब संन्यासी की आज्ञा सरकार से लेना पड़े, तो उसमें भी रिश्वत हो जाएगी ! उसमें भी जो रिश्वत लगा सकेगा, वह संन्यासी हो जाएगा। संन्यासी होने के लिए रिश्वत देनी पड़ेगी, कि सरकारी लाइसेंस लेना पड़ेगा, फिर संन्यास की सुगंध और संन्यास की स्वतंत्रता कहां रह जाएगी !
इसलिए मैं यह देखता हूं, भविष्य को ध्यान में रखकर भी, कि अब एक संन्यास का नया अभियान होना चाहिए, जिसमें कि संन्यासी घर में होगा, गृहस्थ होगा, पति होगा, पिता होगा, भाई होगा । शिक्षक, दूकानदार, मजदूर, वह जो है, वही होगा। सबका होगा। सब धर्म उसके अपने होंगे। सिर्फ धार्मिक होगा ।
धर्मों के विरोध ने दुनिया को बहुत गंदी कलह से भर दिया है। इतना दुखद हो गया है सब कि ऐसा लगने लगा है कि धर्मों से
| और गीताएं; अब नहीं चाहिए - तो कुछ आश्चर्य तो नहीं है । स्वाभाविक है।
यह बंद करना पड़े। यह बंद तभी हो सकता है, एक ही रास्ता है इसका, और वह रास्ता यह है कि संन्यास का फूल इतना ऊंचा उठे सीमाओं से कि सब धर्म उसके अपने हो जाएं और कोई एक धर्म उसका अपना न रहे। तो हम इस पृथ्वी को जोड़ सकते हैं।
अब तक धर्मों ने तोड़ा, उसे कहीं से जोड़ना पड़ेगा। इसलिए मैं कहता हूं, हिंदू आए, मुसलमान आए, जैन आए, ईसाई आए। उसे चर्च में प्रार्थना करनी हो, चर्च में करे; मंदिर में, तो मंदिर में; स्थानक में, तो स्थानक में; मस्जिद में, तो मस्जिद में उसे जहां जो करना हो, करे। लेकिन वह अपने मन से संप्रदाय का विशेषण अलग कर दे, मुक्त हो जाए। सिर्फ संन्यासी हो जाए; सिर्फ धर्म | का हो जाए। यह दूसरी बात ।
और तीसरी बात, मेरे संन्यास में सिर्फ एक अनिवार्यता है, एक अनिवार्य शर्त है और वह है, ध्यान। बाकी कोई व्रत-नियम ऊपर से मैं थोपने के लिए राजी नहीं हूं। क्योंकि जो भी व्रत और नियम ऊपर से थोपे जाते हैं, वे पाखंड का निर्माण कर देते हैं। सिर्फ ध्यान की टेक्नीक संन्यासी सीखे ; प्रयोग करे; ध्यान में गहरा उतरे।
और मेरी अपनी समझ और सारी मनुष्य जाति के अनुभव का सार-निचोड़ यह है कि जो ध्यान में गहरा उतर जाए, वह योगाग्नि | में ही गहरा उतर रहा है। उसकी वृत्तियां भस्म हो जाती हैं, उसके इंद्रियों के रस खो जाते हैं। वह धीरे-धीरे सहज-सहज, जबर्दस्ती नहीं, बलात नहीं - सहज रूपांतरित होता चला जाता है। उसके भीतर से ही सब बदल जाता है। उसके बाहर के सब संबंध वैसे ही | बने रहते हैं; वह भीतर से बदल जाता है। इसलिए सारी दुनिया उसके लिए बदल जाती है।
शायद फायदा कम हुआ, नुकसान ज्यादा हुआ। जब देखो तब धर्म के नाम पर खून बहता है! और जिस धर्म के नाम पर खून बहता हो, अगर बच्चे उस धर्म को इनकार कर दें; और जिन पंडितों की बकवास से खून बहता हो, अगर बच्चे उन पंडितों को ही इनकार कर दें और कहें कि बंद करो तुम्हारी किताबें, तुम्हारे कुरान
ध्यान के अतिरिक्त संन्यासी के लिए और कोई अनिवार्यता नहीं है।
कपड़े आप देखते हैं गैरिक, संन्यासी पहने हुए हैं। यह मैंने सुबह जैसा कहा, गांठ बांधने जैसा इनका उपयोग है। चौबीस घंटे | याद रह सकेगा; स्मरण, रिमेंबरिंग रह सकेगी कि मैं संन्यासी हूं। | बस, यह स्मरण इनको रह सके, इसलिए इन्हें गैरिक वस्त्र दे दिए हैं। गैरिक वस्त्र भी जानकर दिए हैं; वे अग्नि के रंग के वस्त्र हैं। भीतर भी ध्यान की अग्नि जलानी है। उसमें सब जला डालना है। | भीतर भी ध्यान का यज्ञ जलाना है, उसमें सब आहुति दे देनी है।
उनके गलों में आप मालाएं देख रहे हैं। उन मालाओं में एक सौ
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संन्यास की नई अवधारणा
आठ
हैं। 'एक' आठ ध्यान की विधियों के प्रतीक हैं। और उन्हें स्मरण रखने के लिए दिया है कि वे भलीभांति जानें कि चाहे अपने हाथ में एक ही गुरिया हो, लेकिन और एक सौ सात मार्गों से भी मनुष्य पहुंचा है, पहुंच सकता है। और एक सौ आठ
कितने ही अलग हों, उनके भीतर पिरोया हुआ धागा एक ही है । उस एक का स्मरण बना रहे, एक सौ आठ विधियों में, ताकि कभी उनके मन में यह खयाल न आए और कोई एकांगीपन न पकड़ कि मेरा ही मार्ग, मैं जो हूं, वही रास्ता पहुंचाता है। नहीं; सभी रास्ते पहुंचा देते हैं। सभी रास्ते पहुंचा देते हैं।
उनकी मालाओं में एक तस्वीर आप देख रहे हैं। शायद आपको भ्रम होगा कि मेरी है। मेरी बिलकुल नहीं है। क्योंकि मेरी तस्वीर उतारने का कोई उपाय नहीं है । तस्वीर किसी की उतारी नहीं जा सकती; सिर्फ शरीरों की उतारी जा सकती है। मैं उनका गवाह हूं, इसलिए उन्होंने मेरे शरीर की तस्वीर लटका ली है। मैं सिर्फ गवाह हूं, गुरु नहीं हूं। क्योंकि मैं मानता हूं कि गुरु तो सिवाय परमात्मा
और कोई भी नहीं है। मैं सिर्फ विटनेस हूं, कि मेरे सामने उन्होंने कसम ली है इसे संन्यास की। मैं उनका गवाह भर हूं। और इसलिए वे मेरे शरीर की रेखाकृति लटकाए हुए हैं, ताकि उनको स्मरण रहे कि उनके संन्यास में वे अकेले नहीं हैं; एक गवाह भी है। और उनके डूबने के साथ उनका गवाह भी डूबेगा । बस, इतने स्मरण भर के लिए।
ध्यान में वे गहरे उतरें। ध्यान के बहुत रास्ते हैं। अभी उनको दो रास्तों पर मैं प्रयोग करवा रहा हूं। दोनों रास्ते सिंक्रोनाइज कर सकें, इस तरह के हैं; तालमेल हो सकें, इस तरह के हैं। एक ध्यान की प्रक्रिया मैं उनसे करवा रहा हूं, जो कि प्रगाढ़तम प्रक्रिया है; बहुत विरस है और इस सदी के योग्य है । उस ध्यान की प्रक्रिया के साथ उनको कीर्तन और भजन के लिए भी कह रहा हूं; क्योंकि वह ध्यान की प्रक्रिया करने के बाद कीर्तन साधारण कीर्तन नहीं है, जो आप कहीं भी देख लेते । आप जब देखते हैं कीर्तन, आप सोचते होंगे कि ठीक है; कोई भी ऐसा कीर्तन कर रहा है; ऐसा ही यह कीर्तन भी है। इस भूल में आप मत पड़ना। क्योंकि जिस ध्यान के प्रयोग को वे कर रहे हैं, उस प्रयोग के बाद यह कीर्तन कुछ और ही भीतर रस की धार छोड़ देता है।
आप भी उस प्रयोग को ध्यान के करके इसे करेंगे, तब आपको पता चलेगा कि यह कीर्तन साधारण कीर्तन नहीं है। यह कीर्तन एक ध्यान की प्रक्रिया का आनुषांगिक अंग है। और उस आनुषांगिक
अंग में जब वे लीन और डूब जाते हैं, तब वे करीब-करीब अपने में नहीं होते, परमात्मा में होते हैं। और वह जो होने का अगर एक क्षण भी मिल जाए, चौबीस घंटे में, तो काफी है। उससे जो अमृत | की एक बूंद मिल जाती है, वह चौबीस घंटों को जीवन के रस से भर जाती है।
जिन मित्रों को भी जरा भी खयाल हो, वे हिम्मत करें। और ध्यान रखें. 1
अभी कल ही कोई मेरे पास आया, उसने कहा कि सत्तर प्रतिशत तो मेरी इच्छा है कि लूं संन्यास; तीस प्रतिशत मन डांवाडोल होता है । इसलिए नहीं ! तो मैंने कहा, तीस प्रतिशत मन कहता है, मत लो, तो तुम नहीं लेते; तीस प्रतिशत की मानते हो। और सत्तर प्रतिशत कहता है, लो, और सत्तर प्रतिशत की नहीं मानते हो! तो | तुम्हारे पास बुद्धि है ? और कोई सोचता हो कि जब हंड्रेड परसेंट, सौ प्रतिशत मन होगा तब लेंगे, तो मौत पहले आ जाएगी। हंड्रेड परसेंट मरने के बाद होता है। इससे पहले कभी मन होता नहीं । सिर्फ मरने के बाद, जब आपकी लाश चढ़ाई जाती है चिता पर, | तब हंड्रेड परसेंट मन संन्यास का होता है। लेकिन तब कोई उपाय नहीं रहता।
जिंदगी में कभी मन सौ प्रतिशत किसी बात पर नहीं होता । लेकिन जब आप क्रोध करते हैं, तब आप हंड्रेड परसेंट मन के लिए | रुकते हैं? जब आप चोरी करते हैं, तब हंड्रेड परसेंट मन के लिए रुकते हैं? जब बेईमानी करते हैं, तब हंड्रेड परसेंट मन के लिए रुकते हैं? कहते हैं कि अभी बेईमानी नहीं करूंगा, क्योंकि अभी मन का एक हिस्सा कह रहा है, मत करो; सौ प्रतिशत हो जाने दो! लेकिन जब संन्यास का सवाल उठता है, तब सौ प्रतिशत के लिए रुकते हैं! बेईमानी किसके साथ कर रहे हो ? आदमी अपने को धोखा देने में बहुत कुशल है।
एक आखिरी बात, फिर सुबह लेंगे। फिर अभी कीर्तन-भजन में संन्यासी डूबेंगे, आपको भी निमंत्रण देता हूं। खड़े देखें मत। खड़े | देखकर कुछ पता नहीं चलेगा; लोग नाचते हुए दिखाई पड़ेंगे। डूबें उनके साथ, तो पता चलेगा, उनके भीतर क्या हो रहा है। उस रस का एक कण अगर आपको भी मिल जाए, तो शायद आपकी जिंदगी में फर्क हो ।
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संन्यास या शुभ का कोई भी खयाल जब भी उठ आए, तब देर मत करना। क्योंकि अशुभ में तो हम कभी देर नहीं करते। अशुभ को कोई पोस्टपोन नहीं करता। शुभ को हम पोस्टपोन करते हैं।
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गीता दर्शन भाग-20
अनेक मित्र खबर ले आते हैं कि कहीं मेरा संप्रदाय तो नहीं बन जाएगा! कहीं ऐसा तो नहीं हो जाएगा! कहीं कोई मत, पंथ तो नहीं बन जाएगा!
मत, पंथ ऐसे ही बहुत हैं। नए मत, पंथ की कोई जरूरत नहीं है। बीमारियां ऐसे ही काफी हैं; और एक बीमारी जोड़ने की कोई जरूरत नहीं है।
इसलिए आपसे कहता हूं, यह कोई संप्रदाय नहीं है। संप्रदाय बनता ही किसी के खिलाफ है। संप्रदाय बनता ही किसी के खिलाफ है। ये संन्यासी किसी के खिलाफ नहीं हैं। ये सब धर्मों के भीतर जो सारभूत है, उसके पक्ष में हैं। परसों तो एक मुसलमान महिला ने संन्यास लिया है। उसके छः दिन पहले एक ईसाई युवक संन्यास लेकर गया है। ये जाएंगे अपने चर्चों में, अपनी मस्जिदों में, अपने मंदिरों में। इसमें जैन हैं, हिंदू हैं, मुसलमान हैं, ईसाई हैं। उनसे कुछ उनका छीनना नहीं है। उनके पास जो है, उसे ही शुद्धतम उनसे कह देना है।
अभी गीता पर बोल रहा हूं, अगले वर्ष कुरान पर बोलूंगा, फिर बाइबिल पर बोलूंगा; ताकि जो-जो शुद्ध वहां है, वह पूरी की पूरी बात मैं आपको कह दूं। जिसे जहां से लेना हो, वहां से ले ले।
जिसे जिस कुएं से पीना हो, पानी पी ले। क्योंकि पानी एक ही सागर का है। कुएं का मोह भर न करे; इतना भर न कहे कि मेरे कुएं में ही पानी है, और किसी के कुएं में पानी नहीं है। फिर कोई | संप्रदाय नहीं बनता, कोई मत नहीं बनता, कोई पंथ नहीं बनता।
सोचें। और स्फुरणा लगती हो, तो संन्यास में कदम रखें; जहां हैं, वहीं। कुछ आपसे छीनता नहीं। आपके भीतर के व्यर्थ को ही तोड़ना है; सार्थक को वहीं रहने देना है।
फिर गीता पर सुबह बात करेंगे। अब संन्यासी उनके नृत्य में जाएंगे-कीर्तन में तो थोड़ी यहां जगह बना लें। जिनको देखना हो, देखें; सम्मिलित होना हो, सम्मिलित हो जाएं, लेकिन थोड़ी जगह ज्यादा बना लें।
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N
SAMA
अध्याय 4 ग्यारहवां प्रवचन
स्वाध्याय-यज्ञ की
कीमिया
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गीता दर्शन भाग-29
प्रश्नः भगवान श्री, अट्ठाइसवें श्लोक में | जा सके। जिसका आचरण ऐसा है कि उससे हमें कोई क्लू, कोई स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च का अनुवाद दिया है, भगवान के | कुंजी, कोई चाबी नहीं मिलती कि हम उसके अंतस के ताले को नाम का जप तथा भगवतप्राप्ति विषयक शास्त्रों का खोल लें। शायद शुद्ध आदिम आदमी, प्रिमिटिव, उसके आचरण अध्ययन रूप ज्ञान-यज्ञ के करने वाले। कृपया को देखकर हमें उसके अंतस का थोड़ा अंदाज भी लग जाए: स्वाध्याय-यज्ञ को समझाएं।
| लेकिन जितना सुसभ्य, सुशिक्षित आदमी, उतना ही उसके व्यवहार को देखकर उसके स्वयं का कोई पता नहीं चलता।
व्यवहार प्रकट नहीं करता, छिपाता है। आचरण अंतस की माध्याय-यज्ञ गहरे से गहरे आत्म-रूपांतरण की एक अभिव्यक्ति नहीं, अंतस का छिपाव बन गया है। हम जो बोलते सपा प्रक्रिया है। और कृष्ण ने जब कहा था यह सूत्र, | हैं, उससे वह पता नहीं चलता, जो हम सोचते हैं। हम जो बोलते
तब शायद इतनी प्रचलित प्रक्रिया नहीं थी | हैं, वह उसे छिपाने को है, जो हम सोचते हैं। चेहरे पर जो दिखाई स्वाध्याय-यज्ञ, जितनी आज है। आज पृथ्वी पर सर्वाधिक प्रचलित | पड़ता है, वह वह नहीं होता, जो आत्मा में उठता है। चेहरा सौ में जो प्रक्रिया आत्म-रूपांतरण की है, वह स्वाध्याय-यज्ञ है। इसलिए | निन्यानबे मौके पर आत्मा में जो उठता है, वह दूसरे तक न पहुंच इसे ठीक से, थोड़ा ज्यादा ही ठीक से समझ लेना उचित है। जाए, इसकी रुकावट का काम करता है।
आधुनिक मनुष्य के मन के निकटतम जो प्रक्रिया है, वह । । स्वाध्याय का इसलिए पहना अर्थ है कि हम अपने अंतस से स्वाध्याय-यज्ञ है। कृष्ण ने तो उसे चलते में ही उल्लेख किया है। स्वयं ही परिचित हो सकते हैं। दूसरे हमारे आचरण को ही जान उस समय बहुत महत्वपूर्ण वह नहीं थी, बहुत प्रचलित भी नहीं थी। सकते हैं। और आचरण से जाना गया उनका अध्ययन ज्यादा से कभी कोई साधव उसका प्रयोग करता था। लेकिन सिगमंड फ्रायड, ज्यादा अनमान, इनफरेंस हो सकता है। लेकिन साक्षात, सीधा गुस्ताव जुंग, अल्फ्रेड एडलर, सलीवान, फ्रोम और पश्चिम के सारे | | ज्ञान, इमीजिएट, तो हम अपने भीतर स्वयं का ही कर सकते हैं। मनोवैज्ञानिकों ने स्वाध्याय-यज्ञ को बड़ी कीमत दे दी है। __ हम स्वयं ही अपनी गहराइयों में हैं अकेले, वहां किसी दूसरे का
स्वाध्याय, इस शब्द में स्व और अध्ययन दो बातें हैं। स्वयं का प्रवेश नहीं है। इसलिए स्वाध्याय। लेकिन हम खुद भी वहां नहीं अध्ययन स्वाध्याय का अर्थ है। स्वयं का अध्ययन सारे जाते। हम खुद भी अपने से बाहर ही जीते हैं। हम इस ढंग से जीते मनोविश्लेषण की आधार भूमि है, साइकोएनालिसिस की आधार हैं कि हम भी अपने आचरण से ही परिचित होते हैं, अपनी आत्मा भूमि है। स्वयं में क्या-क्या है, इसका गूढ़ परिचय–किसी और के से परिचित नहीं होते। हम स्वयं को भी जानते हैं, तो दूसरों की दृष्टि द्वारा नहीं, स्वयं के ही द्वारा। किसी और के द्वारा इसलिए नहीं कि से जानते हैं। अगर दूसरे हमें अच्छा आदमी कहते हैं, तो हम सोचते स्वयं की अतल गहराइयों में किसी दूसरे का कोई प्रवेश नहीं है। हैं, हम अच्छे आदमी हैं। और दूसरे अगर बुरा कहने लगते हैं, तो
हम दूसरे व्यक्ति को केवल उसकी परिधि से ही जान पाते हैं। बड़ी पीड़ा पहुंचाते हैं। उसकी गहराइयों में, उसके अंतस्तल में कहीं कोई द्वार प्रवेश का । स्वयं का सीधा, प्रत्यक्ष अनुभव हमारा अपना नहीं है। अन्यथा नहीं है। हम दूसरे के व्यवहार को, बिहेवियर को ही जान पाते हैं; सारी दुनिया बुरा कहे, अगर मैं अपने भीतर जानता हूं कि मैं अच्छा उसके अंतस को नहीं। दूसरा क्या करता है, इसे तो हम अध्ययन | हं, तो कोई अंतर नहीं पड़ता। उस सारी दुनिया के बुरे कहने से
म बाहर से अध्ययन | जरा-सा कांटा भी नहीं चभता। कोई प्रयोजन नहीं है। लेकिन मझे नहीं कर सकते हैं।
| तो मेरा पता ही नहीं है कि मैं कौन हूं। मुझे तो वही पता है, जो लोगों और जितना ही ज्यादा मनुष्य सभ्य हो गया है, उतना ही धोखा ने मेरे बाबत कहा है। गहरा हो गया है। अंतस कुछ होता, आचरण कुछ होता! इसलिए लोग मेरे संबंध में जानें बाहर से, यह तो उचित है; लेकिन मैं आचरण को देखकर अंतस की कोई भी खबर नहीं मिलती है। भी अपने संबंध में जानूं बाहर से, यह एकदम ही, एकदम ही सुसंस्कृत और सुसभ्य आदमी हम कहते ही उसे हैं, जिसके खतरनाक है। अनुचित ही नहीं, खतरनाक भी है। आचरण का जाल इतना बड़ा है कि उसके अंतस का पता न लगाया स्वाध्याय का अर्थ है, स्वयं का साक्षात्कार, एनकाउंटर विद
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स्वाध्याय-यज्ञ की कीमिया
वनसेल्फ। स्वाध्याय का अर्थ है, अपने ही आमने-सामने खड़ा हो कोई साथ है। अकेले नहीं हैं। क्योंकि अकेले में, जब कोई भी साथ जाना। निश्चित ही, स्वाध्याय की प्रक्रिया को चरणों में बांटकर नहीं होगा, तो हम अपने साथ हो जाएंगे। वह डर है। समझ लें।
इसलिए सभ्य आदमी अकेले में बिलकुल नहीं है। अकेला पहली बात, जो व्यक्ति स्वाध्याय की साधना में या हुआ, तो रेडियो खोलेगा, ताकि अकेलापन मिट जाए। अखबार स्वाध्यायरूपी यज्ञ में उतरना चाहता है, पहली बात, दूसरों ने उसके उठा लेगा, अकेलापन मिट जाए। कुछ और नहीं सूझेगा, तो संबंध में क्या कहा है, उसे तत्काल अलग कर देना चाहिए। दूसरे | सिगरेट पीएगा, अकेलापन मिट जाए। कुछ भी नहीं बचेगा, तो सो उसके संबंध में क्या सोचते हैं, इसे हटा देना चाहिए। दूसरों के जाएगा। लेकिन अकेला जागेगा नहीं। वक्तव्य धोखे के सिद्ध होंगे। दूसरों की जानकारी अपने संबंध में | यह बड़ा षड्यंत्र है, जो हम अपने साथ कर रहे हैं, ए ग्रेट सबसे पहला कचरा है, जो स्वाध्याय में अलग करना पड़ता है। | कांसपिरेसी। बड़े से बड़ा षड्यंत्र जो हम अपने साथ कर रहे हैं, तभी मैं निपट उसको जान पाऊंगा, जो मैं हूं।
वह यह है कि हम अपने साथ अकेले कभी नहीं होते। कभी नहीं! __ और जो मैं हूं, इसे जानने के लिए दूसरा चरण जो...। यह बहुत | | कहीं मौका मिल जाए, तो बड़ी ऊब मालूम पड़ती है, बड़ी कठिन है। दूसरों के ओपीनियन को अलग कर देना बहुत कठिन घबड़ाहट और बेचैनी होती है! नहीं है। यह इतना ही सरल है, जैसे नदी के ऊपर पत्ते छा जाएं, अभी अमेरिका में उन्होंने एक यूनिवर्सिटी में एक गहरा प्रयोग उनको हम हटा दें और नीचे का जल-स्रोत प्रकट हो जाए। दूसरों | किया है, केलिफोर्निया में। और वह है सेंस डिप्राइवेशन का। कुछ के मंतव्य हमारे संबंध में बहुत गहरे नहीं होते, नदी की सतह पर युवकों को ऐसी कोठरियों में बंद किया, जहां कोई भी संवेदना उन होते हैं। घास-पात की तरह उन्हें अलग किया जा सकता है। उसमें तक न पहुंच सके। कोई भी संवेदना! घुप्प, गहन अंधकार। बहुत अड़चन नहीं है। अड़चन दूसरे चरण में है।
वैज्ञानिक साधनों से समस्त प्रकाश की संभावनाओं को रोक दिया हमने अपने को जानने के लिए अपने को परा मक्त नहीं रखा है भीतर जाने से। गहन अंधकार। कोई आवाज भीतर नहीं पहुंच है। हमने अपने बहुत-से हिस्से भयभीत होकर, घबड़ाकर इतने | | सकती, कोई ध्वनि नहीं पहुंच सकती। हाथ पर, शरीर पर इस तरह गहरे में दबा दिए हैं कि हम उनको अपने सामने लाने में डरेंगे। के दस्ताने पहनाए हैं कि उनके कारण अपने ही शरीर को भी नहीं जैसे एक आदमी ब्रह्मचर्य की धारणा से भर गया हो, तो वह | छुआ जा सकता। सब तरफ से इंद्रियों को कुछ भी सूचना न मिले, अपनी कामवासना को इतना दबा देगा कि वह उसका साक्षात्कार | ऐसी स्थिति में उस आदमी पर क्या घटित होता है? तो उसके सारे न कर पाएगा। वह खुद ही डरेगा कि मेरे भीतर और कामवासना! | सिर पर यंत्र लगे हैं, जो बाहर खबर भेज रहे हैं कि उसके भीतर नहीं-नहीं; है ही नहीं! जिस आदमी ने अपने क्रोध को गहरे में क्या हो रहा है। दबा दिया है, वह अपने क्रोध को कभी भी नहीं जान पाएगा। और पांच मिनट गुजारना मुश्किल हो जाता है। पांच मिनट बाद यंत्र हमने अपने बहुत-से हिस्सों को भीतर दबाया हुआ है, सप्रेस | खबर देने लगते हैं कि वह आदमी पागल हो जाएगा। उसे निकालो किया हुआ है।
बाहर! उसके मस्तिष्क की सारी व्यवस्था अस्तव्यस्त हुई जा रही इसलिए स्वाध्याय का दूसरा चरण है, जो-जो दबाया हुआ है, है। दस मिनट के बाद वह आदमी करीब-करीब बेहोशी की हालत उसे उभारना पड़ेगा। अन्यथा स्वयं का अध्ययन न हो पाएगा। | में पहुंच जाता है। वैज्ञानिक कहते हैं कि अगर घंटेभर रोका जाए, जो-जो भीतर अतल में पड़ गया है, जो-जो हमने अंधेरे में सरका | तो वह कोमा में पड़ जाएगा। इतनी गहरी मूर्छा में पड़ जाएगा कि दिया है कि हमें खुद ही न मिल जाए! हम खुद ही अपने बड़े हिस्से | | लौट सकेगा कि नहीं, यह डर हो जाएगा। क्या हो गया है इस को अंधेरे में किए हुए हैं, कि कहीं हमारी मुलाकात न हो जाए! और | आदमी को? इसीलिए हम अकेलेपन से बहुत डरते हैं, लोनलीनेस से बहुत डरते अकेलापन! भारी अकेलापन है। हैं। क्योंकि अकेले में रहेंगे, तो खुद से मिलने का मौका है। अभी जिन अंतरिक्ष यात्रियों ने चांद तक यात्रा की है, चांद तक इसलिए सदा किसी के साथ हैं। कभी पत्नी, कभी पति; कभी बेटा, पहुंचने में जो सबसे बड़ी कठिनाई थी, वह कठिनाई यांत्रिक नहीं कभी मित्र; कभी क्लब, कभी मंदिर; लेकिन कहीं न कहीं कोई न थी। यांत्रिक कठिनाई तो बहुत दिन पहले हल हो गई थी। सारे
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गीता दर्शन भाग-28
अनुमान सही सिद्ध हुए, जो पहले सोचा गया था। बड़ी कठिनाई जैसा हूं। क्रोध है तो क्रोध; काम है तो काम; ईर्ष्या है तो ईर्ष्या; भय थी, इतनी देर तक, पृथ्वी को छोड़ने के बाद जो गहन सन्नाटा है, है तो भय; हिंसा है तो हिंसा। जो भी मेरे भीतर है, जो भी है, बिना उसको आदमी का मस्तिष्क झेल पाएगा कि नहीं झेल पाएगा? | किसी चुनाव के, उस सबको उभार लूं। च्वाइसलेस, चुनावरहित उसका मस्तिष्क फट तो नहीं जाएगा?
अपने को देख लूं। इसलिए जिन-जिन यात्रियों को भेजा गया है, उनको महीनों तक | पहला चरण, दूसरों के मंतव्य अलग कर दूं। दूसरा चरण, दमन सन्नाटे में रखने का अभ्यास करवाना पड़ा है-सालों तक। और को बाहर ले आऊं-प्रकट में, प्रकाश में, रोशनी में। घाव को पहली दफा अमेरिका और रूस के वैज्ञानिक ध्यान में उत्सुक हुए | छिपाऊ न। सब मलहम-पट्टियां उखाड़ दूं और घाव का सीधा हैं, अंतरिक्ष यात्री के कारण, कि अगर ध्यान सीखा जा सके, तो | साक्षात करूं, जो भी मैं हूं। अंतरिक्ष यात्री घबड़ाएगा नहीं अकेलेपन से, भयभीत नहीं होगा। बहुत भय मन में पैदा होता है। क्योंकि जब कोई इस सबको और वह जो अनंत सन्नाटा घेर लेगा पृथ्वी के वर्तुल को छोड़ने के | उभारता है, तो पाता है, मैं यह हूं! यह हिंसा, यह वासना, यह बाद...।
| ईर्ष्या, यह द्वेष, यह घृणा, यह मत्सर, यह लोभ-यह मैं हूँ! मन पृथ्वी एक पागल ग्रह है, जहां शोरगुल ही शोरगुल है। पृथ्वी के | डरता है, क्योंकि हम सबने अपनी इमेज, अपनी-अपनी प्रतिमाएं वर्तुल को छोड़ा, दो सौ मील की परिधि के बाहर हुए कि सब शून्य | बना रखी हैं। इसलिए स्वाध्याय में तीसरा चरण अपनी बनाई हुई हो जाता है। सन्नाटा ही बोलता है, और कुछ भी नहीं। सन्नाटे की प्रतिमा के मोह को त्यागना है। भी वैसी आवाज नहीं होती, जैसे रात झींगुर बोलते हैं, तब होती है। | हम सबकी अपनी प्रतिमाएं हैं। एक आदमी कहता है कि मैं क्योंकि झींगुर भी नहीं होते; सिर्फ सन्नाटा ही होता है, जो कि प्राणों | | साधुचरित्र हूं। अब उसकी एक प्रतिभा है, एक इमेज है। एक को बेध जाता है और घबड़ाहट पैदा कर देता है। अकेला आदमी | | आदमी कहता है कि मैं कभी क्रोध नहीं करता। एक आदमी कहता अपने आमने-सामने पड़ जाता है।
है, मैं निरहंकारी हूं; मुझमें कोई अहंकार नहीं है। एक आदमी कहता हम अपने को उलझाए रखते हैं। स्वाध्याय में आकपाइड. सदा है. मझमें कोई लोभ नहीं है। ये प्रतिमाएं हैं। हमने अपनी-अपनी व्यस्त रहने की वृत्ति सबसे बड़ी बाधा है। तो दूसरे चरण में | सुंदर प्रतिमा बना रखी है। उस सुंदर प्रतिमा को छोड़ने की जिसमें अव्यस्त, अनआकुपाइड, अकेला, और अपने ही दबाए हुए हिस्सों | हिम्मत न हो, वह स्वाध्याय में नहीं उतर सकता। को बाहर लाना पड़ेगा।
इसलिए स्वाध्याय को भी यज्ञ कहा। वह भी बड़ी आग है, जिसमें फ्रायड ने, जुंग ने जो साइकोएनालिसिस का, मनोविश्लेषण का । | जलना पड़ेगा। और सबसे पहले जो चीज जल जाएगी, वह है प्रयोग किया, वह इसी हिस्से को बाहर लाने के लिए है। लिटा देते | आपकी सेल्फ इमेज, अपनी प्रतिमा, जो हर आदमी बनाए हुए है। हैं व्यक्ति को कोच पर और उससे कहते हैं, जो तुम्हारे मन में आए। एक आदमी कहता है, मैं बिलकुल सदाचारी हूं; लेकिन चित्त बोलो। सोचो मत, बोलते जाओ। जब वह अनर्गल बोलना शुरू | बहुत असद आचरण करने की आकांक्षाओं से भरा है। उसको कर देता है, कुछ भी जो भीतर आए, वही बोलने लगता है, तो बड़ी | | उसने दबा दिया है। वह कभी लौटकर नहीं देखता वहां, क्योंकि डर हैरानी होती है कि यह आदमी क्या बोल रहा है। असंगत. अनर्गल. | है कि प्रतिमा का क्या होगा! वह सब कुरूप हो जाएगी। विक्षिप्त बातें, स्वस्थ, सामान्य, अच्छे आदमी के भीतर से निकलने | - मैंने सुना है एक स्त्री के संबंध में कि वह बहुत कुरूप थी। लगती हैं। भीतर की पर्ते उभरने लगती हैं। लेकिन फिर भी दूसरा इसलिए वह किसी आईने के सामने नहीं जाती थी। और अगर कभी मौजूद है। कोच के पीछे, पर्दे के पीछे छिपा हुआ साइकोएनालिस्ट, | | भूल-चूक से कोई लोग उसे चिढ़ाने को आईना, किसी का आईना मनोवैज्ञानिक बैठा हुआ सुन रहा है। उसका भय तो है ही। इसलिए सामने कर देते, तो वह आईने को तत्काल फोड़ देती थी। और परा आदमी नहीं खल पाता। इसलिए साइकोएनालिसिस कभी भी कहती थी कि आईना बिलकुल गलत है। इसमें दिखाई पड़ती हूं मैं पूर्ण नहीं हो सकती। दूसरे की मौजूदगी, भय बना ही रहता है। तो कुरूप हो जाती हूं; जब कि मैं सुंदर हूं। आईना खराब है। सब
योग के लिए स्वाध्याय नितांत एकांत का अनुभव है। दूसरे का | दुनिया के आईने खराब थे, क्योंकि वह स्त्री सुंदर थी! अपने मन कोई भय नहीं; मैं अपने को पूरा उघाड़ लूं नग्न, नैकेड-पूरा, | में उसका एक इमेज है।
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स्वाध्याय-यज्ञ की कीमिया (
हम कहेंगे, वह पागल थी। हम आईने नहीं फोड़ते, साधारण | | स्वाध्याय के यज्ञ की प्रक्रिया है। तो वे कहेंगे, बेकार है सब। बदलने आईने हम नहीं फोड़ते। लेकिन बहुत गहरे में, असली जो आईना | के लिए कुछ भी करना नहीं है; सिर्फ जानना पर्याप्त है, टु नो इज़ है स्वाध्याय का, वह हम कभी उठाकर नहीं देखते। क्योंकि वहां | इनफ। और जानने के अलावा कुछ भी करना जरूरी नहीं है। हमारा असली रूप प्रकट होगा, और जो बहुत अग्ली है, कुरूप, हम कहेंगे, यह कैसे! अगर हम अपने पैर के घाव को जान लें, बहुत भयानक है।
| तो क्या घाव मिट जाएगा? मनोवैज्ञानिक कहते हैं, ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है, नहीं; पैर का घाव नहीं मिटेगा। जान लेंगे, तो भी नहीं मिटेगा। जिसके भीतर मन ने वे सब पाप न किए हों, जो किसी भी आदमी | | हां, जानने से जहां मिट सकता है, वहां जाने का खयाल आएगा। ने कभी भी पृथ्वी पर किए हैं। ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है, | चिकित्सक के पास जा सकते हैं। इलाज, दवा कर सकते हैं। जिसके मन ने ऐसा कोई अपराध न किया हो, जो पृथ्वी पर कभी | लेकिन सिर्फ जानने से पैर का घाव नहीं मिटेगा। जानने के बाद कुछ भी किया गया है।
करना भी पड़ेगा, तब पैर का घाव मिटेगा। सिर में दर्द है, तो जानने हां, बाहर नहीं किया होगा। बाहर नहीं किया होगा। बाहर जो से नहीं मिट जाएगा; कुछ करना भी पड़ेगा। करते हैं, वे तो पकड़े जाते हैं। भीतर हम करते रहते हैं। वहां न कोई | | लेकिन मन के साथ एक बड़ी खूबी की बात है कि मन के घाव अदालत, न कोई कानून, न कोई व्यवस्था, कोई भी नहीं पहुंचती।। | जानने से ही मिट जाते हैं। जानने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं करना लेकिन परमात्मा की आंख वहां भी पहुंचती है।
पड़ता है। स्वाध्याय का समस्त यज्ञ इसी रहस्य के ऊपर खड़ा है, स्वाध्याय का मूल्य यही है कि हम अपने से तो अपने को छिपा | इसी मिस्ट्री पर कि जान लो और बाहर हो जाओ। सकते हैं, लेकिन परम सत्य से हम अपने को कैसे छिपाएंगे? परम __इसे प्रयोग करें, तो ही खयाल में आ सकता है। ऐसा क्यों होता सत्ता के सामने हम अपने को कैसे छिपाएंगे? ये प्रतिमाएं हमें छोड़ | | है, कहना कठिन है। ऐसा होता है, इतना ही कहना संभव है। देनी पड़ेंगी, जब हम प्रभु के साक्षात में पहुंचेंगे। इसलिए स्वाध्याय | करीब-करीब स्थिति ऐसी है, जैसे कि दीया लेकर हम घर के भीतर से पहले ही इन्हें जानकर तोड़ देना उचित है।
चले जाएं और अंधेरा समाप्त हो जाए। दीया ले जाने के बाद फिर और बड़े आश्चर्य की बात तो यह है कि जो व्यक्ति अपनी अंधेरे को समाप्त करने के लिए और कछ नहीं करना पड़ता है। समस्त कुरूपता को जानने में समर्थ हो जाता है, वह उससे मुक्त ऐसा नहीं है कि दीया ले गए, फिर अंधेरे को देख लिया कि यह होने में समर्थ हो जाता है। स्वाध्याय का जो सबसे गहरा सीक्रेट, रहा; फिर उसको समाप्त करने के लिए तलवार उठाई; काटकर राज है, वह मैं आपसे कहता हूं। वह यह है कि स्वाध्याय के यज्ञ बाहर किया; ऐसा कुछ नहीं करना पड़ता। दीया भीतर ले गए, में जानना ही मुक्ति है; नोइंग, जानना ही मुक्ति है।
अंधेरा नहीं है। ऐसे ही, जानने को जो व्यक्ति अपने गहन मन के स्वाध्याय की जो प्रक्रिया है, उसमें स्वाध्याय के अतिरिक्त और | तलों में ले जाता है, जानने के प्रकाश को, वह पाता है कि अज्ञान कुछ भी नहीं करना पड़ता। आप सिर्फ जान लें अपने रोग को और | के कारण ही सब रोग थे। रोग के बाहर हो जाते हैं। और रोग को न जानें, तो रोग बढ़ता जाता __ और हम उलटा कर रहे हैं। जो-जो रोग होता है, उसके प्रति हम है और गहन होता चला जाता है। स्वाध्याय की प्रक्रिया सिर्फ | | अज्ञानी हो जाते हैं। यह बहुत मजे की बात है। अगर कोई आदमी साक्षात्कार से, स्वयं के साक्षात्कार से ट्रांसफार्मेशन की प्रक्रिया है। | आपसे कहे कि आपके पैर में घाव है, तो आप उस पर नाराज नहीं आत्म-साक्षात से आत्मक्रांति, स्वयं को जानने से स्वयं की होते। आप कहते हैं, धन्यवाद, आपने बताया! कोई आदमी कहे, बदलाहट।
आपको खयाल नहीं, शायद आपके पैर में कांटा गड़ गया है, खून इसलिए स्वाध्याय को जो लोग मानते हैं, वे अक्सर हंसी उड़ाते | | बह रहा है। तो आप कहते हैं, आभारी हूं, बड़ी कृपा की कि हुए मिलेंगे इस बात की कि तप की क्या जरूरत है? तपश्चर्या की | | बताया। मैं किसी दूसरी धुन में लगा था; मुझे पता नहीं चला। क्या जरूरत है? ध्यान की क्या जरूरत है? मेडिटेशन की क्या | | लेकिन कोई आदमी कहे कि आपके मन में क्रोध है, तो आप कभी जरूरत है?
| फिर आभार प्रकट नहीं करते हैं उस आदमी का। आप कहते हैं, कृष्णमूर्ति निरंतर यही कहते हुए मिलेंगे। कृष्णमूर्ति की प्रक्रिया गलत बोलते हो। क्रोध और मुझे! कभी नहीं। भ्रांति हो गई तुम्हें।
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गीता दर्शन भाग-2
कोई आदमी कहे कि आपके मन में कामवासना है, तो आप कहते करा देता है; ठीक-ठीक तथ्य का बोध करा देता है। और तथ्य के हैं, यह आदमी मित्र नहीं, दुश्मन मालूम पड़ता है। और इस तरह बोध के साथ ही आपमें रूपांतरण शुरू हो जाता है। तथ्य के बोध के आदमी से फिर आप बचते हैं कि यह कहीं मिल न जाए। के साथ ही! हम तथ्य का बोध नहीं करते। उदाहरण एक-दो लें तो
कबीर ने कहा है, निंदक नियरे राखिए, आंगन कुटी छबाय। जो खयाल में आ जाए। निंदा करता हो, उससे भागिए मत; आंगन और कुटी छवाकर __ और यह स्वाध्याय का सूत्र भविष्य में महत्वपूर्ण होता चला उसको पास में ही ठहरा लीजिए कि वह सुबह से सांझ तक आपकी | जाएगा। और अगर आने वाली सदी में लोग गीता को पढ़ेंगे, तो निंदा करता रहे। स्वाध्याय! स्वाध्याय का सूत्र है वह। शायद स्वाध्याय के सूत्र के कारण ही पढ़ेंगे। यद्यपि गीता में वह
जो निंदा करे, वह मित्र है। अगर वह गलत कहता है, तो कोई | बहुत स्पष्ट और प्रखर नहीं है, क्योंकि उस क्षण उसका कोई बहुत हर्ज नहीं लेकिन अगर वह सही कहता है, तो वह आपके दबे हुए | उपयोग नहीं था। असल में लोग इतने सरल थे कि दमन बिलकुल हिस्सों को आपके सामने लाता है। अगर गलत कहता है, तो | | कम था। और जब दमन कम होता है, तो स्वाध्याय का कोई मतलब मेहनत करता है, तो भी अनगहीत होने की जरूरत है। आपके लिए नहीं होता। जब दमन बहुत ज्यादा हो जाता है, तब स्वाध्याय का श्रम उठा रहा है। अगर सही कहता है, तब तो उसके चरण पकड़ | मतलब होता है। लोग इतने सरल थे कि जो ऊपर थे, वही भीतर लेने की जरूरत है। क्योंकि उसको कोई जरूरत न थी; आपके लिए | थे। इसलिए बहुत भीतर जाकर देखने की कोई जरूरत न थी। मेहनत उठाई।
__ अभी भी, आज से पचास साल पहले तक, अंग्रेज मजिस्ट्रेट्स इसलिए कबीर कहते हैं, निंदक नियरे राखिए।
| ने बस्तर रियासत के अपने संस्मरणों में कहा है-पचास साल लेकिन निंदक को पास रखना मुश्किल है चौबीस घंटे। पहले के, उन्नीस सौ दस के संस्मरण में—कि बस्तर में अगर कोई स्वाध्याय का सूत्र कहता है, आप खुद ही अपने घावों को उघाड़ने आदमी किसी की हत्या कर दे, तो वह खुद अदालत में चला आता वाले बन जाइए। दूसरा कितना उघाड़ पाएगा? और दूसरा उघाड़ेगा था, उन्नीस सौ दस तक! और आकर कह देता था कि मैंने हत्या भी तो ऊपरी घाव उघाड़ेगा, भीतरी घावों का उसे भी पता नहीं है। कर दी है, मेरी क्या सजा है? मजिस्ट्रेट्स ने लिखा है कि हम नासूर गहरे हैं, कैंसर गहरा है और क्रानिक है, कई जन्मों का है। | मुश्किल में पड़ते थे कि इस आदमी को सजा दें तो कैसे दें! पुलिस एक-दो दिन की बीमारियां नहीं हैं भीतर। लेकिन स्वाध्याय का सूत्र | | भेजनी नहीं पड़ती थी। पुलिस भेजकर बहुत देर लगाती; वह खुद कहता है, जानो और बाहर हो जाओ।
ही आ जाता था। कोई आदमी चोरी कर लेता, उन्नीस सौ दस तक अब पश्चिम में मनोविज्ञान और मनोविश्लेषण का जो इतना | | भी बस्तर में, तो वह आकर अदालत में खड़ा हो जाता कि मैंने चोरी प्रभाव है, उसका कल एक कारण है। छोटा-सा स्वाध्याय का कर ली है; मेरी सजा क्या है? हिस्सा है और वह यह कि वह व्यक्ति को उसकी बीमारियों का | एक मजिस्ट्रेट ने लिखा है कि मैंने एक चोर को कहा भी कि साक्षात्कार करा देते हैं। इसके लिए व्यक्ति को पैसे चुकाने पड़ते | | तुमको जब हमने पकड़ा नहीं, हमें पता नहीं चोरी का; चोरी की कोई हैं। लंबे और महंगे! और गरीब आदमी नहीं चुका सकता है। सिर्फ | | रिपोर्ट नहीं की गई है, तो तुम किसलिए आए हो? उसने कहा, अमीर आदमी मनोविश्लेषण से गुजर सकते हैं।
जिसकी चोरी की गई है, उसका इतना नुकसान नहीं हुआ है; कुछ आज तो हालत ऐसी है अमेरिका में कि फैशनेबल स्त्रियां | | पैसे ही चोरी गए हैं। मैंने चोरी की, मेरा बहुत नुकसान हो गया। एक-दूसरे से पूछती हैं, कितनी बार साइकोएनालिसिस करवाई? | | और जब तक मुझे दंड न मिले, तब तक मैं बाहर कैसे होऊंगा उस कितनी बार मनोविश्लेषण करवाया? क्योंकि जिसने नहीं करवाया, | नुकसान से! वह आधुनिक नहीं है, आउट आफ डेट है। जो अभी मनोविश्लेषण __अब ऐसे व्यक्ति अगर रहे हों, और थे, क्योंकि आज उन्नीस सौ से नहीं गुजरा, जिसने दो-तीन साल किसी मनोचिकित्सक को | | दस में बस्तर जैसा था, कृष्ण के जमाने में पूरी पृथ्वी वैसी थी; तो हजारों डालर नहीं दिए, वह आदमी पुराने जमाने का है। | उस दिन स्वाध्याय के सूत्र का सिर्फ उल्लेख किया है कृष्ण ने,
एक अर्थ में बात भी ठीक है। क्योंकि मनोचिकित्सक के पास चलते हुए। उसका कोई बहुत मूल्य नहीं था। हां, कोई जटिल, कोई होता कुल इतना ही है कि वह आपको आपकी स्थिति से परिचित बहुत चालाक, कोई बेईमान, कोई बहुत धोखेबाज आदमी सदा थे।
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स्वाध्याय-यज्ञ की कीमिया -
उन आदमियों को स्वाध्याय की जरूरत पड़ सकती थी। आज वैसे कसम नहीं खाएंगे। इसके लिए सजाएं काटीं, कसम न खाने के लोग ही अधिक हैं। आज स्वाध्याय सर्वाधिक निकटतम प्रक्रिया है, | लिए। और कोई दंड नहीं, और कोई अपराध नहीं; लेकिन कसम जिससे व्यक्ति आगे जाएंगा।
नहीं खाएंगे। क्योंकि कसम वही खाता है...। जिस तथ्य को हम भीतर जान लेते हैं, जैसे उदाहरण के लिए मैं और यह बड़े मजे की बात है, जो आदमी जितनी ज्यादा कसम कहूं, यदि कोई व्यक्ति भीतर ठीक से जान ले कि मैं झूठ बोलने | खाता मिले कि मैं झूठ नहीं बोलता हूं; जानना कि वह झूठ बोलता वाला हूं, मैं असत्यवादी हूं; इस तथ्य को पूरा पहचान ले कि मैं है। उसकी कसम उसका डिफेंस मेजर है। उसकी कसम उसकी झूठ बोलता हूं, तो झूठ बोलना कठिन हो जाएगा। क्योंकि मैं झूठ सुरक्षा का उपाय है। वह हजार दफे कह रहा है कि मैं झूठ नहीं बोलता हूं, इसका अनुभव करना बहुत बड़े सत्य का अनुभव है। बोलता; आपकी कसम खाता हूं। लेकिन जो आदमी झूठ नहीं और इतने बड़े सत्य के सामने फिर झूठ नहीं बोला जा सकता। बोलता, उसे खयाल ही नहीं आता कि मैं झूठ नहीं बोलता। खयाल
जिस आदमी को झूठ बोलना है, उसे सबसे बड़ा झूठ अपने का ही सवाल नहीं। भीतर बोलता पड़ता है कि मैं झूठ कभी नहीं बोलता हूं। इस झूठ - भीतर अगर किसी को अनुभव हुआ कि मैं झूठ बोलने वाला हूं, के आधार पर वह दूसरों से झूठ बोल सकता है कि मैं झूठ कभी | तो एक दूसरी घटना घटती है। और वह घटना यह है कि जब यह नहीं बोलता हूं। पहले वह अपने को झूठ में डालता है, तब वह | अनुभव होता है कि मैं झूठ बोलने वाला हूं, तो इस दुनिया में ऐसा दूसरों को झूठ में डालता है।
एक भी आदमी नहीं है, जो झूठ बोलने वाला होना चाहता हो। होता अपने हाथ गंदे किए बिना दूसरों को गंदगी में ढकेलना असंभव है, दूसरी बात। होना चाहता हो! इसलिए झूठ बोलने वाला सिद्ध है। अपने साथ पाप किए बिना दूसरों के साथ पाप करना असंभव करने में लगा रहता है कि मैं झूठ नहीं बोलता। वह आपको ही सिद्ध है। अपने को धोखा दिए बिना दूसरे को धोखा देना असंभव है। नहीं कर रहा है, वह अपने लिए भी सिद्ध कर रहा है, अपने सामने जिस आदमी को यह पता चल गया कि मैं धोखेबाज हूं, वह धोखा | | भी सिद्ध कर रहा है कि मैं झूठ नहीं बोलता। नहीं दे सकता। क्योंकि धोखे की बुनियादी आधारशिला टूट गई। | इस दुनिया में ऐसा एक भी आदमी खोजना मुश्किल है, जो यह
इसलिए झूठ बोलने वाला सदा कोशिश में लगा रहता है कि मैं | | जानने को तैयार हो भीतर से, कि मैं चोर हूं। नहीं, चोर भी कहता सच बोलता हूं। जो सच बोलता है, वह कभी कोशिश में नहीं | है कि कारण थे, इसलिए मैंने चोरी कर ली। वैसे मैं चोर नहीं हूं। लगता।
मजबूरी थी, इसलिए मैंने चोरी कर ली। वैसे मैं चोर नहीं हूं। क्वेकर्स हैं। दुनिया में कुछ थोड़े-से लोग, जो अभी भी धर्म की | | परिस्थिति थी, इसलिए मैंने चोरी कर ली। वैसे मैं चोर नहीं हूं। ज्योति को कहीं-कहीं दुनिया के कोने में जगाए रखे हैं, उनमें क्रोधी भी कहता है कि क्रोध तुमने दिलवा दिया, अन्यथा वैसे मैं क्वेकर्स, ईसाइयों के एक छोटे-से संप्रदाय का भी बड़ा दान है। क्रोधी नहीं हूं। तुमने गाली न दी होती, तो मैं कभी क्रोध न करता। क्वेकर्स अदालतों में सजा काटे एक छोटी-सी बात के लिए कि | वह तो लोगों ने मुझे उकसा दिया, भड़का दिया कि मैं क्रोध में आ उन्होंने अदालत में कसम खाने से इनकार कर दिया। आखिर गया। ऐसे मैं क्रोधी नहीं हूं। आदमी मैं अच्छा हूं। क्रोधी मैं आदमी क्वेकर्स के लिए अदालतों को झुक जाना पड़ा और निर्णय करना नहीं हूं। पड़ा कि क्वेकर्स से हम कसम नहीं खिलाएंगे। क्योंकि क्वेकर्स ने लेकिन जब भीतर कोई अनुभव करता है कि मैं क्रोधी हूं, तो कहा कि तुम हमसे अदालत में कसम खिलवाते हो कि मैं झूठ नहीं क्रोधी होना मुश्किल हो जाता है। क्योंकि क्रोधी मूलतः कोई भी नहीं बोलूंगा; लेकिन अगर हम झूठ बोलने वाले हैं, तो हम कसम भी होना चाहता। झूठ खाएंगे।
बुरा होना आंतरिक आकांक्षा नहीं है; अच्छा होना आंतरिक ठीक बात है। अगर मैं झूठ बोलने वाला हूं, तो अदालत में | आकांक्षा है। इसलिए बुरे आदमी को भी मानकर चलना पड़ता है कसम खाने में कौन-सी अड़चन है कि मैं झूठ नहीं बोलूंगा। । | कि मैं अच्छा हूं। और मानकर चलने का एक ही उपाय है कि दूसरे
फिर क्वेकर्स ने यह कहा कि जब हम झूठ बोलते ही नहीं हैं, तो | मानें कि मैं अच्छा हूं। क्योंकि दूसरों की आंखों की ओपीनियन को कसम कैसे खाएं! कसम वह खा सकता है, जो बोलता हो। तो हम इकट्ठा करके मैं भी मान लूंगा कि अच्छा हूं।
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गीता दर्शन भाग-20
स्वाध्याय कहता है कि जिसने जाना जिस तथ्य को, वह उसके | जाएगा? असंभव है। तथ्य का पता–विसर्जन हो जाता है। यह बाहर हो जाता है।
साफ दिख जाए कि यह मैंने क्या किया है, तो बेटे से भी माफी - लेकिन हम तथ्यों को जानते नहीं, झुठलाते हैं। हम अपनी ईर्ष्या | | मांगी जा सकती है। माफी मांगने का भी मौका नहीं आएगा।
को ईर्ष्या नहीं कहते, कुछ और कहते हैं। हम अपनी घृणा को घृणा हम अपने आपको धोखा देने में बड़े कुशल हैं। कुछ होता है, नहीं कहते, कुछ और कहते हैं। हम अपने क्रोध को क्रोध नहीं | | कुछ हम उसको नाम देते हैं। कुछ और ही होता है भीतर, कुछ और कहते, कुछ और कहते हैं। हम अपनी मालकियत को, पजेशन के | | ही नाम देते हैं! भाव को, मालकियत नहीं कहते, कुछ और कहते हैं।
औरंगजेब ने अपने बाप को बंद कर दिया था आखिरी दिनों में। एक मां है—मैं एक किताब में पढ़ रहा था, उसमें मां अपने बेटे तो उसके बाप ने खबर भेजी कि इतना इंतजाम कर दे कम से कम से कहती है कि बाहर जाओ और देखो कि पप्पू क्या कर रहा है। | | कि तीस बच्चे यहां भेज दे, तो मैं एक छोटी क्लास चलाता रहूं और जो भी कर रहा हो, कहो कि न करे। बाहर जाओ और देखो, | | जेलखाने में। औरंगजेब ने अपनी आत्म-कथा में लिखाया है कि पप्पू क्या कर रहा है। उसे पता नहीं कि पप्पू क्या कर रहा है। लेकिन | मेरे बाप को आज्ञा देने की इतनी खतरनाक आदत थी कि जब मैंने । जो भी कर रहा हो, कहो कि न करे।
उसे जेलखाने में बंद कर दिया, तो उसने तीस बच्चे मांगे। और जब किसलिए? पप्पू गलत कर रहा हो, तब समझ में आ सकता है। | तीस बच्चे उसे दे दिए गए, तो वह छड़ी लेकर उनके बीच में पढ़ाने लेकिन मां को पता भी नहीं कि पप्प बाहर क्या कर रहे हैं। लेकिन का काम करने लगा! वह भेज रही है कि जाकर कहो कि पप्पू जो भी कर रहा हो, न करे। ___ एक स्कूल मास्टर अपनी क्लास में किसी बादशाह में कम नहीं
अक्सर लगता है कि मां बच्चे के ठीक-ठीक हित के लिए सब होता। बादशाह भी इतना ताकतवर नहीं होता, जितना छोटे-छोटे कर रही है। लेकिन थोड़ा स्वाध्याय करे, तो पता चलेगा, डामिनेशन | प्राइमरी स्कूल के बच्चों में स्कूल मास्टर होता है। का मजा भी ले रही है, मालकियत का। इसलिए जब बच्चा पैदा हो | अभी मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि जो लोग भी शिक्षक होने के प्रति जाता है किसी पति-पत्नी को, तो पति-पत्नी की कलह थोड़ी हलकी | | उत्सुक होते हैं, उनमें सौ में से पचहत्तर प्रतिशत डामिनेशन की
जाती है; क्योंकि डाइवर्शन हो जाता है। बच्चे पर निकलने लगता आकांक्षा से प्रेरित होते हैं। पचहत्तर प्रतिशत! दबाना, आज्ञा देना, है मां का, तो पति थोड़ा माफ हो जाता है।
| सताना, कोअर्शन, टार्चर! इसलिए शिक्षक अगर छोटी-छोटी अगर बच्चा बीच में न हो...। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि बच्चा | | चीज पर छड़ी चलाते रहे पुरानी दुनिया में, हाथ-पैर तोड़ते रहे स्केप गोट का काम करता है। बाप भी अकड़ दिखा लेता है उसको, । | बच्चों के, तो इसीलिए नहीं सिर्फ कि पढ़ाने के लिए बड़े आतुर थे। मां भी अकड़ दिखा लेती है उसको। वह किसी को अकड़ अभी पढ़ाने की आतुरता से हाथ-पैर तोड़ने का कोई कारण नहीं है। मैं दिखा नहीं सकता। दिखाएगा वक्त आने पर। लेकिन उसे प्रतीक्षा | ऐसे आदमियों को जानता हूं, जिनकी शिक्षकों ने चोट से आंख करनी पड़ेगी अभी। पत्नी पति को नहीं मार सकती. बेटे को पीट फोड़ दी! क्या बात रही होगी? देती है।
काश, उन शिक्षकों को पता चल जाता कि यह जो छड़ी हम मार यहां विश्लेषण और स्वाध्याय की जरूरत है कि यह मैंने, बेटे रहे हैं इस बच्चे को, यह छड़ी पढ़ाने के लिए नहीं मारी जा रही है। ने कसर किया था, इसलिए मैंने मारा है. कि किसी और का चांटा | क्योंकि बिना छड़ी मारे पढ़ाया जा रहा है; कोई दिक्कत नहीं आ इस पर पड़ा जा रहा है? आमतौर से आप भलीभांति जानते हैं, सब | रही है। यह छड़ी मारने का मजा दूसरा है; इसका रस गहरा है। यह जानते हैं, और बच्चे तो बिलकुल भलीभांति जानते हैं। बच्चे बहुत | दूसरे को दबाने का और दूसरे पर हिंसा करने का रस है। काश, ही भलीभांति जानते हैं कि मां-बाप में कोई गड़बड़ हो, तो वहां से | यह शिक्षक को दिख जाए, तो हाथ में से छड़ी छूट जाएगी। लेकिन खिसक जाओ। क्योंकि पति तो नहीं पिटेगा; बेटा पिट जाएगा! | | नहीं छूटेगी, जब तक वह सोच रहा है कि मैं इसको शिक्षित करने __यह अगर स्वाध्याय से पता चल जाए कि यह क्या हो रहा है, के लिए मार रहा हूं, इसी के हित में इसी को मार रहा हूं, तब तक तो होना मुश्किल है। अगर मां को यह पता चल जाए कि मारना तो यह नहीं छूटेगी; तब तक वह धोखा जारी रहेगा। पति को था, मारा है बेटे को, तो क्या बेटे को मारना संभव रह तथ्य को जानना तथ्य से मुक्ति है। जो व्यक्ति अपने भीतर के
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स्वाध्याय - यज्ञ की कीमिया
समस्त रोगों को वैसा ही देख लेता है, जैसे वे हैं—इन देअर टोटल नैकेडनेस, उनकी पूरी नग्नता में - वह फिर वैसा ही नहीं रह सकता, जैसा था। उसमें रूपांतरण शुरू हो जाता है; उसमें बदलाहट शुरू हो जाती है। और वह जो बदलाहट है, वह स्वाध्याय का सहज परिणाम है।
स्वाध्याय में कठिनाई है, लेकिन स्वाध्याय करने में जो समर्थ है, बदलाहट में कठिनाई नहीं है। बदलाहट बिलकुल सहज है; छाया की तरह पीछे चली आती है।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, स्वाध्यायरूपी यज्ञ! इस यज्ञ से गुजरकर भी... ।
इसके लिए वे दो-तीन और सहारे बताते हैं। शास्त्र का अध्ययन स्वाध्याय के लिए सहारा बन सकता है। लेकिन किस शास्त्र का अध्ययन सभी शास्त्र स्वाध्याय के लिए सहारा नहीं बन सकते हैं। केवल वे ही शास्त्र स्वाध्याय के लिए सहारा बन सकते हैं, जो आत्म-स्वीकृतियां हैं, कन्फेशंस हैं। जैसे सेंट अगस्तीन की किताब कन्फेशंस या टाल्सटाय की जीवन- कथा, या रूसो की जीवन कहानी, या गांधी की आत्मकथा । इस तरह के वक्तव्य स्वाध्याय के लिए सहयोगी हो सकते हैं।
लेकिन लोग इनका स्वाध्याय नहीं करते। स्वाध्याय अगर वे करते हैं, तो गीता का करते हैं। गीता स्वाध्याय में सहयोगी उतनी नहीं हो सकती, क्योंकि गीता कन्फेशन नहीं, स्टेटमेंट है। गीता तो सत्य का वक्तव्य है, असत्य की स्वीकृति नहीं। गांधी की आत्मकथा काम की हो सकती है स्वाध्याय करने वाले को, क्योंकि उसमें असत्य की बहुत स्वीकृतियां हैं। उसमें भीतर के रोगों के बहुत स्वीकार हैं।
गांधी बता पाते हैं कि पिता मर रहे हैं, पैर दबा रहा हूं; चिकित्सकों ने कहा है, यह रात आखिरी होगी, लेकिन बारह बजे के करीब कामवासना भारी हो जाती है । कल भी भोगा था पत्नी को, परसों भी भोगा था, आज भी भोगने का मन है। बाप मर रहा है! बाप की मृत्यु भी वासना से नहीं छुड़ा पाती!
चकमा करके – कोई पूछता है कि बहुत थक गए होओगे, मैं हाथ-पैर दबा दूं? थके नहीं हैं, क्योंकि थका आदमी कामवासना के लिए आतुर नहीं होता । मौका पाकर कि किसी ने कहा कि मैं पैर दबा दूं, गांधी वहां से खिसक गए। एक ही दीवाल का फासला था। उस पार वह पत्नी के साथ संभोग में रत हो गए। और पत्नी गर्भिणी है, प्रेगनेंट है। चार ही दिन बाद उसको बच्चा हुआ, हालांकि मरा
हुआ हुआ या होते ही मर गया। होने वाला था । यह मृत्यु भी, यह हिंसा भी कहीं न कहीं गांधी को जीवनभर पीड़ा देती रही।
जब वे संभोग में हैं, तभी पिता की मृत्यु हो गई। हाहाकार घर में मच गया, रोना-चिल्लाना। इसलिए जिंदगीभर फिर ब्रह्मचर्य की आकांक्षा रही।
काम के प्रति गांधी का जो इतना गहरा विरोध है, उसमें वह घटना भीतर बैठ गई मन में; वह गहरी उतर गई। बाप की हत्या जुड़ | गई संभोग के साथ | और पिता फिर दुबारा नहीं मिल सके। मन पर अपराध का भाव, गिल्ट बैठ गई। गांधी उस गिल्ट से जिंदगीभर मुक्त नहीं हुए। गांधी जिंदगीभर अपराध - भाव से पीड़ित रहे । लेकिन आदमी ईमानदार थे; नीयत उनकी साफ थी; स्वीकार सब कर लिया।
यह स्वीकृति पढ़ेंगे, तो अपने भीतर भी स्वीकार करने में सुविधा बनेगी। इस तरह के शास्त्र, जो स्वीकृतियां हैं, कन्फेशंस हैं, वे स्वाध्याय में सहयोगी बन सकते हैं।
उपनिषद नहीं बन सकते स्वाध्याय में सहयोगी । लेकिन लोग उपनिषद का स्वाध्याय करते हैं! उपनिषद बेयर स्टेटमेंट्स हैं। | उपनिषद का ऋषि कहता है, ब्रह्म है। खतरनाक है उसका स्वाध्याय | करना । उपनिषद का ऋषि कहता है, अहं ब्रह्मास्मि, मैं ब्रह्म हूं। ये सत्य को उपलब्ध लोगों के वक्तव्य हैं। आप भी बैठकर इनको पढ़ पढ़कर मन में सोचने लगते हैं, अहं ब्रह्मास्मि, मैं ब्रह्म हूं! खतरे में पड़ेंगे। आप ब्रह्म वगैरह बिलकुल नहीं हैं। कृपा करके जो हैं, वही अपने को जानें। चोर हो सकते हैं, बेईमान हो सकते हैं, ब्रह्म बिलकुल नहीं हो सकते।
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लेकिन उपनिषद पढ़ने में खतरा है एक । और वह खतरा यह है कि उपनिषद जानने वालों के वक्तव्य हैं, और न जानने वाले उन वक्तव्यों को पकड़ लें, तो वे अपने को धोखा देने में समर्थ हो जाएंगे। स्वाध्याय तो नहीं कर पाएंगे, हत्या कर लेंगे अपनी |
नहीं; स्वाध्याय में ऐसे शास्त्र सहयोगी हैं, जो असत्य से गुजरने वाले लोगों की आत्म-स्वीकृतियां हैं। सत्य को पहुंचे हुए शिखर के उदघोषण नहीं; असत्य की घाटियों में सरकने वाले लोगों की पीड़ाओं की स्वीकृतियां । इसलिए मैं आपसे कहूंगा कि कई बार ऐसे लोगों के वक्तव्य, जिन्होंने सत्य को नहीं जाना है, लेकिन असत्य की पीड़ा को भोगा है और असत्य की पीड़ा को स्वीकार करने का साहस दिखलाया है— जैसे, न तो टाल्सटाय को सत्य का कोई अनुभव है, न गांधी को ।
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गीता दर्शन भाग-28
गांधी जीवनभर सत्य की खोज में रहे, प्रयोग में रहे, उपलब्धि की स्वीकृति नहीं करेगा। में कभी भी नहीं आ पाए। पर आदमी ईमानदार हैं, क्योंकि बहुत-से जरूरी नहीं है; कि न किए हों तो भी स्वीकृति करे। ऐसा नहीं है। लोग बिना उपलब्धि के उपलब्धि की घोषणा कर सकते हैं। गांधी | क्योंकि दूसरी भूल भी सदा हो जाती है। ऐसी भी किताबें हैं ईसाइयत ने वह कभी नहीं की। इसलिए एक्सपेरिमेंट्स विद ट्रथ! आत्मकथा | के पास, और ऐसे पापों की स्वीकृतियां हैं, जो उन लोगों ने कभी को नाम दिया, सत्य के प्रयोग; सत्य का अनुभव नहीं, सिर्फ | किए ही नहीं। लेकिन वही संत बड़ा हो सकता है, जिसने बहुत पाप प्रयोग; अंधेरे में टटोलना।
| किए, स्वीकार किया, और आगे गया। तो लोगों ने झूठे पाप तक लेकिन गांधी की आत्मकथा स्वाध्याय में सहयोगी हो सकती है। अपनी किताबों में लिख दिए, जो उन्होंने कभी किए नहीं थे। क्योंकि वह असत्य की घाटियों में चलने वाले एक आदमी की __ आदमी का मन कितने धोखे में जा सकता है। यानी पुण्य का साहसपूर्ण स्वीकृतियां हैं—कैसा है मन! कैसे धोखा दे जाता है! | दावा तो कर ही सकता है, पाप का दावा भी कर सकता है, जो उसने कैसे-कैसे भटकाता है!
| न किया हो! आदमी की बेईमानी की कोई सीमा नहीं है; और अगर गांधी का मन, इतने सिंसियर और प्रामाणिक आदमी | | आत्मवंचना का कोई अंत नहीं है। का मन इतने धोखे देता है, तो आपको भी अपने धोखे देखने में | स्वाध्याय में शास्त्र सहयोगी हो सकता है, लेकिन शास्त्र वैसा, सुविधा बनेगी। आपको ऐसा नहीं लगेगा कि मैं अपने को धोखा दे | | जो स्वीकार देता हो, जो बताता हो कि भीतर आदमी के क्या-क्या रहा हूं, तो कोई बहुत बुरा काम कर रहा हूं। गांधी तक दे रहे हैं, तो | घट सकता है। इसलिए कभी तो वास्तविक शास्त्रों से भी ज्यादा मैं भी अपने को दे रहा हूं, तो जरा देख सकता हूं आंख खोलकर। | उपन्यास शास्त्र का काम कर सकते हैं। जैसे दोस्तोवस्की के टाल्सटाय का अगर जीवन पढ़ेंगे, तो वह शास्त्र है। अगर | | उपन्यास, क्राइम एंड पनिशमेंट-अपराध और दंड, या ब्रदर्स अगस्टीन के कन्फेशंस पढ़ेंगे, तो अर्थपूर्ण है।
कर्माजोव, बाइबिल और गीता से भी ज्यादा कीमती हो सकते हैं ईसाइयत ने स्वाध्याय के लिए पश्चात्ताप, प्रायश्चित्त और उस आदमी के लिए, जो स्वाध्याय के पथ से चल रहा है। कन्फेशन की प्रक्रिया विकसित की। हिंदुस्तान में ऐसी कोई प्रक्रिया | | टाल्सटाय के उपन्यास, वार एंड पीस—युद्ध और शांति, डेथ विकसित नहीं हुई, इसलिए ईसाइयत के पास कन्फेशंस का बहुत | आफ इवान इलोविच—इलोविच की मृत्यु; या सार्च, काम, ' बड़ा भंडार है। और गांधी भी कर सके कन्फेस, तो गीता पढ़कर | काफ्का इनके उपन्यास। कभी न कर सकते थे; ईसाइयत के प्रभाव में कर सके।
भारत का कोई नाम नहीं ले रहा, जानकर; क्योंकि भारत के पास आज तक पृथ्वी पर अपराध की जो गहरी स्वीकृतियां हैं, वे | | अब भी ऐसी उपन्यास की संपदा नहीं है। अब भी नहीं है। ईसाइयत के प्रभाव में फलित हुई हैं। ईसाइयत ने आदमी को एक | उपन्यास भी, जो किसी व्यक्ति के गहरे प्राणों से निकले हों, जैसे साहस दिया इस बात का कि जो भी है गलत, उसे कह पाओ। इतना दोस्तोवस्की के सभी उपन्यास, जिनमें ब्रदर्स कर्माजोव तो ऐसा है साहस न तो हिंदू जुटा पाए, न मुसलमान जुटा पाए, न जैन जुटा | | जिसकी कि इज्जत बाइबिल, गीता और कुरान की तरह होनी पाए, न बौद्ध जुटा पाए। क्राइस्ट की सबसे बड़ी देन इस पृथ्वी पर | | चाहिए, जिसमें आदमी के चित्त का सब अंधेरा खोलकर रख दिया प्रायश्चित्त है, जो किया उसके स्वीकार का भाव, उसे कन्फेस करने | | गया है, जिसमें आदमी के भीतर के सब गह्वर, सब खाइयां उघाड़ की सामर्थ्य।
दी हैं; जिसमें आदमी के भीतर के सब घाव की मलहम-पट्टी तोड़ तो ईसाई संतों के जीवन इसमें बड़े उपयोगी हो सकते हैं। सेंट दी है; जिसमें आदमी को पहली दफे पूरा नग्न, जैसा आदमी थेरेसा या जेकब बोहमे या इकहार्ट, इनकी जो स्वीकृतियां हैं, वे | | है—वे भी उपयोगी हो सकते हैं। पर उपयोगी, गौण, सेकेंडरी; बड़ी अर्थपूर्ण हो सकती हैं। भारत के पास ऐसा साहित्य न के | प्राइमरी, प्राथमिक तो स्वयं का अध्ययन है। जो स्वयं का अध्ययन बराबर है। भारत के पास दंभ का साहित्य बहुत है, लेकिन पाप के कर पाए, पर्याप्त है। लेकिन सहयोग इनसे मिल सकता है। स्वीकार का साहित्य न के बराबर है। एक अर्थ में गांधी की किताब | - ईश्वर-जप भी कृष्ण ने एक सूत्र उसमें गिनाया है। ईश्वर-जप! एक बहुत बड़ी शुरुआत है। लेकिन शुरुआत ही है, उसके बाद इसे भी थोड़ा समझ लेना जरूरी है। दसरी किताब भी नहीं आ सकी। भारत का कोई साध अपने पापों ईश्वर-जप का क्या अर्थ है स्वाध्याय के संदर्भ में? क्योंकि
जन जुटा जिससमा उपन्यास, जिनमें न
गए। क्राइस्ट की सलान
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स्वाध्याय - यज्ञ की कीमिया
ईश्वर - जप के बहुत अर्थ हैं, अलग संदर्भ में। अलग रिफरेंस का सवाल है कि कहां? स्वाध्याय के संदर्भ में ईश्वर - जप का क्या अर्थ है ?
आपसे मैंने एक पहलू की बात कही, आदमी अपने अंधेरे का साक्षात्कार करे – अपनी बुराई का, अपनी बीमारी का, अपनी रुग्णता का, भीतर के पाप, अपराध, उन सबका – कहें एक शब्द में, अपने भीतर छिपे नर्क का । यह आधी बात है। अगर आदमी सिर्फ अपने भीतर छिपे नर्क का ही अनुभव करे, तो यह भी हो सकता है कि सेल्फ कंडेमनेशन में पड़ जाए, आत्मनिंदा में पड़
। यह भी हो सकता है कि इतना नर्क देखकर समझे कि जीवन व्यर्थ है, बेकार है, सब पाप है, सब नर्क है। यह खतरा है।
पश्चिम में यह खतरा हो गया। मनोविश्लेषण ने स्वाध्याय की प्रक्रिया लोगों को दे दी, लेकिन ईश्वर-जप का कोई खयाल नहीं दिया। इसलिए आज पश्चिम में जीवन अर्थहीन है। लोग कहते हैं, यही सब - पाप ही पाप है - घृणा और हिंसा और ईर्ष्या है, तो जीने का अर्थ क्या है ? न कहीं कोई प्रेम है, न कहीं कोई क्षमा है; सब धोखा है। प्रेम के पीछे सेक्स दिखाई पड़ने लगा स्वाध्याय से। सब प्रेम की बातचीत फोर-प्ले हो गई। सब प्रेम की बातचीत सेक्स के लिए परसुएशन है । सब प्रेम की बातचीत के पीछे वह शरीर को भोग की आकांक्षा है। प्रेम सिर्फ फसाड है, तैयारी है, इंतजाम है। कविताएं वगैरह सब इंतजाम हैं। प्रेम की सब बातचीत सब इंतजाम हैं। आखिर अंत में वह काम, वह शरीर का शरीर के साथ भोग, वही अंत में ।
तो पश्चिम ने इधर पचास वर्षों में आत्म-विश्लेषण करके यह जाना कि प्रेम है ही नहीं, सिर्फ काम है। इससे खतरा हुआ। इसका मतलब हुआ कि प्रेम की कोई संभावना ही नहीं है। इसलिए भोगो काम को, और जो है. ठीक है ! इससे रूपांतरण नहीं हुआ, बल्कि आदमी का पतन हुआ।
इसलिए कृष्ण तत्काल जोड़ते हैं, ईश्वर - जप | ईश्वर - जप का मतलब है, दूसरा पहलू भी स्मरण रखना । प्रेम के पीछे वासना है, यह हमारा तथ्य है। लेकिन वासना में से भी प्रेम का जन्म हो सकता है, यह हमारी संभावना है।
ईश्वर - जप का अर्थ है, संभावना को याद रखना। आदमी के भीतर ईश्वर की संभावना है। संभावना को स्मरण रखना, तथ्य को सब मत समझ लेना। तथ्य के भीतर छिपा हुआ भी, अप्रकट भी कुछ है, विराट भी कुछ है, अर्थ भी कुछ है, अभिप्राय भी कुछ है।
ईश्वर-जप का अर्थ है, स्मरण रखना कि कितना ही हो गहरा पाप, पुण्य का अभाव नहीं है। कितना ही हो गहरा अपराध, क्षमा की असंभावना नहीं है। कितना ही हो अंधकार, न दिखाई पड़ती हो प्रकाश की कोई भी किरण, तो भी प्रकाश है।
ईश्वर - जप का अर्थ है, अंधकार के गहन निबिड़ भटकाव में भी प्रकाश का स्मरण । पाप के मध्य भी परमात्मा की स्मृति । अपराध | के मध्य भी मुक्त होने की संभावना के द्वार का खयाल, रिमेंबरिंग ।
ईश्वर - जप न हो, तो अकेला स्वाध्याय खतरनाक भी हो सकता है । होगा ही, ऐसा नहीं; हो सकता है । ईश्वर-जप आशा है। अकेला स्वाध्याय निराशा बन सकता है। ईश्वर-जप आशा है। और आशा अगर बिलकुल न हो खयाल में, तो निराशा आत्मघाती, स्युसाइडल हो जाती है।
इसलिए पश्चिम में आत्महत्या बढ़ी है। विगत पचास वर्षों में जैसे-जैसे मनोविश्लेषण बढ़ा, वैसे-वैसे आत्महत्या बढ़ी है। और जैसे-जैसे आत्मविश्लेषण आदमी ने किया, वैसे-वैसे हत्या की ओर उन्मुख हुआ। क्योंकि पाया कि सिवाय नर्क के कोई स्वर्ग नहीं है। ही बस सब है, कहीं कोई स्वर्ग नहीं है । फिर जीने की क्या जरूरत है ?
बीज कुरूप सिद्ध हो और वृक्ष का हमें कोई पता न हो; बीज | बेहूदा मालूम पड़े और भीतर छिपे अंकुर के सौंदर्य की हमें कोई स्मृति न हो; बीज फेंक देने जैसा मालूम पड़े और बीज में छिपे हुए अनंत फूल जो आकाश में खिल सकते हैं, सूरज की रोशनी में नाच | सकते हैं, सुवास से भर सकते हैं दिगदिगंत को, उनका हमें कोई पता न हो तो अकेला स्वाध्याय खतरनाक हो सकता है।
इसलिए कृष्ण ने तत्काल, जैसे ही कहा स्वाध्याय वैसे ही कहा | ईश्वर - जप | ईश्वर-जप पुराने दिन की भाषा है। उसे समझने के लिए मैंने... ईश्वर - जप पुराने दिन की भाषा है। आज की भाषा में कहना हो, तो कहना होगा, मनुष्य की संभावनाओं का स्मरण |
आदमी ईश्वर हो सकता है, है नहीं । है तो आदमी बिलकुल ही राक्षस; हो सकता है ईश्वर । है तो आदमी बिलकुल दानव; सकता है देव । तो जो है, अगर वही दिखाई पड़े, तो खतरनाक हो सकता है। जो हो सकता है, उसकी स्मृति की किरण भी अंधकार | में उतरती रहे - स्मृति की किरण। जप का अर्थ है, स्मरण।
जप का क्या अर्थ होता है? एक ही बात को बार-बार दोहराना । अंधेरा है बहुत, प्रकाश कहीं दिखाई नहीं पड़ता; बार-बार भूल जाता है कि प्रकाश हो सकता है। उसे बार-बार स्मरण रखना कि
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गीता दर्शन भाग-20
प्रकाश हो सकता है। नहीं तो अंधेरे में डूब जाने का डर है। और | | सोता है, तब फिर, राम। माना कि दिनभर सब उपद्रव था, धूल थी, अगर अंधेरा ही है, तो पैरों के रुक जाने का भय है कि वे जवाब दे | | अंधेरा था, गंदगी थी, कुरूपता थी; माना कि यथार्थ यही है, दें कि बढ़ने से फायदा क्या? कहीं भी जाओ, अंधेरा है। कहीं भी | लेकिन यथार्थ यह होना नहीं चाहिए। सुबह भी शुरुआत उससे, पहुंचो, अंधेरा है। कहीं कोई मंजिल नहीं प्रकाश की। | दिन भी स्मरण उसका, रात भी याद उसकी। आखिरी क्षण, सोते
ईश्वर-जप का अर्थ है, रिमेंबरेंस। उसकी स्मृति, जो हो सकता | समय, नींद में उतरते समय भी राम। है, जो छिपा है और प्रकट नहीं है, लेकिन प्रकट हो सकता है। ___ और ध्यान रहे, आखिरी क्षण नींद के द्वार पर जब आदमी खड़ा लेकिन पुराने दिन में ईश्वर-जप कहना काफी था।
होता है, जागरण बंद होता और नींद शुरू होती, तब जो ईश्वर-जप ___ एक आदमी सुबह उठता, सुबह नींद टूटती और पहला शब्द है, वह बहुत गहरा है। क्योंकि उस समय चेतना गेयर बदलती है. होता, राम। आ रहा है दिन सामने, जहां राम से मिलने की कम उस समय कांशसनेस गेयर बदलती है, एक गेयर से बिलकुल संभावना है, रावण से ही मिलने की संभावना है। ऊग रहा है दिन, | दूसरे गेयर में जाती है, एक जगत से बिलकुल दूसरे जगत में प्रवेश जहां अयोध्या नहीं होगी, लंका ही होगी। हो रही है सुबह, आदमी | करती है। बंद हुई वह दुनिया जो दुनिया थी; बंद हुए वे द्वार जो का जगत–जाल का, जंजाल का, प्रपंच का शुरू होगा। लेकिन दूसरों से जुड़े थे। अब अपने से जुड़ने का द्वार खुलता है, गहन आदमी सुबह उठकर पहली बात स्मरण करेगा, राम। वह यह कह | निद्रा का, जहां प्रकृति की गोद में हम वहीं पहुंच जाएंगे, जहां मूल रहा है, है सब बुरा, लेकिन शुरुआत मैं स्मरण से करता हूं शुभ की। | स्रोत है। अब राम को स्मरण करते हुए कोई सो गया। सोते-सोते,
सांझ लौटा है थका-मांदा...दिन में भी, राह चलते भी हमने सोते-सोते स्मृति है ईश्वर की। वह गहरी भीतर बैठती चली जाती नमस्कार की जो विधि बनाई थी, उसे ईश्वर-जप से जोड़ दिया था। | है, अंतराल में उतरती चली जाती है। नींद के साथ ही, नींद की दुनिया में उतनी गहरी विधि कहीं भी नहीं है। अगर पश्चिम में दो गहराई के साथ ही एसोसिएट हो जाती है। ला आफ एसोसिएशन आदमी मिलते हैं और कहते हैं, गुड मार्निंग, सुबह अच्छी है; यह का उपयोग है। संयोग जोड़ देते हैं हम। साधारण लौकिक वक्तव्य है। उससे कहीं कोई संभावना का द्वार | | पावलव ने बहुत से प्रयोग किए। एक प्रयोग पावलव का सारी नहीं खुलता। इस मुल्क में, इस जमीन के टुकड़े पर, दो आदमी | दुनिया में प्रसिद्ध है बच्चे भी जानते हैं। एक कुत्ते को वह खाना' मिलते हैं, तो कहते हैं, राम-राम! जो आदमी सामने है, राम नहीं | खिलाता है, साथ में घंटी बजाता है। पंद्रह दिन तक रोटी दी जाती। है; रावण होने की संभावना ज्यादा है। लेकिन स्मरण राम का है। | रोटी सामने आती; कुत्ते की लार टपकती; पावलव घंटी बजाता। स्मरण संभावना का ही है।
| फिर सोलहवें दिन रोटी नहीं आती; पावलव घंटी बजाता; कुत्ते के गुड मार्निंग बहुत सेकुलर है; उसमें कोई बहुत गहराई नहीं है। | मुंह से लार टपकती। अब घंटी से लार टपकने का कोई नैसर्गिक बहुत साधारण है, सुबह सुंदर है। लेकिन जब दो आदमी हाथ | संबंध नहीं है। घंटी से कहीं लार टपकती है किसी की? और कुत्ते जोड़ते हैं एक-दूसरे को और कहते हैं, राम! तो वे दूसरे की | | को तो धोखे में डालना मुश्किल है। घंटी से क्या लेना-देना? संभावनाओं को हाथ जोड़ते हैं। वे दूसरे में राम को देखने की | । लेकिन पंद्रह दिन तक जब भी रोटी सामने आई, घंटी बजी; घंटी
आकांक्षा प्रकट करते हैं। हाथ जोड़ते हैं, सामने खड़े आदमी के और रोटी साथ-साथ जुड़ गईं। घंटी और रोटी दो चीजें न रहीं, एक लिए नहीं, भीतर छिपे राम के लिए।
चीज हो गईं। अब आज सिर्फ घंटी बजी, तो रोटी का स्मरण आ दिन में जब भी, तो अपरिचित को भी राम। अपरिचित को गुड | गया; लार टपकने लगी! कुत्ते का शरीर भी प्रभावित हो गया, मार्निंग कोई करता नहीं। अभी भी गांवों में, ग्रामीण हिस्से से गुजरें, | एसोसिएशन से। तो जो नहीं जानते, वे भी राम-राम करते हुए गुजर जाएंगे। एक मौका | | हम भी ऐसे ही जीते हैं। सोते समय राम का स्मरण नींद की मिला, एक चेतना पास आई, उसको क्यों न ईश्वर-जप बना लिया | | गहराई से प्रभु के स्मरण को जोड़ने का प्रयोग है। नींद हमारे भीतर जाए! एक अवसर मिला, सामने छिपा हुआ राम आया, क्यों न उसे | | गहरी से गहरी चीज है। अगर उससे प्रभु का स्मरण जुड़ जाए, तो याद कर लिया जाए-खुद भी, और उसे भी याद दिला दी जाए! | | प्रभु भी हमारी गहरी से गहरी चीज हो जाता है।
सांझ थका-मांदा आदमी लौटा है दिनभर के उपद्रव से। रात दूसरी बात, रात आखिरी समय जो हमारा अंतिम विचार होता है
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स्वाध्याय-यज्ञ की कीमिया
सोने के पहले, वही हमारा सुबह नींद के टूटने के बाद पहला विचार होता है। रात का अंतिम विचार, सुबह का पहला विचार है। क्यों? क्योंकि नींद में जो विचार प्रवेश कर जाता है, उसकी तरंगें रातभर चेतना में डोलती रहती हैं। रातभर डोलती रहती हैं। जैसे फेंक दिया एक कंकड़ झील में; लहरें उठीं और चल पड़ीं। ऐसे ही नींद के पहले क्षण में जो विचार आपके अंतस्तल में उतर जाता है, वह रातभर डोलता रहता है। __ अगर आप आठ घंटे सोए और राम का नाम आठ घंटे भीतर सूक्ष्म तरंगें लेता रहा, लेगा, तभी सुबह पहली तरंग बनेगा, नहीं तो नहीं बनेगा। और बन जाता है। सुबह पहला स्मरण श्वास के साथ, पहली श्वास के साथ, पहले होश के साथ, पहले जागरण के साथ राम वापस लौटा। रातभर जो प्रभु-स्मरण में डूबा रहा, संभावना बढ़ती है कि उसका दिन भी प्रभु-स्मरण का दिन बनेगा। इसलिए कृष्ण ने कहा, ईश्वर-जप।
वैज्ञानिक है। लेकिन मेकेनिकल जिसने कर लिया ईश्वर-जप, उसका बेकार हो जाता है। एक आदमी जल्दी से स्नान किया है। घंटी बजा रहा है। राम-राम किया। भागा, दफ्तर गया। निपटाया एक काम। काम निपटाने से राम का कभी संबंध नहीं जुड़ता। काम नहीं, प्रेम; तो फिर गहरा उतर जाता है।
हम काम की तरह करते हैं, इसलिए जिंदगीभर जप करते रहते हैं, कुछ भी हाथ नहीं आता। आएगा भी नहीं। हजार जिंदगी करते रहो, कुछ न आएगा हाथ। नहीं; प्राणों की गहराई में भाव से बिठाने की बात है। बैठ जाए प्राणों की गहराई में, तो रोआं-रोआं उससे ही कंपित हो जाता है। ___ फिर स्वाध्याय, स्वयं के गलत को जानना; और ईश्वर-जप, स्वयं के शुभ को स्मरण रखना; दोनों के तालमेल से जो यज्ञ फलित होता है, उसका नाम स्वाध्याय-यज्ञ है।
अब तो शाम ही लेंगे। अभी सुबह दस मिनट के लिए हम ईश्वर-जप में लगें। रोएं-रोएं में उसको डोलने दें।
स्टेज पर कोई न आए देखने के लिए। आप वहीं खड़े रहें, और थोड़ा फासला ज्यादा रखें। जो लोग पहली कतार में हैं, वे हाथ बांध लें, ताकि पीछे के लोग आगे न आएं। और जिनको भी सम्मिलित होना हो, वे बीच में आ जाएं। संन्यासियों के साथ नाचें। हो सकता है, उनकी तरंग आपको भी पकड़ जाए।
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अध्याय 4 बारहवां प्रवचन
अंतर्वाणी-विद्या
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गीता दर्शन भाग-28
प्रश्न: भगवान श्री, अट्ठाइसवें श्लोक में चार यज्ञों की ग्रेटिटयूड से। और विषाद में अनुग्रह का भाव कैसे पैदा होगा? बात कही गई है। दो यज्ञों पर चर्चा हो चुकी है, | अनुग्रह का भाव तो आनंद में पैदा होता है। जब कोई आनंद से सेवारूपी यज्ञ और स्वाध्याय यज्ञ। तीसरे तप यज्ञ का | भरता है, तो अनुगृहीत होता है, तो ग्रेटिटयूड पैदा होता है। क्या अर्थ है? उसे यहां स्वधर्म पालनरूपी यज्ञ क्यों सिमन वेल ने एक किताब लिखी है, ग्रेस एंड ग्रेविटी–प्रसाद कहा गया है और चौथे योग यज का क्या अर्थ है? और गरुत्वाकर्षण। बहमल्य है. इस सदी की बहमल्य किताबों में उसे यहां अष्टांग योगरूपी यज्ञ क्यों कहा गया है? | | से एक है। सिमन वेल कहती है कि जैसे जमीन चीजों को अपनी
| तरफ खींचती है, ऐसे ही परमात्मा भी चीजों को अपनी तरफ
खींचता है। व धर्मरूपी यज्ञ। व्यक्ति यदि अपनी निजता को, अपनी | | जमीन चीजों को अपनी तरफ खींचती है। उसकी एक छिपी हुई रप इंडिविजुअलिटी को, उसके भीतर जो बीजरूप से | ऊर्जा, शक्ति का नाम ग्रेविटेशन, गुरुत्वाकर्षण है। दिखाई कहीं
छिपा है उसे, फूल की तरह खिला सके, तो भी वह | नहीं पड़ता, लेकिन पत्थर को फेंको ऊपर, वह नीचे आ जाता है। खिला हुआ व्यक्तित्व का फूल परमात्मा के चरणों में समर्पित हो वृक्ष से फल गिरा, नीचे आ जाता है। दिखाई कहीं भी नहीं पड़ता। जाता है और स्वीकृत भी।
हम सबको कहानी पता है कि न्यूटन एक बगीचे में बैठा है और व्यक्ति की भी एक फ्लावरिंग है; व्यक्ति का भी फूल की भांति सेव का फल गिरा है। और उसके मन में सवाल उठा कि फल खिलना होता है। और जब भी कोई व्यक्ति पूरा खिल जाता है, तभी गिरता है, तो नीचे ही क्यों आता है, ऊपर क्यों नहीं चला जाता? वह नैवेद्य बन जाता है। वह भी प्रभु के चरणों में समर्पित और | दाएं-बाएं क्यों नहीं चला जाता? ठीक नीचे ही क्यों चला आता स्वीकृत हो जाता है।
है? चीजें गिरती हैं, तो नीचे क्यों आ जाती हैं? और तब उसे पहली फूल की तरह व्यक्ति के साथ भी दुर्घटनाएं घट सकती हैं। यदि | | दफा खयाल आया कि जमीन से कोई ऊर्जा, कोई शक्ति चीजों को कोई गुलाब का फूल कमल का फूल होना चाहे, तो दुर्घटना | | अपनी तरफ खींचती है; कोई मैग्नेटिक, कोई चुंबकीय शक्ति चीजों सुनिश्चित है। दुर्घटना के दो पहलू होंगे। एक तो गुलाब का फूल | को अपनी तरफ खींचती है। फिर ग्रेविटेशन सिद्ध हुआ। अभी भी कुछ भी चाहे, कमल का फूल नहीं हो सकता है। वह उसकी दिखाई नहीं पड़ता, लेकिन परिणाम दिखाई पड़ते हैं। नियति, उसकी डेस्टिनी नहीं है। वह उसके भीतर छिपा हुआ बीज सिमन वेल कहती है, ठीक ऐसे ही परमात्मा भी चीजों को नहीं है। वह उसकी संभावना नहीं है।
| अपनी तरफ खींचता है। उसके खींचने का जो ग्रेविटेशन है, __इसलिए गुलाब का फूल विक्षिप्त हो सकता है कमल के फूल उसका नाम ग्रेस, उसका नाम प्रसाद; अनुकंपा, अनुग्रह, जो भी होने में, कमल का फूल नहीं हो सकता। कमल के फूल होने में | हम नाम देना चाहें। पीड़ित, दुखी, परेशान हो सकता है; चिंतित, संतापग्रस्त हो सकता | - यह बड़े मजे की बात है कि जब फूल खिलता है, तो आकाश है; नींद खो सकता, चैन खो सकता; कमल का फूल हो नहीं की तरफ उठता है। और जब मुरझाता है, सूखता है, तो जमीन की सकता है। होने की दौड़ में मिटेगा, बर्बाद होगा; पहुंचेगा नहीं तरफ गिर जाता है। आदमी जीवित होता है, तो आकाश की तरफ मंजिल तक। यात्रा कितनी ही करे, लौट-लौटकर गुलाब का फूल | उठा हुआ होता है। मर जाता है, तो जमीन में दफना दिया जाता है, ही रहेगा। पहुंचेगा नहीं कमल होने तक। न पहुंचने से फ्रस्ट्रेशन, | मिट्टी में गिर जाता है। वृक्ष उठते हैं, जीवित होते हैं, तो आकाश न पहुंचने से विषाद मन को पकड़ता है। और जिसके चित्त को | | की तरफ उठते हैं। फिर जराजीर्ण होते हैं, गिरते और मिट्टी में सो विषाद पकड़ लेता, उसके चित्त में नास्तिकता का जन्म हो जाता है। जाते हैं। ऊपर और नीचे। कुछ ऊपर की तरफ खींच रहा है, कुछ इसे ठीक से खयाल में ले लें।
नीचे की तरफ खींच रहा है। विषाद से भरा हुआ चित्त आस्तिक नहीं हो सकता है। पीड़ा से | विषाद जब चित्त में होता है, तो आदमी का हृदय पत्थर की तरह भरा हुआ चित्त, दुख से भरा हुआ चित्त, फ्रस्ट्रेटेड चित्त आस्तिक हो जाता है, नीचे की तरफ गिरने लगता है। जब भी आप दुख में नहीं हो सकता, क्योंकि आस्तिकता आती है अनुग्रह के भाव से, | रहे हैं, तब आपने अनुभव किया होगा कि हृदय पर हजारों मनों का
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अंतर्वाणी-विद्या
बोझ हो जाता है। फिर जमीन तो नीचे की तरफ खींचती है, लेकिन प्रकृति का नियम नहीं। परमात्मा फिर ऊपर की तरफ खींचता हुआ मालूम नहीं पड़ता। हम सब अपनी बिल्ट-इन योजना लेकर पैदा होते हैं। हम क्या इसलिए दुख में आदमी मरना चाहता है। मरना चाहता है मतलब, हो सकते हैं, इसका ब्लू प्रिंट हमारे सेल-सेल में छिपा रहता है। जमीन के ग्रेविटेशन में दफन हो जाना चाहता है। दुख में आत्महत्या हम क्या हो सकते हैं, इसकी तजवीज हम अपने जन्म के साथ कर लेना चाहता है; मतलब, डस्ट अनटु डस्ट, मिट्टी मिट्टी में लौट लेकर पैदा होते हैं। जाए, इसके लिए आतुर हो जाता है।
अगर दुर्घटना घट जाए, तो यह हो सकता है कि हम वह न हो ठीक इससे उलटी घटना भी घटती है। जब कोई आनंद से पाएं, जो हम हो सकते थे। लेकिन ऐसी घटना कभी नहीं घट सकती भरता है, तो कांशसनेस अनटु कांशसनेस-मिट्टी में मिट्टी | कि हम वह हो जाएं, जो कि हम नहीं हो सकते थे। नहीं—परमात्मा में परमात्मा मिलने को आतुर हो जाता है। जब ___ इसे मैं फिर से दोहरा दूं, यह हो सकता है कि हम वह न हो पाएं, कोई फूल खिलता है आनंद का, तो ऊपर से अनुग्रह की वर्षा होने | | जो कि हम हो सकते थे। हम चूक सकते हैं अपनी नियति। लेकिन लगती है। वह खिली हुई फूल की पंखुड़ियों पर अमृत बरसने लगता | इससे उलटा नहीं होता कभी, नहीं हो सकता कभी, कि हम वह हो है प्रभु के प्रसाद का। आनंद में मन खिल जाता है फूल की तरह। | जाएं, जो कि हम नहीं हो सकते थे। ___ इसलिए तो जिन्होंने भी अनुभव किया है परम आनंद का, वे यह हो सकता है, गुलाब का फूल गुलाब का फूल भी न हो कहेंगे कि मस्तिष्क में सहस्रदल कमल खिल जाता है। वह प्रतीक | पाए। लेकिन यह नहीं हो सकता कि गुलाब का फूल, और कमल है, सिंबालिक है। वह केवल काव्य में प्रकट किया गया अनुभव | का फूल हो जाए। गुलाब का फूल अगर कमल होने की कोशिश है। मस्तिष्क के ऊपर खिल जाता है फूल हजारों पंखुड़ियों वाला; | में लगे, तो मैंने कहा, इसके दो पहलू हैं। एक पहलू कि वह कमल उस खिले हुए फूल में बरसा होने लगती है अनुग्रह की। कभी न हो पाएगा। कमल होने की चेष्टा में विषाद को उपलब्ध - और जब कोई उतने आनंद से भरता है, तो परमात्मा को होगा-दुख, पीड़ा, एंग्विश। धन्यवाद दे पाता है। कहना चाहिए. धन्यवाद देने के लिए परमात्मा सोरेन कीर्कगार्ड ने इस विषाद का ठीक-ठीक चित्रण किया है। को स्वीकार कर पाता है। अनुग्रह फिर किसके प्रति प्रकट करे? | | उसने जो शब्दों के प्रयोग किए हैं, वह खयाल में ले लेने जैसे हैं, जब भीतर आनंद की वर्षा होने लगे और हृदय का कोना-कोना ट्रेंबलिंग। वह कहता है कि जब आदमी विषाद में होता है, तो सारा नाच उठे और अंधकार विदा हो जाए और पंखुड़ी-पंखुड़ी खिल हृदय एक कंपन हो जाता है, एक ट्रेंबलिंग। वह कहता है, जब जाए, फिर धन्यवाद किसके प्रति प्रकट करे? उस धन्यवाद को आदमी विषाद में हो जाता है, तो ड्रेड पकड़ लेता है, जैसे मौत प्रकट करने के लिए परमात्मा को खोजना पड़ता है।
सामने खड़ी हो और हमारे भीतर भी सब मृत्यु के भय में, अंधकार आनंद से भरा चित्त आस्तिक हो जाता है; दुख से भरा चित्त | में डूब जाए। नास्तिक हो जाता है। नास्तिकता ग्रेविटेशन है। जमीन की ताकत यह जो स्थिति है विषाद की-एंग्विश कहता है सोरेन नीचे की तरफ खींचती है। आस्तिकता ग्रेस, प्रसाद है, अनुग्रह है; | कीर्कगार्ड–संताप की, जहां कुछ भी फिर प्रीतिकर नहीं लगता, ऊपर की तरफ ले जाता है।
कुछ भी अर्थपूर्ण नहीं लगता, अभिप्रायपूर्ण नहीं लगता; सब व्यर्थ, __व्यक्ति जब भी अपने निज धर्म को भूलता है, तब ऐसी हालत मीनिंगलेस, सांयोगिक लगता है। हैं, तो ठीक। न हों, तो कोई हर्ज हो जाती है, जैसे गुलाब का फूल कमल होना चाहे। जब व्यक्ति नहीं मालूम पड़ता। बल्कि न हों, तो शांति मालूम पड़ती है। हों, तो निज धर्म को भूलता है, तो उसका मतलब, वह कोई और होना | अशांति मालूम पड़ती है। चाहता है, जो नहीं है।
गुलाब का फूल कमल होना चाहे, तो ऐसा होगा, एक पहलू। ब्राह्मण शूद्र होना चाहे, शूद्र क्षत्रिय होना चाहे, क्षत्रिय वैश्य | और दूसरा पहलू यह कि गुलाब की ताकत अगर कमल होने की होना चाहे। जन्म की बहुत फिक्र नहीं है—गुण-धर्म से, गुण-कर्म | | कोशिश में लग जाए, तो गुलाब फिर गुलाब कभी नहीं हो पाएगा। से। भीतर की जो क्षमता है, वह जब अपने से भिन्न कुछ होना चाहे, | | क्योंकि ताकत सीमित है, क्षमता निश्चित है। ऊर्जा बंधी हुई मिली तो मुश्किल में पड़ जाती है। हो नहीं सकती। वह असंभव है। वह | है प्रत्येक को, नपी हुई मिली है प्रत्येक को। अगर उसे इतर,
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गीता दर्शन भाग-20
यहां-वहां खर्च किया, तो अपनी नियति को पूरा नहीं किया जा दिशा ठीक है। सकता।
ऐसे ही टटोलना पड़ता है स्वधर्म को भी, जैसे कोई बगीचे को इसलिए कृष्ण कहते हैं, स्वधर्मरूपी यज्ञ में!
अंधेरे में खोजता हो। ठंडक, सुगंध...। यह स्वधर्मरूपी यज्ञ बहुत ही गहरी मनोवैज्ञानिक धारणा है। | अगर ठंडक कम होती जाए, सुगंध क्षीण होती जाए, तो जानना मनुष्य ने अपने इतिहास में जो भी गहरे से गहरे मनोवैज्ञानिक सत्य चाहिए कि मैंने कोई विपरीत मार्ग पकड़ लिया। शांति बढ़े, तो खोजे हैं, उनमें स्वधर्म का सत्य सर्वाधिक गहरा है। स्वधर्म के निकट चल रहे हैं आप। अशांति बढ़े, तो स्वधर्म से च्युत
यह पृथ्वी आज इतने दुख से भरी दिखाई पड़ती है, उसका मौलिक हो रहे हैं आप। शांति मापदंड है। कारण स्वधर्म से च्युत हो जाना है। कोई भी आदमी वही नहीं हो रहा फिर शांति घनी हो, तो सुवास की तरह आनंद की झलक भी है, जो वह होने को है। हर आदमी कुछ और होने में लगा है! हम मिलनी शुरू हो जाती है। तब समझना कि ठीक है मार्ग। अब दौड़ सब कुछ और होने में लगे हैं, जो हम नहीं हो सकते हैं।
सकते हैं। अब निश्चित हो नाव को खे सकते हैं। अब बेफिक्र हो कृष्ण कहते हैं, यह भी बड़े से बड़ा यज्ञ है अर्जुन, अगर तू इतना हवाओं के रुख में नाव को छोड़ सकते हैं। अब नदी ठीक, अब भी पूरा कर ले, या कोई भी पूरा कर ले, तो भी प्रभु को उपलब्ध मार्ग ठीक। अब पहुंच जाएंगे वहां। हो जाता है, परम अवस्था को उपलब्ध हो जाता है।
लेकिन हम जीवन में कभी इसका विचार ही नहीं करते। हम स्वधर्म; कैसे पहचानें, क्या है स्वधर्म? कैसे जानें, मैं क्या होने उलटा ही करते हैं। हम जो कर रहे होते हैं, अगर उसमें अशांति को पैदा हुआ हूं? कैसे जानें कि मैं कुछ और होने में तो नहीं लगा मिलती है, तो उसी को और जोर से करते हैं। सोचते हैं, शायद पूरी हूं? कैसे पहचानें कि मैंने किसी परधर्म को ही तो नहीं पकड़ | ताकत से नहीं कर रहे हैं; और ताकत से करेंगे, तो शांति मिल लिया है?
जाएगी। और अशांति मिलती है, तो और सारी ताकत जुटाकर लग पहचान हो सकती है। सूक्ष्म होंगे पहचान के सूत्र। लेकिन | जाते हैं। अंततः परिणाम यह होता है कि हम स्वधर्म को पहुंच नहीं दो-तीन सूत्र आपसे कहना चाहूंगा।
पाते। परधर्म को पहुंच नहीं सकते। जीवन एक वर्तुलाकार चक्कर पहली बात, अगर आप दुखी हैं जीवन में, तो पक्का समझ लेना होकर खो जाता है। अवसर मिलता है और नष्ट हो जाता है। कि आप स्वधर्म से च्युत हुए हैं, स्वधर्म से च्युत हो रहे हैं। क्योंकि तो एक तो शांति बढ़े, आनंद बढ़े। जहां भी स्वधर्म की यात्रा होती है, वहीं आनंद फलित होता है। दूसरा, यदि कोई स्वधर्म के साथ-साथ चल रहा हो, तो उसके
अशांत हों यदि. तो जान लेना कि परधर्म के पीछे चल रहे हैं। जीवन में स्वीकार का भाव बढ़ता जाएगा, अस्वीकार का भाव कम रुक जाना, पुनः सोच लेना। फिर से विचार कर लेना, रिकंसीडर होता जाएगा। उसकी एक्सेप्टिबिलिटी बढ़ती जाएगी। वह चीजों कर लेना कि जो यात्रा चुनी, जो कर रहे हैं, उससे दुख और पीड़ा, | को स्वीकार करने लगेगा। क्योंकि जिसके भीतर भी जरा-सा अशांति बढ़ती है, तो निश्चित ही वह मार्ग मेरा नहीं है। आनंद आया, उसके बाहर स्वीकृति आने लगती है; वह चीजों को
जैसे कोई बगीचे के पास जाता हो। बगीचा दिखाई नहीं पड़ता स्वीकार करने लगता है अर्थात संतुष्ट होने लगता है। अभी, लेकिन जैसे-जैसे पास पहुंचता है, ठंडी हवाएं छूने लगती अगर स्वधर्म के अनुकूल न चलता हो, तो असंतुष्ट होता चला हैं, स्पर्श करने लगती हैं। जानता है कि ठीक रास्ते पर हूं। बगीचा | जाता है; अस्वीकार करने लगता है। हर चीज के प्रति दुश्मन की दिखाई नहीं पड़ता. लेकिन कहीं पास ही होगा। दिशा तो कम से | | दृष्टि आ जाती है, दोस्त की नहीं। हर चीज के प्रति इनकार, नो; कम ठीक होनी ही चाहिए। और अगर ठंडक हवाओं की बढ़ती यस, हां का भाव नहीं। हर चीज के प्रति इनकार हो जाता है। जाए एक-एक कदम बढ़ने से, तो निश्चित हुआ जा सकता है कि | तो अगर आपकी जिंदगी में यस की जगह नो की संख्या ज्यादा मैं ठीक दिशा में बढ़ रहा हूं; बगीचा करीब ही आता होगा। फिर | हो; हां कम चीजों को कहते हों, न ज्यादा चीजों को कहते हों;
और करीब आकर ठंडक के साथ-साथ सुगंध भी मिलने लगती | स्वीकार कम को करते हों, अस्वीकार ज्यादा को करते हों; संतोष है, तब और भी निश्चय हो जाता है कि मैं और भी पास आ रहा | | कम से मिलता हो, असंतोष ज्यादा से मिलता हो तो ध्यान रखना हूं। अभी भी बगीचा दिखाई नहीं पड़ता; अभी भी दूर है; लेकिन कि स्वधर्म के अनुकूल नहीं जा रही है यात्रा।
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इस मात्रा को बदलना पड़ेगा। स्वीकार बढ़ाना पड़ेगा, वॉइस, छोटी है आवाज-धीमी, नाजुक, सूक्ष्म। केवल वे ही सुन अस्वीकार कम करना पड़ेगा। जैसे-जैसे स्वीकार बढ़ेगा, वैसे-वैसे सकते हैं, जो उतनी सूक्ष्म आवाज को सुनने के लिए अपने को ट्रेन आस्तिकता बढ़ेगी। जैसे-जैसे अस्वीकार बढ़ेगा, वैसे-वैसे करते हैं, प्रशिक्षित करते हैं। नास्तिकता बढ़ेगी। नास्तिकता का अर्थ है, समस्त अस्तित्व के प्रति | इसलिए आज आप आंख बंद करके बैठ जाएंगे, तो भीतर की नकार का भाव, नो एटीटयूड ट्वर्डस दि टोटैलिटी, समस्त के प्रति | आवाज नहीं सुनाई पड़ेगी। आंख बंद करके भी बाहर की ही नकार का भाव। कछ भी नहीं है। आस्तिकता का अर्थ है. टोटल | आवाज सनाई पडती रहेगी। कल. परसों बैठते रहें. बैठते रहें. एक्सेप्टिबिलिटी, समग्र स्वीकार। सब है; और सब से मैं राजी हूं। जल्दी न करें, घबड़ाएं न। तेईस घंटे बाहर की दुनिया को दे दें, एक जो जैसा है, उससे मैं वैसे ही राजी हूं। यह राजीपन बढ़ता जाएगा, घंटा अपने को दे दें। बस, आंख बंद करें और सुनने की कोशिश जैसे-जैसे भीतर स्वधर्म के अनुकूल यात्रा होगी।
करें भीतर। सुनने की कोशिश, जैसे भीतर कोई बोल रहा है, उसे तीसरी बात, स्वधर्म के अनुकूल अगर जाना हो, तो सिर्फ बाहर सुन रहे हैं। की चीजों में उलझा रहकर कोई व्यक्ति कभी नहीं जा सकता। जैसे कि इतनी भीड़ है। यहां बहुत लोग बातचीत कर रहे हैं और दैनंदिन कामों में पता ही नहीं चलता कि स्वधर्म क्या है, परधर्म क्या | आपको किसी की बात सुननी है, तो आप सबकी बातों को छोड़कर है। दैनंदिन काम तो करीब-करीब एक जैसे हैं। ब्राह्मण का भी वही | अपनी पूरी चेतना और एकाग्रता को उस आदमी के ओठों के पास है, क्षत्रिय का भी वही है, शूद्र का भी वही है, वैश्य का भी वही लगा देते हैं। वह फुसफुसाकर भी बोलता हो, विस्पर भी करता हो, है। जहां तक दैनंदिन काम का संबंध है, रोटी-रोजी कमाना ही तो तो भी आप सुनने की कोशिश करते हैं और सुन पाते हैं। चेतना सबके लिए है। कैसे कोई कमाता है, यह दूसरी बात है। उससे सिकुड़कर सुनती है, तो सुन पाती है। एकाग्र हो जाती है, तो सुन बहुत अंतर नहीं पड़ता। दैनंदिन कामों से पता नहीं चलेगा कि मेरा | पाती है। स्वधर्म क्या है।
जल्दी न करें। एक घंटा तय कर लें स्वधर्म की खोज के लिए। जिसे स्वधर्म की खोज करनी हो, उसे बाहर की दुनिया से कम आपको पता नहीं, लेकिन आपकी अंतरात्मा को पता है कि क्या है से कम चौबीस घंटे में घंटेभर के लिए बिलकुल छुट्टी ले लेनी आपका स्वधर्म। आंख बंद करें। मौन हो जाएं। चुप बैठकर सुनें। चाहिए, और भीतर की दुनिया में डूब जाना चाहिए। कर देने चाहिए | मौन, सिर्फ भीतर ध्यान को करके, सुनने की कोशिश करें कि भीतर द्वार बंद बाहर के। कह देना चाहिए बाहर के जगत को बाहर, और कोई बोलता है! कोई आवाज! अब मैं होता भीतर। सब इंद्रियों के द्वार बंद करके भीतर घंटेभर के ___ बहुत-सी आवाजें सुनाई पड़ेंगी। पहचानने में कठिनाई न होगी लिए डूब जाना चाहिए। वहीं पता चलेगा उस रहस्य का जो स्व है,। कि ये बाहर की आवाजें हैं। मित्रों के शब्द याद आएंगे, शत्रुओं के जो निजता है। वहीं से सूत्र मिलेंगे, ध्वनि सुनाई पड़ेगी, वहीं से शब्द; दुकान, बाजार, मंदिर, शास्त्र-सब शब्द याद आएंगे। इशारे मिलेंगे। और धीरे-धीरे इशारे गहरे होते चले जाते हैं। पहले पहचान सकेंगे भलीभांति, बाहर के सुने हुए हैं। छोड़ दें। उन पर आवाज बड़ी छोटी होती है। यह आखिरी सूत्र सर्वाधिक महत्वपूर्ण ध्यान न दे। और भीतर! और प्रतीक्षा करते रहें। है, इसे ठीक से खयाल में ले लेंगे।
अगर तीन महीने कोई सिर्फ एक घंटा चुप बैठकर प्रतीक्षा कर स्वधर्म का पता अंतर की वाणी के अतिरिक्त और कहीं से नहीं | | सके धैर्य से, तो उसे भीतर की आवाज का पता चलना शुरू हो चलता है। पहले मैंने दो लक्षण की बात कहीं कि इससे आप पता | जाएगा। और एक बार भीतर का स्वर पकड़ लिया जाए, तो आपको लगा लेना कि जिंदगी ठीक मार्गों से जा रही है या नहीं। और तीसरे फिर जिंदगी में किसी से सलाह लेने की जरूरत न पड़ेगी। से मैं आपके स्वधर्म के केंद्र को ही छू लेने की सूचना देता हूं। | जब भी जरूरत हो, आंख बंद करें और भीतर से सलाह ले लें;
घंटेभर के लिए चौबीस घंटे में, बंद कर देना बाहर की दुनिया पूछ लें भीतर से कि क्या करना है। और स्वधर्म की यात्रा पर आप को, भूल जाना; छोड़ देना सब बाहर का बाहर; अपने भीतर डुबकी चल पड़ेंगे। क्योंकि भीतर से स्वधर्म की ही आवाज आती है। भीतर लगा जाना। उस डुबकी में धीरे-धीरे भीतर की अंतर्वाणी सुनाई से कभी परधर्म की आवाज नहीं आती। परधर्म की आवाज सदा पड़नी शुरू होगी। सबके भीतर छिपा है वह। दि स्टिल स्माल बाहर से आती है।
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जो व्यक्ति अपने भीतर की इनर वॉइस, अंतर्वाणी को नहीं सुन | | भलीभांति परिचित हैं, मेहर बाबा। उन्होंने पिछले जीवन के अपने पाता, वह व्यक्ति कभी स्वधर्म के तप को पूरा नहीं कर पाएगा। यह | तीस वर्ष अंतर की आवाज को सुनने में ही लगाए। और अंतर की जो स्वधर्मरूपी यज्ञ की बात कृष्ण ने कही है, यह वही व्यक्ति परी आवाज को सुनने के लिए उन्होंने बाहर की सारी आवाज बंद कर कर पाता है, जो अपने भीतर की अंतर्वाणी को सुनने में सक्षम हो | दी। मौन हो रहे, बोलना बंद कर दिया। क्योंकि बोलें, तो बाहर की जाता है।
वाणी का लेन-देन जारी रहता है। तो सब बंद कर दिया। लेकिन सब हो सकते हैं, सबके पास वह अंतर्वाणी का स्रोत है। | जैसा मैंने सुबह आपसे कहा कि अगर स्वाध्यायरूपी यज्ञ को जन्म के साथ ही वह स्रोत है, जीवन के साथ ही वह स्रोत है। बस, समझना हो, तो कृष्णमूर्ति के विगत चालीस वर्ष का समस्त हमें उसका कोई स्मरण नहीं। हमने कभी उसे टैप भी नहीं किया; | वक्तव्य स्वाध्यायरूपी यज्ञ के इस छोटे-से शब्द स्वाध्याय में समा हमने कभी उसे खटकाया भी नहीं; हमने कभी उसे जगाया भी नहीं। | जाता है। कृष्णमूर्ति का चालीस साल का सब कहा हुआ, गीता के हमने कभी कानों को प्रशिक्षित भी नहीं किया कि वे सूक्ष्म आवाज स्वाध्याय नामी यज्ञ की व्याख्या और भाष्य है, और कुछ भी नहीं। को पकड़ लें।
समस्त, चालीस वर्षों का कहा हुआ, इस स्वाध्याय यज्ञ का भाष्य जीसस या बुद्ध या महावीर भीतर की आवाज से जीते हैं। भीतर है, कमेंट्री है। की आवाज जो कह देती है वही...।
__ वैसे ही मैं आपसे कहता हूं, इस तीसरी बात के लिए, अंतर्वाणी इसमें एक बात और आपको खयाल दिला दूं कि भीतर की | | के सुनने के लिए मेहर बाबा ने इस सदी में जितना श्रम किया, उतना आवाज एक बार सुनाई पड़नी शुरू हो जाए, तो आपको अपना गुरु किसी दूसरे व्यक्ति ने नहीं किया है। और अंतर्वाणी को सुनने के मिल गया। वह गुरु भीतर बैठा हुआ है। लेकिन हम सब बाहर गुरु लिए, स्वधर्म की आवाज को सुनने के लिए जो गहरे से गहरा तप को खोजते फिरते हैं। गुरु भीतर बैठा हुआ है।
| किया जा सकता था, वह यह था कि वाणी ही उन्होंने छोड़ दी, शब्द परमात्मा ने प्रत्येक को वह विवेक, वह अंतःकरण, वह ही छोड़ दिए; मौन हो रहे बाहर से, ताकि शब्द का लेन-देन बंद कांसिएंस, वह अंतर की वाणी दी है, जिससे अगर हम पूछना शुरू हो जाए। ताकि अंततः कभी जरा-सी भी भूल न हो, किं भीतर की कर दें, तो उत्तर मिलने शुरू हो जाते हैं। और वे उत्तर कभी भी गलत आवाज और बाहर की आवाज में कहीं भी कोई संदेह और संभ्रम, नहीं होते। फिर वह रास्ता बनाने लगता है भीतर का ही स्वर, और | कोई कनफ्यूजन पैदा न हो। बाहर की आवाज ही बंद कर दी, ताकि तब हम स्वधर्म की यात्रा पर निकल जाते हैं।
| निपट भीतर की आवाज से जीया जा सके। अंतर्वाणी को सुनने की क्षमता ही स्वधर्मरूपी यज्ञ का मूल फिर बहुत-सी घटनाएं उनके जीवन में हैं, एक-दो मैं कहूं, आधार है।
जिससे खयाल आ सके कि अंतर की आवाज...। इसलिए कृष्ण ने अर्जुन को कहा कि मैंने इसके पहले दो यज्ञ हैदराबाद के पास उन्होंने एक छोटा-सा आश्रम बनाया था। कहे, अब यह तीसरा यज्ञ कि स्वधर्मरूपी यज्ञ को भी यदि कोई पूरा बनकर तैयार हुआ। बड़ी प्रतीक्षा से बनाया था। फिर उसके द्वार कर ले. तो प्रभ के मंदिर में उसकी पहंच. सनवाई हो जाती है: द्वार तक गए—प्रवेश का दिन था-और ठीक दरवाजे पर खड़े होकर खुल जाते हैं; वह प्रवेश कर जाता है।
वापस लौट आए और इशारा कर दिया कि उस मकान में वे प्रवेश लेकिन लगेगा कि शायद यह सरल हो, यह स्वधर्मरूपी यज्ञ! नहीं करेंगे। रात वह मकान गिर गया। कि ब्राह्मण अपनी पोथी पढ़ता रहे; चंदन, तिलक-टीका लगाता| | हिंदुस्तान से वे यूरोप जा रहे थे। हवाई जहाज से यात्रा। बीच में रहे; हवन-यज्ञ करवाता रहे, तो स्वधर्म पूरा कर रहा है। कि शूद्र | हवाई जहाज सिर्फ फ्यूल भरने के लिए किसी एअरपोर्ट पर उतरा। सड़क पर झाडू लगाता रहे, कि गंदगी ढोता रहे, तो स्वधर्म पूरा कर | | फिर हवाई जहाज उड़ने को हुआ। यात्रियों को खबर की गई। मेहर रहा है। कि क्षत्रिय युद्ध में लड़ता रहे, तो स्वधर्म पूरा कर रहा है। | बाबा ने इनकार कर दिया कि वे उस पर सवार नहीं होंगे।
नहीं; यह बहुत बाहरी और ऊपरी बात है। स्वधर्म की गहरी बात साथी उनके बड़ी परेशानी में पड़ते थे। शिष्य बड़ी मुश्किल में तो तभी पता चलेगी, जब भीतर की आवाज...।
| पड़ जाते थे। अब यह बड़ी बेहूदगी हो गई! चलती यात्रा में, बीच इधर भारत में एक व्यक्ति थे, जो अभी चल बसे हैं। आप उनसे | । हवाई जहाज से उतर जाना, फिर कह देना कि नहीं जाएंगे। वह
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अंतर्वाणी-विद्या
हवाई जहाज पंद्रह मिनट बाद उड़ा और गिर गया और सब यात्री समाप्त हो गए।
ऐसा बहुत बार हुआ । मेहर बाबा कब रुक जाएंगे किस काम को करने से ऐन बीच में, नहीं कहा जा सकता था; अनप्रेडिक्टेबल था। वे खुद भी नहीं कह सकते थे, क्योंकि उनको खुद भी पता नहीं था। कब अंतर की आवाज क्या कहेगी, उन्हें भी पता नहीं। जो कहेगी, वही वे करेंगे, जो भी हो। यह भी पता नहीं कि क्या परिणाम होगा। हवाई जहाज से क्यों रोक रहा है अंतर - मन? लेकिन अंतर- मन कहता है, नहीं, तो फिर नहीं। हां, तो हां।
मेहर बाबा की जिंदगी स्वधर्म की तलाश की जिंदगी है। भीतर स्वर की खोज की जिंदगी है। वह भीतर का स्वर क्या कहता है, उससे ही चलेंगे।
कोई भी व्यक्ति अगर तेईस घंटे काम की दुनिया से हटाकर एक घंटा अपने लिए निकाल ले-ज्यादा निकाल सकें, और अच्छा। कभी वर्ष में पंद्रह दिन, तीन सप्ताह निकाल सकें इकट्ठे, तो और भी अच्छा। धीरे-धीरे भीतर की आवाज साफ होने लगे, तो आपकी जिंदगी में भूल-चूक बंद हो जाएगी। क्योंकि तब जिंदगी परमात्मा से चलने लगती है, आपसे नहीं चलती। फिर गुलाब का फूल गुलाब ही होता है, फिर कमल होने की कोई आकांक्षा नहीं होती । और जिस दिन भीतर की वाणी से चला हुआ जीवन पूरा खिलता है, उस दिन यज्ञ पूरा हो गया – स्वधर्मरूपी यज्ञ ।
प्रश्न: भगवान श्री इस श्लोक का चौथा और आखिरी यज्ञ योग यज्ञ कहा गया है। गीता प्रेस के अनुवाद में इसे अष्टांग योग यज्ञ कहा गया है। कृपया इसे भी स्पष्ट करें।
यो
ग यज्ञ। योग की अपनी साधना प्रक्रिया है । अष्टांग योग, योग के आठ अंगों की सूचना देता है। पतंजलि योग के आठ अंगक हैं, आठ चरण, आठ हिस्से, जिनसे मिलकर योग बनता है, जिनसे योग पूरा होता है। यदि योग एक शरीर है, तो आठ उसके अंग हैं। इसलिए अष्टांग योग ।
लेकिन अष्टांग योग के यदि एक-एक अंग पर मैं बात करूं, तो कठिनाई होगी। वह तो फिर कभी जब पतंजलि के शास्त्र पर पूरा
| बोलूं, तभी खयाल में आ सकता है। तो अभी तो सिर्फ योग यज्ञ, इतनी ही बात कर लेनी उचित होगी। मूल बात समझ में आ जाएगी।
मैंने कहा कि जैसे स्वाध्याय के लिए जे. कृष्णमूर्ति भाष्य हैं और | जैसे स्वधर्म के लिए, स्वधर्म की खोज के लिए, अंतर्वाणी की खोज के लिए मेहर बाबा भाष्य हैं, वैसे ही योग के लिए जार्ज गुरजिएफ भाष्य है - इस जीवित जगत में, जो अभी हमारे आस-पास खड़ा है।
योग का अर्थ है, व्यक्ति जैसा है, वह बहुत ढीला-ढाला है, लूज एक्झिस्टेंस है । कहना चाहिए, आदमी कम है, होल्डाल ज्यादा | है | होल्डाल, बिस्तर, उसमें सब चीजें लपेटी हैं! अंग्रेजी का शब्द अच्छा है, होल्डआल; सब चीजें भरी हुई हैं, एक बोरिया-बिस्तर | की तरह है। सब कुछ भरा है; उल्टा-सीधा सब भरा है । साधारण व्यक्ति जैसा है, वह एक कास्मास नहीं है; उसके भीतर कोई संगीत नहीं है; उसके भीतर कोई हार्मनी, कोई लयबद्धता नहीं है। उसके भीतर, गुरजिएफ की भाषा में कहें, तो क्रिस्टलाइजेशन नहीं है। उसके भीतर कोई ठोस शक्ति नहीं है। उसके भीतर बहुत-सी शक्तियां हैं - आपस में विरोधी, एक-दूसरे से लड़ती, ढीली,
अस्तव्यस्त ।
ऐसा समझ लें फर्क, बाजार भरा है एक; हजार आदमी हैं बाजार में। शोरगुल बहुत है, लेकिन व्यक्तित्व कोई भी नहीं है। हजार आदमियों के बाजार में व्यक्तित्व कोई नहीं होता । हजार आदमी होते हैं, हजार आवाजें होती हैं। हजार हित होते हैं, हजार स्वार्थ होते हैं। एक-दूसरे से विपरीत होते हैं, एक-दूसरे के दुश्मन होते हैं, एक-दूसरे से लड़ते होते हैं। हजार आदमी हैं बाजार में, लेकिन | बाजार के पास कोई क्रिस्टलाइज्ड इंडिविजुअलिटी नहीं है; बाजार के पास कोई व्यक्तित्व नहीं है, जिसमें एकस्वरता हो । फिर हजार आदमी मिलिट्री के जवान हैं। वे भी हजार हैं, लेकिन उनके पास एक व्यक्तित्व है। हजार आदमी के साथ पंक्तिबद्ध व्यक्तित्व है। एक से चलते हुए कदम हैं। एक आवाज, एक आज्ञा पर सारे प्राण आंदोलित होते हैं। एकस्वरता है।
तो गुरजिएफ कहेगा कि बाजार में तो क्रिस्टलाइजेशन नहीं है, मिलिट्री के हजार लोगों में एक क्रिस्टलाइजेशन है। वे इकट्ठे हैं, एक आर्गेनिक यूनिटी है। एक शरीर की भांति हैं वे । बाजार भीड़ है, एक शरीर नहीं ।
हमारा व्यक्तित्व बाजार की भांति है । हजार चीजें हैं उसमें, हजार हित हैं। एक हिस्सा बाएं जाता है, दूसरा दाएं जाता है। एक ऊपर
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ॐगीता दर्शन भाग-26
जाता है, तीसरा नीचे जाता है। एक कहता है, मत करो; एक कहता मकान का। उसने कहा, आई एम दि मास्टर; सोए रहो, कोई जल्दी है, करो। तीसरा हिस्सा सोया रहता है; इस फिक्र में ही नहीं पड़ता | नहीं है। सुबह आठ बजे तीसरा नौकर सामने था, उसने कहा, बड़ा कि करना है, कि नहीं करना है। ऐसे हजार हिस्से हैं हमारे भीतर। बुरा काम किया, यह ठीक नहीं है, तय करना और बदल जाना। फिर
गुरजिएफ कहा करता था, हम एक ऐसे मकान हैं, जिसका | | तय करो। मगर भीतर जो असली मालिक है, वह सोया हुआ है। मालिक सोया हुआ है और जिसमें हजार नौकर हैं। और हर नौकर | नौकर-इंद्रियां, वृत्तियां, वासनाएं मालिक हो जाती हैं। जो जब अपने को मालिक समझने लगा है, क्योंकि मालिक सोया ही रहता | मौका पा जाता है, हमारी छाती पर बैठ जाता है। जब लोभ हमारे है। तो कभी-कभी ऐसा होता है कि दरवाजे से कोई निकलता है, | ऊपर बैठता है, तो ऐसा लगता है, लोभ ही हमारी आत्मा है। जब दरवाजे पर जो नौकर मिल जाता है, कोई भी पूछता है, यह महल | क्रोध हम पर सवार होता है, तो ऐसा लगता है कि क्रोध ही मैं हूं। किसका है? बड़ा है महल। निश्चित ही, जिसमें हजार नौकर हों, | जब प्रेम हम पर सवार होता है, तो लगता है, बस प्रेम ही सब कुछ तो महल बड़ा होगा।
है। जो हमें पकड़ लेता है भूत-प्रेत की भांति, जो वृत्ति हम पर हावी दरवाजे पर जो नौकर मिल जाता है पूछने वाले को, वह कहता | हो जाती है, बस हम उसके हाथ के खिलौने हो जाते हैं। असली है, मैं हूं। आई दि मास्टर, मैं हूं मालिक। यात्री कभी फिर लौटता | मालिक का कोई भी पता नहीं है। है, तो कोई दूसरा नौकर बाहर मिल जाता है। वह उससे पूछता है, | योग का अर्थ है, असली मालिक का जग आना; नौकरों के बीच यह मकान किसका है? वह कहता है, आई एम दि मास्टर, मैं हूं | मालिक को सिंहासन-आरूढ़ करना। योग का अर्थ है-शब्द का मालिक। सारे लोग चकित हैं कि मालिक कौन है? क्योंकि कभी | भी-इंटीग्रेशन। योग शब्द का अर्थ है, इंटीग्रेशन; योग-शब्द का कोई मालिक मालूम पड़ता है, कभी कोई मालिक मालूम पड़ता है! | अर्थ है, जोड़। व्यक्ति जुड़ा हुआ हो; खंड-खंड नहीं, अखंड; एक असली मालिक सोया हुआ है।
| हो। और जब कभी व्यक्ति एक होता है, तो सब नौकर तत्काल सिर गुरजिएफ कहता था, आम आदमी की हालत इस मकान की | झुकाकर मालिक के सामने खड़े हो जाते हैं। फिर कोई नौकर नहीं तरह है। असली मालिक सोया हुआ है। और इंद्रियों में जो ऊपर कहता कि मैं मालिक हूं। होता है, वृत्तियों में जो ऊपर होता है, वासना में जो ऊपर होता है, | योगस्थ चेतना तत्काल समस्त इंद्रियों की मालिक हो जाती है। वह कहता है, आई एम दि मास्टर।
| फिर इंद्रियां नौकर की तरह पीछे चलती हैं। छाया की तरह। ___ जब आप क्रोध में होते हैं, तो आपको पता है, क्रोध कहता है, | मालकियत उनकी खो जाती है। मैं हूं मालिक। जब आप प्रेम में होते हैं, तो प्रेम कहता है, मैं हूं तो कृष्ण इस चौथे चरण में कहते हैं कि योग यज्ञ भी है अर्जुन! मालिक। सुबह किसी के प्रति प्रेम से भरे थे, तो कहा कि जान लगा | यह चेतना कैसे जगे! यह सोया हुआ मालिक कैसे उठे! यह दूंगा तेरे लिए। और सांझ उसी की जान ले ली! क्योंकि सुबह प्रेम आदमी क्रिस्टलाइज्ड कैसे हो, एक कैसे हो, इकट्ठा कैसे हो! मालिक था, सांझ घृणा मालिक हो गई! नौकर इधर-उधर हो गए। | तो योग की हजारों प्रक्रियाएं हैं, जिनके द्वारा सोए हुए मालिक
सांझ को तय करता है आदमी, सुबह चार बजे उठ आऊंगा। | को उठाया जाता है। मैं एक छोटा-सा गुरजिएफ का उदाहरण दूं, सुबह चार बजे वही आदमी करवट बदलकर कहता है, आज रहने | | ताकि खयाल आ सके। दो; फिर देखेंगे। सुबह आठ बजे उठकर फिर पछताता है वही गुरजिएफ तिफलिस के गांव के पास ठहरा हुआ है कुछ मित्रों आदमी, कि मैंने तो कसम खाई थी, उठा क्यों नहीं? अब पक्का | को लेकर। और उसने उनको कहा है कि मैं तुमसे एक प्रयोग करवा उलूंगा। कल तो कसम है। फिर कल चार बजते हैं। वही आदमी | रहा हूं, स्टाप एक्सरसाइज। मैं जब कहूं, स्टाप, रुको, तो तुम रुक दुलाई के भीतर करवट लेता है। कहता है, रहने भी दो; ऐसी क्या | जाना जैसे भी होओ। अगर तुमने एक पैर ऊपर उठाया है चलने के जल्दी है। फिर उठ जाएंगे; कल उठ आएंगे। सुबह आठ बजे वही | लिए, तो वह पैर फिर वहीं रह जाए। फिर बेईमानी मत करना; आदमी फिर पछताता है। बात क्या है?
क्योंकि बेईमानी तुम्हारे अपने साथ होगी। नीचे मत रखना, वहीं जिस आदमी ने सांझ तय किया कि सुबह चार बजे उठेंगे, वह | रुक जाना। गिर जाओ भला, लेकिन सचेतन, अपनी तरफ से पैर दूसरा हिस्सा था मन का। सुबह चार बजे दूसरा हिस्सा सामने था| वहीं रखना। गिर जाओ, दूसरी बात। लेकिन तुम पैर नीचे मत
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अंतर्वाणी-विद्या
टिकाना। मुंह खोला है बोलने को, तो फिर खुला ही रह जाए, जब | ठहर गए, तो ठहर गए। कहा, स्टाप। हाथ उठाया काम के लिए, हाथ वहीं रह जाए। आंख ___ मन ने जरूर कहा होगा, पागल है। मर जाएगा। जिंदगी गंवा खुली थी, तो खुली रह जाए, फिर पलक न झपे।
| देगा। बाहर निकल जा। तीन साथी बाहर निकल गए, उनमें भी इसका वह महीनों से प्रयोग करवा रहा था। क्या मतलब है | बुद्धि है। वे भी साधना कर रहे हैं। तू ही कोई साधना नहीं कर रहा इसका? इसका मतलब इतना ही है कि यह प्रक्रिया तभी हो सकती है। लेकिन नहीं; खड़ा ही रहा। है, जब मालिक जगे, अन्यथा नहीं हो सकती। और इस प्रक्रिया | फिर पानी नाक को डुबा गया। फिर आंख को डुबा गया। फिर को किसी को करना है, तो उसके भीतर का मालिक जगना शुरू | पानी की लहर सिर को डुबा गई। और गुरजिएफ भागा तंबू के हो जाएगा।
| बाहर। कूदा नहर में, उस युवक को बाहर निकालकर लाया। वह हां, नौकर धोखा देंगे। आपने पैर उठाया और गुरजिएफ ने कहा, । करीब-करीब बेहोश था। पानी भर गया था। पानी निकाला। वह स्टाप। तो मन कहेगा, वह देख तो नहीं रहा है, उसकी पीठ उस युवक होश में आया और गुरजिएफ के चरणों पर गिर पड़ा। उसने तरफ है। यह पैर नीचे रख ले। नाहक परेशान हो जाएगा। अगर कहा, मैंने तो कभी सोचा भी न था कि अगर मैं इतना बल उसकी मान ली, मन की, और पैर नीचे रख लिया, तो मालिक | | दिखाऊंगा, तो मेरे भीतर का सोया मालिक जग जाएगा! मैंने मृत्यु सोया रहेगा। लेकिन अगर कह दिया कि नहीं; पैर अब ऐसा ही | | के इस क्षण में अमृत को भी जान लिया है। रहेगा; तो मन हारा। और जब मन हारता है, तभी मन के पीछे जो | | योग का अर्थ है, भीतर जो सोया है, उस पर चोट करनी है, उसे छिपी शक्ति है, वह जीतती है।
उठाने के लिए चोट करनी है। हजार रास्ते हैं उस पर चोट करने के। मन की हार स्वयं की जीत बन जाती है। नौकरों का हारना, | हठयोग के अपने रास्ते हैं, राजयोग के अपने रास्ते हैं, मंत्रयोग के मालिक का जगना हो जाता है। जब तक नौकर जीतते रहते हैं, | अपने रास्ते हैं, तंत्र के अपने रास्ते हैं। हजार-हजार विधियां हैं, मालिक को खबर ही नहीं लगती कि हारने की हालत पैदा हो गई है | | जिन विधियों से उस सोई हुई चेतना में जो भीतर केंद्र पर प्रसुप्त है, महल में। जब नौकर हार जाते हैं, तो मालिक को उठना पड़ता है। | उसे जगाने की कोशिश की जाती है।
तो गुरजिएफ यह प्रयोग करा रहा था। पास ही एक बड़ी नहर । __ जैसे कोई आदमी सोया हो, उसे जगाने के बहुत रास्ते हो सकते थी। सूखी थी, अभी पानी छूटा नहीं था। एक दिन सुबह वह अपने हैं। कोई उसका नाम लेकर जोर से पुकार सकता है; तो उठ आए। तंबू में था। तीन-चार लोग नहर पार कर रहे थे। कोई लकड़ी काटने कोई उसका नाम लेकर न पुकारे, सिर्फ चिल्लाए कि मकान में आग जा रहा था, कोई जंगल गया था, कोई कुछ कर रहा था। जोर से लग गई है, और वह आदमी उठ आए। कोई मकान में आग लगने तंबू के बाहर आवाज गूंजी, स्टाप! चार लोग नहर पार कर रहे थे। की बात भी न करे, सिर्फ संगीत बजाए, और वह आदमी उठ आए। सूखी नहर थी। वे वहीं रुक गए। रुके नहीं कि दो क्षण बाद नहर कोई संगीत भी न बजाए, सिर्फ तेज रोशनी उसकी बंद आंखों पर में पानी छोड़ दिया गया। घबड़ाए!
डाले, और वह आदमी उठ आए। ऐसे योग के हजार रास्ते हैं, एक ने लौटकर देखा कि गरजिएफ तो तंब के भीतर है, उसे पता जिनसे भीतर सोई हुई कांशसनेस को, चेतना को चोट की जाती है। भी नहीं है कि हम नहर में खड़े हैं। पानी छट गया है। वह निकलकर और उस चोट से वह जग आता है। एक-दो उदाहरण के लिए बाहर आ गया। उसने कहा, स्टाप का मतलब कोई मरना तो नहीं | आपसे कहूं, क्योंकि वह तो बहुत-बहुत लंबी बात है। है! तीन खड़े रहे। पानी और बढ़ा। कमर तक पानी हो गया, तब । जैसे ओम शब्द से हम परिचित हैं। वह भीतर सोए हुए आदमी एक ने लौटकर देखा। उसने देखा कि अब तो जान जाने का खतरा | | को जगाने के लिए मंत्रयोग की विधि है। अगर कोई व्यक्ति जोर है। यह पानी ऊपर बढ़ता जा रहा है। अब कोई अर्थ नहीं है। कपड़े | | से ओम का नाद करे भीतर, तो उसकी नाभि के पास जोर से चोट भी भीगे जा रहे हैं। कोई सार नहीं है। वह बाहर निकल आया। दो | होने लगती है। नाभि जीवन-ऊर्जा का केंद्र है। नाभि से ही बच्चा फिर भी खड़े रहे। पानी और ऊपर बढ़ा, गर्दन, ओंठ-और तीसरा | मां से जुड़ा होता है। नाभि के द्वारा ही मां से जीवन पाता है। फिर भी छलांग लगाकर बाहर हो गया। उसने कहा, अब तो सांस का नाभि कटती है अलग, तो बच्चा अलग होता है। नया जीवन शुरू खतरा है। लेकिन चौथा फिर भी खड़ा रहा। स्टाप यानी स्टाप। जब | होता है।
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गीता दर्शन भाग-2
कभी आपने खयाल शायद किया हो, न किया हो; साइकिल चला रहे हों, कार चला रहे हों, अगर एकदम से एक्सिडेंट होने की हालत हो जाए, तो सबसे पहले चोट नाभि पर पड़ती है। साइकिल पर चले जा रहे हैं; एकदम से कोई सामने आ गया, ब्रेक मारा। तो आपके शरीर में जो चोट पड़ेगी, वह नाभि पर पड़ेगी। एकदम से नाभि पर चोट पड़ जाएगी। खतरा आ गया ! खतरे की हालत में जीवन-ऊर्जा को जगने का मौका आ जाता है।
ओम ऐसी ध्वनि है, जिसके माध्यम से भीतर से नाभि पर चोट की जाती है। आप ओम की गूंज करें भीतर, तो नाभि पर चोट पड़ने लगती है। हलकी हलकी पड़ती है पहले, फिर तेज होती जाती है। फिर और तेज होती जाती है। फिर ओंकार का शब्द जाकर नाभि पर हथौड़े की तरह पड़ने लगता है, और वह सोई हुई जो चेतना है, उसे जगाता है।
अब यह बड़े मजे की बात है। ओम में अ, उ और म हैं । म आप जोर से कहें, तो नाभि पर फौरन कंपन होगा । इस्लाम के पास शब्द है, अल्लाह। सूफी फकीर ओम की तरह अल्लाह शब्द का प्रयोग करते हैं। अल्लाह, तो ह की चोट वहीं पड़ती है, जहां म की पड़ती है। अल्लाह, तो हू की चोट ठीक वहीं पड़ती है नाभि पर, जहां ओम की पड़ती है। अब अल्लाह और ओम बिलकुल अलग-अलग शब्द हैं। लेकिन प्रयोजन एक है, और परिणाम एक है। अर्थ भी एक है। सूफी फकीर अल्लाह से शुरू करता है। अल्लाह, ,फिर लाह, फिर लाहू। और फिर हू ही रह जाता है। और हू की चोट नाभि पर पड़ती है। और नाभि पर सोया हुआ मालिक शुरू होता है।
हजार विधियों से योग सोए हुए मालिक को जगाता है। और उस सोए हुए मालिक के जगते ही व्यक्तित्व में इंटीग्रेशन, योग पैदा हो जाता है। खंड इकट्ठे हो जाते हैं। बाजार समाप्त हो जाता है । पंक्तिबद्ध सैनिक खड़े हो जाते हैं । फिर व्यक्तित्व आज्ञा मानता है। बाजार की भीड़ में कोई आज्ञा नहीं मानता। मानने का कोई सवाल भी नहीं है। न कोई आज्ञा देने वाला होता है, न कोई मानने वाला होता है।
योगस्थ व्यक्ति अंतर-अनुशासन से भर जाता है, इनर डिसिप्लिन से भर जाता है। एक भीतरी अनुशासन पैदा हो जाता है । फिर वह जो करना चाहता है, वही करता है। जो नहीं करना चाहता है, नहीं करता है। और जैसे ही भीतर का व्यक्ति जागा कि अब तक मैंने जो बातें कहीं, उनसे जो परिणाम होता है, वही इससे
भी हो जाता है।
स्वाध्याय से जो होता है, स्वधर्म से जो होता है, अंतर्वाणी से जो होता है, अहिंसादिक प्रयोग करने से जो चेतना जगती है, वही योग की विधियों से, मेथडॉलाजी से भी परिणाम हो जाता है।
इस परिणाम को योग के मार्ग से लाने की बहुत अनंत विधियां । और एक-एक व्यक्ति को देखकर कि उसके लिए कौन-सी विधि सार्थक होगी, प्रयोग किया जाता है।
अब जिस व्यक्ति का नाद कमजोर है या जिस व्यक्ति को नाद का कोई बोध ही नहीं है... ।
सब व्यक्तियों का नाद-बोध अलग है। आप रास्ते से गुजरें, जिसका नाद - बोध तीव्र है, उसे छोटे-से पक्षी की चहचहाहट भी सुनाई पड़ती है। आपका नाद - बोध तीव्र नहीं है, तो आपको कभी नहीं सुनाई पड़ती कि पक्षी भी चहचहा हैं।
जिसका नाद - बोध तीव्र है, उसे मंत्रयोग से जगाने की कोशिश की जाती है। जिसका दृष्टि-बोध तीव्र है, उसे त्राटक, एकाग्रता के | अनंत अनंत प्रयोग हैं, उनसे जगाने की कोशिश की जाती है। यह व्यक्ति पर निर्भर करेगा कि उसका बोध कौन-सा सर्वाधिक तीव्र है। उसके तीव्र बोध के ही मार्ग से उसे गहरे ले जाया जा सकता है। जिनका रंग-बोध तीव्र है, उन्हें रंग के द्वारा भी मार्ग मिल सकता है। लेकिन यह व्यक्ति पर निर्भर करेगा ।
कृष्ण कहते हैं, योग के द्वारा भी अर्जुन, योग- यज्ञ के द्वारा भी व्यक्ति परमसत्ता को उपलब्ध हो जाता है।
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अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे । प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः ।। २९ ।। और दूसरे योगीजन अपान वायु में प्राण वायु को हवन करते हैं, वैसे ही अन्य योगीजन प्राणवायु में अपान वायु को हवन करते हैं तथा अन्य योगीजन प्राण और अपान की गति को रोककर प्राणायाम के परायण होते हैं।
यो
'ग का एक और आयाम इस सूत्र में कृष्ण कहते हैं। मनुष्य के पास अस्तित्व से जुड़े होने के बहुत द्वार हैं; एक द्वार नहीं, अनंत द्वार हैं। हम परमात्मा से बहुत-बहुत भांति से जुड़े हुए हैं। जैसे एक वृक्ष एक ही जड़ से नहीं
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अंतर्वाणी-विद्या
जुड़ा होता पृथ्वी से, बहुत जड़ों से जुड़ा होता है। ऐसे हम भी अस्तित्व से बहुत जड़ों से जुड़े हुए हैं, एक जड़ से नहीं। और इसलिए अस्तित्व तक पहुंचने के लिए किसी भी एक जड़ के सहारे हम प्रवेश कर सकते हैं।
अभी मैंने कहा कि जीवन-ऊर्जा नाभि पर इकट्ठी है; यह एक द्वार है। जीवन-ऊर्जा प्राण पर भी संचालित है; श्वास पर भी । श्वास चलती है, तो हम कहते हैं, व्यक्ति जीवित है। श्वास गई, तो हम कहते हैं, व्यक्ति भी गया। श्वास पर सब खेल है। श्वास से ही शरीर और आत्मा जुड़ी है। श्वास सेतु है । इसलिए श्वास पर भी प्रयोग करके योगीजन उस परम अनुभूति को उपलब्ध हो पाते हैं।
श्वास या प्राण, उसका अपना प्राणयोग है। इसके भी बहुत-बहुत रूप हैं। संक्षिप्त में, थोड़ा-सा सारभूत प्राणयोग के संबंध में दो-तीन बातें खयाल में ले लेनी चाहिए।
एक तो, श्वास की गति मनोदशा से बंधी है। जैसा होता मन, वैसी हो जाती श्वास की गति | जैसी होती अंतर- स्थिति, श्वास के आंदोलन और तरंगें, वाइब्रेशंस, फ्रीक्वेंसीज बदल जाती हैं। श्वास की फ्रीक्वेंसी, श्वास की तरंगों का आघात खबर देता है, मन की दशा कैसी है।
अभी तो मेडिकल साइंस उसकी फिक्र नहीं कर पाई, क्योंकि अभी मेडिकल साइंस शरीर के पार नहीं हो पाई है ! इसलिए अभी प्राण पर उसकी पहचान नहीं हो पाई। लेकिन जैसे मेडिकल साइंस खून की गति को नापती है; रक्तचाप को, ब्लडप्रेशर को, खून के दबाव को नापती है। जब तक पता नहीं था, तब तक कोई खून के दबाव का सवाल नहीं था । रक्तचाप नई खोज है। रक्त का परिभ्रमण भी नई खोज है।
तीन सौ साल पहले किसी को पता नहीं था कि शरीर में खून चलता है। खयाल था कि भरा हुआ है । चलता है, ऐसा खयाल नहीं था, भरा हुआ है। जैसे बाल्टी में पानी भरा हुआ है, ऐसा आदमी में खून भरा हुआ है। उसमें परिभ्रमण हो रहा है, चल रहा है, इसका पता नहीं था। पता होता भी कैसे? क्योंकि हमें भीतर तो पता चलता नहीं कि खून चल रहा है।
खून के चलने का पता तीन सौ साल पहले ही लग पाया। और जब खून के चलने का पता लगा, तो यह भी पता लगा धीरे-धीरे कि खून का जो चाप है, जो प्रेशर है, वह व्यक्ति के स्वास्थ्य के गहरे अंगों से जुड़ा हुआ है। इसलिए ब्लडप्रेशर चिकित्सक के लिए नापने की खास चीज हो गई।
लेकिन अभी तक भी हम यह नहीं जान पाए कि जैसे ब्लडप्रेशर है, वैसा ब्रेथप्रेशर भी है, वैसा ही वायुचाप भी है। वैसे वायु का | अधिक दबाव और कम दबाव, वायु की गति और तरंगों का आघात-भेद, व्यक्ति की अंतर मनोदशा को परिवर्तित करता है । वह उसकी जीवन-ऊर्जा से संबंधित है। थोड़ी-सी बातें आपको कहूं, तो खयाल में आ जाएगा। जब आप क्रोध में होते हैं, आप खयाल करना, आपकी | श्वास की गति बदल जाती है। वैसी ही नहीं रह जाती, जैसी साधारण होती है। क्यों ? क्रोध में श्वास की गति बदलने की क्या जरूरत है ? इसका मतलब यह भी कि अगर आप श्वास की गति | पर काबू पा लें, तो आप फिर क्रोध पर काबू पा सकते हैं। अगर न बदलने दें श्वास की गति, तो क्रोध आना मुश्किल हो जाएगा।
इसलिए जापान में वे बच्चों को घरों में सिखाते हैं। वह प्राणयोग का ही एक सूत्र है। वे बच्चों को यह नहीं कहते कि तुम क्रोध मत करो। और मैं मानता हूं कि जापानी इस मामले में सर्वाधिक होशियार हैं और सबसे कम क्रोध करते हैं। सबसे ज्यादा मुस्कुराती कम हैं। और राज प्राणयोग का एक सूत्र है।
मां-बाप बच्चों को परंपरा से घर में यह सिखाते हैं कि जब क्रोध आए, तब तुम श्वास को आहिस्ता लो, धीमे-धीमे लो। गहरी लो | और धीमे लो। स्लोली एंड डीप, धीमे और गहरी । बच्चों को वे यह नहीं कहते कि क्रोध मत करो, जैसा कि हम कहते हैं।
सारी दुनिया कहती है, क्रोध मत करो। क्रोध न करना, हाथ की बात नहीं है इतनी कि आपने कह दिया और बच्चा न करे । और मजा तो यह है कि जो बाप बच्चे को कह रहा है, क्रोध मत करो, अगर बच्चा न माने तो बाप ही क्रोध करके बता देता है कि नहीं मानता ! इतना कहा कि क्रोध मत कर ! वह भूल ही जाता है कि अब हम खुद ही वही कर रहे हैं, हम उसको मना किए थे। क्रोध इतना हाथ में नहीं है, जितना लोग समझते हैं कि क्रोध मत करो। क्रोध इतना वालंटरी नहीं है, नान वालंटरी है। इतना स्वेच्छा में नहीं है, जितना लोग समझते हैं। इसलिए शिक्षा चलती रहती है; कुछ अंतर नहीं पड़ता है!
जापान ज्यादा ठीक समझा। योग का पुराना सूत्र, बुद्ध के द्वारा जापान पहुंचा। बुद्ध ने श्वास पर बहुत जोर दिया। बुद्ध का सारा | योग, कृष्ण जो इस सूत्र में कह रहे हैं, प्राणयोग है।
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इसलिए बुद्ध के सूत्र की गहरी बात अनापानसती योग कही जाती है। आती-जाती श्वास को देखना ही योग है, बुद्ध ने कहा ।
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गीता दर्शन भाग-20
अगर कोई आती-जाती श्वास के राज को पूरा समझ ले, तो फिर | कि ठहर गई, जब लगे कि श्वास का कंपन ही नहीं है, तब आप उसको दुनिया में और कुछ करने को नहीं रह जाता। इसलिए बुद्ध | उस बैलेंस को, उस संतुलन को उपलब्ध होते हैं, जिसकी कृष्ण तो कहते हैं, अनापानसती योग सध गया कि सब सध गया। बात | चर्चा कर रहे हैं। तब ऊपर की श्वास ऊपर और नीच की नीचे रह ठीक कहते हैं। उधर से भी सब सध जा सकता है।
| जाती है। बाहर की बाहर और भीतर की भीतर रह जाती है। और क्रोध आता है, तब आप देखें कि श्वास बदल जाती है। जब एक क्षण के लिए ठहराव आ जाता है। सब ठहर जाता है। न तो आप शांत होते हैं, तब श्वास बदल जाती है, रिदमिक हो जाती है। | बाहर की श्वास भीतर जाती, न भीतर की श्वास बाहर आती। न आप आरामकुर्सी पर भी लेटे हैं, शांत हैं, मौज में हैं, चित्त प्रसन्न ऊपर की श्वास ऊपर जाती, न नीचे की श्वास नीचे जाती। सब है, पक्षियों जैसा हलका है, हवाओं जैसा ताजा है, आलोकित है। ठहर जाता है। तब देखें. श्वास ऐसी हो जाती है. जैसे हो ही नहीं। पता ही नहीं | श्वास के इस ठहराव के क्षण में परम अनुभव की किरण उत्पन्न चलता। बहुत हलकी हो जाती है; न के बराबर हो जाती है। | होती है। श्वास के इस पूरे ठहर जाने में अस्तित्व पूरा संतुलित हो
देखें, जब कामवासना मन को पकड़ती है, सेक्स मन को | | जाता है, संयम को उपलब्ध हो जाता है। फिर कोई मूवमेंट नहीं, पकड़ता है, तो श्वास कैसी हो जाती है ? श्वास एकदम अस्तव्यस्त | आंदोलन नहीं। फिर कोई परिवर्तन नहीं। फिर कोई हेर-फेर नहीं, हो जाती है। रक्तचाप बढ़ जाता है, जब कामवासना मन में | बदलाहट नहीं, कोई गति नहीं। उस क्षण में आदमी परमगति में
आंदोलित होती है। रक्तचाप बढ़ जाता है; शरीर पसीना छोड़ने | | उतर जाता है या शाश्वत में डूब जाता है या इटरनल, सनातन से लगता है, श्वास तेज हो जाती है और अस्तव्यस्त हो जाती है, | संपर्क साध लेता है। टूट-फूट जाती है।
श्वास का आंदोलन हमारा परिवर्तनशील जगत से संबंध है। प्रत्येक समय भीतर की स्थिति के साथ श्वास जुड़ी है। अगर श्वास का आंदोलनरहित हो जाना, हमारा अपरिवर्तनशील नित्य कोई श्वास में बदलाहट करे. तो भीतर की स्थिति में बदलाहट की जगत से संबंधित हो जाना है। सुविधा पैदा करता है, और भीतर की स्थिति पर नियंत्रण लाने का | | इसलिए श्वास का यह ठहर जाना बड़ी अदभुत अनुभूति है। पहला पत्थर रखता है।
| कोशिश करके ठहराने की जरूरत भी नहीं है। क्योंकि कोशिश प्राणयोग का इतना ही अर्थ है कि श्वास बहुत गहरे तक प्रवेश | करके कभी नहीं ठहरा सकते। अगर आप कोशिश करके किए हुए है, वह हमारी आत्मा को भी छूती है। एक तरफ शरीर को ठहराएंगे, तो भीतर की श्वास बाहर जाना चाहेगी, बाहर की श्वास स्पर्श करती है, दूसरी तरफ आत्मा को स्पर्श करती है। एक तरफ भीतर जाना चाहेगी। जगत को छूती है बाहर, और दूसरी तरफ भीतर ब्रह्म को भी छूती | | कोशिश करके कोई व्यक्ति श्वास को रोक नहीं सकता। हां, है। श्वास दोनों के बीच आदान-प्रदान है—पूरे समय, | | श्वास को आहिस्ता-आहिस्ता प्रशिक्षित किया जा सकता है, सोते-जागते, उठते-बैठते। इस आदान-प्रदान में श्वास का | | रिदमिक किया जा सकता है, तैयार किया जा सकता है लयबद्धता रूपांतरण प्राणयोग है, ट्रांसफार्मेशन आफ दि ब्रीदिंग प्रोसेस। वह | | के लिए। और साथ में अगर कोई ध्यान में गहरा उतरता चला जाए, जो प्रक्रिया है हमारे श्वास की, उसको बदलना। और उसको | | प्राणायाम के साथ-साथ ध्यान में गहरा उतरता चला जाए, तो एक बदलने के द्वारा भी व्यक्ति परमसत्ता को उपलब्ध हो सकता है। | क्षण ऐसा आ जाता है कि प्रशिक्षित श्वास और ध्यान की शांत
जो लोग भी ध्यान का कभी थोड़ा अनुभव किए हैं, उनको पता | | स्थिति का कभी मेल, ट्यूनिंग हो जाती, तो श्वास ठहर जाती है। है। मेरे पास निरंतर लोग ध्यान के प्रयोग के बाद आते हैं। जो गहरा __ और भी एक मजे की बात कि जब श्वास ठहरती है, तब प्रयोग करते हैं, वे कहते हैं कि कभी-कभी ऐसा लगता है कि श्वास | तत्काल विचार ठहर जाते हैं। बिना श्वास के विचार नहीं चल बंद हो गई, चलती ही नहीं! तो हम बहुत घबड़ा जाते हैं कि इससे | सकते। इसे जरा देखें, कभी ऐसे ही एक सेकेंड को श्वास को कुछ खतरा तो न हो जाएगा।
ठहराकर। अभी यहीं एक सेकेंड श्वास ठहराएं। इधर श्वास घबड़ाने की जरा भी जरूरत नहीं है। घबड़ाएं तब, जब श्वास | | ठहरी, भीतर विचार ठहरे, एकदम ब्रेक! श्वास बिलकुल ब्रेक का बहुत जोर से चले, अस्तव्यस्त, तब घबड़ाएं। जब बिलकुल लगे काम करती है विचार पर।
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अंतर्वाणी-विद्या
लेकिन जब आप ठहराते हैं, तब ज्यादा देर नहीं ठहर सकती। | आपकी थी। और थोड़ी देर पहले किसी वृक्ष के पास थी, वृक्ष की श्वास भी निकलना चाहेगी और विचार भी हमला करना चाहेंगे। | थी। और थोड़ी देर पहले कहीं और थी। अभी मेरे भीतर है। मैं कह क्षणभर को ही गैप आएगा। लेकिन जब श्वास, प्रशिक्षित श्वास भी नहीं पाया कि मेरे भीतर है, कि गई बाहर। ध्यान के संयोग से अपने आप ठहर जाती है, तो कभी-कभी घंटों जो हमारे भीतर है, उसको अगर हम बाहर के प्राण-जगत में ठहरी रहती है।
समर्पित कर दें, जानें कि वह भी दे दी बाहर को, तो भीतर कुछ बच रामकृष्ण के जीवन में ऐसे बहुत मौके हैं। कभी-कभी तो ऐसा नहीं रह जाता। सब शून्य हो जाता है। एक समर्पण यह है। भीतर हुआ है कि वह छ:-छः दिन तक ऐसे पड़े रहते कि जैसे मर गए! की श्वास को, वह जो बाहर विराट प्राण का जाल फैला है प्रियजन घबड़ा जाते, मित्र घबड़ा जाते, कि अब क्या होगा, क्या वायुमंडल में, उसमें समर्पित कर दें, उसमें होम दे दें, उसमें चढ़ा नहीं होगा। सब ठहर जाता। उस ठहरे हए क्षण में. इन दैट स्टिल | दें। या इससे उलटा भी कर सकते हैं। वह जो बाहर का सारा मोमेंट, उस ठहरे हुए क्षण में, चेतना समय के बाहर चली जाती, | प्राण-जगत है, वह भी तो मेरे भीतर का ही हिस्सा है बाहर फैला कालातीत हो जाती।
हुआ। अगर हम उस बाहर के प्राण-जगत को इस भीतर के विचार के बाहर हुए, निर्विचार में गए, ब्रह्म के द्वार पर खड़े हैं। प्राण-जगत को समर्पित कर दें, तो भी एक ही घटना घट जाती है। विचार में आए, विचार में पड़े, कि संसार के बीच आ गए हैं। बूंद सागर में गिर जाए, कि सागर बूंद में गिर जाए। संसार और मोक्ष के बीच पतली-सी विचार की पर्त के अतिरिक्त बूंद का सागर में गिरना तो हमारी समझ में आता है, क्योंकि
और कोई फासला नहीं है। पदार्थ और परमात्मा के बीच पतले, | हमने सागर में बूंद को गिरते देखा है। सागर का बूंद में गिरना हमारी झीने विचार के पर्दे के अतिरिक्त और कोई पर्दा नहीं है। लेकिन यह | समझ में नहीं आता। लेकिन अगर आइंस्टीन के संबंध में कुछ भी विचार का पर्दा कैसे जाए?
खयाल हो, तो समझ आ में सकता है। दो तरह से जा सकता है। या तो कोई सीधा विचार पर प्रयोग __जब एक बूंद सागर में गिरती है, तो यह बिलकुल रिलेटिव बात करे ध्यान का, साक्षी-भाव का, तो विचार चला जाता है। जिस दिन | है, यह बिलकुल सापेक्ष बात है। आप चाहें तो कह सकते हैं कि विचार शून्य होता है, उसी दिन श्वास भी शांत होकर खड़ी रह जाती बूंद सागर में गिरी; और आप चाहें तो कह सकते हैं कि सागर बूंद है। या फिर कोई प्राणयोग का प्रयोग करे, श्वास का। श्वास को में गिरा। आप कहेंगे, कैसी बात है यह! गति दे, व्यवस्था दे, प्रशिक्षण दे; और ऐसी जगह ले आए, जहां __ मैं पूना आया। तो मैं कहता हूं, मैं पूना आया, ट्रेन बंबई से मुझे श्वास अपने आप ठहर जाती है-बाहर की बाहर, भीतर की पूना तक लाई। आइंस्टीन कहते हैं कि यह सापेक्ष है, यह भीतर, ऊपर की ऊपर, नीचे की नीचे। और बीच में गैप, अंतराल कामचलाऊ बात है। इससे उलटा भी कह सकते हैं कि ट्रेन मेरे पास आ जाता है; खाली, वैक्यूम हो जाता है, जहां श्वास नहीं होती। | पूना को लाई। ऐसा भी कह सकते हैं कि ट्रेन मुझे पूना तक लाई; वहीं से छलांग, दि जंप। उसी अंतराल में छलांग लग जाती है | ऐसा भी कह सकते हैं कि ट्रेन पूना को मुझ तक लाई। इन दोनों में परमसत्ता की ओर।
कोई बहुत फर्क नहीं है।
लेकिन हम छोटे-छोटे हैं, तो ऐसा कहना अजीब-सा लगेगा कि
| ट्रेन पूना को मुझ तक लाई; यही कहना ठीक मालूम पड़ता है कि प्रश्न: भगवान श्री, प्राण क्या है और अपान क्या है? | | मुझे ट्रेन पूना तक लाई। लेकिन दोनों बातें कही जा सकती हैं। कोई अपान में प्राण का हवन क्या है और प्राण में अपान | | अंतर नहीं है। ट्रेन जो काम कर रही है, वे दोनों ही बातें कही जा का हवन क्या है? इसे फिर से स्पष्ट करें। . सकती हैं।
तो या तो हम भीतर के प्राण को बहिर्माण पर समर्पित कर दें,
| बूंद को सागर में गिरा दें। या हम सागर को बूंद में गिरा लें, या हम हमारे भीतर है, वह भी बाहर का हिस्सा है। अभी मेरे | | बाहर के समस्त प्राण को भीतर गिरा लें। दोनों ही तरह हवन पूरा भीतर एक श्वास है। थोड़ी देर पहले आपके पास थी, | हो जाता है। दोनों ही तरह यज्ञ पूरा हो जाता है।
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गीता दर्शन भाग-2
इसे कैसे गिराया जाए, वह मैंने जानकर छोड़ दिया। जानकर छोड़ा इसीलिए कि वह सब योग की बहुत सूक्ष्म प्रक्रियाएं हैं, जिनका सीधा कोई प्रयोजन नहीं है। वह तो पतंजलि के योग- शास्त्र पर बात हो, तभी विस्तार से उनकी बात हो सकती है। एक आखिरी श्लोक और ले लें।
अपरे नियताहाराः प्राणान्प्राणेषु जुह्वति । सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषाः ।। ३० ।। और दूसरे नियमित आहार करने वाले योगीजन प्राणों को प्राणों में ही हवन करते हैं। इस प्रकार यज्ञों द्वारा नाश हो गया है पाप जिनका, ऐसे ये सब ही पुरुष यज्ञों को जानने वाले हैं।
|
इ
समें भी योग की दूसरी और प्रक्रिया का उल्लेख कृष्ण ने किया। वे प्रत्येक प्रक्रिया का उल्लेख करते जा रहे हैं। अर्जुन को जो भा जाए, जो प्रीतिकर लगे, जो रुचिकर बने। अर्जुन के टाइप को जो अनुकूल पड़ जाए।
पुरुष
इसमें वे कहते हैं, नियमित, संयमित आहार करने वाले प्राण को प्राण में ही होम करते हैं। नियमित, संयमित आहार!
अब यह आहार बड़ा शब्द है और बड़ी घटना है। साधारणतः हम सोचते हैं कि भोजन आहार है । साधारणतः ठीक सोचते हैं। लेकिन आहार के और व्यापक अर्थ हैं।
आहार का मूल अर्थ होता है, जो भी बाहर से भीतर लिया जाए। आहार का अर्थ होता है, जो भी बाहर से भीतर लिया जाए। भोजन एक आहार है; आहार ही नहीं, सिर्फ एक आहार । क्योंकि भोजन को हम बाहर से भीतर लेते हैं। लेकिन आंख से भी हम चीजों को भीतर लेते हैं; वह भी आहार है। कान से भी हम चीजों को भीतर लेते हैं; वह भी आहार है। स्पर्श से भी हम चीजों को भीतर लेते हैं; वह भी आहार है।
शरीर के भीतर जो भी हम बाहर से लेते हैं, वह सब आहार है। जो भी हम रिसीव करते हैं बाहर से, जिसके हम ग्राहक हैं, जिसे भी हम बाहर से भीतर ले जाते हैं, वह सब आहार है।
संयमित, नियमित आहार का मतलब हुआ, जो व्यक्ति अपने इंद्रियों के द्वार से उसे ही भीतर ले जाता — उसे ही भीतर ले
जाता-जो प्राणों को प्राणों में समर्पित होने में सहयोगी है। हम इस तरह की चीजें भी भीतर ले जा सकते हैं, जो प्राणों को प्राणों में समाहित न होने दें, बल्कि प्राणों को उद्वेलित करें, उत्तेजित करें, विक्षिप्त करें।
दो तरह के आहार हो सकते हैं। ऐसा आहार, जो प्राणों को उत्तेजित करे- शांत नहीं, मौन नहीं, निस्पंद नहीं- आंदोलित करे, पागल बनाए, दौड़ाए। और जब प्राण दौड़ते हैं, तो फिर बाहर की तरफ, विषयों की तरफ दौड़ जाते हैं। और जब प्राण नहीं दौड़ते, ठहरते हैं, विश्राम करते हैं, विराम करते हैं, तो फिर प्राण महाप्राण में लीन हो जाते हैं। जैसे लहर जब दौड़ती है, तो सागर में लीन नहीं | होती; वायुमंडल की तरफ छलांगें भरती है; आकाश की तरफ हवाओं में टक्कर लेती है, उछलती है, चट्टानों से किनारे की टकराती है, टूटती है। लेकिन जब लहर शांत होती है, तो लहर सागर में लीन हो जाती
आहार दो तरह के हो सकते हैं। प्राणों को उत्तेजित करें। हम ऐसे ही आहार लेते हैं, जो उत्तेजित करें। एक आदमी शराब पी लेता है, तो फिर प्राण प्राण में लीन नहीं हो पाएंगे। फिर तो प्राण पागल होकर | पदार्थ के लिए दौड़ने लगेंगे - किसी और के लिए, बाहर, हवाओं में कूदने लगेंगे, तो किनारों की चट्टानों से टकराने लगेंगे।
शराब उत्तेजक है। लेकिन शराब अकेली उत्तेजक नहीं है। जब कोई आंख से गलत चीज देखता है, तो भी उतनी ही उत्तेजना आ जाती है।
अब एक आदमी बैठा हुआ है तीन घंटे तक, नाटक देख रहा है, फिल्म देख रहा है। और इस तरह का आहार कर रहा है जो | उत्तेजना ले आएगा भीतर; जो चित्त को चंचल करेगा, भगाएगा, दौड़ाएगा; रातभर सो नहीं सकेगा; सपने में भी मन वहीं नाट्य-गृह में घूमता रहेगा। आंख बंद करेगा और वे ही दृश्य दिखाई पड़ने लगेंगे, वे ही छवियां पकड़ लेंगी। अब वह दौड़ा। अब वह बेचैन | हुआ। अब वह परेशान हुआ।
अभी अमेरिका के मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि अब जब तक अमेरिका में फिल्म टेलीविजन हैं, तब तक कोई पुरुष किसी स्त्री से तृप्त नहीं होगा और कोई स्त्री किसी पुरुष से तृप्त नहीं होगी। क्यों? क्योंकि टेलीविजन ने और सिनेमा के पर्दे ने स्त्रियों और पुरुषों की ऐसी प्रतिमाएं लोगों को दिखा दीं, जैसी प्रतिमाएं यथार्थ | में कहीं भी मिल नहीं सकतीं ; झूठी हैं, बनावटी हैं। फिर यथार्थ में जो पुरुष और स्त्री मिलेंगे, वे बहुत फीके - फीके मालूम पड़ते हैं।
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अंतर्वाणी-विद्या
कहां तस्वीर फिल्म के पर्दे पर, कहां अभिनेत्री फिल्म के पर्दे पर तब कंकड़-पत्थर नहीं खाते! और कहां पत्नी घर की! घर की पत्नी एकदम फीकी-फीकी, | । नहीं; हमें खयाल नहीं है कि वह भी आहार है। बहुत सूक्ष्म एकदम व्यर्थ-व्यर्थ, जिसमें नमक बिलकुल नहीं, बेरौनक, | | आहार है। कान कुछ भी सुन रहे हैं। बैठे हैं, तो रेडिओ खोला हुआ साल्टलेस मालूम पड़ने लगती है। स्वाद ही नहीं मालूम पड़ता। | है! कुछ भी सुन रहे हैं! वह चला जा रहा है दिमाग के भीतर। पुरुष में भी नहीं मालूम पड़ता।
| दिमाग पूरे वक्त तरंगों को आत्मसात कर रहा है। वे तरंगें दिमाग फिर दौड़ शुरू होती है। अब उस स्त्री की तलाश शुरू होती है, के सेल्स में बैठती जा रही हैं। आहार हो रहा है। जो पर्दे पर दिखाई पड़ी। वह कहीं नहीं है। वह पर्दे वाली स्त्री भी और एक बार भोजन इतना नुकसान न पहुंचाए, क्योंकि भोजन जिसकी पत्नी है, वह भी इसी परेशानी में पड़ा है। इसलिए वह के लिए परगेटिव्स उपलब्ध हैं। अभी तक मस्तिष्क के लिए कहीं नहीं है। क्योंकि घर पर वह स्त्री साधारण स्त्री है। पर्दे पर जो | परगेटिव्स उपलब्ध नहीं हैं। अभी तक मस्तिष्क में जब कब्ज पैदा स्त्री दिखाई पड़ रही है. वह मैन्यवर्ड है. वह तरकीब से प्रस्तत की हो जाए, और अधिक मस्तिष्क में कब्ज है-कांस्टिपेशन गई है, वह प्रेजेंटेड है ढंग से। सारी टेक्नीक, टेक्नोलाजी से, सारी दिमागी और उसके परगेटिव्स हैं नहीं कहीं। तो बस, खोपड़ी में
नक व्यवस्था से कैमरे, फोटोग्राफी, रंग. सज्जा. सजावट. कब्ज पकडता जाता है। सड़ जाता है सब भीतर। और किसी को मेकअप—सारी व्यवस्था से वह पेश की गई है। उस पेश स्त्री को | होश नहीं है। कहीं भी खोजना मुश्किल है। वह कहीं भी नहीं है। वह धोखा है। __ संयमी या नियमी आहार वाले व्यक्ति से कृष्ण का मतलब है,
लेकिन वह धोखा मन को आंदोलित कर गया। आहार हो गया। | ऐसा व्यक्ति, जो अपने भीतर एक-एक चीज जांच-पड़ताल से ले उस स्त्री का आहार हो गया भीतर। अब उस स्त्री की तलाश शुरू | | जाता है; जिसने अपने हर इंद्रिय के द्वार पर पहरेदार बिठा रखा है हो गई; अब वह कहीं मिलती नहीं। और जो भी स्त्री मिलती है, | | विवेक का, कि क्या भीतर जाए। उसी को भीतर ले जाऊंगा, जो वह सदा उसकी तुलना में फीकी और गलत साबित होती है। अब उत्तेजक नहीं है। उसी को भीतर ले जाऊंगा, जो शामक है। उसी को यह चित्त कहीं भी ठहरेगा नहीं। अब इस चित्त की कठिनाई हुई। भीतर ले जाऊंगा, जो भीतर चित्त को मौन में, गहन सन्नाटे में, शांति यह सारी की सारी कठिनाई बहुत गहरे में गलत आहार से पैदा हो में, विराम में, विश्राम में डुबाता है; जो भीतर चित्त को स्वस्थ करता रही है।
है, जो भीतर चित्त को संगीतबद्ध करता है, जो भीतर चित्त को रास्ते परं आप निकलते हैं, कुछ भी पढ़ते चले जाते हैं, बिना | | प्रफुल्लित करता है। इसकी फिक्र किए कि आंखें भोजन ले रही हैं। कुछ भी पढ़ रहे हैं! | ऐसा व्यक्ति भी, अगर कोई व्यक्ति पूर्ण रूप से संयमी हो रास्ते भर के पोस्टर लोग पढ़ते चले जाते हैं। किसने आपको इसके | | आहार की दृष्टि से, समस्त आहार की दृष्टि से-छुए भी वही, लिए पैसा दिया है! काहे मेहनत कर रहे हैं? रास्ते भर के क्योंकि छूना भी भीतर जा रहा है; देखे भी वही, सुने भी वही, चखे दीवाल-दरवाजे रंगे-पुते हैं; सब पढ़ते चले जा रहे हैं। यह कचरा | भी वही, गंध भी उसकी ले-सब इंद्रियों से उसे ही भीतर ले जाए, भीतर चला जा रहा है। अब यह कचरा भीतर से उपद्रव खड़े करेगा। जो आत्मा के लिए शांति का मार्ग है, तो ऐसा व्यक्ति भी उस परम __ अखबार उठाया, तो एक कोने से लेकर ठीक आखिरी कोने | सत्य को उपलब्ध हो जाता है। इस योग से भी, कृष्ण कहते हैं, तक, कि किसने संपादित किया और किसने प्रकाशित किया, वहां अर्जुन! वहां पहुंचा जा सकता है। तक पढ़ते चले जाते हैं! और एक दफे में भी मन नहीं भरता। फिर ऐसा वह एक-एक कदम, एक-एक विधि की अर्जुन से बात दुबारा देख रहे हैं, बड़ी छानबीन कर रहे हैं। बड़ा शास्त्रीय अध्ययन | कर रहे हैं। मैं भी आपसे एक-एक विधि की बात कर रहा हूं। किसी कर रहे हैं अखबार का! कचरा दिमाग में भर रहे हैं। फिर वह कचरा | को कोई विधि जम जाए, किसी को कोई विधि खयाल में आ जाए, भीतर बेचैनी करेगा। घास खाकर देखें, कंकड़-पत्थर खाकर देखें, कहीं चोट हो जाए, किसी को कुछ ठीक पड़ जाए, और उसकी तब पता चलेगा कि पेट में कैसी तकलीफ होती है। वैसी खोपड़ी | जिंदगी में रूपांतरण हो जाए! में भी तकलीफ हो जाती है। लेकिन वह, हम सोचते हैं, आहार नहीं | | तो किसी भी विधि से, किसी भी बहाने से और किसी भी निमित्त है; वह तो हम पढ़ रहे हैं; ऐसी ही, खाली बैठे हैं। खाली बैठे हैं, | से व्यक्ति परमात्मा तक पहुंच सकता है। सिर्फ वे ही नहीं पहुंचते,
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गीता दर्शन भाग-2
जो कभी पहुंचने की कोशिश ही नहीं करते किसी भी विधि से। गलत विधि से भी कोई चले उसकी तरफ, तो भी पहुंच सकता है; क्योंकि गलत विधि से चलने वाला थोड़ी देर में गलत को ठीक कर लेता है। गलत पर ज्यादा तक नहीं चला जा सकता। लेकिन न चलने वाले के तो पहुंचने का कोई उपाय ही नहीं होता। वह गलत पर भी नहीं चलता। वह बैठा ही रह जाता है। वह बैठा देखता रहता है। जिंदगी सामने से बहती चली जाती है, वह बैठा देखता रहता है।
कबीर ने कहा है, मैं बौरी खोजन गई, रही किनारे बैठ-मैं पागल खोजने गई और किनारे बैठ गई! जिन खोजा तिन पाइयां, गहरे पानी पैठ —खोजा तो उन्होंने, जो गहरे पानी में डूबे हैं।
किनारे क्यों बैठ जाता है कोई? यह कबीर ने मजाक की है हमारे बाबत। कबीर गहरे पानी डूबे। हमारे बाबत मजाक की है कि किनारे पर बैठे हैं!
किनारे पर कौन बैठ जाता है ? किनारे पर वही बैठ जाता है, जो सोचता है, कोई भूल-चूक न हो जाए। पता नहीं, करेंगे तो परिणाम आएगा कि नहीं आएगा? पता नहीं, परिणाम होता भी है या नहीं होता? पता नहीं, जो कहा जा रहा है, वह कभी हुआ भी है ? कभी होगा भी? ऐसा ही सोच-विचार करता जो बैठा रहता है किनारे पर... ।
बड़ा मजा है कि वह यह कभी नहीं सोचता कि किनारे पर बैठे-बैठे क्या हो जाएगा! गहरे पानी पैठने वाले कहते हैं कि मिला उन्हें । एक अवसर उनको भी परीक्षा का देना चाहिए। और किसी भी विधि और किसी भी तट से कूदकर देखना चाहिए। बैठे-बैठे तो किसी ने भी नहीं कहा कि मिल गया-किनारे पर बैठे-बैठे। कुछ भी नहीं मिला। सिर्फ जीवन हाथ से खो जाता है।
कृष्ण एक-एक बात कर रहे हैं कि कोई बात मेल खा जाए अर्जुन को और वह छलांग के लिए तैयार हो जाए।
आपसे भी कहता हूं, कोई बात मेल खा जाए, तो किनारे मत बैठे रहें, छलांग लगाएं, खोज पर निकलें। जो खोज पर निकलता है, वह जरूर एक दिन पहुंच जाता है। गलत भी कूदे, तो भी पहुंच जाता है। क्योंकि गलत कूदने वाले की आकांक्षा तो कम से कम सही होती ही है, पहुंचने की। गलत विधि का उपयोग करे, तो भी पहुंच जाता है। क्योंकि गलत विधि वाले की भी प्यास तो होती है, पाने की ही ।
और जो प्रभु को पाने को प्यासा है, वह गलत से भी पा लेता
है । और जो प्रभु को पाने का प्यासा नहीं है, उसके सामने ठीक विधि भी पड़ी रहे, तो वह कुछ भी नहीं पाता है।
अब संन्यासी हमारे भजन-कीर्तन में लगेंगे। आप भी - जो मित्र हिम्मत करें – कूदें | किनारे मत खड़े रहें, सम्मिलित हों। और | जो देखना चाहें, वे देखें। देखने से भी तरंग पकड़ती है। दस मिनट इस कीर्तन में सम्मिलित होकर फिर विदा हों। यहां थोड़ी जगह बना लेंगे, थोड़े पीछे हट जाएं।
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अध्याय 4 तेरहवां प्रवचन
मृत्यु का साक्षात
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गीता दर्शन भाग-20
यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम् । ___ इस जगत में अज्ञान के अतिरिक्त और कोई मृत्यु नहीं है। अज्ञान नायं लोकोऽस्त्ययजस्य कतोऽन्यः करुसत्तम ।। ३।। । ही मृत्यू है; इग्नोरेंस इज़ डेथ। क्या अर्थ हआ इसका कि अज्ञान ही हे कुरुश्रेष्ठ अर्जुन, यज्ञों के परिणामरूप ज्ञानामृत को भोगने मृत्यु है ? वाले योगीजन सनातन परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होते हैं अगर अज्ञान मृत्यु है, तो ही ज्ञान अमृत हो सकता है। अज्ञान और यज्ञरहित पुरुष को यह मनुष्य लोक भी सुखदायक | मृत्यु है, इसका अर्थ हुआ कि मृत्यु कहीं है ही नहीं। हम नहीं जानते नहीं है, तो फिर परलोक कैसे सुखदायक होगा? | हैं, इसलिए मृत्यु मालूम पड़ती है। मृत्यु असंभव है। मृत्यु इस पृथ्वी
पर सर्वाधिक असंभव घटना है, जो हो ही नहीं सकती, जो कभी
हुई नहीं, जो कभी होगी नहीं। लेकिन रोज मृत्यु मालूम पड़ती है। त वन जिनका यज्ञरूप है, वासनारहित, अहंकारशून्य, यह मृत्यु हमें मालूम पड़ती है, क्योंकि हम जानते नहीं हैं। हम अंधेरे UII ऐसे पुरुष परात्पर ब्रह्म को उपलब्ध होते हैं, अमृत को में खड़े हैं, अज्ञान में खड़े हैं। जो नहीं मरता, वह मरता हुआ दिखाई
उपलब्ध होते हैं, आनंद को उपलब्ध होते हैं। लेकिन पड़ता है। इस अर्थ में अज्ञान ही मृत्यु है। और जिस दिन हम जान जिनका जीवन यज्ञ नहीं है, ऐसे पुरुष तो इस पृथ्वी पर ही आनंद लेते हैं, उस दिन मृत्यु तिरोहित हो जाती है। कहीं थी ही नहीं कभी। को उपलब्ध नहीं होते, परलोक की बात तो करनी व्यर्थ है। इस सूत्र | अमृत ही, अमृतत्व ही शेष रह जाता है, इम्मारटेलिटी ही शेष रह में कृष्ण ने दो-तीन बातें अर्जुन से कहीं।
जाती है। एक, जिनका जीवन यज्ञ बन जाता!
कभी आपने खयाल किया, आपने किसी आदमी को मरते जीवन के यज्ञ बन जाने का अर्थ क्या है? जब तक जीवन | देखा? आप कहेंगे, बहुत लोगों को देखा। पर मैं कहता हूं, नहीं वासनाओं के आस-पास घूमता, तब तक यज्ञ नहीं होता है। जब | देखा। आज तक किसी व्यक्ति ने किसी को मरते नहीं देखा। मरने तक जीवन स्वयं के अहंकार के ही आस-पास घूमता, तब तक | | की प्रक्रिया आज तक देखी नहीं गई। जो हम देखते हैं, वह केवल जीवन यज्ञ नहीं होता। जैसे ही व्यक्ति वासनाओं को क्षीण करता जीवन के विदा हो जाने की प्रक्रिया है. मरने की नहीं। और स्वयं के आस-पास नहीं, परमात्मा के आस-पास परिभ्रमण बटन दबाई हमने, बिजली का बल्ब बुझ गया। जो नहीं जानता, करने लगता है...।
वह कहेगा, बिजली मर गई। जो जानता है, वह कहेगा, बिजली मंदिर को हम जानते हैं। मंदिर की वेदी के चारों तरफ बनी हुई | | अभिव्यक्त थी, अब अप्रकट हो गई। प्रकट थी, अप्रकट हो गई। परिक्रमा को भी हम जानते हैं। लेकिन उसके अर्थ को हम नहीं मर नहीं गई। फिर बटन दबेगा, बिजली फिर वापस लौट आएगी। जानते। हजारों बार मंदिर में गए होंगे और वेदी के आस-पास फिर बटन दबाएंगे, बिजली फिर भीतर तिरोहित हो जाएगी। परिक्रमा लगाकर घर लौट आए होंगे। लेकिन मंदिर में परमात्मा की - जीवन समाप्त नहीं होता, केवल शरीर से विदा होता है। लेकिन वेदी के आस-पास जो परिक्रमा है, वह प्रतीक है उस पुरुष का, | विदाई हमें मृत्यु मालूम पड़ती है। क्यों मालूम पड़ती है? क्योंकि जिसका अपना अहंकार नहीं रहा, जो अब परमात्मा के आस-पास | हमने कभी अपने भीतर शरीर से अलग किसी अस्तित्व का अनुभव ही जीवन में परिभ्रमण करता है, जो उसके चारों ओर ही घूमता है। | नहीं किया है। हमारा अनुभव यही है कि मैं शरीर हूं, इसलिए जब अपना कोई केंद्र ही नहीं रहा, जिस पर घूम सके। परमात्मा का | शरीर समाप्त होगा, जलाने के योग्य हो जाएगा, तब स्वभावतः उपग्रह बन जाता है। वही हो जाता केंद्र में, हम हो जाते परिधि पर; | निष्कर्ष होगा कि मर गए। उसके आस-पास ही घूमते हैं, परिभ्रमण करते हैं।
शरीर से अलग जिसने अपने भीतर किसी तत्व को नहीं जाना, जैसे ही कोई व्यक्ति वासना और अहंकार से शून्य होता, उसका वह अज्ञानी है। अज्ञानी का मतलब यह नहीं कि जिसे यूनिवर्सिटी जीवन यज्ञ हो जाता है। इस यज्ञ के संबंध में काफी बातें मैंने पीछे | | की डिग्री नहीं है, विश्वविद्यालय का कोई सर्टिफिकेट नहीं है। सच कहीं हैं, वह खयाल में ले लेनी जरूरी हैं।
तो यह है कि विश्वविद्यालय ने जितने सर्टिफिकेट दिए, अज्ञान दूसरी बात, कृष्ण कहते हैं, ऐसा पुरुष ज्ञानरूपी अमृत को | | उतना बढ़ा है, कम नहीं हुआ। कारण है। कारण यह है कि उपलब्ध होता है। ज्ञानरूपी अमृत को!
विश्वविद्यालय के सर्टिफिकेट को लोग ज्ञान समझने लगे। इसलिए
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मृत्यु का साक्षात
असली ज्ञान की खोज की कोई जरूरत नहीं मालूम पड़ती। अज्ञानी | हैं कि सब मरते हैं, तो मैं भी मरूंगा। लेकिन कभी किसी मरने वाले आदमी के पास सर्टिफिकेट नहीं होता; वह ज्ञान की खोज करता है। | से पूछा कि मर गए? लेकिन वह उत्तर नहीं देता। इसलिए मान लेते तथाकथित ज्ञानी के पास सर्टिफिकेट होता है; वह मान लेता है कि हैं कि हां में उत्तर देता होगा। मौन को सम्मति का लक्षण समझने मैं ज्ञानी हूं। मेरे पास यूनिवर्सिटी की डिग्री है। और क्या चाहिए? की बात सभी जगह ठीक नहीं है। मरे हुए आदमी से पूछो, मर
ज्ञान तो सिर्फ एक है, स्वयं का ज्ञान। बाकी सब सूचनाएं हैं, | गए? अगर वह उत्तर दे, तो समझना मरा नहीं; और अगर मौन रह इनफर्मेशनस हैं, नालेज नहीं। बाकी सब परिचय है, ज्ञान नहीं। जाए, तो हम समझ लेते हैं कि मर गया!
बट्रेंड रसेल ने ज्ञान के दो हिस्से किए हैं, नालेज और | लेकिन मौन सम्मति का लक्षण नहीं है। नहीं बोल पा रहा है, एक्वेनटेंस-ज्ञान और परिचय। ज्ञान तो सिर्फ एक ही चीज का हो इसलिए मर गया, ऐसा समझने का कोई कारण नहीं है। सकता है, जो मैं हूं; बाकी सब परिचय है, ज्ञान नहीं है। अपने से दक्षिण के ब्रह्मयोगी, एक साधु ने आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी और पृथक जिसे भी मैं जानता हूं, वह सिर्फ एक्वेनटेंस, परिचय है। जान कलकत्ता तथा रंगून यूनिवर्सिटी में मरने के प्रयोग करके दिखाए थे। तो सिर्फ अपने को सकता हूं; क्योंकि अपने से जो भिन्न है, उसके | वे दस मिनट के लिए मर जाते थे। कलकत्ता यूनिवर्सिटी में दस भीतर मेरा प्रवेश नहीं हो सकता, सिर्फ बाहर घूम सकता हूं। डाक्टर मौजूद थे, जिन्होंने सर्टिफिकेट लिखा कि यह आदमी मर परिचय ही कर सकता हूं, ऊपर-ऊपर से जान सकता हूं, भीतर तो गया है; क्योंकि मृत्यु के जो भी लक्षण हैं चिकित्सा-शास्त्र के पास, नहीं जा सकता। भीतर तो सिर्फ एक ही जगह जा सकता हूं, जहां पूरे हो गए। श्वास नहीं; बोल नहीं सकता; खून में गति नहीं रही; मैं हूं।
ताप गिर गया; नाड़ी बंद हो गई; हृदय की धड़कन नहीं है। सब यह बहुत मजे की बात है, अपना परिचय नहीं होता और दूसरे | सूक्ष्मतम यंत्रों ने कह दिया कि आदमी मर गया। उन दस ने लिखा, का ज्ञान नहीं होता। दूसरे का परिचय होता है, अपना ज्ञान होता है। दस्तखत किए, क्योंकि ब्रह्मयोगी कहकर गए थे कि दस्तखत करके अपना परिचय नहीं होता; क्योंकि अपने बाहर घूमने का उपाय नहीं सर्टिफिकेट, डेथ सर्टिफिकेट दे देना कि मैं मर गया। है। दसरे का ज्ञान नहीं होता. क्योंकि दसरे के भीतर प्रवेश नहीं है। फिर दस मिनट बाद सब वापस लौट आया। श्वास फिर चली
लेकिन हम बड़े अजीब लोग हैं! हम दूसरे का ज्ञान ले लेते हैं और धड़कन फिर हुई; खून फिर बहा; उस आदमी ने आंख भी खोलीं; अपना परिचय कर लेते हैं। हम अपना परिचय कर लेते हैं, जो कि वह बोलने भी लगा; उठकर बैठ गया। उसने कहा, अब आपके हो नहीं सकता। और हम दूसरे के ज्ञान को ज्ञान समझ लेते हैं, जो सर्टिफिकेट के संबंध में मैं क्या मानूं? आप बड़े जालसाज हैं। जिंदा कि हो नहीं सकता। यह अज्ञान की स्थिति है। अज्ञान में मृत्यु है। आदमी को मरने का सर्टिफिकेट देते हैं। उन्होंने कहा, जहां तक हम
जब आप एक व्यक्ति को बुझते देखते हैं—बुझते, मरते नहीं। जानते थे, मौत घट गई थी। इसके आगे हम नहीं जानते। इसलिए बुद्ध ने ठीक शब्द का उपयोग किया है। वह शब्द है, | लेकिन उनमें से एक डाक्टर ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि निर्वाण। निर्वाण का अर्थ है, दीए का बुझना। बस, दीया बुझ जाता उस दिन से मैं फिर मृत्यु का सर्टिफिकेट नहीं दे सका, किसी को है; कोई मरता नहीं। दिखाई पड़ती थी ज्योति, अब नहीं दिखाई | | भी। क्योंकि उस दिन जो मैंने देखा, उससे साफ हो गया कि मृत्यु पड़ती। देखने के क्षेत्र से विदा हो जाती है, अदृश्य में लीन हो जाती | के लक्षण सिर्फ विदा होने के लक्षण हैं। और चूंकि आदमी लौटना है। फिर प्रकट हो सकती है, फिर लीन हो सकती है। यह | । नहीं जानता है, इसलिए हमारे सर्टिफिकेट सही हैं, वरना सब गलत प्रकट-अप्रकट होने का क्रम अनंत चल सकता है। जब तक कि हो जाएं। वह ब्रह्मयोगी लौटना जानता है। ज्योति पहचान न ले कि प्रकट में भी मैं वही हूं, अप्रकट में भी मैं | तीन बार, लंदन, कलकत्ता और रंगून विश्वविद्यालय में उन्होंने वही हूं; न मैं प्रकट होती, न मैं अप्रकट होती, सिर्फ रूप प्रकट होता | मरकर दिखाया और तीनों जगह, पृथ्वी पर पहला आदमी है, जिसने
और अप्रकट होता। वह जो रूप के भीतर छिपा हुआ सत्व है, वह तीन दफे मृत्यु का सर्टिफिकेट लिया! न प्रकट में प्रकट होता, न अप्रकट में अप्रकट होता; न जीवन में | क्या, हुआ क्या? जब ब्रह्मयोगी से चिकित्सक पूछते कि हुआ जीवित होता, न मृत्यु में मरता। तब अमृत का अनुभव है। । क्या, किया क्या? तो वह कहते, मैं सिर्फ सिकोड़ लेता हूं अपने
हम दूसरों को मरते देखकर, बुझते देखकर, हिसाब लगा लेते | जीवन को। जैसे कि सूरज अपनी किरणों को सिकोड़ ले; जैसे कि
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गीता दर्शन भाग-2
फूल अपनी पंखुड़ियों को बंद कर ले; जैसे पक्षी अपने पंखों को | | अमर है ही; किसी चीज से अमर करने की जरूरत नहीं है। चेतना सिकोड़कर और अपने घोंसले में बैठ जाए-ऐसे मैं सिकोड़ लेता | अमर है ही। हूं जीवन को भीतर, भीतर, वहां जहां तुम्हारे यंत्र नहीं पकड़ पाते।। और ऐसा मत सोचना आप कि पदार्थ मरता है और चेतना अमर होता तो मैं हूं ही, इसीलिए वापस लौट आता हूं। फिर खोल देता | | है। पदार्थ भी अमर है; चेतना भी अमर है। पदार्थ इसलिए अमर हूं पंखों को, फिर जीवन के आकाश में उड़ आता हूं-घोंसले के है कि वह जीवित ही नहीं है। जो जीवित हो, वह मर सकता है। बाहर।
पदार्थ कैसे मरेगा? वह जीवित ही नहीं है। पदार्थ इसलिए अमर है हम सबके भीतर वह गुह्य स्थान है, जहां आत्मा सिकुड़ जाए, | कि वह जीवित ही नहीं, उसकी मृत्यु का कोई उपाय नहीं। आत्मा तो फिर यंत्र पता नहीं लगा पाते, इंद्रियां पता नहीं लगा पातीं। इसलिए अमर है कि वह जीवित है, जो जीवित है, वह मर कैसे असल में यंत्र इंद्रियों के एक्सटेंशन से ज्यादा नहीं हैं। यंत्र हमारी सकता है! ही इंद्रियों का विस्तार हैं। आंख है; तो हमने दूरबीन और खुर्दबीन जीवन की कोई मृत्यु नहीं हो सकती, मृत्यु का कोई जीवन नहीं बनाई। वह आंख का विस्तार है, आंख को मैग्नीफाई कर देती है, | हो सकता। पदार्थ का सिर्फ अस्तित्व है, जीवन नहीं। आत्मा का बढ़ा देती है। कान है; तो हमने टेलीफोन बनाया। वह कान का | जीवन भी है और अस्तित्व भी। इस बात को खयाल में रख लें, विस्तार है। मेरा हाथ है; यहां से बैठकर मैं आपको छू नहीं सकता। | एक्झिस्टेंस एंड लाइफ बोथ—आत्मा का। पदार्थ का एक्झिस्टेंस मैं एक डंडा हाथ में पकड़ लं और उससे आपको छऊ. तो डंडा मेरे | ओनली, सिर्फ अस्तित्व है। पदार्थ सिर्फ है। लेकिन पदार्थ को हाथ का विस्तार हो गया।
अपने होने का पता नहीं है। आत्मा है भी और उसे अपने होने का सारे यंत्र हमारी इंद्रियों के विस्तार हैं। अब तक एक भी यंत्र नहीं | भी पता है। बस यह होने का पता उसे जीवन बना देता है। बना, जो हमारी इंद्रियों से अन्य हो, विस्तार न हो। सब एक्सटेंशंस लेकिन हम आत्मा तो हैं, हमें अपने होने का भी पता है, हम हैं। इंद्रियां जिसे नहीं पकड़ पाती, यंत्र कभी-कभी उसे पकड़ता, जीवित भी हैं; लेकिन हम क्या हैं, इसका हमें कोई भी पता नहीं है। सूक्ष्म होता तो, लेकिन जो अतींद्रिय है, उसे यंत्र भी नहीं पकड़ पाता। | होने का पता है, लेकिन क्या हैं, इसका कोई पता नहीं है।
सूक्ष्म हो, इंद्रिय की पकड़ के बाहर हो, तो यंत्र पकड़ लेता है। __होने का पता हो और यह पता न हो कि क्या हैं, तो अज्ञान की लेकिन जो अतींद्रिय है, सूक्ष्म नहीं—अतींद्रिय, इंद्रियों के पार, । | स्थिति है। होने का पता हो और यह भी पता हो कि क्या हैं, तो ज्ञान पैरासाइकिक उसको फिर यंत्र भी नहीं पकड पाता।
की स्थिति है। अज्ञानी में उतनी ही आत्मा है. जितनी ज्ञानी में जीवन-ऊर्जा पैरासाइकिक है, अतींद्रिय है, इसलिए कोई यंत्र रत्तीभर कम नहीं है। लेकिन अज्ञानी अपने प्रति बेहोश है। ज्ञानी उसकी गवाही नहीं दे सकता। इस जीवन-ऊर्जा को जानने का एक | अपने प्रति होश से भरा हुआ है। ही उपाय है; वह इंद्रियों के द्वारा नहीं, इंद्रियों के पीछे सरककर; | ऐसे व्यक्ति जो ज्ञान-अमृत को उपलब्ध हो जाते हैं, वे परलोक इंद्रियों के माध्यम से नहीं, इंद्रियों के माध्यम को छोड़कर। ज्ञानी | | में परम परात्पर ब्रह्म को पाते हैं। इंद्रियों के माध्यम को छोडकर स्वयं को जानता है। और एक क्षण | परलोक का क्या अर्थ? क्या मरने के बाद? भी यह झलक मिल जाए स्वयं की, तो वह अमृत उपलब्ध हो | खयाल है कि परलोक का अर्थ मरने के बाद है। लेकिन जब आत्मा जाता है, जिसकी कोई मृत्यु नहीं; वह सत्व दिखाई पड़ जाता है, | | मरती ही नहीं, तो मरने के बाद परलोक का अर्थ ठीक नहीं है। जिसका कोई प्रारंभ नहीं, कोई अंत नहीं। ज्ञानी अमृत को उपलब्ध परलोक इस लोक के साथ, यहीं और अभी मौजूद है, जस्ट बाई दि हो जाते हैं।
कार्नर। परलोक कहीं मरने के बाद और नहीं है। परलोक यहीं और इसलिए कृष्ण ने कहा, ज्ञानरूपी अमृत। कह सकते हैं, | अभी मौजूद है। पर हमें उसका कोई पता नहीं है। जिसे अपना पता अज्ञानरूपी विष, अज्ञानरूपी मृत्यु; ज्ञानरूपी अमृत, ज्ञानरूपी | नहीं, उसे परलोक का पता नहीं हो सकता; क्योंकि परलोक में जाने अमृतत्व।
का द्वार स्वयं का अस्तित्व है, स्वयं का ही होना है। वह जो अल्केमिस्ट कहते हैं कि हम खोज रहे हैं वह तत्व, | जिसे अपना पता है, वह एक ही साथ परलोक और लोक की जिससे आदमी अमर हो जाए। वे कभी न खोज पाएंगे। आदमी देहली पर, बीच में खड़ा हो जाता है। इस तरफ झांकता है तो लोक,
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ॐ मृत्यु का साक्षात
उस तरफ झांकता है तो परलोक। बाहर सिर करता है तो लोक, जैसे एक आदमी अपने मकान के दरवाजे की देहली पर बैठ भीतर सिर करता है तो परलोक। परलोक अभी और यहीं है। | जाए आंख बंद करके, तो न घर दिखाई पड़े, न बाहर दिखाई पड़े।
ब्रह्म कहीं दूर नहीं, आपके बिलकुल पड़ोस में, आपके पड़ोसी | फिर एक आदमी बाहर की तरफ देखे, तो भीतर का दिखाई न पड़े। से भी ज्यादा पड़ोस में है। आपके बगल में जो बैठा है आदमी, | | फिर एक आदमी मुड़कर खड़ा हो जाए, भीतर का दिखाई पड़े, तो उसमें और आपमें भी फासला है। लेकिन उससे भी पास ब्रह्म है। | बाहर का दिखाई न पड़े। ऐसी तीन स्थितियां हुईं। आपमें और उसमें फासला भी नहीं है।
लोक की, जब हम बाहर देख रहे हैं, कांशसनेस, चेतना बाहर जब जरा गर्दन झुकाई देख ली
की तरफ जाती हुई। परलोक, चेतना भीतर की तरफ जाती हुई। दिल के आईने में है तस्वीरे-यार।
निद्रा, चेतना किसी तरफ जाती हुई नहीं, सो गई है। परलोक यहीं बस, इतना ही फासला है, गर्दन झुकाने का। यह भी कोई | है, अभी है। फासला हुआ!
कृष्ण जब कहते हैं कि परलोक में ऐसा पुरुष आनंद को उपलब्ध बाहर लोक है, भीतर परलोक है।
होता है, तो क्या इसका यह मतलब है कि जिस व्यक्ति ने ब्रह्म को तो ध्यान रखें, लोक और परलोक का विभाजन समय में नहीं जाना, आत्मा की अमरता को जाना, वह मरने के बाद आनंद को है, स्थान में है। इस बात को ठीक से खयाल में ले लें। लोक और उपलब्ध होगा? अभी नहीं होगा? नहीं, अभी हो जाएगा, यहीं हो परलोक का विभाजन टाइम डिवीजन नहीं है। कि मैं मरूंगा, मरने जाएगा। की घटना या विदा होने की घटना समय में घटेगी। आज से समझें लेकिन जो व्यक्ति इस अमृत को नहीं जानता, वह उस परलोक कल मरूंगा, दस साल बाद मरूंगा, घंटेभर बाद मरूंगा-समय | में, उस भीतर के लोक में, उस पार के लोक में, कैसे आनंद को में। समय, घंटा बीत जाएगा, तब मैं मरूंगा। फिर उस मरने के बाद उपलब्ध होगा? वह तो बाहर के लोक में भी आनंद को उपलब्ध जो होगा, वह परलोक होगा।
नहीं हो पाता। वह संसार में भी दुख पाता है। वह बाहर भी दुख हमने अब तक परलोक को टेंपोरल समझा है, टाइम में बांटा | पाता है और भीतर भी दुख पाता है। इसे ठीक से समझ लें। है। परलोक भी स्पेसिअल है, स्पेस में बंटा है, टाइम में नहीं। बाहर इसलिए दुख पाता है कि जिसको यह खयाल है कि मृत्यु अभी-यहीं, लोक भी मौजूद है, परलोक भी मौजूद है। पदार्थ भी |
| है, वह बाहर कभी सुख नहीं पा सकता। मृत्यु का खयाल बाहर के मौजूद है, परमात्मा भी मौजूद है। अभी-यहीं! फासला समय का | सब सुखों को विषाक्त कर जाता है, पायजनस कर जाता है। बाहर नहीं, फासला सिर्फ स्थान का है।
| अगर सुख लेना है थोड़ा-बहुत, तो मृत्यु को बिलकुल भूलना और स्थान का भी फासला हमारी दृष्टि का फासला है, अटेंशन | | पड़ता है। इसलिए हम मृत्यु को भुलाने की कोशिश करते हैं। का फासला है। अगर हम बाहर की तरफ ध्यान दे रहे हैं, तो लेकिन ध्यान रहे, जिसे भी हम भुलाते हैं, उसकी और याद परलोक खो जाता है। अगर हम परलोक की तरफ ध्यान दें, तो | आती है। स्मृति का नियम है, भुलाएं, याद आएगी। करें कोशिश, लोक खो जाता है।
जिसे भी भुलाने की, उसकी और भी याद आएगी। किसी को भूल रात आप सो जाते हैं, तब लोक खो जाता है; परलोक शुरू नहीं जाना चाहते हैं। किसी को प्रेम किया और अब स्मृति दुख देती है; होता, लोक खो जाता है। रात जब आप सोते हैं, तब आपको याद भूल जाना चाहते हैं। तो भुलाने की कोशिश करें, और याद रहता है कि बाजार में आपकी एक दुकान है ? कि आपका एक बेटा आएगी। क्यों? क्योंकि भुलाने की कोशिश में भी तो याद करना है? कि आपकी एक पत्नी है? कि आपका बैंक बैलेंस इतना है? पड़ता है। मैं चाहता हूं, किसी को भूल जाऊं। तो जब भी चाहता कि आप कर्जदार हैं ? कि लेनदार हैं? जब आप सोते हैं, तो लोक हूं भूल जाऊं, तब भी याद करना पड़ता है। और याद गहन होती खो जाता है एकदम; परलोक शुरू नहीं होता! निद्रा, लोक और चली जाती है। परलोक के बीच में है। निद्रा मूर्छा है। लोक भी खो जाता है। मृत्यु को हम सब भुलाने की कोशिश किए हुए हैं, इसलिए परलोक भी शुरू नहीं होता। ध्यान भी लोक और परलोक के बीच | मरघट हम गांव के बाहर बनाते हैं। बीच में बनाना चाहिए, में है। लोक खोता है, परलोक शुरू हो जाता है।
| नियमानुसार; क्योंकि मृत्यु जीवन का केंद्रीय तथ्य है। तथ्य, सत्य
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नहीं। ट्रथ नहीं, फैक्ट। तथ्य है, केंद्र पर जीवन के। | डिटेरिओरे होता हुआ शरीर है! फूल से ढांक देते हैं, ताकि फूल
मौत प्रतिक्षण घटित हो सकती है। जो घटना प्रतिक्षण घटित हो | | दिखाई पड़ें, मरता हुआ शरीर दिखाई न पड़े। सकती है, उसको गांव के बाहर रखना ठीक नहीं है। अर्थी निकलती | ___ आदमी मरता, उसकी लाश ले जाते। जिस आदमी ने जिंदगीभर है द्वार से, तो लोग घर का दरवाजा बंद करके बच्चों को भीतर कर राम का नाम नहीं लिया, और जिन्होंने कभी राम का नाम नहीं लेते हैं, भीतर आ जाओ!
| लिया, वे भी उसकी अर्थी के साथ राम नाम सत्य है, कहते हुए जाते मौत याद न आ जाए! क्योंकि जिसे मौत याद आ गई, उसके। | हैं! क्या बात है? अटेंशन हटा रहे हैं, मौत से हट जाए। अगर कुछ जीवन में संन्यास को ज्यादा देर नहीं है। जो मौत को भुला ले, वही | | न कहते हुए चुपचाप लोग अर्थी के साथ जाएं, तो अर्थी को भूलना संसार में हो सकता है। जिसको मौत स्मरण आ जाए, उसका संसार | मुश्किल हो जाए। कुछ कहते हुए जाते हैं; अर्थी को भूलना आसान संन्यास बनने लगता है।
हो जाता है। अपने कहने में लग जाते हैं। राम की आड में मौत को इसलिए मौत को छिपाते हैं, हजार ढंग से छिपाते हैं। गांव के | छिपाने की कोशिश करते हैं। हालांकि राम उन्हीं को मिलता है, जो बाहर बनाते हैं मरघट। मरा नहीं आदमी कि ले जाने की इतनी जल्दी | मौत को पार करते, आमना-सामना करते; उनको नहीं, जो राम की पड़ती है, जिसका हिसाब नहीं! इतनी जल्दी? रहने दें थोड़ी देर! | | आड़ में मौत को छिपाने की कोशिश करते हैं! लोगों को देख लेने दें: स्मरण कर लेने दें कि यही घटना उनकी भी मृत्यु भुलाते हैं हम, जानते नहीं। जो भुलाता है, उसे याद आती घटने वाली है।
चली जाती है। जो जानता है, उसके लिए समाप्त हो जाती है, होती नहीं; बड़ी जल्दी मचती है। घर के लोग रोने-धोने में, | ही नहीं। यह जो हमारा भुलावा चल रहा है जिंदगी में, इससे हम पास-पड़ोस के लोग विदा करने में एकदम तीव्रता करते हैं। क्या कभी भूल नहीं पाते। हर जगह उसकी खबर मिल जाती है। कारण है? इतनी जल्दी क्या है? जिस आदमी को वर्षों चाहा और फल सबह खिलता और सांझ मा जाता. और कह जाता कि प्रेम किया, उसको विदा करने की इतनी शीघ्रता क्या है? मौत। प्रेम घड़ीभर खिलता और सूख जाता, और खबर दे जाता,
शीघ्रता का आंतरिक कारण है, मनोवैज्ञानिक। मरे हुए की मौत है। जवानी आती और चली जाती, और खबर दे जाती, मौत मौजूदगी हमें अपने मरे होने की खबर लाती है। जल्दी ले जाओ। है। हरे पत्ते लगते और पतझड़ में झड़ जाते, और खबर दे जाते, जमीन में गड़ाओ कि आग लगाओ। मिटाओ, निशान हटाओ। मृत्यु मौत है। सुबह सूरज उगता और सांझ डूबने लगता, और खबर दे का निशान न रह जाए जीवन के पर्दे पर कहीं; उसे अलग कर दो। | जाता, मौत है।
और मजे की बात यह है कि जन्म के बाद अगर कोई चीज की | जिसकी जिंदगी में अभी अमृत का पता नहीं चला, उसका सब सरटेंटी है, कोई चीज निश्चित है, तो वह मृत्यु है। जन्म के बाद | विषाक्त हो जाता है, सब पायजंड हो जाता है। कोई सुख हो नहीं अगर कोई चीज प्रेडिक्टेबल है, किसी चीज की भविष्यवाणी की | सकता। जब तक मृत्यु की कालिमा पीछे खड़ी है, सब सुख अंधेरे जा सकती है, तो वह मृत्यु है। बाकी किसी चीज की भी | हो जाते हैं। भविष्यवाणी की नहीं जा सकती। भविष्यवाणी का यह मतलब नहीं | | सच तो यह है कि सुख के क्षण में मृत्यु की कालिमा और गहन कि तारीख और दिन बताया जा सकता है। भविष्यवाणी का यह | | होकर दिखाई पड़ती है। दुख के क्षण में उतनी गहन नहीं होती; सुख मतलब कि मृत्यु होगी, इतना तय है। बाकी सब चीजें हों भी, न भी | के क्षण में बहुत गहन हो जाती है। हों। विवाह हो भी सकता है. न भी हो। स्वास्थ्य रहे भी, न भी रहे। कीर्कगार्ड ने लिखा है कि प्रेम के क्षण में मत्य जितनी प्रगाढ बीमारी आए भी, न भी आए। धन मिले भी, न भी मिले। लेकिन | | मालूम होती है, उतनी कभी नहीं मालूम होती। मृत्यु के बाबत ऐसा नहीं कहा जा सकता कि हो भी, न भी हो। ___ अगर कृष्णमूर्ति को सुनें, अगर वे डेथ पर बोलना शुरू करें, तो
जो इतनी निश्चित है घटना, उसे हम बाहर रखते हैं और कई लव पर जरूर बोलेंगे। अगर लव पर बोलना शुरू करें, तो डेथ पर चीजों से भुलाते हैं। कैसे-कैसे भुलाने का उपाय करते हैं! अर्थी पर जरूरत बोलेंगे—उसी भाषण में, बाहर नहीं जा सकते वे। अगर फूल ढांक देते हैं-ईसाई ढंग भुलाने का। फूलों से ढांक देते हैं वह प्रेम पर बोलना शुरू करेंगे, तो अनिवार्य मानना कि मृत्यु पर अर्थी को। फूलों के नीचे सड़ा हुआ शरीर है, सड़ता हुआ, | | बोलकर रहेंगे। अगर मृत्यु पर बोलेंगे, तो प्रेम पर बोलकर रहेंगे।
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बात क्या है?
| अभिशाप भी वरदान हो जाते हैं। कृष्णमूर्ति जैसे आदमी को साफ पता है कि जहां भी प्रेम है; जहां । लेकिन अदभुत है मन! एक युवक ने कल संन्यास लिया। मां प्रेम की, सुख की झलक आई, वहां तत्काल पता लगता है कि जिसे | | को, पिता को, वरदान मालूम पड़ना चाहिए। लेकिन मां मेरे पास हम प्रेम कर रहे हैं, वह भी मरेगा; जो प्रेम कर रहा है, वह भी मर | आई। छाती पीटकर रोती है; कहती है, मैं जहर खाकर मर जाऊंगी; जाएगा; बीच में जो प्रेम बह रहा है, वह भी मर जाएगा। | ये कपड़े उतरवा दो! वह मां कहती है, मेरे तीन बच्चे पहले मर
प्रेम के सघन क्षण में मृत्यु बहुत प्रगाढ़ होकर दिखाई पड़ती है। चुके। मेरा मन उससे पूछने का होता है, लेकिन पूछता नहीं कि प्रेम सुख लाता है, पीछे से मृत्यु का स्मरण ले आता है। जहां-जहां तीन बच्चे मर गए, तब तूने जहर नहीं खाया! और इसने अभी कुछ सुख है, वहां-वहां मौत पीछे खड़ी हो जाती है। इसलिए तो सुख भी नहीं किया, गेरुआ वस्त्र ऊपर डाले हैं, तू जहर खाकर मर क्षणभंगुर है। हम ले भी नहीं पाते, और मौत उसे हड़प जाती है। | | जाएगी? यह तेरा लड़का चोर हो जाता, तब तू जहर खाकर मरती?
जिसको भीतर के अमृत का पता नहीं, वह परलोक में तो आनंद | | यह लड़का बेईमान हो जाता, तब तू जहर खाकर मरती? यह पा ही नहीं सकता, इस लोक में भी सिर्फ दुख पाता है। लड़का पोलिटीशियन हो जाता, तब तू जहर खाकर मरती?
दूसरी बात भी कह देने जैसी है कि जो परलोक में आनंद पाता | नहीं, तब अभिशाप भी वरदान मालूम होते हैं। अभी वरदान है, वह इस लोक में भी आनंद पाता है। ये जुड़े हुए हैं। जिसे भीतर | उतरा है इस लड़के के ऊपर, मां को नाचना चाहिए; पिता को
आनंद मिला, उसे बाहर भी आनंद ही आनंद हो जाता है। ध्यान | आनंद मनाना चाहिए। फिर यह कहीं जा नहीं रहा है छोड़कर; घर रखें, उसकी सारी दृष्टि बदल जाती है।
ही रहेगा। लेकिन नहीं; अज्ञान में वरदान भी अभिशाप मालूम पड़ते जिसे भीतर आनंद नहीं मिला, उसे वसंत में भी मृत्यु नजर आती | | हैं। ज्ञान में अभिशाप भी वरदान हो जाते हैं। वह छाती पीटती है, है, पतझड़ दिखाई पड़ता है। उसे बच्चे में भी बुढ़ापे की दृष्टि, बच्चे | | रोती है। नहीं; कुछ आकस्मिक नहीं है। बड़ा स्वाभाविक है। के पीछे भी बूढ़े का जीर्ण-जर्जर शरीर दिखाई पड़ता है। उसे जवानी | | अज्ञान बड़ा स्वाभाविक है, आकस्मिक नहीं है। की तरंगों में भी मौत का गिर जाना और मिट जाना दिखाई पड़ता | | बुद्ध जैसे व्यक्ति ने भी संन्यास लिया और जब बारह वर्ष के है। उसे सुख के क्षण में भी पीछे खड़े दुख की प्रतीति होती है। जिसे | | बाद ज्ञान के सूर्य को जगाकर घर वापस लौटे, तब भी बाप को अभी पता है कि मृत्यु है, अज्ञान में सब सुख दुख हो जाते हैं। । | दिखाई नहीं पड़ा कि बेटे का जीवन रूपांतरित हुआ है। बाप बारह
ज्ञान में सब दुख भी सुख हो जाते हैं। फिर उस तरह के व्यक्ति | साल बाद आए बुद्ध को...उन्हें दिखाई न पड़ा कि लाखों लोगों की को पतझड़ में भी आने वाले वसंत की पदचाप सुनाई पड़ती है। वृक्ष जिंदगी में बुद्ध से रोशनी पहुंची है। दस हजार भिक्षु बुद्ध के साथ से सूखे गिरते पत्ते में भी नए पत्ते के अंकुरित होने की ध्वनि का बोध पीछे खड़े हैं। उनके पीत वस्त्रों में उनके भीतर का प्रकाश झलकता होता है। सांझ डूबते हुए सूरज में भी सुबह के उगने वाले सूरज की है। लेकिन बाप ने गांव के दरवाजे पर यही कहा कि मैं तुझे अभी तैयारी का पता चलता है। विदा होते बूढ़े में भी पैदा होने वाले बच्चों | भी माफ कर सकता हूं; बाप हूं। वापस लौट आ। यह भूल छोड़। के जन्म की खबर मिलती है। मृत्यु का द्वार भी उसे जन्म का द्वार | बहुत हो चुका। यह नासमझी बंद कर। मुझ बूढ़े को इस बुढ़ापे में, बन जाता है। अंधेरा भी उसे प्रकाश की पर्व भूमिका मालम पड़ती मृत्यु के निकट होने में दुख मत दे! बाप को नहीं दिखाई पड़ सका है। सुबह अंधेरा जब गहन हो जाता है, तब भी वह जानता है, आने | कि किससे वे कह रहे हैं। वाली भोर निकट है। अंधेरा उसे भोर का स्मरण; मृत्यु उसे जन्म बुद्ध हंसने लगे। बुद्ध ने कहा, गौर से तो देखें। बारह वर्ष पहले का स्मरण; दुख भी उसे सुख को लाता हुआ मालूम पड़ता है। दृष्टि | | जो घर से गया था, वही वापस नहीं लौटा है। वह तो कभी का जा बदल जाती है; सब उलटा हो जाता है।
चुका। यह कोई और है। जरा गौर से तो देखें! अज्ञान में सुख भी दुख बन जाता है। ज्ञान में दुख भी सुख बन | लेकिन बाप ने कहा, तू मुझे सिखाएगा? मैं तुझे जानता नहीं? जाता है। अज्ञान में जन्म भी मृत्यु की ही खबर है। ज्ञान में मृत्यु भी मेरा खून बहता है तेरी नसों में। मैं तुझे जितना जानता हूं, उतना कौन जन्म की ही सूचना है। अज्ञान में वरदान भी अभिशाप ही होंगे; तुझे जान सकता है? वरदान नहीं हो सकते। ज्ञान में वरदान तो वरदान होते ही हैं, बुद्ध ने कहा, आप अपने को ही जान लें तो काफी है। मुझे जानने
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गीता दर्शन भाग-2
के भ्रम में मत पड़ें। क्योंकि दूसरे को जानने के भ्रम में वही पड़ता है, जो स्वयं को नहीं जानता है।
बाप की तो आग भड़क गई। क्रोध भारी हो गया। और कहा, यह मैंने सोचा भी न था कि तू अपने ही बाप से इस तरह की बातें बोलेगा !
बुद्ध जैसा बेटा भी घर में हो, तो बाप के लिए अभिशाप मालूम पड़ता है! अज्ञान सब वरदानों को अभिशाप कर लेता है, सब फूलों को कांटा बना लेता है। ज्ञान कांटों को भी फूल बना लेता है । दृष्टि बदली कि सब बदल जाता है।
जिसे परलोक में आनंद है, अंतःलोक में आनंद है, उसे बाहर जगत में दुख की कोई रेखा भी शेष नहीं रह जाती। और जिसे बाहर के लोक में दुख है, उसे भीतर के लोक का कोई पता ही नहीं होता है, आनंद की तो बात मुश्किल है। इसलिए कृष्ण कहते हैं अर्जुन से कि ज्ञानरूपी अमृत को पाकर आनंद की वर्षा हो जाती है। अज्ञानरूपी विष में जीते हुए सिवाए दुखों के गहन सागर, अतल सागर के अतिरिक्त कुछ भी हाथ नहीं लगता है।
प्रश्न : भगवान श्री, आपने अभी कहा कि ज्ञानी अपने प्रति जागा हुआ है और अज्ञानी अपने प्रति सोया हुआ है, बेहोश है। कृपया बताएं कि अज्ञानी की बेहोशी के क्या-क्या कारण हैं?
अ
ज्ञानी की बेहोशी और निद्रा का कारण क्या है? ज्ञानी होश और जागरण का भी कारण क्या है? तीन बातें हैं। एक, अज्ञान अकारण है। पहली बात, कठिन पड़ेगी समझनी, अज्ञान अकारण है। अकारण क्यों ? क्योंकि अज्ञान स्वाभाविक है, नेचुरल है। स्वाभाविक क्यों ? जागने के पहले निद्रा स्वाभाविक है। होश के पहले बेहोशी स्वाभाविक है। जन्म के पहले गर्भ स्वाभाविक है। युवा होने के पहले बचपन स्वाभाविक है। बूढ़े होने के पहले जवानी स्वाभाविक है। अज्ञान, ज्ञान का विरोध ही नहीं है, ज्ञान की पूर्व अवस्था भी है।
जब हम अज्ञान को ज्ञान के विरोधी की तरह लेते हैं, तब कठिनाई शुरू होती है। अज्ञान ज्ञान का विरोध नहीं है। ज्ञान का
विरोध, मिथ्या ज्ञान है । यह जरा कठिन पड़ेगा। फाल्स नालेज, मिथ्या ज्ञान, ज्ञान का विरोध है। अज्ञान ज्ञान का अभाव मात्र है।
एक आदमी सोया है। सोना जागने के विपरीत नहीं है; सिर्फ | जागने की पूर्व अवस्था है। जो भी सोया है, वह जाग सकता है। सोने में से जागना निकलता है। सोना बीज है; जागना अंकुर है। | बीज दुश्मन नहीं है अंकुर का; बीज अंकुर की भूमि है, वहीं से तो पैदा होगा।
लेकिन हम आमतौर से अज्ञान को ज्ञान के विपरीत मान लेते हैं। इसलिए कठिनाई में पड़ते हैं। हम मान लेते हैं, अज्ञान विरोध है। अगर अज्ञान बुरा है, उसे मिटाना है, तो फिर है ही क्यों ? उसका कारण क्या है ?
नहीं; अज्ञान विपरीत नहीं है ज्ञान अज्ञान ज्ञान का पहला चरण है। अज्ञान ज्ञान का बीज है । और परमात्मा भी सीधा ज्ञान नहीं ला सकता, अज्ञान से ही ला सकता है। वह भी सीधा वृक्ष नहीं ला सकता, बीज से ही ला सकता है। असल में बीज वृक्ष का बिल्ट-इन-प्रोग्रैम है। बीज जो है, वह होने वाले वृक्ष का ब्लूप्रिंट है। अब वैज्ञानिक कहते हैं कि बीज को अगर हम पूरा जान सकें, तो हम चित्र बनाकर बता सकते हैं कि वृक्ष की शाखा कितनी बाएं घूमेगी, कितनी शाखाएं होंगी, कितने पत्ते होंगे, कितने फल लगेंगे, | कितने फूल कितने बीज । अगर हम बीज का पूरा रहस्य जान सकें, | तो हम वृक्ष की पूरी तस्वीर बनाकर रख देंगे कि ऐसा होगा । और वैसा ही होगा।
लेकिन बीज को तोड़ना पड़ता है वृक्ष होने के पहले। अगर बीज बीज ही रहने की जिद करे, तब खतरा है। बीज के होने में खतरा
है। बीज तो सहयोगी है वृक्ष के लिए। अगर ठीक से समझें | तो बीज छिपा हुआ वृक्ष है। अज्ञान छिपा हुआ ज्ञान है; दुश्मन नहीं, मित्र। लेकिन बीज अगर जिद करे कि मैं बीज ही रहूंगा, तब | दुश्मन हुआ। बीज कह दे कि मैं अपनी खोल को तोडूंगा नहीं, मैं मिट्टी मिलूंगा नहीं, मैं मिटूंगा नहीं, मैं तो रहूंगा, तब फिर | बिल्ट-इन-प्रोग्रैम की दुश्मनी शुरू हो गई।
अज्ञान अपने में विरोध नहीं है। अज्ञान तो तब विरोध बनता है, | जब अज्ञान कहता है कि मैं रहूंगा। और कब कहता है अज्ञान ? जब मिथ्या ज्ञान से भरता है तब कहता है कि मैं रहूंगा। अज्ञान तब कहता है कि मैं मिटूंगा नहीं, क्योंकि मैं तो खुद ही ज्ञान हूं।
गीता पढ़ ली किसी ने । कृष्ण ने जो कहा, कंठस्थ कर लिया। पता नहीं कुछ मालूम नहीं कुछ। जाना नहीं कुछ। कहने लगे,
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मृत्यु का साक्षात
आत्मा अमर है। अब खतरा है। बीज कह रहा है कि मैं वृक्ष हूं। मैं | अब होने की कोई जरूरत न रही। अब बीज जिद करेगा कि हूं ही।
उधार ज्ञान मिथ्या ज्ञान है । अपना ज्ञान सम्यक ज्ञान है, राइट नाज है। स्वयं जाना, तो वृक्ष हो जाएंगे। दूसरे के जाने को पकड़ा और कहा कि मेरा ही जानना है, तो फिर बीज ही रह जाएंगे । तो यह मत पूछिए, अज्ञान का कारण क्या है ? अज्ञान का कारण तो यही है कि ज्ञान होने के लिए अज्ञान से ही गुजरना अनिवार्य है। जाने के पहले नींद से गुजरना अनिवार्य है। सुबह के पहले रात गुजरना अनिवार्य है।
से
सुबह होगी ही नहीं, अगर रात न हो। कैसे होगी सुबह ? रात न हो, तो सुबह न होगी। इसलिए जो गहरा देखते हैं, वे मानते हैं, रात सुबह के आने की तैयारी है, जस्ट प्रिपरेशन; सुबह हो सके, इसकी पूर्व भूमिका है। सुबह के लिए ही रात है गर्भ, सुबह है जन्म। रात प्रेगनेंट है सुबह से; उसके गर्भ में छिपी है सुबह। रात मां है, सुबह बेटा है। अज्ञान मां है, ज्ञान बेटा है। उससे ही होगा।
नहीं कोई विरोध है। कारण की कोई बात नहीं। ऐसा नियम है, अगर विज्ञान की भाषा में कहें तो ।
अगर वैज्ञानिक से पूछें कि हाइड्रोजन और आक्सीजन मिलकर पानी क्यों बनता है, क्या कारण है? तो वह कहेगा, बनता है; कारण नहीं है। इट इज़ सो, ऐसा है, ऐसी प्रकृति है । विज्ञान कहेगा, ऐसा है। ऐसा जीवन का नियमन है, दिस इज़ दिला, अल्टिमेट ला, आखिरी नियम है। अंडे से मुर्गी पैदा होती है, ऐसा है ।
एक वैज्ञानिक से कोई पूछ रहा था कि अंडे और मुर्गी में फर्क क्या है? तो उसने कहा कि अंडा मुर्गी के पैदा होने की राह है, मार्ग है, दिवे; मुर्गी के पैदा होने का ढंग ।
ज्ञान अज्ञान से जगता है, अज्ञान से पैदा होता है। रुकावट पड़ती है मिथ्या ज्ञान से । इसलिए मैं बताना चाहूंगा कि मिथ्या ज्ञान का कारण क्या है? उसका कारण है, आलस्य, लिथार्जी।
दूसरे का ज्ञान मुफ्त में मिल जाए, तो अपने ज्ञान को खोजने की मेहनत कौन करे, क्यों करे ! प्रमाद। मुफ्त मिल जाए, तो खरीदने कौन जाए! सड़क पर पड़ा हुआ मिल जाए !
लेकिन ज्ञान के साथ यह खराबी है कि सड़क पर पड़ा हुआ कभी नहीं मिलता। और मिलता हो, तो झूठा सिक्का होगा। ज्ञान मिलता स्वयं की चेष्टा से है, श्रम से है, तपश्चर्या से है। अन्यथा नहीं
मिलता है।
आलस्य मिथ्या ज्ञान को पकड़ा देता है। कहता है, क्या जरूरत! जब कृष्ण को पता है, तो हम और नाहक क्यों खोजें? कृष्ण का ही वाक्य रट लें, न हन्यमाने - रट लें कृष्ण को ही, न हन्यते हन्यमाने शरीरे नहीं मरता शरीर के मरने से कोई । कंठस्थ कर लें। नाहक ध्यान, तप, योग, इस उपद्रव में हम क्यों पड़ें? जब तुम्हें पता ही है, तुमने हमें बता दिया; हमने याद कर लिया। लेकिन यह होगी मेमोरी, ज्ञान नहीं । यह होगी स्मृति, याददाश्त, ज्ञान नहीं ।
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आलस्य कारण है मिथ्या ज्ञान का। और अहंकार कारण है मिथ्या ज्ञान का। और आलस्य और अहंकार एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जहां-जहां अहंकार, वहां-वहां आलस्य । जहां-जहां आलस्य, वहां-वहां अहंकार । सघन हो गया आलस्य ही तो अहंकार है। फैल गया अहंकार ही तो आलस्य है।
अहंकार क्यों? क्योंकि मैं अज्ञानी हूं, ऐसा मानना अहंकार के लिए कठिन पड़ता है । और जो यह नहीं मान पाता कि मैं अज्ञानी हूं, वह तो ज्ञान के अंडे को ही, बीज को ही इनकार कर रहा है। मुर्गी तो कभी फिर पैदा नहीं होगी।
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इसलिए ज्ञान की पहली शर्त है, अज्ञान की स्वीकृति । और अज्ञान को बचाना हो, तो पहली शर्त है, अज्ञान का अस्वीकार । अज्ञान है ही नहीं; मैं जानता ही हूं; फिर बात ही समाप्त हो गई।
इसलिए उपनिषद कहते हैं, अज्ञानी तो भटकते ही हैं, ज्ञानी और भी बुरी तरह भटक जाते हैं । अज्ञानी तो अंधकार में पड़ते ही हैं, ज्ञानी महाअंधकार में पड़ जाते हैं। बड़ा अदभुत वचन है।
किन ज्ञानियों की बात हो रही है? उन ज्ञानियों की बात हो रही है, जो मिथ्या ज्ञानी हैं। मिथ्या ज्ञान का कारण है, आलस्य । मुफ्त मिले, हम क्यों श्रम करें! पचा- पचाया मिले, तो हम क्यों चबाएं ! हम ऐसे ही लील जाएं। यह नहीं हो सकता।
कारण है अहंकार । मन मानने को राजी नहीं होता कि मैं अज्ञानी हूं। कहता है, मैं जानता ही हूं। जो हम नहीं जानते, उसको भी हम कहते हैं कि हम जानते हैं। हम स्वीकार करने को तैयार ही नहीं होते कि हम अज्ञानी हैं। हम अपने अज्ञान को भी सिद्ध करने में लगे | रहते हैं कि यही ज्ञान है।
सारी दुनिया में जितने विवाद हैं, वे अज्ञान को सिद्ध करने के विवाद हैं। इस दुनिया में जितने झगड़े हैं, वे सत्य के झगड़े नहीं हैं; वे अज्ञानियों के अपने अज्ञान को सिद्ध करने के झगड़े हैं। और अज्ञानी अपने अज्ञान को सिद्ध करने के लिए ज्ञानियों कंधों तक पर बंदूक रख लेते हैं! उनके पीछे खड़े हो जाते हैं और
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गीता दर्शन भाग-200
उपद्रव मचाते हैं।
इसका हम क्या उपयोग कर सकते हैं, उसे करने में लगें। और आगे अज्ञान अज्ञान है, ऐसा जिसने जाना, उसके ज्ञान की पहली क्यों में न जाएं। क्योंकि क्यों का कोई अंत नहीं है, हमारा अंत है। किरण फूट गई। अज्ञान अज्ञान है, ऐसा जिसने पहचाना—यह हम क्यों पूछते-पूछते समाप्त हो जाएंगे। बहत बडा ज्ञान है. यह छोटा ज्ञान नहीं है। अज्ञान को जानना कि इसलिए बद्ध के पास जब भी कोई आता. तो वे कहते कि तम अज्ञानी हूं मैं, बहुत बड़ी घटना है, शायद सबसे बड़ी घटना है। | | क्रांति के लिए आए, अपने को बदलने के लिए आए, या कि सिर्फ फिर जो भी घटेगा, इससे छोटा है।
जवाब चाहिए? अगर सिर्फ जवाब चाहिए, तो किताबों में काफी जिस व्यक्ति को पता चल गया कि मैं सोया हूं, उसका जागरण हैं, पंडितों के पास बहुत हैं; फिर मुझे परेशान मत करो। अगर शुरू हो गया। क्योंकि नींद में कभी पता नहीं चलता कि मैं सोया | जीवन में क्रांति चाहिए, तो फिर वही पूछो, जिससे क्रांति घटित हो हूं। अगर आपको पता चल गया कि नींद में हूं, तो पता चल गया सकती है। वह मत पूछो, जिसका कोई प्रयोजन नहीं, असंगत है, है कि जागा हूं। क्योंकि पता किसको चलेगा? आपने जाना कि इररेलेवेंट है। अज्ञानी हूं, तो वह जानने वाला भीतर खड़ा हो गया, जो अज्ञान को इसलिए बुद्ध तो जिस गांव में जाते, उस गांव में डुंडी पिटवा जानता है। और जो अज्ञान को जानता है, वह ज्ञान है। टु बी अवेयर | देते, ग्यारह प्रश्न कोई न पूछे। ये प्रश्न कोई पूछे ही न। क्योंकि इन आफ वन्स इग्नोरेंस, अपने अज्ञान के प्रति होश से भर जाना पहला प्रश्नों को पूछने वाला पूछता ही चला जाता है। कदम है। पहला भी, शायद अंतिम भी। क्योंकि फिर सब इसी से नहीं, असली सवाल यह नहीं है कि आलस्य और अहंकार क्यों निकलता है। अंकुर फूट गया। क्रांति घटित हो गई। बीज टूट गया, | हैं। असली सवाल यह है कि कैसे मिटेंगे? व्हाई दे आर, यह अंकुर फूट गया; अब वृक्ष बड़ा हो जाएगा। वह अंकुर का ही | असली सवाल नहीं है। क्यों हैं? हैं। विस्तार है, कोई नई घटना नहीं है।
लेकिन जिंदगी में हम कभी ऐसे सवाल नहीं पूछते। एक आदमी असली क्रांति तो उस वक्त है, जब बीज टूटता है और अंकुर | को मकान बनाना है, तो वह यह नहीं पूछता कि नींव में पत्थर क्यों मिट्टी की पर्तों को, अंधेरे को निकालकर, तोड़कर, बाहर फूटता है | हैं ? निकालकर बाहर कर दें। एक आदमी को आग को बुझाना है, रोशनी में; सूरज को झांकता है और देखता है। असली क्रांति घट तो वह यह नहीं पूछता कि आग पानी डालने से क्यों बुझती है? गई। अब तो फिर ठीक है। अब यही वृक्ष बड़ा हो जाएगा। इसमें पानी डालता है और बुझा देता है। एक आदमी को टी.बी. हो गया फूल लगेंगे, फल लगेंगे; सब होगा। लेकिन अब रेवोल्यूशन नहीं | है, तो वह डाक्टर से यह नहीं पूछता कि इस इंजेक्शन के देने से है कोई। रेवोल्यूशन तो हो गई, क्रांति तो हो गई; जब बीज टूटा, | टी.बी. क्यों मिटता है? वह इंजेक्शन लेता है और मिटा देता है। उसी वक्त हो गई।
लेकिन जहां हम परमात्मा की तरफ आते हैं, वहां हम क्यों पूछते पहली क्रांति और आखिरी क्रांति अज्ञान का बोध है। | हैं। कुछ कारण होना चाहिए। असल में क्यों हमारी पोस्टपोन करने आलस्य और अहंकार के कारण यह बोध नहीं हो पाता। | की तरकीब है। क्यों हम पूछ सकते हैं अंतहीन। और अंतहीन हम
आप पूछ सकते हैं कि आलस्य और अहंकार क्यों हैं? मैं | स्थगन कर सकते हैं। क्योंकि जब तक पूरा पता न चल जाए, तब कहूंगा, हैं। और जो भी क्यों का उत्तर दे, वह नासमझ है। नासमझ तक हम बदलें भी कैसे! जब तक पूरा पता न चल जाए, तब तक इसलिए कि जो भी उत्तर होगा, उसके लिए भी पूछा जा सकता है, | हम बदलें भी कैसे! क्यों? उसका जो उत्तर दे, वह और भी ज्यादा नासमझ है। क्योंकि धर्म दर्शन नहीं है। धर्म बहत प्रेक्टिकल है। धर्म बहत ही फिर भी पूछा जा सकता है कि वह क्यों? इनफिनिट रिग्रेस! व्यावहारिक है। धर्म इसीलिए साइंटिफिक है, वैज्ञानिक है। धर्म फिलासफी इसी मूढ़ता में पड़ी है। सारी दुनिया की फिलासफी, एक प्रयोगशाला है। मैं जो भी कह रहा हूं, वह स्पेकुलेटिव नहीं है; सारी दुनिया का दर्शनशास्त्र इसी उपद्रव में उलझा हुआ है। हर चीज वह सिद्धांतवादी नहीं है। उसमें नजर इतनी ही है कि आपको वे मूल पर हम पूछते चले जाते हैं, क्यों? क्यों? क्यों? और इसका कोई सूत्र खयाल में आ जाएं, जिनसे जिंदगी बदली जा सकती है। अंत नहीं हो सकता।
आलस्य और अहंकार, मिथ्या ज्ञान का सहारा है। मिथ्या ज्ञान धर्म इस मूढ़ता में नहीं पड़ता। वह कहता है, ऐसा है। अब अज्ञान को बचाने का आधार है। अहंकार और आलस्य छोड़ें,
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मृत्यु का साक्षात
मिथ्या ज्ञान गिर जाएगा। मिथ्या ज्ञान गिरा, अज्ञान का बोध होगा। अज्ञान का बोध हुआ, ज्ञान की यात्रा शुरू हो जाती है। और वे पुरुष, ज्ञान अमृत को उपलब्ध हो जाते हैं, वे परलोक में आनंद को उपलब्ध होते ही हैं, इस लोक में भी आनंद से भर जाते हैं। एक आखिरी श्लोक और ।
एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे । कर्मजान्विद्धि तान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे ।। ३२ ।। ऐसे बहुत प्रकार के यज्ञ वेद की वाणी में विस्तार किए गए हैं। उन सबको शरीर, मन और इंद्रियों की क्रिया द्वारा ही उत्पन्न होने वाले जान। इस प्रकार तत्व से जानकर निष्काम
कर्मयोग द्वारा संसार-बंधन से मुक्त हो जाएगा।
इ
न सारे यज्ञों के द्वारा, इन सारे यज्ञों को करते हुए, निष्काम कर्म के भाव से दृष्टारूप हुआ व्यक्ति मुक्त हो जाता है।
यह सूत्र कनक्लूसिव है । वह जो भी कहा है इसके पहले, उसकी निष्पत्ति है। निष्पत्ति में, जीवन के समस्त कर्मों को कामना के कारण नहीं, निष्कामना के आधार पर करते हुए, यह आधार है निष्पत्ति का। दो बातें आपसे कहूं, तो खयाल में आ जाए।
एक, हम एक ही तरह के कर्म को जानते हैं अब तक। वह कर्म है, सकाम | बिना कामना के हमने कोई कर्म कभी जाना नहीं । इसीलिए तो हमने आनंद कभी जाना नहीं । सिवाय दुख के हमारा कोई परिचय नहीं है।
काम कर्म की एक खूबी है, जब तक नहीं पूरा होता, तब तक सुख की आशा रहती है। जब पूरा होता है, दुख के फल हाथ में आते हैं। निष्काम कर्म की एक खूबी है, जब तक करते हैं, तब तक कामना और आशा से शून्य होना पड़ता है; और जब कर्म पूरा हो जाता है, तो आनंद से भर जाते हैं, आपूरित हो जाते हैं।
सकाम कर्म को हम भलीभांति जानते हैं। हम सब ने सकाम कर्म किए हैं। हमने प्रेम किया, तो सकाम । हमने मित्रता की, तो सकाम। हमने दुकान चलाई, तो सकाम । हमने प्रार्थना भी की, तो सका। हम प्रभु के मंदिर में भी खड़े हुए, तो कामना को लेकर । हमने यज्ञ भी किया, तो कामना को लेकर। हमने भजन भी किया,
तो भी कामना को लेकर। हमारा अनुभव कामना का अनुभव है। | निष्पत्ति भी हमारी दुख की निष्पत्ति है। इतना हम भी जानते हैं।
कृष्ण जो कहते हैं, वह इससे उलटी बात कहते हैं। हमारा अनुभव यह है कि हमने जहां-जहां कामना के फूल: को तोड़ना चाहा, वहीं-वहीं दुख का कांटा हाथ में लगा। जहां-जहां कामना के फूल के लिए हाथ बढ़ाया, फूल दिखाई पड़ा जब तक, हाथ में न आया, जब हाथ में आया, तो सिर्फ लहू, खून; कांटा चुभा; फूल तिरोहित हो गया।
लेकिन मनुष्य अदभुत है। उसका सबसे अदभुत होना इस बात में है कि वह अनुभव से सीखता नहीं। शायद ऐसा कहना भी ठीक नहीं। कहना चाहिए, अनुभव से सदा गलत सीखता है। सीखता नहीं है, ऐसा कहना ठीक नहीं सीखता है; गलत सीखता है।
अगर हाथ बढ़ाया और फूल हाथ में न आया और कांटा हाथ में आया, तो वह यही सीखता है कि मैंने गलत फूल की तरफ हाथ बढ़ा दिया; अब मैं ठीक फूल की तरफ हाथ बढ़ाऊं। यह नहीं सीखता कि फूल की तरफ हाथ बढ़ाना ही गलत है। यह नहीं सीखता ।
और साधारण आदमियों का तो हम छोड़ दें। राम अपनी कुटिया के बाहर बैठे हैं। स्वर्णमृग दिखाई पड़ जाता है। स्वर्णमृग ! सोने का हिरण ! होता नहीं। पर जो नहीं होता, वह दिखाई पड़ सकता है। जिंदगी में बहुत कुछ दिखाई पड़ता है, जो है ही नहीं। और जो है, वह दिखाई नहीं पड़ता है।
स्वर्णमृग दिखाई पड़ता है राम को उठा लेते हैं धनुष-बाण। | सीता कहती है, जाओ, ले आओ। निकल पड़ते हैं स्वर्णमृग को मारने। यह कथा बड़ी मीठी है ! राम स्वर्णमृग को मारने निकल पड़ते हैं! सोने का मृग कहीं होता है ?
लेकिन आपको भी दिखाई पड़ जाए, तो रुकना मुश्किल हो | जाए। असली मृग हो, तो रुक भी जाएं; सोने का मृग दिखाई पड़ जाए, तो रुकना मुश्किल हो जाएगा।
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हम सभी तो सोने के मृग के पीछे भटकते हैं । एक अर्थ में हम सबके भीतर का राम सोने के मृग के लिए ही तो भटकता है। और | हम सबके भीतर की सीता उकसाती है, जाओ, सोने के मृग को ले आओ।
हम सबके भीतर की कामना, हम सबके भीतर की वासना, हम सबके भीतर की डिजायरिंग कहती है भीतर की शक्ति को, ऊर्जा को, राम को - कि जाओ । इच्छा है सीता; शक्ति है राम । कहती है, जाओ, स्वर्णमृग को ले आओ। दौड़ते फिरते हैं। स्वर्णमृग हाथ
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गीता दर्शन भाग-28
में न आए, तो लगता है कि अपनी कोशिश में कुछ कमी रह गई। | तत्काल पाएंगे कि आनंद की एक झलक आ गई। सिर्फ नमस्कार
और दौड़ो। स्वर्णमृग को तीर मारो; गिर जाए, न लगे, तो लगता | | भी-कोई बड़ा कृत्य नहीं, कोई बड़ी डीड नहीं, कुछ नहीं सिर्फ है और विषधर तीर बनाओ। लेकिन यह खयाल में नहीं आता कि | हाथ जोड़े निष्काम, और भीतर पाएंगे कि एक लहर शांति की दौड़ स्वर्ण का मृग होता ही नहीं है।
| गई। एक अनुग्रह, एक ईश्वर की कृपा भीतर दौड़ गई। ___ कामना के फूल आकाश-कुसुम हैं; होते नहीं हैं; आकाश के | और अगर अनुभव आने लगे, तो फिर बड़े काम में भी निष्काम फूल हैं। जैसे धरती पर तारे नहीं होते, वैसे आकाश में फूल नहीं होते | | होने की भावना जगने लगेगी। जब इतने छोटे काम में इतनी आनंद हैं। कामना के कुसुम या तो धरती के तारे हैं या आकाश के फूल। | की पुलक पैदा होती है, तो जितना बड़ा काम होगा, उतनी बड़ी __ सकाम हमारी दौड़ है। बार-बार थककर, गिर-गिरकर भी, | आनंद की पुलक पैदा होगी। फिर तो धीरे-धीरे पूरा जीवन निष्काम बार-बार कांटे से उलझकर भी फूल की आकांक्षा नहीं जाती है। दुख होता चला जाता है। हाथ लगता है। लेकिन कभी हम दूसरा प्रयोग करने का नहीं सोचते। | इन सब यज्ञों को करते हुए जो व्यक्ति निष्काम भाव में जीता
कृष्ण कहते हैं, निष्काम भाव से...।
बड़ा मजा है। निष्काम भाव से कांटा भी पकड़ा जाए, तो पकड़ने जीवन ही यज्ञ है। अगर कोई निष्काम भाव में जी सके, तो वह पर पता चलता है कि फूल हो गया! ऐसा ही पैराडाक्स है। ऐसा | | मुक्त हो जाता है। मुक्त–समस्त बंधनों से, दुखों से, पीड़ाओं से, जिंदगी का नियम है। ऐसा होता है।
संतापों से, चिंताओं से। ___ आपने एक अनुभव तो करके देख लिया। फूल को पकड़ा और । अभी हम यहां कीर्तन के लिए अंत में इकट्ठे होंगे, निष्काम कम कांटा हाथ में आया, यह आप देख चुके। और अगर ऐसा हो | से कम कीर्तन ही कर लें। निष्काम, कोई कामना नहीं। निष्काम दस सकता है कि फूल पकड़ें और कांटा हाथ में आए, तो उलटा क्यों | | मिनट डूब जाएं उस परमात्मा के लिए प्रार्थना में। कुछ पाना नहीं है नहीं हो सकता है कि कांटा पकड़ें और फूल हाथ में आ जाए? क्यों | उसके बाहर; मिलेगा बहुत। जो पाने आया है, पाएगा कुछ भी नहीं हो सकता? अगर यह हो सकता है, तो इससे उलटा होने में | | नहीं। जिसकी कामना है कि कुछ मिल जाए दस मिनट के भजन कौन-सी कठिनाई है!
से, उसे कुछ न मिलेगा। जिसकी कोई कामना नहीं है, वह दस हां, जो जानते हैं, वे तो कहते हैं, होता है।
मिनट में ऐसा पाएगा, फुलफिल्ड हुआ! भीतर भर गया कोई तो एक प्रयोग करके देखें। चौबीस घंटे में एकाध काम निष्काम संगीत! डूब गया कोई आनंद! खिल गए कोई फूल! करके देखें। पूरा तो करना मुश्किल है, एकाध काम। चौबीस घंटे ___ दस मिनट संन्यासियों के साथ सम्मिलित हों। अपनी जगह पर में एक काम सिर्फ, निष्काम करके देखें। छोटा-सा ही काम; ऐसा | भी रहें, तो ताली बजाएं, उनके स्वर में स्वर मिलाएं। अपनी जगह कि जिसका कोई बहुत अर्थ नहीं होता। रास्ते पर किसी को | पर भी, मौज आ जाए, तो नाचें। यहां न आएं; जरूरी नहीं है। और बिलकुल निष्काम नमस्कार करके देखें। इसमें तो कुछ खर्च नहीं | बैठे रहें जिनको बैठना है, वे बैठकर ताली बजाएं, बैठकर स्वर होता! लेकिन लोग निष्काम नमस्कार तक नहीं कर सकते हैं! | दोहराएं। सम्मिलित हों! क्योंकि कुछ आनंद हैं, जो सम्मिलित होने
नमस्कार तक में कामना होती है। मिनिस्टर है. तो नमस्कार हो | से ही मिलते हैं। जाती है! पता नहीं, कब काम पड़ जाए। मिनिस्टर नहीं रहा अब, एक्स हो गया, तो कोई उसकी तरफ देखता ही नहीं। वही नमस्कार करता है। वह इसलिए नमस्कार करता है कि अब फिर कभी न कभी काम पड़ सकता है।
कामना के बिना नमस्कार तक नहीं रही। कम से कम नमस्कार तो बिना कामना के करके देखें। और हैरान हो जाएंगे। अगर साधारण से जन को भी, राहगीर को भी, अपरिचित को भी, भिखारी को भी हाथ जोड़कर नमस्कार कर ली, बिना कामना के, तो भीतर
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अध्याय 4
चौदहवां प्रवचन
चरण-स्पर्श और गुरु- सेवा
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गीता दर्शन भाग-20
श्रेयान्द्रव्यमयाघज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परंतप।
प्रार्थना में जुड़े हुए हाथ भी संसार की ही मांग करते हैं! यज्ञ की सर्व कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ।। ३३ ।। | वेदी के आस-पास घूमता हुआ साधक भी, याचक भी पत्नी मांगता हे अर्जुन, सांसारिक वस्तुओं से सिद्ध होने वाले यज्ञ से | है, पुत्र मांगता है, गौएं मांगता है, धन मांगता है; यश, राज्य, ज्ञानरूप यज्ञ सब प्रकार श्रेष्ठ है, क्योंकि हे पार्थ, संपूर्ण साम्राज्य मांगता है! यावन्मात्र कर्म ज्ञान में शेष होते हैं, अर्थात ज्ञान उनकी ___ असल में जिसके चित्त में संसार है, उसकी प्रार्थना में संसार ही पराकाष्ठा है।
होगा। जिसके चित्त में वासनाओं का जाल है, उसके प्रार्थना के स्वर भी उन्हीं वासनाओं के धुएं को पकड़कर कुरूप हो जाते हैं।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, असली यज्ञ तो ज्ञान यज्ञ है। श्रेष्ठतम पान मांगता रहता है संसार को; वासनाएं दौड़ती रहती हैं तो ज्ञान यज्ञ है। और ज्ञान यज्ञ का अर्थ हुआ, जिसमें कोई 01 वस्तुओं की तरफ; शरीर आतुर होता है शरीरों के | सांसारिक मांग नहीं है, जिसमें कोई सांसारिक आकांक्षा नहीं है।
लिए; आकांक्षाएं विक्षिप्त रहती हैं पूर्ति के लिए ऐसे यहां एक बात और समझ लेनी जरूरी है कि जब कहते हैं, एक यज्ञ तो जीवन में चलता ही रहता है। यह यज्ञ चिता जैसा है। सांसारिक मांग नहीं, तो अनेक बार मन में खयाल उठता है, तो आग तो जलती है, लपटें तो वही होती हैं। जो हवन की वेदी से गैर-सांसारिक मांग तो हो सकती है न! जब कहते हैं, संसार की उठती हैं लपटें, वे वे ही होती हैं, जो लपटें चिता की अग्नि में उठती | | वस्तुओं की कोई चाह नहीं, तो खयाल उठ सकता है कि मोक्ष की हैं। लपटों में भेद नहीं होता। लेकिन चिता और हवन में तो | | वस्तुओं की चाह तो हो सकती है न! नहीं मांगते संसार को, नहीं जमीन-आसमान का भेद है।
| मांगते धन को, नहीं मांगते वस्तुओं को; मांगते हैं शांति को, आनंद हमारा जीवन भी आग की लपट है। लेकिन वासनाएं जलती हैं | | को। छोड़ें, इन्हें भी नहीं मांगते। मांगते हैं प्रभु के दर्शन को, मुक्ति उसमें; उन लपटों में आकांक्षाएं, इच्छाएं जलती हैं। गीला ईंधन | को, ज्ञान को। जलता है इच्छा का, और सब धुआं-धुआं हो जाता है। ऐसे आग| | तो एक बात और समझ लेनी जरूरी है। सांसारिक मांग तो में जलते हुए जीवन को भी यज्ञ कहा जा सकता है, लेकिन अज्ञान | | सांसारिक होती ही है; मांग ही सांसारिक होती है। वासनाएं का, अज्ञान की लपटों में जलता हुआ।
| सांसारिक हैं, यह तो ठीक है। लेकिन वासना मात्र सांसारिक है, इस अज्ञान की लपटों में जलते हए. कभी-कभी मन थकता भी यह भी स्मरण रख लें। है, बेचैन भी होता है, निराश भी, हताश भी। हताशा में, बेचैनी में | शांति की कोई मांग नहीं होती; अशांति से मुक्ति होती है और कभी-कभी प्रभु की तरफ भी मुड़ता है। दौड़ते-दौड़ते इच्छाओं के शांति परिणाम होती है। शांति के लिए मांगा नहीं जा सकता; सिर्फ साथ, कभी-कभी प्रार्थना करने का मन भी हो आता है। | अशांति को छोड़ा जा सकता है, और शांति मिलती है। और जो दौड़ते-दौड़ते वासनाओं के साथ, कभी-कभी प्रभु की सन्निधि में | | शांति को मांगता है, वह कभी शांत नहीं होता, क्योंकि उसकी शांति आंख बंद कर ध्यान में डूब जाने की कामना भी जन्म लेती है। की मांग सिर्फ एक और अशांति का जन्म होती है। बाजार की भीड़-भाड़ से हटकर कभी मंदिर के एकांत, मस्जिद के इसलिए साधारणतया अशांत आदमी इतना अशांत नहीं होता, एकांत कोने में भी डूब जाने का खयाल उठता है।
जितना शांति की चेष्टा में लगा हुआ आदमी अशांत हो जाता है! - लेकिन वासनाओं से थका हुआ आदमी मंदिर में बैठकर पुनः | | अशांत तो होता ही है और यह शांति की चेष्टा और अशांत करती वासनाओं की मांग शुरू कर देता है। बाजार से थका आदमी मंदिर | है। यह भी मांग है। यह भी इच्छा है। यह भी वासना है। में बैठकर पुनः बाजार का विचार शुरू कर देता है। क्योंकि बाजार मोक्ष मांगा नहीं जा सकता। क्योंकि जब तक मोक्ष की मांग है, से वह थका है, जागा नहीं; वासना से थका है, जागा नहीं। | जब तक मांग है, तब तक बंधन है। और बंधन और मोक्ष का इच्छाओं से मुक्त नहीं हुआ, रिक्त नहीं हुआ; केवल इच्छाओं से | | मिलन कैसे! मोक्ष मांगा नहीं जा सकता; क्योंकि मांग ही बंधन है। विश्राम के लिए मंदिर चला आया है। उस विश्राम में फिर इच्छाएं । | हां, बंधन न रहे, तो जो रह जाता है, वह मोक्ष है। ताजी हो जाती हैं।
हम परमात्मा को चाह नहीं सकते; क्योंकि चाह ही तो परमात्मा
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चरण-स्पर्श और गुरु-सेवा
और हमारे बीच बाधा है। ऐसा नहीं कि धन की चाह बाधा है; चाह | | नहीं, वहां परमात्मा है। जहां चाह है, वहां संसार है। इसलिए ही–डिजायर एज सच। ऐसा नहीं कि इस चीज की चाह बाधा है। | परमात्मा की चाह नहीं हो सकती। और अनचाहा संसार नहीं हो
और उस चीज की चाह बाधा नहीं है; चाह ही बाधा है। क्योंकि सकता। ये दो बातें नहीं हो सकतीं। चाह ही तनाव है, चाह ही असंतोष है। चाह ही, जो नहीं है, उसकी कृष्ण कहते हैं, ज्ञान यज्ञ...। कामना है। जो है, उसमें तृप्ति नहीं। चाह मात्र बाधा है।
अज्ञान का यज्ञ चल रहा है। पूरा जीवन अज्ञान यज्ञ है। फिर इस अगर ठीक से कहें, तो सांसारिक चाह कहना ठीक नहीं, चाह। अज्ञान से ऊबे, थके, घबड़ाए हुए लोग विश्राम के लिए, विराम के का नाम संसार है। वासना संसार है; सांसारिक वासना कहना लिए, धर्म, पूजा, प्रार्थना, ध्यान, उपासना में आते हैं। लेकिन मांगें ठीक नहीं।
उनकी साथ चली आती हैं। चित्त उनका साथ चला आता है। लेकिन हम भाषा में भूलें करते हैं। सामान्य करते हैं, तब तो एक आदमी दूकान से उठा और मंदिर में गया। जूते बाहर छोड़ कठिनाई नहीं आती; चल जाता है। लेकिन जब इतने सूक्ष्म और देता, मन को भीतर ले जाता। जूते भीतर ले जाए, तो बहुत हर्ज नाजुक मसलों में भूलें होती हैं, तो कठिनाई हो जाती है। भूलें भाषा | नहीं, मन को बाहर छोड़ जाए। जूते से मंदिर अपवित्र नहीं होगा। में हैं। भूलें भाषा में हैं, क्योंकि अज्ञानी भाषा निर्मित करता है। और जूते में ऐसा कुछ भी अपवित्र नहीं है। मन? मगर जूते बाहर छोड़ ज्ञानी की अब तक कोई भाषा नहीं है। उसको भी अज्ञानी की भाषा | जाता है और मन भीतर ले जाता है। घर से चलता है, तो स्नान कर का ही उपयोग करना पड़ता है।
लेता है। ज्ञानी की भाषा हो भी नहीं सकती, क्योंकि ज्ञान मौन है; मुखर | ___ मैं यह नहीं कह रहा हूं कि जूते आप ले जाना! घर से चलता है, नहीं, मूक है। ज्ञान के पास जबान नहीं है; ज्ञान साइलेंस है, शून्य | स्नान कर लेता है, शरीर धो लेता है। मन? मन वैसे का वैसा है। ज्ञान के पास शब्द नहीं हैं। शब्द उठने तक की भी तो अशांति | बासा, पसीने की बदबू से भरा, दिनभर की वासनाओं की गंध से ज्ञान में नहीं है। इसलिए अज्ञानी की भाषा ही ज्ञानी को उपयोग | | पूरी तरह लबालब, दिनभर के धूल कणों से बुरी तरह आच्छादित! करनी पड़ती है। और फिर भूलें होती हैं।
| उसी गंदे मन को लेकर मंदिर में प्रवेश कर जाता है। __ अब जैसे यह भूल निरंतर हो जाती है। हम कहते हैं, संसार की फिर जब हाथ जोड़ता है, तो हाथ तो धुले होते हैं, लेकिन जुड़े चीजों को मत चाहो। कहना चाहिए, चाहो ही मत, क्योंकि चाह का हुए हाथों के पीछे मन गैर-धुला होता है। आंखें तो परमात्मा को नाम ही संसार है। हम कहते हैं, मन को शांत करो। ठीक नहीं है | | देखने के लिए उठती हैं, लेकिन भीतर से मन परमात्मा को देखने कहना। क्योंकि शांत मन जैसी कोई चीज होती नहीं। अशांति का | के लिए नहीं उठता। वह फिर वस्तुओं की कामना और वासना लौट नाम मन है। जब तक अशांति है, तब तक मन है; जब अशांति आती है। हाथ जुड़ते हैं परमात्मा से कुछ मांगने के लिए। और जब नहीं, तो मन भी नहीं।
भी हाथ कुछ मांगने के लिए जुड़ते हैं, तभी प्रार्थना का अंत हो जाता __ शांत मन जैसी कोई चीज होती नहीं; साइलेंट माइंड जैसी कोई | | है। मांग और प्रार्थना का कोई मेल नहीं है। चीज होती नहीं। जहां शांति हुई, वहां मन तिरोहित हुआ। अशांत | | फिर प्रार्थना क्या है? प्रार्थना सिर्फ धन्यवाद है, मांग नहीं; मन है. ऐसा कहना ठीक नहीं: अशांति का नाम मन है। डिमांड नहीं, बैंक्स गिविंग; सिर्फ धन्यवाद। जो मिला है, वह इतना
ऐसा समझें, तूफान आया है लहरों में सागर की। फिर हम कहते | | काफी है; उसके लिए मंदिर धन्यवाद देने जाना चाहिए। हैं, तूफानं शांत हो गया। जब तूफान शांत हो जाता है, तो क्या धार्मिक आदमी वही है, जो मंदिर धन्यवाद देने जाता है। सागर के तट पर खोजने से शांत तूफान मिल सकेगा? हम कहते अधार्मिक? अधार्मिक वह नहीं, जो मंदिर नहीं जाता; वह तो हैं, तूफान शांत हो गया। तो पूछा जा सकता है, शांत तूफान कहां अधार्मिक है ही। अधार्मिक असली वह है, जो मंदिर मांगने जाता है। है? शांत तूफान होता ही नहीं। तूफान का नाम ही अशांति है। शांत __ कृष्ण कहते हैं, ज्ञान यज्ञ श्रेष्ठतम है, अर्जुन! तूफान ! मतलब, तूफान मर गया; अब तूफान नहीं है। शांत मन का ज्ञान यज्ञ का अर्थ है, वासना के धुएं से मुक्त; जहां चेतना निर्धूम अर्थ, मन मर गया; अब मन नहीं है।
ज्योति की तरह जलती है। निर्धूम ज्योति। धुआं बिलकुल नहीं; चाह के छूटने का अर्थ, संसार गया; अब नहीं है। जहां चाह सिर्फ चेतना की ज्योति रह जाती। ऐसी ज्ञान की ज्योति जब जलती
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गीता दर्शन भाग-28
है व्यक्ति में, तो वासना का कोई भी धुआं कहीं नहीं होता; कोई | | कंपाती है, तो मौत का डर पैदा होता है। मांग नहीं होती। परम तृप्ति होती है, वही होने में, जो हैं। वही, जो । इसलिए यह भी खयाल में ले लें, जो वासना से मुक्त हुआ, वह है, उसके साथ पूरा तालमेल, सामंजस्य होता है। इस ज्ञान यज्ञ के मृत्यु के भय से मुक्त हो जाता है। जो दीए की लौ हवा के धक्कों लिए कृष्ण ने बहुत-सी विधियां कही हैं।
| से मुक्त हुई, उसे क्या मौत का डर? मौत का डर खो गया। अंत में वे कहते हैं, यह सर्वश्रेष्ठ है अर्जुन! छोड़ वासनाओं को, | । लेकिन जब तूफान की हवा बहती है, तो दीया कंपता और डरता छोड़ भविष्य को, छोड़ सपनों को, छोड़ अंततः अपने को। ऐसे जी, है कि मरा, मरा। लौट-लौटकर आता है अपनी जगह पर; हवा जैसे प्रभु तेरे भीतर से जीता। ऐसे जी, जैसे चारों ओर प्रभु ही जीता। धक्के दे-देकर अपनी जगह से च्युत कर देती है। ठीक ऐसा हमारी ऐसे कर, जैसे प्रभु ही करवाता। ऐसे कर, जैसे प्रत्येक करने के अज्ञान की अवस्था में चित्त होता है। दीए की ज्योति वासना की पीछे प्रभु ही फल को लेने हाथ फैलाकर खड़ा है। तब ज्ञान यज्ञ | | वायुओं में जोर से कंपती है। कंपती ही रहती है; कभी ठहर नहीं घटित होता है। और ज्ञान यज्ञ परम मुक्ति है, दि अल्टिमेट फ्रीडम। | पाती। एक कंपन छूटता, तो दूसरा कंपन शुरू होता है। एक वासना
अज्ञान बंधन है, ज्ञान मुक्ति है। अज्ञान रुग्णता है, ज्ञान हटती, तो दूसरा झोंका वासना का आता है। कहीं कोई विराम नहीं, स्वास्थ्य है।
कहीं कोई विश्राम नहीं। बस, यह दीए का कंपन, और पूरे वक्त यह स्वास्थ्य शब्द बहुत अदभुत है। दुनिया की किसी भाषा में मौत का डर। उसका ठीक-ठीक अनुवाद नहीं है। अंग्रेजी में हेल्थ है; और-और जितना वासनाग्रस्त आदमी, उतना मौत से भयभीत। जितना पश्चिम की सभी भाषाओं में हेल्थ से मिलते-जुलते शब्द हैं। हेल्थ | | वासनामुक्त आदमी, उतना मौत से निर्भय, अभय। वासना ही भय का मतलब होता है, हीलिंग, घाव का भरना। शारीरिक शब्द है: है मत्य में। जितनी वासना का कंपन, उतना आत्मिक रोग, उतना गहरे नहीं जाता। स्वास्थ्य बहुत गहरा शब्द है। उसका अर्थ हेल्थ | | स्प्रिचुअल डिसीज, उतनी ही आध्यात्मिक रुग्णता। क्योंकि कंपन ही नहीं होता; हेल्थ तो होता ही है, घाव का भरना तो होता ही है। | रोग है। कंपने का अर्थ ही है, स्थिति में नहीं है; कोई भी धका जाता। स्वास्थ्य का अर्थ है, स्वयं में स्थित हो जाना, टु बी इन वनसेल्फ। | कृष्ण कहते हैं, ज्ञान यज्ञ परम मुक्ति है; क्योंकि ज्ञान परम आध्यात्मिक बीमारी से संबंधित है स्वास्थ्य।
| स्वास्थ्य है। कैसे होगा उपलब्ध? वासना से जो मुक्त जो जातास्वास्थ्य का अर्थ है, स्वयं में ठहर जाना। इंचभर भी न हिलना, | मांग से, चाह से—वह ज्ञान की अग्नि में से गुजरकर खालिस सोना पलकभर भी न कंपना। जरा-सा भी कंपन न रह जाए भीतर। कंपन, हो जाता है। यह परम यज्ञ कृष्ण
सूत्र में कहा। वेवरिंग, जरा भी न रह जाए। बस, तब स्वास्थ्य फलित होता है! वेवरिंग क्यों है, कंपन क्यों है, कभी आपने खयाल किया?
जितनी तेज इच्छा होती है, उतना कंपन हो जाता है भीतर। इच्छा प्रश्नः भगवान श्री, बत्तीसवें श्लोक में कहा गया है नहीं होती, कंपन खो जाता है। इच्छा ही कंपन है। आप कंपते कब | | कि बहुत प्रकार के यज्ञ ब्रह्मणो मुखे, ब्राह्मण मुख से हैं? दीया जलता है। कंपता कब है? जब हवा का झोंका लगता है। विस्तार किए गए हैं। गीता प्रेस ने ब्रह्मणो मुखे का हवा का झोंका न लगे, तो दीया निष्कंप हो जाता, ठहर जाता, | | हिंदी अनुवाद किया है, वेद की वाणी में। कृपया स्वस्थ हो जाता। अपनी जगह हो जाता। जहां होना चाहिए, वहां बताएं कि ब्रह्मणो मखे. ब्राह्मण मख से यजों के हो जाता। हवा के धक्के लगते हैं, तो ज्योति वहां हट जाती, जहां विस्तार होने का आप क्या अर्थ लेते हैं? नहीं होना चाहिए। जगह से च्युत हो जाती; रुग्ण हो जाती; कंपित हो जाती। और जब कंपित होती है, तो बुझने का, मौत का डर पैदा हो जाता है। जोर की हवा आती, तो ज्योति बुझने-बुझने को, ल के मुख से का बिलकुल ठीक-ठीक अनुवाद नहीं मरने-मरने को होने लगती है।
* है, वेद के मुख से। या फिर वेद का अर्थ बहुत ठीक ऐसे ही इच्छाओं की तीव्र हवाओं में, वासना के तीव्र ज्वर विस्तीर्ण करना पड़े। में कंपती है चेतना, कंपित होती है। और जब वासना बहुत जोर से ब्रह्म के मुख से बहुत-बहुत योगों का आविर्भाव हुआ है।
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चरण-स्पर्श और गुरु-सेवा
ब्रह्म का मुख कौन है? खुद ब्रह्म का मुख तो हो नहीं सकता। | हैं। लेकिन पृथ्वी पर मनुष्य-जाति का कोई कोना ऐसा नहीं, जहां ब्रह्म को सदा ही किसी और के मुख का उपयोग करना पड़ता है। | ब्रह्म ने किसी मुख का उपयोग न किया हो। अनंत मुखों से उसकी जिनके मुखों का ब्रह्म उपयोग करता है, वे वे ही लोग हैं, जो अपने | | धारा बही है। को पूरी तरह ब्रह्म को समर्पित करते हैं, उपकरण बन जाते हैं, वेद का अर्थ है, जो भी जानने वाले लोगों के द्वारा कहा गया मीडियम। बांसुरी की तरह रख जाते हैं ब्रह्म के निराकार पर और | | है-कहीं भी और कभी भी, किसी काल में और किसी समय में। निराकार उनकी बांसुरी से गूंजकर आकार की दुनिया में बसे हुए लेकिन सांप्रदायिक मन ऐसी बात मानने को तैयार नहीं होता है। लोगों तक स्वर बनकर पहुंच जाता है।
गीता प्रेस, गोरखपुर के लोग ऐसी बात मानने को तैयार नहीं होंगे। जो व्यक्ति भी अपने को समग्ररूपेण प्रभु को समर्पित कर देता, | वे कहेंगे, वेद तो हमारा है। उतने में सीमा है। हमारा भी इतना नहीं वह ब्रह्म का मुख बन जाता है।
| कि महावीर को भी समा सके। हमारा भी इतना नहीं कि बुद्ध को जैनों के तीर्थंकर ब्रह्म के मुख हैं। बुद्ध ब्रह्म के मुख हैं। जीसस, भी समा सके। हमारा भी इतना नहीं कि वह सतत प्रवाहमान और मोहम्मद ब्रह्म के मुख हैं। लाओत्से, जरथुस्त्र ब्रह्म के मुख हैं। | ग्रोइंग हो-कि जो भी आए, उसे समा सके। सभी जातियों को मोजिज, इजेकिएल ब्रह्म के मुख हैं। सारी पृथ्वी पर अनंत-अनंत | ऐसी भ्रांति पैदा होती है। मुखों से ब्रह्म ने कहे हैं बहुत-बहुत मार्ग।
लेकिन शब्द देखने जैसे हैं। जैसे कि बाइबिल के लिए शब्द जो अगर वेद का अर्थ ऐसा हो कि इस हमारे मुल्क में पैदा हुआ जो है, बाइबिल। बाइबिल का मतलब होता है, दि बुक; सिर्फ किताब। शास्त्र वेद कहा जाता, उससे ही निकला हुआ जो है, वह ब्रह्म का कोई नाम नहीं है। जिन्होंने जाना, उनका संग्रह कर दिया। सिक्खों कहा हुआ है। तो फिर जीसस के मुख से निकला हुआ ब्रह्म का की किताब का नाम है, गुरुग्रंथ। जिन्होंने जाना, जो इस योग्य हुए कहा हुआ नहीं होगा। फिर महावीर के मुख से निकला हुआ ब्रह्म | | कि दूसरों को जना सकें, उनके शब्द इकट्ठे कर दिए; नाम दिया, का कहा हुआ नहीं है। फिर लाओत्से के मुख से निकला हुआ ब्रह्म गुरुग्रंथ। वेद, जिन्होंने जाना, उनकी वाणी संगृहीत कर दी; नाम का कहा हुआ नहीं है।
दिया, वेद। ये सारी किताबें साधारण किताबें नहीं हैं। इनकी कोई वेद में जो कहा है, वह तो ब्रह्म के मुख से निकला ही है; लेकिन सीमा का, इनका कोई संप्रदाय का आग्रह खतरनाक है, मनुष्य को वेद का अर्थ अगर हम चार संहिताएं करें, तो हम ब्रह्म को बहुत | तोड़ने वाला है। सीमित करते हैं, अन्याय करते हैं।
तो कृष्ण जब कहते हैं, ब्रह्म के मुख से, तो उनका प्रयोजन साफ वेद का ठीक-ठीक अर्थ करें, तो वेद का अर्थ होता है, नालेज, | | है। वे भी कह सकते थे, वेद के मुख से। वह उन्होंने नहीं कहा। ज्ञान। वेद उसी शब्द से निर्मित होता है, जिससे विद्वान, विद्वता। नहीं कहा है, स्पष्ट जानकर ही। कहते हैं, ब्रह्म के मुख से। प्रयोजन वेद का अर्थ होता है, ज्ञान। विद का अर्थ होता है, टु नो, जानना। यह है कि कहीं भी ब्रह्म का मुख खुल सकता है। जहां भी किसी अगर ठीक-ठीक जो कि मौलिक अर्थ है, वेद का जो ठीक-ठीक व्यक्ति का अपना मुख बंद हो जाएगा, वहीं ब्रह्म का मुख खुल अर्थ है, वह है, जानना। जहां भी जानने की घटना घटी है, वहीं वेद | सकता है। जहां भी कोई व्यक्ति अपनी तरफ से बोलना बंद कर की संहिता निर्मित हो गई है।
देगा, वहीं से प्रभु उससे बोलने लगता है। जहां भी कोई व्यक्ति अगर कोई मुझसे पूछे, तो मैं कहूंगा, बाइबिल वेद की एक | अपने को पूरा सरेंडर कर देता है, वहीं से... । इसलिए वेद को हम संहिता है, कुरान वेद की एक संहिता है। पृथ्वी पर जहां-जहां ज्ञान | कहते हैं, अपौरुषेय; मनुष्य के द्वारा निर्मित नहीं। उदघोषित हुआ है, ब्रह्म ने ही कहा है। किसी के मुख को माध्यम लेकिन सांप्रदायिक मन अजीब-अजीब अर्थ निकालता है। बनाया है। मुख अलग-अलग हैं, भाषाएं अलग-अलग हैं। मुख | अज्ञान अर्थ निकालने में बहुत कुशल है; अज्ञान व्याख्या करने में अलग-अलग हैं, परंपराएं अलग-अलग हैं। मुख अलग-अलग भी बहुत कुशल है। अज्ञान अर्थ निकाल लेता है; वेद अपौरुषेय हैं, प्रतीक अलग-अलग हैं। लेकिन जो जानता है, वह सब |
| हैं, तो निकाल लेता है अर्थ कि वेद परमात्मा के द्वारा रचित हैं। फिर भाषाओं, सब प्रतीकों के पार, उस एक वाणी को पहचानता है। । इतने से भी कोई खतरा नहीं है। फिर यह भी अर्थ संगृहीत होता
वेद की अनंत संहिताएं हैं। जो चार हमारे पास हैं, वे हमारे पास चला जाता है कि सिर्फ वेद ही परमात्मा के द्वारा रचित हैं; फिर कोई
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गीता दर्शन भाग-2
और किताब परमात्मा के द्वारा रचित नहीं हो सकती। फिर उपद्रव कोई और आ गया बीच में। हटाओ इन शब्दों को। शुरू होते हैं। फिर आदमी बीच में आ गया। जानने वालों की वाणी | रवींद्रनाथ ने कहा, मैं अपने शब्द बताऊं, जो मैंने पहले रखे थे! पर भी उसने कब्जा कर लिया।
| यीट्स ने कहा कि ये शब्द भाषा की दृष्टि से गलत हैं, लेकिन भाव वेद अपौरुषेय हैं. इसका यह अर्थ नहीं कि परमात्मा के द्वारा की दष्टि से सही हैं। इन्हें जाने दो। भाषा की गलती चलेगी। अटका रचित हैं; क्योंकि परमात्मा के द्वारा तो सभी कुछ रचित है। अलग हुआ पत्थर तो सब नष्ट कर देता; वह नहीं चलेगा। ये चलेंगे; इन्हें से वेद को रचा हुआ कहने का कोई कारण नहीं। वेद अपौरुषेय हैं चलने दो। ये सीधे आए हैं। इस अर्थ में कि जिन्होंने उन्हें रचा, उनके भीतर अपना कोई अहंकार | जब कोई व्यक्ति परमात्मा की वाणी से भरता है, तो उसे एक ही नहीं था, उनके भीतर अपना कोई भाव नहीं था कि मैं। पुरुष विदा | ध्यान रखना पड़ता है कि वह बीच में न आ जाए खुद। जैसे यहां हो गया था; अपुरुष भीतर आ गया था। पर्सन जा चुका था, एण्ड्रज बीच में आए रवींद्रनाथ के; ऐसे अगर परमात्मा की वाणी नान-पर्सनल भीतर आ गया था। हट गए थे वे; और जगह दे दी भर जाए किसी में, तो उसे एक ही ध्यान रखना पड़ता है कि वह थी प्रभु की अनंत सत्ता को। उसके द्वारा ही इनके हाथों ने रचे। रचे खुद बीच में न आ जाए। तो आदमी ने ही हैं। हाथ तो आदमी का ही उपयोग में आया है। इसलिए अगर धर्मशास्त्रों में कहीं भूलें हैं, तो वे भूलें उन कलम तो आदमी ने ही पकड़ी है। शब्द तो आदमी ने बनाए हैं। आदमियों की वजह से हैं, जो कहीं बीच में आ गए हैं। आदमी को लेकिन उस आदमी ने, जिसने अपने हाथ को प्रभु के हाथ में दे माध्यम बनाएंगे, तो कई डर हैं। दिया; जो एक मीडियम बन गया; और कहा कि लिख डालो। फिर कूलरिज मरा, अंग्रेजी का एक बहुत बड़ा महाकवि जब मरा, तो उसने नहीं लिखा।
| उसके घर में चालीस हजार कविताएं अधूरी मिलीं। मरने के पहले ऐसा एक बार हुआ। रवींद्रनाथ ने गीतांजलि लिखी, फिर अंग्रेजी कई बार मित्रों ने कहा कि तुम यह करते क्या हो! यह ढेर कब पूरा में अनुवाद की। अनुवाद करके सी.एफ.एण्ड्रज को दिखाई। | होगा? कहीं तीन पंक्तियां लिखीं, चौथी पंक्ति नहीं है। तो कूलरिज सोचा, अंग्रेजी भाषा है, पराई, कोई भूल-चूक न हो जाए। एण्डुज ने कहा, तीन ही आईं; चौथी मैं मिला सकता था, लेकिन फिर मैं ने चार जगह भूलें निकाली। कहा, यहां-यहां गलत है। ठीक-ठीक | बीच में आ जाता। तो मैंने रख दी। जब चौथी आएगी, तो जोड़' ग्रैमेटिकल, ठीक-ठीक व्याकरण के अनुकूल नहीं है। इन्हें ठीक कर | दूंगा; नहीं आएगी, तो बात खतम हो गई। लो। रवींद्रनाथ मान गए। एण्ड्रज अंग्रेज, बुद्धिमान, विचारशील, कूलरिज ने अपनी जिंदगी में केवल सात कविताएं पूरी की हैं। ज्ञाता! बदलाहट कर ली। तत्काल काटकर, जो एण्डज ने कहा, सात कविताएं लिखने वाला आदमी पृथ्वी पर दूसरा नहीं है, जो वह लिख लिया।
| महाकवि कहा जा सके! कूलरिज महाकवि है। सात हजार लिखने फिर रवींद्रनाथ लंदन गए और वहां कवियों की एक छोटी-सी | वाले भी महाकवि नहीं हैं। कूलरिज सात लिखकर भी महाकवि है। गोष्ठी में उन्होंने पहली दफा गीतांजलि सुनाई, जिस पर बाद में क्या बात है? नोबल पुरस्कार मिलने को था। तब तक मिला नहीं था। छोटे-से, ___ बात है। बात यह है कि कूलरिज बिलकुल ही एब्सेंट है। जब भी बीस कवियों के बीच में। एक कवि, अंग्रेज कवि यीट्स बीच में | | वह लिखता है, तब अपने को बिलकुल ही हटा देता है। जो आता उठकर खड़ा हो गया और उसने कहा कि दो-चार जगह ऐसा लगता है अनंत से, उसी को उतर जाने देता है। चालीस हजार मौकों पर है कि शब्द किसी और के हैं। रवींद्रनाथ ने कहा, किस जगह? उस टेंपटेशन तो रहा ही होगा। होता ही है। एक कविता बन गई पूरी आदमी ने दो जगह तो बिलकुल पकड़कर बता दी—इस जगह | | एक पंक्ति अटक गई है; जोड़ दो, पूरी हो जाए। मन कहता है, जोड़ शब्द किसी और के हैं।
| दो। लेकिन कूलरिज हिम्मत का आदमी है। नहीं जोड़ता। रख देता रवींद्रनाथ ने कहा, लेकिन समझ में कैसे पड़ा तुम्हें? सच ही ये है एक तरफ। मर गया चालीस हजार कविताओं को अधूरा छोड़कर। शब्द किसी और के हैं। मैंने इन्हें बदला है। तो यीट्स ने कहा कि |
|| वेद जिन्होंने रचे हैं, उनकी भी कठिनाई वही है। उपनिषद जब तुम गा रहे थे, तब एक धारा थी, एक बहाव था, एक फ्लो जिन्होंने कहे हैं, उनकी भी कठिनाई वही है। महावीर के वचन, बुद्ध था। अचानक लगा कि कोई पत्थर आ गया बीच में, धारा टूट गई। के वचन–कठिनाई वही है। कुरान, बाइबिल–कठिनाई वही है।
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चरण-स्पर्श और गुरु-सेवा
जब कोई व्यक्ति अपने को पूरा छोड़ता है, तब एक ही कठिनाई | प्रश्न द्वारा, उस ज्ञान को जान । वे मर्म को जानने वाले है कि वह कहीं भी, रत्तीभर भी बाकी न रह जाए। जब वह बाकी | ज्ञानीजन तुझे उस ज्ञान का उपदेश करेंगे। नहीं रहता, तो वाणी वेद हो जाती है।
वेद कोई ऐसी चीज नहीं कि समाप्त हो गई। वेद कभी समाप्त नहीं होगा। वेद सदा ग्रोइंग है, बढ़ता रहेगा। नए-नए लोग समर्पित कीमती है यह सूत्र। कृष्ण कहते हैं, दंडवत कर प्रश्न पूछ, होकर प्रभु को जब उसके माध्यम बनेंगे, तो फिर वेद, फिर वेद पैदा। प ण तो वे ज्ञानीजन जो जानते, उसे प्रकट कर देते हैं। होता रहेगा। वेद निरंतर जन्म रहा है। वेद जन्मता ही रहेगा।
प्रश्न बहुत तरह से पूछे जा सकते हैं। इसलिए शर्त इस अर्थ में अगर वेद लें, तो फिर अनुवाद ठीक है; अन्यथा | लगाते हैं, दंडवत कर। इसे थोड़ा समझ लेना जरूरी है। क्योंकि कृष्ण का शब्द ही ठीक है, ब्रह्म मुख से। उसमें झगड़ा नहीं है; आज दंडवत कर प्रश्न पूछने वाला आदमी मुश्किल से कहीं उसमें उपद्रव नहीं है। प्रयोजन इतना ही है कि परमात्मा की निरंतर | मिलता है। ही, निरंतर ही अस्तित्व के गहरे से, जगह-जगह अभिव्यक्तियां हुई __ प्रश्न बहुत तरह से पूछे जाते हैं। सौ में से नब्बे प्रतिशत प्रश्न हैं। फूट पड़ी है वाणी। जैसे कोई झरना दबा हो, पत्थर हट जाए | | सिर्फ कुतूहल, क्यूरिआसिटी होते हैं। बच्चे पूछे, माफ किए जा
और फूट पड़े फव्वारे की तरह। ऐसा जब भी कभी अहंकार का | | सकते हैं। बूढ़े पूछे, माफ नहीं किए जा सकते। कुतूहल! पत्थर किसी के हृदय से हटा है, तो झरने फूट पड़े हैं।
बच्चा चल रहा है बाप के साथ, कुछ भी पूछता चलता है। कुछ सबके भीतर छिपा है वेद; पत्थर अहंकार का रखा है ऊपर। हटा | | भी पूछता चलता है, कि घोड़े के दो कान क्यों हैं? और बाप दें पत्थर, फूट पड़ेगा झरना। आपके भीतर ही वेद का जन्म हो | | बुद्धिमान हुआ, तो कुछ भी जवाब देता चलता है। नासमझ हुआ जाएगा। आप जो कहेंगे, वही वेद हो जाएगा।
तो डांटता है; बुद्धिमान हुआ तो कुछ भी जवाब देता चलता है। इस अर्थ में तो ठीक। लेकिन कोई कहता हो, ऋग्वेद, ___ कुतूहल से जो प्रश्न पूछे गए होते हैं, वे किसी भी जवाब की अथर्ववेद, सामवेद, इन संहिताओं का नाम वेद है, तो वह भ्रांति | | फिक्र नहीं करते। मिले तो ठीक, न मिले तो ठीक। क्योंकि तब तक की और अज्ञान की बात कह रहा है। ये वेद हैं जरूर, लेकिन और कुतूहल आगे बढ़ गया होता है। भी वेद हैं। और ब्रह्म मुख से सभी निकला है।
मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, ब्रह्म के संबंध में कुछ बहुत कुछ संगृहीत नहीं हुआ। बहुत कुछ संगृहीत नहीं हो बताइए। मैं मिनट दो मिनट और कुछ बात करता हूं, जानकर ही। सका। बहुत कुछ पहचाना नहीं गया। बहुत कुछ आया और खो फिर वे घंटेभर बैठे रहते हैं, फिर दुबारा ब्रह्म की बात ही नहीं पूछते! गया। अनंत-अनंत ऋषियों की वाणी पृथ्वी पर रही और विलीन हो | कुतूहल था। घोड़े के कितने कान होते हैं, उससे ज्यादा महत्वपूर्ण गई है। टूटा-फूटा संगृहीत है। जो संगृहीत है, वह भी पूरा नहीं है। सवाल नहीं था। सवाल महत्वपूर्ण दिखता था, ब्रह्म-जिज्ञासा का उसमें भी संग्रह करने वालों के हाथों की छाप स्पष्ट है। जो संगृहीत | था। लेकिन कुतूहल था; बस, पूछ लिया था। है, उसमें भी जोड़-तोड़ है। स्वभावतः, आदमी की सीमा है, एक गांव में मैं ठहरा था। दो बूढ़े मेरे पास आए। एक जैन थे, कमजोरी है।
| एक हिंदू ब्राह्मण थे। दोनों पड़ोसी थे, बचपन के साथी थे। और इसलिए किताबों को मैं वेद नहीं कहता। मैं तो वेद ज्ञान को | | निरंतर का विवाद था दोनों के बीच। क्योंकि हिंदू ब्राह्मण कहता था, कहता हूं। जहां भी ज्ञान है, वहीं वेद है, वहीं ब्रह्म बोल रहा है। । | ईश्वर ने सृष्टि बनाई; क्योंकि बिना बनाए कोई चीज कैसे हो सकती
| है! जैन कहता था, कोई बनाने वाला नहीं है; क्योंकि अगर कोई
| बनाने वाला है, तो. फिर तो बनाने वाले का भी बनाने वाला होना तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया। | चाहिए! और अगर ईश्वर बिना बनाए हो सकता है, तो सृष्टि ही को उपदेश्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः । । ३४ ।। बनाने वाले की क्या जरूरत है? वह भी बिना बनाए हो सकती है। इसलिए तत्व को जानने वाले ज्ञानी पुरुषों से भली प्रकार तो सृष्टि अनादि है, जैन कहता। और हिंदू कहता कि उसका भी दंडवत प्रणाम तथा सेवा और निष्कपट भाव से किए हुए । प्रारंभ है परमात्मा से। विवाद उनका लंबा था। कोई साठ के करीब
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ॐ गीता दर्शन भाग-26
दोनों की उम्र थी। उन्होंने मुझसे आकर कहा, हमारा लंबा विवाद क्यूरिआसिटी न हो, जिज्ञासा हो। कुतूहल नहीं है; सच में ही है। अब तक हल नहीं हो पाया। अब तो हम मरने के करीब आ | जानना चाहता है एक आदमी। ऐसा नहीं कि ऐसे ही पूछ लिया, गए. यह विवाद हल होता भी नहीं। न मैं इनकी मानता. न ये मेरी बाई दि वे। ऐसा नहीं चलते थे रास्ते से. पछ लिया. ऐसा नहीं। मानते। आपको हम निर्णायक बनाते हैं। हम दोनों का विवाद हल | सच में ही जानना चाहता है; जानने को बड़ा आतुर है। लेकिन करें।
आतुर तो जानने को है, बहुत आतुर है, लेकिन जिससे जानना __ मैंने कहा कि निर्णायक मैं बन जाऊं, लेकिन पहले मेरे दो-तीन चाहता है, उसे इतना भी आदर नहीं देना चाहता कि मैं तुमसे जानना सवालों का जवाब दे दें। उन्होंने कहा, क्या? मैंने कहा कि अगर यह | चाहता हूं; तो जानने की आतुरता भी सार्थक जिज्ञासा नहीं बन तय हो जाए कि ईश्वर ने सृष्टि बनाई, तो मैंने ब्राह्मण बूढ़े से पूछा सकती है। कि फिर तुम क्या करोगे? उसने कहा, नहीं; करना क्या है! मैंने कहा वह ऐसा ही है कि एक आदमी बहुत प्यासा है। हाथ चुल्लू कि अगर यह तय हो जाए कि ईश्वर ने सृष्टि बनाई नहीं, वह है भी | बांधकर खड़ा है नदी के किनारे; लेकिन झुकना नहीं चाहता है कि नहीं। और सृष्टि सदा से है, तो मैंने जैन बूढ़े से पूछा कि फिर तुम्हारे झुके और पानी भर ले तो नदी अपने नीचे बहती रहेगी। कोई नदी इरादे क्या हैं? उसने कहा, कोई और इरादे नहीं हैं. बस यह तय हो। छलांग लगाकर और किन्हीं की चुल्लुओं में नहीं आती। चुल्लुओं जाना चाहिए। मैंने कहा, तुम कितने दिन से इस पर विवाद करते हो? | को ही नदी तक झुकना पड़ता है। जिस विवाद के तय हो जाने का कोई जीवंत परिणाम होने वाला नहीं | इसलिए कृष्ण कहते हैं, दंडवत करके। है, वह कुतूहल है। जिस विवाद के कनक्लूसिव हो जाने पर तुम ज्ञान की भी एक नदी है, धारा है। उसे कोई अहंकार में अकड़कर कहते हो, कोई और बात नहीं है, बस यह तय हो जाना चाहिए। | खड़ा होकर चाहे कि ज्ञान पा ले, कि किसी प्रश्न का सार्थक उत्तर प्रयोजन क्या है? होगा क्या? करोगे क्या?
पा ले, तो असंभव है। क्योंकि वह अहंकार ही बताता है कि जो __ मैंने उस ब्राह्मण बूढ़े को कहा कि जितना तुमने इनसे विवाद | | झुकने को राजी नहीं, उसका चुल्लू भरा नहीं जा सकता। झुके! करने में समय गंवाया, उतनी देर तुमने उस ईश्वर को खोजा जिसने | ___ झुकने में राज क्या है ? झुकने का इतना आग्रह क्या है? सृष्टि बनाई है? उसने कहा कि नहीं; अभी तो इस दिशा में कुछ दंडवत करके प्रतीकात्मक है। दंडवत का मतलब यह नहीं है कि किया नहीं। मैंने कहा, जितने दिन तुम इनसे विवाद कर रहे थे, उतने सच में ही कोई आदमी सिर जमीन पर रख दे, तो कुछ हल हो जाए। दिन अगर खोजते, तो शायद वह मिल ही जाता। लेकिन शायद उसे नहीं; भाव चाहिए दंडवत का। अहंकार झुका हुआ चाहिए; क्योंकि खोजने का कोई सवाल नहीं है।
जहां अहंकार झुकता है, वहां हृदय का द्वार खुलता है। उस खुले मैंने उस जैन बूढ़े को कहा कि तुम्हें पक्का हो गया है कि प्रभु ने | | द्वार में ही रिसेप्टिविटी, ग्राहकता पैदा होती है। प्रकृति नहीं बनाई; अनादि है सृष्टि; तो इस अनादि सृष्टि के रहस्य | जहां हृदय का द्वार बंद है, अहंकार अकड़कर खड़ा है, द्वार बंद को जानने के लिए तुमने क्या किया है? या इस आदमी से विवाद | है, वहां उत्तर प्रवेश भी नहीं कर सकता। इसलिए अहंकार से पूछी कर रहे हो, इतना जानकर; बस इतना ही उपयोग है इस जानने का? | | गई जिज्ञासा को ज्ञानीजन उत्तर नहीं देते हैं। वे कहते हैं, जाओ, कुतूहल!
| अभी समय नहीं आया। इसलिए कृष्ण पहले ही कहते हैं, दंडवत करके; कुतूहल से शिष्य और गुरु के बीच जो संबंध है, वह जैसा प्रचलित है, वैसा नहीं। क्योंकि जो कुतूहल से पूछेगा, उसे कभी गहरे उत्तर नहीं मिल नहीं है। शिष्य का मतलब ही इतना है कि सीखने को जो तैयार है। सकते हैं। आपकी आंखों में दिखा कुतूहल, और उत्तर देने वाला | | शिष्य का मतलब ही इतना है कि सीखने को जो तैयार है। तैयार बचाव कर जाएगा। क्योंकि जो जानता है, वह हीरे उन्हीं के सामने है, सीखने को! शिष्य का बिगड़ा हुआ एक रूप आप देखते हैं, रख सकता है, जो हीरों को पहचान सकते हों। हर किसी के सामने सुनते हैं, सिक्ख। सिक्ख का मतलब है, सीखने को जो तैयार है। हीरे रख देना नासमझी है। अर्थ भी नहीं है, प्रयोजन भी नहीं है। तो | | हालांकि सिक्ख सीखने को तैयार मिलेगा नहीं। सिक्ख होना बहुत जो जानता है, वह कुतूहल का उत्तर नहीं दे सकता है। | मुश्किल है। शिष्य होना बहुत मुश्किल है। दूसरी बात, कुतूहल न हो, जिज्ञासा हो, इंक्वायरी हो; | शिष्य होने का मतलब है, जो कि सीखने को, झुकने को, विनम्र
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होने को राजी है। क्योंकि ह्युमिलिटी में, विनम्रता में ही द्वार खुलता | | समय हो गया। और जहां तक मैं समझता हूं, वे अब आएंगे भी है। जब हम झकते हैं. तभी द्वार खुलता है। अकड़कर खड़े हए नहीं; क्योंकि उत्तर होता, तो कल सांझ को ही दे देते। रातभर में आदमी के द्वार बंद होते हैं।
उत्तर खोजेंगे कैसे? कहीं उत्तर रखा हुआ थोड़े ही है कि वे उठाकर इसलिए कृष्ण कहते हैं, दंडवत करके जो प्रश्न पूछता है! ले आएंगे, ढूंढ़ लेंगे, कि तैयार कर लेंगे। अगर अनुभव होता उन्हें, दंडवत करके कौन प्रश्न पूछता है? और दंडवत करके कौन | | तो कल ही कह दिए होते। तो अगर हो इरादा, तो मैं उत्तर दूं। प्रश्न नहीं पूछता है?
राजा ने कहा, हद हो गई! तू द्वारपाल; सदा दरवाजे पर खड़ा जो आदमी दंडवत करके प्रश्न नहीं पूछता है, वह वह आदमी | रहा। विद्वान हार गए; तू उत्तर देगा! उसने कहा, मैं उत्तर दूंगा। राजा है, जो भीतर तो यह मानकर ही चलता है कि मझे तो खद ही पता ने कहा, भीतर आ; उत्तर दे। उसने कहा, पहले नीचे उतरो सिंहासन है। ऐसे ही पछे ले रहे हैं एक विटनेस के बतौर कि अगर इनको भी | से। मैं सिंहासन पर बैठता हूं। दंडवत करो नीचे। राजा ने कहा, पता हो, तो गवाही मिल जाए कि जो हम जानते थे, वह ठीक है। पागल, किस तरह की बातें करता है। उसने कहा. तो फिर. फिर दंडवत करके वही पूछता है, जिसे बोध है अपने अज्ञान का। । | तुम्हें उत्तर कभी नहीं मिलेगा। जो तुम्हारे चरणों में बैठते हैं, उनसे
मैंने सुबह आपसे कहा, अज्ञान का बोध ज्ञान यज्ञ का पहला | | तुम्हें उत्तर कभी भी नहीं मिलेगा। क्योंकि वे उत्तर देने योग्य होते, चरण है। उसको कृष्ण फिर दोहराते हैं। अब वे एक नए रूप से तो तुम्हें चरणों में बिठा लिया होता उन्होंने। उतरो नीचे, उस कहते हैं कि दंडवत करके जो पूछता, झुककर जो पूछता! द्वारपाल ने कहा।
एक बहुत मीठी कहानी है। मैंने सुना है, एक सम्राट ने अपने राजा एकदम घबड़ा गया! कोई था भी नहीं। दरबार में कोई था दरबार के बुद्धिमानों को कहा कि मैं जानना चाहता हूं कि ब्रह्म इस नहीं। कहा, उतर नीचे! जब प्रश्न पूछा है, तो उत्तर देकर रहेंगे। जगत में, कहते हैं लोग, इस भांति समाया है कि जैसे नमक सागर राजा घबड़ाकर नीचे बैठ गया। द्वारपाल सिंहासन पर बैठ गया। के जल में। दिखाओ मुझे, यह समाया हुआ ब्रह्म कहां है? | द्वारपाल ने कहा, दंडवत कर! सिर झुका! राजा ने सिर झुकाया।
विद्वान थे दरबार में लोग। लेकिन दरबार में जैसे विद्वान हो और जीवन में पहली बार उसे सिर झुकाने के आनंद का अनुभव सकते हैं, वैसे ही थे। दरबार में कोई ज्ञानी होगा, इसकी आशा तो |
दरबार म काइ ज्ञाना होगा, इसकी आशा तो हुआ-पहली बार! मुश्किल है। दरबारी विद्वान थे। सब जगह मिलते हैं। अगर दिल्ली | | सिर अकड़ाए रखने की बड़ी पीड़ा है। लेकिन जिंदगीभर में जाइए तो बहुत हैं। तो दरबारी विद्वान! उनका काम दरबार की | | अकड़ाए रखने से पैरालिसिस हो जाती है। अकड़ ही जाता है। फिर शोभा बढ़ाना। शृंगारिक उपयोग है उनका, डेकोरेटिव। तो सभी | उसको झुकाना हो, तो बड़ी कठिनाई होती है। सम्राट अपने दरबार में विद्वान रखते थे, नहीं तो सम्राट मूढ़ समझा बड़ी मुश्किल से तो झुकाया। लेकिन सिर झुकाकर जब उसके जाए। लेकिन मूढ़ के दरबार में जो विद्वान हों, वे कितने विद्वान पैरों में पड़ रहा, तो उस द्वारपाल ने थोड़ी देर बाद कहा कि अब होंगे, यह समझा जा सकता है।
ऊपर भी उठा! पर सम्राट ने कहा, थोड़ी देर रुक। मैंने तो यह सुख विद्वान मुश्किल में पड़े। बहुत समझाने की कोशिश की। बड़े कभी लिया नहीं। थोड़ा रुक। जल्दी नहीं है उत्तर की। उद्धरण दिए। लेकिन सम्राट ने कहा, नहीं, मुझे दिखाओ आधी घड़ी, घड़ी बीतने लगी। द्वारपाल ने कहा, अब सिर निकालकर। जो सभी जगह छिपा हुआ है, थोड़ा-बहुत तो उठाओ। जवाब नहीं लेना है? उस सम्राट ने ऊपर देखा और उसने निकालकर कहीं से दिखाओ! हवा से निकाल दो, दीवाल से | | कहा, जवाब मुझे मिल गया। अकड़ा था, इसीलिए मुझे पता नहीं निकाल दो, मुझसे निकाल दो, खुद से निकाल दो! कहीं से तो | | चला उस ब्रह्म का; आज झुका तो मुझे पता लगा कि कहां खोजता निकालकर थोड़ी तो झलक दिखाओ! मुश्किल में पड़ गए। पर हूं बाहर! जब सब जगह है, तो भीतर भी तो होगा ही। झुके-झुके सम्राट ने कहा, नहीं बता सकोगे कल सुबह तक, तो छुट्टी! फिर मैं उसी में खो गया। उत्तर मुझे मिल गया। तुम मेरे गुरु हो। लौटकर मत आना। बड़ी कठिनाई हो गई। बड़ी कठिनाई हो गई! बिना कहे उत्तर मिल गया! बिना उत्तर दिए उत्तर मिल गया! हुआ
द्वारपाल भी खड़ा हुआ सुनता था। दूसरे दिन सुबह जब विद्वान क्या? हंबलनेस, ह्युमिलिटी, विनम्रता गहरे में उतार देती है और नहीं आए, तो उस द्वारपाल ने कहा, महाराज! विद्वान तो आए नहीं; वहां से जो अंतर-ध्वनियां सुनाई पड़ती हैं, वे उत्तर बन जाती हैं।
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गीता दर्शन भाग-20
इसलिए कृष्ण कहते हैं, दंडवत करके प्रश्न पूछना ऐसे पुरुष से। तब सीखने वाला चाहिए झुका हुआ, खुला द्वार, वलनरेबल,
लेकिन प्रश्न पूछने वाले आते हैं; मेरे पास ही आ जाते हैं, तो ताकि कोई चीज उसमें प्रवेश कर सके। कुछ डाला जा सके, तो चारों तरफ देखते हैं कि कहां बैठे? प्रश्न क्या पूछना है! शायद | | झेला जा सके। उलटा पात्र नहीं चाहिए शिष्य का, कि कुछ गिरे, प्रश्न के बहाने कुछ बताने ही चले आए हों।
| तो सब बाहर गिर जाए। सीधा पात्र चाहिए। आज पृथ्वी पर पूछने की कला ही खो गई है। हाउ टु बी ए. बुद्ध कहा करते थे कि कई पात्र ठीक हैं बिलकुल, लेकिन उलटे डिसाइपल, कैसे सीखने वाले बनना, वह बात ही खो गई है। | रखे हैं। उन पर हम डालते हैं, बेकार चला जाता है। कई पात्र सीधे इसलिए मैं निरंतर कहता हूं, गुरु की कोई जरूरत नहीं। मूढजन | रखे हैं, लेकिन बिलकुल फूटे हैं। उन पर डालते हैं, बह जाता है। बहुत प्रसन्न होते हैं। इसलिए नहीं कि वे समझ जाते हैं मेरा मतलब पात्र ऐसा चाहिए कि फूटा न हो। और पात्र ऐसा चाहिए कि फूटा कि गुरु की जरूरत नहीं; वे समझ जाते हैं कि शिष्य होने की कोई न हो और सीधा हो। जरूरत नहीं। बड़े प्रसन्न होते हैं। उनकी प्रसन्नता देखकर मैं हैरान जब कोई दंडवत करता, तो फूटा पात्र नहीं होता; क्योंकि झुकने होता हूं।
| के लिए बड़ी सामर्थ्य चाहिए। इसे जरा कठिन लगेगा सोचना कि गुरु की कोई जरूरत नहीं, जब मैं यह कहता हूं, तो मेरा मतलब झुकने के लिए बड़ी सामर्थ्य चाहिए। झुका तो कमजोर भी सकते होता है कि गुरु को पता ही नहीं होता कि वह गुरु है। लेकिन शिष्य | | हैं, झुकना सिर्फ महाशक्तिशालियों का काम है। झुका लेना तो को पूरा पता होना चाहिए कि वह शिष्य है। क्योंकि शिष्य को अभी किसी को बड़ा आसान है; झुक जाना बड़ा कठिन है। और तब झुक सीखना है; गुरु को अब सीखना नहीं है। गुरु वहां पहुंच गया है, जाना तो आसान है, जब कोई झुकाता हो। तब झुक जांना महान जहां कुछ भी याद रखने की जरूरत नहीं है। शिष्य को अभी बहुत कार्य है, जब कोई झुकाता न हो। कुछ याद रखना है; क्योंकि अभी यात्रा पूरी नहीं हो गई है। कोई गुरु कहे, झुक! डंडे से झुका दे; चार आदमी लगाकर झुका
मुझसे लोग कहते हैं कि आप पहले तो कहते थे, गुरु की कोई दे; तो झुक जाएंगे। लेकिन तब झुकना बहुत आसान है। लेकिन जरूरत नहीं है। और अब आप कहने लगे कि जरूरत है! गर्दन ही झुकाई जा सकेगी, और कुछ भी नहीं झुकेगा। लेकिन जब
तो मैंने कभी नहीं कहा कि गुरु की कोई जरूरत नहीं, इस अर्थ कोई कहता ही नहीं झुकने की कोई बात; कोई आतुर ही नहीं; तब में कि शिष्य की कोई जरूरत नहीं। लेकिन दंभी प्रकृति के व्यक्ति | झुकना, तब सहज, स्पांटेनियस-दंडवत का वही अर्थ है, अपनी इस बात को सुनकर बड़े प्रसन्न होते हैं। गुरु की कोई जरूरत नहीं, | ओर से सब छोड़कर पड़ जाना, सरेंडर्ड, समर्पित।। उसका मतलब यह कि अब किसी से सीखने की कोई जरूरत नहीं। उस क्षण में ही प्रश्न पूछा जा सकता है। उस क्षण में प्रश्न न तो
अब तो हम खुद ही गुरु हो गए! गुरु की कोई जरूरत नहीं, मतलब | कुतूहल होता, न जिज्ञासा होता; बल्कि उस क्षण में प्रश्न मुमुक्षा हम खुद ही गुरु हैं! तो उन्हें लगता है कि मैं कंट्राडिक्शन करता हूं। बन जाता है। उस क्षण में प्रश्न प्यास हो जाता है। उस क्षण में प्रश्न कह देता हूं कभी कि गुरु की जरूरत है!
ऐसा नहीं है कि चलते हुए पूछ लिया; प्रश्न ऐसा नहीं है कि जानना जब मैं कहता हूं, गुरु की जरूरत है, तो मैं शिष्यों से कह रहा चाहते थे, इसलिए पूछ लिया। प्रश्न ऐसा है कि रूपांतरित होना हूं। और जब मैं कहता हूं, गुरु की कोई जरूरत नहीं, तो गुरुडम चाहते हैं, इसलिए पूछा। बदलना चाहते हैं, क्रांति से गुजरना चाहते चलाने वाले गरुओं से कह रहा है। क्योंकि गरुडम जो चलाता है. हैं. म्यटेशन से जाना चाहते हैं. और हो जाना चाहते हैं। वह तो गुरु होता नहीं। जिसे गुरु होने की धारणा भी पकड़ जाती है, | प्रश्न ऐसा नहीं था, जैसे बच्चे पूछ लेते। प्रश्न ऐसा नहीं था, वह तो गुरु के योग्य नहीं रह जाता है।
| जैसा वैज्ञानिक पूछता। प्रश्न ऐसा था, जैसा साधक पूछता है। ऐसा ध्यान रहे, गुरु का जिसे खुद खयाल पकड़ जाए कि मैं गुरु हूं, | प्रश्न पूछा जाए, तो ही ज्ञान जिसके जीवन में घटित हुआ, उससे वह गुरु नहीं रह जाता। और जिस शिष्य को यह खयाल न पकड़े | धारा बहनी शुरू होती है। कि मैं शिष्य हूं, वह शिष्य नहीं रह जाता। और ऐसा शिष्य चाहिए, दंडवत का एक और अर्थ आपको स्पष्ट करना चाहूंगा। क्योंकि जिसे पता हो कि वह शिष्य है। और ऐसा गुरु चाहिए, जिसे पता बड़ी भ्रांतियां हैं। मैं निरंतर कहता रहा हूं कि किसी के पैर मत न हो कि वह गुरु है। तब गुरु-शिष्य का मिलन होता है। छुओ। लोग मेरे पैर छू लेते हैं। तो लोग मेरे पास आ जाते हैं कि
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आपने कहा कि किसी के पैर मत छुओ और फलां आदमी आपका | पैर पर सिर रखने देने से बड़े आश्चर्यचकित हो जाते हैं। असल में पैर छू रहा था! आपने रोका क्यों नहीं?
उन्हें रहस्य का कोई पता नहीं। किसी के पैर मत छुओ का मतलब, औपचारिक मत छुओ, ___ फिर यह भी ध्यान रहे कि दंडवत इस मुल्क में एक बहुत फार्मल मत छुओ, जानकर मत छुओ, कोशिश करके मत छुओ, साइंटिफिक प्रोसेस का हिस्सा थी, एक वैज्ञानिक प्रक्रिया थी। मत छुओ, एफर्ट से मत छओ. प्रयत्न-यत्न से मत
प्रत्येक व्यक्ति का शरीर विद्युत-ऊर्जा से भरा है। और यह छुओ; और दूसरे छू रहे हैं, इसलिए मत छुओ; कोई क्या कहेगा, | | विद्युत-ऊर्जा कोणों से, कोनिकल जगह से बहती है—अंगुलियों इसलिए मत छुओ।
| से और पैर की अंगुलियों से, हाथ की अंगुलियों से और पैर की पैर छूना उस क्षण दंडवत बन जाता है, जिस क्षण आपको पता | | अंगुलियों से। जब भी कोई व्यक्ति इस स्थिति में पहुंच जाता है, ही नहीं चलता कि आप पैर छू रहे हैं। एफर्टलेस! पता ही तब समर्पित परमात्मा पर, तो उसकी ऊर्जा परमात्मा से संबंधित हो चलता है, जब पैर छूने की घटना घट गई होती है, जब कहीं सिर | जाती है। उसके पैरों पर अगर सिर रख दिया है, तो विद्युत-संचरण, रख जाता है किसी चरण पर। तब ध्यान रहे, जब ऐसी मनोदशा में तरंगों का प्रवाह भीतर तक दौड़ जाता है। उसके हाथों से भी यह सिर रख जाता है किसी चरण पर, तो प्रार्थना घटित हो जाती है, | | होता है। इसलिए पैर पर सिर रखने का रिवाज था। और हाथ सिर ध्यान घटित हो जाता है। तो ऐसे क्षण में वह विनम्रता घटित हो पर रखकर आशीष देने का रिवाज था। जाती है. जो शिष्यत्व है. डिसाइपलशिप है।
अगर किसी व्यक्ति के पैरों पर आपने सिर रखा और उसने भी और ये पैर एकदम ही व्यर्थ नहीं हैं, इनका आकल्ट उपयोग भी | | आपके सिर पर हाथ रख दिया, तो आपके दोनों के शरीर इलेक्ट्रिक है। कभी आपने खयाल किया, किसी पर क्रोध आता है, तो उसका | | सर्किट बन जाते हैं और विद्युत-धारा दोनों तरफ से दौड़ जाती है। सिर खोल देना चाहते हैं। बहुत क्रोध आ जाता है किसी को...। | इस विद्युत-धारा के दौड़ जाने के गहरे परिणाम हैं।
अभी मैं बड़ौदा में था। एक आदमी को बहुत क्रोध आ गया मुझ लेकिन जीवन के बहुत-से सत्य समय की धूल से जमकर व्यर्थ पर, तो उसने एक जूता फेंककर मेरी तरफ मार दिया। फिर भी मैंने | हो जाते हैं। जीवन के बहुत-से सत्य गलत लोगों के हाथ में पड़कर उससे कहा कि तेरा क्रोध पूरा नहीं है; नहीं तो दूसरा जूता क्यों रोका खतरनाक भी हो जाते हैं। है? उसको भी फेंक। और फिर एक जूते का मैं क्या करूंगा? दो दंडवत करके पूछना, प्रश्न करना, जिज्ञासा, तो जिसने जाना है, जूते होंगे, तो कुछ उपयोग में आ सकते हैं!
| उससे ज्ञान का अमृत तेरी तरफ बह सकता है अर्जुन, ऐसा कृष्ण क्रोध तेजी से आ जाए, तो जूता फेंकने का मन होता है। क्या | कहते हैं। बात है? सिंबालिक है। क्रोध जोर से आ जाए, तो दूसरे के सिर में पैर मारने की तबियत होती है। अब पैर तो मार नहीं सकते। इतनी छलांग लगाना, कुछ थोड़े से हाई जंप करने वालों को संभव हो! प्रश्नः भगवान श्री, इस श्लोक में यह भी कहा गया बाकी किसी के सिर में पैर मारने जाओ, तो हाथ-पैर अपने टूट है कि सेवा और निष्कपट भाव से किए गए प्रश्न पर जाएं! उतनी मेहनत मुश्किल मालूम पड़ती है। इसलिए जूते को ज्ञानीजन उपदेश करते हैं। कृपया सेवा और निष्कपट सिंबालिक एक्ट की तरह. प्रतीक-चिह्न की तरह उसके सिर पर | भाव से किए गए प्रश्न का अर्थ स्पष्ट करें। फेंक देते हैं, कि यह ले!
जब क्रोध में ऐसा घटित होता है, तो क्या इससे विपरीत घटित नहीं हो सकता कि किसी के चरणों में सिर रखने का क्षण आ जाए? 27 केला प्रश्न, कुछ लेने की आकांक्षा है। लेकिन जिसने जब क्रोध से पीड़ित, विक्षिप्त चित्त दूसरे के सिर पर पैर रखना 1 कुछ दिया नहीं, वह लेने का अधिकारी नहीं है। पूछने चाहता है, तो मौन से, प्रेम से, प्रार्थना से, शांत हुआ चित्त, अगर
चल पड़े, तो मांगने तो चल पड़े, लेकिन प्रत्युत्तर देने दुसरे के पैरों में सिर रखना चाहे, तो आश्चर्य क्या है? | की सामर्थ्य भी चाहिए। और सच तो यह है कि मांगने का हक
लेकिन जो लोग जूते मारने में कोई आश्चर्य न देखेंगे, वे लोग मिलता है तब, जब देने का काम पूरा हो चुका हो।
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ॐ गीता दर्शन भाग-20
इसलिए पुरानी भारतीय आध्यात्मिक धारणा थी कि जब कोई आज तो हालतें बड़ी मजेदार हैं। मैं अभी बिहार में था कुछ समय पूछने जाए, तो सीधा पूछने न चला जाए। क्योंकि कितने विराट की पहले। रात दस बजे बोलकर लौटा। कलेक्टर उस गांव के आए। मांग कर रहे हो तुम! तुम कह रहे हो, सत्य की खबर दो मुझे! कह पढ़े-लिखे आदमी हैं। दस बजे आए। मैंने कहा, अब तो मेरे सोने रहे हो, परमात्मा का इशारा बताओ मुझे! कह रहे हो कि आखिरी का समय हुआ। आप सुबह आ जाएं, आठ बजे। उन्होंने कहा, मंजिल का द्वार कहां? मार्ग कहां? विधि कहां? पूछते हो परम आठ बजे तो मैं न आ पाऊंगा; क्योंकि आठ बजे तो मेरे नाश्ते का को-सीधा पूछते हो! बिना कुछ दिए पूछते हो! अशोभन है। सेवा | समय है। से और निष्कपट भाव से की गई सेवा से पूछो।
लाए थे ब्रह्म-जिज्ञासा; कहने लगे, आठ बजे नाश्ते का समय इसलिए इस मुल्क की व्यवस्था थी। और इस मुल्क की है! मैंने कहा, तो फिर दस बजे आ जाएं, क्योंकि आठ से दस व्यवस्था दस पथ्वी पर की गई मनष्य की व्यवस्थाओं में सर्वाधिक शिविरार्थियों के लिए दिया है। दस बजे आ जाएं। गहरी थी। हजार-हजार वर्षों में हजार-हजार प्रयोगों के बाद नियत | | दस बजे तो नहीं आ सकता। दफ्तर जाऊंगा। की गई थी। हजारों-लाखों अनुभवों के बाद सार-निचोड़ था। | ब्रह्म-जिज्ञासा! एक दिन की छुट्टी नहीं ली जा सकती! तो मैंने
तो गुरु के पास शिष्य जाता, तो वर्षों तो सेवा करता। कभी पैर | कहा, परसों आ जाएं। उन्होंने कहा, परसों! सुबह तो नहीं आ दबा देता। कभी उसका पानी भर लाता। कभी उसकी लकड़ी चीर सकूँगा। कुछ मेहमान आते हैं। ब्रह्म-जिज्ञासा! मेहमान आ रहे हैं! देता। कभी उसकी आग जला देता। और प्रतीक्षा करता कि गुरु | | मैंने कहा, सांझ आ जाएं। कहा कि थियेटर के टिकट ले रखे हैं! किसी दिन कहे, पूछो। अपनी तरफ से पूछता भी नहीं। क्योंकि | | ब्रह्म-जिज्ञासा! थियेटर के टिकट ले रखे हैं! अनधिकार होगा। पता नहीं, मैं पात्र भी हूं या नहीं। पता नहीं, मेरी | तो फिर मैंने कहा कि हाथ जोड़कर दंडवत करूं आपके और पूर्वी योग्यता भी है या नहीं। पता नहीं, मैं इस जगह भी हूं या नहीं कि | | कि कब आज्ञा है कि आपके दरवाजे उपस्थित हो जाऊं! थोड़े पूर्छ। और अगर मैं पूछ लूं, अपात्र होऊं, तो गुरु को उत्तर देने के | घबड़ाए। विचलित हुए। व्यर्थ के कष्ट में डालने वाला न बन जाऊं! रुकू। जिस दिन गुरु | क्या, चाहते क्या हैं हम? चाहते भी हैं कुछ ? कहेगा, पूछ! पूछ लूंगा। प्रतीक्षा करता। कभी-कभी वर्ष बीत | | स्वभावतः, अगर ब्रह्म हमारे अनुभव से खो गया है, तो आश्चर्य जाते। धैर्य, अवेटिंग, धीरज से राह देखता। करता रहता काम।। | नहीं है। पूछने वाले ही खो गए। सम्यकरूपेण जानने की आतुरता
फिर किसी दिन गुरु कहता, ठीक। अब तू आ। अब तू पूछ। | वाले ही खो गए। इतना-सा छोड़ने का मन नहीं है! तुझे देखा। तुझे जाना। तुझे परखा। तुझे निकट से समझा। पात्र है । । इसलिए कहते हैं कृष्ण, सेवापूर्वक, निष्कपट भाव से...। तू। उठा ला समिधा। प्रश्न जगा। पूछ ले।
निष्कपट भाव क्यों जोड़ दिया? क्योंकि सेवा में भी कपट हो जिस दिन गुरु कहता, पूछ ले, उस दिन गुरु उस प्रसन्नता में, सकता है। सेवा में भी सिर्फ इतना ही मतलब हो सकता है कि कर उस पात्र को पहचान लेने की प्रसन्नता में, लबालब भरा होता। जैसे | | रहे हैं सेवा, ऐज ए बार्गेन, एक सौदे की तरह कि हम कर देंगे सेवा, बादल भर जाते हैं वर्षा के पहले; आतुर धरती कहीं भी पुकारे, | तुम बता देना ब्रह्म! बरस पड़ते हैं। ऐसे ही भरा होता है उस प्रसन्नता में। उस क्षण प्रसाद जहां सौदा है, वहां सेवा नहीं रह गई, वहां कपट आ गया। बहने को तत्पर होता। उस क्षण दंडवत करके, उस दिन चरणों में निष्कपट! सेवा को और भी कठिन बना दिया। करना सेवा सिर रखकर वह अपना प्रश्न उपस्थित करता।
निष्कपट कि अगर चार साल सेवा करने के बाद गुरु कहे, जाओ। अदभुत लोग रहे होंगे। एकाध प्रश्न पूछने के लिए दो-चार वर्ष | | मत पूछो। तो यह न कह पाओ कि मैंने चार साल सेवा की! क्या प्रतीक्षा करना! अदभुत लोग रहे होंगे। जिज्ञासा नहीं रही होगी, | | इसलिए? यह भी न कह पाओ। गुरु कहे, नहीं; जाओ। तो चले कतहल नहीं रहा होगा, ममक्षा रही होगी प्राणों की: दांव रहा होगा जाना कि सेवा का अवसर दिया. यही धन्यभाग है। निष्कपट सारी जिंदगी को लगाने का। सवाल सवाल नहीं था, जिंदगी का | इसलिए है। सवाल था। उसके तय होने पर सब कुछ निर्भर था। तो दो वर्ष निष्कपट सेवा हो, झुका हुआ सिर हो, खुला हुआ मन हो, तो प्रतीक्षा भी की थी।
ज्ञान की गंगा कहीं भी, कहीं से भी उतर आने को सदा तत्पर है।
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चरण-स्पर्श और गुरु-सेवा *
शेष कल सुबह।
अब संन्यासी कीर्तन करेंगे, डूबेंगे इस भाव में। आप अपनी जगह बैठे रहें। उठे न! कल जैसी भीड़ न कर लें, अपनी जगह बैठे रहें। बैठकर ही देखेंगे, ज्यादा आनंद आएगा। आगे न बढ़ें। जिनको कीर्तन करना है, वे आगे आ जाएंगे। बाकी अपनी जगह बैठे रहें। दस मिनट डूबें। ताली बजाएं साथ में। गाएं साथ में। भाव में एक साथ हों।
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अध्याय 4
पंद्रहवां प्रवचन
मोह का टूटना
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ॐगीता दर्शन भाग-20
यज्जात्वा न पुनमोहमेवं यास्यसि पाण्डव।। फिर बाकी सब आकांक्षाएं मोह की इसी आकांक्षा से पैदा होती हैं। येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि ।। ३५।। । कभी-कभी हैरानी होती है। राह पर देखकर कभी अंधे, लंगड़े, कि जिसको जानकर तू फिर इस प्रकार मोह को नहीं प्राप्त लूले, भिखारी को, मन में सवाल उठा होगा, किसलिए जीना चाहता होगा; और हे अर्जुन, जिस ज्ञान के द्वारा सर्वव्यापी अनंत है? अंग-अंग गल गए हैं। किसलिए जीना चाहता है? कभी सवाल चेतनरूप हुआ अपने अंतर्गत समष्टि बुद्धि के आधार संपूर्ण उठा होगा। उसी लिए, जिस लिए हम जीना चाहते हैं। अंग गल भूतों को देखेगा और उसके उपरांत मेरे में अर्थात जाएं, लेकिन जीने का मोह नहीं गलता। आंखें चली जाएं, पैर टूट सच्चिदानंद स्वरूप में एकीभाव हुआ | जाएं, आदमी सड़ता हो, फिर भी जीने का मोह नहीं पिघलता! सच्चिदानंदमय ही देखेगा।
कई बार लगता है कि बूढ़े कहते हुए सुनाई पड़ते हैं कि अब तो परमात्मा उठा ही ले। तो आप यह मत समझना कि वे सच ही उठ
जाने को तैयार हैं। अगर आप सब मिलकर कोशिश करने लगें कि लान का पहला आघात मोह पर होता है। ज्ञान की पहली | ठीक; उठवाए देते हैं! तब आपको पता चलेगा कि वे जब यह कह सा चोट ममत्व पर होती है। या उलटा कहें, तो ममत्व के रहे हैं कि अब तो परमात्मा उठा ही ले, तो वे सिर्फ एक शिकायत
विदा होते ही ज्ञान की किरण, पहली किरण, फूटती है। | कर रहे हैं कि इस तरह जिंदा रखने में कोई मजा नहीं; और तरह मोह के नाश होते ही ज्ञान के सूर्य का उदय होता है। ये दोनों घटनाएं | जिंदा रखे। गहरे में मरने की आकांक्षा उनकी भी नहीं है। युगपत हैं, साइमल्टेनियस हैं। इसलिए दोनों तरह से कहा जा सकता | | मैंने सुनी है एक घटना; एक अरेबियन कहानी है। एक है, प्रकाश के फूटते ही अंधकार विलीन हो जाता, या ऐसा कहें कि लकड़हारा रोज लकड़ी काटता है। गांव में बेचता है। बूढ़ा हो गया जहां अंधकार विलीन हुआ, हम जानते हैं कि प्रकाश फूट गया है। | | है। एक दिन लौट रहा है, सिर पर भारी बोझ है। सुबह दोपहर बन
कृष्ण कहते हैं, सम्यक विनम्रता से पूछे गए प्रश्न के उत्तर में रही है। पसीने से लथपथ बूढ़ा आदमी है; लकड़ियां ढोता हुआ ज्ञानीजन से जो उपलब्ध होता, उससे मोह-नाश होता है अर्जुन। गांव की तरफ जा रहा है। कमर झुकी जाती है; बोझ सहा नहीं ___ मोह-नाश का क्या अर्थ है? मोह क्या है?
जाता। अचानक मन से निकला, हे परमात्मा! इससे तो अच्छा है । पहला मोह तो यह है कि मैं रहूं। गहरा मोह यह है कि मैं रहूं। | कि अब मौत से ही मिला दे। जीवन की अभीप्सा; जीता रहूं; कैसे भी सही, जीऊं जरूर, रहूं ऐसा होता नहीं, जैसा उस कहानी में हो गया। मौत कहीं पास जरूर; मिट न जाऊं-लस्ट फार लाइफ; जिजीविषा। से गुजरती थी और उसने सुन लिया। उसने सोचा, बेचारा, सच
जीने का मोह पहला और गहरा मोह है। शेष सब मोह उसके में तकलीफ में है। ले ही जाऊं। मौत आ गई। मौत सामने आकर आस-पास निर्मित होते हैं। यदि कोई मकान को मोह करता, तो खड़ी हुई। लकड़हारे से कहा, तुमने याद किया; मैं आ गई। मकान को कोई मोह नहीं करता। मकान का मोह-मैं रह सकू बोलो, क्या करूं? ठीक से, मैं बच सकू ठीक से, सरवाइव कर सकू-उसी मोह का लकड़हारे ने कहा, नहीं, और कुछ नहीं, सिर्फ जरा सिर से बोझ विस्तार है। कोई धन को मोह करता। धन का मोह अपने में व्यर्थ | | उतार दो। और किसी लिए याद नहीं किया; बोझ जरा सिर पर ज्यादा है। अपने में उसकी कोई जड़ नहीं। उसकी रूट्स, उसकी जड़ उस है; राह पर कोई दिखाई नहीं पड़ता है, इसे नीचे उतार दो। घबड़ा गया मैं के बचाए रखने में ही है। धन न होगा, तो बचूंगा कैसे? धन | | मौत को देखकर। जब पुकारा था, तब सोचा भी नहीं था...। होगा, तो बचने की चेष्टा कर सकता हूं।
यह खयाल रख लें, अगर परमात्मा हमारी सारी प्रार्थनाएं सुन अगर और संक्षिप्त में कहें, तो मोह मृत्यु के विरुद्ध संघर्ष है। | ले, तो हम प्रार्थना करना सदा के लिए बंद कर दें। नहीं सुनता है, पति पत्नी को मोह करता; पत्नी पति को मोह करती; बाप बेटे को | | इसलिए किए चले जाते हैं। शायद इसीलिए नहीं सुनता है, क्योंकि मोह करता, बेटा बाप को मोह करता। वे सब सिक्योरिटी मेजर्स हम अपने ही खिलाफ प्रार्थनाएं किए चले जाते हैं। क्योंकि पूरी कर हैं, सरवाइवल मेजर्स हैं, बचने के उपाय हैं। मिट न जाऊं, बचूं दे, तो हम फिर भी शिकायत करेंगे कि तूने पूरी क्यों कर दी? हमारा सदा-जीने की ऐसी जो आकांक्षा है, वह मोह का गहरा रूप है। यह मतलब थोड़े ही था! जब एक आदमी कहता है, हे प्रभु, अब
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• मोह का टूटना
तो उठा लो! तो उसका मतलब यह नहीं है कि उठा लो। उसका | इसलिए धन इतना महत्वपूर्ण है। लोग कहते हैं कि धन में कुछ भी मतलब है, इस भांति जिंदा मत रखो, ढंग से जिंदा रखो! सांकेतिक | | नहीं रखा। गलत कहते हैं। मोह का प्राण है वहां। मोह की आत्मा भाषा में बोल रहा है।
धन में बसती है। कोई मरना नहीं चाहता।
इतना धन क्यों महत्वपूर्ण हो गया है? क्या लोग पागल हैं? आप कहेंगे, कुछ लोग आत्मघात कर लेते हैं। निश्चित कर लेते | | नहीं; लोग पागल नहीं हैं। धन के बिना जीना बहुत कठिन है। जीने हैं। लेकिन कभी आपने खयाल किया कि आत्मघात कौन लोग | की आकांक्षा जितनी प्रबल है, धन पर पकड़ भी उतनी ही प्रबल करते हैं। वे ही लोग, जिनका जीवन का मोह बहुत गहन होता है, | होती है। धन पर प्रबल पकड़ सिर्फ जीने की प्रबल पकड़ की सूचना डेंस। यह बहुत उलटी बात मालूम पड़ेगी।
देती है। __एक आदमी किसी स्त्री को प्रेम करता है और वह स्त्री इनकार | अगर महावीर या बुद्ध जैसे लोग सब धन छोड़कर चले जाते हैं, कर देती है, वह आत्महत्या कर लेता है। वह असल में यह कह | तो धन छोड़कर नहीं जाते हैं। अगर गहरे में देखें, तो जीवन का जो रहा था कि जीऊंगा इस शर्त के साथ. यह स्त्री मिले: यह कंडीशन आग्रह है, वह छूटने की वजह से धन छूट जाता है। धन को करेंगे है मेरे जीने की। और अगर ऐसा जीना मुझे नहीं मिलता-उसका | | भी क्या बचाकर? कल हुआ जीवन, तो ठीक है; न हुआ, तो ठीक जीने का मोह इतना सघन है कि अगर ऐसा जीवन मुझे नहीं | है। नहीं हुआ तो उतना ही ठीक है, जितना हुआ तो ठीक है। मिलता, तो वह मर जाता है। वह मर रहा है सिर्फ जीवन के | मोहम्मद रात सोते, तो सांझ घर में जो भी होता, सब बांट देते। अतिमोह के कारण। कोई मरता नहीं है।
एक पैसा भी न बचाते। कहते, कल सुबह जीए, तो ठीक है; और एक आदमी कहता है, महल रहेगा, धन रहेगा, इज्जत रहेगी, । ।
| परमात्मा जिलाना चाहेगा, तो कल सुबह भी इंतजाम करेगा। आज तो जीऊंगा; नहीं तो मर जाऊंगा। वह मरकर यह नहीं कह रहा है | | इंतजाम किया था, कल भी इंतजाम किया था। जीवनभर का कि मृत्यु मुझे पसंद है। वह यह कह रहा है कि जैसा जीवन था, वह | | अनुभव कहता है कि अब तक जिलाना था, तो उसने इंतजाम दिया मुझे नापसंद था। जैसा जीना चाहता था, वैसे जीने की आकांक्षा | है। कल भी भरोसा रखें। मेरी पूरी नहीं हो पाती थी। वह मृत्यु को स्वीकार कर रहा है, ईश्वर मोहम्मद कहते कि जो आदमी तिजोड़ी सम्हालकर रखता है, वह के प्रति एक गहरी शिकायत की तरह। वह कह रहा है, सम्हालो नास्तिक है। है भी। कहेंगे, नास्तिक की बड़ी अजीब परिभाषा है! अपना जीवन; मैं तो और गहन जीवन चाहता था। और भी, जैसी हम तो नास्तिक उसको कहते हैं, जो भगवान को नहीं मानता। मेरी आकांक्षा थी, वैसा।
मोहम्मद नास्तिक उसको कहते हैं, जो धन को मानता है। एक व्यक्ति किसी स्त्री को प्रेम करता है, वह मर जाती है। वह | और ध्यान रखें, जो धन को मानता है, वह भगवान को मान नहीं दूसरी स्त्री से विवाह करके जीने लगता है। इसका जीवन के प्रति | | सकता। और जो भगवान को मानता है, वह धन को मानना उससे ऐसी गहन शर्त नहीं है, जैसी उस आदमी की, जो मर जाता है। | ऐसे ही तिरोहित हो जाता है, जैसे सूखे पत्ते वृक्ष से गिर जाते हैं।
जिनकी जीवन की गहन शर्ते हैं, वे कभी-कभी आत्महत्या करते | | क्योंकि जो भगवान को मानता है, वह अपने जीने का मोह छोड़ हुए देखे जाते हैं। और कई बार आत्महत्या इसलिए भी आदमी | | देता है। परमात्मा का जीवन ही उसका अपना जीवन है अब। करता देखा जाता है कि शायद मरने के बाद इससे बेहतर जीवन | तो मोहम्मद सांझ सब बांट देते। मोहम्मद से अपरिग्रही आदमी मिल जाए। वह भी जीवन की आकांक्षा है। वह भी बेहतर जीवन | पृथ्वी पर बहुत कम हुए हैं। और यह अपरिग्रह कई अर्थों में महावीर की खोज है। वह भी मृत्यु की आकांक्षा नहीं है। वह इस आशा में और बुद्ध के अपरिग्रह से भी कठिन है। क्योंकि महावीर और बुद्ध की गई घटना है कि शायद इस जीवन से बेहतर जीवन मिल जाए। एकबारगी छोड़ देते हैं। छोड़कर बाहर हो जाते हैं। अपरिग्रह उनका अगर बेहतर जीवन मिलता हो, तो आदमी मरने को भी तैयार है। इकट्ठा है। बाहर हो गए; बात समाप्त हो गई। मोहम्मद इस तरह मृत्यु के प्रति उन्मुखता नहीं है; हो नहीं सकती। जीवन का मोह है। बाहर नहीं हो जाते। रोज सुबह से सांझ तक परिग्रह इकट्ठा होता,
जीवन के इस मोह की फिर बहुत शाखाएं फैल जाती हैं। वे सभी सांझ सब बांट देते। रात अपरिग्रही हो जाते। सुबह फिर कोई भेंट चीजें, जो जीने में सहयोगी होती हैं, महत्वपूर्ण बन जाती हैं। कर जाता, तो फिर आ जाता। सांझ फिर बांट देते।
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गीता दर्शन भाग-28
इकट्ठ परिग्रह से छलांग लगानी सदा आसान है। रोज-रोज, | है कि बांट दे, उसने उसको भी भेजा होगा, जो लेने को मौजूद रोज-रोज, रोज-रोज...। एक क्षण में सब छोड़ देना आसान है। | होगा। वह बाहर गई और एक भिखारी खड़ा था। पैसे देकर वह क्षण-क्षण, जीवनभर छोड़ते रहना बहुत कठिन है। मगर दिखाई | | भीतर आ गई। भरोसा गहरा हुआ; ट्रस्ट बढ़ा। मोहम्मद ने कहा, नहीं पड़ सकता ऊपर से। इसलिए मोहम्मद को बहुत लोग तो | | जिसने मुझे कहा कि पैसे बांट दे, उसने उसको भी भेजा होगा जो मानेंगे कि अपरिग्रही हैं ही नहीं। पर मैं कहता हूं कि उनका द्वार पर खड़ा है। अपरिग्रह बहुत गहरा है।
भीतर लौटकर आई। मोहम्मद ने आंखें बंद कीं। मुस्कुराए। __मरने के दिन, बीमार थे, तो चिकित्सकों ने मोहम्मद की पत्नी चादर ओढ़ ली और श्वास छूट गई। जो जानते हैं, वे कहते हैं, को कहा कि आज रात शायद ही कटे। तो उसने पांच दीनार बचाकर | मोहम्मद उतनी देर पांच रुपए बंटवाने को रुके। वह तड़फन यही रख लिए। दवा की जरूरत पड़ जाए; पांच रुपए बचाकर रख लिए। थी कि कब वह पत्नी को राजी कर लें, छोड़ दे! रात क्या भरोसा! दवा, चिकित्सक, कुछ इंतजाम करना पड़े। लेकिन पत्नी ने भी क्यों बचाए थे पांच रुपए? वही जीवन का
बारह बजे रात मोहम्मद करवट बदलते रहे। लगे कि बहुत बेचैन | मोह। हम भी बचाते हैं, तो जीवन का मोह। सब बचाव जीवन के हैं। लगे कि बहुत परेशान हैं। अंततः उन्होंने आंख खोली और | मोह में है। सब भय, मिट न जाएं, इस डर में हैं। । अपनी पत्नी से कहा कि मझे लगता है. आज मैं अपरिग्रही नहीं हैं। कष्ण कहते हैं. ज्ञान की धारा जब बहती. ते आज घर में कुछ पैसा है। मत करो ऐसा, क्योंकि परमात्मा अगर | को नष्ट करती है अर्जुन। मोह को इसलिए नष्ट करती है कि मोह मुझसे पूछेगा कि मोहम्मद, मरते वक्त नास्तिक हो गया? जिसने अज्ञान है। जिंदगीभर दिया, वह एक रात और न देता? निकाल! पत्नी ने कहा, अज्ञान को अगर हम समझें, तो कहें, अव्यक्त मोह है। और तुम्हें पता कैसे चला कि मैंने बचाया होगा? मोहम्मद ने कहा, तेरी | मोह को अगर ठीक समझें, तो कहें, व्यक्त अज्ञान है। जब अज्ञान
आंखों की चोरी कहती है। तेरा डरापन कहता है। आज तू उतनी व्यक्त होता, तब मोह की तरह फैलता है-व्यक्त अज्ञान, निर्भय नहीं है, जैसी सदा थी।
| मैनीफेस्टेड इग्नोरेंस। जब तक भीतर छिपा रहता अज्ञान, तब तक निर्भय सिर्फ अपरिग्रही ही हो सकता है; परिग्रही सदा भयभीत | ठीक; जब वह फूटता और फैलता हमारे चारों तरफ, तब मोह का . होता है। इसलिए परिग्रही के सामने बंदूक लिए हुए पहरेदार खड़ा | वर्तुल बनता है। फिर मेरे मित्र, प्रियजन, पति, पत्नी, पिता, पुत्र, रहता है। वह उसके भय का सबूत है।
मकान, धन, दौलत-फैलता चला जाता है। परिग्रही भयभीत होगा। जहां मोह होगा, वहां भय होगा। भय __ और मोह के फैलाव का कोई अंत नहीं है। इनफिनिट है उसका मोहजन्य है। भय मोह का ही फूल है। कांटे जैसा है, लेकिन है मोह | विस्तार। अनंत फैल सकता है। चांद-तारे भी मिल जाएं, तो तृप्त का ही फूल। खिलता मोह में ही है, निकलता मोह में ही है। | नहीं होगा। और आगे भी चांद-तारे हैं, वहां भी फैलना चाहेगा।
ध्यान रखें, भय भी तो यही है कि मिट न जाएं। मोह यह है कि | क्यों? इतना अनंत क्यों फैलना चाहता है मोह? इसलिए फैलना बचाएं अपने को; भय यह है कि मिट न जाएं। इसलिए भय मोह | चाहता है कि जहां तक मोह नहीं फैल पाता, वहीं से भय की के सिक्के का दूसरा हिस्सा है। जो आदमी निर्भय होना चाहता है, संभावना है। जो मेरा नहीं है, उसी से डर है। इसलिए सभी को मेरे वह अमोही हुए बिना नहीं हो सकता। अभय अमोह के साथ ही बना लेना चाहता है। जो मकान मेरा नहीं है, वहीं से खतरा है। जो आता है।
| जमीन मेरी नहीं है, वहीं से शत्रुता है। जो चांद-तारा मेरा नहीं है, मोहम्मद ने कहा, तेरा डर कहता कि आज मोह से भरा हुआ है। | वहीं से मौत आएगी। तो जहां तक मेरे का फैलाव है, वहां तक मैं तेरा मन। तू आज मेरी आंखों के सामने नहीं देखती। कुछ तूने | | सम्राट हो जाता हूं; उसके बाहर मैं फिर भी भिखारी हूं। इसलिए मेरे छिपाकर रखा है। निकाल ला और उसे बांट दे। बेचारी, पांच रुपए | को फैलाता चला जाता है आदमी। छिपा रखे थे बिस्तर के नीचे. उसने निकाल लिए। मोहम्मद ने कहते हैं, सिकंदर से जब किसी ने कहा-एक बहुत अदभुत कहा, जा सड़क पर, किसी को दे आ। पर उसने कहा, इतनी आधी आदमी ने—महावीर जैसा एक अदभुत आदमी हुआ यूनान में, रात सड़क पर मिलेगा भी कौन! मोहम्मद ने कहा, जिसने मुझे कहा डायोजनीज। डायोजनीज नग्न खड़ा था। सिकंदर से उसने कहा,
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मोह का टूटना
सिकंदर! तू एक दफे यह भी तो सोच कि तू सारी दुनिया जीत लेगा, | कारण। नहीं थी, तब भी सागर में थी; है, तब भी सागर में है; नहीं तो फिर क्या करेगा? क्योंकि दूसरी दुनिया नहीं है! कहते हैं, | | हो जाएगी, तब भी सागर में होगी। . सिकंदर उदास हो गया। डायोजनीज खूब हंसने लगा। सिकंदर और लेकिन एक लहर अगर सोचने लगे कि मैं अलग हूं; बस, लहर उदास हो गया। और सिकंदर ने कहा, मेरी मजबूरी पर हंसो मत। आदमी हो गई! अब लहर वही सब करेगी, जो आदमी करेगा। अब सच ही दूसरी दुनिया नहीं है। यह मुझे खयाल ही नहीं आया कि लहर सब तरफ से अपने को बचाने की कोशिश करेगी। भयभीत अगर मैं पूरी दुनिया जीत लूंगा, तो फिर क्या होगा? और दूसरी तो | | होगी मिट न जा, डरेगी। इस डर की कोशिश में लहर क्या कर दुनिया नहीं है।
सकती है? फ्रोजन हो जाए, बर्फ बन जाए, तो बच सकती है। अभी जीती नहीं है दुनिया, लेकिन जीतने के खयाल से उदासी | सिकुड़ जाए, मर जाए। क्योंकि लहर तभी तक जिंदा है, जब तक आ गई। क्योंकि फिर मोह को फैलाने की और कोई जगह नहीं है। बर्फ नहीं बनी। सब तरफ से सिकुड़ जाए, सख्त हो जाए। फिर क्या करूंगा! सिकंदर पूछने लगा, लेकिन डायोजनीज, तुम ___ अहंकार फ्रोजन हो जाता है। अहंकार सिकुड़कर पत्थर का बर्फ हंसते क्यों हो?
बन जाता है। पानी नहीं रह जाता, तरल नहीं रह जाता, लिक्विड डायोजनीज बोला कि मैं हंसता इसलिए हूं कि तुझे पूरी दुनिया नहीं रह जाता, बहाव नहीं रह जाता। भी मिल जाए, तो भी उदासी ही हाथ में लगेगी। और हमारे पास | __अहंकार में बिलकुल बहाव नहीं होता है। प्रेम में बहाव होता है। कुछ भी नहीं है, और हम उदासी को खोजते फिरते हैं और हमें इसलिए जब तक अहंकार होता है, तब तक प्रेम पैदा नहीं होता। कहीं मिलती नहीं। हमारे पास कुछ भी नहीं है और हम आनंद में | | यह भी खयाल रख लें कि प्रेम और मोह बड़ी अलग बातें हैं। हैं। तेरे पास बहुत कुछ है और सब कुछ भी हो जाए, तो भी तू | | अलग ही नहीं, विपरीत। जिनके जीवन में मोह है, उनके जीवन में दुख में ही जाएंगा।
| प्रेम पैदा नहीं होता। और जिनके जीवन में प्रेम है, वह तभी होता मोह दुख के अतिरिक्त और कहीं ले जाता नहीं। अब ऐसा | | है, जब मोह नहीं होता। लेकिन हम प्रेम को मोह कहते रहते हैं। समझें, अज्ञान छिपा हुआ मोह है। अज्ञान प्रकट होता है, तो मोह | असल में हम मोह को प्रेम कहकर बचाते रहते हैं। धोखा देने में बनता है। मोह सफल होता है, तो दुख बनता है; असफल होता है, | | हमारा कोई मुकाबला नहीं है! हम मोह को प्रेम कहते हैं। बाप बेटे तो दुख बनता है।
| से कहता है कि मैं तुझे प्रेम करता हूं। पत्नी पति से कहती है कि मैं इसलिए कृष्ण कहते हैं कि ज्ञान की पहली धारा का जब आघात तुझे प्रेम करती हूं। मोह है। होता है, तो सबसे पहले मोह छूट जाता, टूट जाता, बिखर जाता। इसलिए उपनिषद कहते हैं कि सब अपने को प्रेम करते हैं सिर्फ। जैसे सूरज की किरणें आएं और बर्फ पिघलने लगे, ऐसे मोह का अपने को जो सहारा देता है बचने में, उसको भी प्रेम करते हुए फ्रोजन बर्फ का पत्थर जो छाती पर रखा है, वह ज्ञान की पहली धारा मालूम पड़ते हैं। वह सिर्फ मोह है। प्रेम तो तभी हो सकता है, जब से पिघलता शुरू होता है। और जब मोह पिघल जाता है, जब मोह दूसरा भी अपना ही मालूम पड़े। प्रेम तो तभी हो सकता है, जब प्रभु मिट जाता है, तब व्यक्ति जानता है कि मैं जिसे बचा रहा था, वह | | का अनुभव हो, अन्यथा नहीं हो सकता है। प्रेम केवल वे ही कर तो था ही नहीं। जो नहीं था, उसको बचाने में लगा था, इसलिए | सकते हैं, जो नहीं रहे। बड़ी उलटी बातें हैं। परेशान था।
जो नहीं बचे, वे ही प्रेम कर सकते हैं। जो हैं, बचे हैं, वे सिर्फ जो नहीं है, उसको बचाने में लगा हुआ आदमी परेशान होगा | | मोह ही कर सकते हैं। क्योंकि बचने के लिए मोह ही रास्ता है। प्रेम ही। जो है ही नहीं, उसे कोई बचाएगा कैसे? मैं हूं ही नहीं अलग | | तो मिटने का रास्ता है। प्रेम तो पिघलना है। इसलिए प्रेम वह नहीं
और पृथक इस विश्व की सत्ता से। उसी को बचाने में लगा हूं। वही | | कर सकता, जिसको अपने को बचाना है। मेरी पीड़ा है।
इसलिए देखें, जितना आदमी जीवन को बचाने की चेष्टा में रत एक लहर अपने को बचाने में लग जाए, फिर दिक्कत में पड़ेगी। होगा, उतना प्रेम शून्य हो जाएगा। तिजोड़ी बड़ी होती जाएगी, प्रेम क्योंकि लहर सागर से अलग कुछ है भी नहीं। उठी है, तो भी सागर रिक्त होता जाएगा। मकान बड़ा होता जाएगा, प्रेम समाप्त होता के कारण; है, तो भी सागर के कारण; मिटेगी, तो भी सागर के जाएगा।
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गीता दर्शन भाग-28
दीन-दरिद्र के पास प्रेम दिखाई भी पड़ जाए; समृद्ध के पास प्रेम | छोड़कर अपने को, जब कोई किसी ज्ञान की धारा के निकट झुकता की खबर भी नहीं मिलेगी। क्यों? क्या हो गया? असल में समृद्ध | है और धारा उसमें बह जाती है, तब उसके भीतर सब मोह हट जाता होने की जो तीव्र चेष्टा है, वह भी मैं को बचाने की है, मोह को | है, मोह का तम कट जाता है। उस प्रकाश के क्षण में वह अपने को बचाने की है। मोह जहां है, वहां प्रेम पैदा नहीं हो पाता। | मेरे साथ एक ही जान पाता है, अर्जुन!
कृष्ण कहते हैं, जब मोह पिघल जाता है अर्जुन, तो व्यक्ति मेरे साथ एकाकार हो जाता है; सच्चिदानंद से एक हो जाता है। फिर भेद नहीं रह जाता। भेद ही मोह का है। भेद ही, मैं हं, इस घोषणा प्रश्नः भगवान श्री, श्लोक के अंतिम हिस्से में यह का है। अभेद, मैं नहीं हूं, तू ही है, इस घोषणा का है। कहा गया है कि इस ज्ञान के द्वारा तू संपूर्ण भूतों को
लेकिन यह घोषणा प्राणों से उठनी चाहिए, कंठ से नहीं। तू ही सर्वव्यापी अनंत चेतनरूप देखेगा तथा मेरे में अर्थात है, यह घोषणा प्राणों से आनी चाहिए, कंठ से नहीं। यह घोषणा सच्चिदानंद रूप में एकीभाव हुआ सब कुछ हृदय से आनी चाहिए, मस्तिष्क से नहीं। यह घोषणा रोएं-रोएं से | सच्चिदानंदमय ही देखेगा। इसका अर्थ और अधिक आनी चाहिए, खंड अस्तित्व से नहीं। उस क्षण में एकात्म फलित स्पष्ट करने की कृपा करें। होता, अद्वैत फलित होता, दुई गिर जाती। परम हर्षोन्माद का क्षण है वह-परम हर्षोन्माद का, अल्टिमेट एक्सटैसी का। नाच उठता है फिर रोआं-रोआ; गीत गा उठते हैं फिर श्वास के कण-कण। ट स ज्ञान में डूबा हुआ, इस ज्ञान में मुक्त हुआ; तू सर्व लेकिन गीत–अनगाए, आदमी के ओंठों से अस्पर्शित, जूठे र भूतों को सच्चिदानंद रूप देखेगा। नहीं। नृत्य-अनजाना, अपरिचित; ताल-सुर नहीं, व्यवस्था
सर्व भूतों को! भूत का अर्थ होता है, अस्तित्ववान, दि संयोजन नहीं।
| एक्झिस्टेंट, जो भी है। जो भी है, अस्तित्व जिसका है, उस सब में एक बाउल फकीर गुजर रहा है बंगाल के किसी गांव से। लोग तू सच्चिदानंद को देखेगा। पत्थर में भी, पृथ्वी में भी, आकाश में इकट्ठे हो गए हैं। बाउल नाच रहा है। तंबूरा बजा रहा है। हाथ ठीक भी; सब ओर, जो भी तू जानेगा, जानेगा सच्चिदानंद रूप है। ' पड़ते नहीं, व्यवस्था नहीं, सुर-संगीत नहीं, पैरों में ताल नहीं। कोई क्यों? ऐसा क्यों होगा? पूछता है, नाचना ठीक से आता नहीं, तो नाचते क्यों हो? बाउल । अभी हम क्या जानते हैं? अभी हमारा जानना क्या है? अभी फकीर कहता है, नाचता नहीं, नचाया जा रहा हूं। व्यवस्था, हमारी प्रतीति क्या है? अभी हमारी प्रतीति है कि जो भी है, सब ताल-सर की खबर कौन रखे? वह बचा ही नहीं. जो व्यवस्था कर पदार्थ है। जो भी है, पदार्थ है, परमात्मा नहीं। पदार्थ दिखाई पड़ता सकता था। अब तो बहा जा रहा हूं। लोग पूछते हैं, ये जो गीत गा है। अगर परमात्मा को कभी हम मान भी लेते हैं, तो वह सिर्फ रहे, इनका अर्थ क्या? वह बाउल कहता है, मुझे पता नहीं। मैं जब मान्यता होती है, अनुभव नहीं होता। दिखता पदार्थ है। तक था, तब तक ये गीत न थे। अब ये गीत हैं, तो मैं नहीं। अर्थ | | एक मित्र को मेरे पास लाए थे। कहने लगे, पदार्थ में भी मुझे कौन बताए? अर्थ जान लोगे उस दिन, जब गीत तुम्हारे भीतर भी परमात्मा दिखता है; पत्थर में भी मुझे परमात्मा दिखता है। दो-चार म भी नाच सको। अनभव ही अर्थ है।
दिन मेरे साथ थे। बगीचे में घमते वक्त पत्थर उठाकर मैंने उनके कृष्ण कहते हैं, ज्ञान की धारा में टूटा मोह और व्यक्ति परम में पैर पर दे मारा। कहने लगे, पत्थर क्यों मारा? खून निकल आया! निमज्जित हो जाता है। वही है परम अभिप्राय जीवन का, होने का। मैंने कहा, कहना था तुम्हें, परमात्मा क्यों मारा? कहते हो, पत्थर
मोह है, हमारी अहंकार की कुचेष्टा। मोह है, अपने ही हाथों क्यों मारा? खून निकल आया; कहना था, परमात्मा निकल आया। अपने ही आस-पास परकोटा बनाना। बंद करना अपने को, पत्थर लगा तो चेहरा और हो जाता है: परमात्मा लगे तो और होना के प्रकाश से। तोड़ना अपने को, जगत के अस्तित्व से। बनाना चाहिए था! कहने लगे, इसका यह मतलब थोड़े ही है कि कोई मुझे अंधा अपने को, प्रभु के प्रसाद से।
पत्थर मार दे! तब तो कोई मेरी हत्या ही कर दे। कल आप गर्दन इसलिए कृष्ण ने पहले सूत्र में कहा, दंडवत करके, विनम्रता से, पर मेरी छुरी ही चला दें और कहें कि छुरी भी परमात्मा है!
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मोह का टूटना
मान्यता थी विचारों की। मानते थे कि सब में है, दिखाई नहीं। इसलिए कृष्ण कहते हैं, जब ज्ञान की धारा भीतर बहती है और पड़ता था। दिखाई पड़ना बात और है। हमें तो पदार्थ दिखाई पड़ता मोह का अंधकार टूटता है अर्जुन, तो सर्व भूतों में सच्चिदानंद है। सर्व भूत हमें पदार्थ हैं, मैटीरियल हैं।
दिखाई पड़ने लगता है। सर्व भूतों में, सर्व अस्तित्ववान में, जो भी पदार्थ का क्या मतलब होता है? पदार्थ का मतलब होता है, है, फिर वही परमात्मा दिखाई पड़ने लगता है। जिसमें आकार है, निराकार नहीं। पदार्थ का मतलब होता है, कभी जब ऐसा घटता है, जब सब में परमात्मा दिखाई पड़ने जिसमें वस्तु है, आत्मा नहीं। पदार्थ का मतलब होता है, जिसका लगता है, तो स्वभावतः जीवन में फिर कहीं दुख नहीं रह जाता, शत्रु अस्तित्व है, व्यक्तित्व नहीं। जो है, अस्तित्ववान, लेकिन जिसका नहीं रह जाता। क्योंकि शत्रु में परमात्मा देखना, तो फिर परमात्मा जीवन नहीं है। हमें क्यों दिखाई पडता है ऐसा?
में शत्रु देखना असंभव है। फिर मृत्यु नहीं रह जाती, क्योंकि ___ असल में, हमें वही दिखाई पड़ सकता है, जो हम हैं। हमें भीतर | परमात्मा की मृत्यु असंभव है। फिर कोई धोखा देने वाला नहीं रह
भी नहीं मालूम पड़ता कि कोई आत्मा है, कोई परमात्मा है। वह भी जाता, क्योंकि परमात्मा धोखा दे, ऐसी धारणा असंभव है। फिर हमारी मान्यता है। वह भी सुनते हैं, पढ़ते हैं। कोई कहता है, तो सब प्रीतिकर हो जाता है। सब प्रेमपूर्ण हो जाता है। शत्रु भी मित्र समझ लेते हैं। गहरे में हम जानते हैं कि हम शरीर हैं। मैं शरीर हूं, हो जाते हैं। मृत्यु भी जीवन हो जाती है। यही गहरे में हम जानते हैं। जो हम अपने बाबत जानते हैं, उससे | इस अनुभूति को तभी उपलब्ध किया जा सकता है, जब भीतर ज्यादा हम दसरे के बाबत नहीं जान सकते। जितना हम अपने बाबत से मोह टटे। क्यों? क्योंकि मोह की हिप्नोसिस. मोह का सम्मोहन जानते हैं, उससे ज्यादा हम संसार के बाबत नहीं जान सकते। हमारे हमें शरीर बनाए हुए है। शरीर हम हैं नहीं। शरीर भी शरीर नहीं है। अपने स्वानुभव की सीढ़ी ही हमारे परानुभव की सीढ़ी है। लेकिन सम्मोहन हमें बनाए हुए है। मोह, सम्मोह, एक ही बात के • अगर ठीक से समझें, तो जगत दर्पण है, हम अपना ही चेहरा दो नाम हैं। जिसको अंग्रेजी में हिप्नोसिस कहते हैं, उसी को सम्मोह उसमें देखते हैं। जगत दर्पण है, हम अपना ही चेहरा उसमें देखते कहते हैं, उसी को मोह कहते हैं। हैं। अगर पत्थर में सिर्फ पत्थर दिखाई पड़ता है, तो समझ लेना कि सम्मोह को अगर खयाल में ले लें और सम्मोहन की प्रक्रिया अपने भीतर भी शरीर से ज्यादा का कोई अनुभव नहीं है। को, तो आपको पता चलेगा कि जो हम नहीं हैं, उसकी धारणा बन
ठीक भी है। हम जो अपने भीतर नहीं जानते, उसे हम बाहर कैसे जाती है। जान सकते हैं? जिस आदमी के सिर में दर्द नहीं हुआ, आप उससे अगर आपने कभी किसी सम्मोहन करने वाले कुशल व्यक्ति को कहिए कि मेरे सिर में दर्द हो रहा है; वह भौचक्का खड़ा रह जाता देखा है, तो आप हैरान रह गए होंगे। एक आदमी को सम्मोहित है। वह कहता है, कैसा दर्द? सिर में दर्द होता है कभी? कैसा होता कर दो। सम्मोहित कर दो अर्थात बेहोश कर दो। सुझाव दो, सजेस्ट है? उसे कुछ पता नहीं चलता। पता चले भी कैसे! वही पता चल करो, कि तू बेहोश हो रहा है। और अगर वह कोआपरेट करे, सकता है, जो इसके पहले उसे पता चल चुका हो। हम अपने सहयोग दे, तो बहुत जल्दी बेहोश हो जाएगा। जब बेहोश हो जाए, अनुभव से समझते हैं; उसके अतिरिक्त समझने का कोई उपाय नहीं तब उस आदमी से कहो कि तुम पुरुष नहीं हो, स्त्री हो। वह आदमी है। मानते हैं अपने को शरीर, वही मोह का, अज्ञान का परिणाम | मान लेगा कि स्त्री है। फिर उससे कहो, उठो और चलो; तो वह है। देखते हैं, जगत को पदार्थ।
स्त्री की चाल चलेगा, पुरुष की चाल नहीं चलेगा। वह स्त्रियों जैसे जिस दिन ज्ञान की घटना घटती है टटता है मोह का तमस.
हाथ मटकाएगा, पुरुषों जैसे हाथ नहीं मटका सकेगा। उसका ढंग टटता है भ्रम शरीर का: बोध होता है स्वयं की चेतना का. चैतन्य | स्त्रैण हो जाएगा। क्या हो गया उसको? का, कांशसनेस का—उसी क्षण सारा जगत चैतन्य हो जाता है। | मान लिया उसके मन ने कि मैं स्त्री हूं, वह स्त्री हो गया। मान उसी क्षण, युगपत! एक क्षण की भी फिर देरी नहीं लगती; एक | लिया उसके मन ने कि वह स्त्री है, वह स्त्री हो गया! उससे आप सेकेंड की भी फिर देरी नहीं लगती। इधर भीतर जाना कि मैं चेतना पूछो सवाल, वह जवाब स्त्रैण देगा। वह स्त्रीलिंग का प्रयोग हूं, आंख खोली कि दिखता है कि सब चेतना है। एक क्षण में सब करेगा। वह कहेगा, मैं जाती हूं। वह नहीं कहेगा, मैं जाता हूं। क्या बदल जाता है, एक क्षण में!
हो गया उसे? धारणा पकड़ गई कि मैं स्त्री हूं। मन है बेहोश,
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गीता दर्शन भाग-20
हाा
है?
बेहोशी में जो कह दिया गया, वह उसने मान लिया।
ज्ञान का अनुभव सच्चिदानंद का अनुभव क्यों कहा जाता बचपन में जैसे ही हम पैदा होते हैं, चारों तरफ की व्यवस्था हमें | सम्मोहित करती है कि तुम शरीर हो। चारों तरफ अज्ञानियों का ज्ञान के अनुभव में तीन प्रतीतियां प्रगाढ़ होकर प्रकट जाल है। मां है, बाप है, भाई है, बहन है, स्कूल है, शिक्षक है, | होती हैं—सत की, चित की, आनंद की। सत का अर्थ है, हूं; मैं सब तरफ जाल है अज्ञानियों का, वह सम्मोहित करता है कि तुम नहीं, सिर्फ हूं। मैं हूं, ऐसा हमारा अनुभव है। ज्ञान के अनुभव में मैं शरीर हो। सब इशारे शरीर की तरफ हैं।
| गिर जाता. हं बच रहता। अज्ञान के अनभव में मैं प्रगाढ होता. हे इसलिए जिनके शरीर की तरफ ज्यादा इशारे हैं, वे ज्यादा शरीर सिर्फ पूंछ की तरह सरकता रहता। मैं होता हाथी, हूं होती पूंछ। न हो जाते हैं। स्त्रियां ज्यादा शरीर हो जाती हैं पुरुषों की बजाय; क्योंकि | हो, तो भी चल जाता। पूंछ के बिना हाथी हो सकता। अक्सर होता उनके शरीर की तरफ ज्यादा इशारे होते हैं। वे ज्यादा सचेत हो जाती | है। मैं का हाथी पूंछ के बिना ही होता है। हूं सिर्फ उपयोग होता है हैं, ज्यादा कांशस हो जाती हैं कि शरीर है। फिर शरीर के साथ ही भाषा का। उनकी जिंदगी बंध जाती है; फिर शरीर को भूलना उन्हें मुश्किल हो | जिस दिन अज्ञान टूटता, मैं गिर जाता, हूं बचता। हूं हाथी हो जाता है। गहरे सम्मोहन बैठ जाता है मन में कि मैं शरीर हूं। | जाता-पूंछ भी, सिर भी, सभी कुछ। हूं का अनुभव सत का
यह सम्मोहन टूटे न, तो भीतर की आत्मा का अनुभव नहीं | अनुभव है, एक्सपीरिएंस आफ दि एक्झिस्टेंशियल, अस्तित्व का होता। यह सम्मोहन टूट जाए, तो भीतर की आत्मा का अनुभव अनुभव। होता है।
खयाल रखें, जब हम कहते हैं, मैं हूँ; तो लगता है, मैं अलग इस सम्मोहन के टूटने पर जब जाना जाता है कि मैं आत्मा हूं, | हूं और होना अलग है। जब हम कहते हैं, हूं; तो लगता है, होना उसी क्षण जाना जाता है कि सब आत्माएं हैं। सच तो यह है कि यह और मैं एक ही चीज है। कहना कि सब आत्माएं हैं, ठीक नहीं। क्योंकि जिस क्षण जाना | इसीलिए अज्ञानी को मरने का डर लगता है। क्योंकि जो कहता जाता है कि सब आत्माएं हैं, उस क्षण एक ही परमात्मा शेष रह | | है, मैं हूं, उसे डर लगता है कि नहीं हूं भी हो सकता हूं। हूं, तो नहीं जाता है। दो नहीं रह जाते। क्योंकि आकार हों, तो दो हो सकते हैं; हूं भी हो सकता हूं। रात है, नहीं भी हो जाती है। दिन है, नहीं भी निराकार हो, तो एक ही हो सकता है। निराकार दो नहीं हो सकते। हो जाता है। लेकिन है कभी नहीं नहीं होता। तो जिस चीज को हम अगर निराकार दो हों, तो फिर आकार उनमें आ जाएगा, क्योंकि कहते हैं, है; वह नहीं है भी हो सकती है। सिर्फ एक ही चीज है दोनों एक-दूसरे की सीमा बनाएंगे। जहां सीमा बनी, वहीं आकार | जगत में है, है पन, इज़नेस, वह कभी नहीं नहीं होती। हूं का मतलब शुरू हो जाएगा।
है, इज़नेस, एमनेस, वह कभी नहीं नहीं होती। निराकार एक है। शरीर अनेक हो सकते हैं, आत्मा एक ही हो सत का अर्थ है, अस्तित्व है, जो कभी नहीं नहीं होता; सनातन, सकती है। उसका कोई आकार नहीं है। तब बाहर और भीतर एक | शाश्वत, नित्य, सदा, सदैव, समय के बाहर। यह अनुभव पहला ही सच्चिदानंद ब्रह्म के दर्शन शुरू होते हैं।
होता है, जैसे ही ज्ञान का विस्फोट होता है। इसलिए कृष्ण कहते हैं कि अर्जुन, मोह की निशा जब टूट जाती | दूसरा अनुभव होता है कि अस्तित्व अकेला अस्तित्व ही नहीं है, और जब ज्ञान की सुबह होती, तो अंधेरे में जिन्हें अलग-अलग | सचेतन भी है। एक्झिस्टेंस एक्झिस्टेंस ही नहीं है, कांशस जाना था, उजाले में वे सब एक मालूम पड़ते हैं। अंधेरे में जिन्हें | एक्झिस्टेंस है—चित, कांशसनेस, चेतन। अस्तित्व सिर्फ पदार्थ जाना था, प्रकाश में वे परमात्मा मालूम पड़ते हैं। अस्तित्व ही हो, तो पदार्थ हो जाएगा। अस्तित्व सचेतन हो, तो
परमात्मा हो जाएगा। हमें भी अस्तित्व का पता चलता है। जिनको
खयाल है, मैं हूं, उनको भी पता चलता है कि अस्तित्व है। लेकिन प्रश्नः भगवान श्री, ज्ञान के अनुभव को सत, चित, | अस्तित्व सचेतन पता नहीं चलता। जिनको पता चलता है, मैं तो आनंद क्यों कहा जाता है? इसे संक्षिप्त में स्पष्ट करने | नहीं, हूं ही, सिर्फ होना ही है, उनको तत्काल पता चलता है, की कृपा करें।
अस्तित्व सचेतन है।
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मोह का टूटना
सब कुछ सचेतन है। निर्जीव, निश्चेतन, कुछ भी नहीं है। हां, कोशिश करके देखें मैं के बिना दुखी होने की, तब आपको पता चेतना के हजार-हजार तल हैं, जिन्हें हम पहचान नहीं पाते। हम | चलेगा। मैं के बिना आप दुखी नहीं हो सकते, इंपासिबल है। कहते हैं, वृक्ष चेतन है, समझ नहीं पड़ता। क्योंकि हम बात नहीं और दुखी हों, तो मैं के बिना नहीं हो सकते। अगर दुखी हैं, तो कर पाते वृक्ष से, बोल नहीं पाते, चर्चा नहीं कर पाते। फिर कैसे | मैं भीतर होगा ही किसी कोने पर; वही दुखी होता है। मैं को लगी माने कि चेतन है? अचेतन लगता है। लेकिन वृक्ष की भी अपनी चोट ही दुख है। मैं के घाव पर पड़ी चोट ही दुख है। और मैं एक भाषा हो सकती है। और अगर वृक्ष की अपनी भाषा हो, तो आदमी | वूड है, घाव है। मैं चीज नहीं है, सिर्फ एक घाव है। अचेतन मालूम पड़ता होगा। क्योंकि आदमी की भाषा उसकी समझ और खयाल किया कि अगर कहीं भी घाव हो, पैर में जरा चोट में नहीं पड़ेगी।
लगी हो, तो दिनभर उसी में चोट लगती है! कभी हैरानी होती है पत्थर है। फिर वृक्ष तो थोड़ा चेतन मालूम पड़ता है-बढ़ता है, | | कि बात क्या है। आज सारी दुनिया की चीजें क्या मेरे पैर के घटता है, खिलता है; तोड़ दो उसकी शाखा, तो मुझता है।। | खिलाफ हो गईं? कल भी इसी दरवाजे से निकला था, तब देहली कुछ-कुछ आदमी की भाषा में पकड़ आता है। पत्थर! फोड़ दो, | | पैर को नहीं लगी! कल भी इसी आदमी से मिला था, लेकिन तब तो कुछ उदासी नहीं आती उसमें; तोड़ दो, तो कुछ पता नहीं | | इसका पैर पैर को नहीं लगा! कल भी भीड़ से गुजरा था, लेकिन चलता। शायद उसकी भाषा और भी फारेन है, और भी विजातीय पैर को भीड़ ने खयाल नहीं किया। आज जहां भी जाता हूं, पैर है, है। जो जानते हैं, वे कहते हैं, पत्थर भी बोलता है, वृक्ष भी बोलता घाव है। है; वृक्ष भी देखता है, पत्थर भी देखता है। उनकी चेतना का और नहीं; चोट तो रोज लगती थी, लेकिन पता नहीं चलती थी। घाव डायमेंशन है, और तल है।
की वजह से पता चलती है। ' समझ लें, करीब-करीब हालत ऐसी है कि एक आदमी गूंगा है, | मैं एक घाव है, एक बूंड, उसमें पता लगता है पूरे वक्त। जिसका बोलता नहीं, फिर भी हम उसको अचेतन नहीं कहते। क्योंकि हाथ मैं खो गया, उसे चोट का पता नहीं लगता। उसे दर्द, दुख, के इशारे से कुछ बता देता है। हाथ के इशारे से बता देता है, | पीड़ा—आहत अभिमान बड़ी पीड़ा है। सारी पीड़ा वहीं केंद्रित है। इसलिए हम पहचान जाते हैं। क्योंकि गूंगे के पास हाथ हमारे जैसा | मैं गिर गया, दुख गिर गया। निषेधात्मक शर्त पूरी हो गई आनंद के है, और हाथ का इशारा भी हमारे जैसा है, गेस्चर की भाषा हमारी |आने की। एक शर्त पूरी हो गई आनंद के उतरने की कि दुख गिर जैसी है, इसलिए हम पहचान जाते हैं।
गया। दूसरी शर्त, समस्त चैतन्य है जगत अगर, तो आनंद की ___ एक आदमी बहरा है, उसे कुछ सुनाई नहीं पड़ता, वज्र बहरा है, | पाजिटिव शर्त पूरी हो गई। क्योंकि आनंद हमें तभी मिलता है, जब स्टोन डेफ है, तो हमारे ओंठ ही हिलते मालूम पड़ते हैं उसे। उसे चेतना चेतना से डायलाग में होती है, एक संवाद में होती है। शब्द सुनाई नहीं पड़ता। उसे कभी भी पता नहीं चलेगा कि शब्द __ अच्छी से अच्छी कुर्सी पर बैठे रहें, अच्छे से अच्छे मकान में होता है, कि लोग बोलते हैं। बोलने का उसके लिए मतलब होगा, | रहें अकेले, तो पता चलेगा कि आनंद एक शेयरिंग है, आनंद
ओंठ का चलाना। इसलिए बहरे हमारे ओंठ को समझने लगते हैं | बांटना है। बंटता है, तो प्रतीत होता है; नहीं तो प्रतीत नहीं होता। कि आप क्या बोल रहे हैं। ओंठ का चलाना उनके लिए भाषा होती | फैलता है, तो प्रतीत होता है; नहीं तो प्रतीत नहीं होता। है; ओंठ से निकला हुआ शब्द उनकी भाषा नहीं होती।
इसलिए प्रियजन के पास बैठकर जो आनंद मिलता है, वह ___ जगत हजार आयामी है, अनंत आयामी है। अनंत आयामों पर | स्वर्ण-सिंहासन पर भी नहीं मिलता। क्योंकि स्वर्ण-सिंहासन से
चेतना है। जिस दिन व्यक्ति जानता है अपनी चेतना की गहराई को, | | कोई डायलाग नहीं हो सकता। और अगर स्वर्ण-सिंहासन पर ही उसी दिन वह सारे जगत की चेतना को भी जान लेता है। इसलिए | | किसी को बैठने दिया जाए और शर्त रखी जाए कि स्वर्ण-सिंहासन दूसरा अनुभव होता है चित का, चैतन्य का, सब चैतन्य है। | पर बैठो, स्वर्ण की थालियों में भोजन करो, बहुमूल्य से बहुमूल्य
तीसरा अनुभव होता है आनंद का। तीसरा अनुभव पहले दो | | भोजन होगा, लेकिन आदमी से भर बात नहीं कर सकोगे, तो अनुभवों का अनिवार्य परिणाम है। जिसने जाना कि मैं नहीं है,। आदमी कहेगा कि हम झोपड़े में रहने को तैयार हैं; स्वर्ण-सिंहासन उसका दुख गया, क्योंकि सब दुख मैं के साथ जुड़ा है। आप | | नहीं चाहिए। बात क्या है?
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गीता दर्शन भाग-2
स्वर्ण-सिंहासन से डायलाग नहीं हो सकता। स्वर्ण सिंहासन से कहीं मेल नहीं हो सकता; कहीं दो हृदय नहीं मिल सकते, हार्ट टु हार्ट कोई चर्चा नहीं हो सकती; कुछ बांटा नहीं जा सकता। कुछ लिया-दिया नहीं जा सकता; कोई लेन-देन नहीं हो सकता। और जीवन सदा ही लेन-देन है। जीवन सदा ही, जैसे श्वास आती और जाती है, ऐसा ही है – आना और जाना, पूरे क्षण ।
जब हम एक व्यक्ति को कभी अपने निकट पाते हैं और जब कभी कोई एक व्यक्ति के प्रति हम इतने प्रेम से भर जाते हैं कि उसका शरीर हमें भूल जाता है - और ध्यान रहे, जिसका शरीर न भूले, उससे हमारा प्रेम नहीं है। प्रेम के क्षण में अगर शरीर याद रहे, तो समझना कि काम है, सेक्स है, प्रेम नहीं है। अगर प्रेम के क्षण में शरीर भूल जाए दूसरे का और वह आत्मा ही प्रतीत होने लगे, तो समझना कि प्रेम है।
इसीलिए तो प्रेम में आनंद मिलता है। क्योंकि एक व्यक्ति सचेतन हो जाता है; वस्तु नहीं रह जाता, व्यक्ति हो जाता है। एक आत्मा साथ हो जाती है। दो आत्माएं निकट होकर अपूर्व आनंद
अनुभव करती हैं। दो आत्माओं की निकटता ही आनंद है। लेकिन जब सारा ही जगत आत्मवान हो जाता है, तब तो आनंद का हम क्या हिसाब लगाएं! जब वृक्ष के पास से निकलते हैं, तो वह भी डायलाग होता है। जब वृक्ष के पास खड़े हैं, तो मौन उससे भी मिलन होता है। जब पत्थर के पास होते हैं, तब उससे भी स्पर्श होता है वही, प्रेम का। जब आकाश की तरफ देखते हैं, तो विराट आकाश भी एक बड़ी आत्मा की तरह हम पर झुक आता है और हमें सब तरफ से घेर लेता है। जब सागर की लहरों के पास खड़े होते हैं, तो सागर की आत्मा भी लहरों से हमारी तरफ आती है, उछलती और कूदती हुई दिखाई पड़ती है । जब तारों की तरफ देखते हैं, तो उनसे आती हुई रोशनी भी कुछ संदेश लाती है; पत्रवाहक, वे किरणें भी मैसेंजर्स हो जाती हैं।
जब चारों तरफ से संदेश मिलने लगते हैं जीवन के और आत्मा
, तो सब तरफ चैतन्य का ही अनुभव होता है । जब सब तरफ मिलन घटने लगता है— क्योंकि जहां शरीर हटा, मिलन ही मिलन है, महामिलन है— उस क्षण आनंद फलित होता है। इसलिए तीसरी बात, दो का परिणाम है। जो दो को उपलब्ध हो गया, , तीसरा तत्काल खिल जाता है फूल की भांति - ब्लिस ।
हमें आनंद का कोई पता नहीं है। हम कभी-कभी जिसको आनंद कहते हैं, वह आनंद नहीं होता, सिर्फ भ्रम होता है। क्योंकि आनंद
तो घटित ही तब हो सकता है, जब मैं न रहे और जब पदार्थ न रहे। दो चीजें मिटें, तो आनंद घटित होता है। अहंकार मिटे और पदार्थ मिटे भीतर मिटे अहंकार, बाहर मिटे पदार्थ; भीतर हो आत्मा, बाहर हो आत्मा, भीतर हो चैतन्य, बाहर हो चैतन्य- -दोनों के बीच की सारी दीवाल गिर जाए, तब सारा अस्तित्व नाच उठता है।
आनंद! आनंद बहुत अनूठा शब्द है । अनूठा इसलिए कि आनंद के विपरीत कोई शब्द नहीं है। सुख के विपरीत दुख है । प्रेम के विपरीत घृणा है। क्षमा के विपरीत क्रोध है। जन्म के विपरीत मृत्यु है | आनंद अद्वैतवाची है, उसके विपरीत कोई शब्द नहीं है। आनंद के विपरीत कोई स्थिति भी नहीं है।
सुख आता है, तो जानना कि दुख आएगा, क्योंकि विपरीत प्रतीक्षा कर रहा है। दुख आए, तो घबड़ाना मत; जानना कि सुख | आएगा, क्योंकि विपरीत प्रतीक्षा कर रहा है। सुबह आए, तो डरना मत; सांझ आएगी। सांझ आए, तो डरना मत; सुबह आएगी। विपरीत का वर्तुल है, पोलेरेटीज, ध्रुवीय, घूमता रहता है। घड़ी के कांटे की तरह है । फिर बारह बजते, फिर बिखर जाता। फिर बारह बजते, फिर बिखर जाता। घड़ी के कांटे बारह पर मिलते हैं एक | सेकेंड को एक हो जाते, अद्वैत हो जाता एक सेकेंड को । हो भी नहीं पाया, कि द्वैत शुरू हो जाता है।
आनंद द्वैत का अंत है; फिर द्वैत कभी शुरू नहीं होता । आनंद सुख नहीं है। सुख की कोई बहुत बड़ी मात्रा भी नहीं है आनंद । सुख का कोई बहुत गहन और घना, डेंस रूप भी नहीं है आनंद । आनंद का सुख से कोई संबंध नहीं है; उतना ही संबंध है, जितना दुख से है। आनंद न दुख है, न सुख। जहां दुख और सुख दोनों नहीं हैं, | वहां जो घटित होता है, वह आनंद है।
दुख के लिए भी अहंकार चाहिए, सुख के लिए भी अहंकार चाहिए। आनंद के लिए अहंकार नहीं चाहिए। दुख के लिए भी | पदार्थ चाहिए, सुख के लिए भी पदार्थ चाहिए। आनंद के लिए पदार्थ बिलकुल नहीं चाहिए ।
इसलिए कृष्ण कहते हैं कि जैसे ही ज्ञान की यह घटना घटती है, | वैसे ही सच्चिदानंद रूप — सत, चित, आनंद रूप में लीन हो जाता है व्यक्ति !
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इसलिए परमात्मा के लिए जो निकटतम शब्द है आदमी के पास, वह सच्चिदानंद है। निकटतम, कम से कम गलत। गलत तो | होगा ही; कम से कम गलत । गलत होगा ही; क्योंकि हमारा यह | शब्द भी तीन की खबर लाता है, और वहां एक है। इससे लगता है
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मोह का टूटना
कि तीन होंगे; वहां एक है। वह एक जब हम भाषा में बोलते हैं, तो ग ह सूत्र बहुत अदभुत है और आपके बहुत काम का तत्काल तीन हो जाता है। वहां सत का अनुभव, चित का अनुभव, 4 भी। यह प्रश्न सनातन है, सदा ही पूछा जाता है। आनंद का अनुभव, एक ही अनुभव है। लेकिन जब हम बोलते हैं, बहुत हैं पाप आदमी के, अनंत हैं, अनंत जन्मों के हैं। तो तत्काल प्रिज्म भाषा का तोड़ देता तीन में। फिर समझाने जाते हैं, गहन, लंबी है श्रृंखला पाप की। इस लंबी पाप की श्रृंखला को क्या तो हजार शब्दों का उपयोग करना पड़ता है। फिर उनको भी समझाने ज्ञान का एक अनुभव तोड़ पाएगा? इतने बड़े विराट पाप को क्या जाएं, तो लाख शब्द हो जाते हैं। सब फेल जाता है।
ज्ञान की एक किरण नष्ट कर पाएगी? वहां गहन एक है: फिर सब फैलाव होता चला जाता है। जितना | जो नीतिशास्त्री हैं—नीतिशास्त्री अर्थात जिन्हें धर्म का कोई भी समझाने की कोशिश करें, उतना शब्दों का ज्यादा उपयोग करना | पता नहीं, जिनका चिंतन पाप और पुण्य से ऊपर कभी गया पड़ता है। कम से कम, दि मिनिमम, जो आदमी की भाषा कर सकती नहीं—वे कहेंगे, जितना किया पाप, उतना ही पुण्य करना पड़ेगा। है, वह तीन है। तीन से पीछे भाषा नहीं जा सकती; एक तक भाषा | जितना किया पाप, उतना ही पुण्य करना पड़ेगा। एक-एक पाप को नहीं जा सकती है। बस, तीन पर भाषा मर जाती है। तीन के पीछे | एक-एक पुण्य से काटना पड़ेगा, तब बैलेंस, तब ऋण-धन बराबर एक है। वह एक है। इसलिए हमने त्रिमूर्ति भगवान की मूर्ति बनाई। होगा; तब हानि-लाभ बराबर होगा और व्यक्ति मुक्त होगा।
खयाल किया आपने, चेहरे तीन, और आदमी एक। चेहरे तीन, . जो नीतिशास्त्री हैं, मारलिस्ट हैं, जिन्हें आत्म-अनुभव का कुछ और मूर्ति एक। शक्लें तीन, और प्राण एक। देह एक, और चेहरे भी पता नहीं, जिन्हें बीइंग का कुछ भी पता नहीं, जिन्हें आत्मा का तीन। बाहर से देखो, तो तीन चेहरे। उस मूर्ति के भीतर खड़े हो कुछ भी पता नहीं; जो सिर्फ डीड का, कर्म का हिसाब-किताब जाओ, मूर्ति बन जाओ, तो फिर एक। समझाने के लिए तीन, जानने रखते हैं; वे कहेंगे, एक-एक पाप के लिए एक-एक पुण्य से के लिए एक। व्याख्या के लिए तीन, अनुभव के लिए एक। साधना पड़ेगा। अगर अनंत पाप हैं, तो अनंत पुण्यों के अतिरिक्त ___ इसलिए कृष्ण ने दो बातें कहीं। उन्होंने कहा, वैसा व्यक्ति कोई उपाय नहीं। मुझको उपलब्ध हो जाता है। यह एक की तरफ इशारा करने को। लेकिन तब मुक्ति असंभव है। दो कारणों से असंभव है। एक फिर कहा, सच्चिदानंद रूप को, यह समझाने के लिए, तीन की तो इसलिए असंभव है कि अनंत श्रृंखला है पाप की, अनंत पुण्यों तरफ इशारा करने को।
की श्रृंखला करनी पड़ेगी। और इसलिए भी असंभव है कि कितने एक आंखिरी श्लोक और।
ही कोई पुण्य करे, पुण्य करने के लिए भी पाप करने पड़ते हैं। | एक आदमी धर्मशाला बनाए, तो पहले ब्लैक मार्केट करे। ब्लैक
मार्केट के बिना धर्मशाला नहीं बन सकती। एक आदमी मंदिर अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः । बनाए, तो पहले लोगों की गर्दनें काटे। गर्दने काटे बिना मंदिर की सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं संतरिष्यसि ।। ३६ ।। नींव का पत्थर नहीं पड़ता। एक आदमी पुण्य करने के लिए, कम
यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन । से कम जीएगा तो! और जीने में ही हजार पाप हो जाते हैं। चलेगा ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा ।। ३७ ।। तो; हिंसा होगी। उठेगा तो; हिंसा होगी। बैठेगा तो; हिंसा होगी। और यदि तू सब पापियों से भी अधिक पाप करने वाला है, श्वास तो लेगा! तो भी ज्ञानरूप नौका द्वारा निस्संदेह संपूर्ण पापों को अच्छी वैज्ञानिक कहते हैं, एक श्वास में कोई एक लाख छोटे जीवाणु प्रकार तर जाएगा।
नष्ट हो जाते हैं। बोलेगा तो! एक बार ओंठ ओंठ से मिला और क्योंकि हे अर्जुन, जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधन को भस्मसात खुला तो करीब एक लाख सूक्ष्म जीवाणु नष्ट हो जाते हैं। किसी का कर देता है, वैसे ही ज्ञानरूप अग्नि संपूर्ण कर्मों को चुंबन आप लेते हैं, लाखों जीवाणुओं का आदान-प्रदान हो जाता भस्मसात कर देता है।
है। कई मर जाते हैं बेचारे! __जीने में ही पाप हो जाएगा। पुण्य करने के लिए ही पाप हो | जाएगा। कम से कम जीएंगे तो पुण्य करने के लिए! तब तो यह
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गीता दर्शन भाग-2
अनंत वर्तुल है, विसियस सर्किल है, दुष्टचक्र है; इसके बाहर आप नहीं सकते। अगर पुण्य से पाप को काटने की कोशिश की, तो पुण्य करने में पाप हो जाएगा। फिर उस पाप को काटने की पुण्य से कोशिश की, तो फिर उस पुण्य करने में पाप हो जाएगा। हर बार पाप को काटना पड़ेगा। हर बार पुण्य से काटेंगे। पुण्य नए पाप करवा जाएगा। यह वर्तुल कभी अंत नहीं होगा। यह सर्किल विसियस है।
इसलिए नैतिक व्यक्ति कभी मुक्त नहीं हो सकता। नैतिक दृष्टि कभी मुक्ति तक नहीं जा सकती। नैतिक दृष्टि तो चक्कर में ही पड़ी रह जाती है।
कृष्ण एक बहुत ही और दृष्टि की बात कर रहे हैं। और जो भी जानते हैं, वे वही बात करेंगे। कृष्ण कहते हैं, अर्जुन, तू अगर सब पापियों में भी सबसे बड़ा पापी है, दि ग्रेटेस्ट सिनर; अस्तित्व में जितने पापी हैं, उनमें तू सबसे बड़ा पापी है, तो भी ज्ञान की एक घटना तेरे सब पापों को क्षीण कर देगी। क्या मतलब हुआ इसका ? इसका मतलब यही हुआ कि पाप की कोई सघनता नहीं होती, पाप की कोई डेंसिटी नहीं होती । पाप है अंधेरे की तरह। एक घर में अंधेरा है हजार साल से, दरवाजे बंद हैं. ताले बंद हैं। हजार साल पुराना अंधेरा है। क्या आप दीया जलाएंगे, तो अंधेरा कहेगा, इतने से काम नहीं चलता! आप हजार साल तक दीए जलाएं, तब मैं कदूंगा !
नहीं; आपने दीया जलाया कि हजार साल पुराना अंधेरा गया। वह यह नहीं कह सकता है कि मैं हजार साल पुराना हूं। वह यह भी नहीं कह सकता हजार सालों में बहुत सघन, कनडेंस्ड हो गया हूं, इसलिए दीए की इतनी छोटी-सी ज्योति मुझे नहीं तोड़ सकती !
हजार साल पुराना अंधेरा और एक रात का पुराना अंधेरा एक ही बराबर डेंसिटी के होते हैं। या कहना चाहिए कि नो डेंसिटी के होते हैं; उनमें कोई सघनता नहीं होती। अंधेरे की पर्तें नहीं होतीं; क्योंकि अंधेरे का कोई अस्तित्व नहीं होता। बस, आज आपने जलाई काड़ी, अंधेरा गया - अभी और यहीं ।
हां, अगर कोई अंधेरे को पोटलियों में बांधकर फेंकना चाहे, तो फिर मारेलिस्ट का काम कर रहा है, नैतिकवादी का । वह कहता है, जितना अंधेरा है, उसको बांधो टोकरी में, बाहर फेंक कर आओ। फेंकते रहो टोकरी बाहर और भीतर, अंधेरा अपनी जगह रहेगा । आप चुक जाओगे, अंधेरा नहीं चुकेगा।
पाप को पुण्य से नहीं काटा जा सकता, क्योंकि पुण्य भी सूक्ष्म
पाप के बिना नहीं हो सकता। पाप को तो सिर्फ ज्ञान से काटा जा सकता है, क्योंकि ज्ञान बिना पाप के हो सकता है।
ध्यान रखें, पाप को पुण्य से नहीं काटा जा सकता, क्योंकि पुण्य बिना पाप के नहीं हो सकता है। पाप को सिर्फ ज्ञान से काटा जा सकता है, क्योंकि ज्ञान बिना पाप के हो सकता है। ज्ञान कोई कृत्य | नहीं है कि जिसमें पाप करना पड़े। ज्ञान अनुभव है। कर्म बाहर है, ज्ञान भीतर है। ज्ञान तो ज्योति के जलने जैसा है। जला, कि सब अंधेरा गया।
फिर तो ऐसा भी पता नहीं चलता कि मैंने कभी पाप किए थे । | क्योंकि जब मैं ही चला जाए, तो सब खाते-बही भी उसी के साथ चले जाते हैं। फिर आदमी अपने अतीत से ऐसे ही मुक्त हो जाता है, जैसे सुबह सपने से मुक्त हो जाता है। क्या कभी आपने ऐसा | सवाल नहीं उठाया, सुबह हम उठते हैं, रातभर सपना देखा, तो जरा-सा किसी ने हिलाकर उठा दिया, इतने से हिलाने से रातभर | का सपना टूट सकता है?
नहीं, जरा-सा किसी ने हिलाया; पलक खुली; सपना गया। फिर आप यह नहीं कहते कि अब रातभर इतना सपना देखा, तो अब सपने के विरोध में इतना ही यथार्थ देखूंगा, तब सपना मिटेगा । सपना टूट जाता है।
पाप सपने की भांति है। ज्ञान की जो सर्वोच्च घोषणा है, वह है कि पाप स्वप्न की भांति है। फिर पुण्य भी स्वप्न की भांति है। और सपने सपने से नहीं काटे जाते हैं। सपने सपने से काटेंगे, तो भी सपना देखना जारी रखना पड़ेगा।
सपने सपने से नहीं कटते, क्योंकि सपनों को सपनों से काटने में सपने बढ़ते हैं। और सपने यथार्थ से भी नहीं काटे जा सकते; | क्योंकि जो झूठ है, वह सच से काटा नहीं जा सकता। जो असत्य | है, वह सत्य से काटा नहीं जा सकता। वह इतना भी तो नहीं है कि काटा जा सके। वह सत्य की मौजूदगी पर नहीं पाया जाता है; काटने को भी नहीं पाया जाता है।
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इसलिए कृष्ण कहते कि कितना ही बड़ा पापी हो तू, सबसे बड़ा पापी हो तू, तो भी मैं कहता हूं अर्जुन, कि ज्ञान की एक किरण तेरे सारे पापों को सपनों की भांति बहा ले जाती है। सुबह जैसे कोई जाग जाता — रात समाप्त, सपने समाप्त, सब समाप्त । जागे हुए आदमी को सपनों से कुछ लेना-देना नहीं रह जाता।
इसलिए जब पहली बार भारत के ग्रंथ पश्चिम में अनुवादित हुए, तो उन्होंने कहा, ये ग्रंथ तो इम्मारल मालूम होते हैं, अनैतिक
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• मोह का टूटना
मालूम होते हैं। खुद शॉपेनहार को चिंता हुई। मनीषी था गहरा। चिंतक था गहरा। उसको खुद चिंता हुई कि ये किस तरह की बातें हैं! ये कहते हैं कि एक क्षण में कट जाएंगे!
क्रिश्चियनिटी कभी भी नहीं समझ पाई इस बात को। ईसाइयत कभी नहीं समझ पाई इस बात को। एक क्षण में? क्योंकि ईसाइयत ने पाप को बहुत भारी मूल्य दे दिया, बहुत गंभीरता से ले लिया। सपने की तरह नहीं, असलियत की तरह। ईसाइयत के ऊपर पाप का भार बहुत गहरा है, बर्डन बहुत गहरा है। ओरिजिनल सिन! एक-एक आदमी का पाप तो है ही; वह पहले आदमी ने जो पाप किया था, वह भी सब आदमियों की छाती पर है। उसको काटना बहुत मुश्किल है।
इसलिए क्रिश्चियनिटी गिल्ट रिडेन हो गई; अपराध का भाव भारी हो गया। और पाप से कोई छुटकारा नहीं दिखाई पड़ता। कितने ही पुण्य से नहीं छुटकारा दिखाई पड़ता। इसलिए ईसाइयत गहरे में जाकर रुग्ण हो गई।
जीसस को नहीं था यह खयाल। लेकिन ईसाइयत जीसस को नहीं समझ पाई; जैसा कि सदा होता है। हिंदू कृष्ण को नहीं समझ पाए। जैन महावीर को नहीं समझ पाए। ईसाइयत जीसस को नहीं समझ पाई।
न समझने वाले समझने का जब दावा करते हैं, तो उपद्रव शुरू हो जाता है। जीसस ने कहा, सीक यी फ दि किंगडम आफ गॉड एंड आल एल्स शैल बी एडेड अनटु यू। जीसस ने कहा कि सिर्फ प्रभु के राज्य को खोज लो और शेष सब तुम्हें मिल जाएगा। वही जो कृष्ण कह रहे हैं कि सिर्फ प्रकाश की किरण को खोज लो और शेष सब, जो तुम छोड़ना चाहते हो, छूट जाएगा; जो तुम पाना चाहते हो, मिल जाएगा।
भारतीय चिंतन इम्मारल नहीं है, एमारल है; अनैतिक नहीं है, अतिनैतिक है, सुपर मारल है, नीति के पार जाता है। यह वक्तव्य बहुत एमारल है, अतिनैतिक है। यह नीति-अनीति के पार चला जाता है, पुण्य-पाप के पार चला जाता है।
शेष फिर रात हम बात करेंगे।
अब कीर्तन में, धुन में संन्यासी डूबेंगे। जो मित्र सम्मिलित होना चाहें, वे सम्मिलित हो जाएं। अन्यथा बैठे रहें अपनी जगह। कम से कम ताली में साथ दें, धुन में साथ दें, बैठकर अपनी जगह। एक दस मिनट के लिए भूलें बुद्धि को, भूलें चिंतन को, भूलें विचार को।
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अध्याय 4 सोलहवां प्रवचन
ज्ञान पवित्र करता है
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गीता दर्शन भाग-20
प्रश्नः भगवान श्री, सुबह सैंतीसवें श्लोक में कहा | में बंदूक पकड़ रखी थी, तो भय गया, तो बंदूक भी आपने टिका गया है कि ज्ञानरूपी अग्नि सर्व कर्मों को भस्म कर |दी कोने में। प्रकाश बंदूक को हाथ से छुड़ा नहीं सकता। अंधेरा देती है। कृपया बताएं कि कर्म ज्ञानाग्नि से किस भांति हटता है; अंधेरे से भय हटता है, भय हटने से बंदूक छूट जाती है। प्रभावित होते हैं?
ये सब परोक्ष घटित होती घटनाएं हैं।
अज्ञान है हमारे समस्त कर्म-बंध का आधार। अनंत-अनंत
जन्मों में जो भी हमने किया है, उस सबके पीछे अज्ञान है आधार। नाग्नि समस्त कर्मों को भस्म कर देती है। किस भांति | अगर अज्ञान न होता, तो हमें यह खयाल ही पैदा न होता कि मैंने सा कर्म ज्ञानाग्नि में भस्म होते हैं?
किया है। अगर अज्ञान न होता, तो हम जानते, हमने कभी कुछ पहले तो यह समझ लेना पडे कि कर्म किस भांति किया नहीं है। हमारा अपना होना भी नहीं है। चेतना के निकट संगृहीत होते हैं। क्योंकि जो उनके संग्रह की अज्ञान में ही पता चलता है कि मैं हूं। अज्ञान नहीं है, तो परमात्मा प्रक्रिया है, वही विपरीत होकर उनके विनाश का उपक्रम भी है। यह | है। अज्ञान नहीं है, तो मेरा कृत्य जैसा कोई कृत्य नहीं है। सभी कृत्य भी समझ लेना जरूरी है कि कर्म क्या है। क्योंकि कर्म का जो परमात्मा के हैं। शुभ-अशुभ, अच्छा-बुरा, जो भी है, उसका है। स्वभाव है, वही उसकी मृत्यु का भी आधार बनता है। | सभी उसको समर्पित है, सभी उसको...।
कर्म कोई वस्तु नहीं है; कर्म है भाव। कर्म कोई पदार्थ नहीं है; अज्ञान के कारण लगता है कि मैं करता हूं। अज्ञान संगृहीत कर्म है विचार। कर्म का जन्मदाता व्यक्ति नहीं है, कर्म का | | करता है कर्मों को कर्ता बनकर। फिर अज्ञान कल्पना करके योजना जन्मस्रोत आत्मा नहीं है; कर्म का जन्मदाता है अज्ञान। अज्ञान से करता है कर्मों की भविष्य में; वासना बनता है। अतीत में अज्ञान उत्पन्न हुआ विचार; अज्ञान में उठी भाव की तरंग; अज्ञान में भाव बनता है कर्म की स्मृति, किया मैंने। भविष्य में बनता है स्वप्न, कर्म और विचार के आधार पर हुआ कृत्य। सबके मूल में आधार है। | की वासना, करूंगा ऐसा। और इन दोनों के बीच में वर्तमान अज्ञान का।
गुजरता। दो अज्ञानों के बीच में, अज्ञान की स्मृति और अज्ञान की ज्ञान वस्तुतः कर्मों का नाश नहीं करता; परोक्ष में करता है। कल्पना, इन दोनों के बीच में वर्तमान गुजरता। . वस्तुतः तो ज्ञान अज्ञान का नाश करता है। लेकिन अज्ञान के नाश ज्ञान की किरण के उतरते ही, ज्ञान की अग्नि के जलते ही, वह होने से कर्मों की आधारशिला टूट जाती है। जहां वे संगृहीत हुए, | अंधेरा हट जाता है, जो वासना करता है; वह अंधेरा हट जाता है, वह आधार गिर जाता है। जहां से वे पैदा होते हैं, वह स्रोत नष्ट हो | जो कर्ता होने का भाव रखता है। सब कर्म तत्क्षण क्षीण हो जाते हैं। जाता है। जहां से वे पैदा हो सकते थे भविष्य में, वह बीज दग्ध हो | तत्क्षण। ज्ञान के समक्ष कर्म बचता नहीं, वैसे ही जैसे प्रकाश के जाता है।
समक्ष अंधकार बचता नहीं। ज्ञान वस्तुतः सीधे कर्मों को नष्ट नहीं करता; ज्ञान तो नष्ट करता इसलिए कृष्ण कहते हैं कि ज्ञानाग्नि में भस्म हो जाते हैं सब कर्म। है अज्ञान को। और अज्ञान है जन्मदाता कर्मों के बंधन का। अज्ञान यह सिंबालिक है, प्रतीकात्मक है। ज्ञान-अग्नि; कर्मों का भस्म नष्ट हुआ कि कर्म नष्ट हो जाते हैं।
हो जाना-सब प्रतीक है। सूचना इतनी है कि कर्ता ज्ञान में नहीं __ ऐसा समझें, अंधेरा है भवन में। भय लगता है बहुत। जलाया | टिकता है; अहंकार ज्ञान में नहीं टिकता है। और अहंकार नहीं, तो दीया। कहते हैं हम, प्रकाश जल गया, भय नष्ट हो गया। लेकिन अहंकार के द्वारा संजोई गई कर्म की सारी व्यवस्था टूट जाती और सच ही प्रकाश भय को सीधा कैसे नष्ट कर सकता है? प्रकाश तो नष्ट हो जाती है। नष्ट करता है अंधेरे को। अंधेरे के कारण लगता था भय; अंधेरा | ज्ञान को उपलब्ध व्यक्ति ऐसा जानता ही नहीं कि मैंने कभी कुछ नहीं है, इसलिए भय भी नष्ट हो जाता है।
| किया है। ऐसा भी नहीं जानता कि मैं कभी कुछ करूंगा। ऐसा भी प्रकाश तो भय को छू भी नहीं सकता; प्रकाश तो अंधेरे को ही | नहीं जानता कि मैं कुछ कर रहा हूं। ज्ञान को उपलब्ध व्यक्ति कर्ता विसर्जित कर देता है। लेकिन अंधेरा था आधार, स्रोत। गया | के भाव से कहीं भी ग्रसित नहीं होता। अंधेरा; भय भी गया। अगर उस भय से बचाव के लिए आपने हाथ । कर्म आते हैं, जाते हैं। ज्ञानी पर भी कर्म आते हैं, जाते हैं। वह
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ज्ञान पवित्र करता है
भी उठता-बैठता, खाता-पीता, बोलता-सुनता। ज्ञानी भी कर्म तो | सुबह झील पर से; सूरज की रोशनी में चमकते वे शुभ्र पंख, झलके करता है। लेकिन ज्ञानी पर कर्म ऐसे हो जाते हैं, जैसे पानी पर खींची | क्षणभर को झील में, और खो गए। न तो बगुलों को पता चला कि गई लकीरें। पानी पकड़ता नहीं है; लकीरें खिंचती हैं, खिंच भी नहीं | झील में प्रतिबिंब पकड़ा गया है, और न झील को पता चला कि पाती कि खो जाती हैं।
बगलों का प्रतिबिंब मैंने पकड़ा है। अज्ञानी पर कर्म ऐसे पकड़ते हैं, जैसे पत्थर पर खींची गई लकीरें।। ऐसा हो जाता है ज्ञानी का मन। सब होता है चारों तरफ, फिर भी खिंच जाती हैं, तो मिटती मालूम नहीं पड़तीं। एक बार खिंच जाती कुछ नहीं होता है। पूरे जीवन के बीत जाने के बाद भी ज्ञानी के पास हैं, तो और गहरी होती चली जाती हैं। फिर लकीर पर लकीर, और | उसके मन में झांको, कुछ भी इकट्ठा नहीं होता है; खाली का लकीर पर लकीर पड़कर पत्थरों पर घाव बना जाती हैं। खाली; रिक्त का रिक्त; शून्य का शून्य। आया-गया सब; भीतर
ज्ञानी पर कर्म ऐसे सरकता है, जैसे पानी पर खींची गई अंगुली, || | कुछ छूट नहीं जाता है। आप खींच भी नहीं पाए और पानी सपाट है-खाली और मुक्त, | ज्ञान की अग्नि कर्मों को जला डालती, इसका अर्थ इतना ही है रेखा से शून्य। लौटकर देखते हैं, रेखा कहीं नहीं है; जल की धार कि ज्ञान की अग्नि में अज्ञान नहीं बचता है। वैसी ही स्वच्छ बही जाती है। कितनी ही खींचें लकीरें, और पानी | कर्म नहीं है असली सवाल; असली सवाल है कर्ता। कर्ता ही सब लकीरों को बहाकर फिर वैसा का वैसा ही हो जाता है। ऐसा कर्म को पकड़ता और इकट्ठा करता है। हम सब कर्ता बन जाते हैं, ही है ज्ञानी।
चौबीस घंटे, ऐसी चीजों के भी, जिनके कर्ता बनना कतई उचित कर्ता का पत्थर भीतर न हो, कर्ता का अहंकार भीतर न हो, तो | नहीं है। कर्म की लकीरें खिंचती नहीं। जल की तरह तरल हो जाता है ज्ञानी; | हम तो यहां तक कहते हैं कि श्वास लेता हूं मैं, जैसे कि कभी खिंचती है पानी पर रेखा, और खो जाती है।
आपने श्वास ली हो! श्वास आती है, जाती है; कोई लेता नहीं। __ कहें कि दर्पण की भांति हो जाता है। कोई आता है सामने, तो | | अगर आप लेते होते, तो दूसरे दिन सुबह फिर कभी उठते ही नहीं। दिखाई पड़ता; दर्पण झलकाता। फिर विदा हो जाता, दर्पण मुक्त | | रात नींद में खो जाते; श्वास कौन लेता फिर? नहीं, श्वास हम नहीं
और खाली और शून्य हो जाता। दर्पण पर कोई रूपरेखा छूट नहीं | | लेते। श्वास आती है, जाती है। जाती।
__ श्वास जैसी जीवन की गहरी प्रक्रिया भी हम नहीं करते हैं। होती अज्ञानी का मन होता है फोटो-प्लेट की तरह, कैमरे के भीतर है। पर आदमी कहता है कि मैं श्वास लेता हूं। हद है! कभी किसी सरकने वाली फिल्म की तरह। जो पकड़ लिया, पकड़ लिया; उसे | | ने श्वास नहीं ली। न कोई कभी श्वास लेगा। श्वास बस आती और फिर छोड़ता नहीं। फोटो के कैमरे में भी आदमी की शकल दिखाई | जाती है। आप ज्यादा से ज्यादा देख सकते हैं, जान सकते हैं। ज्यादा पड़ती है, लेकिन पकड़ी जाती है। दर्पण में भी शकल दिखाई पड़ती | | से ज्यादा भूल सकते हैं, विस्मरण कर सकते हैं; स्मरण रख सकते है, लेकिन पकड़ी नहीं जाती। अज्ञानी का मन पकड़ने में बहुत | | हैं, होश रख सकते हैं, बेहोश हो सकते हैं लेकिन श्वास ले नहीं कुशल है। अज्ञान की वजह से क्लिगिंग गहरी है, पकड़ गहरी है। सकते। ज्ञाता हो सकते, साक्षी हो सकते, द्रष्टा हो सकते-कर्ता जल्दी से मुट्ठी बांध लेता और पकड़ लेता है। इकट्ठा करता चला | नहीं हो सकते हैं। जाता है।
लेकिन हम हर चीज में जोड़ लेते हैं। और गौर से देखते चले ज्ञान की रोशनी आती है, मुट्ठी खुल जाती है। दर्पण हो जाता | | जाएं, तो फिर किसी चीज में नहीं जोड़ पाएंगे। खोजते चले जाएं, है आदमी का मन। फिर कुछ पकड़ता नहीं। पिछले अतीत में देखे | | तो पाएंगे कि कर्ता भ्रम है, दि ग्रेटेस्ट इलूजन। जो बड़े से बड़ा भ्रम गए चित्र भी नहीं पकड़ता, आज देखे जाने वाले चित्र भी नहीं | है, वह कर्ता का भ्रम है। पकड़ता, भविष्य में देखे जाने वाले चित्र भी नहीं पकड़ता। ऐसा | मां कहती है कि मैं बेटे को जन्म देती है। किसी मां ने कभी नहीं हो जाता है ज्ञानी का मन, जैसे बगुलों की कतार सुबह उड़ी हो | दिया। होता है। अगर पति और पत्नी सोचते हों कि हम मिलकर झील के ऊपर से।
| बेटे को जन्म देते हैं, तो प्रकृति उन पर बहुत हंसती है। क्योंकि उनसे एक झेन फकीर बांकेई ने कहा है, उड़ती देखी बगुलों की कतार भी प्रकृति जन्माने का काम लेती है, वे जन्म देते नहीं हैं।
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गीता दर्शन भाग-28
इसीलिए तो कामवासना इतनी प्रगाढ़ है, आपके वश में नहीं है। यह मैं अज्ञान का गढ़ है। ज्ञान की किरण, होश का क्षण, इतनी प्रगाढ़ है, इतनी बायोलाजिकल फोर्स है, इतना जैविक भीतर | जागरूकता की एक झलक इस पूरे गढ़ को गिरा देती है। यह ताश से धक्का है कि आपके वश में नहीं है। इसीलिए तो ब्रह्मचर्य बड़ी | के पत्तों का गढ़ है। यह पत्थरों का नहीं है, नहीं तो ज्ञान की किरण से बड़ी चीज समझी गई है।
इसे न गिरा पाए। यह ताश के पत्तों का घर है। जरा-सा झोंका हवा ब्रह्मचर्य के बड़े होने का और कोई मतलब नहीं है। इतना ही का, और सब बिखर जाता है। मतलब है कि ब्रह्मचर्य को केवल वही उपलब्ध हो सकता है, जो यह अहंकार बिलकुल ताश के पत्तों का घर है। जरा-सा धक्का कर्ता के भाव से मक्त हो गया हो। क्योंकि कर्ता से तो प्रकति बाप ज्ञान का, और सब गिरकर जमीन पर पड़ जाता है। वर्षों की, जन्मों बनने का, मां बनने का काम ले ही लेगी। वह अज्ञानी पक्का है। की मेहनत हो भला, लेकिन है ताश के घर का खेल। उसको तो भीतर से धक्का दे दिया जाएगा और उससे काम ले ज्ञान क्या करता है? ज्ञान क्या है? लिया जाएगा।
| ज्ञान है स्मरण सत्य का, अज्ञान है विस्मरण सत्य का। अज्ञान है पशुओं की जिंदगी में अगर देखें, कीड़े-मकोड़ों की जिंदगी में | | एक फार्गेटफुलनेस, एक विस्मृति। ज्ञान है एक स्मरण। अगर देखें, पौधों की जिंदगी में अगर देखें, तो सभी पैदा कर रहे हैं; स्मरण सत्य का जैसे ही होता है, वैसे ही अंधेरे में, अज्ञान में सभी बच्चे पैदा कर रहे हैं। लेकिन कम से कम उनको शायद पता पाली गई सारी धारणाएं गिर जाती हैं। गिर ही जाएंगी। जैसे रात के नहीं है कि वे कर्ता हैं। आदमी को यह खयाल है कि वह कर्ता है। अंधेरे में हमने सपने देखे अ सुबह के जागरण पर सब खो गएं।
बाप बेटे से कहता है, मैंने तुझे जन्म दिया। सारा जगत हंसता | ऐसे ही। होगा अगर सुनता होगा कि पागल हुए हो! जन्म तुमने दिया? या इसलिए कृष्ण कहते हैं कि ज्ञान की अग्नि में समस्त कर्म जल कि जन्म की प्रक्रिया में तुम सिर्फ उपकरण बनाए गए, साधन बनाए जाते हैं अर्जुन! तू चिंता ही मत कर कर्मों की; तू चिंता कर कर्ता की। गए? पैदा होना चाहता था कोई। जगत, अस्तित्व उसे पैदा करना पूरा जोर कृष्ण का इस बात का है, कर्म की छोड़ फिक्र, फिक्र चाहता था; आप सिर्फ उपकरण बने हैं, आप सिर्फ माध्यम बने हैं। कर कर्ता की। अगर कर्ता है तू, तो फिर कर्म तुझे बनते ही चले लेकिन माध्यम अकड़कर कहता है, मैंने पैदा किया! जाएंगे। और अगर कर्ता नहीं है तू, तो फिर चिंता छोड़। फिर झील'
बुद्ध ने बारह वर्ष बाद घर लौटकर जब गांव के द्वार से प्रवेश पर उड़े हुए बगुलों की कतार की भांति कुछ भी तुझ पर बनेगा नहीं। किया, तो बुद्ध के पिता ने कहा, मैंने ही तुझे जन्म दिया। बुद्ध ने यह महायुद्ध जो तेरे सामने खड़ा है, इससे भी गुजर; कर्ता भर मत
हा, क्षमा करें। आप नहीं थे, तब भी मैं था। मेरी यात्रा बहुत हो। फिर ये गिरी हुई हजारों लाशें भी, तेरे ऊपर खून का एक दाग पुरानी है। आपसे मेरा मिलन तो अभी-अभी हुआ, कुछ ही वर्ष न छोड़ जाएंगी। पहले। मेरी यात्रा बहुत पुरानी है आपसे। आपकी भी यात्रा उतनी इससे बड़ी हिम्मत का वक्तव्य मनुष्य-जाति के इतिहास में ही पुरानी है। आपने मुझे जन्म दिया, ऐसा मत कहें; ऐसा ही कहें दूसरा नहीं है। सच ए ग्रेट एंड बोल्ड स्टेटमेंट! कृष्ण कहते हैं, ये कि आप एक चौराहे बने, जिससे मैं गुजरा और पैदा हुआ। लेकिन लाखों लोग, इनकी लाशें पट जाएं; अगर तू कर्ता नहीं है, तो छोड़ मैं गुजरा और पैदा हुआ, ऐसा भी कहना, बुद्ध ने कहा, ठीक नहीं; फिक्र, खून का एक दाग भी तेरे ऊपर नहीं पड़ेगा। और अगर तू गुजारा गया और पैदा किया गया।
| कर्ता है, तो तू शून्य में से भी गुजर जा, तो भी तू कर्मों से भर जाएगा जैसे कोई चौराहे से गुजर जाए और चौराहा कहे कि मैंने ही तुम्हें और लद जाएगा। पैदा किया; मेरे चौराहे से तुम गुजरे थे, अन्यथा हो न सकते थे! कर्ता अगर सोया भी रहे, तो भी कर्म अर्जित करता है; नींद में ऐसे ही मां-बाप एक चौराहे से ज्यादा नहीं हैं, जिनसे बच्चा पैदा भी कर्म करता है। और अगर अकर्ता जागकर युद्धों में भी उतर होता है।
जाए, तो भी कर्म फलित नहीं होता है। कर्ता की मृत्यु कर्म का अनंत हैं शक्तियां, जिनके कारण यह घटना घटती है। छोटी से समाप्त हो जाना है। छोटी घटना अनंत चीजों पर निर्भर है। मूलतः तो अनंत परमात्मा | इस अर्थ में ज्ञान की अग्नि समस्त कर्मों का विनाश बन जाती है। पर निर्भर है। लेकिन हम कहते हैं कि मैं...।
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ज्ञान पवित्र करता है -
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न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।
से भरा हुआ मन ही कुरूप है, अग्ली है। तत्स्वयं योगसंसिद्धिः कालेनात्मनि विन्दति ।। ३८।। __ जैसे ही वासना उठती मन में, हिंसा उठती है। क्योंकि वासना इसलिए इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला को पूरा हिंसा के बिना किया नहीं जा सकता। फिर जो पाना है, वह निस्संदेह कुछ भी नहीं है। उस ज्ञान को कितने काल से किसी भी तरह पाना है। फिर चाहे कुछ भी हो, फिर उसे पा ही लेना अपने आप समत्व बुद्धिरूप योग के द्वारा अच्छी प्रकार है। फिर अंधा होता आदमी। जब वासना घनी होती है, तब शुद्धांतःकरण हुआ पुरुष आत्मा में अनुभव करता है। | ब्लाइंडनेस पैदा होती है। अंधा होता है। फिर आंख बंद करके
दौड़ता पागल की तरह! क्योंकि अकेला ही नहीं दौड़ रहा है; और
बहुत अंधे भी दौड़ रहे हैं। कोई और न छीन ले! संघर्ष होता। ला न से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं है। ज्ञान के सदृश कुछ भी वैमनस्य होता। क्रोध होता। घृणा होती। सा नहीं है। ज्ञान से ज्यादा पवित्र करने वाला कोई स्रोत, । | और मजा यह है कि सफल हो जाए वासना, तो भी फ्रस्ट्रेशन, कोई झरना नहीं है। ज्ञान
तो भी विषाद हाथ में आता है। और असफल हो जाए वासना, तो ज्ञान की यह जो पवित्र करने की क्षमता है, यह जो ज्ञान की भी विषाद हाथ में आता है। दोनों ही स्थिति में अंततः दुख के आंसू स्वच्छ करने की क्षमता है, यह जो ज्ञान की ट्रांसफार्म करने की, हाथ में पड़ते हैं। रूपांतरित करने की शक्ति है, इसके संबंध में कृष्ण कह रहे हैं। इसे थोड़ा खयाल में ले लेना जरूरी है। क्योंकि हमारा मन कहेगा, तीन बातें कह रहे हैं। ज्ञान से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं। ज्ञान के सदृश नहीं; अगर सफल हो जाए, फिर क्या? फिर तो सब ठीक है! पवित्र करने वाला कुछ भी नहीं। ज्ञान को उपलब्ध हुआ आत्मा में यही है राज कि सफल होकर भी वासना कहीं भी नहीं ठीक प्रवेश कर जाता है। इन तीनों को अलग-अलग समझें। करती। असफल होकर तो करती ही नहीं; सफल होकर भी नहीं
अपवित्रता क्या है ? इंप्योरिटी क्या है? अपवित्र क्यों है मनुष्य? करती। कौन-सी है गंदगी उसके प्राणों पर, जो भारी है। कौन-सा है मैंने सुना है कि एक बड़े पागलखाने में एक मनोवैज्ञानिक अस्वच्छ कचरा, जो उसके चित्त पर बोझ है ? कौन-सी अशुचि | अध्ययन के लिए गया है। चिकित्सक ने पागलखाने के, उसे है? कौन है, क्या है, जो उसे रुग्ण और बीमार किए है? पागलों को दिखाया है। एक कोठरी में एक पागल बंद है, जो हाथ
मन में जैसे ही उठती है वासना, वैसे ही अशचि प्रवेश कर जाती | में एक तस्वीर लिए है। छाती से लगाता है; फिर देखता है; फिर है। मन में जैसे ही उठती है कामना, वैसे ही मन गंदगी से भर जाता आंस टपकाता है। रोता है, चिल्लाता है। पछा उस मनोवैज्ञानिक ने है। मन में जैसे ही उठी इच्छा कि ज्वर, फीवर प्रवेश कर जाता है। चिकित्सक को पागलखाने के कि क्या हो गया? क्या कारण है उत्तप्त हो जाता है सब। अस्वस्थ हो जाता है सब। कंपनशील हो इसके पागलपन का? चिकित्सक ने कहा. हाथ में जो तस्वीर लिए जाता है सब। कामना ही—डिजायरिंग-कामना ही अशुचि है, | है, वही कारण है। इस स्त्री को प्रेम करता था। यह इसे मिल नहीं अस्वच्छता है, अपवित्रता है।
| पाई। इसलिए दुखी और पीड़ित है। दिन-रात छाती पीटता रहता है। देखें; जब भी मन में कुछ चाह उठती है, तब देखें। भीतर से फिर वे आगे बढ़े और दूसरी कोठरी के सामने एक दूसरे सुगंध खो जाती और दुर्गंध शुरू हो जाती है। जब भी मन में कोई | आदमी को बाल नोचते, चेहरे को लहूलुहान करते देखा। पूछा चाह उठती है, तब भीतर से शांति खो जाती और अशांति के वर्तुल | मनोवैज्ञानिक ने, इस आदमी को क्या हुआ है ? उस चिकित्सक ने खड़े हो जाते हैं, भंवर खड़े हो जाते हैं। जब भी मन में कोई चाह | कहा, इस आदमी को वह स्त्री मिल गई, जो उस आदमी को नहीं उठती है, तभी दीनता पकड़ लेती है। आदमी भिखारी की तरह मिल पाई। यह उसकी वजह से पागल हो गया! एक पागल है भिक्षापात्र लेकर खड़ा हो जाता है, भिक्षु हो जाता है।
इसलिए कि जो उसने चाहा था, वह नहीं मिला। एक पागल है जब भी मन में चाह उठती है, तभी दसरे से तलना शरू हो जाती | | इसलिए कि जो उसने चाहा, वह मिल गया है! है; ईर्ष्या निर्मित होती है, जेलेसी। और जेलेसी से ज्यादा गंदी और | ऐसा ही होता है। चाहा हुआ मिल जाए, तो भी पता चलता है, कोई चीज नहीं है चित्त में। जेलेसी, जलन से, प्रतिस्पर्धा से, तुलना कुछ भी नहीं मिला। चाहा हुआ न मिले, तब तो फिर चित्त दुखी
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ॐ गीता दर्शन भाग-26
और पीड़ित होता ही है। और दुख में उठे आंसू जितनी गंदगी और | कौन उठाए? अपवित्रता लाते हैं, उतना और कुछ भी नहीं लाता। | सुना है मैंने, एक आदमी रो रहा था रास्ते पर खड़ा हुआ। और ध्यान रखें, आंस आनंद में भी उठ सकते हैं। लेकिन आनंद के! | u
एक फकीर से उसने कहा कि मझे तो भगवान उठा ही ले, तो आंसू बड़े पवित्र होते हैं, उनकी सुवास की कोई सीमा नहीं है। दुख | | अच्छा। मेरे पास कुछ भी नहीं है। आज सुबह की चाय पीने के में भी आंसू गिरते हैं, तब उनकी अपवित्रता, उनकी गंध का कोई | लिए पैसे भी नहीं हैं। उस फकीर ने कहा, घबड़ा मत। मैं समझता हिसाब नहीं है। आंसू वही होते हैं; भीतर का चित्त बदला होता है। | हूं, तेरे पास बहुत कुछ है; मैं बिक्री करवा देता हूं। उसने कहा, मेरे
वासना, कामना, इच्छा कीड़ा है, जो भीतर गंदगी को पैदा करता पास कुछ भी नहीं है इस चीथड़े के सिवा, जो मेरे शरीर पर अटका है। हम सब हजार इच्छाओं में जीते हैं, हजार तरह की गंदगियों में हआ है। इसकी क्या बिक्री होगी, खाक! अगर होती हो, तो मैं जीते हैं।
| बेचने को तैयार हूं। फकीर ने कहा, तू मेरे साथ आ। ज्ञान की स्वच्छ करने की शक्ति यही है कि ज्ञान के उतरते ही ___ वह उसे सम्राट के पास ले गया गांव के। दरवाजे पर उसने कहा इच्छा तिरोहित होती है। इच्छा की जगह अस्तित्व शुरू होता है। | कि मित्र, पहले तुझे बता दूं; ऐसा न हो कि बाद में तू बदल जाए। डिजायरिंग की जगह, एक्झिस्टेंशियल होता है आदमी। फिर मांगता दाम अच्छे मिल जाएंगे। लेकिन बेचने की तैयारी है? उसने कहा, नहीं कि क्या मिले; जो मिला है, उसे परम प्रभु को धन्यवाद देकर तू पागल तो नहीं है! मेरे पास कुछ है नहीं, जो बेचने योग्य हो।
चुपचाप स्वीकार करता है। दौड़ता नहीं है उसका चित्त कल के और इस महल में इन चीथड़ों को खरीदेगा कोई? चीथड़ों की वजह लिए; आज काफी है, पर्याप्त है। आज ही मिल गया है, यही क्या से मुझे भी निकालकर वे बाहर फेंक देंगे। भीतर प्रवेश भी मुश्किल कम है। आज हूं, इतनी भी तो मेरी पात्रता नहीं है। जो मिला, वह है। है क्या मेरे पास? उस फकीर ने कहा कि देख, बाद में बदल मेरी योग्यता कहां है?
| मत जाना; दाम अच्छे मिल जाएंगे। वह आदमी हंसने लगा। उसने लेकिन कोई हममें से नहीं सोचता यह कि जो हमें मिला, उसकी | कहा कि व्यर्थ मेरी सुबह खराब हुई तुम्हारे साथ आकर। तुम पागल हमारी योग्यता है? अगर मुझे आंखें न मिली होती, तो क्या मैं कह | मालूम पड़ते हो! फकीर ने कहा, तेरी मर्जी। अंदर चल! सकता था कि मेरी योग्यता है, मुझे आंखें दो! अगर मेरे पास हाथ सम्राट के पास जाकर कहा कि यह आदमी में ले आया। इस न होते, तो क्या था प्रमाण मेरे पास कि मेरी योग्यता है, मुझे हाथ | आदमी की दोनों आंखें आप खरीद लें। क्या दाम दे देंगे? आदमी दो! अगर मैं जीवित ही न होता, तो क्या था उपाय कि मैं कहता कि | घबड़ाया। उसने कहा, आंख! तुम बात क्या कर रहे हो? सम्राट ने मैं जीवन का अधिकारी हूं, मुझे जीवन दो! जो हमें मिला है, उसका | कहा, लाख-लाख रुपया मैंने तय कर रखा है; जो भी आदमी आंख हमें कोई हिसाब नहीं है, उसका कोई अनुग्रह नहीं है। क्योंकि | बेचे। वजीर को कहा, दो लाख रुपए ले आओ। और उस आदमी वासना उसे दिखाई ही नहीं पड़ने देती, जो है। वासना कहती है वह, से कहा, सौदे में कोई तुम्हें एतराज तो नहीं है? कम तो नहीं हैं? जो नहीं है।
वह भिखारी एकदम भिखारी न रहा, एक क्षण में। क्योंकि वासना वैसी ही है, जैसे कभी दांत टूट जाए, तो जीभ वहीं-वहीं| | भिखारी था वह टूटे हुए दांत पर जीभ मारने की वजह से। भिखारी जाती है, जहां दांत नहीं है। सब दांतों को छोड़ देती है। दिनभर वहीं | न रहा। क्योंकि अब उसकी उन दांतों पर जीभ पड़ी, जो थे। उसने कुरेदती चली जाती है, जहां दांत नहीं है। उस जीभ से पूछो कि तू | कहा, आप बात क्या करते हैं? आंखें मुझे बेचनी नहीं हैं। उस पागल हो गई। दांत इतने दिन था, तब कभी तूने छुआ भी नहीं। आज | | फकीर ने कहा, दो लाख मिलते हैं पागल! तू कहता था, कुछ भी तुझे क्या हो गया है? खाली गड्ढे को छूने में तुझे क्या हो रहा है? जो | मेरे पास नहीं है। भगवान को कोस रहा था। सुबह-सुबह दो लाख नहीं है, उसमें बड़ा रस है। जो है, उससे कोई प्रयोजन नहीं है। | का सौदा करवाए देते हैं। तेरी ज्यादा मर्जी हो, तो ज्यादा बोल। कुछ
वासना भी टूटे दांत को छूती रहती है दिन-रात, जो नहीं है। ज्यादा भी मिल सकता है। उस आदमी ने कहा कि मुझे बाहर जाने और बहुत कुछ है, जो नहीं है। अनंत है विस्तार जीवन का। सभी का रास्ता बताओ। मुझे आंख बेचनी नहीं है। उस फकीर ने कहा, कुछ मेरे पास नहीं है। यद्यपि मेरे पास जो है, वह सभी कुछ से | लेकिन लाखों की आंख तेरे पास हैं, कभी तूने भगवान को धन्यवाद जरा भी कम नहीं है। लेकिन उसको देखे कौन? उसकी तरफ नजर | | दिया है?
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ज्ञान पवित्र करता है
लेकिन लाखों की आंख देखे कौन ? आंखें तो कौड़ियों की इच्छाओं को देख रही हैं। आंखें तो कौड़ी भर इच्छा के पीछे दौड़ रही हैं। लाखों की आंख कौड़ियों की इच्छा करती है ! करोड़ों का मन - हिसाब नहीं है दाम का मन के लिए - क्षुद्र घास-पात के लिए पीड़ित है और तड़फता है। अरबों की विवेक - शक्ति - दाम नहीं लगते, अरबों में भी नहीं हो सकते दाम - किसी काम नहीं पड़ती। कोई जरा-सी गाली दे जाता है और करोड़ों की विवेक-शक्ति हम जमीन पर लुढ़का देते हैं। असीम, अनंत, अमूल्य आत्मा क्षुद्रतम के लिए दांव पर लगा दी जाती है।
नहीं; वह भिखारी हमसे ज्यादा होशियार था। इनकार कर दिया, नहीं बेचता हूं आंख! हम तो आत्मा बेच देते हैं! आत्मा बेचने में भी देर नहीं करते। टुकड़ों पर बिक जाती है आत्मा ! पैसों में बिक जाती है। तांबे के ठीकरों में बिक जाती है।
वासना हमें बुरी तरह भिखारी बना देती है।
ज्ञान स्वच्छ करता है वासना से; तृप्त करता है, जो है, उसमें । दौड़ाता नहीं उसके पीछे, जो नहीं है। हृदय से आलिंगन करा देता है उसका, जो है । अदभुत है तृप्ति, संतुष्टि फिर। उस संतुष्टि में वासना के सारे रोग और सारे विकार विदा हो जाते हैं; मन स्वच्छ हो जाता है। एकदम स्वच्छ और ताजा हो जाता है।
क्षण में जो जीता है, कल का जिसे हिसाब नहीं है, बीते कल का; आने वाले कल की जिसे अपेक्षा नहीं है; जो अभी और यहीं है, हियर एंड नाउ, उसकी स्वच्छता का कोई अंत नहीं है। वह पवित्रतम है।
लेता; फिर दोनों बाहुओं पर लगाता है। लोग भीड़ में खड़े हैं जो पत्थर फेंक रहे हैं; वे पूछते हैं कि मंसूर यह तुम क्या कर रहे हो ? तो मंसूर कहता है, मैं वजू कर रहा हूं। नमाज के पहले जैसे | मुसलमान हाथ धो डालता है। खून से वजू कर रहा है। अपने ही खून से ! हंसता है और कहता है, यह खून भी परमात्मा की नसों में बहता हुआ पानी है। वह नदियों में बहता हुआ पानी भी परमात्मा की नसों में बहता हुआ खून है। यह भी उसकी ही धारा है; वह भी | उसकी ही धारा है। सौभाग्य मेरा कि तुमने आज इतने निकट की धारा तोड़ दी और वजू करने मुझे दूर नहीं जाना पड़ रहा है। वहीं खून से वजू कर रहा है; हंस रहा है; मुस्कुरा रहा है।
लोग पत्थर फेंक रहे हैं और वह हंस रहा है। और मरते दम किसी ने उससे पूछा कि मंसूर, हम तुम्हें काट और तुम हम पर प्रेम बरसा रहे हो; मत झेंपाओ हमें, मत शर्माओ इतना । तो | मंसूर ने कहा, इसलिए ताकि तुम याद रख सको कि प्रेम को पत्थरों से पीड़ित नहीं किया जा सकता है। और आत्माओं को छुरों से, तलवारों से भोंका नहीं जा सकता है। और प्रार्थना को दुनिया की कोई भी गाली अपवित्र नहीं कर सकती है। ताकि तुम स्मरण रखो ।
अगर मंसूर के हाथ-पैर काटे जा रहे हैं। हाथ से गिरते लहू में भी, पैर से टपकते लहू में भी मंसूर हाथ के पंजों को लहू में लगा
यह जो इन व्यक्तियों के भीतर, और ऐसे हजार-हजार और | व्यक्ति भी हुए हैं, इन सबके भीतर जो पवित्रता प्रकट होती है, वह | कृष्ण के सूत्र का ही प्रमाण है। ज्ञान के सदृश और कुछ पवित्र करने वाला नहीं है।
कृष्ण कहते हैं, ज्ञान से ऊपर कुछ भी नहीं ।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, ज्ञान की तरह पवित्र करने वाला, ज्ञान सदृश पवित्र करने वाली कोई कीमिया, कोई केमिस्ट्री नहीं है। इसलिए अगर बुद्ध की आंखों में पवित्रता दिखाई पड़ती है ऐसी, कि जिससे झीलें भी झेंप जाएं। कि बुद्ध के चेहरे पर रेखाएं दिखाई पड़ती हैं ऐसी, कि छोटे बच्चे भी, नवजात शिशु भी शर्माएं। कि बुद्ध के चलने में चारों तरफ हवा बहती है स्वच्छता की, निर्मल, कि मलय पर्वत से उठी हुई सुगंधित हवाएं भी फिर से विचार करें कि वे मलय पर्वत से आती हैं या कहीं और से ! अगर महावीर की नग्नता में भी पवित्रतम के दर्शन होते हैं, तो उसका कारण है। अगर जीसस सूली पर लटके हैं और मृत्यु क्षण में भी उनके भीतर से जीवन की ऊर्जा ही झलकती और प्रकट होती है।
है भी नहीं। परम शिखर जीवन के अनुभव का, जान लेना है। निकृष्टतम खाई अज्ञान की, न जानने में पड़े रहना है। आत्म- अज्ञान गहनतम नर्क है; आत्म-ज्ञान श्रेष्ठतम स्वर्ग है। जो नहीं जानता अपने को, उससे नीचे और कुछ नहीं हो सकता। जो | जान लेता अपने को, उसके ऊपर कुछ और नहीं है।
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दो ही छोर हैं, अज्ञान और ज्ञान। इन दो के अतिरिक्त और कोई पोल्स नहीं हैं अस्तित्व के । एक तरफ अज्ञान का छोर है, जहां हम अपने को नहीं जानते। और जो अपने को नहीं जानता, वह और कुछ क्या जानेगा, खाक! कैसे जानेगा ? उपाय क्या है? जो अपने को ही नहीं जानता, वह और क्या जानेगा? उसका सब जानना धोखा है। और जो अपने को जान लेता है, उसे और कुछ जानने को बचता
ज्ञान ही एकमात्र पवित्रता है, नालेज इज़ प्योरिटी । साक्रेटीज ने कहा है, नालेज इज़ वर्च्यू, ज्ञान ही एकमात्र सदगुण है। वही कृष्ण कहते हैं।
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गीता दर्शन भाग-20
नहीं। जिसने अपने को जान लिया, उसने सब जान लिया। | ही अर्थ रखता है। टक्कर होगी। थोड़ी-बहुत देर में लालटेन __महावीर ने कहा है, जाना जिसने स्वयं को, जाना उसने सब। बुझेगी। अंधे को पता कैसे चले? स्वयं को जाना, तो सर्वज्ञ हुआ। सभी कुछ जान लिया। क्यों? | ___ और मैं अगर उस मित्र की जगह होता, जिसने अंधे को लालटेन इतना बड़ा वक्तव्य! ऐसा कैटेगोरिकल, ऐसा निरपेक्ष वक्तव्य, कि | | दी, तो अंधे को लालटेन कभी न देता। क्योंकि अंधे के हाथ में जिसने अपने को नहीं जाना, उसने कुछ भी नहीं जाना। निश्चय ही, | लालटेन अगर न होती, तो मैं मानता हूं कि वह उस दिन न क्योंकि जानने की पहली किरण स्वयं से अग
| टकराता। आप कहेंगे, कैसे? इसलिए न टकराता कि अंधे के हाथ से नहीं टूट सकती।
| में लालटेन न होती, तो वह टटोल-टटोलकर, सम्हाल-सम्हालकर, जो आदमी भीतर ही अंधेरा है. जिसके अपने ही घर का दीया चिल्ला-चिल्लाकर. आवाज दे-देकर चलता। लालटेन की वजह से बुझा है, जिसको अपना बुझा दीया ही जिंदगी बनी है, अपना दीया चला अकड़कर कि लालटेन है हाथ में; अब कौन टकराने वाला है! जलाने का स्मरण भी जिसे नहीं आया अब तक, उसे कहीं और
टक्कर हो गई। प्रकाश कहां हो सकता है? उसके हाथ में भी प्रकाश दे दो, तो अज्ञानी के हाथ में सारे जगत का ज्ञान दे दें, तो खतरा ही है। बेमानी है।
| अज्ञानी के हाथ में ज्ञान न हो, वही बेहतर। आज यही तो हुआ है मैंने सुना है, एक रात एक अंधा एक घर में मेहमान था। लौटने | | सारी दुनिया में। विज्ञान ने ज्ञान की राशि लगा दी अज्ञानी के हाथ लगा। अमावस की रात। घर से बाहर निकला। मित्र ने कहा, | | में। परिणाम में हिरोशिमा, नागासाकी! परिणाम में तीसरा महायुद्ध लालटेन साथ लेते चले जाएं। रास्ता बहुत अंधेरा है। अमावस की | | किसी भी दिन! अज्ञानी के हाथ में ताकत है। . रात! अंधे ने कहा, मजाक करते हैं! भूल गए, मैं अंधा हूं। मुझे तो | | नादिरशाह ने एक दफा एक ज्योतिषी से पूछा कि मैंने एक किताब दिन भी अमावस ही है। क्या फर्क पड़ता है? पर मित्र भी साधारण पढ़ी है-धर्मग्रंथ! उसमें लिखा है, ज्यादा देर सोना अच्छा नहीं। न था। मजाक में बात न कही थी: अर्थ था, अभिप्राय था। कहा | लेकिन मैं सुबह दस बजे सोकर उठता हूं। आपका क्या खयाल है? कि वह मैं जानता हूं। अंधे की मजाक करूं, इतना अंधा मैं नहीं। | किताब ठीक कि मैं ठीक? ज्योतिषी ने कहा, किताब ठीक नहीं है; इतना कठोर मत समझो। नहीं, इसलिए नहीं कि तुम्हें प्रकाश में आप ही ठीक हैं। और मैं आपसे प्रार्थना करता हूं कि आप चौबीस ' दिखाई पड़ने लगेगा, इसलिए नहीं कहता, लालटेन ले लो। घंटे सोए रहें, तो बहुत अच्छा है! नादिरशाह ने कहा, तुम्हारा इसलिए कहता हूं कि अंधेरे में कोई और तुमसे न टकरा जाए। हाथ | | मतलब? हिम्मत का आदमी रहा होगा वह ज्योतिषी। उसने कहा, में रहेगा प्रकाश, तो दूसरे को टकराने में थोड़ी असुविधा पड़ेगी। | | मेरा मतलब यह कि किताब अच्छे आदमियों को ध्यान में रखकर हालांकि प्रकाश रहते भी जिसको टकराना है, वह टकराता है; फिर | | लिखी गई है, बुरे आदमियों को ध्यान में रखकर नहीं। अच्छा आदमी भी थोड़ी सुविधा कम होगी। थोड़ी असुविधा, अड़चन आएगी। जितना जागे, उतना अच्छा; बुरा आदमी जितना सोए, उतना अच्छा। इसलिए लेते चले जाओ।
| क्योंकि वह जितनी देर सोए, उतनी देर दुनिया के लिए वरदान है। अंधे को भी कठिन हुआ। अब कोई उत्तर भी न था। ले ली | | जितनी देर जागे, उतनी देर उपद्रव; होगा ही कुछ! लालटेन और चल पड़ा। और दस कदम भी नहीं चला होगा, नादिरशाह जागे, उपद्रव न हो, ऐसा नहीं हो सकता। अज्ञानी के सड़क के किनारे पर कोने पर पहुंचा ही था कि भड़ाम! कोई उससे | | हाथ में अज्ञान ही अच्छा है; अज्ञानी के हाथ में ज्ञान खतरनाक है। आकर टकरा गया। पूछा अंधे ने, क्या कर रहे हैं? मैं नहीं गलत | | ज्ञानी के हाथ में अज्ञान भी खतरनाक नहीं है, ज्ञान की तो बात ही कर पाया अपने मित्र को, आप किए दे रहे हैं! दिखाई नहीं पड़ती। | क्या है! रोशनी? हाथ में लालटेन है! दूसरे आदमी ने कहा, क्षमा करें! यहां ज्ञान की जो बात कृष्ण कह रहे हैं, वह आत्मज्ञान है। स्वयं लालटेन बुझ गई है, आपको पता नहीं।
का ज्ञान प्राथमिक, फाउंडेशनल, मूलभूत ज्ञान है। उस ज्ञान को पा अंधे को पता भी कैसे चले कि लालटेन बन गई। अंधे के हाथ लेने से. कष्ण कहते हैं. आत्मा में प्रवेश हो जाता है। में लालटेन जैसा अर्थ रखती है, ऐसा ही स्वयं का जिसके प्रति यह आखिरी बात भी समझ लेनी जैसी है। अज्ञान है, उसके हाथ में जगत का सारा ज्ञान भी हो, तो बस ऐसा | आत्मा में प्रवेश हो जाता है। आत्मा से एकता हो जाती है।
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ज्ञान पवित्र करता है
आत्मा में द्वार मिल जाता है। आत्मा ही हो जाता है, वैसा जानने जाऊं कि मुझे पता नहीं है और मैं उधार शब्द दोहरा रहा हूं! वाला। तो क्या हम आत्मा नहीं हैं? हम सभी आत्मा हैं। सब इस मुल्क में ऐसी दुर्घटना घटी है। कभी-कभी सौभाग्य भी किताबों में लिखा है! खुद कृष्ण ही कहते हैं कि सबके भीतर आत्मा दुर्भाग्य हो जाते हैं। इस मुल्क ने कृष्ण की वाणी सुनी; इस मुल्क है, वह मरती नहीं। जब हम सभी आत्मा हैं, तो अब ज्ञान की और ने बुद्ध के वचन सुने; इस मुल्क ने महावीर के शब्द सुने; इस मुल्क क्या जरूरत है?
| ने पतंजलि, शंकर, नागार्जुन, वसुबंधु, धर्मकीर्ति, दिग्नाग-न जार्ज गुरजिएफ कहा करता था कि जिन लोगों ने लोगों को मालूम कितने जानने वाले लोगों की वाणी को पीया। सौभाग्य होना समझाया कि सबके भीतर आत्मा है, उन्होंने जगत की बड़ी हानि चाहिए था यह; लेकिन हो गया दुर्भाग्य। सुन-सुनकर हम भी की है। और जब उसने यह कहा, तो उसने बहुत सोच-विचारकर | | दोहराने लगे, हम भी कहने लगे, आत्मा है; ब्रह्म है। कहा है। गुरजिएफ ने उलटी बात कहनी शुरू की। इस बात को | पान की दुकान पर भी ब्रह्मचर्चा चलती है, विवाद चलते हैं! पान भलीभांति जानते हुए कि सभी के भीतर आत्मा है, गुरजिएफ ने | भी चलता है, ब्रह्मचर्चा भी चलती है! ऐसी ब्रह्मचर्चा महंगी पड़ी। कहना शुरू किया, सभी के भीतर आत्मा नहीं है। जो आत्मा को | | महंगी इसलिए पड़ी कि सुन-सुनकर, सुन-सुनकर ऐसा लगा कि पैदा कर ले, उसी के भीतर है; बाकी तो बिना आत्मा के हैं। । हम जानते हैं। और अज्ञान में खयाल आ जाए कि जानते हैं, तो
गुरजिएफ का मतलब था। गुरजिएफ कहता था, सभी को यह | आत्मा में प्रवेश कभी नहीं हो पाता। खयाल हो गया है कि हमारे भीतर आत्मा है। जानें न जानें, है ही; . इसलिए कृष्ण कहते हैं, जो जानता है, वही आत्मा को उपलब्ध पाएं न पाएं, है ही। फिर क्या फर्क पड़ता है? है तो। गुरजिएफ | होता है, वही प्रवेश कर पाता है, वही आत्मा हो पाता है। कहता था, तब तक है या नहीं बराबर है, जब तक जानी नहीं। जब | आत्मा होना खेल नहीं है, बड़ी से बड़ी तपश्चर्या है। स्वयं को तक जानी नहीं, तब तक न होने के बराबर है। उसके होने का क्या जानना लंबी यात्रा है। लेकिन दूसरे के उधार शब्दों को कंठस्थ कर मतलब?
| लेना बड़ी सुगम बात है। स्कूल के बच्चे कर सकते हैं। बूढ़े भी आपके घर में खजाना गड़ा है और आपको पता नहीं कि कहां वही करते रहते हैं। गड़ा है। कुछ मतलब है? कोई बाजार में क्रेडिट मिलेगी उसकी? मैं एक अनाथालय में गया था। बच्चे मुझे बताए गए। और भिखमंगा हूं मैं और घर में खजाना गड़ा है। मेरा भिखमंगापन शिक्षकों ने कहा कि हम इन्हें धर्म-शिक्षा देते हैं। मैंने कहा, मैं भी मिटेगा इससे? गड़ा रहे घर में खजाना; मुझे कुछ पता नहीं है, वह | | जानूं क्योंकि मैंने अब तक सुना नहीं कि धर्म की शिक्षा हो सकती कहां है! जो खजाना पता न हो, वह न होने के बराबर है। जिसका है। उन्होंने कहा, क्या बात करते हैं? सब बच्चे परीक्षा में उत्तीर्ण हो पता हो, वही है।
गए हैं धर्म की। मैंने कहा, धर्म की कोई परीक्षा हो सकती है? फिर इसलिए कृष्ण कहते हैं, जो जान लेता, वही आत्मा को उपलब्ध | | भी मैं देखू। होता है। ज्ञान ही आत्मा है। अज्ञान का क्या अर्थ है, कि आत्मा है? __पूछा एक बच्चे को खड़ा करके उन्होंने कि बोलो, आत्मा है? सुनी हुई बातों की, खबरों की कोई कीमत है!
उसने कहा, है। परमात्मा है? उसने कहा, है। और बाकी बच्चे भी __ हम सबने सुना है, आत्मा है, बड़े निश्चित हैं। सोचते हैं, है ही।। हाथ हिलाने लगे। फिर उन्होंने पूछा, आत्मा कहां है? सब बच्चों ने फर्क क्या है हममें और ज्ञानी में? थोड़ा ही फर्क है कि वह जानता | अपने हृदय पर हाथ रख दिए कि यहां। है और हम नहीं जानते। फर्क कुछ भी नहीं है, हम सोचते हैं। फर्क मैंने एक छोटे बच्चे से पूछा कि हृदय कहां है? उसने कहा, यह बहुत बड़ा है। क्योंकि यह न जानना, न होने के बराबर है, | तो कोर्स में ही नहीं है। हृदय कहां है, यह लिखा ही नहीं है। पढ़ाया इक्वीवेलेंट, बिलकुल समतुल।
ही नहीं गया! जब तक अज्ञान है, तब तक अनात्मा है। जब ज्ञान है, तभी मैंने उन शिक्षकों से कहा कि यह इनको तुमने कंठस्थ करवा आत्मा है। ज्ञान के पहले यह कहना कि मेरे भीतर आत्मा है, धोखा दिया; इनका तुमने बड़ा अहित किया। अब ये याद कर-कर के है बड़े से बड़ा। दूसरे के लिए नहीं, अपने लिए धोखा है। क्योंकि | | जिंदगी में बाद में भूल ही जाएंगे कि हमको पता नहीं है। जब भी हो सकता है, दोहराते-दोहराते कि मैं आत्मा हूं, मैं यह भूल ही सवाल उठेगा, आत्मा है, बचपन में सीखा गया हाथ ऊपर हिलने
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गीता दर्शन भाग-20
लगेगा, है। कोई पूछेगा, आत्मा कहां है? यंत्र की तरह हाथ छाती | नहीं, अनात्मा, अनत्ता, नो सेल्फ! यह आदमी तो खतरनाक है; पर चला जाएगा, यहां। इन्हें कुछ भी पता नहीं है कि ये कहां हाथ | यह आत्मा को इनकार करता है! रख रहे हैं। वहां क्या है, उसका पता नहीं है। जो हाथ रख रहे हैं, बद्ध कह रहे थे बड़ी गहरी बात। वे कह रहे थे कि जब आत्मा उस हाथ में कौन है, उसका पता नहीं है। जो उत्तर दे रहा है, वह का अनुभव होता है, तो ऐसा नहीं लगता कि मेरी है; इसलिए कौन है, उसका पता नहीं है। कुछ भी इन्हें पता नहीं है। आत्मा कहना ठीक नहीं। ऐसा नहीं लगता कि यह मैं हूं; इसलिए ___ मैं निरंतर सोचता हूं कि इन बच्चों में और हमारे बूढ़ों में कोई मैं का कोई भी शब्द जोड़ना ठीक नहीं। ऐसा ही लगता है, सब बहुत फर्क है? उम्र का फर्क है। और उम्र के फर्क की वजह से आकाश की भांति, आंगन की भांति नहीं। घर के आंगन की भांति याददाश्त धुंधली हो जाती है कि बचपन में हमने याद की थीं बातें। नहीं, चहारदीवारी में बंद: आकाश की भांति. कोई दीवाल नहीं. वह याद की थीं. जानी नहीं थीं। बढापे तक उनको दोहराते चले कोई सीमा नहीं। जाते हैं।
तो बुद्ध ने कहा, आत्मा क्या कहूं! कहता हूं, अनात्मा है, नो ऐसे नहीं होगा। इतना सुगम नहीं है। धर्म गणित की भांति नहीं | | सेल्फ। है ही नहीं सेल्फ वहां। बड़ी अजीब बात है! बुद्ध कहते हैं, है कि सीख लिया, दो और दो चार। धर्म फिजिक्स की भांति, | इन दि नोइंग आफ दि सेल्फ, देयर इज़ नो सेल्फ, आत्मा के भौतिकशास्त्र की भांति नहीं है कि सीख लिया, ग्रेविटेशन क्या है, | अनुभव में आत्मा है ही नहीं। गरुत्वाकर्षण क्या है: कि न्यटन के कानन क्या हैं कि आइंस्टीन । ठीक कहते हैं। एकदम ठीक कहते हैं। वहां कोई मैं का भाव नहीं की रिलेटिविटी, सापेक्षता क्या है। सीख लिया, पढ़ लिया और रह जाता है। आत्मा यानी परमात्मा। जैसे ही किसी ने जामा कि मैं सीख गए और जान गए। धर्म विज्ञान, साहित्य, काव्य, गणित, | क्या हूं, वैसे ही उसने जाना कि मैं सब हूं। भाषा–इनमें से किसी की भांति नहीं है।
___ जैसे ही बूंद ने पहचाना कि मैं कौन हूं, कि बूंद ने समझा कि मैं धर्म है प्रेम की भांति। वही जानता है, जो करता है। वही जानता | सागर हूं। जब तक बूंद ने नहीं जाना कि मैं कौन हूं, तब तक वह है, जो धर्म हो जाता है। और कोई उपाय नहीं है। इसलिए धर्म के | बूंद है। जिस दिन जाना कि मैं कौन हूं, उस दिन वह सागर है। हम कोई विश्वविद्यालय खड़े नहीं कर सकते हैं। हिंदू विश्वविद्यालय | क्योंकि एक छोटी-सी बूंद में पूरा का पूरा सागर मौजूद है। एक खड़ा कर सकते हैं, मुस्लिम विश्वविद्यालय खड़ा कर सकते हैं। धर्म छोटी-सी बूंद के गुणधर्म को हम समझ लें, पूरे सागर का गुणधर्म का विश्वविद्यालय खड़ा नहीं कर सकते। क्योंकि धर्म का | समझ में आ जाता है। छोटी-सी बूंद मिनिएचर ओशन है, विश्वविद्यालय तो जीवन ही है। और यही जीवन नहीं, जो बाहर | छोटा-सा सागर। कहीं सागर छोटे हुए! सागर तो पूरा है। दिखाई पड़ता है; इससे भी ज्यादा वह जीवन, जो भीतर डूबा है और | छोटा-सा दिखाई पड़ता है। है पूरा का पूरा। दिखाई नहीं पड़ता। उसको ही जान लेना ज्ञान है। और उस ज्ञान के | आत्मा का जानना यानी परमात्मा का जानना है। बाद जो फलित होता है अनुभव, वह आत्मा है।
इसलिए ज्ञान सर्वोच्च है, क्योंकि उसी से हम सर्वोच्च शिखर एक और अंतिम बात, कि आत्मा का जब अनुभव होता है, तो परमात्मा को स्पर्श कर पाते हैं। अज्ञान निकृष्ट है, क्योंकि उसी के ऐसा नहीं होता कि मेरी है। आत्मा शब्द थोड़ा-सा गलत है। उसमें | कारण हम सर्वोच्च के प्रति पीठ कर पाते हैं। अपने का खयाल पैदा होता है। आत्मा यानी मेरी, अपनी, स्वयं एक प्रश्न और ले लें। की! आत्मा शब्द थोड़ा-सा गलत है। शब्द तो सभी थोड़े-से गलत होंगे ही; क्योंकि सत्य किसी शब्द में बंधता नहीं, अटता नहीं।
इसलिए बुद्ध ने तो इस गलत शब्द की वजह से कहना शुरू प्रश्नः भगवान श्री, इस श्लोक में कहा गया है कि किया, आत्मा नहीं, अनात्मा है। इसलिए बुद्ध को बिलकुल ही नहीं योग संसिद्धि अर्थात समत्वबुद्धिरूप योग के द्वारा समझा जा सका। आत्मवादी भी नहीं समझ सके। वादी तो समझेगा | अच्छी प्रकार शुद्ध अंतःकरण का पुरुष ज्ञान को आत्मा क्या! वादी सदा अज्ञानी होता है। ज्ञानी वादी नहीं होता। आत्मवादी | में अनुभव करता है। कृपया योग संसिद्धि के अनुवाद, भी नहीं समझ सके। उन्होंने कहा, अरे बुद्ध कहते हैं कि आत्मा समत्वबुद्धिरूप योग का अर्थ स्पष्ट करें।
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ज्ञान पवित्र करता है
ग संसिद्धि, जहां योग सिद्ध हो जाता, उस घड़ी में। | मुश्किल है। इसको कुछ करना ही पड़ेगा। इसको करना ही पड़ेगा। | फिर सिर्फ सिद्ध नहीं, संसिद्ध, सम्यकरूप से सिद्ध | | यह कमिटमेंट हुआ। यह बच नहीं सकता। यह प्रतिबद्ध है।
हो जाता, उस घड़ी में। जहां योग सम्यकरूप से सिद्ध ___ इसलिए जब मुझे कोई दूसरे दिन सुबह आकर खबर देता है कि हो जाता; मिलन, जोड़, जहां बंद और सागर जुड़ते, मिलते फलां आदमी रात बारह बजे तक तालाब के किनारे बैठकर आपको सम्यकरूप से, पूर्णरूप से, समग्ररूप से; जहां मिलन संसिद्ध | गाली देता था, तो वह चकित होकर आकर बताता; मैं कहता, मैं होता, उस घड़ी में शुद्ध हुआ अंतःकरण। उसका रूपांतर ठीक है, भलीभांति जानता, क्योंकि वह कल शाम मेरी प्रशंसा कर गया था। समत्वबुद्धि को उपलब्ध। एक ही बात है।
नींद कैसे आती? रात हलका हो गया होगा। पेंडुलम वापस लौट बुद्धि सम तभी होती, जब योग सिद्ध होता। जब व्यक्ति का गया। वह घर आकर सो गया होगा। समष्टि से मिलन होता, तभी बुद्धि सम होती। उसके पहले बुद्धि | | ऐसा ही है। मन पूरे समय ऐसा ही है। विषम में डोलता रहता डोलती ही रहती; विषम होती। यहां से वहां, इधर से उधर डोलती | है, विपरीत में डोलता रहता है। ऐसे मन को लेकर प्रभु-मिलन नहीं रहती।
हो सकता। क्यों नहीं हो सकता? विषम बुद्धि वाला मन हमारी बुद्धि सदा विषम है, डोलती रहती है। और ऐसा भी नहीं प्रभु-मिलन को क्यों उपलब्ध नहीं हो सकता? क्योंकि मंदिर में की है कि एक ही तरफ डोलती है, सदा विपरीत तरफ डोलती रहती है, गई प्रार्थना, दोपहर बाजार में इनकार की जाएगी; मंदिर में की गई कंट्राडिक्टरी डोलती रहती है, घड़ी के पेंडुलम की तरह। प्रार्थना, बाजार की भीड़ में खंडित की जाएगी।
घड़ी का पेंडुलम देखते हैं आप? कभी-कभी गौर से देखना। टाल्सटाय ने अपना एक संस्मरण लिखा है। एक दिन चाहिए। पुरानी घड़ियां अच्छी थीं, जिनमें पेंडुलम होता था; उससे | सुबह-सुबह जल्दी नींद खुल गई। और टाल्सटाय चल पड़ा चर्च 'आदमी की खोपड़ी का पता चलता था। नई घड़ियां बहुत चालाक | | की ओर। पहुंच गया। पांच बजे थे, कुहासा छाया था मास्को नगर हैं, उनसे कुछ पता नहीं चलता।
| में। चारों तरफ अंधेरा था। सूरज के उगने में घंटों की देर थी। चर्च पुरानी घड़ी का पेंडुलम डोलता रहता था नीचे, टिक-टिक। एक के भीतर गया। आवाज सुनाई पड़ी। आवाज कुछ पहचानी मालूम कोने से दूसरे कोने, टिक-टिक। कभी देखा खयाल से? जब | पड़ी, तो चुपचाप धीरे-धीरे भीतर गया। कोई प्रायश्चित्त कर रहा पेंडुलम बाईं तरफ जाता है, तब वह दाईं तरफ जाने का सामर्थ्य | | है, कोई रिपेंटेंस कर रहा है। आवाज पहचानी हुई लगी कि कोई इकट्ठा करता है। जब वह बाईं तरफ जाता है, तब वह दाईं तरफ जाने | | परिचित है। का मोमेंटम पैदा करता है। असल में बाईं तरफ जाकर, वह दाईं तरफ ___टाल्सटाय शाही घराने का आदमी था; खुद काउंट था। कौन जाने की शक्ति अर्जित करता है। बड़ी उलटी बात होती है। जब दाईं | होगा? धीरे-धीरे सरककर पीछे पहुंचा। देखा, गांव का, मास्को तरफ जाता है, तब बाईं तरफ जाने की तैयारी कर रहा है। का सबसे बड़ा धनपति खड़ा हुआ परमात्मा से कह रहा है अंधेरे
जब कोई आदमी आपकी प्रशंसा करता है, तब सम्हलना, अब में कि हे प्रभु, मैंने बहुत पाप किए। मैं चोर हूं, बेईमान हूं, बुरा वह थोड़ी देर में निंदा करेगा! पेंडुलम गया प्रशंसा की तरफ, वह | हूं। मुझसे बुरा कोई भी नहीं है! टाल्सटाय ने कहा, अरे, यह तैयारी है निंदा की तरफ जाने की। हमेशा समझना कि अब यह | | आदमी इतना बुरा! क्योंकि इसको तो हम सोचते थे, बहुत अच्छा बेचारा मुश्किल में पड़ता है थोड़ी-बहुत देर में। अब यह कहीं | | है। इसको तो गांव में लोग धर्मवीर कहते हैं। मंदिर बनाता, चर्च जाकर निंदा करेगा। तब लौटेगा पेंडुलम। नहीं तो वह लौटेगा | | बनाता। यह चर्च भी उसका ही बनाया हुआ है। और यह आदमी कैसे? जो कोई आदमी प्रेम करता है, वह घृणा की तैयारी कर रहा पापी और सबसे बुरा। है। जो घृणा करता है, वह प्रेम की तैयारी कर रहा है। बड़ी उलटी स्वभावतः, टाल्सटाय को लगा, भागू और जाकर बाजार में बात लगेगी। लेकिन ऐसा ही है।
खबर करूं कि हम बड़ी भूल में पड़े हैं। पर कहा, थोड़ा रुक जाऊं, कोई आदमी मुझे आदर दे जाता है, मैं समझ जाता हूं कि अब | इससे मिलकर जाऊं। यह चौबीस घंटे के भीतर निपटारा करेगा। रात बारह बजे तक उस आदमी की प्रार्थना पूरी हुई। सुबह की किरणें फूटने लगीं। जागकर गाली देगा किसी तालाब के किनारे बैठकर। बहुत उस आदमी ने पीछे लौटकर देखा; देखा, लिओ टाल्सटाय!
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गीता दर्शन भाग-2
घबड़ाया। और उसने कहा, देखो महाशय, जो कुछ सुना है, उसे तत्काल भूल जाओ। वह मैंने कहा ही नहीं। टाल्सटाय ने कहा, आप क्या कह रहे हैं? अगर आपने नहीं कहा, तो किस चीज को भूलने के लिए कह रहे हैं। उसने कहा, ठीक से समझ लो। ये शब्द जो मैंने यहां कहे, भूल जाओ। समझो कि मैंने कहे ही नहीं। और अगर कहीं इन शब्दों को मैंने सुना कि तुमने किसी को बताया, तो अदालत में मानहानि का मुकदमा चलाऊंगा। टाल्सटाय ने कहा, गजब कर रहे हैं आप! अभी आप कह रहे थे कि मुझसे बड़ा पापी और कोई भी नहीं !
टाल्सटाय को पता नहीं, पेंडुलम घूम गया। गया ! बात खतम हो गई। वह आदमी मुकदमा चलाने को उत्सुक है; अभी प्रायश्चित्त करने को उत्सुक था ! क्या हो रहा है?
ऐसा विषम मन कभी भी आत्मा में प्रवेश नहीं कर सकता । आत्मा के प्रवेश की जो पतली-सी द्वार - रेखा है - कहता हूं द्वार-रेखा, डोर लाइन; दरवाजा तो बहुत बड़ा होता है; रेखा मात्र है प्रवेश की वह संतुलन है, वह बैलेंस है, समत्व है।
जहां चित्त न बाएं होता, न दाएं; मध्य में होता है; इतने मध्य में होता है कि न तो हम कह सकते दाएं है, न हम कह सकते बाएं है; न हम कह सकते पक्ष न विपक्ष में; न हम कह सकते घृणा में, न प्रेम में; न हम कह सकते क्षमा में, न क्रोध में; न हम कह सकते परिग्रह में, न अपरिग्रह में; न राग में, न विराग में। जहां व्यक्ति इतने बीच में खड़ा है कि न विरागी है, न रागी है, उस समत्व बुद्धि के क्षण में योग संसिद्धि होती है। या इस क्षण में बुद्धि समत्व को उपलब्ध होती है। बस, उसी क्षण में छलांग लग जाती है और व्यक्ति उस अपरिसीम में डूब जाता है।
ऐसी संसिद्धि से शुद्ध हुआ अंतःकरण! समत्व में शुद्ध हो जाता है सब, क्योंकि अशुद्धि अति से आती है। अति अशुद्धि है, एक्सट्रीम इज़ दि इंप्योरिटी । एक अति एक तरह की अशुद्धि है, दूसरी अति दूसरी तरह की अशुद्धि है। अनति, एक्सट्रीम नहीं, मध्य, जिसको बुद्ध ने कहा, मज्झिम निकाय, दि मिडिल पाथ, बीच का मार्ग, न इस ओर, न उस ओर, जहां ठीक बीच में...। एक छोटी-सी कहानी और अपनी बात मैं पूरी करूं । बुद्ध के पास एक युवक दीक्षित हुआ । संगीत में कुशल था । अदभुत थी वीणा की उसकी सामर्थ्य | लेकिन आया । था सम्राट; भोग में पला; भोग में जीया। आया तो दूसरी अति पर चला गया। दूसरे भिखारी, दूसरे भिक्षु, दूसरे साधु-संन्यासी रास्ते पर चलते,
तो वह कांटों में चलता । दूसरे एक ही वस्त्र पहनते, तो वह नंगा | खड़ा होता। दूसरे एक बार भोजन करते, तो वह दो दिन में एक बार भोजन करता ।
छः महीने में सूखकर हड्डी हो गया। पैर घाव से भर गए। चेहरा पहचानना मुश्किल हो गया। सुंदर थी काया उसकी, बड़ी स्वर्ण काया थी। आया था, तो कोई भी मोहित हो जाए, ऐसा शरीर था। अब तो देखकर विरक्ति होती, विकर्षण होता । कोई पास आता, तो बदबू आती!
भिक्षुओं ने बुद्ध से कहा, क्या कर रहा है तुम्हारा वह साधक ? वह अपने को मारे डाल रहा है! हम तो सोचते थे, इतने सुख में | पला! कहते हैं, उसके घर में कभी वह गद्दियों से नीचे नहीं उतरा; मखमल के कालीनों से नीचे नहीं चला। कहते हैं, कभी उसने पैर पृथ्वी पर नहीं रखा; धूल नहीं छुई कभी उसके पैरों को सुनते हैं, उसके घर में गुलाब के जल से स्नान करता था । सुनते हैं, उसके घर में वायु सदा सुवासित रहती थी दूर-दूर से आए इत्रों से। कहते हैं लोग, कथाएं हैं कि सीढ़ियां चढ़ता था, तो नग्न स्त्रियां सीढ़ी के किनारे खड़ी रहतीं रेलिंग की तरह; उन पर हाथ रखकर कंधे पर, | ऊपर जाता था। ऐसा यह आदमी, इतना कष्ट झेलता है! असंभव घटित होता है !
बुद्ध ने कहा, नहीं भिक्षुओ! संभव घटित हो रहा है। जो आदमी एक अति पर रुग्ण होता, वह अक्सर दूसरी अति पर पुनः रुग्ण हो | जाता है। मध्य में रुकना मुश्किल है — पेंडुलम की भांति ।
पर उन्होंने कहा, अब वह मर जाएगा, जी न सकेगा। बिलकुल सूखकर कांटा हो गया है। पहचानना मुश्किल है। पास खड़े होने में बदबू आती है। स्नान नहीं करता है वह । कहता है, स्नान करूंगा, तो शरीर की सज्जा हो जाएगी। वह जो इत्रों से नहाता था, अब साधारण गांव के गंदे डबरे में भी नहीं नहाता है। कहता है, शुद्धि हो जाएगी शरीर की । शरीर को सजाना क्या ? शरीर के सौंदर्य | का प्रयोजन क्या ?
बुद्ध उसके पास गए सांझ और कहा, भिक्षु श्रोण! मैंने सुना कि तू जब सम्राट था, तो तू वीणा बजाने में बड़ा कुशल था। एक प्रश्न पूछने आया हूं। वीणा के तार अगर बहुत ढीले हों, तो संगीत पैदा होता है ? भिक्षु श्रोण ने कहा, पागल हुए हैं आप ! आप जैसा ज्ञानी और ऐसे सवाल पूछता ! वीणा के तार ढीले हों, तो संगीत पैदा कैसे होगा? टंकार ही पैदा नहीं होती। तो बुद्ध ने कहा, तार बहुत कसे हों, तब भिक्षु श्रोण संगीत पैदा हो सकता है? उसने कहा, नहीं;
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ज्ञान पवित्र करता है
अगर तार बहुत कसे हों, तो टूट जाएंगे। संगीत पैदा नहीं होगा। तार चाहिए सम, न बहुत कसे, न बहुत ढीले। तार चाहिए मध्य, न इस तरफ, न उस तरफ। तार चाहिए ऐसे कि न तो कहा जा सके कि ढीले हैं, न कहा जा सके कि कसे हैं।
तो बुद्ध ने कहा कि मैं जाता हूं भिक्षु श्रोण! तू बुद्धिमान है। तुझसे |. कुछ कहने की मुझे जरूरत नहीं है। कुछ कहने आया था, अब नहीं कहता हूं। इतना ही कहता हूं कि जो वीणा में संगीत पैदा होने का नियम है, वही प्राणों में भी संगीत पैदा होने का नियम है। तार बहुत कस मत, बहुत ढीले भी मत छोड़। समत्व को उपलब्ध हो। बीच में आ। मज्झिम निकाय। अति को छोड़।
कृष्ण कहते हैं, समत्व बुद्धि को उपलब्ध हुआ, योग संसिद्धि को उपलब्ध हुआ, शुद्ध अंतःकरण उस आत्मा से एक हो जाता है।
शेष सुबह हम बात करेंगे।
अभी संन्यासी धुन में प्रवेश करेंगे। तो आप थोड़े पीछे हट जाएं, जगह खाली छोड़ दें। और यहां मंच पर कोई न आए, पीछे हट जाएं। जिनको देखना है, वे देखें। बैठे रहेंगे, तो सबको देखना संभव हो जाएगा।
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अध्याय 4 सत्रहवां प्रवचन
इंद्रियजय और श्रद्धा
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ॐगीता दर्शन भाग-20
श्रद्धावाल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः । ही पैदा होती थी। जो नहीं जानते थे, वे सोचते थे कि इंद्र हमारे पापों ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति ।। ३९।। । | के लिए, दंड देने के लिए टंकार कर रहा है। इंद्र हमें दंड देने के और हे अर्जुन, जितेंद्रिय, तत्पर हुआ श्रद्धावान पुरुष ज्ञान को लिए शक्ति को फेंक रहा है। स्वाभाविक! गड़गड़ाहट बिजली की, प्राप्त होता है। ज्ञान को प्राप्त होकर तत्क्षण भगवत्प्राप्तिरूप | चमकती हुई उसकी अग्नि, रात के अंधेरे में प्राणों को थर्रा जाती हो, परम शांति को प्राप्त हो जाता है।
आश्चर्य नहीं है।
क्या यह संभव था कि वे लोग, जो नहीं जानते थे कि विद्युत क्या
| है, अगर आकाश की बिजली से लड़ते, तो कभी जीत पाते? कभी जतेंद्रिय हुआ पुरुष, श्रद्धावान चित्त वाला ज्ञान को | | भी नहीं जीत पाते। आकाश की बिजली से लड़ते, तो मरते, टूटते, । उपलब्ध होता है; ज्ञान से परम शांति को, परम प्रभु | नष्ट होते। लड़ भी न पाते; जीतने का तो उपाय नहीं था। लेकिन को उपलब्ध होता है।
जिन्होंने आकाश की बिजली के राज को समझने की कोशिश की, पहली बात, जितेंद्रिय हुआ पुरुष—इंद्रियों को जिसने जीता, | रहस्य को जानने की, उसकी सीक्रेट-की, उसकी कुंजी को खोज ऐसा पुरुष।
| लेने की, वे मालिक हो गए। आज बिजली, वही बिजली, जो साधारणतः सोचते हैं हम कि जितेंद्रिय होगा वह, जो इंद्रियों से | | आकाश में कंपती, गर्जन करती, प्राणों को घबड़ा जाती थी, वही लड़ेगा, उन्हें हराएगा। यहीं भूल हो जाती है। जो इंद्रियों से लड़ेगा, | | बिजली अब घरों में प्रकाश बनकर, आपके हाथ में सेवक बनकर वह हारेगा; जितेंद्रिय कभी भी नहीं हो सकेगा। इंद्रियों को जीतने काम करती है। वही बिजली चाकर हो गई है! जो दंड देती मालूम का सूत्र इंद्रियों से लड़ना नहीं, इंद्रियों को जानना है। इंद्रियां जीती पड़ती थी, वही सेवक हो गई है। जाती हैं इंद्रियों के साक्षात्कार से। जो पुरुष इंद्रियों से लड़ने में लग बेकन ने कहा था नालेज इज़ पावर, बहिर्प्रकृति के संबंध में। जाता, वह इंद्रियों से निरंतर हारता है। जो लड़ेगा, वह हारेगा। जो | | जो-जो हम जान लेते हैं, उसके हम मालिक हो जाते हैं। टु नो इज़ जानेगा, वह जीतेगा।
टु बी दि मास्टर, जाना कि मालिक हुए। नहीं जाना कि गुलामी ज्ञान विजय है। इंद्रियों का ज्ञान विजय है।
भाग्य में होगी; गुलामी ही फिर नियति है। जान लिया हमने लड़ने से ज्यादा से ज्यादा दमन हो सकता है, सप्रेशन, रिप्रेशन | | जिस-जिस बात को, उस-उस के हम मालिक होते चले गए। हो सकता है। जिसे हम दबाते हैं, वह लौट-लौटकर उभरता है। | अंतःप्रकृति के संबंध में भी यही सत्य है। जिसे हम दबाते हैं, उसे हम और शक्ति देते हैं। क्रोध को दबाया, इसलिए जब कृष्ण कहते हैं, जितेंद्रिय पुरुष, तो भूलकर यह मत तो और गहन हिंसा होकर प्रकट होगा। काम को दबाया, तो और | समझ लेना, जैसा आमतौर से समझा जाता है कि वह पुरुष, जिसने विकृत, विषाक्त होकर प्रकट होगा। अहंकार को दबाया, तो एक अपनी इंद्रियों पर काबू पा लिया। नहीं, जितेंद्रिय पुरुष वह है, कोने से दबाएंगे, दस कोनों से निकलना शुरू होगा। | जिसने अपनी इंद्रियों के सब सीक्रेट, सब राज जान लिए। जानते
इंद्रियों को दबाया नहीं जा सकता। क्यों? क्योंकि दबाता वही | | ही मालिक हो गया है, जितेंद्रिय हो गया है। है, जो इंद्रियों को जानता नहीं है। जो जानता है, वह दबाता ही नहीं इंद्रियां हार जाती हैं ज्ञान से; इंद्रियां प्रबल हो जाती हैं अज्ञान से। है। क्योंकि जो जान लेता है, इंद्रियां उसके वश में हो जाती हैं। इंद्रियों से लड़ता है जो, वह इंद्रियों के ही चक्कर में पड़ता है।
बेकन ने कहा है, नालेज इज़ पावर, ज्ञान शक्ति है। | जितेंद्रिय होने का मार्ग, अंतःप्रकृति का ज्ञान है। यह तो उसने विज्ञान की दृष्टि से कहा है, साइंस की दृष्टि से। उदाहरण के लिए, आप जानते हैं, क्रोध क्या है? आकाश में यह तो उसने कहा है कि हम जितना जान लेंगे प्रकृति को, उतने ही गूंजती, आकाश में कंपती बिजली से कम रहस्यपूर्ण नहीं है। हम शक्तिशाली हो जाएंगे। लेकिन उसका यह वचन अंतःप्रकृति के | | आपकी अंतःप्रकृति में बिजली कौंध गई है। जानते हैं, क्रोध क्या लिए भी सत्य है।
| है? जानते नहीं हैं। किया होगा बहुत बार; क्योंकि आकाश में ___ आकाश में चमकती है बिजली, सदा से चमकती रही है। जब | बिजली को बहुत बार चमकते देखा हो, तो भी हम जान नहीं लेते तक नहीं जानते थे उसे, तब तक प्राण थरथराते थे और घबड़ाहट हैं। देख लेना, जान लेना नहीं है। पता हो जाना, जान लेना नहीं है।
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इंद्रियजय और श्रद्धा
क्रोध का पता है कि भीतर कौंधता है, लेकिन क्रोध क्या है? यह | | और धीरे-धीरे कोई रोज बहाता रहे क्रोध को, तो भी शक्ति क्षीण अंतःआकाश में कौंध गई बिजली क्या है, जानते हैं? नहीं जानते। | होती है। क्योंकि क्रोध हमारी ही शक्ति है, जिससे हम परिचित नहीं। और अगर लड़ने गए, तो हारेंगे क्रोध से, जीतेंगे नहीं। कैसे क्रोध वही शक्ति है, जो क्षमा बन जाती है। काम वही शक्ति है, जीतेंगे? जिसे जानते नहीं, उसे जीतने का उपाय नहीं है। | जो ब्रह्मचर्य बनती है। लोभ वही शक्ति है, जो दान बनती है। घृणा
लेकिन क्रोध से हम लड़ते हैं। लड़कर हम क्या कर सकते हैं? | वही शक्ति है, जो प्रेम में रूपांतरित होती है। तो जो रोज घृणा कर हम इतना ही कर सकते हैं कि जब क्रोध आए, तो हम दबाएं। दबेगा | लेता है, माना कि कभी इतनी घृणा इकट्ठी नहीं कर पाता कि हत्या कहां? और भीतर! दमन सब भीतर ही चला जाता है। उठेगा, हम कर दे, कि छुरा भोंक दे, लेकिन जो रोज घृणा करता है, वह प्रेम दबा देंगे; और अंतःपुरों में प्रविष्ट हो जाएगा; और गहरे प्रकोष्ठों करने के लायक शक्ति उसके पास बचती नहीं है। क्योंकि वही में दब जाएगा। फिर वहां प्रतीक्षा करेगा। रोज-रोज दबाएंगे, इकट्ठा शक्ति प्रेम बनती है। जो रोज क्रोध कर लेता है, क्षमा करने योग्य होता जाएगा।
उसके पास ऊर्जा, एनर्जी नहीं होती। बह जाती है सब। लीकेज से मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि जो लोग हत्याएं कर देते हैं, आमतौर | भी बह जाती है। विस्फोट से इकट्ठी बहती है, लीकेज से धीरे-धीरे से वे लोग होते हैं, जो रोज क्रोध नहीं करते हैं। जो लोग बहती है; लेकिन आदमी रिक्त हो जाता है। छोटी-छोटी बात में क्रोध कर लेते हैं, उनके बाबत एक रोज क्रोध, रोज घृणा, रोज लोभ करने वाला आदमी ठीक वैसा भविष्यवाणी की जा सकती है कि हत्यारे वे नहीं हो सकते हैं। | है, जैसे किसी आदमी ने कुएं में बाल्टी डाली, जिसमें हजार छेद रोज-रोज निकल जाता है; इतना इकट्ठा नहीं हो पाता है कि हत्या | हैं। पानी तो भरता हुआ दिखाई पड़ता है; जब तक बाल्टी पानी में कर पाएं। हत्या करने के लिए बहुत क्रोध इकट्ठा होना चाहिए। | डूबी रहे, तब तक लगता है, भरा। पानी के ऊपर उठी बाल्टी कि विस्फोट होता है फिर, एक्सप्लोजन होता है। रोज-रोज निकल लगा कि निकला। कुएं में शोरगुल बहुत होता है; आवाज बहुत जाता है, तो लीकेज, विस्फोट होने का मौका नहीं आ पाता। होती है; वर्षा मच जाती है; हजार-हजार छेद से बाल्टी के पानी रोज-रोज भाप निकल जाती है।
टपकने लगता है; लेकिन जब तक हाथ में आती है बाल्टी, तब इसलिए भले हैं वे लोग, जो रोज छोटा-मोटा क्रोध करके निपट तक रिक्त हो गई होती है। लेते हैं। भले इस अर्थों में हैं कि उनसे बहुत बड़े खतरे की संभावना जीवन में शोरगुल बहुत है हमारे, वैसा ही जैसे हजार छिद्रों वाली नहीं है। लेकिन खतरनाक हैं वे लोग, जो भले दिखाई पड़ते हैं। बाल्टी में पानी भरने पर कएं में होता है। बड़ी वर्षा मालम होती है। क्योंकि वे इकट्ठा करते हैं। दस-पंद्रह दिन, महीना, दो महीना, वर्ष, | लेकिन जब मृत्यु के क्षण में हाथ लगती है बाल्टी जीवन की, तो दो वर्ष कोई इकट्ठा कर ले, तो फिर विस्फोट होता है। वह विस्फोट | उसमें बूंद भी नहीं बचती; सब रिक्त और खाली होता है। फिर इतना गहन हो जाता है, वह इतना इंटेंस हो जाता है कि वह | दो खतरे हैं इंद्रियों के साथ। एक भोग का खतरा है। भोग का आदमी खुद ही नहीं जानता कि क्या हो रहा है। हो जाता है। खतरा हजार छिद्रों वाली बाल्टी बन जाता है। दूसरा दमन का खतरा
दुनिया के बड़े से बड़े पाप, इकट्ठे पाप का विस्फोट हैं। | है। दमन का खतरा ऐसा है, जैसे चाय की केटली का मुंह किसी ने छोटे-छोटे उपद्रव कर लेने वाले लोग महापाप नहीं कर पाते हैं। | बंद कर दिया हो और ऊपर से पत्थर रख दिया हो और नीचे से रोज-रोज बह जाता है सब; कभी गंगा नहीं बन पाती। उनका काम | आग भी दिए जा रहे हैं! तब फूटेगी केटली। झरने का ही होता है, उससे कुछ बहता नहीं, कोई पूर, बाढ़ नहीं | कृष्ण जब कहते हैं जितेंद्रिय, या महावीर जब कहते हैं जितेंद्रिय, आती। इकट्ठा हो जाता है जब बहुत, तब बाढ़ आती है। और जब या बुद्ध जब कहते हैं जितेंद्रिय, तो उनकी बात को समझना अत्यंत भीतर बहुत इकट्ठा हो जाता है, इतना कि जितने भी सेफ्टी वाल्व्स | ही कठिन हुआ है। हम तत्काल जितेंद्रिय का अर्थ लेते हैं, दमन। हैं-भीतर बहुत सेफ्टी वाल्व्स हैं—उन सबको तोड़कर जब क्योंकि हम भोग में खड़े हैं। हमारा मन दूसरी अति में अर्थ ले लेता विस्फोट होता है, तो व्यक्तित्व सदा के लिए खंड-खंड, कांच के | | है। भोग से हम परेशान हैं। जैसे ही हम सुनते हैं, जीतो इंद्रिय को; टुकड़ों जैसा हो जाता है, जिसका फिर जोड़ना मुश्किल होता है। हम कहते हैं, दबाओ इंद्रिय को। जीत बन जाती है दमन, हमारे मन स्प्लिट, सीजोफ्रेनिक हो जाता है। सब टूट जाता है। नहीं भी टूटे, में। और तभी भूल हो जाती है।
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गीता दर्शन भाग-20
जितेंद्रिय का अर्थ है, जानो इंद्रिय को। एक-एक इंद्रिय के रस | | द्रव्य खोज कर सकते होते, तो उन्होंने कभी की खोज कर ली होती। को पहचानने से, परिचित होने से; एक-एक इंद्रिय की शक्ति के | वैज्ञानिक की शर्त यह है कि वह आब्जर्व कर सके, निरीक्षण कर भीतर प्रवेश करने से, जीत फलित होती है। ज्ञान विजय बन जाता | सके! आब्जर्वेशन विज्ञान का मूल आधार है। है। ज्ञान ही विजय है। कैसे जानेंगे?
जिसे विज्ञान आब्जर्वेशन कहता है, निरीक्षण कहता है, उसे ही कामवासना उठती है हजार बार। थोड़े अनुभव नहीं हैं। एक योग, धर्म, ध्यान कहता है। वह धर्म की पारिभाषिक शब्दावली परुष अपने जीवन में. साधारण स्वस्थ परुष. चार हजार संभोग कर ध्यान है। ध्यान का मतलब है, जो भी देख रहे हैं, उससे दर खडे सकता है, करता है। चार हजार बार काम के अनुभव से गुजरता है होकर देख सकें, टु बी ए विटनेस। एक गवाह की तरह देख सकें; एक पुरुष। स्त्री तो लाख बार गुजर सकती है। उसकी क्षमता गहन | सम्मिलित न हो जाएं। है। इसलिए पुरुष वेश्याएं नहीं हो सके; स्त्रियां वेश्याएं हो सकीं। जिस इंद्रिय के साथ आपका एकात्म हो जाता है, उसे आप कभी
लाख बार भी काम के अनुभव से गुजरकर यह पता नहीं चलतान जान पाएंगे। जिस इंद्रिय के रस के साथ आप इतने डूब जाते हैं कि यह काम-ऊर्जा, यह सेक्स-एनर्जी क्या है? क्योंकि हम कभी | कि भूल जाते हैं कि मैं देखने वाला हूं, बस, फिर ध्यान नहीं हो . काम पर ध्यान नहीं करते। कभी हम सेक्स पर मेडिटेशन नहीं करते। | पाता। फिर कभी इंद्रियों के रस का ज्ञान नहीं हो पाता।।
इस जगत में जो भी ज्ञान उपलब्ध होता है, वह ध्यान से उपलब्ध | | क्रोध उठे, तो क्रोध से जरा दूर खड़े होकर देखें, क्या है? लेकिन होता है—जो भी ज्ञान! चाहे विज्ञान की प्रयोगशाला में उपलब्ध हम भगवान पर तो ध्यान करते हैं, जिसका हमें कोई पता नहीं। होता हो; और चाहे योग की अंतःप्रयोगशाला में उपलब्ध होता हो। | जिसका हमें पता नहीं, उस पर तो ध्यान होगा कैसे। ध्यान तो उस जो भी ज्ञान जगत में उपलब्ध होता है, वह ध्यान से उपलब्ध होता | | पर हो सकता है, जिसका हमें पता है। भगवान पर ध्यान करते हैं, है। ध्यान ज्ञान को पाने का इंस्ट्रमेंट, उपाय, विधि, मेथड है। | जिसका हमें कोई पता नहीं है। क्रोध पर, काम पर कभी ध्यान नहीं कभी आपने ध्यान किया है सेक्स पर?
| करते, जिसका हमें पता है। आप कहेंगे, बहुत बार किया है। चिंतन किया है, ध्यान नहीं| | और मजा यह है कि जो काम, क्रोध और बाकी इंद्रियों के समस्त किया। सोचते तो बहुत हैं; जितना करते नहीं, उतना सोचते हैं। | | उपद्रव के प्रति, ऊर्जा के प्रति, विस्फोट के प्रति ध्यान करने में समर्थ काम के अनुभव से जितना गुजरते हैं, उससे लाख गुना ज्यादा काम | हो जाता है; जैसे-जैसे उसका ध्यान बढ़ता है इंद्रियों पर, वैसे-वैसे के विचार से गुजरते हैं। चौबीस घंटे घूम-फिरकर काम मन में | | इंद्रियां विजित होती चली जाती हैं, हारती चली जाती हैं। वह जीतता सरकता रहता है।
चला जाता है; उतना रिकवर करता चला जाता है; उतनी जमीन चिंतन तो किया है, ध्यान नहीं किया। चिंतन का अर्थ है, जो | वापस लेता चला जाता है। उतनी-उतनी इंद्रिय अपनी ताकत छोड़ती भीतर वासना घटती है, उसके साथ ही बह जाते हैं; दूर खड़े होकर चली जाती है, जहां-जहां ध्यान की किरण प्रवेश कर जाती है। देख नहीं पाते। मन में उठा काम का विचार, तो आप भी काम के | क्रोध को जिसने जान लिया, वह क्रोध नहीं कर सकता। काम विचार के साथ आइडेंटिफाइ
को जिसने जान लिया. वह कामातर नहीं हो सकता। लोभ को आप ही काम हो जाते हैं, यू बिकम दि सेक्स। फिर ऐसा नहीं होता | | जिसने जान लिया, वह लोभ में नहीं पड़ सकता। अहंकार को कि काम की ऊर्जा उठी है, मैं दूर खड़ा देखता हूं, क्या है? | जिसने पहचाना, वह अहंकार के बाहर है। करना क्या है?
एक वैज्ञानिक प्रयोगशाला में प्रवेश करता है, परीक्षण करता, | | लड़ना नहीं है, जानना है। रोज आता है क्रोध, परमात्मा की बड़ी खोज करता, प्रयोग करता, निरीक्षण करता, दूर खड़े होकर देखता, | | कृपा है। आता है इसलिए, कि करो ध्यान। उठता है काम, बड़ी क्या हो रहा है? अगर वैज्ञानिक जो कर रहा है, उसके साथ | अनुकंपा है प्रभु की। उठता है इसलिए, कि करो ध्यान। जिंदगी में आइडेंटिफाइड हो जाए...जैसे एक वैज्ञानिक एक केमिकल पर, | | लाख मौके मिलते हैं। लेकिन हम चूकने में बड़े कुशल हैं! हम एक रासायनिक द्रव्य पर खोज कर रहा है। वह खुद को ही समझ | | चूकते ही चले जाते हैं। हजार बार रखा जाता है हमारे सामने निशान ले कि मैं ही रासायनिक द्रव्य हं, तो हो गई खोज! फिर कभी नहीं लगाने के लिए, लेकिन हम धनुष-बाण ही नहीं उठाते। हम चूकते होगी। वह आदमी ही खो गया, जो खोज कर सकता था। केमिकल ही चले जाते हैं। पूरी जिंदगी-एक जिंदगी नहीं, अनंत जिंदगी
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O इंद्रियजय और श्रद्धा
चूकते चले जाते हैं। फिर तो हम चूकने के अभ्यस्त हो जाते हैं। | वही करेगा, जो सामने करता, आंख खोलकर करता। अभ्यास इतना गहरा हो जाता है...।
नहीं; आंख बंद करें। भूलें बाहर को। धन्यवाद दें, जिसने क्रोध मैंने सुना है, एक सर्कस में ऐसा हुआ। एक आदमी रोज ही । | को उठाया, क्योंकि एक मौका दिया ध्यान का। आंख बंद करें और अपनी पत्नी को तख्ते पर रखकर और तीर से निशाना लगाता था। | | देखें कि क्रोध क्या है? कहां है? कैसे उठता? कैसे गहन होता? तीस तीर मारता था। लेकिन तीर ऐसे कि हाथ को छूकर तख्ते में कैसे छा जाता है पूरे प्राणों पर धुएं की भांति? कैसे पकड़ लेता? चुभ जाते; कान को छुते हुए गुजरते और तख्ते में चुभ जाते। सिर कैसे खन-खन गरम हो जाता? कैसे रक्त का कण-कण विषाक्त को छूते हुए निकलते और तख्ते में चुभ जाते। पूरी पत्नी को चारों | हो जाता? कैसे सारा शरीर उत्तप्त और फीवरिश हो जाता? कैसे तरफ से तीरों से भर देता; लेकिन जरा भी पत्नी को खरोंच न मन बेहोश हो जाता? देखें, और बहुत हैरान होंगे। लगती। ऐसा उसका तीस साल का अभ्यास था। तीस साल से वह | जैसे-जैसे देखने की क्षमता बढ़ेगी, जैसे-जैसे पहचानने की यही काम कर रहा था।
सामर्थ्य बढ़ेगी, जैसे-जैसे साक्षी जगेगा, वैसे-वैसे क्रोध तिरोहित ___ एक दिन-ऐसे दिन बहुत आए थे, जब पत्नी से दिन में कलह | होगा। किसी दिन जब पूरे क्रोध को आमने-सामने देख पाएंगे, इन हो गई थी। कई बार उसके मन में भी होता था कि आज तीर मार इट्स टोटल नैकेडनेस, क्रोध को उसकी पूरी ही नग्नता में, ही दूं बीच में ही, छाती में ही चुभ जाए। लेकिन अपने को सम्हाल रोएं-रोएं में जब क्रोध को पहचान पाएंगे, हृदय के कोने-कोने में, गया था। सांझ होते-होते क्रोध चला गया था। एक दिन सांझ को चेतन-अचेतन में सब तरफ जब क्रोध को देख पाएंगे कि यह रहा इतना झगड़ा हो गया कि जब वह आया मंच पर और पत्नी खड़ी क्रोध, उसी दिन पाएंगे कि क्रोध रूपांतरित हो गया और क्षमा का हुई तख्ने पर, तो उसने कहा, अब बहुत हो गया। उठाया तीर, जन्म हुआ है, उसी दिन क्षमा जन्म जाएगी। वही ऊर्जा जो ध्यान के
आंख बंद कर ली; क्योंकि अभ्यास इतना गहरा था कि आंख खुली अभाव में क्रोध है, वही ऊर्जा ध्यान के साथ क्षमा बन जाती है। रही, तो संभावना यही है कि तीर तख्ते में लगेगा, पत्नी में नहीं अगर मुझसे पूछे, तो गणित के सूत्र में ऐसा कहूं, क्रोध + ध्यान लगेगा। तीस साल का अभ्यास! आंख बंद कर लीं, कि आंख बंद = क्षमा; काम + ध्यान = ब्रह्मचर्य; लोभ + ध्यान = दान। फिर करके मारूंगा तीर, तब तो लगने ही वाला है। आंख बंद की। सांस | गणित को आप फैला लें। जहां ध्यान जुड़ा, वहीं रूपांतरण है। रोक ली। मारा तीर। हाल में तालियां बजीं। घबडाकर आंख क्योंकि ध्यान के साथ आता ज्ञान: ज्ञान विजय है। खोली। तीर पत्नी को छूता हुआ तख्ते में लग गया था। तीस तीर जितेंद्रिय पुरुष वह है, जिसने अपनी इंद्रियों के सब कोने-कातर, आंख बंद करके मारे उसने, लेकिन तीर अपनी जगह पहुंचते रहे! जिसने अपनी इंद्रियों के सब छिपे प्रकट-अप्रकट रूप जाने, बंद आंख से भी तीर पत्नी में न लग सका। अभ्यास गहरा था; तीस पहचाने; जिसने अपनी इंद्रियों की प्रयोगशाला में उतरकर साक्षी का साल का था। बंद आंख में भी काम कर गया।
अनुभव किया, वह विजेता हो जाता है। ऐसा जितेंद्रिय पुरुष हमारा तो जन्मों का, लाखों जन्मों का अभ्यास है चूकने का। उपलब्ध होता है शांति को। उठा क्रोध-चूके, भूले कि ध्यान का मौका आया; अपरचुनिटी टु लेकिन एक और शर्त कृष्ण कहते हैं, श्रद्धावान भी। यह शब्द भी मेडिटेट।
थोड़ा कठिन है। जैसे जितेंद्रिय शब्द के साथ भ्रांतियां जुड़ी हैं, वैसे इस सूत्र के साथ मैं आपसे कहना चाहता हूं, जब क्रोध उठे, तब | | ही श्रद्धा के साथ और भी गहरी जुड़ी हैं। क्योंकि जितेंद्रिय होने की उसकी फिक्र छोड़ दें, जिस पर क्रोध उठा; क्योंकि उसकी फिक्र की, | कोशिश कम ही लोग करते हैं, इसलिए भ्रांति कम है। श्रद्धावान होने तो चूके। उसकी फिक्र में ही चूकते हैं। किसी ने गाली दी; गाली | | की कोशिश सभी लोग करते हैं, इसलिए भ्रांति और भी ज्यादा है। की फिक्र छोड़ें; गाली देने वाले की फिक्र छोड़ें। इस वक्त तो उसको | श्रद्धा शब्द अध्यात्म के पास बहुत गहराइयों से जुड़ा है। हम कहें कि अभी ठहरो जरा; मैं अपना काम करके आधा घंटे में | सब जीते हैं सतह पर, गहराइयों का हमें कोई पता नहीं है। इसलिए लौटकर आता हूं। द्वार बंद करें, आंख बंद करें। बहुत मौका तो | हम सतह पर श्रद्धा का अनुवाद करते हैं। और जो हमारा अनुवाद यही है कि आंख बंद करके भी वही होगा, जो उस सर्कस के | | है, वह बड़ा खतरनाक है। श्रद्धा का हमारा जो अनुवाद है, वह आदमी का हुआ। जन्मों का अभ्यास है! आंख बंद करके भी क्रोध | विश्वास है, बिलीफ है। .
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गीता दर्शन भाग-20
जो आदमी विश्वास करता है, हम कहते हैं, श्रद्धावान है। | ही हम परमात्मा को भी मान लेते हैं। संदेह का कीड़ा भीतर सरकता विश्वास श्रद्धा नहीं है। विश्वास श्रद्धा तो है ही नहीं: श्रद्धा के ठीक रहता, ऊपर विश्वास का पलस्तर बिछा देते हैं: ऊपर से विश्वास विपरीत है। भाषाकोश में नहीं है। वहां तो लिखा है, श्रद्धा यानी | की पर्त फैला देते हैं। भीतर संदेह की आग जलती रहती. ऊपर से विश्वास, विश्वास यानी श्रद्धा। विश्वास श्रद्धा के बिलकुल विश्वास का आवरण छा देते हैं। विपरीत है, जब मैं ऐसा कहता हूं, तो चौंकेंगे आप। लेकिन कहने | इसलिए विश्वासी के भीतर जरा-सा छेद करो. जरा-सी सर्जरी का कारण है।
| और संदेह बाहर आ जाएगा। स्किन डीप, चमड़ी से ज्यादा गहरा विश्वास वह आदमी करता है, जिसके भीतर अविश्वास है। नहीं होता विश्वास। और श्रद्धा? श्रद्धा गहराई का नाम है। और श्रद्धा उस आदमी में होती है, जिसके भीतर अविश्वास नहीं | विश्वास ? विश्वास चमड़ी का नाम है। विश्वास ऊपर की चमड़ी है। विश्वास हमारा कृत्य है, हमारे द्वारा किया गया काम है। श्रद्धा | है, जो काम चलाने के लिए पैदा की गई है। हमारी अनुपस्थिति में घटी घटना है। हैपनिंग है, डूइंग नहीं। | ठीक है, मां को मान लेने में हर्जा भी नहीं है। न भी हो, तो कुछ
विश्वास हम करते हैं। क्यों करते हैं? क्योंकि संदेह के साथ | हर्जा नहीं है। झूठ भी हो, और मां का काम कर दिया हो, तो बात जीना कठिन है। बहुत कठिन है। संदेह के साथ जीने से ज्यादा हो गई। सच में पिता पिता न हो, कोई और ही पिता रहा हो, फर्क तपश्चर्या कोई और नहीं है। संदेह के साथ जीना बहुत आईअस क्या पड़ता है? इट मेक्स नो डिफरेंस। और अभी तो थोड़ा-बहुत है। चौबीस घंटे संदेह में नहीं जी सकते हैं। कहां-कहां संदेह | फर्क पड़ भी जाता होगा, भविष्य में बिलकुल नहीं पड़ेगा। क्योंकि करेंगे? इंच-इंच पर संदेह खड़ा है। अगर संदेह करेंगे, तो पैर भी | आर्टिफीशियल इनसेमिनेशन हो सकता है। न उठा सकेंगे: श्वास भी न ले सकेंगे: भोजन भी न कर सकेंगे। मैं आज मर जाऊं, दस हजार साल बाद मेरा बेटा पैदा हो सकता संदेह करेंगे, तो जीना क्षणभर भी मुश्किल है।
| है। वीर्यकण को संरक्षित किया जा सकता है, दस हजार साल बाद संदेह कठिन है, बहुत कठिन है। संदेह करेंगे, तो पिता को इंजेक्ट कर दोगे, बच्चा पैदा हो जाएगा। फिर जो इंजेक्शन
पिता मश्किल हो जाएगा। क्योंकि खद तो कोई पता नहीं है लगाएगा, वही फादर हआ। वैसे अभी भी पिता जो है, वह कि वह पिता है। ऐसा लोग कहते हैं कि पिता है। खुद का तो कोई | इंजेक्शन लगाने से ज्यादा काम नहीं कर रहा है। पर वह नेचरल' अनुभव नहीं है कि वह पिता है। मां को मां मानना मुश्किल हो | इंजेक्शन है। वह आर्टिफीशियल होगा। इससे ज्यादा कुछ है नहीं जाएगा! संदेह करेंगे, तो मित्रता बनानी असंभव है। क्योंकि सब | मामला। तो चल जाता है; चल जाता है काम। इससे कोई बहुत मित्रताएं अपरिचित, अनजान के प्रति भरोसे से पैदा होती हैं। संदेह | दिक्कत नहीं आती है। इससे कोई जीवन की अतल गहराइयों का ' करेंगे, तो सारा जगत शत्रु हो जाएगा। संदेह करेंगे, तो रात सो भी | लेना-देना नहीं है। जो फादी है, वह फादर है। जो पितृत्व दिखला न सकेंगे। संदेह करेंगे, तो एक कौर भी मुंह में न डाल सकेंगे, | | रहा है, पिता है। जो मातृत्व दिखला रही है, वह मां है। क्योंकि जहर की संभावना सदा है। संदेह करेंगे, तो जी ही न | | बहुत दिन तक जरूरी नहीं है; क्योंकि स्त्रियां बहुत दिन तक सकेंगे; मर जाएंगे; जहां खड़े हैं, वहीं गिर जाएंगे।
बच्चे रखने को राजी नहीं होंगी नौ महीने। जिस दिन स्त्री की संदेह के साथ बड़ी कठिनाई है। इसलिए विश्वास से हम संदेह | इक्वालिटी पुरुष से पूरी हो जाएगी, उस दिन स्त्रियां नौ महीने बच्चे को दबाते हैं। विश्वास के साथ जीया जा सकता है आसानी से। | को पेट में रखने के लिए कांस्टीट्यूशनली गलत कहेंगी। गलत है। विश्वास कनवीनिएंट है, सुविधापूर्ण है। संदेह बहुत इनकनवीनिएंट | क्योंकि पुरुष तो अलग हो जाता है। भागीदार दोनों बराबर हैं। नौ है, बहुत असुविधापूर्ण है।
महीने स्त्री ढोती है बेटे को! कुछ आश्चर्य नहीं कि भविष्य की कोई जिंदगी चलती है विश्वास के सहारे। मानना पड़ता है कि कोई | क्रांतिकारी सरकार साढ़े चार-चार महीने का बंटाव करे! अब हो पिता है। मानना पड़ता है कि कोई गुरु है। मानना पड़ता है कि कुछ | सकता है। अब कठिनाई नहीं है। और या फिर स्त्री को नौ महीने ऐसा है, कुछ वैसा है। सब मानकर चलता है।
| के लिए मुक्त करे और बच्चे इनक्यूबेटर में, मशीन के गर्भ में रखे इस मानने के बीच में श्रद्धा का हम अर्थ कर लेते हैं विश्वास। जाएं और बड़े हों। तब जैसे हम पिता को मानते हैं, जैसे हम मित्र को मान लेते हैं, वैसे इस सदी के पूरे होते-होते बच्चे स्त्रियों के पेट में नहीं रहेंगे।
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इंद्रियजय और श्रद्धा
कभी कोई सोच नहीं सकता था कि स्त्रियां बच्चों को दूध पिलाने से इनकार कर देंगी। अमेरिका में उन्होंने कर दिया है। क्योंकि दूध पिलाने से उनकी उम्र जल्दी ढल जाती है; शरीर दीन दिखाई पड़ने लगता है; शरीर की चुस्ती खो जाती है। नौ महीने बच्चे को पेट में रखने से और भारी नुकसान शरीर को होते हैं। व्यवस्था हुई जाती है, फिर इनक्यूबेटर ही मां होगा, इंजेक्टर पिता होगा !
कोई फर्क नहीं पड़ता है। अभी भी वही है। अभी भी जिसको हम मां कहते हैं, उसने इनक्यूबेटर का काम किया है। उसके पेट में प्राकृतिक इंतजाम हैं, जिसमें बच्चा नौ महीने रह लेता है। कल हम कृत्रिम इंतजाम कर लेंगे। शायद उससे भी बेहतर कर लेंगे।
यह कामचलाऊ जगत है। कठिनाई नहीं आती कि मित्र को मित्र मान लिया। बहुत से बहुत क्या करेगा! रात में सामान लेकर नदारद हो जाएगा। विश्वास से चलता है जगत। इसी विश्वास को हम परमात्मा में भी लगाते हैं, तब भूल शुरू होती है।
कृष्ण का अर्थ, जब वे कहते हैं श्रद्धावान, तो विश्वासी नहीं है। कृष्ण का क्या अर्थ होगा श्रद्धावान से ? श्रद्धावान को समझने के लिए दो-तीन बातें विश्वास के संबंध में और खयाल में रख लें।
विश्वास के पीछे सदा संदेह है, स्मरण रखें। संदेह को दबाने और मिटाने के लिए किया गया है विश्वास | संदेह के खिलाफ इंतजाम है विश्वास। संदेह भीतर सरक रहा है।
एक आदमी कहता है, मैं ईश्वर में विश्वास करता हूं। उससे पूछें कि थोड़ा गहरे खोजो । सच विश्वास करते हो? अगर वह ईमानदार हो, आनेस्ट हो, नीयत उसकी साफ हो, तो पाएगा भीतर कि भीतर विश्वास नहीं है। विश्वासी से विश्वासी को पता चल जाता है कि भीतर कहीं संदेह का कण है; कहीं शक उठता है कि है ईश्वर या नहीं! है भी? आत्मा है? मृत्यु के बाद बचता है कुछ ? प्रश्न उठते हैं भीतर। वहां संदेह है।
श्रद्धावान का अर्थ है, संशयहीन, संदेहहीन नहीं। संदेह का अर्थ है, डाउट, संशय का अर्थ है, इनडिसीजन । श्रद्धावान का अर्थ है, संशयहीन, संदेहहीन नहीं ।
संदेह तो मनुष्य के साथ है। प्रश्न तो मनुष्य के साथ है, जिज्ञासा तो मनुष्य के साथ है। संदेह जिज्ञासा बने, शुभ है। संदेह विश्वास बने, खतरनाक है। संदेह अविश्वास बने, तो भी खतरनाक है। संदेह की सम्यक यात्रा इंक्वायरी है, जिज्ञासा है।
संदेह की असम्यक यात्रा दो तरह से हो सकती है। अगर राइटिस्ट हो, दक्षिणपंथी हो, पुराणपंथी हो, तो संदेह विश्वास बन
जाता है। अगर लेफ्टिस्ट हो, वामपंथी हो, पुराण विरोधी हो, नवीनपंथी हो, तो संदेह अविश्वास बन जाता है। लेकिन अगर व्यक्ति न दक्षिणपंथी हो, न वामपंथी हो; संदेह का सम्यक उपयोग करना जानता हो, तो संदेह जिज्ञासा बनता है, प्रश्न बनता है, खोज बनता है, इंक्वायरी बनता है।
जिसने विश्वास से दबाया संदेह को, वह तथाकथित झूठा आस्तिक बन जाता है। जिसने अविश्वास से दबाया संदेह को ... ।
ध्यान रहे, अविश्वास भी संदेह को दबाने की तरकीब है। एक आदमी को विश्वास नहीं आता; संदेह उठता है कि ईश्वर है ? एक आदमी कहता है, है! और पर्त बना लेता है ऊपर होने की, और भूल जाता है। झंझट के बाहर हो जाता है । जिज्ञासा को मिटा देता है । कहता है, है । दूसरा आदमी कहता है, नहीं है। वह भी एक पर्त बना लेता है, न होने की। वह भी झंझट को मिटा देता है; इंक्वायरी को समाप्त कर देता है, जिज्ञासा बंद हो जाती है । है, तो भी जिज्ञासा बंद हो जाती है। नहीं है, तो भी जिज्ञासा बंद हो जाती है। जो है, ऐसा मान लिया, उसकी खोज की जरूरत नहीं रहती । जो नहीं है, | ऐसा मान लिया, उसकी भी खोज की जरूरत नहीं रह जाती।
नहीं; संदेह बननी चाहिए जिज्ञासा। हमें पता नहीं कि है; हमें यह भी पता नहीं कि नहीं है। झूठे आस्तिक व्यर्थ; झूठे नास्तिक व्यर्थ । नास्तिक और आस्तिक का एक गहरा तालमेल जिज्ञासा बनाता है। पूछता है आदमी, है? प्रश्नवाची होती है उसकी जिज्ञासा । न स्वीकार, न अस्वीकार। पूछता है।
संदेह गहरे में जाए, तो एग्नास्टिक बनाता है। अज्ञेय है, अननोन है, जो भी है। मुझे पता नहीं है। संदेह गहरा जाए, तो अहंकार को | तोड़ता है; क्योंकि मुझे पता नहीं है; मैं अज्ञानी हूं।
आस्तिक भी ज्ञानी बन जाता, विश्वास पकड़कर नास्तिक भी ज्ञानी बन जाता, अविश्वास पकड़कर। सिर्फ रहस्य में वह प्रवेश | करता है, जो कहता है, मैं अज्ञानी हूं। मुझे पता नहीं कि है या नहीं | है । सिर्फ प्रश्न का पता है; मुझे कुछ पता नहीं है।
यह तो संदेह का सम्यकरूप है, राइट डाउट । श्रद्धा का इससे | कोई संबंध नहीं है। श्रद्धा का संबंध दूसरी बात से है।
एक और वृत्ति है मनुष्य के भीतर, संशय की, इनडिसीजन की, कि आदमी सदा डांवाडोल होता है। डांवाडोल होने का अर्थ है, कुछ भी, कुछ भी संकल्प नहीं बन पाता। क्षणभर बाएं चला जाता है, क्षणभर दाएं चला जाता है।
ध्यान रखें, मैंने कहा कि आस्तिक, झूठे विश्वास को पकड़कर
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गीता दर्शन भाग-20
जो बनता है, वह दक्षिणपंथी है। उसने एक एक्सट्रीम पकड़ ली; निःसंशय वही हो सकता है, जिसने संदेह को दबाया नहीं, संदेह अब वह पकड़े रहेगा, वह छोड़ेगा नहीं। दूसरे ने दूसरी एक्सट्रीम, | को रूपांतरित किया, ट्रांसफार्म किया और जिज्ञासा बनाई। जिसने अति पकड़ ली–वामपंथी, अविश्वास की। वह कहता है, नहीं | | जिज्ञासा बनाई संदेह को, अब वह निःसंशय हो सकता है। संशय है। एक कम्युनिस्ट है; कहता है, नहीं है। उसने पकड़ ली एक | तो उसी को पैदा होता है, जिसका कोई विश्वास है। जिसका कोई
अति। ये एक अर्थ में डिसीसिव हैं; इनमें संशय नहीं है। ऊपर से | भी विश्वास नहीं है, उसके संशय का कोई उपाय नहीं है। संदेह बन दिखाई नहीं पड़ता; भीतर संदेह है; संशय नहीं दिखाई पड़ता। | जाए जिज्ञासा, तो संशय बन जाता है श्रद्धा।
आस्तिक कहता है, बिलकुल है; जान लगा दूंगा अपनी। और ___ ध्यान रहे, अगर मैं कुछ मानता हूं, तो संशय हो सकता है। कई आस्तिकों ने, जिन्हें बिलकुल पता नहीं था, जान लगा दी। और | अगर मैं कुछ भी नहीं मानता, तो संशय नहीं होता। संशय मानने अपनी तो कम लगाई, दूसरों की ज्यादा लगवा दी! कई नास्तिक से पैदा होता है। अगर मैं कुछ भी नहीं मानता—यह भी नहीं, वह जान लगा दिए हैं। अपनी कम, दूसरों की ज्यादा लगा दिए हैं। भी नहीं; हां भी नहीं, नहीं भी नहीं; स्वीकार भी नहीं, अस्वीकार
और ध्यान रखें, जो आदमी भी कहता है, जान लगा दूंगा, वह | भी नहीं-अगर मैं कुछ भी नहीं मानता, तब संशय पैदा नहीं होता। खतरनाक है। क्योंकि जो जान लगा सकता है, वह जान ले सकता संदेह बने जिज्ञासा, तो संशय बनता है श्रद्धा श्रद्धा उसके ही है। जो आदमी भी कहता है कि जिंदगी लगा दूंगा, शहीद हो पास होती है, जिसके पास जिज्ञासा होती है। कठिन लगेगी यह जाऊंगा, उससे जरा सावधान रहना। क्योंकि शहीद होने के पहले, बात। पर जीवन में जटिलताएं हैं। वह दस-पचास को शहीद करवाएगा, तभी शहीद हो सकता है। जिज्ञासावान श्रद्धावान होता है। और श्रद्धावान ही जिज्ञासा कर शहीद खतरनाक है। शहीदी का भाव खतरनाक है। क्योंकि जब वह सकता है। तब श्रद्धा का क्या अर्थ हुआ? अपनी जान लगा देता है, दो कौड़ी की समझता है अपनी जान, तो | श्रद्धा का सिर्फ इतनी ही अर्थ हुआ कि इस आदमी के पास कोई आपकी कितनी कौड़ी की समझेगा? किसी मूल्य की नहीं समझता | | विश्वास नहीं, कोई अविश्वास नहीं; यह मुक्त मन है, ओपन है। आपको आदमी उतना ही मूल्य देता है, जितना अपने को देता | माइंड। श्रद्धावान वलनरेबल है, खुला हुआ है। है; उससे ज्यादा नहीं देता।
विश्वास क्लोज करते हैं, श्रद्धा खोलती है। श्रद्धा एक ओपनिंग आस्तिक संशयहीन दिखाई पड़ता है, संदेह भीतर होता है। | है। विश्वास को पकड़ा हुआ आदमी ऐसा है, जैसे फूल की बंद इसलिए उसका निःसंशय होना. सच्चा नहीं हो सकता: भीतर का कली। श्रद्धा को उपलब्ध हआ आदमी ऐसा है, जैसे खिला हआ कीड़ा धक्का देता रहता है। उसी को दबाने के लिए वह बिलकुल फूल-प्रकाश को सब तरफ से झेलता हुआ; निःसंशय; सूर्य के पक्का मजबूती से खड़ा रहता है कि मैं मानता हूं कि ईश्वर है। और साक्षात्कार में तत्पर; खोज को निकला; सूर्य के सामने नग्न अगर किसी ने कहा, नहीं है, तो ठीक नहीं होगा। जब कोई कहे कि उघाड़ा। श्रद्धावान का अर्थ है, नग्न, उघाड़ा, दिगंबर, निर्वस्त्र। किसी ने कहा कि नहीं है, तो ठीक नहीं होगा, तब समझ लेना कि कोई क्लोजिंग नहीं है। कोई ढांक नहीं है मन के ऊपर। कोई उसके भीतर संशय का कीड़ा है।
आवरण नहीं है। कोई पर्त नहीं है। विश्वास की नहीं, अविश्वास शास्त्र हैं ऐसे, जो कहते हैं, विरोधी की बात मत सुनना। बड़े की नहीं। सब तरफ से खुला हुआ है। सब दीवालें तोड़ दी हैं। खुले कमजोर शास्त्र हैं। क्योंकि विरोधी की बात के सुनने में डर क्या है? आकाश के नीचे खड़ा है। डर यही है कि भीतर का अपना संशय कहीं विरोधी की बात सुनकर ___ कौन खड़ा हो सकता है खुले आकाश के नीचे? जरा-सा भी ऊपर न आ जाए। और कोई डर नहीं है।
संदेह हो, तो खुले आकाश के नीचे खड़ा नहीं हो सकता; अपने नास्तिक भी घबड़ाता है। वह भी अपने अविश्वास को जोर से | घर के भीतर छिपकर बैठेगा। संदेह डराता है। संशय हो, तो हजार पकड़ता है। नास्तिक और आस्तिक डागमेटिस्ट होते हैं, पक्के | इंतजाम करके बाहर आएगा। निःसंशय हो, तो आ जाता है बाहर। रूढ़ि को पकड़े होते हैं। ऊपर से दिखता है, संशय बिलकुल नहीं | ऐसा निःसंशय चित्त, श्रद्धावान चित्त, ऐसा खुला मन फूल की है; लेकिन भीतर संदेह का कीड़ा है। इसलिए वे निःसंशय हो नहीं | तरह, सूर्य के समक्ष; ऐसा ही खुला मन, प्रभु के समक्ष, सत्य के सकते। निःसंशय कौन हो सकता है?
समक्ष, अस्तित्व के समक्ष, श्रद्धावान है। जिसने अपनी अश्रद्धा को
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इंद्रियजय और श्रद्धाल
दबाने के लिए कोई विश्वास नहीं पकड़ा; जिसने अपने संदेह को है, तो कंधे पर बैठ जाता है। वह यह नहीं पूछता कि कहां पहुंचेंगे? दबाने के लिए विश्वास-अविश्वास के जाल में नहीं उलझा; जिसने कहीं भटका तो न दोगे? रास्ते में कोई दुर्घटना तो न करवा दोगे? कहा, मैं नहीं जानता, अज्ञानी हूं; अस्तित्व के सामने अज्ञानी की जरा हाथ सम्हलकर पकड़ना। वह सारी फिक्र छोड़ देता है। वह तरह जो खड़ा है, वह श्रद्धावान है।
हाथ छोड़ देता है। अस्तित्व के समक्ष जो किसी भी तरह के ज्ञान को पकडकर खडा श्रद्धावान का अर्थ है, ऐसा व्यक्ति, जिसे ज्ञान का दंभ नहीं। होता है, वह श्रद्धावान नहीं है। अस्तित्व के समक्ष जो किसी तरह | ज्ञान का दंभी कभी श्रद्धावान नहीं होता। दिखाई पड़ते हैं वही लोग के सिद्धांत को पकड़कर खड़ा होता है कि सत्य मुझे मालूम है, वह | श्रद्धावान। ज्ञान का दंभी कभी श्रद्धावान नहीं होता। तथाकथित अस्तित्व को जानने से डरता है, इसलिए सिद्धांत की आड़ में खड़ा | पंडित कभी श्रद्धावान नहीं होते। अश्रद्धा के कारण ही पांडित्य का होता है। और अस्तित्व को जानेगा नहीं कभी; सिद्धांत को ही | जाल बिछाए रहते हैं। अस्तित्व पर थोपेगा। कहेगा कि अस्तित्व ऐसा होना चाहिए, जैसा श्रद्धावान होता है बालक की भांति। कहता है, मुझे कुछ पता मेरा विश्वास है।
नहीं, इसलिए जहां पहुंच जाऊं, वही मंजिल है। न पहुंचं, तो वही श्रद्धावान कहेगा, जैसा हो अस्तित्व, मैं वैसा ही उसे पी जाने को | | मंजिल है। जो मिल जाए, वही उपलब्धि है; जो न मिले, वह भी तत्पर और खुला हूं। मेरा कोई विश्वास नहीं, मेरा कोई सिद्धांत | उपलब्धि है। वैसा श्रद्धावान चित्त कहता है, जहां डूब जाए नाव, नहीं, मेरा कोई शास्त्र नहीं। मैं अज्ञानी हूं। मुझे कुछ पता नहीं। तो | जहां लग जाए, वही किनारा है। ऐसा असंशय, ऐसा मुक्त, ऐसा प्रभु मुझे जहां ले जाए। जिसे कुछ पता नहीं, वह जाने का आग्रह खुला हुआ व्यक्ति, ऐसा निरहंकारी, ऐसा विनम्र, ऐसा नहीं करता कि मैं यहां पहुंचूंगा, तो प्रभु मुझे वहां ले चलो। जिसका आग्रहशून्य, श्रद्धावान है। कोई विश्वास नहीं, वह अस्तित्व से कहता है, जहां ले जाओ, वही कृष्ण कहते हैं, जितेंद्रिय पुरुष और श्रद्धावान...। मंजिल है। जहां डूब जाए नाव, वही किनारा है। ऐसी, ऐसी चित्त क्योंकि जितेंद्रिय हो जाए कोई और श्रद्धावान न हो, तो अहंकार दशा-जहां डूब जाए नाव, वही किनारा है। कोई किनारे का मुझे | को उपलब्ध हो सकता है। जितेंद्रिय हो जाए कोई, जीत ले अपनी पता नहीं कि कहां ले चलो। नहीं; किसी लक्ष्य का मुझे पता नहीं | इंद्रियों को और श्रद्धा न हो, तो इंद्रियों की जीत अहंकार को और कि कौन लक्ष्य है। किसी प्रयोजन का मुझे पता नहीं कि क्या प्रगाढ़ कर जाएगी, और अकड़ आ जाएगी भारी, कि मैंने क्रोध को प्रयोजन है। मुझे पता नहीं, मैं कौन हूं। मुझे पता नहीं, जगत क्या जीत लिया; कि मैंने काम को जीत लिया; कि मैं ब्रह्मचर्य को है। मुझे कुछ भी पता नहीं। इग्नोरेंस टोटल है, अज्ञान पूर्ण है। ऐसे उपलब्ध हुआ हूं; कि मैं त्याग पा गया; कि मैं संन्यासी हूं; कि मैं पूर्ण अज्ञान में मैं कैसे कहूं कि मुझे कहां ले जाओ? मैं कैसे कहूं | साधु हूं; कि मैं तपस्वी हूं। कि मुझे उस मंजिल पर पहुंचा दो? मैं कैसे हूं कि मैं वहां जाना __ जिसको श्रद्धा न हो साथ, अगर वह इंद्रियों को जीत ले, तो वह चाहता हूं? मैं प्रभु को कैसे आदेश दूं?
वैसे ही भ्रम में पड़ जाएगा, जैसे बहिर्प्रकृति को जीतकर वैज्ञानिक अश्रद्धावान आदेश देता है अस्तित्व को। श्रद्धावान अपना हाथ | | भ्रम में पड़ जाता है कि मैं सब कुछ हूं; सुप्रीम हो गया। अंतःप्रकृति पकड़ा देता अस्तित्व को, ऐसे ही जैसे छोटा बच्चा अपने बाप के | को जीतकर भी अहंकार आ सकता है, अगर श्रद्धा न हो। इंद्रियों हाथ में हाथ दे देता है। फिर वह यह भी नहीं पूछता, कहां जा रहे | | की विजय भी अहंकार की विजय बन सकती है। हो सकता है। और हैं? कहां ले चल रहे हैं? क्या है लक्ष्य? भटका तो न देंगे? नहीं; अहंकार की विजय आत्मा की हार है। वह छोटा बच्चा हाथ दे देता है।
इसलिए कृष्ण तत्काल जोड़ देते हैं, इतना ही कहकर छोड़ नहीं कभी अपने खयाल किया! छोटा बच्चा बाप के हाथ में हाथ देते, जितेंद्रिय पुरुष; श्रद्धावान भी। वह कंडीशन गहरी है। वह पूरी देकर निश्चित चलता है। वह श्रद्धावान है, विश्वासी नहीं। क्योंकि न हो, तो जितेंद्रिय पुरुष अहंकारी हो सकता है। विश्वास तो तभी होता है, जब संदेह आ जाए; उसके पहले नहीं | | अक्सर ऐसा होता है। जो आदमी थोड़ा-बहुत क्रोध करता है, होता। वह श्रद्धावान है। बाप उसे रास्ते से मोड़ता है, तो मुड़ जाता | | वह उतना अहंकारी नहीं होता, जितना जो क्रोध नहीं करता, वह है; सीधा जाता है, तो सीधा जाता है। बाप उसे कंधे पर उठा लेता होता है। क्यों? क्योंकि जो क्रोध करता है, क्रोध उसे विनम्र भी कर
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गीता दर्शन भाग-20
जाता है. यह भी बता जाता है कि अपनी सामर्थ्य कितनी है।
| अहंकार को नहीं, आत्मा को मिलेगी। जितेंद्रिय, श्रद्धावान, शांति जरा-सी बात में तो अपनी केटली गरम हो जाती है; पतला है चद्दर, |
| | को उपलब्ध हो जाता है, परम शांति को उपलब्ध होता है। बहुत मोटा नहीं है। जो आदमी जरा-जरा सी बात में, क्षुद्र-क्षुद्र बात __ शांति क्या है? दि सुप्रीम साइलेंस, अल्टिमेट साइलेंस, यह में होश खो देता है, उसे यह भी तो पता चलता है कि अपनी सीमा | परम शांति क्या है? क्या है!
अशांति क्या है? अशांति है चित्त का कंपन, उत्तेजना। उत्तेजित ध्यान रहे, जो आदमी क्रोध कर लेता, काम के वशीभूत हो | चित्त-दशा अशांति है। जैसे झील-आंधियों के थपेड़ों में; तूफान जाता, लोभ कर लेता, वह जानता है—वह जानता है कि अपनी में चट्टानों से टकराती हुई लहरें, हवा से जोर मारती लहरें; सब सीमा है। और ध्यान रहे, ऐसा आदमी बहुत अहंकारी नहीं हो उद्विग्न, उदभ्रांत-ऐसा चित्त अशांत है। शांत चित्त—झील की सकता। क्योंकि अहंकार को खड़े होने के लिए उसके पास बहुत तरह मौन; हवाओं के थपेड़े नहीं; लहरों का शोरगुल नहीं; कोई फाउंडेशंस नहीं होते। जरा-जरा सी बात में तो सब गड़बड़ हो जाता संघर्ष नहीं; मौन। है! अपने पर ही तो भरोसा नहीं है। अहंकार क्या करें? और जो सुख में भी उत्तेजना है, दुख में भी उत्तेजना है। इसलिए शांति आदमी क्रोध करता, लोभ करता, बेईमानी भी कर लेता, वह दूसरों सुख और दुख के पार है। सुखी आदमी शांत नहीं होता; सुखी के प्रति भी दयावान होता है। क्योंकि वह जानता है, हम भी कमजोर आदमी भी अशांत होता है। दुखी आदमी भी शांत नहीं होता; दुखी हैं, दूसरे भी कमजोर हैं।
आदमी भी अशांत होता है। क्योंकि सुख की अपनी उत्तेजना है; इसलिए साधु-संत अक्सर कठोर और क्रूर हो जाते हैं। क्योंकि प्रीतिकर लगती है, यह हमारी धारणा है। दुख की अपनी उत्तेजना वे क्रोध कभी नहीं करते; इसलिए दूसरा अगर क्रोध कर ले, तो है; अप्रीतिकर लगती है, यह हमारी धारणा है। उसकी गर्दन में फांसी लगाने की इच्छा पैदा हो जाती है। क्योंकि और इसलिए जो एक को दुख है, वह दूसरे को सुख भी हो उन्होंने कभी वासना नहीं की; तो दूसरे के मन में वासना आ जाए, सकता है। और इसलिए जो एक को सुख है, वह दूसरे को दुख भी तो नर्क में डालने की इच्छा हो जाती है। साध-संत. तथाकथित. हो सकता है। और इसलिए जो आज आपको सख है. वह कल श्रद्धावान नहीं, लेकिन जो किसी तरह इंद्रियों को जीतने की चेष्टा दुख हो सकता है। और इसलिए जो आज आपको दुख है, वह कल में लगे रहते हैं; खतरनाक हो जाता है उनका मामला बहुत बार। सुख हो सकता है। कनवर्टिबल है; सुख दुख में बदल सकते हैं। इसलिए साधु-संत को दयावान पाना जरा कठिन है। क्योंकि दोनों उत्तेजनाएं हैं। सिर्फ दृष्टिकोण से फर्क पड़ता है कि
साधु और दयावान पाना जरा कठिन है! इसका मतलब यह हुआ | क्या सुख और क्या दुख। कि साधु पाना कठिन है। रास्ते पर चलते हुए जिस आदमी के मन सुख में भी हार्ट फेल हो जाते सुना जाता है। सुख में भी में लोभ नहीं आया, क्रोध नहीं आया, वासना नहीं आई, काम नहीं हृदय-गति बंद हो जाती है। निश्चित ही, सुख बड़ी तीव्र उत्तेजना आया. वह दसरे के प्रति कभी भी दयावान हो नहीं पाता। क्योंकि होगी। मिलता नहीं है हम सबको सुख, इसलिए सबका नहीं होता। वह कहता है, जो मुझे नहीं हुआ, वह तुम्हें हो रहा है! पापी हो। | मिलता ही कम है। या मिलता है. तो इतना रत्ती-रत्ती मिलता है कि
लेकिन जिसके मन में सब हुआ, जो दूसरे को हो रहा है, वह हम इम्यून हो जाते हैं; हम समर्थ हो जाते हैं झेलने में। इकट्ठा मिल अनिवार्य रूप से, अनिवार्य रूप से विनम्र हो जाता है। और जानता जाए, लाटरी की तरह मिल जाए, कि दस लाख रुपए की लाटरी है कि मुझ पर मेरा ही वश नहीं; अगर दूसरे का वश नहीं, तो कुछ मिल गई किसी को, तो खतरा है। लाटरी तो मिलेगी. लाटरी पाने नर्क में जाने की बात नहीं हो गई है! यह स्वभाव है मनुष्य का, टु वाला नहीं बचेगा। इर इज़ ह्यूमन। वह इस बात को समझ पाता है कि भूल आदमी से सुख इकट्ठा आ जाए, तो तोड़ जाता है, दुख से भी ज्यादा तोड़ होती है।
जाता है। क्योंकि दुख परिचित है, उसके हम इम्यून हैं, वह रोज जितेंद्रिय पुरुष अगर श्रद्धावान न हो, तो खतरे हैं। इसलिए कृष्ण | आता है। इसलिए कितना भी आ जाए, दुख में हार्ट फेल होते हुए तत्काल जोड़ते हैं, जितेंद्रिय और श्रद्धावान। श्रद्धावान होगा, तो | नहीं सुने जाते। बड़े से बड़ा दुख आदमी झेल जाता है; हृदय-गति जितेंद्रिय होकर, उसकी जो जितेंद्रिय से उपलब्ध शक्ति है, वह बंद नहीं होती। क्योंकि दुख इतने हैं जीवन में, हमारी दृष्टि ऐसी
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इंद्रियजय और श्रद्धा
गलत है कि अधिक दुख हमने बना रखे हैं, तो हम झेल जाते हैं! को जब भी मनोवैज्ञानिक सलाहकार मिल जाएंगे, तब दुनिया में
लेकिन सुख? हमारी दृष्टि ऐसी है कि सुख हमने बनाए नहीं। कभी | | जितनी दुर्घटनाएं होंगी, उतनी और कभी नहीं हो सकतीं। - कोई सुख अगर हमारी दृष्टि के अनुकूल पड़कर हम पर छा जाता __ मिनट, दो मिनट, फिर घबड़ाहट शुरू हुई। क्योंकि कोई किसी है, तो खतरा है। फिर सुख की उत्तेजना भी थोड़ी देर में अप्रीतिकर | को आलिंगन में ले ले, तो क्षणभर में आलिंगन टूट जाए, तो सुख हो जाती है। सब उत्तेजनाएं अप्रीतिकर हो जाती हैं।
का खयाल रह जाता है। दस मिनट रह जाए, तो घबड़ाहट और ___ सुना है मैंने, नादिर एक स्त्री को प्रेम करता था। लेकिन उस स्त्री बेचैनी शुरू हो जाती है। पंद्रह मिनट, आधा घंटा...। जिन ओंठों ने नादिर की तरफ कभी ध्यान नहीं दिया। नादिरशाह साधारण में समझा था कि गुलाब के फूल खिलते हैं, उनसे बदबू आने लगी। आदमी नहीं था, असाधारण आदमी था। हत्यारों में उस जैसा कहीं खिलते नहीं, किन्हीं ओंठों में गुलाब के फूल नहीं खिलते। असाधारण दूसरा नहीं है। अभी-अभी हमने कुछ रिकार्ड तोड़े सिर्फ उन कवियों की कविताओं में खिलते हैं, जिन्हें ओंठों का कोई हैं-हिटलर, स्टैलिन के साथ। लेकिन हिटलर और स्टैलिन का पता नहीं है। जिनको भी ओंठों का थोड़ा अनुभव है, वे जानते हैं, जो हत्यारापन है, वह बड़ा परोक्ष है। उन्हें कभी ठीक पता नहीं फूल नहीं खिलते। सब तरह की बदबू मुंह से उठती है। उठने लगी। चलता कि वे मार रहे हैं। नादिरशाह का हत्यारापन सीधा, प्रत्यक्ष दिन बीता, चौबीस घंटे हो गए। सोए नहीं। रातभर की तंद्रा था; वही मार रहा था सामने छाती में।
आंखों में, शरीर में भर गई। ऐसा लगने लगा कि दोनों लाश हो गए - नादिरशाह को उस स्त्री ने ध्यान नहीं दिया। लेकिन जब हैं। आदमी जिंदा नहीं हैं। फिर मल-मूत्र भी बहने लगा; क्योंकि दो नादिरशाह को पता चला कि वह उसके ही एक पहरेदार को, | दिन बीत गए। फिर तो गंदगी भारी हो गई। फिर तो वे साधारण सिपाही को प्रेम करती है, तो पागल हो गया। अपने चीखने-चिल्लाने लगे कि हमें छुड़ा दो; माफ करो। लेकिन नादिर बुद्धिमानों को उसने बुलाया और कहा कि सजा बताओ, क्या सजा | रोज आकर देख जाता कि प्रेमियों की क्या हालत है! दूं? बुद्धिमान हैरान हुए, क्योंकि नादिरशाह सजा इनवेंट करने में फिर तो ऐसा मन होने लगा कि अगर हाथ खुले हों, तो इतना कुशल था कि वह बुद्धिमानों से पूछे ? बुद्धिमान थोड़े हैरान | एक-दूसरे की गर्दन दबा दें। उस जगत में उन दोनों को उन क्षणों हुए! उन्होंने कहा, आपकी कुशलता हम न पा सकेंगे। आपसे | में जैसी शत्रुता अनुभव हुई होगी, ऐसी किन्हीं प्रेमियों को कभी नहीं ज्यादा कुशल और कौन है? सताने में आप ऐसी-ऐसी तरकीबें निकालते हैं! आपसे ज्यादा हम कुछ न बता सकेंगे। लेकिन प्रेमियों का सबसे बड़ा सौभाग्य यह है कि वे कभी मिल न पाएं। नादिरशाह ने कहा कि नहीं; मैं जो भी सोच सका, सब कम पड़ता | मिल जाएं, तो उपद्रव शुरू होते हैं। और इस भांति मिल जाएं, इस
है। तुम कुछ ऐसा सोचकर आओ कि जैसा कभी किसी ने किसी पूरी तरह मिल जाएं, तब तो बहुत कठिनाई है। पंद्रह दिन बाद सोच . को न सताया हो।
सकते हैं कि क्या हालत हुई होगी! दो लाशों की तरह मुर्दा, पागल, __उसके विद्वानों में से एक मनसशास्त्री ने कहा कि अगर मेरी विक्षिप्त! मानें, तो मैं आपको बताऊं। नादिरशाह मान गया, जो उसने कहते हैं कि जब पंद्रह दिन बाद मनोवैज्ञानिक ने सलाह दी कि बताया। और सजा दी गई। ऐसी सजा पहली दफा दी गई; और अब छोड़ दो, अब दूसरा मजा देखो, उन दोनों को छोड़ दिया। वे अगर बहुत दफे दी जाए, तो दुनिया में बड़ी मुसीबत हो जाए। सजा दोनों एक-दूसरे की तरफ पीठ करके जो भागे, तो दोबारा जिंदगी बड़ी अजीब थी। सोच भी नहीं सकते, ऐसी थी।
में फिर कभी नहीं मिले। फिर कभी एक-दूसरे को देखा भी नहीं। दोनों को नग्न करके, आलिंगन में बांधकर रस्सियों से, और एक बड़ी कठिन रही होगी सजा। खंभे में बांध दिया गया। न खाना, न पीना। दोनों के चेहरे एक-दूसरे ___ सब सुख दुख हो जाते हैं। और सब दुख भी अभ्यास से सुख की तरफ। क्षणभर हो तो उन्हें लगा कि हमारे जीवन का स्वर्ग मिल हो जाते हैं। एक आदमी पहली दफा सिगरेट पीता है, तो सुख नहीं गया। इसी के लिए आतुर थे कि एक-दूसरे की बांह में पहुंच जाएं! | मिलता, सिर्फ तिक्तता पहुंच जाती है मुंह में। गंदा धुआं; खांसी, पहुंच गए! थोड़े हैरान हुए कि नादिर को यह क्या हुआ है! लेकिन और बदबू और घबड़ाहट; बेचैनी! पहली दफा आदमी शराब उन्हें पता नहीं कि एक मनोवैज्ञानिक ने सलाह दी है। और राजनीतिज्ञों पीता है, तो कभी सुख नहीं मिलता। लेकिन शराब पिलाने वाले
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गीता दर्शन भाग-20
कहते हैं, टेस्ट पैदा करना पड़ता है, ट्रेन करना पड़ता है। वे कहते एक तो श्रद्धावान होने का मतलब है, अभिमुखता; श्रद्धा की हैं कि ऐसे थोड़े ही है, यह कोई साधारण चीज थोड़े ही है। यह | तरफ यात्रा; श्रद्धा की तरफ आंखें; श्रद्धा की तरफ चलना, शास्त्रीय संगीत जैसी चीज है। अभ्यास से स्वाद का जन्म होता है। श्रद्धावान होने का अर्थ है। फिर जब पहुंच गए, जब श्रद्धा ही घटित मुंह में कड़वाहट छूट जाती है, छाती तक जलन पहुंच जाती है, | हो जाती है, तब श्रद्धावान नहीं होता आदमी; आदमी ही श्रद्धा होता श्वास की पूरी नली विरोध और बगावत करती है, पहले दिन शराब | | है। तब चित्त श्रद्धावान नहीं होता, तब चित्त श्रद्धा ही हो जाता है। पीने पर। लेकिन अभ्यास से शराब प्रीतिकर हो जाती है। | तब श्रद्धा एक गुण नहीं होती; तब श्रद्धा समग्र अस्तित्व बन जाती
सुख भी उत्तेजना, दुख भी उत्तेजना, इसलिए उत्तेजनाएं एक-दूसरे | | है। तब श्रद्धा एक झुकाव नहीं होती–यात्रा नहीं, तीर की तरह में बदल सकती हैं, बदल जाती हैं।
| कहीं जाती हुई नहीं-तब श्रद्धा मंजिल होती है। जाती हुई नहीं, शांति, परम शांति वह है, जहां कोई उत्तेजना नहीं है-न सुख ठहरी हुई, खड़ी हुई। नदी की तरह भागती हुई नहीं होती श्रद्धा, फिर की, न दुख की। जहां सुख भी नहीं, जहां दुख भी नहीं, ऐसा जहां | सागर की तरह ठहरी हुई होती है। परम शांत हुआ चित्त, वहीं आनंद फलित होता है, वहीं प्रभु का द्वार | श्रद्धावान, नदी की तरह भागती हुई श्रद्धा का नाम है। श्रद्धा, खुलता है, वहीं परम सत्य में प्रवेश होता है।
सागर की तरह ठहराव का नाम है। श्रद्धा, अर्थात पहुंच गए। जितेंद्रिय हुआ, श्रद्धा से युक्त, शांत हुआ मन, परम सत्य, श्रद्धावान, अर्थात पहुंच रहे हैं। दोनों अर्थ हैं। निगूढ सत्य में प्रविष्ट हो जाता है।
| पर कष्ण ने अर्जन को जो कहा. वह पहले अर्थ की दष्टि से कहा। दूसरे की बात करनी बेकार है। वहां तो पहुंच जाएंगे। पहला
होना चाहिए। यात्रा की बात ठीक है; मंजिल तो आ जाती है। रास्ते प्रश्न : भगवान श्री, श्रद्धा ज्ञान का सहज परिणाम है, की बात ठीक है; मंजिल तो आ जाती है। मंजिल की चर्चा की भी अथवा ज्ञान को उपलब्ध होने के पहले श्रद्धा का होना नहीं जा सकती। मंजिल को कहने का भी उपाय नहीं है। प्रयोजन अनिवार्य है? कृपया इसे समझाएं।
भी नहीं है।
इसलिए समस्त जानने वालों ने विधि की, मेथड की बात की है,
मंजिल की नहीं। मंजिल की तरफ सिर्फ कभी-कभी इशारे हैं। कैसे OT द्धा तो ज्ञान का अंतिम परिणाम है; लेकिन श्रद्धावान | पहुंचे, इसकी बात है। मंजिल की तरफ कभी-कभी इशारा है, सिर्फ 1 होना ज्ञान का पहला चरण है। श्रद्धा तो पूर्णता है। | इसी को समझाने के लिए कि कैसे पहुंचे।
इसी को सम इसलिए कृष्ण यह नहीं कह रहे, श्रद्धा; वे कह रहे हैं, कभी-कभी, जैसे कृष्णमूर्ति के मामले में, मंजिल की बात ही श्रद्धावान। श्रद्धावान तो एप्टिटयूड है, वह तो स्वभाव का एक की जाती है और मार्ग की बात छोड़ दी जाती है। तब कृष्णमूर्ति लक्षण है, वह तो बीज है। श्रद्धा तो, पूर्ण श्रद्धा तो उपलब्ध होती | जैसा व्यक्ति भूल जाता है कि सुनने वाले कृष्ण नहीं हैं, अर्जुन हैं। है तब, जब सब जिज्ञासाओं का अंत हो जाता है, जब सब संदेह | और सुनने वाले कृष्ण कभी भी नहीं होंगे; क्योंकि कृष्ण किसलिए गिर जाते हैं। जब जानना घटित होता है, जब जान ही लिया जाता | सुनने आएंगे? है, तब श्रद्धा उपलब्ध होती है।
इसलिए इधर कृष्णमूर्ति को पीछे-पीछे बड़ा विषाद मालूम होता लेकिन वह तो अंतिम है; उसकी बात करनी बेकार है। अर्जुन | | है, फ्रस्ट्रेशन भी मालूम होता है। भीतरी, आंतरिक नहीं, अपने लिए से तो बेकार है बात करनी। बुद्ध से बात कर रहे होते कृष्ण, तो | नहीं; लेकिन चालीस साल से जिनसे बोल रहे हैं उनके लिए। करते। अर्जुन से तो श्रद्धावान होने की बात करनी अर्थपूर्ण है। यात्रा करुणापूर्ण है विषाद। विषाद मालूम होता है कि चालीस वर्ष से की मंजिल पर पहला चरण, श्रद्धावान। यात्रा के अंतिम पड़ाव पर, समझा रहा हं इनको, ये वही के वही लोग। वही सामने हर बार श्रद्धा। वह श्रद्धावान होना ही अंततः श्रद्धा बनती है। वह पहला | आकर बैठ जाते हैं। फिर वही सुन लेते हैं; फिर सिर हिलाते हैं। चरण ही आखिर में मंजिल बन जाती है। इसलिए श्रद्धा के दोनों | फिर वही सवाल पूछते हैं। फिर वही उत्तर पाते हैं। फिर खाली हाथ अर्थ खयाल में रखें।
लौट जाते हैं। फिर अगले वर्ष खाली हाथ वापस आ जाते हैं। वही
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इंद्रियजय और श्रद्धा
के वही लोग! अगर मरघट पर बोलते होते कृष्णमूर्ति, तो कोई | शिष्य को खोज सकता है। लेकिन गुरु को इतनी कुशलता बरतनी
खास नुकसान न होता। अगर दीवाल से बोलते होते, तो कोई खास नुकसान न होता।
चाहिए कि शिष्य को ऐसा लगे कि उसने ही उसे खोजा है। नहीं तो कठिनाई हो जाती है। कृष्णमूर्ति के साथ यह दिक्कत हो गई।
कृष्णमूर्ति को कभी नहीं लगा कि उन्होंने इनको खोजा है; लीडबीटर और एनीबीसेंट ने ही उनको खोजा है । और वह सब मामला ऐसा हो गया कि गुरुओं के प्रति भी विरोध रह गया और विधि के प्रति भी विरोध रह गया। लीडबीटर को मरे लंबा वक्त हो गया। एनीबीसेंट को मरे लंबा वक्त हो गया । कृष्णमूर्ति के मन से वह बात अब तक जाती नहीं है। वे लड़े चले जाते हैं लीडबीटर से; लड़े चले जाते हैं विधियों से। और मंजिल की बात किए चले जाते हैं। जो सुनने वाले हैं, वे अगर कृष्ण की तरह हों, तब तो ठीक। वे समझ जाएं कि बिलकुल ठीक कह रहे हैं। लेकिन सुनने नहीं आता कृष्ण जैसा आदमी। सुनने अर्जुन जैसा आदमी आता है। | इसलिए सब व्यर्थ हुआ जाता है।
श्रद्धा की बात कर रहे हैं, करनी चाहिए श्रद्धावान की। यह खयाल में लेंगे, तो समझ में आ जाएगा।
कृष्ण श्रद्धावान की बात कर रहे हैं, जितेंद्रिय, श्रद्धावान ! शेष रात में लेंगे।
कृष्णमूर्ति के साथ पहली दफा एक दुर्घटना घट गई और वह दुर्घटना यह है कि वे मंजिल की बात कर रहे हैं, मार्ग की नहीं । वे मंजिल की इतनी बात कर रहे हैं, जितनी मार्ग की करनी चाहिए; और वे मार्ग की इतनी बात कर रहे हैं, जितनी मंजिल की करनी चाहिए। अगर कभी मार्ग के संबंध में कोई शब्द आ जाता है, तो घबड़ाहट से जल्दी वह उसको दूसरी पंक्ति में नष्ट कर देते हैं। मंजिल !
क्या, हो क्या गया? ऐसा अब तक नहीं हुआ था । पृथ्वी पर ऐसा अब तक नहीं हुआ था कि किसी आदमी को ज्ञान की किरण के फूटने के साथ, अंतिम को, मंजिल को, कहने का ऐसा भाव नहीं हुआ था। कृष्णमूर्ति को हुआ । होने का कुछ विशेष कारण है।
कृष्णमूर्ति को दूसरे लोगों ने साधना करवाई; खुद नहीं की । कृष्णमूर्ति को दूसरे लोगों ने, लीडबीटर ने, एनीबीसेंट ने साधना करवाई। कृष्णमूर्ति पर साधना जैसे बाहर से आई। भीतर सत्व था, भीतर पिछले जन्म तक आ गई संभावना थी। भीतर मौजूद था। क्योंकि अकेले बाहर से कुछ करवाया नहीं जा सकता, जब तक भीतर मौजूद न हो। सूखी लकड़ी थी भीतर, बाहर से पकड़ाई गई आग पकड़ गई। लेकिन पकड़ाई गई बाहर से। और जब भी कोई चीज बाहर से पकड़ाई जाती है, तो मन उसका विरोध करता है। अच्छी से अच्छी चीज का भी विरोध करता है।
इसलिए कृष्णमूर्ति के मन में विधियों के प्रति, मेथड के प्रति एक अनिवार्य विरोध पैदा हो गया। वे बाहर से पकड़ाए गए उन्हें । गुरुओं के प्रति एक विरोध पैदा हो गया; क्योंकि गुरु उनको ऊपर से थोपे हुए मिले। चुने हुए नहीं थे, खोजे नहीं थे उन्होंने । अगर कोई आदमी खुद गुरु खोजता है, तो गुरु कभी दुश्मन नहीं मालूम पड़ता है। लेकिन अगर गुरु किसी को खोज ले, तो झंझट हो जाती है। हालांकि मजा यह है कि जब गुरु खोजता है, तो ठीक से खोजता है । और शिष्य जब खोजता है, तो गलत खोजता है। लेकिन अपनी गलत खोज भी ठीक मालूम पड़ती है, दूसरे की ठीक खोज भी गलत मालूम पड़ती है।
शिष्य कैसे खोजेगा गुरु को ? अगर गुरु को खोजने की योग्यता हो, तो परमात्मा को खोजने में कोई बाधा नहीं है। जितनी योग्यता से गुरु खोजा जाता है, उतनी योग्यता से परमात्मा खोजा जा सकता है। इसलिए शिष्य कभी गुरु को खोज नहीं सकता। हमेशा गुरु ही
अब जो श्रद्धावान हैं, वे थोड़ा कीर्तन में डूब जाएं। जो अश्रद्धावान हैं, वे बिलकुल चुपचाप चले जाएं। जो मध्य में हैं, वे | बैठकर थोड़ी ताली बजाते रहें।
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अध्याय 4 अठारहवां प्रवचन
संशयात्मा विनश्यति
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गीता दर्शन भाग-26
अज्ञश्चाश्रधानश्च संशयात्मा विनश्यति । | संकल्प नहीं है; निर्णयरहित, जिसका कोई निर्णय नहीं है; विललेस, नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः।। ४०। । जिसके पास कोई विल नहीं है। संशय चित्त की उस दशा का नाम
और हे अर्जन भगवत विषय को न जानने वाला तथा | है, जब मन ईदर-आर, यह या वह, इस भांति सोचता है। श्रद्धारहित और संशययुक्त पुरुष परमार्थ से भ्रष्ट हो जाता | एक बहुत अदभुत विचारक डेनमार्क में हुआ, सोरेन कीर्कगार्ड। है। उनमें भी संशययुक्त पुरुष के लिए तो न सुख है और | उसने एक किताब लिखी है, नाम है, ईदर-आर—यह या वह। न यह लोक है, न परलोक है। अर्थात यह लोक और | | किताब ही लिखी हो, ऐसा नहीं; खुद भी इतने ही संशय से भरा परलोक दोनों ही उसके लिए भ्रष्ट हो जाते हैं।। | था। एक युवती से प्रेम था, लेकिन तय न कर पाया वर्षों तक,
विवाह करूं या न करूं! तय न कर पाया यह कि प्रेम विवाह बने
या न बने! इतना समय बीत गया—इतना समय बीत गया कि वह - शय से भरा हुआ, संशय से ग्रस्त व्यक्तित्व विनाश युवती थक गई। उसने विवाह भी कर लिया। तब एक दिन उसके 1 को उपलब्ध हो जाता है। भगवत्प्रेम से रहित और | | घर खबर करने गया कि मैं अभी तक तय नहीं कर पाया हूं। पर
संशय से भरा न इस लोक में सुख पाता, न उस लोक | पता चला कि अब वह युवती वहां नहीं है। उसका विवाह हुए काफी में। विनाश ही उसकी नियति है।
समय हो गया है। दो बातें ठीक से समझ लेनी इस श्लोक में जरूरी हैं। इस सोरेन कीर्कगार्ड ने किताब लिखी, ईदर-आर—यह या
एक तो भगवत्प्रेम से रहित, दूसरा संशय से भरा हुआ। दोनों | वह। उसे अनेक बार लोगों ने चौरस्तों पर खड़े देखा, दो कदम इस एक ही बात को कहने के दो ढंग हैं। संशय से भरा हुआ व्यक्ति | | रास्ते पर बढ़ते, फिर लौट आते; फिर दो कदम दूसरे रास्ते पर भगवत्प्रेम को उपलब्ध नहीं होता है। भगवत्प्रेम को उपलब्ध व्यक्ति | | बढ़ते, फिर लौट आते। गांव के बच्चे उसके पीछे दौड़ते और संशयात्मा नहीं होता है। लेकिन दोनों को कृष्ण ने अलग-अलग | | चिल्लाते, ईदर-आर-यह या वह ! उसकी पूरी जिंदगी ऐसी ही कहा, क्योंकि दोनों के तल अलग-अलग हैं।
| इनडिसीजन में-टु बी आर नाट टु बी, होऊं या न होऊ, करूं या संशय का तल है मन और भगवत्प्रेम का तल है आत्मा। लेकिन न करूं। मन से संशय न जाए, तो आत्मा के तल पर भगवत्प्रेम का अंकुरण जब चित्त ऐसे संशय से बहुत गहन रूप से भर जाता है, तो नहीं होता। और आत्मा में भगवत्प्रेम का अंकुरण हो जाए, तो मन | विनाश को उपलब्ध होता है। क्यों? क्योंकि जो यही तय नहीं कर संशयरहित होता है। दोनों ही गहरे में एक ही अर्थ रखते हैं। लेकिन | | पाता कि करूं या न करूं, वह कभी नहीं कुछ कर पाता। जो यही दोनों की अभिव्यक्ति का तल भिन्न-भिन्न है।
तय नहीं कर पाता कि यह हो जाऊं या वह हो जाऊं, वह कभी भी इसलिए यह भी ठीक से समझ लेना जरूरी है कि जब कहते हैं | कछ नहीं हो पाता। कि संशयात्मा-संशय से भरी हुई आत्मा-विनष्ट हो जाती है,। | सृजन के लिए निर्णय चाहिए, असंशय निर्णय चाहिए। विनाश तो ठीक से समझ लेना, संशयात्मा का तल आत्मा नहीं है; तल मन | | के लिए अनिर्णय काफी है। विनाश के लिए निर्णय नहीं करना है। आत्मा में तो संशय होता ही नहीं है। लेकिन जिसके मन में पड़ता। संशय है, उसे मन ही आत्मा मालूम होती है। इसलिए कृष्ण ने किसी भी व्यक्ति को स्वयं को नष्ट करना हो, तो इसके लिए संशयात्मा प्रयोग किया है।
किसी निर्णय की जरूरत नहीं होती। सिर्फ बिना निर्णय के बैठे रहें. जिसके मन में संशय है, इनडिसीजन है, वह मन के पार किसी | विनाश अपने से घटित हो जाता है। किसी को पर्वत शिखर पर आत्मा को जानता नहीं; वह मन को ही आत्मा जानता है। और ऐसा | |चढ़ना हो, तो श्रम पड़ता है, निर्णय लेना पड़ता है। लेकिन पत्थर मन को ही आत्मा जानने वाला व्यक्ति विनाश को उपलब्ध होता है। की भांति पर्वत शिखर से लुढ़कना हो घाटियों की तरफ, तब किसी
संशय क्या है? संशय का, पहला तो खयाल कर लें, अर्थ डाउट निर्णय की कोई जरूरत नहीं होती और श्रम की भी कोई जरूरत नहीं है, संदेह नहीं है। संशय का अर्थ इनडिसीजन है। अनिश्चय नहीं होती। आत्मा, जिसका कोई भी निश्चय नहीं है; संकल्पहीन, जिसका कोई इस जगत में पतन सहज घट जाता है, बिना निर्णय के। इस
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संशयात्मा विनश्यति
जगत में विनाश स्वयं आ जाता है, बिना हमारे सहारे के। लेकिन | हैं, जो यही सोचते हैं, निकलें, न निकलें? बदलें, न बदलें? करें, इस जगत में सृजन हमारे संकल्प के बिना नहीं होता है। इस जगत न करें? में कुछ भी निर्मित हमारी पूरी की पूरी श्रम, शक्ति, चित्त, शरीर, संशय से भरा हुआ चित्त समय को गंवा देता है, इसलिए विनष्ट सबके समाहित लग जाए बिना, इस जगत में कुछ निर्मित नहीं होता होता है। समय एक अवसर है, एक अपरचुनिटी। और ऐसा है। विनाश अपने से हो जाता है। बनाना हो, बनाना अपने से नहीं अवसर, जो मिल भी नहीं पाता और खो जाता है। क्षण आता है होता है।
हाथ में; दो क्षण कभी एक साथ नहीं आते। एक क्षण से ज्यादा इस संशय से भरा हुआ चित्त विनाश को उपलब्ध हो जाता है। पृथ्वी पर शक्तिशाली से शक्तिशाली मनुष्य के पास भी कभी इसका अर्थ है कि संशय से भरे चित्त को विनाश के लिए कुछ भी ज्यादा नहीं आता। एक ही क्षण आता है हाथ में, बारीक क्षण। जान नहीं करना पड़ता है। विनाश आ जाता है, संशय से भरा हआ चित्त | | भी नहीं पाते कि आया और निकल जाता है। देखता रहता है। घर में लगी हो आग, संशय से भरी आत्मा की संशय से भरा हुआ व्यक्ति जीवन के सभी क्षणों को गंवा देता है। क्या स्थिति होगी? बाहर निकलूं या न निकलूं? घर में लगी है | क्योंकि संशय के लिए काफी समय चाहिए, और क्षण एक ही होता आग, बाहर निकलूं या न निकलूं? संशय से भरे चित्त की यह | है हाथ में। जब तक वह सोचता है, तब तक क्षण चला जाता है। स्थिति होगी।
जब तक वह सोचता है, फिर क्षण चला जाता है। अंततः मृत्यु ही . आग नहीं रुकेगी आपके संशय के लिए, न आपके निर्णय के | | आती है संशय के हाथ में; जीवन पर पकड़ नहीं आ पाती; जीवन लिए। आग बढ़ती रहेगी। और संशय से भरा चित्त ऐसा होता है | खो जाता है। जीवन खो जाता है निर्णय में ही कि करूं, न करूं। कि जितनी बढ़ेगी आग, उतना प्रगाढ़ हो जाएगा उसका भीतर का सुना है मैंने रथचाइल्ड अमेरिका का एक बहुत बड़ा अरबपति खंडन। उतना ही विचार तेज चलने लगेगा, निकलूं न निकलूं! हुआ। उससे किसी ने पूछा कि तुम्हारी सफलता का राज क्या है? आग नहीं रुकेगी। विनाश फलित होगा। वह आदमी घर के भीतर गरीब थे तुम, अरबपति हो गए; तुम्हारी सफलता का राज क्या है? मरेगा। हम सब जिस जीवन में खड़े हैं—पदार्थ के, संसार उसने कहा, मैंने एक भी अवसर नहीं खोया। जब भी अवसर के-वह आग लगे घर से कम नहीं है।
आया, मैंने छलांग लगाई और पकड़ा। बुद्ध को किसी ने पूछा जब वे घर छोड़कर चले गए, दूसरे गांव __ दूसरे व्यक्ति ने पूछा कि तुम्हारा अवसर को पकड़ने का सीक्रेट के सम्राट ने आकर कहा, सुना है मैंने, तुम राजपुत्र होकर घर-द्वार | और कुंजी क्या है? छोड़कर चले आए। नासमझी की है तुमने। अपनी पुत्री से तुम्हारा उसने कहा, जब अवसर आया, तब मैंने यह नहीं सोचा कि करूं विवाह कर देता हूं; मेरे राज्य के आधे के मालिक हो जाओ। या न करूं। मैंने सदा एक नियम बनाकर रखा कि पछताना हो, तो
बुद्ध ने कहा, क्षमा करें। जिसे मैं पीछे छोड़ आया हूं, वह मकान करके पछताना; न करके कभी नहीं पछताना। क्योंकि न करके और घर नहीं था। आग लगी थी वहां। उस लगी हुई आग को पछताने का कोई मतलब ही नहीं है। पछताना हो, तो करके पछता छोडकर आया हं मैं। और तम फिर मझे आग लगे घर में प्रवेश के लेना। न करके कभी मत पछताना। क्योंकि किए को अनकिया लिए निमंत्रण देते हो! धन्यवाद तुम्हारे निमंत्रण के लिए; लेकिन | किया जा सकता है, दि डन कैन बी अनडन। जो किया, उसे शोक तुम्हारे अज्ञान के लिए! दुखी हूं कि तुम उसे महल कह रहे अनकिया किया जा सकता है। लेकिन जो अनकिया छूट गया, उसे हो, जिसे मैं छोड़ आया हूं। महल मैंने नहीं छोड़ा, छोड़ा है मैंने फिर किया नहीं किया जा सकता। जो मकान बनाया, वह गिराया आग लगा हुआ संसार। लपटें ही थीं वहां। तुम भी छोड़ो! जा सकता है। लेकिन जो नहीं बनाया, वह समय खो गया जिसमें उस सम्राट ने कहा, सोचूंगा। तुम्हारी बात पर विचार करूंगा। बनता; अब नहीं बनाया जा सकता।
बुद्ध ने कहा, घर में आग लगी हो, तब कोई सोचता है कि रथचाइल्ड ने कहा, मैंने सदा एक नियम रखा, करके पछता निकलूं या न निकलूं?
लूंगा। इसलिए मैंने कभी यह नहीं सोचा कि करूं या न करूं। किया। नहीं; घर में आग लगी हो, तो शायद ही ऐसा आदमी मिले, और मैं तुमसे कहता हूं कि करके मैं आज तक नहीं पछताया हूं। जो सोचे। लेकिन जीवन में आग लगी हो, तो अधिकतम लोग ऐसे असल में निःसंशय व्यक्ति कभी नहीं पछताता। जीवन का
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गीता दर्शन भाग-26
अंतिम जोड़ हमारे किए हुए का जोड़ कम, हमारे लिए गए निःसंशय | | एक युवक आज संध्या संन्यास लेने के लिए बैठा हुआ था मेरे निर्णय का जोड़ ज्यादा है। जिंदगी के अंत में, जो किया, वह खो पास। एक बार भीतर गया, फिर बाहर आया; फिर उसने कहा कि जाता है; लेकिन जिसने किया, जिस मन ने, करने, और करने, मैं दुबारा भीतर आता है। फिर भीतर आया। फिर कहा कि मैं और
और करने, और निर्णय लेने की क्षमता और संकल्प का बल और जरा बाहर जाकर सोचता हूं। फिर वह कुर्सी पर बैठकर सोचता असंशय रहने की योग्यता इकट्ठी होती चली जाती है। वही अंतिम | | रहा, सोचता रहा! मैं दो-चार बार आस-पास से उसके गुजरा और हमारे हाथ में संपदा होती है। हमारे निःसंशय किए गए निर्णय की | मैंने पूछा, सोचा? उसने कहा कि जरा सोचता हूं। क्षमता ही हमारी आत्मा होती है।
| एक और मजे की बात है। जब क्रोध आता है. तब कभी इतना उस आदमी ने पूछा, मैं भी ऐसा करना चाहता हूं, लेकिन पता | सोचते हैं? जब घृणा आती है कभी, तब कभी इतना सोचते हैं? नहीं चलता कि अवसर कब आता है! तुम्हें कैसे पता चलता है कि | जब वासना उठती है मन में, तब कभी इतना सोचते हैं? नहीं, बुरे
अवसर आता है? और अगर कभी अवसर आता ही है, तो जब | में तो हम बड़े असंशय चित्त से लागू होते हैं। बुरा आ जाए द्वार तक पता चलता है, तब तक जा चुका होता है! तो तुम छलांग कैसे | पर, तो हम कहते हैं, आओ, स्वागत है! तैयार ही खड़े थे द्वार पर लगाते हो पकड़ने को?
हम। शुभ आए, तो बहुत सोचते हैं! तो रथचाइल्ड ने कहा कि मैं छलांग लगाता नहीं, मैं छलांग | यह भी बहुत मजे की बात है कि आदमी बुरे को करने में संशय लगाता ही रहता हूं। जब भी अवसर आए, सवार हो जाता हूं। ऐसा नहीं करता, शुभं को करने में संशय करता है। क्यों? क्योंकि बुरे नहीं कि मैं खड़ा देखता रहता हूं कि अवसर आएगा, तो छलांग को करना पतन की तरह है; पहाड़ से पत्थर की तरह नीचे ढुलकना लगाऊंगा और सवार हो जाऊंगा। क्योंकि जब अवसर आएगा, है। उसमें कुछ करना नहीं पड़ता। पत्थर तो महज जमीन की कशिश
और जब तक मुझे पता चलेगा, तब तक जा चुका होगा। इस जगत से खिंचा चला आता है। लेकिन शुभ, पर्वत शिखर की चढ़ाई है, में सब क्षणभंगुर है। मैं छलांग लगाता ही रहता हूं। आई कंटीन्यू गौरीशंकर की। चढ़ना पड़ता है। कदम-कदम भारी पड़ते हैं। और जंपिंग, मैं कूदता ही रहता हूं। कभी भी अवसर आ जाए, अवसर | | जैसे-जैसे शिखर पर ऊपर बढ़ती है यात्रा, वैसे-वैसे भारी पड़ते का घोड़ा, वह मुझे उचकता हुआ ही पाता है। मेरी छलांग लगती हैं। फिर एक-एक बोझ निकालकर फेंकना पड़ता है। अगर बहुत ' ही रहती है। क्योंकि रथचाइल्ड ने कहा, छलांग व्यर्थ चली जाए, | सोना-चांदी ले आए कंधे पर, तो छोड़ना पड़ता है। गौरीशंकर के इसमें कोई हर्ज नहीं है; लेकिन अवसर का घोड़ा खाली निकल | शिखर तक जाने के लिए कंधे पर सोने-चांदी के बोझ को नहीं ढोया जाए, इसमें बहुत हर्ज है।
जा सकता। धीरे-धीरे शिखर तक पहुंचते-पहुंचते सब फेंक देना कृष्ण जब कहते हैं, संशयात्मा विनाश को उपलब्ध हो जाता है, | पड़ता है। वस्त्र भी बोझिल हो जाते हैं। ठीक ऐसे ही शुभ की यात्रा तो वे और भी गहरे अवसर की बात कर रहे हैं। रथचाइल्ड तो इस है। एक-एक चीज छोड़ते जानी पड़ती है। संसार के अवसरों की बात कर रहा है। कृष्ण तो परम अवसर की | | अशुभ की यात्रा, सब पकड़ते चले जाओ; बीच में पड़े हुए बात कर रहे हैं कि जीवन एक परम अवसर है, इस परम अवसर | पत्थरों के साथ भी आलिंगन कर लो। वे भी लुढ़कने लगेंगे। सब में कोई चाहे तो परम उपलब्धि को पा सकता है-आनंद को, इकट्ठा करते चले आओ। बढ़ाते चले जाओ। कुछ छोड़ना नहीं एक्सटैसी को, हर्षोन्माद को। उस उपलब्धि को पा सकता है कि | पड़ता। पकड़ते चले जाओ, बढ़ाते चले जाओ। और गड्ढे में गिरते जहां सब जीवन का कण-कण नाच उठता और अमृत से भर जाता चले जाओ! जमीन खींचती चली जाती है। है; जहां जीवन का सब अंधेरा टूट जाता; और जहां जीवन के सब क्रोध के लिए कोई सोचता नहीं। अगर कोई आदमी क्रोध के फूल सुवासित हो खिल उठते हैं; जहां जीवन का प्रभात होता है | लिए दो क्षण सोच ले, तो क्रोध से भी बच जाएगा। और दो क्षण और आनंद के गीत का जन्म होता है।
अगर संन्यास के लिए भी सोच ले, तो संन्यास से भी चूक जाएगा। उस परम उपभोग के क्षण को हम चूक रहे हैं प्रतिपल, संशय ___ अशुभ के साथ जितना सोचें, उतना अच्छा। शुभ के साथ के कारण। संशय कठिनाई में डालता है। जब भी कोई अवसर | | जितना निःसंशय हों, उतना अच्छा। आता, हम बैठकर सोचते हैं, करें न करें!
फिर यह भी ध्यान रख लें कि अशुभ को करके भी कुछ नहीं
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संशयात्मा विनश्यति
मिलता, अशुभ में सफल होकर भी कुछ नहीं मिलता और शुभ में असफल होकर भी बहुत कुछ मिलता है। शुभ मार्ग पर असफल हुआ भी बहुत सफल है। अशुभ के मार्ग पर सफल हुआ भी बिलकुल असफल है। नहीं; जीवन के अंत में कुछ हाथ आता नहीं है।
सिकंदर मरा। जिस गांव में उसकी अर्थी निकली, गांव के लोग चकित हुए, उसके दोनों हाथ अर्थी के बाहर लटके हुए थे। लोग पूछने लगे, ये हाथ बाहर क्यों हैं? कभी किसी अर्थी के बाहर हाथ नहीं देखे! तो पता चला कि सिकंदर ने मरते समय अपने मित्रों को कहा, मेरे दोनों हाथ बाहर लटके रहने देना। मित्रों ने कहा, रिवाज नहीं ऐसा । हमने कोई अर्थी के हाथ बाहर लटके नहीं देखे ! सिकंदर ने कहा, न हो रिवाज। बेईमान रहे होंगे वे लोग, जिन्होंने हाथ अर्थी के भीतर रखे। मेरे हाथ बाहर लटके रहने देना। मित्रों ने कहा, कैसी बातें करते हैं! क्या फायदा होगा ? मतलब क्या ? प्रयोजन क्या ? सिकंदर ने कहा, मैं चाहता हूं कि लोग ठीक से देख लें, मैं खाली हाथ जा रहा हूं। वह जिंदगीभर जो मैंने इकट्ठा किया, उससे हाथ भरे नहीं ।
सफल बहुत था सिकंदर। कम ही लोग इतने सफल होते हैं। पर मरते क्षण सिकंदर को यह खयाल कि मेरे हाथ खाली लोग देख लें; समझें कि सिकंदर भी असफल गया है - रिक्त, खाली हाथ ।
असफलता भी शुभ के मार्ग पर बड़ी सफलता है । साधु के पास कुछ भी नहीं होता, फिर भी बंधे हाथ जाता है; बहुत कुछ लेकर जाता है। कम से कम अपने को लेकर जाता है। आत्मा को विनष्ट करके नहीं जाता; आत्मा को निर्मित करके, सृजन करके, क्रिएट करके जाता है। इस पृथ्वी पर इस जीवन में उससे बड़ी कोई उपलब्धि नहीं है कि कोई अपने को पूरा जानकर और पाकर जाता है।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, संशय विनाश कर देता है अर्जुन! और अर्जुन बड़े संशय से भरा हुआ है। अर्जुन एकदम ही संशय से भरा हुआ है। उसे कुछ सूझ नहीं रहा है, क्या करे, क्या न करे ! बड़ा डांवाडोल है उसका चित्त | अर्जुन शब्द का भी मतलब डांवाडोल होता है। ऋजु कहते हैं सरल को, सीधे को; अऋजु कहते हैं इरछे-तिरछे को, विषम को ।
जो भी डांवाडोल है, इरछा-तिरछा होता है। वह ऐसे चलता है, जैसे शराबी चलता है। एक पैर इधर पड़ता है, एक पैर उधर पड़ता है। कभी बाएं घूम जाता है, कभी दाएं घूम जाता है। गति धी नहीं होती।
निःसंशय चित्त की गति स्ट्रेट, सीधी होती है। संशय से भरे चित्त की गति सदा डांवाडोल होती है। रखता है पैर, नहीं रखना चाहता। फिर उठा लेता है। फिर रखता है; फिर नहीं रखना चाहता। अर्जुन वैसी ही स्थिति में है।
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फिर कृष्ण साथ में यह भी कहते हैं, भगवत्प्रेम को उपलब्ध ! जगत में तीन प्रकार के प्रेम हैं । एक, वस्तुओं का प्रेम । जिससे हम सब परिचित हैं। जिससे हम सब परिचित हैं। अधिकतर ह वस्तुओं के प्रेम से ही परिचित हैं । दूसरा, व्यक्तियों का प्रेम | कभी लाख में एकाध आदमी व्यक्ति के प्रेम से परिचित होता है। लाख में एक कह रहा हूं। सिर्फ इसलिए कि आपको अपने को बचाने की सुविधा रहे ! समझें कि दूसरे, मैं तो लाख में एक हूं ही!
नहीं; इस तरह बचाना मत।
एक फ्रेंच चित्रकार सीजां एक गांव में ठहरा। उस गांव के होटल के मैनेजर ने कहा, यह गांव स्वास्थ्य की दृष्टि से बहुत अच्छा है। | यह पूरी पहाड़ी अदभुत है। सीजां ने पूछा, इसके अदभुत होने का राज, रहस्य, प्रमाण? उस मैनेजर ने कहा, राज और रहस्य तो तुम रहोगे यहां, पता चल जाएगा। प्रमाण यह है कि इस पूरी पहाड़ी पर एक आदमी से ज्यादा प्रतिदिन नहीं मरता है। सीजां ने जल्दी से पूछा कि आज मरने वाला आदमी मर गया या नहीं ? नहीं तो मैं भागूं ।
आदमी अपने को बचाने के लिए बड़ा आतुर है। तो अगर मैं कहूं, लाख में एक; आप कहेंगे, बिलकुल ठीक। छोड़ा अपने को। आपको भर नहीं छोड़ रहा हूं, खयाल रखना ।
|
लाख में एक आदमी व्यक्ति के प्रेम को उपलब्ध होता है। शेष आदमी वस्तुओं के प्रेम में ही जीते हैं। आप कहेंगे, हम व्यक्तियों को प्रेम करते हैं। लेकिन मैं आपसे कहूंगा, वस्तुओं की भांति, व्यक्तियों की भांति नहीं ।
आज एक मित्र आए संन्यास लेने; पत्नी को साथ लेकर आए। पत्नी को समझाया, कि नहीं, वे घर छोड़कर नहीं जाएंगे। पति ही रहेंगे। पिता ही रहेंगे। संन्यास उनकी आंतरिक घटना है। चिंतित मत होओ। घबड़ाओ मत ! लेकिन उस पत्नी ने कहा कि नहीं, मैं संन्यास नहीं लेने दूंगी। मैंने कहा, कैसा प्रेम है यह? अगर प्रेम गुलामी बन जाए, तो प्रेम है? प्रेम अगर स्वतंत्रता न दे, तो प्रेम है ? प्रेम अगर जंजीरें बन जाए, तो प्रेम है? फिर यह पति व्यक्ति नहीं रहा, वस्तु हो गया; यूटिलिटेरियन; फिर यह व्यक्ति नहीं रहा। फिर पत्नी कहती है, मैं आज्ञा नहीं दूंगी, तो नहीं !
व्यक्ति का सम्मान न रहा, उसकी स्वतंत्रता का सम्मान न रहा;
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गीता दर्शन भाग-2
उसका कोई अर्थ न रहा; वह वस्तु हो गई।
हैं। क्योंकि जब हम प्रेम करते हैं, तभी वह व्यक्ति हमारी तरफ हम व्यक्तियों को प्रेम भी करते हैं, तो पजेस करते हैं, मालिक | खुलता है। जब हम प्रेम करते हैं, तब हम उसमें प्रवेश करते हैं। हो जाते हैं। मालिक व्यक्तियों का कोई नहीं हो सकता। सिर्फ जब हम प्रेम करते हैं, तब वह निर्भय होता है। जब हम प्रेम करते वस्तुओं की मालकियत होती है। अगर कोई पत्नी पति को पजेस | | हैं, तब वह छिपाता नहीं है। जब हम प्रेम करते हैं, तब वह उघड़ता करती है, कहती है, मालकियत है। कोई पति कहता है पत्नी को कि | है, खुलता है; भीतर बुलाता है, आओ; अतिथि बनो! ठहराता है मेरी हो; तो फर्नीचर में और पत्नी में बहुत भेद नहीं रह जाता है। हृदय के घर में। उपयोग हो गया, लेकिन व्यक्ति का सम्मान न हुआ। उस दूसरे जब कोई व्यक्ति प्रेम करता है किसी को, तभी जान पाता है। व्यक्ति की निज आत्मा का कोई आदर न हुआ।
अगर अस्तित्व को कोई प्रेम करता है, तभी जान पाता है परमात्मा वस्तुओं को ही हम प्रेम करते हैं, इसलिए व्यक्तियों को भी प्रेम | को। भगवत्प्रेम का अर्थ है, जो भी है, उसके होने के कारण प्रेम। करते हैं, तो उनको भी वस्तु बना लेते हैं।
कुर्सी को हम प्रेम करते हैं, क्योंकि उस पर हम बैठते हैं, आराम दूसरा प्रेम, व्यक्तियों का जो प्रेम है, वह कभी लाख में एक | | करते हैं। टूट जाएगी टांग उसकी, कचरेघर में फेंक देंगे। उसका आदमी को, मैंने कहा, उपलब्ध होता है। व्यक्ति के प्रेम का अर्थ कोई व्यक्तित्व नहीं है। हटा देंगे। जो लो को भी इसी भांति है. दसरे का अपना मल्य है: मेरी उपयोगिता भर मल्य नहीं है | प्रेम करते हैं, उनका भी यही है। पति को कोढ़ हो जाएगा, तो पत्नी उसका। यूटिलिटेरियन में उसका उपयोग कर लूं-इतना ही डायवोर्स दे देगी, अदालत में तलाक कर देगी। टूट गई टांग कुर्सी उसका मूल्य नहीं है। उसका अपना निज मूल्य है। वह मेरा साधन की। हटाओ! पत्नी कुरूप हो जाएगी, रुग्ण हो जाएगी, अस्वस्थ नहीं है। वह स्वयं अपना साध्य है।
हो जाएगी, अंधी हो जाएगी; पति तलाक कर देगा। हटाओ! तब कांट ने, इमेनुएल कांट ने कहा है-नीति के परम सूत्रों में एक तो वस्तु हो गए लोग। सूत्र। अनीति के लिए कांट कहता है, अनीति का एक ही अर्थ है, जो व्यक्ति सिर्फ वस्तुओं को प्रेम करता है, उसके लिए सारा दूसरे व्यक्ति का साधन की तरह उपयोग करना अनैतिक है। और | जगत मैटीरियल हो जाता है, वस्तु मात्र हो जाता है। व्यक्ति में भी दूसरे व्यक्ति को साध्य मानना नैतिक है।
वस्तु दिखाई पड़ती है। और भगवत चैतन्य तो कहीं दिखाई नहीं पड़ गहरे से गहरा सूत्र है कि दूसरा व्यक्ति अपना साध्य है स्वयं। सकता। मैं उससे प्रेम करता हूं एक व्यक्ति की भांति, एक वस्तु की भांति | | भगवत चैतन्य को अनुभव करने के लिए पहले वस्तुओं के प्रेम नहीं। इसलिए मैं उसका मालिक कभी भी नहीं हो सकता हूं। । | से व्यक्तियों के प्रेम तक उठना पड़ता है; फिर व्यक्तियों के प्रेम से
लेकिन व्यक्ति के प्रेम को ही हम उपलब्ध नहीं होते। | अस्तित्व के प्रेम तक उठना पड़ता है। जो व्यक्ति व्यक्तियों को प्रेम फिर तीसरा प्रेम है, भगवत्प्रेम। वह अस्तित्व का प्रेम है, लव | | करता है, वह मध्य में आ जाता है। एक तरफ वस्तुओं का जगत टुवर्ड्स दि एक्झिस्टेंस। लव टुवर्ड्स दि पर्सन, एंड लव टुवर्ड्स होता है, दूसरी तरफ भगवान का अस्तित्व होता है, पूरा अस्तित्व। थिंग्स, आब्जेक्ट्स। वस्तुओं के प्रति प्रेम, मकान, धन-दौलत, | | इन दोनों के बीच खड़ा हो जाता है। उसे दोनों तरफ दिखाई पड़ने पद-पदवी! व्यक्तियों के प्रति प्रेम, मनुष्य! अस्तित्व के प्रति प्रेम, | | लगता है। एक तरफ वस्तुओं का संसार है और एक तरफ अस्तित्व भगवत्प्रेम है। समग्र अस्तित्व को प्रेम।
का लोक है। फिर वह आगे बढ़ सकता है। अब इसको थोड़ा ठीक से देख लेना जरूरी है। जब हम वस्तुओं । सुना है मैंने, रामानुज एक गांव से गुजरते हैं। और एक आदमी को प्रेम करते हैं, तो हमें सारे जगत में वस्तुएं ही दिखाई पड़ती हैं, आया। और उसने कहा कि मुझे भगवान से मिला दें। मुझे भगवान कोई परमात्मा दिखाई नहीं पड़ता। क्योंकि जिसे हम प्रेम करते हैं, | | से प्रेम करा दें। मैं भगवत्प्रेम का प्यासा हूं। रामानुज ने कहा, ठहरो, उसे ही हम जानते हैं। प्रेम जानने की आंख है। प्रेम के अपने ढंग इतनी जल्दी मत करो। तुमसे मैं कुछ पूछू। तुमने कभी किसी को हैं जानने के। सच तो यह है कि प्रेम ही इंटिमेट नोइंग है। आंतरिक, प्रेम किया? उसने कहा, कभी नहीं, कभी नहीं। मुझे तो सिर्फ आत्मीय जानना प्रेम ही है।
भगवान का प्रेम है। रामानुज ने कहा, कभी किसी को किया हो इसलिए जब हम किसी व्यक्ति को प्रेम करते हैं, तभी हम जानते भूल-चूक से? उस आदमी ने कहा, बेकार की बातों में समय क्यों
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@ संशयात्मा विनश्यति
जाया करवा रहे हैं? प्रेम इत्यादि से मैं सदा दर रहा है। मैंने कभी ___ इसलिए आज अमेरिका या फ्रांस में या इंगलैंड में लोग कहते किसी को प्रेम किया ही नहीं। रामानुज ने कहा, फिर तुमसे कहता | हैं, एक बच्चे की बजाय एक टेलीविजन सेट खरीद लेना बेहतर। हूं एक बार; एकाध बार, सोचो, किसी को किया हो—किसी पौधे | | टेलीविजन सेट! जब चाहो बटन दबाओ, चले; बंद करो, बंद हो को किया हो, किसी आदमी को किया हो, किसी स्त्री को किया हो, जाए। आन-आफ होता है। किसी बच्चे को किया हो—किसी को भी किया हो!
व्यक्ति आन-आफ नहीं होता। उसको आप नहीं कर सकते स्वभावतः, उस आदमी ने सोचा कि अगर मैं कहूं कि मैंने किसी आन-आफ। एक छोटे-से बच्चे को मां दबा-दबाकर सुला रही है। को प्रेम किया है, तो रामानुज कहेंगे कि अयोग्य है तू। इसलिए | | आफ करना चाह रही है। वे आन हो-हो जा रहे हैं! उठ-उठ आ उसने कहा, मैंने किया ही नहीं। साफ कहता हूं। प्रेम से मैं सदा दूर | रहे हैं! वे कह रहे हैं कि नहीं, अभी नहीं सोना है। छोटा-सा बच्चा रहा हूं। मुझे तो भगवत्प्रेम की आकांक्षा है।
| भी इनकार करता है कि उसके साथ वस्तु जैसा व्यवहार न किया रामानुज ने कहा कि फिर मैं बड़ी मुश्किल में हूं। फिर मैं कुछ | | जाए। उसके भीतर परमात्मा है। भी न कर पाऊंगा। क्योंकि अगर तूने किसी को थोड़ा भी प्रेम किया | __ व्यक्ति से प्रेम करने में डर लगता है। क्योंकि व्यक्ति स्वतंत्रता होता, तो उसी प्रेम की किरण के सहारे मैं तुझे भगवत्प्रेम के सूरज | | मांगेगा। वस्तुओं से प्रेम करना बड़ा सुविधापूर्ण है; स्वतंत्रता नहीं तक पहुंचा देता। थोड़ा-सा भी तूने किसी में झांका होता प्रेम से, तो | | मांगते। तिजोरी में बंद किया; ताला डाला; आराम से सो रहे हैं। मैं तुझे पूरे अस्तित्व के द्वार में धक्का दे देता। लेकिन तू कहता है | | रुपए तिजोरी में बंद हैं। न भागते, न निकलते; न विद्रोह करते, न कि तूने किया ही नहीं। यह तो ऐसे हुआ कि मैं किसी आदमी से | | बगावत करते; न कहते कि आज इरादा नहीं है चलने का हमारा, पूछ् कि तूने कभी रोशनी देखी, दीया देखा? मिट्टी का दीया जलता | | आज नहीं चलेंगे! नहीं; जब चाहो, तब हाजिर होते हैं; जैसा चाहो, हुआ देखा? वह कहे, नहीं, मुझे तो सूरज दिखा दें। मैंने दीया कभी | | वैसा हाजिर होते हैं। वस्तुएं गुलाम हो जाती हैं, इसलिए हम देखा ही नहीं। पूछता हूं कि कभी तुझे एकाध किरण छप्पर में से | वस्तुओं को चाहते हैं। फूटती हुई दिखाई पड़ी हो? वह कहे, कहां की बातें कर रहे हैं? जो आदमी भी दूसरे की स्वतंत्रता नहीं चाहता, वह आदमी किरण वगैरह से अपना कोई संबंध ही नहीं है। हम तो सूरज के प्रेमी व्यक्ति को प्रेम नहीं कर पाएगा। और जो व्यक्ति को प्रेम नहीं कर हैं। तो रामानुज ने कहा कि जैसे उस आदमी से मुझे कहना पड़े कि | पाएगा, वह भगवत्प्रेम के झरोखे पर ही नहीं पहुंचा, तो भगवत्प्रेम क्षमा कर तू किरण भी नहीं खोज पाया, सूरज तक तुझे कैसे के आकाश में तो उतरने का उपाय नहीं है। पहुंचाऊं? क्योंकि हर किरण सूरज का रास्ता है।
भगवत्प्रेम का अर्थ है, सारा जगत एक व्यक्तित्व है, दि होल व्यक्ति का प्रेम भी भगवत्प्रेम की शुरुआत है। व्यक्ति का प्रेम | | एक्झिस्टेंस इज़ पर्सनल। भगवत्प्रेम का अर्थ है, जगत नहीं है, एक छोटी-सी खिड़की है, झरोखा, जिसमें से हम किसी एक | | भगवान है। इसका मतलब समझते हैं ? अस्तित्व नहीं है, भगवान व्यक्ति में से परमात्मा को देखते हैं। खिड़की! अगर, रामानुज ने है। क्या मतलब हुआ इसका? इसका मतलब हुआ कि हम पूरे कहा, तू एक में भी झांक सका हो, तो फिर मैं तुझे सब में झांकने अस्तित्व को व्यक्तित्व दे रहे हैं। हम पूरे अस्तित्व को कह रहे हैं की कला बता दूं। लेकिन तू कहता है, तूने कभी झांका ही नहीं! कि तू भी है; हम तुझसे बात भी कर सकते हैं।
हम वस्तुओं में जीते हैं। हम व्यक्तियों में भी झांकते नहीं। क्यों? | इसलिए भक्त-भक्त का अर्थ है, जगत को जिसने व्यक्तित्व क्या बात है? वस्तुओं के साथ बड़ी सुविधा है, व्यक्तियों के साथ दिया। भक्त का अर्थ है, जगत को जिसने भगवान कहा। भक्त का झंझट है। छोटे-से व्यक्ति के साथ! घर में एक बच्चा पैदा हो जाए। | अर्थ है, ऐसा प्रेम से भरा हुआ हृदय, जो इस पूरे अस्तित्व को एक अभी दो साल का बच्चा है, लेकिन वह भी एक उपद्रव है। व्यक्ति व्यक्ति की तरह व्यवहार करता है। सुबह उठता है, तो सूरज को है। वह भी स्वतंत्रता मांगता है। उससे कहो, इस कोने में बैठो। तो | | हाथ जोड़कर नमस्कार करता है। सूरज को नमस्कार नासमझ नहीं फिर उस कोने में बिलकुल नहीं बैठता है! उससे कहो, बाहर मत | | कर रहे हैं। हालांकि बहुत-से नासमझ कर रहे हैं। लेकिन जिन्होंने जाओ, तो बाहर जाता है! उससे कहो, फलां चीज मत छुओ, तो | | शुरू किया था, वे नासमझ नहीं थे। छूकर दिखलाता है कि मेरी भी आत्मा है। मैं भी हूं। आप ही नहीं हैं। सूरज को नमस्कार उस आदमी ने किया था, जिसने सारे
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गीता दर्शन भाग-20
अस्तित्व को व्यक्तित्व दे दिया था। फिर सूरज का भी व्यक्तित्व | कहती हैं। गाता है। नाचता है। बोलता क्यों नहीं है? बेईमान है। था। तो हमने कहा, सूर्य देवता है; रथ पर सवार है; घोड़ों पर जुता जासूस है! उन्होंने भाला उसकी छाती में भोंक दिया। हआ है. दौडता है आकाश में। सबह होता. जागता: सांझ होता. उस संन्यासी ने संकल्प लिया हआ था कि एक ही शब्द अस्त होता। ये बातें वैज्ञानिक नहीं हैं; ये बातें धार्मिक हैं। ये बातें। | बोलूंगा-आखिर, अंतिम, मृत्यु के द्वार पर। इस जगत से पार पदार्थगत नहीं हैं; ये बातें आत्मगत हैं।
| होते हुए धन्यवाद का एक शब्द इस पार बोलकर विदा हो जाऊंगा। नदियों को नमस्कार किया; व्यक्तित्व दे दिया। वृक्षों को कठिन पड़ा होगा उसको कि क्या शब्द बोले! मुश्किल पड़ा नमस्कार किया; व्यक्तित्व दे दिया। सारे जगत को व्यक्तित्व दे होगा! एक ही वाक्य बोलना है-अंतिम! दिया। कहा कि तुममें भी व्यक्तित्व है। आज भी आप कभी किसी छाती में घुस गया भाला। खून के फव्वारे बरसने लगे। वह जो पीपल के पास नमस्कार करके गुजर जाते हैं। लेकिन आपने खयाल | नाचता था हृदय, मरने के करीब पहुंच गया। उस संन्यासी ने कहा, नहीं किया होगा कि जो आदमी, आदमियों को वस्तु जैसा व्यवहार तत्वमसि श्वेतकेतु! उपनिषद का महावाक्य। उसने कहा, श्वेतकेतु, करता है, उसका पीपल को नमस्कार करना एकदम सरासर झूठ है। | तू भी वही है। दैट आर्ट दाऊ। तू भी वही है। पीपल को तो वही नमस्कार कर सकता है, जो जानता है कि पीपल नहीं समझे होंगे वे अंग्रेज सिपाही। लेकिन उसने उस सिपाही से भी व्यक्ति है, वह भी परमात्मा का हिस्सा है; उसके पत्ते-पत्ते में | | कहा, तू भी वही है-तत्वमसि! उस अंग्रेज सिपाही से, जिसने भी उसी की छाप है। कंकड़-कंकड़ में भी उसी की पहचान है। | उसकी छाती में भोंका भाला, उससे उसने कहा, तू भी वही है। जगह-जगह वही है अनेक-अनेक रूपों में। चेहरे होंगे भिन्न; वह | इस खिड़की में से भी वह उसी को देख पाया। इस भाला भोंकती जो भीतर छिपा है, भिन्न नहीं है। आंखें होंगी अनेक, लेकिन जो | | हुई खिड़की में से भी उसी का दर्शन हुआ। भगवत्प्रेम को उपलब्ध झांकता है उनसे, वह एक है। हाथ होंगे अनंत, लेकिन जो स्पर्श | हुआ होगा, तभी ऐसा हो सकता है, अन्यथा नहीं हो सकता है। करता है उनसे, वह वही है।
भगवत्प्रेम का अर्थ है, सारा जगत व्यक्ति है। व्यक्तित्व है जगत गदर के समय, म्यूटिनी के समय, अठारह सौ सत्तावन में, एक | | के पास अपना, उससे बात की जा सकती है। इसलिए भक्त बोल मौन संन्यासी, जो पंद्रह वर्ष से मौन था। नग्न संन्यासी। रात गुजर लेता है उससे। रहा था। चांदनी रात थी। चांद था आकाश में। वह नाच रहा था। __ मीरा पागल मालूम पड़ती है दूसरों को, क्योंकि वह बातें कर रही धन्यवाद दे रहा था चांद को। उसे पता नहीं था कि उसकी मौत | है कृष्ण से। हमें पागल मालूम पड़ेगी, क्योंकि हमारे लिए तो करीब है।
वस्तुओं के अतिरिक्त जगत में कुछ भी नहीं है। व्यक्ति भी नहीं हैं, नाचते हुए नग्न वह निकला नदी की तरफ। बीच में अंग्रेज फौज तो परम व्यक्ति तो होगा कैसे? लेकिन मीरा बातें कर रही है उससे! का पड़ाव था। फौजियों ने समझा कि यह कोई जासूस मालूम पड़ता सूरदास उसका हाथ पकड़कर चल रहे हैं! आदान-प्रदान हो रहा है। तरकीब निकाली है इसने कि नग्न होकर गीत गाता हुआ फौजी है। डायलाग है। चर्चा होती है। प्रश्न-उत्तर हो जाते हैं। पूछा जाता पड़ाव में से गजर रहा है। उन्होंने उसे पकड़ लिया। और जब उससे है, प्रतिसंवाद हो जाता है। व्यक्ति! पूछताछ की और वह नहीं बोला, तब शक और भी पक्का हो गया | ___ जब जीसस सूली पर लटके और उन्होंने ऊपर आंख उठाकर कि वह जासूस है। बोलता क्यों नहीं? हंसता है, मुस्कुराता है, | कहा कि हे प्रभु, माफ कर देना इन सबको, क्योंकि इन्हें पता नहीं नाचता है, बोलता क्यों नहीं?
| कि ये क्या कर रहे हैं; तब यह आकाश से नहीं कहा होगा। आकाश मैंने कहा, गीत गाता हुआ, वाणी से नहीं। ऐसे भी गीत हैं, जो | | से कोई बोलता है? यह आकाश में उड़ते पक्षियों से नहीं कहा प्राणों से गाए जाते हैं। ऐसे भी गीत हैं, जो शून्य में उठते और शून्य | होगा। पक्षियों से कोई बोलता है? भीड़ खड़ी थी नीचे, उसने भी में ही खो जाते हैं। वह तो मौन था, शब्द से तो चुप था। पर गीत आकाश की तरफ देखा होगा; लेकिन आकाश में चलती हुई सफेद गाता हुआ, नाचता हुआ, अपने समग्र अस्तित्व से पूर्णिमा के चांद | | बदलियों के अलावा कुछ भी दिखाई नहीं पड़ा होगा। नीला को धन्यवाद देता हुआ!
| आकाश-खाली और शून्य। हंसे होंगे मन में कि पागल है। सिपाहियों ने कहा कि बोलता क्यों नहीं है? मुस्कुराता है। आंखें लेकिन जीसस के लिए सारा जगत प्रभु है। कह दिया, क्षमा कर
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संशयात्मा विनश्यति
देना इन्हें, क्योंकि इन्हें पता नहीं कि ये क्या कर रहे हैं। भगवत्प्रेम हो, तो व्यक्ति और परम व्यक्ति के बीच चर्चा हो पाती है, संवाद हो पाता है, आदान-प्रदान हो पाता है। और उससे मधुर संवाद, उससे मीठा लेन-देन, उससे प्रेमपूर्ण पत्र-व्यवहार और कोई भी नहीं है। प्रार्थना उसका नाम है। भगवत्प्रेम में वह घटित होती है।
कृष्ण कहते हैं, संशयमुक्त, भगवत्प्रेम से भरा हुआ व्यक्ति इस लोक में भी आनंद को उपलब्ध होता है, परलोक में भी । संशय से भरा हुआ, भगवत्प्रेम से रिक्त, इस लोक में भी दुख पाता है, उस लोक में भी।
दुख हमारा अपना अर्जन है, हमारी अपनी अर्निंग है। हमारा अपना अर्जित है दुख। दुख पाना हमारी नियति नहीं, हमारी भूल है। । दुख पाने के लिए हमारे अतिरिक्त और कोई उत्तरदायी नहीं है, और कोई रिस्पांसिबल नहीं है। दुखी हैं, तो कारण है कि संशय को जगह देते हैं। दुखी हैं, तो कारण है कि व्यक्ति को खोजा नहीं; परम व्यक्ति की तरफ गए नहीं ।
आनंदित जो होता है, उसके ऊपर परमात्मा कोई विशेष कृपा नहीं करता है। वह केवल उपयोग कर लेता है जीवन के अवसर का और प्रभु के प्रसाद से भर जाता है।
गड्ढे हैं। वर्षा होती है, तो गड्ढों में पानी भर जाता है और झीलें बन जाती हैं। पर्वत के शिखरों पर भी वर्षा होती है, लेकिन पर्वत के शिखरों पर झील नहीं बनती। पानी नीचे बहकर गड्ढों में पहुंचकर झील बन जाती है। पर्वत शिखरों पर भी वर्षा होती है, लेकिन वे पहले से ही भरे हुए हैं, उनमें जगह नहीं है कि पानी भर जाए। झीलों पर वर्षा होती है, तो भर जाता है। झीलें खाली हैं, इसलिए भर जाता है।
व्यक्ति संशय से भरा है, भगवत्प्रेम से खाली है, उसके पास संशय का पहाड़ होता है। ध्यान रखें, बीमारियां अकेली नहीं आतीं; बीमारियां सदा समूह में आती हैं। बीमारियां भीड़ में आती हैं। ऐसा नहीं होता है कि किसी आदमी में एक संशय मिल जाए। जब संशय होता है, तो अनेक संशय होते हैं। संशय भी भीड़ में आते हैं, एक नहीं आता। स्वास्थ्य अकेला आता है, बीमारियां भीड़ में आती हैं। श्रद्धा अकेली आती है, संशय बहुवचन में आते हैं।
संशय से भरा हुआ आदमी पहाड़ बन जाता है संशय का । उस पर भी प्रभु का प्रसाद बरसता है, लेकिन भर नहीं पाता। संशयमुक्त झील बन जाता है— गड्डा, खाली, शून्य - प्रभु के प्रसाद को ग्रहण
करने के लिए गर्भ बन जाता है । स्वीकार कर लेता है।
इसलिए ध्यान रखें, निरंतर भक्तों ने अगर भगवान को प्रेमी की तरह माना, तो उसका कारण है। अगर भक्त इस सीमा तक चले गए कि अपने को स्त्रैण भी मान लिया और प्रभु को पति भी मान लिया, तो उसका भी कारण है। कारण है। और वह कारण है, गड्डा बनना है, ग्राहक बनना है, रिसेप्टिव बनना है । स्त्री ग्राहक है, रिसेप्टिव है; गर्भ बनती है; स्वीकार करती है। नए को अपने भीतर | जन्म देती है, बढ़ाती है। अगर भक्तों को ऐसा लगा कि वे प्रेमिकाएं बन जाएं प्रभु की, तो उसका कारण है। इसीलिए कि वे गड्ढे बन जाएं, प्रभु उनमें भर जाए।
लेकिन जो अहंकार के शिखर हैं, वे खाली रह जाते हैं। और जो विनम्रता के गड्ढे हैं, वे भर जाते हैं।
प्रभु का प्रसाद प्रतिपल बरस रहा है। उसके प्रसाद की उपलब्धि आनंद है, उसके प्रसाद से वंचित रह जाना संताप है, दुख है।
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योगसंन्यस्तकर्माणं ज्ञानसंछिन्नसंशयम् । आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनंजय ।। ४१ । ।
हे धनंजय, समत्वबुद्धिरूप योग द्वारा भगवत अर्पण कर दिए हैं संपूर्ण कर्म जिसने और ज्ञान द्वारा नष्ट हो गए हैं सब संशय जिसके, ऐसे परमात्मपरायण पुरुष को कर्म नहीं बांधते हैं।
सं
शयरहित जो हो गया, कर्म जिसने अपने समर्पित कर दिए प्रभु को, बेशर्त दान है जिसका स्वयं का समग्र को अपनी तरफ जो शून्य हो रहा; कह दिया प्रभु को पूर्ण जिसने ऐसे पुरुष को समर्पित, शून्य हुए, विनम्र, निःसंशय, भगवत्प्रेम से भरे हुए - ऐसे पुरुष को कर्म नहीं बांधते हैं। कृष्ण बार-बार अर्जुन को हजार-हजार मार्गों से कह रहे हैं कि अर्जुन, तू वह राज समझ ले, जिससे कर्म करते हुए भी बंधन नहीं बनता है।
समर्पण कर दिए जिसने सब कर्म प्रभु को, उसे बंधन नहीं होता है । फिर बंधेगा, तो प्रभु खुलेगा, तो प्रभु । अपनी तरफ से उसने सारा बोझ उसे दे दिया है।
समर्पण ही लेकिन कठिनाई है। अहंकार बाधा है। अहंकार
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गीता दर्शन भाग-2
कहता है, मैं हूं। समर्पण कहेगा, तू है। अहंकार कहता है, मैं सब सोचा प्रेमी ने कि ठीक ही है बात। जब तक मैं हूं, तब तक प्रेम कुछ। समर्पण कहता है, मैं कुछ भी नहीं। और अहंकार इतना | | कैसा? क्योंकि प्रेम तो तभी है, जब तू ही है, मैं नहीं हूं। लौट गया। चालाक है, इतने सूक्ष्म हैं मार्ग उसके, इतनी महीन हैं तरकीबें | पुराना प्रेमी रहा होगा; ओल्ड फैशन्ड! नए ढंग का होता, बहुत उसकी; इतने होशियार, इतने गणित का खेल है उसका, कि जब | उपद्रव मचाता। कहानी पुरानी है, रूमी ने लिखी है। और फिर उस अहंकार कहता है, मैं कुछ भी नहीं, तब भी वह कहता है, मैं कुछ | | तरह के प्रेमी ने लिखी, जो प्रभु के द्वार की बात कर रहा है। हूं! कुछ भी नहीं हूं। मैं कुछ हूं। ना-कुछ होने में भी अहंकार खड़ा लौट गया प्रेमी। वर्ष आए और गए। वर्षाएं आईं और बीतीं; हो जाता है। समर्पण अति कठिन है।
पतझड़ हुए और चुके; वसंत खिले और मिटे। न मालूम कितने चांद रूमी ने एक छोटा-सा गीत लिखा है, वह इस सूत्र को समझाने | पूरे हुए और अस्त हुए। न मालूम कितना समय बीता! निश्चय ही को कहूं। रूमी ने लिखा है कि प्रेमी अपनी प्रेयसी के द्वार पर गया। अहंकार को मिटाना लंबी यात्रा है; आडूअस है; तपश्चर्यापूर्ण है। खटखटाया द्वार। जैसा कि प्रेमियों का मन आमतौर से होता है. फिर वर्ष, वर्ष, वर्ष बीतने के बाद पता भी न रहा कि कितना अपेक्षाओं से भरा, ऐसा ही उसका भी भरा है। खटखटाया द्वार; | समय बीता; वह प्रेमी वापस आया। द्वार खटखटाए। फिर वही आवाज नहीं दी। क्योंकि सोचा उस प्रेमी ने, मेरी खटखटाहट को आवाज भीतर से, कौन हो? लेकिन अब प्रेमी ने कहा, तू ही है। भी तो पहचान लेगी प्रेयसी! मेरी खटखटाहट नहीं पहचानेगी क्या? | और रूमी कहता है, द्वार खुल गए। तू ही है-द्वार खुल गए। मेरे पदचाप नहीं पहचानेगी क्या? प्रतीक्षा की होगी मेरी, तो जरूर समर्पण हुआ। छोड़ा मैं को। प्रेम के द्वार खुले। मेरे पदचापों की आहट भी मिल गई होगी। और चाहा होगा मुझे, लेकिन शायद इस पृथ्वी के लिए तो ठीक है कि जिसे हम प्रेम तो मेरे खटखटाने का ढंग भी तो मेरा है! नहीं दी आवाज; सिर्फ करें, उसके सामने मैं को छोड़ दें और तू को मान लें, तो द्वार खुल द्वार खटखटाया।
जाएं। लेकिन रूमी तो अब कहीं खोजे से मिलेगा नहीं, अन्यथा भीतर से पूछा उसकी प्रेयसी ने, कौन है द्वार पर! प्रेमी को दुख | उससे कहा कि अगर मेरा वश चले, तो कविता अभी भी पूरी नहीं हुआ। प्रेमी को सुख मुश्किल से ही होता है। अपेक्षाएं होती हैं। करूंगा। कहलाता फिर भी मैं कि प्रेमी ने कहा, तू है, तो प्रेयसी ने बहुत, उसी अनुपात में दुख भी बरसते हैं। दुख हुआ, पहचानी | कहा, लौट जाओ फिर, और कुछ दिन प्रतीक्षा करो। क्योंकि जब नहीं! प्रेम का सुख ही रिकग्नीशन है, कोई पहचाने! आना था तक तू का खयाल है, तब तक मैं कहीं न कहीं छिपा ही होगा। तू दौड़ते हुए; खोलना था द्वार। कहना था कि पदचाप पड़े थे राह पर, का खयाल भी मैं के कहीं छिपे होने की खबर है; अन्यथा तू का तभी जान गई कि तुम आते हो। खटखटाया था द्वार, तभी खल जाने भी पता नहीं चलता। अगर मैं होता, तो लौटा देता। थे द्वार और कहना था, तुम! आवाज तुम्हारी पहचानती हूं। लेकिन समर्पण अहंकार का पूर्ण विसर्जन है, इतना पूर्ण कि तू कहने की भीतर से पूछती है, कौन हो?
भी जगह न रह जाए। तू कहने की भी जगह न रह जाए। लेकिन दूर दखी हआ मन। कहा. मैं हं। पहचाना नहीं? प्रेयसी ने कहा. की हुई यह बात। पहले तो हम तू कहने के योग्य बनें; मैं को छोड़ें! जब तक तुम हो, तब तक प्रेम के द्वार खुलना भी चाहें, तो खुलेंगे | फिर हम तू से भी मुक्त हों; तू को भी छोड़ें। तब, कृष्ण कहते हैं, कैसे? जाओ। जब बचो न, तब आ जाना।
अर्जुन, फिर कर्म का कोई भी बंधन नहीं है। फिर कर्म नहीं बांधते प्रेम के द्वार अहंकार के लिए कभी नहीं खुलते हैं। हालांकि | हैं। फिर व्यक्ति मुक्त ही है। फिर उसकी मुक्ति को कुछ भी नहीं अहंकार प्रेम के द्वार निरंतर ठकठकाता है और खुलवाना चाहता | छू पाता। फिर उसकी मुक्ति अग्नि जैसी है। कुछ भी फेंको कचरा है। अहंकार प्रेम के ऊपर सदा बलात्कार है। सदा! तोड़ देना चाहता | उसमें, जलकर राख हो जाता है। है। खुलते तो कभी नहीं, तोड़ देता है। लेकिन तोड़े गए द्वार, खुले अग्नि निर्दोष, क्वांरी है वर्जिन बच जाती है पीछे। अग्नि सदा हुए द्वार नहीं हैं। और तोड़े गए द्वार को जिसने खुला हुआ द्वार | ही क्वांरी बच जाती है। अग्नि क्वांरी ही बच जाती है, उसका
समझा, वह पागल है। क्योंकि जब द्वार खुलते हैं प्रेम के अपने से, क्वारापन अदभुत है। कुछ भी डालो उसमें, हो जाता है राख; अग्नि तब उसका रस, उसका रहस्य और ही है। और जब तोड़े जाते हैं, | क्वांरी की क्वांरी वापस खड़ी हो जाती है-शुद्ध, ताजी। तब उसका विरस, उसकी अर्थहीनता और ही है।
जो व्यक्ति अहंकार को छोड़ देता. वह अग्नि की तरह क्वांरा और
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| संशयात्मा विनश्यति
ताजा और शुद्ध हो जाता है। प्रभु के साथ मिलकर एक, इतना शुद्ध हो जाता है, फिर कुछ भी उसे अशुद्ध नहीं कर पाता है। इतना स्वतंत्र हो जाता है कि फिर कोई बंधन उसे बांध नहीं पाते हैं। इतना मुक्त कि फिर कोई कारागृह उसके लिए कारागृह नहीं बन सकता है।
तस्मादज्ञानसंभूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः । छित्त्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत ।। ४२ । । इससे, हे भरतवंशी अर्जुन, तू समत्वबुद्धिरूप योग में स्थित हो और अज्ञान से उत्पन्न हुए हृदय में स्थित, इस अपने संशय को ज्ञानरूप तलवार द्वारा छेदन करके युद्ध के लिए खड़ा हो ।
इ
सलिए हे अर्जुन, तू समत्वबुद्धिरूप योग को पाकर, संशय को ज्ञानरूपी तलवार से काट डाल । दो बातें हैं। एक, समत्वबुद्धिरूपी योग को, समता को उपलब्ध हो। समता का अर्थ है, निष्पक्षता को । समता का अर्थ है, तटस्थता को। समता का अर्थ है, दोनों के पार, दुई के पार, द्वैत के पार । समत्वबुद्धिरूपी योग को !
हमारी बुद्धि सदा असम्यक है । असम्यक बुद्धि का अर्थ है कि कभी इस तरफ डोल जाती है, कभी उस तरफ डोल जाती है। हमारी चाल ऐसी है, जैसे कभी नट को रस्सी पर चलते हुए देखा हो । देखा है, नट को रस्सी पर चलते हुए? हाथ में एक डंडा लिए रहता है। कभी बाएं डोलता, कभी दाएं डोलता । कभी बाएं, कभी दाएं । रस्सी पर चलता है; बाएं - दाएं डोलता है।
यह भी खयाल में ले लेना कि जब वह बाएं डोल रहा है, तो उसका मतलब आप जानते हैं कि बाएं क्यों डोलता है ? बाएं इसलिए डोलता है कि जब दाएं गिरने का डर पैदा होता है, तब वह बाएं डोलता है बैलेंस करने को। जब दाएं गिरने का डर पैदा होता है कि कहीं दाएं गिर न जाऊं, तो वह तत्काल बाएं डोलता है। जब बाएं गिरने का डर पैदा होता है, तब वह दाएं डोलता है।
हमारी बुद्धि नट जैसी है। रस्सी पर बारीक, कभी धर्म की तरफ डोलते, कभी अधर्म की तरफ; कभी हिंसा की तरफ, कभी अहिंसा की तरफ, कभी पदार्थ की तरफ, कभी परमात्मा की तरफ। लेकिन डोलते ही रहते हैं, समत्व को उपलब्ध नहीं होते। ऐसे नहीं, जैसे
कोई व्यक्ति जमीन पर खड़ा है; डोलता ही नहीं – स्ट्रेट, सीधा । जैसे दीए की लौ ऐसे कमरे में हो, जहां के सब द्वार बंद हैं। हवा का कोई झोंका भीतर नहीं आता। ज्योति सीधी है; जरा भी कंपती नहीं; खड़ी है !
बुद्धि जब ऐसी खड़ी होती है, अन डोली, अन-वेवरिंग, कंपनमुक्त, मध्य में; न बाएं, न दाएं; न इस पक्ष में, न उस पक्ष में; जब मध्य में, समत्व को, समता को, समाधि को बुद्धि उपलब्ध होती है, तब वह समत्व बुद्धि को उपलब्ध हुआ व्यक्ति ही इस | जगत के जाल, झंझट, समस्याओं की गांठ को काट पाता है। अन्यथा वह खुद ही उलझ जाता है, अपने ही कंपन से उलझ जाता है। हम अपने ही कंपन से उलझते चले जाते हैं, चौबीस घंटे।
कभी अपने मन की इस असम्यक, असम अवस्था की परीक्षा करना, निरीक्षण करना। देखना सुबह से एक दिन सांझ तक कि मन कैसा डोलता है ! कितना डोलता है !
सुना है मैंने, एक चर्च में सुबह रविवार के दिन लोग प्रार्थना, प्रवचन को इकट्ठे हुए हैं। एक आदमी घर से तय करके आया कि सौ रुपए आज दान करने हैं। सौ रुपए लेकर आया। लेकिन जब वह सीढ़ियां चढ़ रहा था, उसने कहा, एकदम पूरे सौ रुपए ! लौटा। चर्च के पास की किसी दूकान से रुपए भंजाकर लाया । सोचा पचास ही काफी होंगे देने। फिर अपनी हैसियत भी सौ देने की कहां है? अभी थी, पंद्रह मिनट पहले !
भीतर पहुंचा। खयाल आया, पचास न भी दूं, कौन मुझे मजबूर | कर रहा है? अपने ही हाथ से फंसता हूं। सोचा, दस से भी काम | चल जाएगा। बड़ी राहत मिली। बोझ टल गया। अभी कुछ दिया नहीं था । सब भीतर चलता था। अभी किसी को पता भी नहीं था कि वह क्या कर रहा है। लेकिन दस देने हैं, इसलिए आगे की बेंच पर जाकर बैठा ।
स्वभावतः, जिसके खीसे में दस का नोट है, वह पीछे कैसे बैठे ! आगे बैठा। फिर दस देने भी हैं। तो अगर थोड़ा पीछे बैठे और जब | बर्तन घूमे पैसा डालने का, तो कौन देखेगा? पादरी कम से कम देख तो ले कि दस का नोट डाला है!
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फिर पादरी का प्रवचन शुरू हुआ। आधा प्रवचन चला था, तब उसे खयाल आया कि पांच डालने से भी काम चल सकता है। प्रवचन पचहत्तर प्रतिशत पूरा होने आया, तब उसे खयाल आया कि इस तरह के भावावेश में पड़ना नहीं चाहिए । हजार और काम हैं। एक रुपया डालूं । कौन कहता है कि ज्यादा डालो ? एक रुपया
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गीता दर्शन भाग-20
भी क्या कम है!
मिल जाए, छुरा मिल जाए, सब्जी काटने की छुरी मिल जाए, कुछ जब बर्तन घूमने लगा, तब उसके मन में आया कि कई लोग नहीं भी मिल जाए, बस कलाई काटती। डाल रहे हैं; अगर मैं भी न डालूं, तो हर्ज क्या है ? जब बर्तन उसके | ___ मैंने उससे पूछा कि तुझे कलाई काटने का यह खयाल क्यों चढ़ा सामने आया, उसने चारों तरफ देखा कि कोई भी नहीं देख रहा है, | | था? उसने कहा, खयाल! मुझे ऐसा लगता था कि अगर मेरे हाथ तो सोचा कि एक रुपया उठा लूं!
कहीं मेरी गर्दन दबा दें और मैं मर जाऊं। तो इनको काट डालूं। ऐसा मन है। ऐसा ही है, परे समय। खोजेंगे अपने मन को, तो अपने ही हाथ पर संशय कि कहीं गर्दन न दबा दें। ऐसा ही पाएंगे, नट रस्सी पर जितना कंपता है, उससे भी ज्यादा विक्षिप्त इस स्थिति में पहुंच जाता है कि वह दूसरे पर संशय कंपता हुआ। ऐसे मन से संशय नहीं कट सकता। संशय तो | करता है, ऐसा नहीं; अपने पर भी संशय करता है। अपने पर भी! कटेगा, समत्व होगा तब; समता होगी तब; बीच में कोई ठहरेगा __विक्षिप्त का संशय पूर्ण हो जाता है, ज्ञान शून्य हो जाता है। तब; संतुलन होगा तब; बैलेंस होगा तब-तब कटेगा। | विमुक्त का संशय शून्य हो जाता है, ज्ञान पूर्ण हो जाता है।
तो कृष्ण कहते हैं, समत्व बुद्धि को उपलब्ध हो और ज्ञान की ___दो छोर हैं, विक्षिप्त और विमुक्त। और हम बीच में हैं, नट की तलवार से संशय को काट डाल अर्जुन!
तरह डोलते हुए। हम अपनी रस्सी पकड़े हुए हैं, कभी विक्षिप्त की ज्ञान सच में ही तलवार है। शायद वैसी कोई और तलवार नहीं तरफ डोलते, कभी विमुक्त की तरफ। है। क्योंकि जितना सूक्ष्म ज्ञान काटता है, उतना सूक्ष्म और कोई | । सुबह मंदिर जाते हैं, तो देखें चाल। फिर लौटकर बाजार जाते तलवार नहीं काटती।
| हैं, तब देखें अपनी चाल। सुबह जब मंदिर का घंटा बजाते हैं प्रभु अभी वैज्ञानिकों ने कुछ किरणे खोज निकाली हैं, जो बड़ी | को कहने को कि आ गया, मैं आया, तब देखें भाव। फिर उसी शीघ्रता से, तेजी से काटती हैं; डायमंड को भी काटती हैं। लेकिन मंदिर से लौटकर भागते हैं दुकान की तरफ, तब देखें आंखें। तब फिर भी ज्ञान की तलवार की बारीकी ही और है। संशय को वे भी | | बड़ी हैरानी होती है कि एक आदमी, इतना फर्क! वही बैठा है गंगा नहीं काट सकते; डायमंड को काट सकते होंगे।
के किनारे तिलक-चंदन लगाए, पूजा-पाठ, प्रार्थना! वही बैठा है संशय बहुत अदभुत है। गहरे से गहरे और बारीक से बारीक | | दफ्तर में; वही बैठा है नेता की कुर्सी पर, तब उसकी स्थिति! . अस्त्र को भी बेकार छोड़ जाता है; कटता ही नहीं। सिर्फ ज्ञान से | ___ एक ही आदमी सुबह से सांझ तक कितने चेहरे बदल लेता है! कटता है।
चेहरे बदलते हैं इसलिए कि भीतर बुद्धि बदल जाती है। ज्ञान का अर्थ? ज्ञान का अर्थ है, समत्वबुद्धिरूपी योग। वही, | करीब-करीब पारे की तरह है हमारी बुद्धि। वह जो थर्मामीटर में जब बुद्धि सम होती है, तो ज्ञान का जन्म होता है। बुद्धि की समता | | पारा होता है-ऊपर-नीचे, ऊपर-नीचे। लेकिन वह बेचारा का बिंदु ज्ञान के जन्म का क्षण है। जहां बुद्धि संतुलित होती है, वहीं | | तापमान की वजह से होता है! हम? हम तापमान की वजह से नहीं ज्ञान जन्म जाता है। और जहां बुद्धि असंतुलित होती है, वहीं अज्ञान होते। हम अपनी ही वजह से होते हैं। क्योंकि हमारे पास ही कोई जन्म जाता है। जितनी असंतुलित बुद्धि, उतना घना अज्ञान। जितनी | कृष्ण खड़ा है, कोई बुद्ध, कोई महावीर। उसका पारा जरा भी संतुलित बुद्धि, उतना गहरा ज्ञान। पूर्ण संतुलित बुद्धि, पूर्ण ज्ञान। | यहां-वहां नहीं होता; ठहरा ही रहता है; समत्व को उपलब्ध हो पूर्ण असंतुलित बुद्धि, पूर्ण अज्ञान। पूर्ण असंतुलित बुद्धि होती है | जाता है। विक्षिप्त की, पागल की, इसलिए उसके संशय का कोई हिसाब ही | ज्ञान की तलवार से संशय को काट डाल अर्जुन। और मजा ऐसा नहीं है। पागल, विक्षिप्त का संशय पूर्ण है। अपने पर ही संशय | | है कि अगर अर्जुन इतना भी तय कर ले कि हां, मैं काटने को राजी करता है पागल।
| हूं, तो कट गया। क्योंकि संशय तय नहीं करने देता। इतना भी तय अभी-अभी अमेरिका से एक युवती मेरे पास आई। छः साल | कर ले...। पागलखाने में थी। उसने अपने हाथ की कलाइयां मुझे बताईं, दोनों रामकृष्ण के जीवन का एक संस्मरण कहूं, तो खयाल में आ कलाइयां बिलकुल कटी हुई। कई बार काटा उसने खुद ही। वही | जाए। फिर आखिरी सूत्र ही है यह। उसका पागलपन था, कलाई काट डालना! रेजर मिल जाए, कैंची | रामकृष्ण ने बहुत दिन तक काली की मूर्ति की, प्रतिमा की पूजा
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संशयात्मा विनश्यति
की। स्वभावतः, भक्त थे, भाव से भरे थे। प्रतिमा बाहर की फिर गैर-जरूरी हो गई। आंख बंद करते, प्रतिमा खड़ी हो जाती । पर रामकृष्ण का मन आकार से न भरा। जब तक निराकार न मिले, तब तक मन भरता भी नहीं है। फिर आकार वह देवता का ही क्यों | न हो, आकार ही है। सीमा फिर वह देवी की ही क्यों न हो, सीमा ही है । निराकार के पहले तृप्ति नहीं है। फिर भटकाव शुरू हो गया।
एक साधु रुका था आश्रम में, दक्षिणेश्वर के मंदिर में, तोतापुरी । रामकृष्ण ने कहा, मुझे निराकार समाधि चाहिए। तोतापुरी ने कहा, तू ज्ञान की तलवार उठा और भीतर जब काली की प्रतिमा आए, तो दो टुकड़े कर दे।
रामकृष्ण ने कहा, क्या कहते काली की प्रतिमा और दो टुकड़े, और मैं? ऐसे अपशकुन के शब्द न बोलो। तोतापुरी ने कहा, जब तक वह प्रतिमा न गिरे आकार की, तब तक निराकार का प्रवेश नहीं है। तो रामकृष्ण बहुत रोए । काली से जाकर बहुत माफी मांगी कि यह आदमी कैसी बातें कहता है!
लेकिन फिर बात तो ठीक थी। फिर राजी हुए। पर बैठें; आंख बंद करें; आंसू बहने लगें; आनंदमग्न हो जाएं। आंखें खोलें; तोतापुरी कहें कि काटा? तो वे कहें, भूल ही गए! फिर कहने लगे, तलवार ! तलवार कहां से लाऊं ? वहां भीतर तलवार कहां ? तोतापुरी ने कहा, ज्ञानरूपी तलवार । फिर वे कहने लगे कि बहुत खोजता हूं, कोई तलवार तो मिलती नहीं। तलवार कहां से लाऊं ?
तो तोतापुरी ने कहा, यह मूर्ति कहां से ले आए हो? मूर्ति लाते वक्त अड़चन न हुई ? भीतर मूर्ति ले गए पत्थर की और तलवार लाते वक्त अड़चन होती है? बैठो ! एक कांच का टुकड़ा ले आया तोतापुरी और उसने कहा कि आंख तुम बंद करो। और जब मैं देखूंगा तुम्हारी आंख में आनंद के आंसू आए, समझंगा कि आ गई मूर्ति, तभी मैं तुम्हारे माथे को कांच से काट दूंगा। जब मैं काटूं, तब तुम हिम्मत से उठाकर तलवार मार देना मूर्ति में। जैसे मूर्ति ले आए हो, ऐसे तलवार भी ले आओ।
रोते रहे। तोतापुरी ने काट दिया माथा । हिम्मत की, तलवार उठाई, मूर्ति को मारा । मूर्ति दो टुकड़े होकर गिर गई भीतर। रामकृष्ण गहरी समाधि में खो गए। तीन दिन तक उठ न सके। लौटकर कहा, दि लास्ट बैरियर – आखिरी बाधा गिर गई। और मैं भी कैसा पागल कि कहता था, तलवार कहां से लाऊं ? मारने की हिम्मत नहीं थी, इसलिए कहता था कि कहां से लाऊं ? मालूम तो था कि जब मूर्ति भीतर ला सकते हैं, तो तलवार क्यों नहीं ला सकते ?
कृष्ण भी जो कह रहे हैं अर्जुन से कि तू उठाकर तलवार काट डाल संशय को, अगर अर्जुन कहे कि अच्छा मैं राजी काटने को, तो कट जाएगा संशय । सिर्फ इतना कहे कि मैं राजी । वह संशय वही तो नहीं कहने देता कि मैं राजी। वह फिर नए सवाल उठाएगा। गीता अभी आगे और भी चलेगी। वह नए सवाल उठाएगा।
आदमी का मन उत्तर से बचता है, सवालों को गढ़ता है। आदमी का मन, फिर से कहता हूं, उत्तर से बचता है, सवालों को गढ़ता | है। आमतौर से जो लोग सवाल पूछते हैं, वे इसलिए नहीं कि उत्तर मिल बल्कि इसलिए कि कहीं उत्तर न मिल जाए; इसलिए सवाल पूछे चले जाओ!
जाए,
अर्जुन पूछता चला जाएगा सवाल पर सवाल। उत्तर कृष्ण हजार | बार दे चुके हैं इसके पहले भी, हजार बार देंगे इसके बाद भी; लेकिन अर्जुन सवाल उठाए चला जाता है। इसके पहले कि कृष्ण | का उत्तर हो, वह नए सवाल खड़े कर देता है। सवाल पुराने ही हैं; | नया कोई सवाल नहीं है। सवाल वही है; शब्द बदल जाते हैं; आकार बदल जाता है। कृष्ण के उत्तर भी नए नहीं हैं। उत्तर एक ही है। अगर अर्जुन कहता, मैं डाल-डाल, कृष्ण कहते, मैं | पात-पात । ठीक, तुम उधर सवाल खड़ा करते हो, हम इधर जवाब देते हैं!
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लेकिन अथक है कृष्ण का परिश्रम ! इतना परिश्रम बहुत कम गुरुओं ने लिया है। अथक है परिश्रम ! उत्तर मिल जाए अर्जुन को, इसकी चेष्टा सतत कृष्ण करते चले जाते हैं।
जो व्यक्ति भी ज्ञान की तलवार उठा ले - समत्व बुद्धि की— संशय को काट डाले, लास्ट बैरियर, संशय के साथ ही आखिरी बाधा गिर जाती है और वे द्वार खुल जाते हैं जो कि परमात्मा के हैं, आनंद के, मुक्ति के, परम शांति के, परम निर्वाण के हैं।
प्रश्नः भगवान श्री, सवाल मेरे पास बिलकुल नहीं हैं, लेकिन फिर भी एक बड़ा सवाल है। इस अध्याय के आखिर में लिखा गया है, ओम तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे ज्ञानकर्मसंन्यासयोगो नाम चतुर्थोऽध्यायः । ज्ञान-कर्म-संन्यास योग इस अध्याय का नाम दिया गया है; अतः ज्ञान-कर्म-संन्यास योग पर कुछ कहें।
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गीता दर्शन भाग-20
लान-कर्म-संन्यास, ऐसा इस अध्याय का नाम है। एक भी उपाय न होगा। II ओर ज्ञान, दूसरी ओर संन्यास, बीच में कर्म। नहीं; जा सकें संपदा के साथ प्रभु के समक्ष; चढ़ा सकें नैवेद्य
ज्ञान-कर्म-संन्यास योग। ज्ञान हो, कर्म न खोए, और जीवन में जो पाया है उसका, इस आशा में ये बातें कहीं। संन्यास फलित हो।
मेरे प्रिय आत्मन्, इन बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, ___ ज्ञान से कर्म हो, तो संन्यास फलित होता है। ज्ञानपूर्ण कर्म हो, उससे बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे प्रभु तो अकर्म बन जाता है। ज्ञानपूर्ण भोग हो, तो त्याग बन जाता है। को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें। ज्ञानपूर्ण अंधकार भी प्रभात है।
चले न जाएंगे, दस मिनट और बैठे रहें अपनी ही जगह। ये तीन शब्द बड़े सूचक हैं।
संन्यासी मंच पर आ जाएंगे सब, धुन चलेगी। इसीलिए आज एक ओर ज्ञान; प्रारंभ ज्ञान से; स्रोत ज्ञान से। बहे कर्म में, संसार संन्यासियों का आनंद आपमें बंट सके, तो उन्हें रोका है। वे रुकने में। पहुंचे संन्यास तक, परमात्मा में। वर्तुल पूरा हो जाए। को राजी न थे, उनके आनंद में कमी पड़ेगी, बैठकर ही उन्हें धुन में
ज्ञान जब कर्म बनता है, तभी संन्यास है। अगर ज्ञान पलायन | उतरना पड़ेगा। लेकिन बैठकर ही नाचे, नाचना आंतरिक है, बन जाए, तो फिर संन्यास नहीं है। ज्ञान अगर पलायन बन जाए, बैठकर ही डोलें, बैठकर ही खो जाएं। संन्यासी मंच पर होंगे, वे तो संन्यास नहीं है। ऐसा कहें, ज्ञान-पलायन-संन्यास योग; तो | धुन करेंगे, आप भी साथ दें। यह अंतिम समापन आप सबकी धुन इससे विपरीत होगा।
के साथ समाप्त हो। कोई उठे न, इतनी देर बैठे रहे, अपनी जगह आमतौर से संन्यासी यही करता है, ज्ञान-पलायन-संन्यास। बैठ जाएं। कोई उठे न, ताली दें, स्वर में स्वर दें, डोलें, आंखें बंद कृष्ण उलटा अर्जुन को कह रहे हैं। उलटा इसलिए, संन्यासी से कर लें। देखने की फिक्र छोड़ दें, ताकि आप भीतर देख सकें। एक उलटा। वह तो सीधा ही कह रहे हैं। संन्यासी उलटा है। पलायन । दस मिनट धुन चलेगी फिर हम विदा हो जाएंगे। नहीं, एस्केपिज्म नहीं।
कृष्ण का मूल संदेश इस अध्याय में अपलायन का, नो एस्केपिज्म; भागो मत, बदलो। पीठ मत फेरो, मुकाबला करो। अस्तित्व का सामना करो; भागो मत। लेकिन अज्ञानी भी करते हैं सामना, तब वे लिप्त हो जाते हैं, और भोगी हो जाते हैं। ज्ञानी भी करते हैं सामना; लेकिन तब वे लिप्त नहीं होते और संन्यास को उपलब्ध हो जाते हैं।
ज्ञानपूर्ण हो जाए कर्म, वही संन्यास है। जो भी करें, समत्व बुद्धि से हो, प्रभु समर्पित हो, संन्यास है। अज्ञान से किया गया अकर्म भी संन्यास नहीं, ज्ञान से किया गया कर्म भी संन्यास है। अज्ञान में कोई कुछ भी न करे, तो भी पाप लगता है। ज्ञान में सब कुछ करे, तो भी पाप नहीं है।
अदभुत है संदेश! इन नौ दिनों में इस ज्ञान-कर्म-संन्यास योग की बहुत-बहुत पहलुओं से मैंने बात आपसे की है, इस आशा में कि जल्दी, शीघ्र ही आए वह क्षण कि उठे ज्ञान की तलवार, टूट जाए संशय; खुले द्वार प्रभु का, उस उपलब्धि का, जिसे पाए बिना हमारे पास कुछ भी नहीं है; जिसे पाए बिना हाथ अर्थी पर खाली लटके होंगे। रिक्त, व्यर्थ, खोकर प्रभु के सामने खड़े होंगे, तो मुंह दिखाने का
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अध्याय 5 पहला प्रवचन
संन्यास की घोषणा
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श्रीमद्भगवद्गीता अथ पंचमोऽध्यायः
गीता दर्शन भाग-2
अर्जुन उवाच संन्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि । यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम् ।। १ ।। कृष्ण! आप कर्मों के संन्यास की और फिर निष्काम कर्मयोग की प्रशंसा करते हैं, इसलिए इन दोनों में एक जो निश्चय किया हुआ कल्याणकारक होवे, उसको मेरे लिए कहिए ।
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ਸ
नुष्य का मन निरंतर ही आज्ञा चाहता है। मनुष्य का मन, कोई और तय कर दे, ऐसी आकांक्षा से भरा होता है। निर्णय करना संताप है; निर्णय करने में चिंता है; स्वयं ही विचार करना तपश्चर्या है। मनुष्य का मन चाहता है, निर्णय भी न करना पड़े। कुछ भी न करना पड़े। सत्य ऐसे ही उपलब्ध हो जाए, बिना थोड़े-से भी श्रम, विचार, तपश्चर्या के |
अर्जुन कृष्ण से कहता है, आपने कर्म संन्यास की बात कही, आपने निष्काम कर्म की बात कही। लेकिन मुझे तो ऐसा सुनिश्चित मार्ग बता दें, जिसमें मैं आश्वस्त होकर चल सकूं।
इस संबंध में बहुत-सी बातें समझ लेने जैसी हैं। कृष्ण ने इस बीच जो भी बातें कहीं, वे अर्जुन को आदेश की तरह नहीं हैं; अर्जुन के सामने समस्याओं को खोलकर रख देने की कोशिश की है। जीवन के सारे रास्तों पर प्रकाश डालने की कोशिश की है। अंतिम निर्णय अर्जुन के हाथ में ही छोड़ा है कि वह निर्णय करे, संकल्प करे, निष्पत्ति अर्जुन स्वयं ले।
इस जगत में जो श्रेष्ठतम गुरु हैं, वे सदा ही शिष्यों को निष्पत्ति देने से बचते हैं, कनक्लूजंस देने से बचते हैं। क्योंकि जो निष्पत्ति दी हुई होती है, उधार, बासी, मृत हो जाती है। जो निष्पत्ति, जो निष्कर्ष स्वयं लिया होता है, उसकी जड़ें स्वयं के प्राणों में होती हैं। जिस नतीजे पर व्यक्ति अपने ही चिंतन और खोज और शोध से पहुंचता है, वह निर्णय उसके व्यक्तित्व को रूपांतरित करने की क्षमता रखता है।
जो निर्णय बाहर से आते हैं— उधार, विजातीय — उनकी कोई जड़ें व्यक्ति की स्वयं की आत्मा में नहीं हो पाती हैं। उन पर कोई
अनुसरण भी करे, तो भी वे आचरण की सतह ही निर्मित करती हैं, आत्मा नहीं बन पाती हैं। जैसे बाजार से फूल लाकर हमने गुलदस्ते में लगा लिए हों, ऐसे ही दूसरे से मिले निर्णय भी गुलदस्ते के फूल बन जाते हैं; लेकिन जमीन में उगे हुए फूल नहीं हैं - प्राणवान, | जीवित, जमीन से रस को लेते हुए, सूरज से रोशनी को पीते हुए, हवाओं में नाचते हुए - जिंदा नहीं हैं।
लेकिन आदमी का मन इतने आलस्य से भरा है, इतने तमस से, इतनी लिथार्जी से कि भोजन भी यदि किया हुआ मिल जाए, तो हम | करना पसंद नहीं करेंगे। भोजन भी पचाया हुआ हो, तो पचाने को हम राजी नहीं होंगे। लेकिन जिस दिन भोजन पचाया हुआ मिल जाएगा, उस दिन हम प्लास्टिक के आदमी होंगे, जिंदा आदमी नहीं। जिंदगी की सारी गहरी प्रक्रिया स्वयं ही पचाने में निर्भर है। | वह चाहे भोजन को पचाकर खून बनाना हो और चाहे जीवन के अनुभव को पचाकर ज्ञान की निष्पत्ति लेना हो। वह चाहे जगत में चलना हो और चाहे परमात्मा में प्रवेश हो । जिस बात को हम आत्मसात करते हैं, जो हमारे ही श्रम से फलित होती है, वही हमारी है। शेष सब उधार है और ठीक समय पर बेकार सिद्ध होता है, काम में नहीं आता है।
लेकिन अर्जुन की आकांक्षा वही है जो सभी आदमियों की आकांक्षा है। वह कहता है, मुझे सुनिश्चित कह दें; उलझाव में न | डालें। ऐसी सब बातें न कहें, जिनमें मुझे सोचना पड़े और तय | करना पड़े। आप ही मुझे कह दें कि क्या ठीक है। जो बिलकुल ठीक हो, मुझे कह दें।
कृष्ण को भी आसान है यही कि जो बिलकुल ठीक है, वही कह | दें। लेकिन जो आदमी ऐसी मांग कर रहा हो कि जो बिलकुल ठीक है, वही मुझे कह दें, उससे बिलकुल ठीक बात कहनी खतरनाक है। क्योंकि ठीक बात को पाकर वह सदा के लिए ही बचकाना, जुवेनाइल रह जाएगा। वह कभी मैच्योर और प्रौढ़ नहीं हो सकता है।
इसलिए वे गुरु खतरनाक हैं, जिनके नीचे शिष्य सदा ही | बचकाने, अप्रौढ़ रह जाते हों। वे गुरु खतरनाक हैं, जो निष्कर्ष दे | देते हों। ठीक गुरु तो समस्याएं देता है। ठीक गुरु तो प्रश्न देता है। निश्चित ही ऐसे प्रश्न, ऐसी समस्याएं, ऐसे उलझाव, जिनसे गुजरकर अगर व्यक्ति चलने का साहस और हिम्मत जुटाए, तो निष्कर्ष पर जरूर ही पहुंच सकता है।
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लेकिन बंधे-बंधाए, रेडिमेड उत्तर इस पृथ्वी पर किसी भी श्रेष्ठतम व्यक्ति ने कभी भी नहीं दिए हैं।
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संन्यास की घोषणा
अर्जुन कहता है, मुझे तो तैयार—आप जानते ही हैं, वही कह | है, जिसका कोई हिसाब नहीं है। ये उलझाव कहां से आते हैं? हम दें, जो ठीक है। मुझे उलझाएं मत। मैं वैसे ही बड़े संभ्रम में, वैसे सब सुलझे हुए लोग! ये इतने उलझाव इस जमीन पर पैदा कैसे होते ही बड़े संशय में हूं, वैसे ही बहुत अनिश्चय में डूबा हुआ हूं। इतनी | हैं? यदि हम सब सुलझे हुए हैं, तो जगत एक शांत और एक आनंद बातें न करें कि मैं और उलझ जाऊं। मैं कनफ्यज्ड हैं।
से भरी हुई जगह होनी चाहिए-स्वर्ग: लेकिन जगत है एक नर्क। अर्जुन जानता है कि उलझा हुआ है। लेकिन उलझे हुए मन को | हम सब उलझे हुए हैं। और उलझाव और भी भयंकर है, क्योंकि सुलझा हुआ सत्य भी मिल जाए, तो उसे भी उलझा लेता है। | प्रत्येक उलझा हुआ आदमी समझता है कि मैं सुलझा हुआ हूं। हर सुंदरतम व्यक्ति को भी हम विकृत आईने के सामने खड़ा कर दें, पागल समझता है कि पागल नहीं है। पागलखानों में ऐसा आदमी तो आईना तत्काल उसे विकृत कर लेता है। श्रेष्ठतम चित्र को भी | मिलना मुश्किल है, जो समझता हो कि मैं पागल हूं। पागलखाने हम, आंखें कमजोर हों, बिगड़ गई हों, ऐसे आदमी के सामने रख | के बाहर मिल भी जाए; पागलखाने के भीतर नहीं मिल सकता। दें, तो भी आंखें उस श्रेष्ठतम चित्र को कुरूप कर लेती हैं। तो अर्जुन को यह भी दिखा देना जरूरी है कि वह कितना उलझा
निश्चित ही कृष्ण सीधे निष्कर्ष की बात कह सकते हैं, लेकिन | | हुआ है। कृष्ण की अब तक की बातचीत से अर्जुन को एक बात उलझा हुआ अर्जुन समझ कैसे पाएगा! अर्जुन उलझा हो, तो | | तो कम से कम दिखाई पड़नी शुरू हो गई कि वह उलझा हुआ है। सुलझी हुई बात को भी उलझा लेगा। इसलिए कृष्ण को प्रतीक्षा | शुरू में जब उसने बोलना शुरू किया था, तो ऐसा लगता था कि करनी पड़ेगी। अर्जुन का उलझाव हल हो, तो ही सुलझे हुए सत्यों | | वह जानकर बोल रहा है। धर्म और शास्त्र और नीति और परंपरा, को सुनने की क्षमता आ सकती है।
| इन सब की बात कर रहा था। ऐसा लगता था कि वह जानकर बोल हम वही समझ पाते हैं, जो हम समझ सकते हैं। हम अपने से | रहा है। अज्ञानी आदमी जितने जानते हुए बोलते मालूम पड़ते हैं, ज्यादा कभी कुछ नहीं समझ पाते हैं। और हम वही अर्थ निकाल उतने ज्ञानी कभी बोलते हुए मालूम नहीं पड़ते हैं। लेते हैं, जो हमारे भीतर पड़ा है। हम वही अर्थ नहीं निकाल पाते ___ बर्दैड रसेल ने कहीं कहा है कि जितना कम जानने वाला आदमी हैं, जो कृष्ण जैसा व्यक्ति बोलता है।
हो, उतनी दृढ़ता से बोल सकता है; उतना डाग्मैटिक हो सकता है। अर्जुन के साथ कृष्ण की वार्ता सीधी नहीं है, बहुत उलझी और जितना जानने वाला आदमी हो, उतना हेजीटेट करता है; झिझकता पगडंडियों से भरी है, बहुत गोल चक्रों में घूमती हुई है। इस सारी है। क्योंकि जितना ज्यादा जानता है, उतना ही पाता है कि जीवन गीता की चर्चा से कष्ण अर्जन को सलझाने की कोशिश कर रहे हैं। अति दरूह है. गहन पहेली है। जितना जानता है. उतना ही पाता है सुलझ जाए, तो वे उसे निष्कर्ष की बात भी कह सकें। लेकिन | |कि जानना आसान नहीं है। और जितना जानता है, उतना ही पाता अर्जुन सुलझने की पीड़ा से भी नहीं गुजरना चाहता है। है कि जानने को अनंत शेष है।
सुलझने की पीड़ा भी प्रसव की पीड़ा है। स्वयं का बहुत कुछ | अज्ञानी बिलकुल दृढ़ता से बोल सकता है। इतना कम जानता काटना, गिराना, हटाना पड़ेगा। सबसे बड़ी कठिनाई तो यही होती | है कि अज्ञान का भी उसे पता नहीं है। है कि मैं उलझा हुआ हूं, इसे इसकी पूरी नग्नता में जानना पड़ेगा। अर्जुन ने जब प्रश्न उठाने शुरू किए थे, तो वह ऐसे आदमी के और कोई भी व्यक्ति मानने को राजी नहीं होता कि कनफ्यूज्ड है। | प्रश्न थे, जिसे उत्तर पहले से ही पता हैं। अगर कृष्ण से पूछता था, कोई भी व्यक्ति मानने को राजी नहीं होता कि उसका मन उलझा | | तो इसलिए कि तुम भी शायद जो मैं कहता हूं वही कहोगे, गवाही हुआ है। सभी लोग मानकर चलते हैं कि वे सुलझे हुए हैं। अपने | । मेरी बनोगे! को धोखा देने की कुशलता भी अदभुत है। हर आदमी यह मानकर कृष्ण से अर्जुन ने गवाही, विटनेस ही मांगी थी, कि आप भी चलता है कि मैं सुलझा हुआ हूं।
| कह दें कि जो मैं कहता हूं, ठीक है। कि यह युद्ध व्यर्थ है। कि यह इस दुनिया की सारी उलझनें निन्यानबे प्रतिशत कम हो जाएं, धन और राज्य के लिए संघर्ष गलत है। कि सब छोड़कर चले जाना अगर लोगों को यह पता चल जाए कि हम उलझे हुए हैं। लेकिन धर्म की पुरानी व्यवस्था है। कि हिंसा पाप है; कि अहिंसा में, लोग बिलकुल आश्वस्त हैं। लोग बिलकुल आत्मविश्वास से भरे । समस्त हिंसा का त्याग करके चले जाने में गौरव है। हैं कि हम सुलझे हुए लोग हैं। और सारी दुनिया इतने उलझाव में | अर्जुन ने जब ये बातें कही थीं, तो आश्वस्त भाव से कही थीं
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गीता दर्शन भाग-28
कि कृष्ण भी समर्थन करेंगे। लेकिन कृष्ण ने उनका समर्थन नहीं मुझे कुछ सोचना-समझना नहीं है। मुझे तो आप बता दें। आप किया। और अब अर्जुन इस स्थिति में नहीं है कि कह सके कि मैं जानते हैं, तो मुझे बता दें। मैं उसे करने में लग जाऊं। जानता हूं। इतना उसे साफ हुआ है कि मैं उलझा हुआ हूं। मुझे कुछ देखने में लगेगा कि बड़ी श्रद्धा की बात है। लेकिन जिस व्यक्ति पता नहीं है।
| को स्वयं श्रम करने की जरा भी श्रद्धा नहीं है, उसकी श्रद्धा बड़ी यह बहुत बड़ी घटना है। ज्ञान के मार्ग पर पहला चरण है। ज्ञान | | धोखे की है और झूठी है। जो इंचभर भी अंधेरे में, अनजान में, के मार्ग पर अज्ञान की दृढ़ता पिघल जाए, तो बहुत बड़ी उपलब्धि | असुरक्षा में खोजने के लिए तैयार नहीं है; जो अज्ञात में नाव लेकर है। अज्ञान की मजबूती ढीली पड़ जाए, अज्ञान का आश्वासन डिग | यात्रा पर निकलने के लिए साहस नहीं जुटा पाता; जो सदा दूसरे जाए-बड़ी उपलब्धि है।
| का सहारा खोजकर आंख बंद कर लेने के लिए आतुर है-ऐसे अर्जुन इस जगह कृष्ण के द्वारा लाया जा सका है, जहां वह आदमी की यात्रा सत्य की तरफ कभी भी नहीं हो सकती है। कहता है, मुझे कुछ पता नहीं है। यह बात कीमत की है। लेकिन | | निश्चित ही ऐसे व्यक्ति को भी गुरु मिल जाएंगे, क्योंकि ऐसे तत्काल वह कहता है कि जो आपको पता हो, वह सीधा आप मुझे व्यक्तियों का शोषण करने की बड़ी सुविधा है। उनका शोषण चल कह दें।
रहा है। इतना तो अच्छा हुआ कि वह कहता है, मुझे कुछ पता नहीं है। जो भी मांग की जाएगी, उसको सप्लाई करने वाले लोग सदा लेकिन अब यह दूसरा खतरा उसके साथ जुड़ा है। अभी वह दूसरे ही उपलब्ध हो जाते हैं। अगर आप मांगेंगे अंधापन, तो आपकी से तैयार ज्ञान को पाने की आकांक्षा रखता है। वह भी उसकी भ्रांति आंखें फोड़ने वाले लोग भी मिल जाएंगे। आप मांगेंगे बहरापन, तो है। कोई छोटा-मोटा गुरु होता कृष्ण की जगह, तो बहुत प्रसन्न होता आप पर कृपा करके आपको बहरा कर देने वाले लोग भी मिल
और कहता कि यह जो मैं जानता हूं, तुझे दिए देता हूं। तेरा काम है। | जाएंगे। आप चाहेंगे कि मैं तो किसी का हाथ पकड़कर चलूं और कुल इतना कि मान ले चुपचाप और आचरण कर। अपना कोई भी श्रम न लगाना पड़े, तो ऐसे लोग भी आपको मिल
लेकिन कृष्ण उन मनोवैज्ञानिक गुरुओं में से एक हैं, जो जब तक जाएंगे, जो कहेंगे, यह रहा हाथ; पकड़ो और चलो! कि पात्र पूरा तैयार न हो, जब तक कि क्षमता अर्जुन की इस योग्य लेकिन ध्यान रखना, जो भी ऐसा व्यक्ति आपको मिल जाएगा, न हो कि वह सत्य को समझने और सत्य को प्रतिध्वनित करने की | वह व्यक्ति आपके ऊपर करुणा नहीं कर रहा है। क्योंकि करुणा स्थिति में आ जाए, तब तक वे अभी और कुछ बातें करेंगे, और | सदा ही आपके पैर को सबल बनाती है, आपकी आंखों को मजबूत भी मार्गों की।
करती है, आपके बल को जगाती है। वह व्यक्ति आपका शोषण अर्जुन के नीचे से उसके सारे आश्वासन की भूमि हट जानी | कर रहा है। और शोषण केवल वही कर सकता है, जो नहीं जानता चाहिए। और अर्जुन के मन से यह खयाल भी हट जाना चाहिए कि | है। इसलिए अंधे अक्सर अंधों को नेतृत्व करने के लिए मिल जाते कोई दूसरा दे सकेगा। इतनी तैयारी होनी चाहिए कि मैं खोजू, श्रम | | हैं। सच तो यह है कि अंधों के बड़े समाज में आंख वाले आदमी करूं; सत्य को मुफ्त में पाने की आकांक्षा न करूं।
को नेतृत्व करना अति कठिन है। अंधों का समाज, सजातीय अंधे इसलिए कृष्ण ने वे सब मार्ग, जिनसे मनुष्य सरलता को, सत्य को ही अपने आगे कर लेने को सदा उत्सुक रहता है। को, सुलझाव को उपलब्ध हुआ है, उन सबको धीरे-धीरे खोलकर | कृष्ण वैसे गुरु नहीं हैं। वे अर्जुन को कुछ भी देने के लिए राजी अर्जुन के सामने रखने का तय किया है। पर उसके मन की बात नहीं हैं, जिसको पाने की क्षमता स्वयं अर्जुन में न हो। और अर्जुन ठीक से आप समझ लेना, वह हम सबके मन की बात है। | में अगर उसे पा लेने की क्षमता हो, तो कृष्ण उसे देने को तैयार हो
हम भी चाहेंगे कि इतनी लंबी चर्चा की क्या जरूरत है? कृष्ण सकते हैं। फिर कोई फर्क नहीं पड़ता। अगर एक व्यक्ति पाने के भलीभांति जानते हैं कि सत्य क्या है। अर्जुन की स्थिति भी | | लिए तैयार है श्रम करने को, तो उसे सत्य की किरण दी भी जा भलीभांति जानते हैं। अर्जुन के लिए क्या हितकर है, यह भी सकती है। भलीभांति जानते हैं। तो दे ही क्यों नहीं देते!
यह बहुत मजे की और विरोधाभासी बात मालूम पड़ेगी। जिनकी कल ही मेरे पास कोई एक व्यक्ति आए और उन्होंने कहा कि क्षमता नहीं है, उन्हें दिया नहीं जा सकेगा; यद्यपि जिनकी क्षमता
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संन्यास की घोषणा
नहीं है, वे सदा भिखारी की तरह मांगते हैं। और जिनकी क्षमता है, उन्हें सदा दिया जा सकता है; यद्यपि जिनकी क्षमता है, वे कभी भी भिखारियों की तरह मांगते नहीं हैं। अब यह बड़ी उलटी बात है।
सत्य के द्वार पर जो भिखारी की तरह खड़ा होगा, वह खाली हाथ वापस लौटेगा। सत्य के द्वार पर तो जो सम्राट की तरह खड़ा होता है, उसे ही सत्य मिलता है।
अभी भी कृष्ण भिखारी को पा रहे हैं अर्जुन में। इस वचन में भी अर्जुन ने अपने भिखारी होने की ही घोषणा की है।
श्री भगवानुवाच संन्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ । तयोस्तु कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते । । २ । । श्रीकृष्ण भगवान बोले, हे अर्जुन! कर्मों का संन्यास और निष्काम कर्मयोग, ये दोनों ही परम कल्याण के करने वाले हैं। परंतु दोनों में कर्मों के संन्यास से निष्काम कर्मयोग, साधन में सुगम होने से श्रेष्ठ है।
कृ
ष्ण ने कहा, कर्म- संन्यास और निष्काम कर्म दोनों ही परम श्रेय को उपलब्ध कराने के मार्ग हैं। पहले इसे समझें। फिर दूसरी बात उन्होंने कही, लेकिन फिर भी सुगम होने से निष्काम कर्म साधक के लिए ज्यादा कल्याणकर है।
कर्म-संन्यास का अर्थ है, जो करने का जगत है, जहां हम सुबह से सांझ, सांझ से सुबह करने में संलग्न हैं । कर रहे हैं, बिना इस बात को ठीक से जाने कि क्यों ? किस लिए? बिना ठीक से समझे कि इस सब करने की निष्पत्ति और फल क्या है ! बिना इस बात को विचारे कि अतीत में जो किया है, उससे हम कहां पहुंचे हैं!
समस्त कर्मों का रूप पानी पर खींची गई रेखाओं जैसा है। खींचते हैं, तब लगता है कि कुछ खिंचा। खींचते हैं, तब लगता है कि कुछ बना। लेकिन अंगुली आगे भी नहीं बढ़ पाती कि रेखाएं मिट जाती हैं, विदा हो जाती हैं।
जो भी हम कर रहे हैं, वह अस्तित्व में पानी पर खींची गई रेखाओं से ज्यादा कुछ भी निर्मित नहीं कर पाता है । हमसे पहले भी अरबों लोग इस पृथ्वी पर रहे हैं। जिस जगह आप बैठे हैं, एक-एक आदमी जहां बैठा है, वहां कम से कम एक - एक आदमी की जगह में
दस-दस आदमियों की कब्र बन चुकी है। वे सारे लोग ही विराट कर्म में लीन रहे हैं। उन सबके कर्मों का इकट्ठा जोड़ क्या है ?
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यदि आज आदमी का समाज समाप्त हो जाए, तो आकाश के तारों को कुछ भी खबर न रहेगी कि कितना विराट कर्म चला है ! वृक्षों को कुछ भी पता न होगा कि कितना विराट कर्म उनके नीचे चला है! पक्षी हमारे कर्म के इतिहास की कोई कथा न कहेंगे। सूरज उगता रहेगा। सागर की लहरें तटों से टकराती रहेंगी।
आदमी समाप्त हो जाए, तो कोई दस लाख वर्ष की लंबी यात्रा में आदमी ने जो कर्म किए हैं, उनका जोड़ क्या होगा ? जैसे एक आदमी समाप्त होता है, तो उसके कर्मों का सब जोड़ तिरोहित हो जाता है; ऐसे ही सारी मनुष्यता भी समाप्त हो जाए, तो सब कर्मों का जोड़ तिरोहित हो जाएगा । उसकी कहीं रेखा भी छूटकर न रह जाएगी।
कर्म-संन्यास इस समझ का नाम है कि कर्म पानी पर खींची गई रेखाओं की भांति हैं। तो व्यर्थ क्यों खींचो ! जो मिट ही जाता है, उसे खींचो ही क्यों! जो टिकता ही नहीं, उसे बनाने के पागलपन में क्यों पड़ो! जो अंततः स्वप्न सिद्ध होता है, उसे सत्य मानकर क्षणभर भी क्यों जीओ!
रात सपना देखते हैं। सपने में तो सपना बहुत सच होता है, सच से भी ज्यादा सच होता है। कभी पता नहीं चलता। और बड़े मजे की बात है कि जिंदगी में कई बार, करोड़ बार सपना देखा है। रोज सुबह पाया कि गलत है । और हर रात फिर भूल जाता है मन । कितने सपने देखे रोज ! आज रात जब लौटकर फिर सपना देखेंगे, तो सपने में मन को याद न रहेगा कि पहले भी सपने देखे थे और सुबह पाया था कि सपने हैं । आज रात फिर सपना देखेंगे इसी भ्रम में कि सच है। आदमी का मन कुछ सीखता है या नहीं सीखता है? | इतने सपने देखने के बाद जब दुबारा फिर सपना आता है, तो फिर सच मालूम होता है।
कर्म-संन्यास कहता है कि कितने जन्मों में कितने कर्म किए, लेकिन हर बार भूल जाते हैं ! फिर नया जन्म, फिर नया सपना शुरू हो जाता है। जैसे कल का सपना आज के सपने में जरा भी बाधा नहीं डालता और याद नहीं दिलाता, कोई रिमेंबरेंस पैदा नहीं होती, कोई स्मृति नहीं आती कि कल भी सपना देखा था, पाया सुबह कि गलत है। आज फिर सपना देख रहा हूं, उसी भ्रम में, जैसा कल, जैसा परसों, जैसा जीवनभर देखा है। इसका मतलब हुआ, मन ने कुछ सीखा नहीं।
हैरानी होती है। इतने सपने देखकर भी मन इतना सा भी नहीं
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गीता दर्शन भाग-20
सीख पाता कि सपने सच नहीं हैं। जब आता है सपना, सब सच प्रतीति हो जाए। हो जाता है।
कर्म-संन्यास तब आता है, जब प्रतीति हो जाए कि कर्म कर्म-संन्यास कहता है, हर जन्म इसी तरह विस्मरण हो जाता | | स्वप्नवत है, ड्रीम लाइक है। निष्काम कर्म तब फलित होता है, जब है। जन्म को छोड़ दें, आज तक जिंदगी में जो किया है, उससे क्या | ज्ञात हो जाए कि फलाकांक्षा दुख है। हो गया है? कुछ भी नहीं हुआ। पानी पर खींची रेखाओं की तरह | लेकिन फलाकांक्षा होती सुख के लिए है। कोई आदमी दुख की सब मिट गया है। लेकिन आज भी रेखाएं खींचे चले जा रहे हैं; | आकांक्षा नहीं करता। आकांक्षा सभी सुख की करते हैं। और बड़े कल भी रेखाएं खींचेंगे। मरते वक्त पाएंगे, सब खो गया। नए जन्म | मजे की बात है कि जब मिलता है, तो सिर्फ दुख मिलता है - सभी में फिर नई रेखाएं खींचना शुरू कर देंगे।
को। आकांक्षा सदा सुख की, फल सदा दुख! दौड़ते हैं पाने को कर्म-संन्यास कर्म के सत्य के प्रति इस होश का नाम है कि कर्म | | स्वर्ग, मंजिल आती है सदा नर्क की। सोचते हैं, लगेगा हाथ आनंद से कुछ भी फलित नहीं होता है। कर्म एक खेल से ज्यादा नहीं है। | का अनुभव, हाथ सिर्फ दुख-स्वप्न, पीड़ा और संताप लगते हैं। तो जो प्रौढ़ हो जाएगा इस समझ से, वह कर्म के बाहर हो जाएगा। निष्काम कर्म तब फलित होता है, जब कोई फलाकांक्षा की इस छोड़ देगा कर्म को। छोड़ देगा, कहना शायद ठीक नहीं है, कर्म | | ट्रिक, फलाकांक्षा के इस रहस्य को समझ लेता है कि फलाकांक्षा छूट जाएंगे उससे।
| सदा भरोसा देती है सुख का, लेकिन जब भी हाथ में आता है पक्षी जैसे बच्चा बड़ा हो गया। अब वह कंकड़-पत्थरों से नहीं | सुख का, तो दुख का सिद्ध होता है। लेकिन होशियारी है। खेलता। अब वह रेत पर मकान नहीं बनाता। अब वह गुडे और | होशियारी यह है कि जो हाथ में आ जाता है, फलाकांक्षा उससे हट गुड़ियों का विवाह नहीं रचाता। अब उससे कोई कहता है कि पहले | जाती; और जो पक्षी हाथ में नहीं, उस पर लग जाती है। हाथ में तो तुम बहुत रस लेते थे, अब तुमने क्यों छोड़ दिए गुड़ियों के खेल ? | | सदा दुख होता, आकांक्षा सदा उन पक्षियों के साथ उड़ती रहती, जो क्यों तुम रेत पर मकान नहीं बनाते? क्यों तुम रंगीन कंकड़-पत्थर | | हाथ में नहीं हैं। जब उनमें से कोई भी पक्षी हाथ में आता, तो दुख इकट्ठे नहीं करते? तो वह बच्चा यह नहीं कहता कि मैंने छोड़ दिया। | सिद्ध होता। लेकिन और पक्षी उड़ते रहते हैं आकाश में, आकांक्षा वह कहता है. अब मैं बडा हो गया: वह सब छट गया। उनका पीछा करती रहती है।
कर्म-संन्यास कर्म का त्याग नहीं, कर्म के प्रति इस सत्य का इसलिए आकांक्षा की इस निरंतर स्टुपिडिटी, इस निरंतर मूढ़ता अनुभव है कि कर्म का जगत स्वप्न का जगत है। तब कर्म छूट | | का कभी अनुभव नहीं हो पाता। हाथ में आए पक्षी को हम कभी जाता है।
नहीं सोचते कि कल इसे भी चाहा था। आज हम कुछ और चाहने कृष्ण कहते हैं, यह मार्ग भी श्रेयस्कर है। यह मार्ग भी मंगलदायी | लगते हैं। है। इस मार्ग से भी परम अनुभूति तक पहुंचा जाता है। पर कृष्ण जिंदगीभर आकांक्षाएं फलित होती हैं, पूरी होती हैं, लेकिन हम कहते हैं, कठिन है यह मार्ग। दूसरे मार्ग को कृष्ण कहते हैं, सरल | कभी नहीं सोचते कि जो चाहा, वह मिला? जो चाहते हैं, वह कभी है निष्काम कर्म।
नहीं मिलता है। जो नहीं चाहते हैं, वह सदा मिलता है। लेकिन जो निष्काम कर्म में कर्म के ऊपर आग्रह नहीं है। निष्काम कर्म में | नहीं चाहते हैं, जब वह मिल जाता है, तो हम उसके दुख को फिर कर्म के पीछे जो फलाकांक्षा है. उसको समझने का आग्रह है।। | किसी नई चाह के सपने में भला देते हैं, फिर नए सपने में हम डूब कर्म-संन्यास में कर्म को समझने का आग्रह है कि कर्म ही व्यर्थ है। | | जाते हैं। निष्काम कर्म में कर्म की जो फलाकांक्षा है, उसको समझने का निष्काम कर्म का रहस्य है, फलाकांक्षा की इस तरकीब को ठीक आग्रह है कि फलाकांक्षा व्यर्थ है।
| से देख लेना कि मन सदा ही, जो नहीं है पास, उसको खोजता रहता कृष्ण कहते हैं, कर्म चलता रहे, भेद नहीं पड़ता; फलाकांक्षा है। और जो पास है, उसमें दुख भोगता रहता है। और कभी यह भर विसर्जित हो जाए। खेल चलता रहे; कोई हर्जा नहीं; लेकिन गणित नहीं बिठाया जाता कि कल यह भी मेरे पास नहीं था, तब बच्चा यह जान ले कि खेल है। यह भी तभी जाना जा सकता है, | | मैंने इसमें सुख चाहा था। और आज जब मेरे पास है, तो मैं दुख जब फलाकांक्षा दुख के अतिरिक्त कुछ भी नहीं लाती, इसकी | भोग रहा हूं। वर्तमान सदा दुख, भविष्य सदा सुख बना रहता है।
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ॐ संन्यास की घोषणा 0
जब तक ऐसा दिखाई पड़ेगा कि वर्तमान दुख है और भविष्य | तो बात यह है कि जिसे हम जानते नहीं, उससे डरने का कोई कारण सुख है, तब तक निष्काम कर्म फलित नहीं हो सकता। निष्काम नहीं है। कोई नहीं कह सकता कि मौत बुरी है। क्योंकि जिससे हम कर्म फलित होगा, जब यह वर्तमान और भविष्य की स्थिति परिचित नहीं हैं, उसको बुरा कैसे कहें? कोई नहीं कह सकता है बिलकुल उलटी हो जाए। वर्तमान सुख बन जाए।
कि मौत दुख देती है, क्योंकि जिससे हम परिचित नहीं हैं, उसे हम जैसे ही वर्तमान सुख बनता है, भविष्य की आकांक्षा तिरोहित | दुख देने वाली कैसे कहें! अपरिचित के संबंध में कोई भी निर्णय हो जाती है। भविष्य की आकांक्षा, भविष्य में सुख था, इसीलिए | तो कैसे लिया जा सकता है! थी। वर्तमान में दुख है, इसलिए भविष्य में सुख को हम प्रोजेक्ट नहीं; लेकिन मौत से हम नहीं डरते। डरने का कारण बहुत और करते हैं। आज दुख है, तो कल की कामना करते हैं कि कल सुख है। वह डर यह है कि हमने जिंदगी सदा कल पर टाली। जीए आज मिलेगा। कल के सुख की कामना में आज के दुख को झेलने में | नहीं; कहा, कल जी लेंगे। आज तो झेल लो दुख। कल सुख जरूर ही सुविधा बनती है। अगर कल भी सुख न हो, तो आज को आएगा; सब ठीक हो जाएगा। आज है अंधेरा, कल सूरज गुजारना मुश्किल हो जाए। जो लोग कारागृह में बंद हैं, वे कारागृह | निकलेगा। आज हैं कांटे, कल फूल खिलेंगे। आज घृणा और क्रोध के बाहर जब मुक्त होंगे, उस खुले आकाश की आकांक्षा में है जिंदगी में, तो कल प्रेम की वर्षा होगी। लेकिन मौत एक ऐसी कारागृह को बिता देते हैं।
घड़ी ला देती है कि कल का सिलसिला टूट जाता है; आज ही हाथ मैंने तो सुना है कि एक कारागृह में एक नया कैदी आया। उसे में रह जाता है। तब हम तड़फड़ाते हैं। तब हम घबड़ाते हैं। मौत का तीस वर्ष की सजा हुई है। वह भीतर सींकचों के गया। एक कैदी | डर आज के साथ जीने का डर है, और आज हम कभी जीए नहीं।
और उस कमरे में बंद है। उसने उससे पूछा कि भाई, तुम्हारी सजा __निष्काम कर्म की धारणा कहती है कि कल पर जो जीवन को कितनी है? उसने कहा कि में तो काफी, दस वर्ष काट चुका। मुझे टाल रहा है अर्थात फल की आकांक्षा में जो जी रहा है, वह पागल सिर्फ बीस वर्ष और रहना है। तो उसने कहा कि तुम दरवाजे के | है। कल कभी आता नहीं। जो है, आज है, अभी है। अभी को जीने पास स्थान ले लो, मुझे दीवाल के पास, क्योंकि तुम्हें जल्दी जाना | की कला चाहिए। अभी को जीने की क्षमता चाहिए। अभी को जीने पड़ेगा। मैं तीस वर्ष रहूंगा; तुम्हें बीस वर्ष ही रहना है। उसने अपना | की कुशलता चाहिए। बोरिया-बिस्तर उठाकर सींकचों के पास लगा लिया। जल्दी उसका कृष्ण तो उसी को योग कहते हैं-आज और अभी, हिअर एंड वक्त आने वाला है। बीस साल बाद वह खुले आकाश के नीचे नाउ, इसी क्षण जीने की जो क्षमता है-वही। लेकिन जिसे इस क्षण पहुंच जाएगा! बीस साल बाद की वह मुक्ति की संभावना, बीस जीना है, उसे फल की दृष्टि छोड़ देनी चाहिए। इस क्षण तो कर्म है। साल के कारागृह को भी गुजार देगी।
फल? फल सदा भविष्य में है, कर्म सदा वर्तमान में है। करना अभी रोज हम कल के लिए टाल देते हैं। आज को झेलने में सुविधा | है, होना कल है। किया अभी जाएगा, फल कल होगा। फल कभी तो बन जाती है, लेकिन इससे जीवन की पहेली हल नहीं होती। वर्तमान में नहीं है। कल फिर यही हाथ लगता है। फिर कल हम परसों के लिए सोचने ___ फल को छोड़ दें। लेकिन फल को हम तभी छोड़ सकते हैं, जब लगते हैं। रोज यही होता है। हमें रोज जिंदगी पोस्टपोन करनी पड़ती | फल विषाक्त सिद्ध हो। फल अगर अमृत का मालूम पड़े, तो छोड़ है, कल के लिए स्थगित कर देनी पड़ती है। वह कल कभी नहीं नहीं सकते हैं। और फल अमृत का मालूम पड़ता है। यद्यपि किसी आता। अंत में मौत आती है और कल का सिलसिला टूट जाता है। को अमृत का फल कभी मिलता नहीं। धोखा सिद्ध होता है। लेकिन
इसलिए तो हम मौत से डरते हैं। मौत से हम न डरें, मौत से डर मालूम पड़ता है। इस प्रतीति से कैसे छुटकारा हो सके? का असली कारण कल के सिलसिले का टूट जाना है। मौत कहती ___ इस प्रतीति से छुटकारे का एक ही मार्ग है कि अपने अतीत में है कि आगे कल नहीं होगा, इसलिए मौत से इतना डर लगता है। | जितने फलों की आकांक्षा आपने की है, उन्हें फिर से पुनर्विचार कर क्योंकि हम जीए ही नहीं कभी, हम तो कल की आशा में जीए। और लें। वे मिल गए आपको। जो पत्नी चाही थी, वह मिल गई; जो मौत कहती है, अब कल नहीं होगा। इसलिए मौत घबड़ाती है। । | पति चाहा था, वह मिल गया। जो नौकरी चाही थी, वह मिल गई
अन्यथा मौत में डर का कोई भी कारण नहीं है। क्योंकि पहली जो मकान चाहा था, वह मिल गया। ऐसा आदमी तो खोजना
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गीता दर्शन भाग-28
मुश्किल है, जिसे ऐसा कुछ भी न मिला हो, जो उसने चाहा था; | भी न मिले, तो भी सब मिला हुआ है। उसे नींद की झपकी भी लग कुछ न कुछ तो मिल ही गया होगा। उतना अनुभव के लिए काफी जाए, तो परम आनंद है। उसे रोटी का एक टुकड़ा भी मिल जाए, है। लेकिन मिलकर क्या मिला?
तो अमृत है। परमात्मा तो दूर। परमात्मा मिल जाए, तब तो उसकी एक मित्र हैं मेरे। बड़े उद्योगपति हैं। स्वभावतः, जैसा होना | खुशी का, उसके आनंद का, उसके अनुग्रह का कोई ठिकाना ही चाहिए, नींद नहीं आती है रात। मुझसे आकर एक दिन सुबह कहा | | नहीं है। लेकिन परमात्मा की छोटी-सी कृपा भी मिल जाए, तो भी कि न मुझे परमात्मा की तलाश है, न मुझे आत्मा से प्रयोजन है, न | | उसका अनुग्रह अनंत है। और जो आकांक्षा में जी रहा है फल की, मैं कोई बड़ा मोक्ष और स्वर्ग चाहता हूं। मुझे सिर्फ नींद आ जाए, | | उसे परमात्मा भी मिल जाए, तो वह उदास खड़े होकर यही कहेगा तो मैं आपका जीवनभर ऋणी रहूंगा। बस मुझे नींद का सूत्र मिल | | कि ठीक है; आप मिल गए, लेकिन कुछ मिला नहीं! जाए। मैंने कहा, सच! नींद मिलने से सब मिल जाएगा? उन्होंने | | फल की आकांक्षा खाली ही करती है, भरती नहीं। इसलिए जिस कहा, सब मिल जाएगा। मेरा जीवन बिलकुल ही नारकीय हो गया | | समाज में जितने फल मिल जाएंगे, जितनी आकांक्षाएं तृप्त हो है। जो उन्होंने कहा था, वह पास में पड़े टेप पर मैंने रिकार्ड कर | जाएंगी, उतनी एंप्टीनेस पैदा हो जाएगी। गरीब मुल्क कभी भी लिया था। मैंने कहा कि फिर दुबारा और कुछ तो मांगने नहीं आ | इतना खाली नहीं होता, जितना अमीर मुल्क खाली हो जाता है। जाइएगा? उन्होंने कहा कि कभी नहीं। सिर्फ धन्यवाद देने आऊंगा। | गरीब आदमी कभी भी इतना मीनिंगलेस अनुभव नहीं करता, कि नींद भर आ जाए।
अर्थहीन है मेरी जिंदगी, बेकार है। रोज काम बना रहता है। कल उन्हें ध्यान के कुछ प्रयोग करवाए। पंद्रह दिन बाद वे आए। | कुछ पाने को है। अमीर आदमी को एकदम डिसइलूजनमेंट होता कहने लगे, नींद तो आ गई, लेकिन और कुछ नहीं मिला! कहने है। एकदम विभ्रम। सब टूट जाता है। जो चाहा था, सब मिल लगे, नींद आ गई, लेकिन और कुछ नहीं मिला। मैंने उनका जो टेप | | गया। अब एकदम से सारी चीज ठहर गई होती है। अब कहीं कोई किया हुआ था वक्तव्य, उन्हें सुनवाया। कहा कि आप कहते थे, | गति नहीं मालूम होती है। कल, खतम हो गया। अमीर नींद मिल जाए, तो सब कुछ मिल जाए! अब आप कहते हैं, नींद आदमी-उस आदमी को अमीर कह रहा हूं, जिसे सब मिल गया, मिल गई, और कुछ नहीं मिला। धन्यवाद तो दूर, आप तो कुछ मेरा | जो उसने चाहा था-वह मरने पर पहुंच गया। अब उसके आगे कसूर बता रहे हैं! मुझसे कोई गलती हुई?
मौत के सिवाय कुछ भी नहीं है। इसलिए दुनिया के जो यूटोपियंस चौंके! सुना अपना वक्तव्य, तो चौंके। और उन्होंने कहा कि | हैं, जो कल्पनावादी हैं, जो कहते हैं, जमीन पर स्वर्ग ला देना है, जब नींद नहीं आती थी, तब ऐसा ही लगता था कि नींद मिल जाए, अगर वे किसी दिन सफल हो गए, तो सारी मनुष्यता आत्महत्या तो सब मिल जाए। और अब ऐसा लगता है। अब मैं क्या करूं! कर लेगी। उसके बाद फिर जीने का कोई कारण नहीं रह जाएगा। उन्होंने कहा, इसमें असत्य नहीं है। तब ऐसा ही लगता था कि नींद | यह बड़े मजे की बात है कि गरीब और भूखे आदमी की जिंदगी मिल जाए, तो सब मिल जाए। और अब ऐसा ही लगता है कि नींद | में थोड़ा अर्थ मालूम पड़ता है। और न्यूयार्क में रहने वाला जो मिल गई, तो क्या मिल गया! तो मैंने कहा, अब आपका क्या | | अरबपति है, उसकी जिंदगी में अर्थ नहीं मालूम पड़ता। आज अगर खयाल है ? अब आप क्या चाहते हैं? और मैं आपसे कहूंगा, अगर | | पश्चिम, विशेषकर अमेरिका के दार्शनिकों से पूछे, तो वे कहते हैं, वह भी मिल गया, तो आप फिर यही तो नहीं कहेंगे? | एक ही सवाल है-मीनिंगलेसनेस, एंप्टीनेस। एक ही सवाल है __परमात्मा आसानी से मिलता नहीं। नहीं तो आप जाकर उससे कि जीवन रिक्त क्यों है? खाली क्यों है? भरा हुआ क्यों नहीं है? कहें कि आप मिल गए, और तो कुछ नहीं मिला! अब क्या करें? गरीब कौमों ने कभी नहीं पूछा कि जीवन रिक्त क्यों है! क्योंकि वह आसानी से मिलता नहीं, इसलिए यह मौका आता नहीं। इस आकांक्षाएं जीवन को भरे रहती हैं। फल की इच्छा भरे रहती है। संसार में सब चीजें मिल जाती हैं. इसलिए दिक्कत है।
अमीर कौमों की इच्छाएं करीब-करीब परी होने के आ जा असल में जो भी फल की आकांक्षा से जी रहा है, उसे परमात्मा जो भी मिल सकता है, वह मिल गया। अच्छी से अच्छी कार दरवाजे भी मिल जाए, तो कुछ भी नहीं मिलेगा, क्योंकि फल की आकांक्षा | पर खड़ी है। अच्छा से अच्छा मकान पीछे खड़ा है। तिजोरी में जितनी भ्रांत स्वप्न है। जो फल की आकांक्षा के बिना जी रहा है, उसे कुछ | संपत्ति चाहिए, उससे ज्यादा भरी है। जो भी मिल सकता है, वह है।
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संन्यास की घोषणा
अब सब मिल गया, और लगता है, कुछ भी नहीं मिला। हो जाते हैं हाथ। दिन-रात मेहनत करके जब वह संगीत पैदा कर
निष्काम कर्म उस व्यक्ति को उपलब्ध होता है, जो फलाकांक्षा | पाता है, तो क्षणभर भी तो नहीं टिकता। सारा श्रम-संगीत-हवा की इस व्यर्थता को अनुभव कर लेता है कि पाकर भी फल कुछ में गया, और गया, और खो गया। इधर पैदा नहीं हुआ, वहां लीन पाया नहीं जाता है। फल को पा लेना भी निष्फलता है, ऐसी जिसकी हो गया। प्रतीति और समझ गहरी हो जाए, वह कर्म से नहीं भागेगा, कृष्ण तानसेन जैसे व्यक्ति को जिंदगीभर की साधना के बाद अगर कहते हैं, वह कर्म करता रहेगा। लेकिन तब कर्म उसे अभिनय से कृष्ण यह बात कहें कि दूसरा मार्ग सरल है तानसेन ! तानसेन की ज्यादा नहीं होगा।
समझ में नहीं पड़ेगा। पहला मार्ग तत्काल समझ में पड़ जाएगा। कृष्ण कहते हैं, दूसरा मार्ग अर्जुन, सरल है।
जिंदगीभर जो की थी मेहनत, जो श्रम, वह कहां है? पानी पर भी इसमें एक बात आपसे कहना चाहूंगा कि यह कृष्ण अर्जुन से | लकीर देर से मिटती है, संगीत का स्वर तो और भी जल्दी खो कहते हैं कि दूसरा मार्ग सरल है। यह विशेष रूप से अर्जुन से कही | | जाता है! गई बात है। यह जरूरी नहीं है कि सबके लिए दूसरा मार्ग सरल गाए गीत! रवींद्रनाथ से कोई कहे कि दूसरा मार्ग सरल है, तो हो। किसी के लिए पहला मार्ग भी सरल हो सकता है। इसलिए मुश्किल पड़ेगा समझना। रवींद्रनाथ को पहली बात समझ में आ कोई इस खयाल में न पड़े कि यह बात सामान्य है। यह अर्जुन के सकती है, कि सब गाए गीत हवा में खो गए। कहीं कुछ बचा नहीं। लिए एड्रेस्ड है। अर्जुन के ढंग के जो व्यक्ति हैं, उनके लिए दूसरा | | सब खो जाता है। मार्ग सरल है। यह भी खयाल में ले लें। क्योंकि यह जो चर्चा है, | लेकिन अर्जुन से बात बिलकुल ठीक है। अर्जुन के व्यक्तित्व के अर्जुन से सीधी है। यह सबसे नहीं है। सबसे कोई चर्चा होनी भी | बिलकुल अनुकूल है। अर्जुन की सारी व्यवस्था जीवन की कर्म की बहुत कठिन है।
है, स्वप्न की नहीं। और उसका कर्म ऐसा है, अगर वह किसी की - किसी के लिए पहला मार्ग भी सरल हो सकता है। किस के लिए | | छाती में छुरा भोंक दे, तो कर्म डेफिनिट हो जाता है; संगीत की तरह होगा? उस व्यक्ति के लिए पहला मार्ग सरल होगा, जिसके जीवन | | खो नहीं जाता। वह मुर्दा लाश सामने पड़ी रह जाती है; और वह का प्रशिक्षण कर्म का न हो, जिसके जीवन का प्रशिक्षण स्वप्न का | | छुरा सदा के लिए डेफिनिट हो जाता है। वह कृत्य स्थिर मालूम होता हो। जैसे एक कवि। एक कवि का सारा शिक्षण जो है जीवन की | | है। हालांकि जो और गहरा जानते हैं, वे कहते हैं, वहां भी कोई भेद व्यवस्था का, वह स्वप्न का है।
नहीं है। लेकिन वह बहुत गहरे देखने की बात है। एक चित्रकार। उसके जीवन की जो सारी व्यवस्था है, उसका जो अर्जुन की जो शिक्षा है, उस शिक्षा में कर्म जो है, वह बहुत प्रशिक्षण है, वह जैसे बड़ा हुआ है, वह स्वप्न का है। असल में जो | | कठोर और ठोस है। उसकी हिंसा की शिक्षा है। वह क्षत्रिय है। वह जितना बड़ा स्वप्न देख सके, उतना ही बड़ा चित्रकार हो सकता है। |सैनिक है। वह मारना और मरना ही जानता है। यह किसी की गर्दन
जो जितना सपने में डूब सके, उतना बड़ा कवि हो सकता है। | काट देना, सितार पर तार छेड़ देने जैसा नहीं है—साधारणतः। __एक संगीतज्ञ। वह ध्वनि में स्वप्नों को तैरा रहा है। वह ध्वनि के अंततः तो ऐसा ही है। अंततः तो सितार का तार टूट जाए, कि माध्यम से सपनों को रूपांतरित कर रहा है। उसकी सारी साधना आदमी की गर्दन टूट जाए, अंततः अल्टिमेटली कोई फर्क नहीं है। स्वप्न को ध्वनि में रूपांतरित करने की है। वह सपने हवा में तैरा पर इमीजिएटली, अभी तो बहुत फर्क है। रहा है; हवा में उड़ा रहा है, सपनों को पंख दे रहा है। ___ अर्जुन की जो जीवन की सारी की सारी बनावट है, वह कर्म की
अगर कृष्ण ने यह बात एक कवि से, एक संगीतज्ञ से, एक है, स्वप्न की नहीं है। सपने उसने कभी नहीं देखे; उसने कृत्य किए चित्रकार से कही होती, तो कृष्ण यह कभी नहीं कहते कि दूसरा | हैं। उसने कविताएं नहीं लिखी हैं; उसने हत्याएं की हैं। उसने तार मार्ग सरल है। पहला मार्ग सरल होता।
पर संगीत नहीं उठाया; उसने तो धनुष पर बाण खींचे हैं। कर्मठ एक संगीतज्ञ को यह समझना सदा आसान है कि कर्म पानी पर | होना उसकी नियति है, उसकी डेस्टिनी है। खींची गई रेखाओं से खो जाते हैं। कितनी मेहनत से सितार पर ___ इसलिए कृष्ण उससे कहते हैं, अर्जुन! मार्ग तो दोनों ही ठीक हैं, जिंदगीभर वह श्रम करता है! लहूलुहान हो जाती हैं अंगुलियां। पत्थर फिर भी दूसरा सरल है। यह अर्जुन से कही जा रही है बात कि दूसरा
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गीता दर्शन भाग-20
सरल है।
के लिए हानिप्रद बताते हैं। समाज को ध्यान में रखते इसलिए जब भी गीता को पढ़ें, तो सदा यह देख लें कि आप | | हुए, कर्म-संन्यास और निष्काम कर्म पर कुछ प्रकाश अर्जुन के ढंग के आदमी हैं, तो यह बात ठीक है। अगर अर्जुन से | डालने की कृपा करें। विपरीत आदमी हैं, तो उलटा कर लें सूत्र को पहली बात सरल है। और दो ही तरह के लोग हैं जगत में, स्वप्न में जीने वाले, और कर्म में जीने वाले। भीतर, इंट्रोवर्ट, अंतर्मुखी; और एक्सट्रोवर्ट, - सा मैंने कहा, व्यक्ति होते हैं अंतर्मुखी, बहिर्मुखी; वे बहिर्मुखी।
OI जो भीतर जीते हैं, और वे जो बाहर जीते हैं। जैसे अर्जुन बहिर्मुखी है। बाहर जी रहा है।
व्यक्ति अंतर्मुखी और बहिर्मुखी होते हैं, ऐसे ही युग एक कवि का जीवन भीतरी होता है। बाहर तो कभी-कभी कुछ भी अंतर्मुखी और बहिर्मुखी होते हैं। हमारा युग बहिर्मुखी युग है, बुदबुदे आ जाते हैं। असली जीवन तो भीतर होता है। कभी कुछ एक्सट्रोवर्ट एज! उपनिषद के ऋषियों का युग अंतर्मुखी युग है, बाहर फूट जाता है, प्रासांगिक-अनिवार्य नहीं है। अधिक | इंट्रोवर्ट एज। कविताएं तो भीतर ही उठती हैं और खो जाती हैं। लाख कविताएं | "मैंने कहा, जैसे व्यक्तियों में भेद होता है, ऐसे युगों में भी भेद पैदा होती हैं रवींद्रनाथ जैसे व्यक्ति में, तो एक प्रकट हो पाती है। | होता है। युग के भेद का मतलब यह है कि अंतर्मुखी युग में ऐसा वह भी अधूरी, पंगु। वह भी कभी पूरी प्रकट नहीं हो पाती। उससे | नहीं कि बहिर्मुखी लोग नहीं होते। अंतर्मुखी युग में भी बहिर्मुखी भी रवींद्रनाथ कभी तृप्त नहीं होते।
| लोग होते हैं, लेकिन न्यून, प्रभावहीन। प्रभाव अंतर्मुखी लोगों का अंतर्मुखी आदमी के जीवन की धारा भीतर घूमती है; बाहर कर्म | | होता है। शिखर पर वे ही होते हैं। बहिर्मुखी युग में भी अंतर्मुखी के जगत में उसके बहुत कम स्पर्श होते हैं। बहिर्मुखी व्यक्ति की लोग होते हैं, लेकिन न्यून और प्रभावहीन। शिखर पर बहिर्मुखी जीवन-धारा भीतर होती ही नहीं; उसके जीवन की सारी धारा बाहर लोग होते हैं। घूमती है—अंतर्संबंधों में, संघर्षों में। बाहर के जगत में उसकी छाप | | सोचें। उपनिषद के युग में लौटें एक क्षण को। तो गांव के होती है। पानी पर नहीं, वह पत्थर पर लकीरें खींचता मालम पड़ता भिखारी ब्राह्मण के चरण भी सम्राट छता। क्यों है। हालांकि लंबे अर्से में पत्थर भी पानी हो जाते हैं। लेकिन | पर था। सम्राट से ज्यादा बहिर्मुखी और कौन होगा? लेकिन गांव प्राथमिक, आज, अभी, पत्थर पर खींची गई लकीर ठहरी हुई | | के भिखारी ब्राह्मण के चरण में भी सम्राट को सिर रखना पड़ता। मालूम पड़ती है।
शिखर पर! वह जो जीवन की लहर थी उस समय, अंतर्मुखी को इसलिए इस शर्त को समझ लेना आप। कृष्ण का यह वक्तव्य | शिखर पर लिए थी। नहीं था कुछ उसके पास, जिसकी बाहर से कंडीशनल है, शर्त के साथ है; अर्जुन को दिया गया है। इसलिए | | गणना की जा सके। न धन था, जो बाहर से गिना जा सके। न पद उन्होंने दोनों बातें कह दी हैं। दोनों मार्ग से पहुंच जाते हैं अर्जुन! | था, जो बाहर से समझा जा सके। न पदवी थी, जिसका बाहर से कर्म-संन्यास से भी सब कर्मों को छोड़कर जो निर्जरा को हिसाब बैठ सके। कोई कैलकुलेशन बाहर से नहीं हो सकता था, उपलब्ध हो जाता है, जैसे कोई महावीर। सब कर्म छोड़कर! या लेकिन भीतर कुछ था। और भीतर का मूल्य था। तो भिखारी के पैर निष्काम कर्म से-जैसे कोई जनक, सब कर्मों को करते हुए। | में भी सम्राट को बैठ जाना पड़ता। सम्राट थे; नहीं थे, ऐसा नहीं। लेकिन दूसरा मार्ग सरल है, सुगम है। यह अर्जुन को दृष्टि में | | धनपति थे; नहीं थे, ऐसा नहीं। बाहर के जगत में सक्रिय लोग थे; रखकर दिया गया वक्तव्य है।
नहीं थे, ऐसा नहीं। लेकिन अंतर्मुखी प्रमुख था; प्राधान्य था। उसके चरणों में ही सब झुक जाता। वह शिखर पर था।
आज हालत बिलकुल उलटी है। आज हालत, बिलकुल उलटी प्रश्नः भगवान श्री, आप इस बात पर जोर देते हैं कि है; आज देश का साधु भी हो, तो दिल्ली के चक्कर लगाता है!
आजकल के संन्यासियों को सक्रिय व सकर्म संन्यास | | अगर आज साधु को भी प्रतिष्ठा पानी है, तो किसी मंत्री से सत्संग में ही जीना चाहिए और आप कर्म-संन्यास को समाज | | साधना पड़ता है! मंत्री प्रतिष्ठित नहीं होते साधुओं से अब; अब
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• संन्यास की घोषणा
साधु मंत्रियों से प्रतिष्ठित होते हैं!
इन बहिर्मुखी लोगों के लिए बहिर्मुखी संन्यास। और ऐसा नहीं सब साधुओं के शिष्यगण मंत्रियों का चक्कर लगाते हैं कि हमारे | | कि बहिर्मुखी संन्यास से पहुंचा नहीं जा सकता है। बिलकुल पहुंचा साधुजी के पास चलें। कोई मंत्री जाता नहीं; लाए जाते हैं। चेष्टाएं जा सकता है। की जाती हैं। किसी तरह साधु के पास में बिठाकर मंत्री की तस्वीर | कृष्ण ने अर्जुन से जो कहा, वैसी बात आज पूरे युग से कही जा उतरवा लें, तो भारी कृत्य हो जाता है! ऐसा नहीं कि साधु की, | सकती है, अधिक लोगों से कही जा सकती है। लेकिन फिर भी, कीमत वह मंत्री की ही है। धर्म की सभा का भी उदघाटन हो, तो | | जिनकी यात्रा अंतर्मुखता की है, उन्हें कोई कारण नहीं है कि वे राजनेता चाहिए!
खींचकर कर्म के जगत और जाल में आएं। उन्हें उनकी नियति से बहिर्मुखी युग है। जो बाहर से आंकी जा सकती है प्रतिष्ठा, हटाने का कोई भी प्रयोजन नहीं है। उसकी ही कीमत है। भीतर का कोई मूल्य नहीं। कवि भी आदृत लेकिन यदि हम सोचते हों कि अंतर्मुखता ही धर्म है, इंट्रोवर्शन होगा, ज्ञानी भी आदृत होगा, तो वह बाहर से आंका जा सके, | ही धर्म है, और कर्म त्याग करके ही कोई संन्यासी हो सकता है,
अन्यथा नहीं आदत हो सकेगा। ऐसा नहीं है कि अंतर्मुखी लोग नहीं तो हम इस जगत को धार्मिक बनाने में सफल न हो पाएंगे। हैं, लेकिन अंतर्मुखी प्रभाव की धारा पर नहीं है। युग बहिर्मुखी है। ___ और ध्यान रहे, अगर यह हमारी पृथ्वी अधार्मिक रह गई, यह
युग भी रूपांतरित होते हैं। जीवन में सब चीजें बदलती रहती हैं। हमारा युग अधार्मिक से अधार्मिक होता चला गया, तो इसका हर चीज ऋतु के अनुसार बदलती रहती है। हर अंतर्मुखी युग के बाद | जिम्मा अधार्मिक लोगों पर नहीं होगा, बल्कि उन धार्मिक लोगों पर बहिर्मुखी युग होता है। बहिर्मुखी के बाद अंतर्मुखी युग होता है। होगा, जिन्होंने इस युग के योग्य धर्म की अवतारणा नहीं की; जो ___मैं जानकर जोर देता हूं कि इस युग को ऐसे संन्यासी की जरूरत | | इस युग के योग्य धर्म को अवतरित नहीं कर पाए; जो इस युग के
कर्म-संन्यास में नहीं, बल्कि निष्काम कर्म में आस्थावान हो। प्राणों को स्पर्श कर सके, ऐसे धर्म का उदघोष न दे सके जो ऐसा - आज के युग को ऐसे संन्यासी की जरूरत है, जो जीवन की संदेश और मैसेज न दे सके, जो इस युग की भाषा और इस युग प्रगाढ़ धारा के बीच खड़ा हो जाए। जो जीवन को छोड़कर न हटे, के प्राणों को स्पंदित कर दे। न भागे। इसका यह मतलब नहीं है कि जो अंतर्मुखी हैं, उनको भी इसलिए मैं जोर देता हूं कि अब संन्यासी निष्कामकर्मी हो। यह मैं खींचकर कहूंगा कि वे भी जीवन की धारा में खड़े हो जाएं। नहीं; जोर मेरा वैसा ही है, जैसा कृष्ण का जोर था, कंडीशनल है। यह पर वे न के बराबर हैं। उन्हें खींचकर खड़ा करने की कोई भी जरूरत जोर वैसा ही है, जैसा कृष्ण का जोर था अर्जुन से कि दूसरा मार्ग नहीं है। वे भी पहुंच सकते हैं अपने मार्ग से। लेकिन उनके मार्ग से तेरे लिए सुगम है। पहले मार्ग से भी पहुंचा जा सकता है। ठीक ऐसे युग नहीं पहुंच सकता है। वे पहुंच जाएंगे अपने मार्ग से प्रभु तक। ही मैं कहता हूं, इस युग के लिए, बीसवीं सदी के लिए निष्काम वे जाएं अपनी यात्रा पर। लेकिन यह जो विराट आज का युग है, कर्म ही सुगम है, सरल है, मंगलदायी है। पहले मार्ग से भी पहुंचा यह जो बाहर संलग्न, इस बाहर संलग्न युग की धारा को अगर | | जा सकता है, लेकिन अब वह मार्ग इंडिविजुअल होगा। अब उसमें धार्मिक बनाना हो, तो धर्म को अंतर्मुखी सीमाओं को तोड़कर कर्म | इक्के-दुक्के लोग जा सकेंगे। राजपथ अब उसका नहीं होगा; अब के बहिर्मुखी जाल में पूरी तरह छा जाना होगा।
पगडंडी होगी। अब राजपथ पर तो बहिर्मुखता का संन्यास ही गति अगर हम कर्मठ संन्यासी पैदा कर सकें, तो ही इस युग को कर सकता है। प्रभावितं करेगा। अगर हम ऐसा संन्यासी पैदा कर सकें जिसका | और बहिर्मुखी संन्यास में और अंतर्मुखी संन्यास में रूप का ही चिंतन, जिसका मनन और जिसका आचरण, जिसका समस्त जीवन | | भेद है, अंतिम मंजिल का कोई भी नहीं। शरीर का भेद है, आत्मा कर्म के जगत को भी रूपांतरित करता हो, ट्रांसफार्म करता हो; जो | | का कोई भी नहीं। आकार का भेद है, निराकार निष्पत्ति में कोई भी आंतरिक क्रांति से ही नहीं गुजरता हो, जो बाहर जीवन को भी क्रांति अंतर नहीं है। युग के अनुकूल, युगधर्म! का उदघोष करता हो, तो हम इस युग को धार्मिक बना पाएंगे। संन्यासी अब करीब-करीब जंगल, पहाड़ और गुफा में उपयोगी अन्यथा धर्म सिकुड़ जाएगा कुछ अंतर्मुखी लोगों की गुफाओं में नहीं है। अगर पहाड़, गुफा और जंगल संन्यासी जाए भी, तो सिर्फ और ये बहिर्मुखी लोग अधर्म की तरफ बढ़ते चले जाएंगे। इसीलिए कि वहां से तैयार होकर उसे लौट आना है यहीं बाजार में,
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गीता दर्शन भाग-20
क्योंकि अब जीवन की विराट धारा जंगल और पहाड़ पर नहीं है। नहीं है। कभी बंबई भी मांडू हो जाएगी। वह तो जैसे ही
और वे युग गए, जब अंतर्मुखता का आदर था। तो बाजार में कम्युनिकेशन के साधन बदले कि सब बदल जाता है। जो बैठा था, उसकी भी आंख जंगल की तरफ थी। बैठता था बाजार | यह मैंने इसलिए कहा कि जिस तरह ये बाहर के यात्रा-पथ हैं, में, इरादे उसके भी जंगल जाने के थे। और नहीं जा पाता था, तो | ऐसे ही अंतर के चेतना के भी यात्रा-पथ हैं। उपनिषद के जमाने में पीड़ित अनुभव करता था। और कभी-कभार जब मौका पाता था, | अंतर्मुखी व्यक्ति के पास से अधिक लोगों को गुजरने का मौका तो किसी जंगल के वासी के पास चरणों में जाकर, सिर रखकर | था। आज अंतर्मुखी के पास से अधिक लोग नहीं गुजरेंगे। सांत्वना ले आता था। अब हालत उलटी है। अब वहां कोई नहीं पगडंडियां रह गईं, कभी कोई जाता है। अब तो बहिर्मखी के पास जाएगा। वह कट गया रास्ता।
| से अधिक लोग गुजरेंगे। यात्रा-पथ बदल गया है। जैसे, मैं अभी एक गांव में ठहरा हुआ था। इंदौर के पास एक | विज्ञान ने, समृद्धि ने, संख्या ने, सभ्यता ने सब दिशाओं से जगह है, मांडू। मैं हैरान हुआ। मैंने इतिहास की किताबों में पढ़ा था | बहिर्मुखता को इतना प्रबल कर दिया है कि धर्म अगर अंतर्मुखी होने कि मांड की आबादी कभी नौ लाख थी। ज्यादा दिन पहले नहीं. की जिद्द करे, तो वह जिद्द महंगी पड़ेगी। वह जिद्द महंगी पड़ रही है। सात सौ साल पहले। मांडू पहुंचा, तो बस स्टैंड पर जो तख्ती लगी | | इसलिए जो धर्म अंतर्मुखी होने का ध्यान रखे हुए हैं, वे पिछड़ गए। थी, उस पर लिखा था, नौ सौ सत्ताइस आबादी। सात सौ साल | खयाल करें, हिंदू धर्म पृथ्वी पर पुराने से पुराना धर्म है। कहें कि पहले नौ लाख की आबादी की बस्ती सात सौ साल के भीतर नौ | | जिसका पीछे कोई छोर नहीं मिलता; सनातन है। लेकिन पिछड़ सौ सत्ताइस की आबादी रह गई! नौ सौ ! क्या हुआ इस मांडू को? | | गया। क्योंकि हिंदू धर्म के पास संन्यासी अभी भी अंतर्मुखी हैं। जहां कभी नौ लाख लोग रहते थे, उस जमाने के बड़े से बड़े | क्रिश्चियनिटी फैली सारे जगत में। कोई और कारण नहीं है। महानगरों में एक था। उस गांव की मस्जिद जाकर मैंने देखी, तो क्रिश्चियनिटी के पास जो उपदेशक हैं. वे बहिर्मखी हैं। और कोई मस्जिद में दस हजार लोग एक साथ नमाज पढ़ सकें, इतनी बड़ी | | कारण नहीं है। आज सिर्फ कैथोलिक क्रिश्चियनिटी के पास बारह
गी। धर्मशाला जाकर देखी, तो दस हजार लोग इकट्ठे ठहर लाख संन्यासी हैं। सारे जगत में फैले हैं। कुछ बुरा नहीं है। सकें, इतनी-इतनी बड़ी धर्मशालाएं हैं। सब खंडहर! नौ लाख क्रिश्चियनिटी फैल जाए, उससे कुछ हर्ज नहीं है। कोई वहां से लोगों के खंडहर! नौ सौ आदमी रहते हैं अब। हो क्या गया! पहुंचे, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। कोई कहां से पहुंचे, इससे कोई __ मैंने पूछा कि बात क्या हो गई! इतना एकदम से परिवर्तन कैसे | भेद नहीं है। मैंने उदाहरण के लिए कहा। हुआ? पता चला कि आवागमन के मार्ग बदल गए! सात सौ साल | मैं यह कह रहा हूं कि अगर अंतर्मुखी धर्म अपने को अंतर्मुखी पहले जब ऊंट ही आवागमन का बुनियादी साधन था, तो मांडू अड्डा रखने की जिद्द रखेंगे, तो सिकुड़ते चले जाएंगे। दुनिया वहां से नहीं था ऊंटों के गुजरने का। फिर ऊंट ही खो गए, वह मार्ग ही बदल गजरती अब। दनिया जहां से गजरती है, धर्म को वहां खड़ा होना गया। अब मांडू से कोई यात्री ही नहीं गुजरते, तो मांडू में जो बसे थे| | चाहिए। अब अगर मांडू में हम जाकर तीर्थ बना लेंगे, तो ठीक है; बाजार, वे उजड़ गए! बाजार उजड़ गए, तो मस्जिदें और मंदिर उजड़ | बन सकता है। लेकिन मांडू के तीर्थ से अब ज्यादा लोग नहीं गए। धर्मशालाओं में कौन ठहरेगा! वह सब समाप्त हो गया। | गुजरेंगे। अब मांडू की मस्जिद में दस हजार लोग नमाज नहीं पढ़
नौ लाख की आबादी तिरोहित हो गई स्वप्न की तरह, क्योंकि सकते। नौ सौ की आबादी में दस पढ़ लें, तो बहुत। पास से जो जत्थे गुजरते थे व्यापारियों के, उन्होंने कहीं और से | | अंतर्यात्रा का जो पथ है मनुष्य की चेतना का, वह बहिर्मुखी है गुजरना शुरू कर दिया। उन्होंने नए वाहन चुन लिए। | आज। सदा रहेगा, ऐसा नहीं है। सौ वर्ष में स्थिति बदल जाएगी।
पुरानी दुनिया के सारे बड़े नगर नदियों के किनारे बसे हैं, क्योंकि हमेशा बदल जाती है। पीरियाडिकल है। जैसे रात के बाद दिन नदियां जीवन का साधन थीं। उतने पानी के बिना बड़े नगर नहीं बस आता है, दिन के बाद रात आती है, ऐसे अंतर्मुखता के बाद सकते थे। अब नया कोई नगर नदी के किनारे बसे, न बसे, कोई बहिर्मुखता आती है, बहिर्मुखता के बाद अंतर्मुखता आती है। भेद नहीं पड़ता। आज के जमाने के सारे बड़े नगर समुद्रों के किनारे । लेकिन ध्यान रहे, अभी पूरब को अंतर्मुख होने में बहुत समय बसे हैं। बहुत दिन तक बसे रहेंगे, इस भ्रम में रहने की कोई जरूरत लगेगा, क्योंकि अभी पूरब पूरी तरह बहिर्मुखी नहीं हुआ। अभी
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संन्यास की घोषणा
यहां दिन ही नहीं हुआ, तो रात कैसे होगी? पश्चिम अब जल्दी ही | व्यवस्था नहीं। अंतर्मुख हो जाएगा। अभी पूरब को तो बहिर्मुखता में से गुजरना | निष्कामकर्मी संन्यासी घोषणा करके जी रहा है कि मैं संन्यासी पड़ेगा। पश्चिम अंतर्मुख हो जाएगा, क्योंकि बहिर्मुखता अपने पूरे । हूं। उसकी संन्यास की व्यवस्था भीतर तक, निज तक सीमित नहीं शिखर पर आ गई। और हर चीज जब अपने शिखर पर आ जाती | है। औरों तक भी उसने खबर कर दी है। इससे ज्यादा भेद नहीं है। है, तो लौटना शुरू हो जाता है। जब फल पक जाते हैं, तो गिर जाते | निष्काम कर्म संन्यास में गृहस्थ और संन्यासी में कोई भेद नहीं है। हैं। पकना मौत है।
हां, उस गृहस्थ में तो भेद है, जो सकामी है। लेकिन निष्कामकर्मी पश्चिम अंतर्मुखी होगा, जल्दी। लेकिन पूरब तो अभी बहिर्मुखी। | गृहस्थ में और निष्कामकर्मी संन्यासी में कोई भेद नहीं है; घोषणा होगा। और अभी तो पश्चिम भी बहिर्मुखी है। अभी तो और | का भेद है। एकाध-दो कदम वह अपने शिखर पर उठा सकता है।
एक व्यक्ति ने अपने पुराने ही वस्त्र पहन रखे हैं, अपना नाम इसलिए मैं कहता हूं कि नव-संन्यास की मेरी जो धारणा है, वह नहीं बदला है, घोषणा नहीं की है, जगत के सामने डिक्लेरेशन नहीं बहिर्मुखी संन्यास की है; वह निष्काम कर्म वाले संन्यास की है। | किया है कि मैं संन्यासी हूं। लेकिन निष्काम से जी रहा है, तो इसका यह अर्थ नहीं है कि जो कर्म त्याग कर संन्यास की तरफ जाते संन्यासी है। लेकिन उसके संन्यास का लाभ उसके लिए ही होगा। हैं, मैं उनके विरोध में हूं। मेरी उनके लिए शुभकामना है। लेकिन | घोषणा के बाद उसका लाभ औरों के लिए भी हो सकता है। घोषणा वे पगडंडी पर हैं; राजपथ आज उनका नहीं है।
के बाद उसका कमिटमेंट भी है, जिसमें वह अपने को धोखा देना कठिन पाएगा। जिसने घोषणा नहीं की है, वह अपने को धोखा देना
आसान पाएगा। प्रश्नः भगवान श्री, आप कहते हैं कि इस युग के | ___ एक व्यक्ति ने घोषणा कर दी है बाजार में खड़े होकर कि अब लिए निष्कामकर्मी संन्यासी अधिक उपयोगी हैं। इस | मैं संन्यासी हूं। दुकान पर बैठकर उसे चोरी करने में कठिनाई होगी। संदर्भ में कृपया यह बताएं कि निष्कामकर्मी गृहस्थ | शराबखाने के सामने खड़े होने में झिझक आएगी। उसका और निष्कामकर्मी संन्यासी में क्या अंतर होगा? कमिटमेंट है, उसका डिक्लेरेशन है। लोग जानते हैं, वह संन्यासी
है। उसके गैरिक वस्त्र हैं।
अभी पूना में एक मित्र संन्यास लेने आए। उन्होंने कहा, मैं में कामकर्मी गृहस्थ और निष्कामकर्मी संन्यासी में क्या | | संन्यास तो लेना चाहता हूं, लेकिन मैं शराब की दुकान पर शराब 11 अंतर होगा? गहरे में कोई अंतर नहीं होगा। ऊपर से | बेचने का काम करता हूं। तो मैं संन्यास ले लूं? गेरुए वस्त्र पहनकर अंतर हो सकता है।
शराब बेचूंगा! मैंने कहा, शराब पीते तो नहीं हो? उसने कहा, असल में गृहस्थ और संन्यासी का जो अंतर है, वह | शराब पीता नहीं हूं। मैंने कहा, तुम बेफिक्री से जाओ और ले लो। कर्म-संन्यास वाला अंतर है। गृहस्थ और संन्यासी का जो भेद है, | क्योंकि असली सवाल शराब पीने का है। उसने कहा, लेकिन वह कर्म-संन्यास के मार्ग का भेद है। गृहस्थ उसको कहता है आप मुझे मुश्किल में डाल रहे हैं! मैंने कहा, घोषणा करना संन्यास कर्म-संन्यासी, जो कर्म में उलझा हुआ है। संन्यासी उसे कहता है, की मुश्किल में पड़ना है। पर इतनी मुश्किल उठाने की हिम्मत जिसने कर्म छोड़ दिया।
| होनी चाहिए। निष्कामकर्मी संन्यासी के लिए गृहस्थ और संन्यासी में गहरे में | दूसरे दिन वह आया और उसने कहा कि मैंने नौकरी छोड़ दी है। कोई भेद नहीं है। ऊपर से भेद हो सकता है; गौण, घोषणा का; इसलिए नहीं; लेकिन अब गैरिक वस्त्र पहनकर इन हाथों से किसी इससे ज्यादा नहीं। गृहस्थ अगर पूर्ण निष्काम से जी रहा है, तो | को शराब दूं, तो जहर देना है। संन्यासी है—अघोषित। उसने घोषणा नहीं की है। उसने जाहिर यह घोषणा का अंतर है। वह भीतर से संन्यासी रह सकता था; नहीं किया है कि मैं संन्यासी हूं। वह चुपचाप, मौन, संन्यास में जी | | कोई कठिनाई न थी। शराब बेच सकता था, कर्तव्य की तरह, रहा है। उसका संन्यास उसकी निजी आंतरिक धारणा है, सामाजिक | नौकरी की तरह, कोई प्रयोजन न था। चुपचाप लौटकर आ जाता,
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गीता दर्शन भाग-20
ध्यान करता, प्रार्थना करता, पूजा करता, प्रभु को स्मरण करता, | मुश्किल हो गया! वह कभी कुछ ज्यादा दाम किसी को बताने अपने भीतर जीता रहता: शराब बेचता रहता। लेकिन तब समाज
| लगता किसी चीज का, और वह कहता, ओम! तीर्थयात्रा पर को उससे फायदा न हो पाता। उसकी घोषणा उसका कमिटमेंट है।। चलना है। वह तो घबड़ा जाता।
और एक बड़े मजे की बात है कि जब तक हम विचार को भीतर । सालभर वह चोरी न कर पाया। सालभर वह बेईमानी न कर रखते हैं, तब तक विचार सदा आकाश में होता है। जब हम उसे। | पाया। जब वे तीर्थयात्रा पर चलने लगे, तो उस संन्यासी से उसने बाहर प्रकट कर देते हैं, तो उसकी जमीन में जड़ें चली जाती हैं। कहा कि लेकिन तीर्थ तो पूरा हो गया! मैं पवित्र हो गया। स्नान हो अगर आपने संन्यास का खयाल भीतर रखा, तो वह हमेशा हवाई | | गया। पर तूने भी खूब किया! तीर्थयात्रा के बहाने सालभर एक होगा। उसकी जड़ें नहीं होंगी। आपने घोषणा कर दी; उसकी जड़ें | | स्मृति का तीर-तीर्थयात्रा पर चलना है! और जब तीर्थयात्रा पर जमीन में गड़ जाएंगी। और हर चीज रोकने लगेगी-हर चीज! | जाना है, तो चोरी तो मत करो। चोरी करोगे, तो जाना बेकार है। __एक आदमी बाजार सामान खरीदने जाता है, गांठ लगा लेता है | जाकर भी क्या करोगे! कपड़े में। अब गांठ से कहीं सामान लाने का कोई भी संबंध है! बाहर की घोषणा आपके ऊपर एक रिमेंबरिंग की गांठ बन जाती लेकिन वह गांठ उसे दिनभर याद दिलाती रहती है कि गांठ लगी है, एक चुभता हुआ तीर बन जाती है, जो छिदता रहता है। और है, सामान ले जाना है। वह जब भी दिन में गांठ दिखाई पड़ती है, | | जिंदगी बड़ी छोटी-छोटी चीजों से निर्मित है। इसलिए संन्यासी में खयाल आता है, सामान ले जाना है।
| और गृहस्थ में, जहां तक निष्काम कर्मयोग का संबंध है, भीतर से मैंने सुना है कि एक संन्यासी को एक बार एक दुकानदार ने | | कोई भेद नहीं, बाहर से भेद है। नौकरी पर रख लिया। संन्यासी से उसने कहा भी कि दुकान है, | | गृहस्थ निष्कामकर्मी, अघोषित संन्यासी है; निष्कामकर्मी नौकरी पर रहोगे, कहीं ऐसा न हो कि बिगड़ जाओ। संन्यासी ने | | संन्यासी, घोषित संन्यासी है। उसने जगत के सामने घोषणा कर दी कहा, बिगड़ने का डर होता, तो नौकरी स्वीकार न करते। इतने सस्ते | | है। और बहुत आश्चर्य की बात है कि बहुत बार घोषणा करते ही में संन्यास न खोते। रहेंगे। लेकिन ध्यान रखना, मेरे साथ आप भी | | हम मजबूत हो जाते हैं। सच तो यह है कि घोषणा करते ही इसलिए बिगड़ सकते हो। वह सेठ हंसा; अपनी पूरी चालाकी में हंसा।। नहीं, कि भीतर डर लगता है, कि कमजोर हैं। करें, न करें? घोषणा उसने कहा, फिक्र छोड़ो। हम काफी होशियार हैं।
करने के लिए जो बल जुटाना पड़ता है भीतर, वही घोषणा के साथ इस दुनिया में होशियार आदमी से ज्यादा नासमझ आदमी | | प्रकट होते से और गहरे बल में ले जाता है। और एक बार एक बात खोजने मुश्किल हैं। बहुत होशियार!
की घोषणा हो जाए, तो हमारा एक कमिटमेंट, हमारा विचार कृत्य संन्यासी दुकान पर बैठने लगा। दिन में पच्चीस दफे उस | बन गया। और इस जगत में विचार में धोखा देना आसान, कृत्य में व्यवसायी को उसके गेरुए वस्त्र दिखाई पड़ते। पच्चीस बार उसके | | धोखा देना थोड़ा कठिन है। बस, इतना ही फर्क है। मन में होता, यह आनंद! पता नहीं क्या! क्या इसे मिला है, पता | अभी पांच मिनट आप रुकेंगे। पांच मिनट ये जो हमारे निष्काम नहीं! जब भी नजर जाती, उसे वह खयाल आता। सालभर बीत संन्यासी हैं, ये कीर्तन करेंगे। पांच मिनट आप बैठे रहेंगे और कीर्तन गया, तो संन्यासी ने कहा कि अब अगले वर्ष मेरा इरादा तीर्थयात्रा | | के बाद हम विदा होंगे। शेष कल आपसे बात करेंगे। पांच मिनट पर जाने का है। आप भी चलें! लालच उसे भी लगा, कि चलो हर्ज बैठे रहें। उनके कीर्तन में आप भी आनंद लें और ताली बजाएं। नहीं है, हो आऊं। पर उस व्यवसायी ने कहा कि तैयारी क्या करनी होगी? उसने कहा, कोई ज्यादा तैयारी नहीं करनी होगी। जो तैयारी करनी है, मैं करवाता रहूंगा।
सालभर में वह संन्यासी परिचित हो गया था सेठ की चालबाजियों से, दुकानदारी की बेईमानियों से, धोखाधड़ियों से। जब भी सेठ कुछ कम चीज तौलने लगता, तब वह संन्यासी कहता, राम। तीर्थयात्रा पर चलना है। वह सेठ घबड़ा जाता। यह बड़ा
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अध्याय 5 दूसरा प्रवचन
निष्काम कर्म
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ॐ गीता दर्शन भाग-20
ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न काक्षति। कृष्ण कहते हैं निष्काम कर्मयोग की परिभाषा में, कि जो व्यक्ति निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते ।।३।। | राग-द्वेष दोनों के अतीत हो जाता है, वह निष्काम कर्म को उपलब्ध हे अर्जुन! जो पुरुष न किसी से द्वेष करता है, और न किसी होता है। की आकांक्षा करता है, वह निष्काम कर्मयोगी सदा संन्यासी राग-द्वेष दोनों के द्वंद्व के बाहर जो हो जाता है। लेकिन हम कभी ही समझने योग्य है, क्योंकि रागद्वेषादि द्वंद्वों से रहित हुआ द्वंद्व के बाहर नहीं होते। जिन्हें हम त्यागी कहते हैं, वे भी द्वंद्व के पुरुष सुखपूर्वक संसाररूप बंधन से मुक्त हो जाता है। बाहर नहीं होते। वे भी केवल विरागी होते हैं। उनका राग उलटा हो
गया होता है। घर को छोड़ते हैं, भागते हैं, घर को पकड़ते नहीं।
धन को त्यागते हैं, छाती से नहीं लगाते। लेकिन त्याग करने में उतने न वन में या तो हम खिंचते हैं किसी से, आकर्षित होते हैं; | | ही आब्सेशन से, उतनी ही तीव्रता से भरे होते हैं, जितना धन को UII या हटते हैं और विकर्षित होते हैं। या तो कहीं हम | | पकड़ने की आकांक्षा से भरे हुए थे। त्याग सहज नहीं, विकर्षण है।
आकांक्षा से भरे हुए बंध जाते हैं, या कहीं हम विपरीत | किसी की तरफ मैं जाऊं, तो भी मैं उससे बंधा हूं। और उससे भागू, आकांक्षा से भरे हुए मुड़ जाते हैं। लेकिन ठहरकर खड़ा | तो भी उससे ही बंधा हूं। जब जाता हूं, तब लोगों को दिखाई पड़ता होना—आकर्षण और विकर्षण के बीच में रुक जाना—न हमें | | है कि बंधा हूं। स्मरण है, न हमें अनुभव है। और आश्चर्य यही है कि न आकर्षण | | विवेकानंद ने कहीं एक संस्मरण लिखा है। लिखा है कि जब से कभी कोई व्यक्ति आनंद को उपलब्ध होता है और न विकर्षण | | पहली-पहली बार धर्म की यात्रा पर उत्सुक हुआ, तो मेरे घर का से। दोनों के बीच जो ठहर जाता है, वह आनंद को उपलब्ध होता है। | जो रास्ता था, वह वेश्याओं के मोहल्ले से होकर गुजरता था।
राग का अर्थ है, खिंचना; द्वेष का अर्थ है, हटना। साधारणतः | | संन्यासी होने के कारण, त्यागी होने के कारण, मैं मील दो मील का राग और द्वेष विपरीत मालूम पड़ते हैं, एक-दूसरे के शत्रु मालूम | | चक्कर लगाकर उस मुहल्ले से बचकर घर पहुंचता था। उस पड़ते हैं। लेकिन राग और द्वेष की जो शक्ति है, वह एक ही शक्ति मुहल्ले से नहीं गुजरता था। सोचता था तब कि यह मेरे संन्यास का है, दो नहीं। आपकी तरफ मैं मुंह करके आता हूं, तो राग बन जाता | | ही रूप है। लेकिन बाद में पता चला कि यह संन्यास का रूप न' हूं। आपकी तरफ पीठ करके चल पड़ता हूं, तो द्वेष बन जाता हूं। था। यह उस वेश्याओं के मुहल्ले का आकर्षण ही था, जो विपरीत लेकिन चलने वाले की शक्ति एक ही है। जब वह आपकी तरफ | | हो गया था। अन्यथा बचकर जाने की भी कोई जरूरत नहीं है। आता है, तब भी; और जब आपसे पीठ करके जाता है, तब भी। गुजरना भी सचेष्ट नहीं होना चाहिए कि वेश्या के मुहल्ले से
सभी आकर्षण विकर्षण बन जाते हैं। और कोई भी विकर्षण जानकर गुजरें। जानकर बचकर गुजरें, तो भी वही है; फर्क नहीं है। आकर्षण बन सकता है। वे रूपांतरित हो जाते हैं। इसलिए राग-द्वेष विवेकानंद को यह अनुभव एक बहुत अनूठी घड़ी में हुआ। दो शक्तियां नहीं हैं, पहले तो इस बात को ठीक से समझ लेना | जयपुर के पास एक छोटी-सी रियासत में मेहमान थे। विदा जिस चाहिए। एक ही शक्ति के दो रूप हैं। घृणा और प्रेम दो शक्तियां दिन हो रहे थे, उस दिन जिस राजा के मेहमान थे, उसने एक नहीं हैं; एक ही शक्ति के दो रूप हैं। मित्रता और शत्रुता भी दो | स्वागत-समारोह किया। जैसा कि राजा स्वागत-समारोह कर सकता शक्तियां नहीं हैं; एक ही शक्ति की दो दिशाएं हैं।
था, उसने वैसा ही किया। उसने बनारस की एक वेश्या बला ली इसलिए सारा जगत, सारा जीवन, इस तरह के द्वंद्वों में बंटा होता | विवेकानंद के स्वागत-समारोह के लिए। राजा का स्वागत-समारोह है-राग-द्वेष, शत्रुता-मित्रता, प्रेम-घृणा। ये एक ही शक्ति के दो | था; उसने सोचा भी नहीं कि बिना वेश्या के कैसे हो सकेगा!
आंदोलन हैं। और हमारा मन या तो प्रेम में होता है या घृणा में होता | | ऐन समय पर विवेकानंद को पता चला, तो उन्होंने जाने से है। प्रेम सुख का आश्वासन देता है; घृणा दुख का फल लाती है। इनकार कर दिया। वे अपने तंबू में ही बैठ गए और उन्होंने कहा, राग सुख का भरोसा देता है; द्वेष दुख की परिणति बन जाता है। | मैं न जाऊंगा। वेश्या बहुत दुखी हुई। उसने एक गीत गाया। उसने राग आकांक्षा है, द्वेष परिणाम है। ये दोनों एक ही प्रक्रिया के दो | नरसी मेहता का एक भजन गाया। जिस भजन में उसने कहा कि अंग हैं, आकांक्षा और परिणाम।
एक लोहे का टुकड़ा तो पूजा के घर में भी होता है, एक लोहे का
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निष्काम कर्म
टुकड़ा कसाई के द्वार पर भी पड़ा होता है। दोनों ही लोहे के टुकड़े | अनमोटिवेटेड एक्शन हो सकता है। पश्चिम के मनोवैज्ञानिक होते हैं। लेकिन पारस की खूबी तो यही है कि वह दोनों को ही सोना | मानने को राजी नहीं हैं कि बिना किसी अंतप्रेरणा के कर्म हो सकता कर दे। अगर पारस पत्थर यह कहे कि मैं देवता के मंदिर में जो पड़ा | है। सब कर्म मोटिवेटेड हैं। सभी कर्मों के पीछे करने की प्रेरणा है लोहे का टुकड़ा, उसको ही सोना कर सकता हूं और कसाई के | होगी ही, अन्यथा कर्म फलित नहीं होगा। कर्म है, तो भीतर घर पड़े हुए लोहे के टुकड़े को सोना नहीं कर सकता, तो वह पारस मोटिवेशन होगा। नकली है। वह पारस असली नहीं है।
कृष्ण कहते हैं, कर्म है और भीतर करने का कोई कारण हैउस वेश्या ने बड़े ही भाव से गीत गाया-प्रभुजी, मेरे अवगुण सुखद या दुखद; आकर्षण का या विकर्षण का; राग का या द्वेष चित्त न धरो! विवेकानंद के प्राण कंप गए। जब सुना कि पारस का–अगर कोई भी भीतर कारण है कर्म का, तो कर्म फिर बंधन पत्थर की तो खूबी ही यही है कि वेश्या को भी स्पर्श करे, तो सोना का निर्माता होगा। और अगर कोई कारण नहीं है भीतर, फिर कर्म हो जाए। भागे! तंबू से निकले और पहुंच गए वहां, जहां वेश्या | | फलित हो, तो निष्काम कर्म है। और सुख के मार्ग से व्यक्ति बंधन गीत गा रही थी। उसकी आंखों से आंसू झर रहे थे। विवेकानंद ने | के बाहर हो जाता है। वेश्या को देखा। और बाद में कहा कि पहली बार उस वेश्या को | | लेकिन मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि ऐसा कर्म हो नहीं सकता। कर्म मैंने देखा, लेकिन मेरे भीतर न कोई आकर्षण था और न कोई | | होगा, तो आकर्षण से या विकर्षण से। इसलिए इसे थोड़ा गहरे में विकर्षण। उस दिन मैंने जाना कि संन्यास का जन्म हुआ है। समझ लेना जरूरी है।
विकर्षण भी हो, तो वह आकर्षण का ही रूप है; विपरीत है। पश्चिम की पूरी साइकोलाजी की यह चुनौती है। पश्चिम के वेश्या से बचना भी पड़े, तो यह वेश्या का आकर्षण ही है कहीं | मनसशास्त्र का यह दावा है कि कर्म तो होगा ही कारण से। अचेतन मन के किसी कोने में छिपा हुआ, जिसका डर है। वेश्याओं अकारण-न राग, न द्वेष; कहीं पहुंचना भी नहीं है, कहीं से बचना से कोई नहीं डरता, अपने भीतर छिपे हुए वेश्याओं के आकर्षण से | भी नहीं है तो कर्म नहीं होगा। डरता है।
अगर यह बात सच है, तो कृष्ण का पूरा विचार धूल में गिर जाता विवेकानंद ने कहा, उस दिन मेरे मन में पहली बार संन्यास का | | है। फिर उसकी कोई जगह नहीं रह जाती। क्योंकि कृष्ण की सारी जन्म हुआ। उस दिन वेश्या में भी मुझे मां ही दिखाई पड़ सकी। चिंतना इस बात पर खड़ी है कि ऐसा कर्म संभव है। कोई विकर्षण न था। .
जिसमें राग और द्वेष न हों, ऐसा कर्म कैसे संभव है ? हम तो यह जो कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं कि द्वंद्वातीत महाबाहो! जिस | जो भी करते हैं, अगर हम अपने किए हुए कर्मों का विचार करें, तो दिन राग और द्वेष दोनों के अतीत कोई हो जाता, उस दिन निष्काम | पश्चिम के मनोविज्ञान का दावा सही मालूम पड़ता है। लेकिन हमारे कर्म को उपलब्ध होता है।
कर्म रुग्ण मनुष्यों के कर्म हैं। हमारे कर्मों के ऊपर से निर्णय लेना कठिन मामला मालूम होता है। क्योंकि कर्म हम दो ही कारणों | ऐसे ही है, जैसे दस अंधे आदमियों की आंखों को देखकर यह से करते हैं। या तो आकर्षण हो, तो करते हैं; और या विकर्षण हो, | | निर्णय ले लेना कि जो भी आदमी चलते हैं, वे सब अंधे हैं। क्योंकि तो करते हैं। या तो कुछ पाना हो, तो करते हैं; या कुछ छोड़ना हो, | दस अंधे आदमी चलते हैं। दसों ही अंधे हैं और चलते हैं; इसलिए तो करते हैं। हमारे कर्म की जो मोटिविटी है, जो मोटिवेशन है, | | यह निर्णय ले लेना कि आंख वाला आदमी चलेगा ही नहीं, क्योंकि हमारे कर्म की जो प्रेरणा है, वह दो से ही आती है। या तो मुझे धन | | दस अंधे आदमी चलते हैं, और चलने वाले दसों अंधे हैं! कमाना हो, तो मैं कुछ करता हूं; या धन त्यागना हो, तो कुछ करता | | पश्चिम का मनोविज्ञान एक बुनियादी भ्रांति पर खड़ा है। वह हूं। या तो कोई मेरा मित्र हो, तो उसकी तरफ जाता हूं; या मेरा कोई | | बुनियादी भ्रांति दोहरी है। एक तो यह कि पश्चिम के मनोविज्ञान के शत्रु हो, तो उसकी तरफ से हटता हूं। लेकिन मेरा कोई मित्र नहीं, | | सारे नतीजे बीमार लोगों को देखकर लिए गए हैं, पैथालाजिकल मेरा कोई शत्रु नहीं, तो फिर मैं चलूंगा कैसे? कर्म कैसे होगा? फिर | | हैं। पश्चिम के मनोविज्ञान ने जिन लोगों का अध्ययन किया है, वे मोटिवेशन नहीं है। यह बात ठीक से समझ लेनी जरूरी है। | रुग्ण, विक्षिप्त, पागल, न्यूरोटिक हैं। पश्चिम के मनोवैज्ञानिक मानने को राजी नहीं हैं कि यह बहुत हैरानी की बात है कि पश्चिम के मनोविज्ञान के सारे
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गीता दर्शन भाग-20
निष्कर्ष बीमार आदमियों के ऊपर निर्भर हैं। सच बात तो यह है कि वह अपनी सीमा में ठीक है। विक्षिप्त आदमी कभी भी राग और मनोवैज्ञानिक के पास कोई स्वस्थ आदमी कभी जाता नहीं। जाएगा द्वेष से मुक्त नहीं हो सकता। राग और द्वेष के कारण ही तो वह किसलिए? मनोवैज्ञानिक जिनका अध्ययन करते हैं, वे रुग्ण हैं और विक्षिप्त और पागल होता है; मुक्त होगा कैसे? वे तो उसके पागल बीमार हैं, करीब-करीब विक्षिप्त हैं। कहीं न कहीं कोई साइकोसिस, | होने के बुनियादी आधार हैं। विमुक्त मनुष्य राग और द्वेष के बाहर कोई न्यूरोसिस, कोई मानसिक रोग उन्हें पकड़े हुए है। होता है। बाहर होता है, तभी विमुक्त है। अन्यथा विमुक्त नहीं है। ___ फ्रायड से लेकर फ्रोम तक पश्चिम के सारे मनोवैज्ञानिकों का भारत ने श्रेष्ठतम को आधार बनाया। मुझे लगता है, उचित है अध्ययन बीमार आदमियों का अध्ययन है। बीमार आदमियों से वे | | यही। क्योंकि हम श्रेष्ठतम को. आधार बनाएं, तो शायद हमारे सामान्य आदमी के संबंध में नतीजे लेते हैं, जो कि गलत है। जीवन में भी यात्रा हो सके। हम निकृष्टतम को आधार बनाएं, तो
दूसरी बात, सामान्य आदमी के अध्ययन से भी नतीजे लेने हमारे जीवन में भी पतन की संभावना बढ़ती है। गलत होंगे, क्योंकि सामान्य आदमी भी पूरा आदमी नहीं है। कृष्ण अगर हमें ऐसा पता चले कि आदमी कभी आनंद को उपलब्ध ने जो नतीजा लिया है, वह पूरे आदमी से लिया गया नतीजा है। इस हो ही नहीं सकता, तो हम अपने दुख में ठहर जाते हैं। अगर हमें मुल्क का मनोविज्ञान बुद्ध, महावीर, कृष्ण, शंकर, नागार्जुन, | ऐसा पता चले कि जीवन में प्रकाश संभव ही नहीं है, तो फिर हम रामानज इन लोगों के अध्ययन पर निर्भर है। मनष्य जो हो सकता अंधेरे से लड़ने का संघर्ष बंद कर देते हैं। अगर हमें ऐसा पता चले है परम, उस मनुष्य की परम संभावनाओं के अध्ययन पर इस मुल्क | कि हर आदमी बेईमान है, चोर है, तो हमारे भीतर वह जो बेईमान का मनसशास्त्र ठहरा हुआ है।
है और चोर है, वह जस्टीफाइड हो जाता है; वह न्याययुक्त ठहर पश्चिम का मनसशास्त्र, मनुष्य जहां तक गिर सकता है | जाता है, कि जब सभी लोग चोर और बेईमान हैं, तो वह जो पीड़ा आखिरी, उस आखिरी सीमा-रेखा पर खड़ा हुआ है। निश्चित ही, | है चोर और बेईमान होने की, विदा हो जाती है। हम अपनी चोरी पश्चिम के मनोविज्ञान और पूरब के मनोविज्ञान का कोई तालमेल | और बेईमानी में भी राजी हो जाते हैं। नहीं हो पाता।
निकृष्टतम को आधार बना लिया जाए, तो मनुष्य रोज नीचे हमने श्रेष्ठतम पर ध्यान रखा है, उन्होंने निकृष्टतम पर। हमने | गिरेगा। और पचास सालों में पश्चिम के मनोविज्ञान ने आदमी को चोटी पर ध्यान रखा है, उन्होंने खाई पर। निश्चित ही, जो खाई का नीचे गिराने की सीढ़ियां निर्मित की हैं। अध्ययन करेगा और जो शिखर का अध्ययन करेगा, उनके और बड़े मजे की बात है, जब आदमी नीचे गिरता है, तो पश्चिम अध्ययन के नतीजे भिन्न होने वाले हैं। जो शिखर का अध्ययन का मनोवैज्ञानिक कहता है कि हम तो पहले ही कहते थे कि नीचे करेगा, वह कहेगा कि शिखर पर सूरज की किरणों का बहुत स्पष्ट | गिरने के सिवाय और कुछ हो नहीं सकता। सेल्फ फुलफिलिंग फैलाव है। बादल छूते हैं। जो खाई का अध्ययन करेगा, वह कहेगा प्रोफेसीज! कुछ भविष्यवाणियां ऐसी होती हैं, जो खुद होकर अपने कि अंधकार सदा भरा रहता है। बादलों का कभी कोई पता नहीं को पूरा कर लेती हैं। चलता है।
किसी आदमी से कह दें कि तुम पंद्रह साल बाद फलां दिन मर . मनुष्य में दोनों हैं, ऊंचाइयां भी और खाइयां भी। मनुष्य में बुद्ध जाओगे। जरूरी नहीं है कि यह भविष्यवाणी उसकी मृत्यु की जैसे शिखर भी हैं; हिटलर जैसी रुग्ण खाइयां भी हैं। मनुष्य एक जानकारी से निकली हो। लेकिन इस भविष्यवाणी से उसकी मृत्यु लंबा रेंज है। मनुष्य कहने से कुछ पता नहीं चलता। मनुष्य में | निकल सकती है। सेल्फ फुलफिलिंग हो जाएगी। पंद्रह साल बाद आखिरी मनुष्य भी सम्मिलित है और प्रथम मनुष्य भी सम्मिलित | मरना है, यह बात ही आधा मार डालेगी। फिर वह रोज मरने की है। जो ऊंचे से ऊंचे तक पहुंचा है शिखर पर जीवन के, वह भी | ही तैयारी करेगा या मरने से बचने की तैयारी करेगा, जो कि दोनों सम्मिलित है; और जो नीचे से नीचे उतर गया है, वह भी सम्मिलित | एक ही बात हैं। जिसमें कोई फर्क नहीं है। मरने से बचने की तैयारी है। वे जो पागलखाने में बंद हैं विक्षिप्त, वे भी सम्मिलित हैं; और करेगा या मरने की तैयारी करेगा, दोनों हालत में मृत्यु ही उसके जो परम आनंद को उपलब्ध हुए हैं विमुक्त, वे भी सम्मिलित हैं। | जीवन की आधारशिला और केंद्र बन जाएगी। आब्सेस्ड हो
पश्चिम ने विक्षिप्त लोगों के अध्ययन पर जो नतीजा लिया है, जाएगा, फोकस्ड। मौत पर उसकी आंखें ठहर जाएंगी। सारी जिंदगी
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निष्काम कर्मल
से सिकुड़ जाएंगी आंखें, और मौत पर ठहर जाएंगी। किनारे खड़े होकर देखें, सुबह जब यह घूमने जाता है, तब इसके
पश्चिम के मनोविज्ञान ने पचास साल में जो-जो घोषणाएं की | चेहरे को, इसके पैरों की गति को, इसके हल्केपन को, इसकी थीं, वे सब सही हो गईं। सही इसलिए नहीं हो गईं कि सही थीं, ताजगी को। दोपहर उसी रास्ते से, वही आदमी, उन्हीं पैरों से दफ्तर सही इसलिए हो गईं कि सही मान ली गईं। और आदमी ने कहा कि जाता है, तब उसके भारीपन को, उसके सिर पर रखे हुए पत्थर को, जब हो ही नहीं सकता अनमोटिवेटेड एक्ट, तो पागलपन है। उसे उसकी छाती पर बढ़े हुए बोझ को—वह सब देखें। सुबह क्या था? करने की कोशिश छोड़ दो।
मोटिवेटेड नहीं था, कहीं पहुंचना नहीं था, कोई अंत नहीं था। लेकिन मैं कहता हूं. हो सकता है। उसे समझना पडेगा कि कैसे
घूमना अपने में पर्याप्त था, घूमना ही काफी था। हो सकता है। तीन बातें ध्यान में ले लेनी जरूरी हैं, तो कृष्ण का | | हां, कुछ लोग घूमने को भी मोटिवेटेड बना ले सकते हैं। अगर निष्काम कर्मयोग खयाल में आ जाए।
नेचरोपैथ हुए, तो घूमने को भी खराब कर लेंगे! अगर कहीं पहली बात, कभी आप खेल खेलते हैं। न कोई राग, न कोई | प्राकृतिक चिकित्सा के चक्कर में हुए, तो घूमना भी खराब कर द्वेष; खेलने का आनंद ही सब कुछ होता है। आदतें हमारी बुरी हैं, लेंगे। घूमना भी फिर सिर्फ घूमना नहीं है। फिर घूमना बीमारी से इसलिए खेल को भी हम काम बना लेते हैं। वह हमारी गलती है। लड़ना है। और जो आदमी घूम रहा है बीमारी से लड़ने के लिए,
समझदार तो काम को भी खेल बना लेते हैं। वह उनकी समझ है। वह बीमारी से तो शायद ही लड़ेगा, बीमारी उसके घूमने में भी - हम अगर शतरंज भी खेलने बैठे, तो थोड़ी देर में हम भूल जाते प्रवेश कर गई! तब घूमना हल्का-फुल्का आनंद नहीं रहा; भारी हैं कि खेल है और सीरियस हो जाते हैं। वह हमारी बीमारी है। गंभीर | | काम हो गया। बीमारी से लड़ रहे हैं! स्वास्थ्य कमाने जा रहे हैं! हो जाते हैं। हार-जीत भारी हो जाती है। जान दांव पर लग जाती है। फिर कहीं पहुंचने लगे आप। मोटिव भीतर आ गया। कुल जमा लकड़ी के हाथी और घोड़े बिछाकर बैठे हुए हैं! कुछ भी । लेकिन क्या कभी ऐसा जिंदगी में आपके नहीं हुआ कि शरीर नहीं है; खेल है बच्चों का। लेकिन भारी हार-जीत हो जाएगी। गंभीर ताकत से भरा है, सुबह उठे हैं और मन हुआ कि दस कदम दौड़ हो जाएंगे। गंभीर हो गए, तो खेल काम हो गया। फिर राग-द्वेष आ. लें? अनमोटिवेटेड। कोई कारण नहीं है। सिर्फ श
र्फ शक्ति भीतर धक्के गया। किसी को हराना है; किसी को जिताना है। जीतकर ही रहना | दे रही है। उसी तरह जैसे कि झरना बहता है पहाड़ से, फूल खिलते है; हार नहीं जाना है। फिर द्वंद्व के भीतर आ गए। शतरंज न रही | वृक्षों में, पक्षी सुबह गीत गाते हैं-अनमोटिवेटेड। कोई राग-द्वेष फिर, बाजार हो गया। शतरंज न रही, असली युद्ध हो गया! | नहीं है; ऊर्जा भीतर है, वह बहना चाहती है, आनंदमग्न होकर
मनोवैज्ञानिक तो कहते हैं कि शतरंज भी कोई पूरे भाव से खेल बहना चाहती है। ले, तो उसकी लड़ने की क्षमता कम हो जाती है, क्योंकि लड़ने का कृष्ण कह रहे हैं कि जब भी कोई व्यक्ति राग और द्वेष दोनों को कुछ हिस्सा निकल जाता है। निकास हो जाता है। हाथी-घोड़े | समझ लेता, तब उसकी ऊर्जा तो रहती है, जो राग-द्वेष में लगती
कर भी, लड़ने की जो वृत्ति है, उसको थोड़ी राहत मिल जाती थी, ऊर्जा कहां जाएगी? मझे किसी से लड़ना नहीं है: मझे किसी है। हराने और जिताने की जो आकांक्षा है, वह थोड़ी रिलीज, उसका | से जीतना नहीं है; फिर भी मेरी ताकत तो मेरे पास है। वह कहां धुआं थोड़ा निकल जाता है।
जाएगी? वह बहेगी। वह अनमोटिवेटेड बहेगी। वह कर्म बनेगी. हम खेल को भी बहुत जल्दी काम बना लेते हैं। लेकिन खेल | | लेकिन अब उस कर्म में कोई फल नहीं होगा। अब वह बहेगी, काम नहीं है। बच्चे खेल रहे हैं। खेल काम नहीं है। खेल सिर्फ लेकिन बहना अपने में आनंद होगा। आनंद है, अनमोटिवेटेड। रस इस बात में नहीं है कि फल क्या लेकिन हम इतने बीमार और रुग्ण हैं कि हमें कभी सुबह ऐसा मिलेगा। रस इस बात में है कि खेल का काम आनंद दे रहा है। | मौका नहीं आया। कभी-कभी बाथरूम में आप गा लेते होंगे।
सुबह एक आदमी घूमने निकला है, कहीं जा नहीं रहा है। आप | | शायद उतना ही है अनमोटिवेटेड–बाथरूम सिंगर्स। किसी को उससे पूछे, कहां जा रहे हैं? वह कहेगा, कहीं जा नहीं रहा, सिर्फ | सुनाना नहीं है। कोई ताली नहीं बजाएगा। कोई अखबार में नाम घूमने निकला हूं। कहीं जा नहीं रहा, कोई मंजिल नहीं है। यही | नहीं छपेगा। कोई सुनने वाला श्रोता नहीं है। अकेले हैं अपने आदमी इसी रास्ते पर दोपहर अपने दफ्तर भी जाता है। रास्ते के बाथरूम में। एक गीत की कडी फट पडी है। शायद ठंड
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गीता दर्शन भाग-20
पर गिरा हो। फव्वारे के नीचे खड़े हो गए हों। सुबह की ताजी हवा | | हो जाएगा। तो पहली बात तो यह समझ लेनी जरूरी है, ऊर्जा हो ने छुआ हो। फूलों को छूती हुई एक गंध आपके कमरे में आ गई | भीतर, राग-द्वेष न हो बाहर, तो भी ऊर्जा सक्रिय होगी, क्योंकि हो। कोई पक्षी बाहर गाया हो। किसी मुर्गे ने बांग दी हो। आपके | ऊर्जा बिना सक्रिय हुए नहीं रह सकती। भीतर की ऊर्जा भी जग गई है; उसने भी एक कड़ी गुनगुनाई है, एनर्जी, ऊर्जा अनिवार्य रूप से क्रिएटिव है। वह सृजन करेगी अनमोटिवेटेड, कोई कारण नहीं है। भीतर एक शक्ति है, जो बाहर ही। वह बच नहीं सकती। इसीलिए तो बच्चों को आप बिठा नहीं अभिव्यक्त होना चाहती है।
पाते। आपको बहुत बेहूदगी लगती है बच्चों के कामों में। कहते हैं साधारण लोगों की जिंदगी में बस ऐसे ही छोटे-मोटे उदाहरण | | कि बेकाम क्यों कूद रहा है! आप बहुत समझदार हैं! आप कहते मिलेंगे। आपके उदाहरण ले रहा हूं, ताकि आपको खयाल में आ | हैं, कूदना हो तो काम से कूद। मैं भी कूदता हूं दफ्तर में, दुकान में, सके। कृष्ण जैसे लोगों की पूरी जिंदगी ही ऐसी है—पूरी जिंदगी, | | लेकिन काम से! बेकाम क्यों कूद रहा है? चौबीस घंटे!
अब आपको पता ही नहीं है कि बेकाम क्यों कूद रहा है। ऊर्जा लेकिन अगर एक क्षण ऐसा हो सकता है, तो चौबीस घंटे भी भीतर है; ऊर्जा कूद रही है। काम का कोई सवाल नहीं है। शक्ति हो सकते हैं। कोई बाधा नहीं रह जाती। क्योंकि आदमी के हाथ में | | भीतर नाच रही है, स्पंदित हो रही है। एक क्षण से ज्यादा कभी नहीं होता। दो क्षण किसी आदमी के हाथ | धार्मिक व्यक्ति पूरे जीवन बच्चे की तरह है। निष्काम कर्म में नहीं होते। एक ही क्षण हाथ में होता है। अगर एक क्षण में भी | | उसको ही फलित होगा, जिसका शरीर तो कुछ भी उम्र पा ले, एक कृत्य ऐसा घट सकता है, जिसमें कोई राग-द्वेष नहीं था, लेकिन जिसका मन कभी भी बचपन की ताजगी नहीं खोता। वह जिसमें भीतर की ऊर्जा सिर्फ उत्सव से भर गई थी, फेस्टिव हो गई फ्रेशनेस, वह ताजगी, वह क्वांरापन बना ही रहता है। इसीलिए तो थी, समारोह से भर गई थी और फूट पड़ी थी...।
कृष्ण जैसा आदमी बांसुरी बजा सकता है, नाच सकता है। वह दुनिया से समारोह कम हो गए हैं। क्योंकि दुनिया से वह जो बालपन कहीं गया नहीं। रिलीजस फेस्टिव डायमेंशन है, वह जो उत्सव का आयाम है, वह ऊर्जा भीतर हो, तो ऊर्जा निष्क्रिय नहीं होती। ध्यान रहे, शक्ति क्षीण हो गया है। लेकिन दुनिया की अगर हम पुरानी दुनिया में | हो, तो शक्ति सक्रिय होगी ही। चाहे कोई कारण न हो, अकारण भी लौटें, या आज भी दूर गांव-जंगल में चले जाएं, खेत में जब फसल | | शक्ति सक्रिय होगी। शक्ति का होना और सक्रिय होना, एक ही चीज आ जाएगी, तो गांव गीत गाएगा—अनमोटिवेटेड। उस गीत गाने | | | के दो नाम हैं। शक्ति निष्क्रिय नहीं हो सकती। लेकिन चूंकि हम से खेत की फसल के गेहूं ज्यादा बड़े नहीं हो जाएंगे। उस गीत के | कभी राग और द्वेष के बाहर नहीं होते, इसलिए शक्ति राग और द्वेष गाने से कोई फसल के ज्यादा दाम नहीं आ जाएंगे। लेकिन खेत की चैनल्स में चली जाती है। इसलिए दूसरी बात समझ लेनी जरूरी नाच रहा है फसल से भरकर। पक्षी उडने लगे हैं खेत के ऊपर। है। पहली बात. कर्म राग-द्वेष से पैदा नहीं होता. कर्म पैदा होता है चारों तरफ खेत के खेत में आ गई फसलों की सगंध भर गई है।। | भीतर की ऊर्जा से। इनर एनर्जी से पैदा होता है कर्म। सोंधी गंध चारों तरफ तैरने लगी है। उसने गांव के मन-प्राण को | | चांद-तारे भी चल रहे हैं बिना किसी राग-द्वेष के। कहीं उन्हें भी पकड़ लिया है। खेत ही नहीं नाच रहे, गांव भी नाचने लगा है। पहुंचना नहीं है। कण-कण के भीतर परमाणु घूम रहे हैं, नाच रहे
दुनिया के पुराने सारे उत्सव मौसम और फसलों के उत्सव थे। हैं, नृत्य में लीन हैं। कुछ उन्हें पाना नहीं है। फूल खिल रहे हैं। पक्षी गांव भी नाच रहा है। रात, आधी रात तक चांद के नीचे पूरा गांव उड़ रहे हैं। आकाश में बादल हैं। झरने नदियां बनकर सागर की नाच रहा है। उस नाचने से कुछ मिलेगा नहीं। वह कोई गणतंत्र तरफ जा रहे हैं। सागर भाप बनकर आकाश में उठ रहा है। कहीं दिवस पर दिल्ली में किया गया लोक-नृत्य नहीं है। उससे कुछ कोई राग-द्वेष नहीं है, सिर्फ आदमी को छोड़कर। कहीं कोई मिलने को नहीं है। उसकी कोई तैयारी नहीं है। लेकिन भीतर ऊर्जा मोटिवेशन नहीं है। है और वह बहना चाहती है।
पूछे गंगा से कि क्यों इतनी परेशान है? सागर पहुंचकर भी क्या कृष्ण जब अर्जुन को कह रहे हैं कि राग-द्वेष से मुक्त होकर यदि होगा? गंगा उत्तर नहीं देगी। क्योंकि उत्तर देना भी बेकार है। गंगा तू कर्म में संलग्न हो जाए, तो सुखद मार्ग से समस्त बंधनों के बाहर है, तो सागर पहुंचेगी ही। गंगा सागर पहुंच रही है, यह कोई चेष्टा
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निष्काम कर्म
नहीं है। गंगा के भीतर पानी है, तो वह सागर पहुंचेगा ही। आदमी को छोड़ दें, तो सारा जगत कर्म में लीन है, लेकिन कर्म राग-द्वेष रहित है। आदमी का क्या पागलपन है कि आदमी इस सारे जगत में बिना राग-द्वेष के कर्म में लीन न हो सके ? आदमी भी हो सकता है।
पहली बात यह समझ लेनी जरूरी है कि कर्म का जन्म राग-द्वेष से नहीं होता; कर्म का जन्म भीतर की ऊर्जा से होता है। ऊर्जा कर्म है। लेकिन अब यह ऊर्जा जो कर्म बनती है, आप चाहें तो इसको किसी भी खूंटी पर टांग सकते हैं। मेरे पास कोट है, मैं किसी भी खूंटी पर टांग सकता हूं। किसी खूंटी के कारण मेरे पास कोट नहीं है, खयाल । खूंटी के कारण मेरे पास कोट नहीं है, कोट मेरे पास है; अब मैं किसी भी खूंटी पर टांग सकता हूं। राग की खूंटी पर टांग दूं, द्वेष की खूंटी पर टांग दूं। मेरे भीतर ऊर्जा है।
जीवन ऊर्जा है। लाइफ इज़ एनर्जी और तो कुछ जीवन है नहीं; ऊर्जा है। नाचती हुई शक्ति है। अनंत शक्ति का नृत्य है भीतर ।
और अभी तो विज्ञान ने छोटे-से परमाणु में अनंत ऊर्जा को खोजकर बता दिया। जब हम पहले कभी यह कहते रहे कि एक - एक आदमी के भीतर परमात्मा की अनंत शक्ति भरी है, तो हंसी की बात मालूम पड़ती थी। लेकिन अब तो एक-एक परमाणु
भीतर अनंत शक्ति भरी है, तो एक-एक आदमी के भीतर क्यों भरी हुई नहीं हो सकती ! और अगर मिट्टी के कण के भीतर, मृत कण के भीतर इतनी शक्ति है, तो मनुष्य के जीवित कोष्ठ, जीवित सेल के भीतर उससे अनंत गुनी हो सकती है।
अभी पश्चिम का विज्ञान एटम को तोड़ पाया है, कल सेल को भी तोड़ लेगा। जिस दिन जेनेटिक सेल तोड़ी जा सकेगी, उस दिन हम पाएंगे कि वह जो पूरब सदा से कहता रहा था कि छोटे-से पिंड में ब्रह्मांड है, उस नतीजे पर विज्ञान आज नहीं कल पहुंच जाएगा।
एक-एक व्यक्ति अनंत ऊर्जा से भरा हुआ है। इस ऊर्जा से कर्म पैदा होता है। यह पहली बात समझ लें। इस कर्म को हम चाहें, तो राग पर टांग सकते हैं, चाहें तो द्वेष पर टांग सकते हैं। यह हमारा चुनाव है। और चाहें तो अनटांगा छोड़ सकते हैं; यह भी हमारा चुनाव है। खूंटी कहती नहीं कि मुझ पर टांगो। मैं कोट को नीचे भी पटक दे सकता हूं। कोई खूंटी मुझे मजबूर नहीं करती। मैं चाहूं अपनी जीवन ऊर्जा को किसी आकर्षण में लगा दूं। किसी के पीछे दौड़ने लगूं। कोहिनूर के पीछे दौड़ सकता हूं। कोहिनूर मुझसे नहीं कहता कि मेरे पीछे दौड़ो। मैं कोहिनूर के पीछे दौड़ सकता हूं, कि
जब तक कोहिनूर न मिल जाए, मेरा जीवन बेकार है।
अब मैंने एक खूंटी चुन ली, जिस पर मैं अपने को टांग कर रहूंगा। और सोचता हूं, टंग जाऊंगा, तो सब पा लूंगा। कोहिनूर मिल जाए, तो कुछ मिलना नहीं है। सिर्फ ऊर्जा व्यय हुई। और इतने | दिन तक पीछे दौड़ने की जो आदत पड़ गई, वह फिर कहेगी, अब और किसी के पीछे दौड़ो । अब कोई और राग खोजो कोई और आकर्षण, उसके पीछे दौड़ो ।
चाहूं तो मैं द्वेष पर भी अपने को टांग सकता हूं। द्वेष पर भी टांग | सकता हूं! मैं किसी के विरोध में लग जाऊं, मैं किन्हीं को नष्ट करने में लग जाऊं, मैं कुछ छोड़ने में लग जाऊं, तो भी मैं अपनी शक्ति को टांग सकता हूं।
दो ही तरह के लोग हैं। एक वे, जो किसी चीज को पाने में लग जाते हैं। एक वे, जो किसी चीज को छोड़ने में लग जाते हैं। एक | को हम गृहस्थ कहते हैं, दूसरे को हम संन्यासी कहते हैं। हमारी | आम बातचीत में, पकड़ने वाले को हम गृहस्थ कहते हैं, छोड़ने वाले को हम त्यागी कहते हैं। लेकिन कृष्ण नहीं कहेंगे। कृष्ण तो कहते हैं, जो दोनों के बाहर है, वह संन्यासी है। वह निष्काम कर्म को उपलब्ध हुआ, जो दोनों के बाहर है; जो अपनी ऊर्जा को किसी पर टांगता ही नहीं।
ध्यान रहे, जब आप अपनी ऊर्जा को न राग पर टांगेंगे, न द्वेष पर, तो भी ऊर्जा होगी। फिर ऊर्जा कहां जाएगी? अनटांगी गई ऊर्जा परमात्मा पर समर्पित हो जाती है; विराट में लीन हो जाती है। बिना टांगी गई ऊर्जा, अनफोकस्ड, अनंत के प्रति, अनंत के चरणों में बहने लगती है। जिस क्षण राग और द्वेष नहीं हैं, उसी क्षण | व्यक्ति का समस्त जीवन परमात्मा को समर्पित हो जाता है।
तीन तरह के समर्पण हुए, राग को समर्पित, द्वेष को समर्पित, राग-द्वेष दोनों के अतीत परमात्मा को समर्पित। यह परमात्मा को | समर्पित जीवन ही निष्काम कर्मयोग है।
और कृष्ण ने एक और बात उसमें कही। उन्होंने कहा कि यह बड़े सुख से बंधन के बाहर हो जाना है।
दुख से भी बंधन के बाहर हुआ जा सकता है। लेकिन दुख से | बंधन के बाहर जो हो जाता है, उसके हाथों में पैरों में बंधन की थोड़ी-बहुत रेखा और चोट रह जाती है। जैसे कोई कच्चे पत्ते को वृक्ष से तोड़ ले। कच्चा पत्ता भी वृक्ष से तोड़ा जा सकता है । पत्ते में भी घाव रह जाता है, वृक्ष में भी घाव छूट जाता है। एक पका पत्ता वृक्ष से गिरता है। कहीं खबर नहीं होती - मौन, निष्पंद, चुपचाप ।
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गीता दर्शन भाग-2
कहीं कोई आवाज भी नहीं होती कि पत्ता गिर गया। न वृक्ष को पता चलता, न पत्ते को पता चलता । कहीं कोई घाव नहीं छूटता । चुपचाप !
कृष्ण कहते हैं, सुखद ढंग से बंधन के बाहर हो जाने की राह मैं कह रहा हूं महाबाहो ! तू कर्म कर और द्वंद्व, राग और द्वेष से दूर खड़े होकर कर्म में लग जा। एक दिन तू पके पत्ते की तरह चुपचाप बाहर हो जाएगा।
कच्चे पत्ते की तरह भी बाहर हुआ जा सकता है। संघर्ष से, समर्पण से नहीं। संकल्प से, समर्पण से नहीं। लड़कर, जूझकर, चुपचाप विसर्जित होकर नहीं। कोई लड़ भी सकता है। ध्यान रहे, राग और द्वेष से भी अगर कोई लड़ने में लग जाए, तो वह फिर द्वेष काही नया रूप है।
इसलिए कृष्ण कह रहे हैं कि राग-द्वेष को समझकर !
जो यह देख लेता है कि राग भी दुख है, द्वेष भी दुख है। जो यह देख लेता है, राग भी पीड़ा में ले जाता, द्वेष भी पीड़ा में ले जाता । जो यह देख लेता है कि राग और द्वेष से कभी कोई आनंद फलित नहीं होता; कभी जीवन में उत्सव की घड़ी नहीं आती; नर्क ही निर्मित होता है। चाहते तो हैं कि बना लें स्वर्ग; जब बन जाता है, तो पाते हैं कि बन गया नर्क। चाहते तो हैं कि बना लें मंदिर; जब बन जाता है, तो पाते हैं कि अपने ही हाथ कारागृह निर्मित हो गया। ऐसा जो समझकर, ऐसी प्रज्ञा से ऐसे बोध से जो दोनों के बाहर हो जाता है, वह बड़े सुखद मार्ग से सूखे पत्ते की तरह — बंधन के बाहर गिर जाता है । कहीं कोई पता भी नहीं चलता है। संन्यास तो वही अर्थपूर्ण है, जो इतना संगीतपूर्ण हो। इतना सा भी विसंगीत पैदा नहीं होना चाहिए। जरा-सी भी चोट कहीं पैदा नहीं होनी चाहिए।
कर्म छोड़कर जो जाएगा, उससे तो चोट पैदा होगी। एक आदमी घर छोड़कर जाएगा। पत्नी रोएगी। आंसू पीछे होंगे ही। क्योंकि किसी की अपेक्षाएं टूटेंगी। बच्चे पीड़ित होंगे; अनाथ हो जाएंगे। कहीं किसी की छाती पर पत्थर गिरेगा ही। कहीं कुछ उजड़ जाएगा।
और ऐसा आदमी, जो सब छोड़कर जा रहा है, बहुत गहरे में स्वार्थी नहीं मालूम पड़ता? अपनी मुक्ति के लिए वह अपने चारों तरफ एक मरघट बनाकर जा रहा है। चीजें टूटेंगी; चारों तरफ दुख निर्मित होगा।
लेकिन कृष्ण कहते हैं, निष्काम कर्मयोग !
पत्नी को छोड़कर कहीं जाना नहीं। चुपचाप भीतर ही पत्नी
प्रति राग और द्वेष छोड़ देना । पत्नी को भी पता नहीं चलेगा।
बड़े मजे की बात है। अगर चुपचाप भीतर से ही राग-द्वेष छोड़ | दिया जाए, किसी को कहीं पता नहीं चलेगा सिवाय आपके । और अगर किसी को पता भी चलेगा, तो सुखद पता चलेगा। क्योंकि हम राग करके भी किसी को सुख नहीं दे पाते, सिर्फ दुख देते हैं। और द्वेष करके तो दुख देते ही हैं।
जैसे ही भीतर राग-द्वेष गिर जाता है, हम हलके हो जाते हैं। | आनंदपूर्ण हो जाते हैं। संबंध सहज र सरल हो जाते हैं। हमारे भीतर से पत्नी मिट जाती है। दूसरी तरफ भी परमात्मा हो जाता है। पति मिट जाता है, परमात्मा हो जाता है। बेटा मिट जाता है, | परमात्मा हो जाता है। फिर भी उस बेटे को स्कूल में भेज आते हैं। उसके भोजन का इंतजाम कर देते हैं। लेकिन अब यह इंतजाम परमात्मा के लिए है। बेटे को कभी पता नहीं चलेगा। बल्कि बेटा तो आनंदित होगा, क्योंकि जिसके पिता के मन में बेटे के लिए परमात्मा का भाव आ गया हो, उसके बेटे को दुख का कोई भी कारण नहीं है। आनंद ही आनंद का कारण है। कृष्ण कहते हैं, से, चुपचाप, . अत्यंत शांतिपूर्ण मार्ग से | निष्काम कर्मयोगी बंधन के बाहर हो जाता है। कोई जल्दी नहीं करता तोड़ने की, चुपचाप चीजों से सरक जाता है।
और जो तोड़कर सरकता है, वह बहुत कुशल नहीं है। जो तोड़कर हटता है, वह बहुत कलात्मक नहीं है। जो तोड़कर हटता है, उसे संगीत का बहुत बोध नहीं है। उसे सौंदर्य का बहुत बोध नहीं है। उसे मानवीय जीवन की गरिमा का बहुत स्पष्ट खयाल नहीं है। वह अपने | ही लिए जी रहा है। धन कमाता था, तो अपने लिए; धर्म कमा रहा है, तो अपने लिए। लेकिन चारों तरफ और भी परमात्माओं के दीए | जल रहे हैं, वे बुझ जाएं, इसकी उसे चिंता नहीं है।
इसलिए कृष्ण कहते हैं कि निष्काम कर्म को करते हुए कोई भी | व्यक्ति सुख से, कहीं भी दुख का कोई स्पंदन खड़ा किए बिना, बाहर हो जाता है।
राग-द्वेष के अतीत होते ही ऊर्जा - अनमोटिवेटेड - सक्रिय हो जाती है। निश्चित ही, जो ऊर्जा बिना किसी लक्ष्य के, बिना किसी अंत के सक्रिय होगी, वह ऊर्जा अधर्म के लिए सक्रिय नहीं हो सकती। उस ऊर्जा की सक्रियता अनिवार्यरूपेण धर्म के लिए, | मंगल के लिए, श्रेयस के लिए होगी। ऐसे व्यक्ति का सारा जीवन धर्म-कृत्य, धार्मिक कृत्य बन जाता है।
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निष्काम कर्म
प्रश्नः भगवान श्री, आपने कहा कि अकारण, अनमोटिवेटेड कर्म, निष्काम कर्म आनंद का स्रोत है। लेकिन निश्चित ही जीवन में ऐसी चीजें भी हैं, जिनमें मोटिवेशन की जरूरत पड़ती है। जैसे औद्योगिक, यांत्रिक काम आदि। तो कृपया बताएं कि जीवन में मोटिवेटेड कर्म के साथ अनमोटिवेटेड कर्म का संतुलन कैसे किया जाए ?
सं
तुलन करने में जो पड़ेगा, वह बड़ी दुविधा में पड़ेगा। संतुलन नहीं किया जा सकता । जरूरत भी नहीं है। जिस व्यक्ति को निष्काम कर्म का रस आ गया, वह अपनी दुकान भी उसी रस से चलाएगा। जिस व्यक्ति को निष्काम कर्म का रस आ गया, वह अपने उद्योग को भी उसी रस से चलाएगा।
कबीर ने दुकान बंद नहीं की। कबीर कपड़ा बुनता रहा। लोगों ने कहा भी कि अब तुम कपड़ा बुनो, यह अच्छा नहीं मालूम पड़ता ! कबीर ने कहा, पहले जो कपड़ा बुना था, उसमें यह मजा न था । अब जो मजा है, वह बात ही और है। पहले तो कपड़ा बुनते थे, तो एक मजबूरी थी; अब आनंद है। पहले कपड़ा बुनते थे, तो किसी ग्राहक का शोषण करना था। अब कपड़ा बुनते हैं, तो किसी राम के अंग को, तन को ढंकना है।
कपड़ा बुनना जारी है। अब कबीर कपड़ा बुनता है और गाता रहता है, झीनी झीनी बीनी रे चदरिया | वह गा रहा है ! वह बाजार कपड़े लेकर जाता है, तो दौड़ता हुआ ग्राहकों को बुलाता है कि राम, बहुत मजबूत चीज बनाई है। तुम्हारे लिए ही बनाई है !
आनंद आ गया निष्काम कर्म का, तो भूलकर आप सकाम कर्म न कर पाएंगे। वहां भी, जहां सकाम कर्म का जगत घना है, वहां भी निष्काम कर्म हो जाएगा। आनंद ही रह जाएगा।
अब किसी आदमी का आनंद हो सकता है कि वह एक बड़ा कारखाना चलाए। लेकिन तब वह आनंद परमात्मा को समर्पित हो जाएगा। तब वह किसी के शोषण के लिए नहीं है। बड़े कारखाने को चलाना उसका आनंद है। और यह आनंद अगर निष्काम कर्म का है, तो वह बड़ा कारखाना एक कम्यून बन जाएगा। उस बड़े कारखाने में मजदूर और मालिक नहीं होंगे। उस बड़े कारखाने में मित्र हो जाएंगे।
और इस पृथ्वी पर अगर कभी भी दुनिया में सच में ही कोई समता की घटना घटेगी, तो समाजवादियों से घटने वाली नहीं है। इस दुनिया में कभी भी कोई समता की घटना घटेगी, तो वह उन धार्मिक लोगों से घटेगी, जिनके भीतर अनमोटिवेटेड कर्म पैदा हुआ है; जिनके भीतर निष्काम कर्म पैदा हुआ है। कुछ भी किया जा सकता है, एक बार खयाल में आ जाए।
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और जहां खतरा ज्यादा है, जैसे एक अंधा आदमी पूछ सकता है, एक अंधा आदमी पूछ सकता है कि जब मेरी आंखें ठीक हो जाएंगी, तो मैं टटोलने में और चलने में क्या समन्वय करूंगा ? क्या संतुलन करूंगा ? स्वभावतः, एक अंधा आदमी अभी टटोलकर चलता है। अभी उसने टटोलकर ही चलना जाना है। एक ही चलने का ढंग है, टटोलना । उससे हम कहते हैं कि तेरी आंखें ठीक हो जाएंगी। तो वह कहता है, मैं समझ गया। जब आंखें ठीक हो जाएंगी, तो बिना | टटोलकर मैं चल सकूंगा। लेकिन फिर टटोलने में और न टटोलकर चलने में, दोनों में संतुलन कैसे करूंगा ?
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हम उससे कहेंगे, संतुलन की जरूरत ही नहीं पड़ेगी । तू बिलकुल पागल है! जब आंखें मिल जाएंगी, टटोलने की जरूरत ही नहीं रहेगी। वह आदमी कहेगा, लेकिन अंधेरे में तो टटोलना ही पड़ेगा! हम उससे कहेंगे कि आंख आ जाए, तब तू जानेगा कि टटोलने की जो प्रक्रिया थी, वह अंधे की प्रक्रिया थी । आंख वाले की वह प्रक्रिया नहीं है। संतुलन नहीं बनाना पड़ेगा । और जब तक आंख नहीं है, तब तक चलने से टटोलने का संतुलन बनाने का तो कोई सवाल नहीं है।
सकाम आदमी जहां जी रहा है, वह अंधे की दुनिया है। वहां वह फल को टटोलकर ही कर्म करता है। उसे अभी कर्म के आनंद का पता ही नहीं है। उसे एक ही पता है कि फल में आनंद है; कर्म में कोई आनंद नहीं है। अभी वह दुकान में बैठता है, तो दुकान में | आनंद नहीं है । जो ग्राहक सामने खड़ा है, उसमें परमात्मा नहीं है। उसका परमात्मा तो उस रुपए में है, जो ग्राहक से मिलेगा, मिलने वाला है; जिसे वह तिजोड़ी में कल बंद करेगा। जिसे परसों गिनेगा और बैंक बैलेंस में इकट्ठा करेगा। उसका आनंद वहां है। यह कर्म जो घटित हो रहा है, इसमें उसका कोई आनंद नहीं है ।
और जिस कर्म में आनंद नहीं है, हम पागल हैं, उसके फल में कैसे आनंद हो सकेगा ? क्योंकि फल कर्म से पैदा होता है। जब बीज में आनंद नहीं है, तो फल में कैसे आनंद आ जाएगा? जब बीज जहर मालूम पड़ रहा है, तो फल अमृत कैसे हो जाएगा?
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गीता दर्शन भाग-28
जिस कृत्य में आनंद नहीं है, उस कृत्य के फल में कभी आनंद | सकाम होना तो छोड़ना नहीं चाहते, और निष्काम का लोभ भी मन नहीं हो सकता। लेकिन सकाम आदमी का मन फल में अटका है। | | को पकड़ता है। हमारी तकलीफ जो है, वह यह है, हम टटोलने का वह कह रहा है, किसी तरह काम तो कर डालो। यह तो एक मजबूरी | | मजा भी नहीं छोड़ना चाहते और आंख भी पाना चाहते हैं। हम है। इसे करके निपटा दें। आनंद तो फल में है। फल मिल जाएगा | चाहते हैं, जो सकाम जगत चल रहा है, वह भी चलता रहे, और और आनंद मिल जाएगा।
यह जो निष्काम आनंद की बात चल रही है, यह भी चूक न जाए। कृष्ण जिस आदमी की बात कर रहे हैं, वह यह कह रहे हैं, कर्म | | हम चाहते हैं, फल का भी चिंतन करते रहें, और कर्म में भी आनंद में ही आनंद है। कर्म किया, यही आनंद है। और जिसे कर्म में अभी ले लें। ये दोनों बात साथ संभव नहीं हैं। यह गली बहुत संकरी है, आनंद मिल रहा है, उसे सदा आनंद मिल जाएगा। जो अभी ही इसमें दो नहीं समाएंगे। आनंद ले लिया, वह सदा आनंद लेने का राज पहचान गया। इसलिए जब तक लोभ मन को है-राग का, द्वेष का, पाने का,
सकाम आदमी फल में आनंद देखता है, कर्म को करता है | खोने का, हारने का, जीतने का तब तक निष्काम न हो सकेंगे मजबूरी में। निष्काम आदमी कर्म में ही आनंद देखता है, कर्म को | | आप। और जिस क्षण यह बोध आ जाएगा कि दोनों बेकार हैं, उसी करता है आनंद से। कोई भी कर्म हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। क्षण निष्काम हो जाएंगे। और निष्काम हो जाने के बाद सकाम बचेगा युद्ध क्यों न हो। आखिर कृष्ण अर्जुन को कह ही रहे हैं कि तू युद्ध नहीं, जिससे संतुलन बिठालना पड़े, जिससे तालमेल करना पड़े। में जूझ जा। लेकिन किसी तरह की कामना लेकर नहीं। किसी तरह । यह बहुत मजे की बात है। अज्ञानी को निरंतर यह कठिनाई होती की कामना लेकर नहीं, कोई राग-द्वेष लेकर नहीं। तेरा स्वधर्म है। है कि कैसे मैं तालमेल बिठाऊ! उसका तालमेल बिठाना हमेशा तू क्षत्रिय होकर ही आनंद को उपलब्ध हो सकता है। वही तेरा खतरनाक है। एक आदमी कहता है, ठीक है। आप कहते हैं, प्रशिक्षण है। तेरी जीवन ऊर्जा क्षत्रिय की तरह ही प्रकट हो सकती | | निरअहंकार बड़ी अच्छी चीज है। लेकिन अहंकार से कैसे तालमेल है, अभिव्यक्त हो सकती है। तू किसी तरह के लक्ष्य की फिक्र मत | | बिठाऊं? अब अहंकार से निरअहंकार के तालमेल का कोई कर। तू क्षत्रिय होने में लीन हो जा। फल की चिंता छोड़ दे। तू कर्म | मतलब होता है? आप कहते हैं, अमृत बड़ी अच्छी चीज है, लेकिन को पूरा कर ले। यही तेरी निष्पत्ति है।
| जहर और अमृत को मिलाऊं कैसे? कहीं जहर और अमृत मिले' यह जो युद्ध के मैदान तक पर कृष्ण कह सकते हैं, तो दुकान तो | | हैं! मिलने का कोई उपाय नहीं है। जिस आदमी के हाथ में जहर है, युद्ध से बड़ा मैदान नहीं है। न दफ्तर बड़ा है; न उद्योग बड़ा है। उसके आदमी के हाथ में अमृत नहीं होता। और जिस आदमी के दृष्टि का फर्क है। आप कहां हैं और क्या काम कर रहे हैं, यह | | हाथ में अमृत आता है, उसके हाथ में जहर नहीं होता। दो में से एक सवाल नहीं है। आप क्या हैं और किस आंतरिक दृष्टि से काम कर ही सदा हाथ में होते हैं। दोनों हाथ में नहीं होते। रहे हैं, यही सवाल है।
इसलिए लोग अक्सर पछते हैं कि धर्म का और संसार का कभी भी संतुलन नहीं बनाना पड़ेगा दोनों में, क्योंकि दोनों में से | तालमेल कैसे करें? परमात्मा को और संसार को कैसे मिलाएं? ये एक ही रहता है हाथ में, दोनों कभी नहीं रहते। या तो सकाम कर्म | | मोक्ष को, परलोक को और इस लोक को कैसे मिलाएं? उनके रहता है हाथ में, तब निष्काम से कोई तालमेल नहीं बिठाना है। और | सवाल बुनियादी रूप से गलत हैं, एब्सर्ड हैं, असंगत हैं। परमात्मा जब निष्काम आता है, तो सकाम चला जाता है। उससे तालमेल | उतर आए, तो संसार खो जाता है; संसार होता ही नहीं। उसका नहीं बिठाना पड़ता है। ठीक ऐसे ही जैसे एक कमरे में मैं रोशनी | | मतलब, संसार परमात्मा ही हो जाता है। कुछ बचता नहीं परमात्मा लेकर चला जाऊं। फिर अंधेरे और रोशनी के बीच कोई तालमेल के सिवाय। और जब तक संसार होता है, तब तक संसार ही होता नहीं बिठाना पड़ता। या तो अंधेरा रहता है या रोशनी रहती है। या । है, परमात्मा नहीं होता। ये दोनों बातें एक साथ नहीं हो सकतीं। तो ज्ञान रहता है या अज्ञान रहता है। या तो कामना रहती है, वासना | जिसने परमात्मा को जाना, उसके लिए संसार नहीं है। जो संसार रहती है, या प्रज्ञा रहती है। दोनों साथ नहीं रहते हैं। इसलिए दोनों | को जान रहा है, उसके लिए परमात्मा नहीं है। और ऐसा कभी भी को मिलाने की कभी भी जरूरत नहीं पड़ती।
| नहीं हुआ, इंपासिबल है, असंभव है कि एक आदमी परमात्मा और लेकिन हमारे मन में यह सवाल उठेगा। क्यों? क्योंकि हम | संसार दोनों को जान रहा हो। यह ऐसे ही असंभव है, जैसे रास्ते
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ॐ निष्काम कर्म ®
से मैं गुजर रहा हूं, अंधेरा है, और एक रस्सी मुझे पड़ी दिखाई पड़ । है। जब कि सांप है ही नहीं। गई और मैंने समझा कि सांप है। भागा! तब किसी ने कहा, रुको! यह जो दो तलों की बात है, दो भिन्न तलों की बात है। इतने भिन्न, मत भागो! रस्सी है, सांप नहीं है। पास गया। देखा, कि रस्सी है। | डायमेट्रिकली अपोजिट, एक-दूसरे से बिलकुल विपरीत। ज्ञानी को क्या मैं पूछूगा कि रस्सी और सांप में कैसे तालमेल बिठाऊं? जब | दिखाई पड़ रहा है कि जो आपको दिखाई पड़ रहा है, वह है ही नहीं। तक मुझे सांप दिखाई पड़ता है, तब तक रस्सी दिखाई नहीं पड़ती। आपको वह दिखाई ही नहीं पड़ रहा है, जो ज्ञानी को दिखाई पड़ रहा जब मुझे रस्सी दिखाई पड़ जाती है, तो सांप दिखाई नहीं पड़ता। है। और दोनों के बीच बातचीत है। यह भी मजे की बात है। तालमेल नहीं बैठता। सांप दिखाई पड़ता है, तो भागता रहता है। दो ज्ञानियों के बीच कभी बातचीत नहीं हो सकती; जरूरत नहीं रस्सी दिखाई पड़ती है, तो खड़ा हो जाता हूं। लेकिन ऐसा आदमी | है। दो अज्ञानियों के बीच कितनी ही बातचीत हो, बातचीत हो नहीं खोजना कठिन है, जिसे सांप और रस्सी दोनों एक साथ दिखाई पड़ पाती; सिर्फ उपद्रव होता है। बातचीत बहुत होती है! जाएं। या कि संभव है? या कि आप सोचते हैं, ऐसा आदमी मिल दो ज्ञानियों के बीच बातचीत हो सकती थी, लेकिन होती नहीं, सकता है, जिसे रस्सी और सांप एक साथ दिखाई पड़ जाएं? अब क्योंकि जरूरत नहीं है। दोनों जानते हैं, कहने को कुछ भी नहीं है। तक ऐसा नहीं हुआ। अगर ऐसा आदमी आप खोज लें, तो अगर मुझे भी दिखाई पड़ रहा है कि सांप नहीं है, रस्सी है; और मिरेकल, चमत्कार होगा। रस्सी दिखाई पड़ेगी, तो रस्सी दिखाई आपको भी दिखाई पड़ रहा है कि सांप नहीं है, रस्सी है; तो कौन पड़ेगी, सांप खो जाएगा। सांप दिखाई पड़ेगा, तो सांप दिखाई बोले कि सांप नहीं है! जो बोले, वह पागल। जब दिखाई ही पड़ पड़ेगा, रस्सी खो जाएगी।
रहा है कि रस्सी है, तो पागल ही बोलेगा। जब तक सकाम सांप दिखाई पड़ रहा है, तब तक निष्काम रस्सी | दो ज्ञानियों के बीच बातचीत नहीं हई आज तक। एक बार ऐसा दिखाई नहीं पड़ेगी। इसलिए प्रश्न संगत मालूम पड़ता है। भाषा में | भी हो गया कि बुद्ध और महावीर एक ही धर्मशाला में ठहर गए, बिलकुल ठीक लगता है कि कैसे तालमेल बिठाएं? तालमेल कभी लेकिन बात नहीं हुई। बातचीत का कोई कारण नहीं था। बात करते बिठाया नहीं जाता। इसलिए जो आदमी कहता है, मुझे संसार में भी क्या! अगर बुद्ध महावीर से कहते या महावीर बुद्ध से कहते परमात्मा दिखाई पड़ता है, वह गलत कहता है। जो आदमी कहता | कि सांप नहीं है, रस्सी है, तो दूसरा हंसता कि तुम पागल हो! है है मुझे संसार दिखाई नहीं पड़ता, परमात्मा दिखाई पड़ता है; वह | ही नहीं, तो बात क्या कर रहे हो! आदमी ठीक कहता है। जो आदमी यह कहता है, कण-कण में | __दो ज्ञानियों के बीच बातचीत हो सकती है, लेकिन होती नहीं। परमात्मा है, वह गलत कहता है। जो कहता है, परमात्मा ही | | दो अज्ञानियों के बीच हो ही नहीं सकती, लेकिन बहुत होती है, परमात्मा है, कण कहां है! वह ठीक कहता है।
सुबह से सांझ, अनंतकाल से चल रही है! बोलते रहते हैं, जो जिसे लेकिन भाषा की कठिनाइयां हैं। भाषा की कठिनाइयां इसलिए बोलना है। हैं कि दो तरह के लोगों के बीच बात चल रही है सदा से। चाहे वह ___ ज्ञानी और अज्ञानी के बीच बातचीत अति कठिन है। असंभव कृष्ण और अर्जुन के बीच हो; चाहे वह बुद्ध और आनंद के बीच नहीं है, अति कठिन है। दो ज्ञानियों के बीच असंभव है, क्योंकि हो; चाहे वह जीसस और ल्यूक के बीच हो; चाहे वह किसी के | जरूरत नहीं है। दो अज्ञानियों के बीच असंभव है, क्योंकि दोनों को बीच हो। इस जगत का जो संवाद है, बड़ी मुश्किल का है। वह | ही पता नहीं है। एक ज्ञानी और दूसरे अज्ञानी के बीच संभव है, ज्ञानी और अज्ञानी के बीच चल रहा है।
लेकिन अति कठिन है। क्योंकि दो तलों पर बातचीत होती है। अज्ञानी को सांप दिखाई पड़ रहा है, ज्ञानी को रस्सी दिखाई पड़ ज्ञानी जो बोलता है, वह कुछ और जान रहा है। अज्ञानी जो रही है। ज्ञानी कहे चला जाता है कि सांप नहीं है। अज्ञानी कहता है सुनता है, वह कुछ और जान रहा है। ज्ञानी से बात अज्ञानी के पास कि आप कहते हैं, तो ठीक ही कहते होंगे। लेकिन सांप है। मैं | | गई कि उसका अर्थ बदल जाता है। ज्ञानी कुछ भी कहे, अज्ञानी वही तालमेल कैसे बिठाऊ! अज्ञानी की वजह से ज्ञानी को भी गलत | समझेगा, जो समझ सकता है। वह तत्काल पूछेगा कि माना कि भाषा बोलनी पड़ती है। उसे कहना पड़ता है कि जिसे तुम सांप कह | ईश्वर है...। मान सकता है वह। है, ऐसा जानता तो नहीं है। माना, रहे हो, वह असल में रस्सी है। उसे कहना पड़ता है, सांप में रस्सी कि कठिनाई शुरू हुई।
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गीता दर्शन भाग-2
वह कहता है, मान लेते हैं कि सांप नहीं है! है तो ही! आप कहते | जाता है। हैं, मान लेते हैं कि सांप नहीं है। आप कहते हैं, मान लेते हैं कि __ मैंने सुना है, एक बार ऐसा एक गांव में हुआ। एक आदमी ने रस्सी है। हालांकि है नहीं। क्योंकि अगर हो, रस्सी पता चल जाए, रास्ते पर चलते एक आदमी को पकड़ लिया। और कहा कि हद हो तो मानने की संभावना समाप्त हो गई। फिर कहने की जरूरत नहीं | | गई! अब बहुत हो गया; अब बर्दाश्त के बाहर है। वह सौ रुपए है कि हम मान लेते हैं कि रस्सी है; मान लेते हैं कि सांप नहीं है। | जो आपने लिए थे, मुझे वापस लौटा दें! वह आदमी चौंका। उसने फिर बात खतम हो गई। दिखाई पड़ गया। नहीं; वह कहता है, मान कहा कि क्या कह रहे हैं आप? मैंने और आपसे सौ रुपए कभी लेते हैं कि सांप नहीं है। मान लेते हैं कि रस्सी है। अब कृपा करके | उधार लिए! मैंने आपकी शकल भी पहले नहीं देखी। उस आदमी यह बताइए कि दोनों में तालमेल कैसे करें?
ने कहा कि लो, सनो मजाक! लेते वक्त पराने परिचित थे. देते उसका प्रश्न संगत, कंसिस्टेंट मालूम होता है, लेकिन संगत है| वक्त शकल भी पहचान में नहीं आती! नहीं, बिलकुल असंगत है।
भीड़ इकट्ठी हो गई है! रास्ते पर चारों तरफ लोग आ गए हैं! तो मैं भी आपसे कहना चाहूंगा, कभी ऐसी घड़ी नहीं आती, जब | | लोगों ने कहा कि भई, क्या बात है! उस आदमी ने चिल्लाकर कहा अज्ञान और ज्ञान में कहीं भी कोई मेल होता हो। अज्ञान गया कि | कि मेरे सौ रुपए लूटे ले रहा है यह आदमी। कहता है, मेरी शकल ज्ञान। ज्ञान जब तक नहीं है, तब तक अज्ञान।
भी नहीं देखी! उस आदमी ने कहा कि हैरान कर रहे हैं आप! सच सकाम कर्म को निष्काम कर्म से मिलाने की कोशिश न करें। में ही मैंने आपकी शकल नहीं देखी! लोगों को भी शक हुआ कि सकाम कर्म को समझने की कोशिश करें। सकाम कर्म की पीड़ा, इतना झूठ तो कोई भी नहीं बोलेगा कि शकल भी न देखी हो और संताप को अनुभव करें। सकाम कर्म के नर्क को भोगें, देखें, | सौ रुपये! पहचानें। सकाम कर्म जब ऐसा लगने लगे, जैसे मकान में आग ___ अंततः लोगों ने, जैसा कि लोग होते हैं, उन्होंने कहा कि लगी है, चारों तरफ लपटें ही लपटें हैं, तब अचानक आप छलांग | कंप्रोमाइज कर लो, पचास-पचास पर निपटारा कर लो। जिस लगाकर बाहर हो जाएंगे। और जब आप बाहर हो जाएंगे, तब ठंडी | | आदमी को देने थे, उसने कहा, क्या कह रहे हैं आप? मैं इसकी हवाएं और शीतल हवाएं और खुला आकाश-निष्काम कर्म शकल नहीं जानता। लोगों ने कहा, अब तुम ज्यादती कर रहे हो! का_आपको मिल जाएगा। लेकिन जब तक आप सकाम लपटों उस आदमी ने कहा कि भई. ठीक है। हम पचास छोडे देते हैं। और के भीतर खड़े हैं, तब तक मकान, जलते हुए मकान के भीतर से | क्या! पचास छोड़े देता हूं, लोगों ने कहा, इनकी बात का खयाल मत पूछे कि मैं शीतल हवाओं में और आग लगी लपटों में कैसे | | रखकर! स्वभावतः, लोग उसके और साथ हो गए। उन्होंने कहा, तालमेल करूं!
पचास तो तुम दे ही दो! वह कृष्ण कह रहे हैं, छलांग लगा। द्वंद्व के बाहर आ जा। बाहर मैं यह कह रहा हूं कि जब भी सच और झूठ में समझौता हो, तो निकल आ।
झूठ जीतता है। जब भी! क्योंकि झूठ को खोने को कुछ भी नहीं है यह खयाल में आ जाए, तो सकाम कर्म और निष्काम कर्म के उसके पास। सच को खोने को कुछ है। झूठ का मतलब ही यह है बीच कोई समझौता, कोई कंप्रोमाइज नहीं है। लेकिन हम सदा ऐसा कि खोने को कुछ भी नहीं है। अगर पूरा भी झूठ सिद्ध हो जाए, तो ही करते हैं। हम दुकान और मंदिर के बीच समझौता कर लेते हैं। भी कुछ नहीं खोता। झूठ था! और सत्य का कुछ भी खो जाए, तो हम आत्मा और शरीर के बीच समझौता कर लेते हैं। हम हर चीज | सब कुछ खो जाता है। में समझौता करते चले जाते हैं। हमारी जिंदगी एक लंबा समझौता | | और यह भी मैं आपसे कह दूं कि सत्य जब खोता है, तो आधा है। और समझौते का अर्थ है कि धोखा। समझौते का अर्थ है कि | | नहीं खोता, पूरा ही खो जाता है। क्योंकि सत्य एक आर्गेनिक यूनिटी खो दिया हमने अवसर, जहां कि सत्य मिल सकता था। | है; वह आधा नहीं खोता। सत्य के दो टुकड़े नहीं किए जा सकते।
जो आदमी समझौते में जीएगा, वह सत्य को कभी भी उपलब्ध | झूठ के हजार किए जा सकते हैं। वह मुर्दा चीज है। वह है ही नहीं। नहीं होगा। जितनी बड़ी कंप्रोमाइज, उतना बड़ा अनटूथ, उतना बड़ा |
| वह सिर्फ कागजी है। कैंची चलाएं और हजार टुकड़े कर लें। सत्य झूठ। और ध्यान रहे, समझौते में सदा झूठ जीतता है, सत्य हार | जीवंत है; उसके टुकड़े नहीं होते।
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निष्काम कर्म
सकाम कर्म, अपने ही हाथों पैदा किया गया एक असत्य है। | भला कहने वाला जानता हो कि बाकी मार्ग भी सही हैं, लेकिन निष्काम कर्म जीवन की शाश्वत धारा का सत्य है। उस सत्य और | जिससे वह कह रहा होता है, उससे तो वह एक ही मार्ग की बात इस असत्य के बीच कोई समझौता नहीं है।
कह रहा होता है। कहीं उसे यह भ्रांति न पैदा हो जाए कि यही मार्ग ठीक है।
ऐसी भ्रांति रोज पैदा हुई है। कृष्ण का सचेत होना संगतिपूर्ण है, सांख्ययोगी पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः। अर्थपूर्ण है। ऐसी भूल रोज हुई है। महावीर ने एक बात कही लोगों एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोविन्दते फलम् ।। ४ ।। को। जिनसे कही थी, उनके काम की जो बात थी, वह कह दी थी।
और हे अर्जुन! ऊपर कहे हुए संन्यास और निष्काम | लेकिन सुनने वाले ने समझा कि यही मार्ग सच है। बाकी सब मार्ग कर्मयोग को मूर्ख लोग अलग-अलग फल वाले कहते हैं, गलत हो गए। बद्ध ने एक बात कही. जो सनने वाले के लिए काम न कि पंडितजन । क्योंकि दोनों में से एक में भी अच्छी की थी। उस युग के लिए जो धर्म थी, उस मनुष्य की चेतना के लिए प्रकार स्थित हुआ पुरुष, दोनों के फलरूप परमात्मा को जो सहयोगी थी—कही। सुनने वाले ने समझा कि यही मार्ग है; प्राप्त होता है।
बाकी सब गलत है। क्राइस्ट ने कही एक बात; मोहम्मद ने कही एक बात। वे सभी बातें सही, सभी सार्थक। लेकिन सभी को सुनने
वाले मान लेते हैं कि यही ठीक है; बाकी गलत है। - स जगत के सारे भेद मूढजनों के भेद हैं। इस जगत के | __ और अज्ञानी को खुद को ठीक मानना तब तक आसान नहीं र बाहर जाने वाले मार्गों के सारे विरोध नासमझों के | | होता, जब तक वह दूसरों को गलत न मान ले। अपने को ठीक
विरोध हैं। चाहे हो कर्म-संन्यास, चाहे हो निष्काम | | मानता ही इसीलिए है कि दूसरे गलत हैं। अगर दूसरे भी सही हों, कर्म, ज्ञानी जानता है कि दोनों से एक ही अंत की उपलब्धि होती है। तो फिर खुद के सही होने की संभावना क्षीण हो जाती है। उसका
रास्ते हैं अनेक, मंजिल है एक। नावें हैं बहुत, पार होना है एक। अपने पर भरोसा ही तब तक रहता है, जब तक दूसरे गलत हों। कहीं से भी कोई चले, कैसे भी कोई चले, आकांक्षा हो सत्य की अगर दूसरे गलत न हों, तो उसका खुद का आत्मविश्वास क्षीण हो खोज की; कैसे भी कोई यात्रा करे, कैसे भी वाहन से और कैसे ही जाता है। तो खुद के आत्मविश्वास को बढ़ाने के लिए वह सबको पथों और कैसी ही सीढ़ियों से, आकांक्षा हो एक, आनंद को पाने | गलत कहता रहता है। वह-वह गलत; मैं ठीक। की, तो सब मार्गों से, सब द्वारों से वहीं पहुंच जाता है व्यक्ति; एक ___ इसलिए कृष्ण जैसे व्यक्ति को निरंतर सचेत रहना पड़ता है कि ही जगह पहुंच जाता है।
कहीं एक मार्ग को समझाते वक्त यह खयाल पैदा न हो जाए कि ___ इसलिए कृष्ण कहते हैं इस वक्तव्य में...। कृष्ण जैसे व्यक्तियों दूसरा मार्ग बिलकुल गलत है, भिन्न, अलग है, उससे नहीं पहुंचा को निरंतर ही सचेत होकर बोलना पड़ता है। पहले उन्होंने दो मार्गों जा सकता है। की बात कही। कहा कि एक मार्ग है, कर्म का त्याग। दूसरा मार्ग | __ मगर जो कृष्ण की मजबूरी है, उससे उलटी मजबूरी अर्जुन की है, कर्म में आकांक्षा का त्याग। ये दो मार्ग हैं। दोनों श्रेयस्कर हैं। | है। अगर कृष्ण स्पष्ट रूप से कह दें कि यही ठीक, और दूसरी बात लेकिन दूसरा सरल है। अर्जुन से कहा, दूसरा सरल है। फिर दूसरे | न करें, तो अर्जुन निश्चित होकर मार्ग पर लग जाए। अभी उसको मार्ग पर उन्होंने इतनी व्याख्या की और कहा कि दूसरे मार्ग का क्या कुछ थोड़ी निश्चितता बंधी होगी। सुना उसने कि निष्काम कर्म अर्थ है। राग और द्वेष के द्वंद्व के बाहर हो जाना दूसरे मार्ग का अर्थ | | ज्यादा हितकर है, तो उसने सोचा होगा कि ठीक है, संन्यास बेकार है। लेकिन तत्काल उन्हें इस सूत्र में कहना पड़ता है कि मूढजन ही | | है। अब निष्काम कर्म में लग जाना चाहिए। तत्काल कृष्ण कहते हैं दोनों को विपरीत मान लेंगे या भिन्न मान लेंगे, ज्ञानी तो दोनों को कि मूढजन ही ऐसा समझते हैं कि दोनों भिन्न हैं। एक ही मानते हैं।
अब फिर मुश्किल खड़ी हो जाएगी। अगर दोनों ही ठीक हैं, तो ऐसा क्या कहने की जरूरत पड़ती है? ऐसा कहने की इसलिए फिर चुनाव का सवाल खड़ा हो गया। एक गलत और एक ठीक जरूरत पड़ती है कि जब भी एक मार्ग की बात कही जाती है, तो है, तो चुनाव आसान हो जाए। अगर दोनों ही ठीक हैं, तो फिर
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ॐ गीता दर्शन भाग-20
चुनाव! और दो ही नहीं, अनंत हैं मार्ग।
रहा है कि सब संन्यासी गलत, ये बुद्ध और महावीर, ये सब चुनने वालों की वजह से समझदारों को भी नासमझों की भाषा | छोड़कर चले गए लोग नासमझ, तब तत्काल वे चौंके होंगे। उसकी में बोलना पड़ा और कहना पड़ा कि यही ठीक है। और अगर किसी आंख की चमक उन्हें पकड़ में आई होगी। उन्होंने फौरन कहा कि समझदार ने ऐसा कहा कि यह भी ठीक है, वह भी ठीक है; यह भी मूढजन ही ऐसा समझते हैं अर्जुन, कि ये दोनों मार्ग अलग हैं। ठीक है, वह भी ठीक है, तो सुनने वाले उसे छोड़कर चले गए। पंडितजन तो समझते हैं, दोनों एक हैं। तब उसको बेचारे को उसकी
देखें महावीर! इतनी प्रतिभा के आदमी पृथ्वी पर दो-चार ही हुए भभक थोड़ी-सी आई होगी। उस पर उन्होंने फिर पानी डाल दिया। हैं, लेकिन महावीर को कोई जगत में स्थान नहीं मिल सका। न वह अर्जुन फिर बेकार हुआ। वह फिर अपनी जगह शिथिल होकर मिलने का कुल एक कारण है; एक भूल हो गई उनसे, नासमझों | | बैठ गया होगा-शिथिल गात। फिर सोचने लगा होगा, टु बी, की भाषा बोलने से चूक गए। महावीर ने कह दिया, यह भी ठीक, | | आर नाट टु बी! अब क्या करना है, यह या वह? वह भी ठीक। महावीर का विचार कहलाता है, स्यातवाद। वे कहते कृष्ण उसकी अकड़ नहीं टिकने देते। ऐसा गीता में बहुत बाहर हैं, सब ठीक! वे कहते हैं, ऐसा झूठ भी नहीं हो सकता, जिसमें | | आएगा। जब भी वे देखेंगे कि अर्जुन अकड़ा, लगा कि समझदार कुछ ठीक न हो। यह भी ठीक है, इससे उलटा भी ठीक है। दोनों हुआ जा रहा है, फौरन थोड़ा-सा पानी डालेंगे। उसकी अकड़, से उलटा भी ठीक है। सुनने वालों ने कहा कि फिर माफ करिए; | उसका कलफ फिर धुल जाएगा। तब हम जाते हैं! हम उस आदमी को खोजेंगे, जो कहता हो, यह | बीच में जरूर अर्जुन की आंख में कृष्ण ने देखा है। अन्यथा ठीक। या तो आपको पता नहीं, और या फिर आपको कुछ ऐसा । अभी मूों को याद करने की कोई जरूरत न थी। अर्जुन में मूर्ख पता है, जो अपने काम का नहीं।
आ गया होगा। अन्यथा यह वक्तव्य बेमानी है। अर्जुन की आंख महावीर को मरे पच्चीस सौ साल हुए। हिंदुस्तान में महावीर को में मूर्ख दिखाई पड़ गया होगा। मानने वालों की संख्या आज भी तीस लाख के ऊपर नहीं जा पाती। और ऐसा नहीं है कि मूर्ख ही मूर्ख होते हैं। समझदार से पच्चीस सौ साल में पच्चीस आदमी भी अगर महावीर से दीक्षित समझदार आदमी के मूर्ख क्षण होते हैं। समझदार से समझदार हुए होते, तो उनकी संतान इतनी हो जाती! क्या हुआ? आदमी की आंखों में से कभी मूर्ख झांकने लगता है। और '
और ये जो तीस लाख मानते हैं, इनमें से तीन भी मानते हों, ऐसा कभी-कभी महा मंदबुद्धि आदमी की आंख से भी बुद्धिमान झांकता नहीं है। ये तीस लाख जन्म से मानते हैं। क्योंकि महावीर से राजी | है। आदमी के भीतर की चेतना बड़ी तरल है। होना बहुत मुश्किल है। वे कहते हैं कि जो आदमी कहता है, यही तो जब वह कृष्ण अर्जुन को देखते होंगे, कुछ बुद्धिमान हो रहा ठीक, वह बिलकुल उपद्रव की बात कर रहा है। यह कभी मत | है, तब वे कुछ और कहते हैं। जब वे देखते होंगे कि मूर्खता सघन कहो, यही ठीक। इतना ही कहो, यह भी ठीक, वह भी ठीक। पर हो रही है, तब वे कुछ और कहते हैं। ऐसे आदमी को अनुयायी नहीं मिल सकता। ऐसे आदमी को कैसे चूंकि यह वक्तव्य सीधा अर्जुन को दिया गया है, इसलिए अर्जुन अनुयायी मिलेगा!
का एक-एक हाव, एक-एक भाव, एक-एक आंख की भंगिमा, कृष्ण की भी वही कठिनाई है। वे अर्जुन को जब बताते हैं कोई एक-एक इशारा, इसमें सब पकड़ा गया है। गीता सिर्फ कही नहीं बात ठीक, तो यह वक्तव्य जो उन्होंने दूसरा दिया, अर्जुन की आंख गई है; लिखी नहीं गई है; संवाद है दो जीते व्यक्तियों के बीच। पूरे में देखकर दिया होगा। इसमें तो उल्लेख नहीं है, लेकिन निश्चित वक्त चेतना तालमेल कर रही है। पूरे वक्त एक डायलाग है। आंख को देखकर दिया होगा।
पश्चिम में एक बहुत बड़ा विचारक अभी था, मार्टिन बूवर। वह जब कृष्ण समझा रहे होंगे निष्काम कर्म, तब अर्जुन धीरे-धीरे कहता था, जगत में सबसे बड़ी घटना है, डायलाग, संवाद। क्या अकड़कर बैठ गया होगा। उसने कहा होगा कि तब ठीक है। तो मतलब था? वह कहता था, संवाद बड़ी घटना है। संवाद का अर्थ सब संन्यासी गलत। हम पहले ही जानते थे कि संन्यास वगैरह से है, दो व्यक्तियों के बीच के हृदय ऐसे मिल जाएं कि जरा-सा कुछ होने वाला नहीं! छोड़ने से क्या मिलेगा!
| अंतर, और संवादित हो सके। जरा-सा भेद, और तरंगें पहुंच जाएं, जब उसकी आंख में यह झलक देखी होगी कृष्ण ने कि वह सोच तरंगों को खबर मिल जाए।
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निष्काम कर्म
यह मार्टिन बूवर को पता हो या न हो, दुनिया में अगर कुछ डायलाग हुए....फिल्मों के डायलाग की बात नहीं कर रहा हूं। क्योंकि जो पहले से तैयार कर लिया गया हो, वह डायलाग नहीं होता। वह तो सिर्फ आदमी नहीं बोल रहा, हिज मास्टर्स वाइस का वह जो कुत्ता बैठा रहता है, वही बोल रहा है। आदमी नहीं है वहां।
गीता एक डायलाग है, एक संवाद है। वहां कृष्ण जरा-सी भी झलक अर्जुन की आंख और चेहरे पर पकड़ रहे हैं। जरा-सा मुद्रा का परिवर्तन, और उन्होंने कहा कि अर्जुन! मूर्खजन ऐसा समझ लेते हैं कि दोनों अलग हैं। अर्जुन को ठिकाने लगाया होगा उन्होंने। सिर्फ एक डंडा मारा, वह अर्जुन फिर अपनी जगह बैठ गए होंगे।
आज के लिए इतना ही। एक पांच मिनट रुकेंगे। कोई जाएगा नहीं। पांच मिनट बैठे रहें। इतनी देर बैठे हैं, पांच मिनट और बैठे रहें। संन्यासी कीर्तन में संलग्न होते हैं। पांच मिनट अपनी जगह बैठकर चुपचाप उनके भाव को पी जाएं। और फिर चले जाएं। यह संकीर्तन प्रसाद है, इसको लेकर जाएं। बैठे रहें!
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अध्याय 5 तीसरा प्रवचन
सम्यक दृष्टि
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ॐ गीता दर्शन भाग-26
यत्सांख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते । बदलाहट कर लें। आप कह रहे हैं कि हनुमान जब अशोक वाटिका एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति ।। ५।। में गए, तो चारों तरफ शुभ्र, चांद की चांदनी की तरह फूल खिले तथा ज्ञानयोगियों द्वारा जो परमधर्म प्राप्त किया जाता है, थे। यह बात गलत है। हनुमान जब अशोक वाटिका में गए, तब निष्काम कर्मयोगियों द्वारा भी वहीं प्राप्त किया जाता है। फूल सुर्ख चारों ओर खिले थे, सफेद फूल नहीं खिले थे। लेकिन इसलिए जो पुरुष ज्ञानयोग और निष्काम कर्मयोग को | रामदास ने कहा, चुपचाप बैठ जाओ। बकवास मत करो। फूल फलरूप से एक देखता है, वह ही यथार्थ देखता है। सफेद थे।
___ अभी हनुमान अप्रकट थे। जाहिर होकर उन्होंने नहीं कहा था कि
मैं हनुमान हूं। उन्होंने फिर कहा कि महाशय, सुधार कर लें। मैं 7 खते सभी हैं; यथार्थ बहुत कम लोग देखते हैं। जो हमें किसी कारण से कह रहा हूं। रामदास ने कहा, बीच में गड़बड़ मत ५ दिखाई पड़ता है, वह वही नहीं होता, जो है। वरन हम | करो। फूल सफेद थे। और चुपचाप बैठ जाओ। मजबूरी में हनुमान
___ वही देख लेते हैं, जो हम देखना चाहते हैं। हमारी दृष्टि को क्रोध आ गया। और खुद को देखी हुई बात को कोई आदमी दर्शन को विकृत कर जाती है। हमारी आंखें दृश्य को देखती ही | | झूठ कहे! तो वे प्रकट हुए और उन्होंने कहा, मैं खुद हनुमान हूं। नहीं, दृश्य को निर्मित भी कर जाती हैं।
| अब बोलो तुम क्या कहते हो? फूल लाल थे। सुधार कर लो! जीवन में चारों ओर बिना व्याख्या के हम कुछ भी अनुभव नहीं | | रामदास ने कहा कि फिर भी कहता हूं कि चुपचाप बैठ जाओ और कर पाते हैं। और व्याख्या के साथ किया गया अनुभव विकृत | गड़बड़ मत करो। हनुमान हो, तो भले हो। फूल सफेद थे। अनुभव है। जो भी हम देखते हैं, उसमें हम भी सम्मिलित हो जाते यह तो बहुत उपद्रव की बात हो गई। कोई रास्ता न था, तो हैं। दर्शन विकृत हो जाता है।
हनुमान और रामदास को राम के सामने ले जाया गया। और एक छोटी-सी घटना मुझे याद आती है। सुना है मैंने कि रामदास हनुमान ने कहा कि यह एक आदमी है जिसको मैं कह रहा हूं कि ने हजारों वर्षों बाद, राम के होने के हजारों वर्षों बाद, राम की कथा फूल लाल थे, और जो कहता है कि फूल सफेद थे। मैं हनुमाना पुनः लिखी। राम तो एक हुए हैं, लेकिन कथाएं तो उतनी हो सकती | हजारों साल बाद ये सज्जन कहानी लिख रहे हैं। लेकिन हद जिद्दी' हैं, जितने लिखने वाले हैं। लेकिन कथा कुछ ऐसी थी कि हनुमान | आदमी है! मुझसे कहता है, चुपचाप बैठ जाओ। अब आप ही को खबर लगी कि तुम्हारे भी सुनने योग्य है। हनुमान तो प्रत्यक्षदर्शी | | निर्णय दे दें। थे कथा के। फिर भी रोज-रोज खबर आने लगी, तो हनुमान चोरी राम ने कहा, हनुमान, तुम क्षमा मांग लो। फूल सफेद ही थे; से उस कथा को सुनने जाते थे जिसे रामदास दिनभर लिखते और | रामदास ठीक कहते हैं। तुम इतने क्रोध में थे कि तुम्हारी आंखें खून सांझ इकट्ठे भक्तों के बीच सुनाते। कहानी है, पर अर्थपूर्ण है। और | से भरी थीं। तुमने लाल फूल देखे होंगे। लेकिन फूल सफेद ही थे। बहुत बार कहानियां सत्य से भी ज्यादा अर्थपूर्ण होती हैं। ___ संभव है। कहानी भला संभव न हो, लेकिन खून से भरी आंखों
राम की कथा चलती रही। हनुमान आनंदित थे। हैरान थे यह में सफेद फूल लाल दिखाई पड़ सकते हैं, यह संभव है। बात जानकर, कि रामदास हजारों साल के बाद, कथा को ठीक। हम जो देखते हैं, उसमें हमारी आंख तत्काल प्रविष्ट हो जाती वैसा कह रहे हैं, जैसी वह घटी थी। यह बड़ी कठिन बात है। जो है। हम वही नहीं देखते, जो है। और जो व्यक्ति वही देखने में समर्थ आंख के सामने देखते हैं, वे भी ठीक वैसा ही वर्णन नहीं करते, हो जाता है, जो है, उसे ही कृष्ण ज्ञानी कहते हैं। जैसा घटता है। आंख सम्मिलित हो जाती है। दृष्टि प्रवेश कर जाती ___ कृष्ण यहां कह रहे हैं कि कर्म से, निष्काम कर्म से या है। हजारों साल बाद यह आदमी कहानी कह रहा है और ठीक ऐसी | कर्म-संन्यास से; कर्मयोग से या कर्मत्याग से, एक ही परम स्थिति कि हनुमान भी भूल-चूक नहीं निकाल पाते हैं। कहीं जैसे कोई | उपलब्ध होती है। व्याख्या नहीं है। जैसे घटना सामने घटती हो।
लेकिन ऐसा तो केवल वे ही देख पाते हैं, जो वही देखते हैं, जो लेकिन एक जगह हनुमान को भूल मिल गई। हनुमान ने खड़े है। जिनकी दृष्टि दर्शन में बाधा नहीं बनती। जिनके अपने खयाल होकर कहा कि माफ करें, और सब तो ठीक है, इसमें थोड़ी-सी यथार्थ के ऊपर आरोपित नहीं होते, इम्पोज नहीं होते। जो अपने को
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O सम्यक दृष्टिल
हटाकर देखते हैं, या ऐसा कहें कि जो शून्य होकर देखते हैं, जो | तक ही पहुंचते हुए दिखाई पड़ते हैं। वह तो कहेगा कि रावण भी बीच में नहीं आते। वे तो ऐसा ही देखते हैं कि चाहे कोई कर्म के | अपने रास्ते से परमात्मा तक ही पहुंच रहा है। और राम भी अपने जगत में जीकर आकांक्षाओं को छोड़कर चले, या कोई कर्म को ही रास्ते से परमात्मा तक ही पहुंच रहे हैं। उतना गहरा देखने पर तो छोड़कर चल दे, अंतिम उपलब्धि एक ही होती है।
राम और रावण के बीच का भी फासला गिर जाएगा। लेकिन उतना लेकिन यह उनकी प्रतीति है, जिनके पास अपने कोई विचार गहरा देखना तभी संभव है, जब हमारे भीतर विचार का द्वैत आरोपित करने को नहीं हैं। यह उनकी स्थिति है, जो निर्विचार हैं। विसर्जित हो गया हो। यह उनकी स्थिति है. जिनके पास अपना कोई भी खयाल यथार्थ के हम देखते नहीं. हम विचार से देखते हैं। इस फर्क को खयाल ऊपर रोपने को नहीं है। लेकिन बाकी शेष सारे लोग दोनों में विरोध । में ले लें। एक फल के पास खडे हैं: गलाब का फल खिला है। देखेंगे।
| आप सोचते होंगे, गुलाब के फूल को देखते हैं, तो गलत सोचते विरोध दिखाई पड़ता है। कहां तो कर्म का जीवन, और कहां सारे | हैं। गुलाब के फूल को देख भी नहीं पाते कि मन के जगत में विचारों कर्म को छोड़कर चले जाने वाला जीवन! अगर ये दोनों विरोधी नहीं का जाल खड़ा हो जाता है। लगता है मन को, सुंदर है फूल! एक हैं, तो फिर इस जगत में क्या विरोधी हो सकता है! कहां तो एक | विचार आ गया। अतीत में जो-जो गुलाब का अनुभव है, उस व्यक्ति, जो दैनंदिन जीवन के छोटे-छोटे कर्मों में घिरा है! कृष्ण, | सबकी स्मृति बीच में खड़ी हो गई। जो-जो सुना है, बचपन से युद्ध के मैदान पर खड़े हैं। कहां बुद्ध, जीवन का सारा संघर्ष | जो-जो कंडीशनिंग हुई है। जरूरी नहीं है कि अगर आपको बचपन छोड़कर हट गए हैं। कहां जनक, महलों में, जीवन के घने बाजार | से न समझाया गया हो कि गुलाब सुंदर है, तो आपको सुंदर दिखाई के बीच, साम्राज्य के बीच खड़े हैं! कहां महावीर, वस्त्र के भी रहने | | पड़े। जरूरी नहीं है। बहुत कुछ तो सिखावन है। से शरीर पर कहीं कर्म का कोई लेप न चढ़ जाए, इसलिए वस्त्र भी | अगर चीन में जाकर पूछे, तो गाल पर अगर हड्डी निकली हो, छोड़कर नग्न हो गए हैं! कहां मोहम्मद, तलवार लेकर जूझने को तो सुंदर है। हिंदुस्तान में नहीं होगी। बचपन से जाना है जिसे तैयार। कहां महावीर, पैर भी फूंककर रखेंगे कि चींटी न दब जाए! | सुंदर, वह सुंदर प्रतीत होने लगा है। सारी दुनिया में सौंदर्य के इन दोनों आदमियों को एक देख पाना अति कठिन है। सहज ही अलग-अलग मापदंड हैं। नीग्रो के लिए ओंठ का मोटा होना बहुत प्रतीत होता है कि विपरीत हैं दोनों बातें। विपरीत ही दिखाई पड़ती सुंदर है। इसलिए नीग्रो स्त्रियां अपने ओंठ में पत्थर बांधकर और हैं दोनों बातें।
लटकाकर उसको चौड़ा करती रहेंगी। लेकिन हमारे मुल्क में ओंठ लेकिन कृष्ण कहते हैं, विपरीत उसे दिखाई पड़ती हैं, जो अज्ञानी का पतला होना सौंदर्य है। ओंठ किसी का मोटा है, तो उसको भीतर है। इसे थोड़ा ठीक से समझ लेना चाहिए।
दबाता रहेगा कि मोटा ओंठ बाहर दिखाई न पड़ जाए। इस जगत में जो-जो चीज विपरीत दिखाई पड़ती है. वह अज्ञान गलाब का फल संदर दिखाई पड़ता है, यह सना-सीखा संस्कार के कारण ही विपरीत दिखाई पड़ती है। जहां-जहां भेद, जहां-जहां | | है। यह विचार है या कि यह दर्शन है? यह दर्शन तो तभी होगा, द्वैत, डुअलिटी दिखाई पड़ती है, वह अज्ञान के कारण ही दिखाई | जब गुलाब के फूल के पास खड़े हों और सिर्फ खड़े हों, सोचें जरा पड़ती है। अंधेरे और प्रकाश में भी विरोध नहीं है। और जन्म और भी न। आंख से गुलाब को उतर जाने दें, विचार को बीच में न आने मृत्यु में भी विरोध नहीं है। जन्म भी वही है, जो मृत्यु है। और अंधेरा दें। उसे प्राणों तक पहुंच जाने दें, विचार को बीच में न आने दें। भी वही है, जो प्रकाश है।
वह घुल जाए, मिल जाए श्वासों में। वह एक हो जाए प्राणों से। लेकिन यह उसे दिखाई पड़ता है, जिसकी आंखों से सारा धुआं चेतना भीतर की, और गुलाब की चेतना कहीं आलिंगन में बद्ध हो विचार का हट गया और जिसके प्राणों से अहंकार की बदलियां हट जाए; कोई विचार न उठे; तब जो आप जानेंगे, वह गुलाब को गईं। और जिसका अंतःप्राण पारदर्शी, ट्रांसपैरेंट हो गया। जो दर्पण जानना है। अन्यथा जो आप जानते हैं, वह गुलाब के संबंध में जाने की तरह हो गया। जिसके पास अपना कुछ भी नहीं है; जो दिखाई। हुए को दोहराना है। वह गुलाब को जानना नहीं है। पड़ता है, वही झलकता है।
जो व्यक्ति जीवन में इस भांति निर्विचार देखने में समर्थ हो जाता जो दर्पण की तरह हो गया, निद्वंद्व, उसे तो सारे रास्ते परमात्मा है, उस व्यक्ति को अत्यंत विरोधी मार्ग भी एक ही मालूम पड़ते हैं।
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ॐगीता दर्शन भाग-20
वह कह सकता है।
दिया धन्यवाद, भीतर की कली कुम्हला जाती है। इतनी छोटी-सी इसलिए कृष्ण कहते हैं, मूढजन को तो, बुद्धिहीन को तो बड़े | | अपेक्षा भी प्राणों को उदास करती और प्रफुल्लित करती है। जितनी विपरीत मालूम पड़ेंगे। लगेगा कि कहां संसार के कर्म का जाल बड़ी अपेक्षाएं होंगी, फिर उतनी ही उदासी और प्रफुल्लता की
और कहां सब छोड़कर किसी गुफा में बैठ जाना मौन, बड़ी विपरीत | अपेक्षा के अनुपात में दुख का भार बढ़ता चला जाएगा। हैं बातें। लेकिन कृष्ण कहते हैं, नहीं हैं विपरीत। क्यों नहीं हैं | | दिन में चौबीस घंटे में जो आदमी एक काम अपेक्षारहित कर ले, विपरीत? नहीं हैं विपरीत इसलिए, कि चाहे कोई आकांक्षाओं को | | उसने प्रार्थना की, उसने नमाज पढ़ी, उसने ध्यान किया। एक काम छोड़ दे, और चाहे कोई कर्म को छोड़ दे, दोनों से चित्त में एक ही | | आदमी अगर चौबीस घंटे में अपेक्षारहित, फलरहित कर ले, तो अवस्था घटित होती है।
बहुत देर नहीं लगेगी कि उसके कर्मों का जाल धीरे-धीरे जिसने आकांक्षा को छोड़ दिया, उसके लिए कर्म अभिनय से अपेक्षारहित होने लगे। क्योंकि उस छोटे-से काम को करके वह ज्यादा, एक्टिंग से ज्यादा नहीं रह जाता। जिसने फल की आकांक्षा पहली दफे पाएगा कि जीवन न दुख में है, न सुख में है, वरन परम छोड़ दी, उसे कर्म खेल से ज्यादा, लीला से ज्यादा नहीं रह जाता। | शांति में उतर गया। उस छोटे-से कृत्य के द्वारा शांत हो गया। वह कर्म को छोड़े या न छोड़े, कर्म की कोई भी प्रभावना उसकी | | अपेक्षा सुख का आश्वासन देती है, दुख का फल लाती है। चेतना पर अंकित नहीं होती है। क्योंकि कर्म अंकित नहीं होते, फल अपेक्षारहित कृत्य गहन शांति के सागर में डुबा जाता है। की आकांक्षा अंकित होती है।
अपेक्षारहित कृत्य आनंद के द्वार खोल देता है। __कभी आपने सोचा कि आप कर्म से कभी पीड़ित नहीं हैं, आप | । देखें, प्रयोग करें। और जैसे-जैसे खयाल में आएगा, वैसे-वैसे पीड़ित फल की आकांक्षा से हैं! और अगर कर्म से पीड़ित होते हैं, | | समझ में आएगा कि अगर अपेक्षारहित कृत्य किया, तो वही अंतिम तो फल की आकांक्षा के कारण पीड़ित होते हैं। पीड़ा का जो जहर | फल मिलता है, जो कर्म को छोड़ने वाले को मिलता होगा। जो है, वह फल की आकांक्षा में है, अपेक्षा में है, एक्सपेक्टेशन में है। आदमी कर्म छोड़कर भाग गया है, वह भी शांत हो जाता है, जितनी बड़ी अपेक्षा, उतनी ही पीड़ा कर्म देता है। जितनी छोटी अशांति का कोई कारण नहीं रह जाता। लेकिन जिस आदमी ने फल
अपेक्षा, उतनी ही पीड़ा कम हो जाती है। जितनी शून्य अपेक्षा, की आकांक्षा छोड़ दी है, अशांति के सारे कारण मौजूद रहते हैं, उतनी ही पीड़ा विदा हो जाती है। लेकिन हम कोई कर्म जानते नहीं, | | लेकिन भीतर अशांति को पकड़ने वाली ग्राहकता, रिसेप्टिविटी जो हमने बिना फल की अपेक्षा के किया हो।
नष्ट हो जाती है। प्रयोग करें। चौबीस घंटे में तय कर लें कि एक छोटा-सा काम दो रास्ते हैं। एक दर्पण है। और मैं उसके सामने खड़ा हूं। मैं हट बिना फल की आकांक्षा के करेंगे। राह पर जा रहे हैं। किसी आदमी जाऊं, तो दर्पण पर तस्वीर मिट जाती है। दर्पण को तोड़ दूं, मैं खड़ा का छाता गिर गया है। उसे उठाकर दे दें। लेकिन लौटकर रुकें न, रहूं, तो भी तस्वीर मिट जाती है। दर्पण को तोड़ दं, तो भी परिणाम कि वह धन्यवाद दे। और धन्यवाद न दे, तो मन में देखें कि कहीं यही होता है कि तस्वीर मिट जाती है। मैं हट जाऊं, दर्पण को बना पीड़ा तो नहीं खटकती है? अगर धन्यवाद न दे, तो जरा मन में देखें | | रहने दं, तो भी परिणाम यही होता है कि तस्वीर मिट जाती है। दोनों कि कहीं विषाद का धुआं तो नहीं उतरता है? कहीं ऐसा तो नहीं | कृत्य बहुत अलग हैं। लेकिन परिणाम दोनों का एक है कि तस्वीर लगता है कि कैसा आदमी है, धन्यवाद भी न दिया!
मिट जाती है। अगर धन्यवाद की भी अपेक्षा है, जो कि बहुत छोटी अपेक्षा है, दर्पण को तोड़ना कर्म को छोड़ने जैसा है। और आकांक्षा को नामिनल, न के बराबर...।
| तोड़ना स्वयं दर्पण से हट जाने जैसा है। दर्पण अपनी जगह है, मैं इसीलिए समझदार आदमी दिनभर धन्यवाद देते रहते हैं, ताकि ही हट गया। कर्म अपनी जगह है, मैंने ही कर्म से अपनी आकांक्षा जो व्यर्थ की अपेक्षाएं हैं लोगों की, वे उनकी तृप्त होती रहें। हटा ली, अहंकार को हटा लिया। मैं पीछे हो गया। धन्यवाद देने वाले का कुछ भी नहीं बिगड़ता, लेकिन लेने वाले को इसलिए कृष्ण कहते हैं, दोनों में से कुछ भी हो जाए अर्जुन, बहुत कुछ मिलता हुआ मालूम पड़ता है। अपेक्षा पर निर्भर है। परिणाम एक ही होता है। लेकिन ऐसा ज्ञानीजन जानते हैं। और जो
छोटा-सा शब्द धन्यवाद, भीतर जैसे फूल खिल जाता है। नहीं ऐसा जानते हैं, उनका ही दर्शन सम्यक है। उनका ही देखना ठीक
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O सम्यक दृष्टि -
देखना है। जो ऐसा नहीं जानते, उनका देखना मिथ्या देखना है। | और कहां आकाश शुरू होता है? आकाश पृथ्वी को सब ओर से ___एक अंतिम बात और इस संबंध में आपसे कहूं, और वह यह | | घेरे हुए है। गड्ढा खोदें पृथ्वी में। तो कुआं खोदते हैं, तब आप है, न देखना, गलत देखने से बेहतर है। न देखना, आंख का बंद | सोचते हैं कि आप पृथ्वी खोद रहे हैं? आप गलती कर रहे हैं। आप होना, मिथ्या देखने से बेहतर है। न देखने वाला किसी न किसी | सिर्फ मिट्टी अलग कर रहे हैं और आकाश को प्रकट कर रहे हैं। दिन जल्दी ही देखने पर पहुंच जाएगा। लेकिन गलत देखने वाले जब आप गड्डा खोदकर कुआं खोदते हैं, तो जमीन के भीतर की ठीक देखने पर पहुंचने में बड़ी लंबी यात्रा है।
आकाश मिल जाता है। खोदते चले जाएं और आकाश मिलता ___ अज्ञान मिथ्या ज्ञान से भी खतरनाक है। फाल्स नालेज इग्नोरेंस चला जाएगा। आर-पार हो जाएं; यहां से खोदें और अमेरिका में से भी खतरनाक है। क्योंकि अज्ञान में एक विनम्रता है, मिथ्या ज्ञान | निकल जाएं, तो बीच में आकाश ही आकाशं मिलता चला जाएगा। में विनम्रता नहीं है। अज्ञानी कहता है. मैं नहीं जानता। एक गहरी | वैज्ञानिक कहते हैं कि पथ्वी भी श्वास लेती है. पोरस है। पथ्वी विनम्रता है, ईगोलेसनेस है। अज्ञानी अनुभव करता है कि मैं नहीं | भी छिद्रहीन नहीं है; सछिद्र है। वैज्ञानिक कहते हैं कि अगर हम पृथ्वी जानता, तो जानने की संभावना निरंतर मौजूद रहती है। | को कनडेंस कर सकें, उसमें जितना आकाश है उसको बाहर निकाल
मिथ्या ज्ञानी सोचता है कि मैं जानता हूं, बिलकुल ठीक से सकें, तो एक छोटी-सी बच्चे के खेलने की गेंद के बराबर कर सकते जानता हूं, जानने का द्वार भी बंद हो गया। जानने की यात्रा भी शुरू | हैं। लेकिन वह बच्चे की गेंद भी पोरस होगी और विज्ञान अगर किसी नहीं होगी। और मिथ्या ज्ञानी को खयाल है कि मैं जानता हूं, तो वह | दिन और समर्थ हो जाए, तो उसे और छोटा कर सकता है। जिस चीज को जानता है, उसे जोर से पकड़े बैठा रहता है। और आकाश और पृथ्वी अलग नहीं, एक ही हैं। पृथ्वी आकाश से जब तक मिथ्या ज्ञान न हट जाए, तब तक सम्यक ज्ञान के उतरने | ही बनती है, वैज्ञानिक कहते हैं। आकाश से ही जन्मती है। जैसे का कोई उपाय नहीं है।
पानी में भंवर पड़ती है, पानी की ही भंवर। ऐसे ही आकाश जब - हाथ खाली हो, बेहतर। तो किसी दिन हीरे दिखाई पड़ जाएं, तो | | भंवर से भर जाता है, नेबुला बन जाता है, तो पृथ्वी बनती है। फिर
खाली हाथ उन्हें उठा ले सकते हैं। लेकिन हाथ कंकड़-पत्थर को एक दिन पृथ्वी आकाश में खो जाती है। हीरे समझकर बांधकर मुट्ठियां बंद हुए बैठे हों, तो खतरनाक। रोज न मालूम कितने ग्रह आकाश में वापस खो रहे हैं, जैसे रोज क्योंकि हीरे भी दिखाई पड़ जाएं, तो शायद ही दिखाई पड़ें। क्योंकि | आदमी मृत्यु में खो जाते हैं। और रोज बच्चे पैदा होते रहते हैं। जिसकी मुट्ठी में रंगीन पत्थर बंद हैं और जो सोच रहा है कि मेरे आदमी ही पैदा होते हैं, ऐसा नहीं; चांद-तारे भी रोज पैदा होते हैं। पास हीरे हैं, वह शायद ही अपनी मुट्ठी को छोड़ इस बड़े जगत में और रोज चांद-तारे मरते रहते हैं। पैदा होते हैं शून्य आकाश से, खोजने निकले कि हीरे कहीं और हैं। हीरे तो उसके पास हैं ही, विलीन हो जाते हैं शून्य आकाश में। आकाश और पृथ्वी दो नहीं। इसलिए उसकी यात्रा बंद है।
गेहूं आप खा लेते हैं, खून बन जाता है। चेतना बन जाती है। कृष्ण कहते हैं, जो इन दो विरोधों के बीच एक को देख पाता है, कहते हैं, पत्थर और चेतना अलग है। सिर्फ नासमझ कहते हैं। वही ठीक देखता है।
क्योंकि मिट्टी भी आपके भीतर जाकर चेतन हो जाती है। आपका दो विरोधों के बीच एक को देख पाना इस जगत का सबसे बड़ा शरीर मिट्टी से ज्यादा क्या है? इसलिए कल जब मर जाएंगे, तो . अनुभव है। दो विरोधों के बीच एक को देख पाना गहरी से गहरी, | डस्ट अनटु डस्ट, मिट्टी मिट्टी में गिर जाएगी। मरे हुए आदमी को सूक्ष्म से सूक्ष्म दृष्टि है। नहीं दिखाई पड़ता। आकाश और पृथ्वी हम कहते हैं कि मिट्टी उठाओ जल्दी। कल तक आदमी था, जिंदा एक नहीं दिखाई पड़ते। कहां आकाश, कहां पृथ्वी! दो दिखाई पड़ते था, जीवित था। कोई कह देता, मिट्टी हो, तो छुरा निकालकर खड़ा हैं साफ! जन्म और मृत्यु एक दिखाई नहीं पड़ते; साफ दो दिखाई हो जाता। आज हम कहते हैं, मिट्टी जल्दी उठाओ। पड़ते हैं। पत्थर और चेतना एक नहीं दिखाई पड़ते; साफ दो दिखाई सब मिट्टी में खो जाता है। मिट्टी से ही आया था, इसीलिए मिट्टी पड़ते हैं।
में खो जाता है। रोज मिट्टी ही खा रहे हैं। जिसको आप भोजन कहते लेकिन हमारा साफ दिखाई पड़ना बहुत ही गलत है। आकाश | | हैं, मिट्टी से ज्यादा नहीं है। हां, दो-चार स्टेजेज पार करके आता और पृथ्वी दो नहीं हैं। बता सकते हैं, कहां पृथ्वी समाप्त होती है । है, इसलिए खयाल में नहीं आता।
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गीता दर्शन भाग-20
अभी अमेरिका में एक वैज्ञानिक ने, एक वनस्पति-शास्त्री ने एक तो कभी अंतर्मुखी। इस स्थिति में कृपया समझाएं कि बहुत अनूठा प्रयोग किया और बहुत हैरान हुआ। उसने एक कोई व्यक्ति ठीक-ठीक कैसे निर्णय करे कि वह वट-वृक्ष लगाया एक गमले में। गम पकर लगाया। अंतर्मुखी है अथवा बहिर्मुखी है? जितना पानी उसमें डालता था, उसका नाप रखता था। वृक्ष बड़ा होने लगा। फिर जब वृक्ष पूरा बड़ा हो गया, तो वृक्ष और गमले को उसने नापा। हैरान हुआ। वृक्ष को निकालकर नापा, तो और हैरान हुआ। न हिर्मुखता का अर्थ है, कि व्यक्ति की चेतना निरंतर वृक्ष तो सैकड़ों पौंड का हो गया और गमले की मिट्टी केवल डेढ़ पौंड | प बाहर की तरफ दौड़ती है। वह बाहर कोई भी हो सकता कम हुई। और वह भी उसका कहना है कि वृक्ष में नहीं गई। वह डेढ़ है। धन हो सकता है, धर्म हो सकता है। पद हो सकता पौंड मिट्टी भी पानी डालने में, हवा में, यहां-वहां उड़ गई। है, परमात्मा हो सकता है। इससे फर्क नहीं पड़ता। किस चीज की
यह वृक्ष कहां से आया? यह सैकड़ों पौंड का वृक्ष! इसमें | तरफ दौड़ती है, इससे फर्क नहीं पड़ता। बहिर्मुखी चेतना, थोड़ा-सा दान मिट्टी ने दिया, बड़ा दान आकाश ने दिया, हवाओं एक्सट्रोवर्ट कांशसनेस, बाहर की तरफ दौड़ती है। भीतर से बाहर ने दिया, पानी ने दिया।
की तरफ यात्रा होती रहती है। और शायद अभी हमें पता नहीं-विज्ञान को कम से कम पता इसका पता लगाया जा सकता है। कभी आंख बंद करके बैठे। नहीं—कि इस सब दान के बाद भी एक और अज्ञात स्रोत है। देखें कि चेतना कहां दौड़ रही है। अगर बहिर्मुखी हैं, तो चेतना परमात्मा का, जो प्रतिपल दे रहा है। उसने दिया। पर उसका तो | | बाहर की तरफ दौड़ती हुई पाएंगे। धन के संबंध में सोच रहे होंगे, किसी पौंड में वजन नहीं नापा जा सकता। वह किसी माप के बाहर | मित्रों के संबंध में, शत्रुओं के संबंध में या परमात्मा के संबंध में, है। लेकिन वैज्ञानिक सोचते थे कि शायद यह सारी की सारी मिट्टी | इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। बाहर, कोई और, कोई आब्जेक्ट चित्त है, तो गलत हो गई बात। इसमें आकाश भी समाया हुआ है। | को पकड़े रहेगा। दौड़ते रहेंगे बाहर की तरफ। इसलिए जब इसको जला देंगे, तो आकाश आकाश में चला बहिर्मुखी लोगों ने ही परमात्मा को ऊपर आकाश में बना रखा जाएगा। पानी पानी भाप बन जाएगा। मिट्टी जितनी है, वह फिर | है। हाथ भी जोड़ेंगे वे, तो आकाश के परमात्मा को जोड़ेंगे। पूछे, वापस राख होकर मिट्टी में खो जाएगी।
परमात्मा कहां है? तो बहिर्मुखी आकाश की तरफ देखेगा। पूछे, नहीं, आकाश और पृथ्वी अलग नहीं हैं। नहीं, मिट्टी और चेतना | | परमात्मा कहां है? तो अंतर्मुखी आंख बंद करके भीतर की तरफ भी अलग नहीं हैं। नहीं, पदार्थ और परमात्मा भी अलग नहीं हैं। | देखेगा। लेकिन अज्ञानी सब चीजों को दो में करके देखते हैं—विरोध में, अंतर्मुखी का लक्षण यह है कि जब आप आंख बंद करके बैठे, पोलेरिटी में। जब तक अज्ञानी दो न बना ले, तब तक देख ही नहीं | | तो पाएं कि बाहर की तरफ चित्त नहीं दौड़ता। भीतर की तरफ डूबता पाता है। और ज्ञानी जब तक दो में एक को न देख ले, तब तक देख | जा रहा है, सिंकिंग की फीलिंग होगी, जैसे कोई नदी में डूब रहा है। ही नहीं पाता।
| भीतर की तरफ डूबते जा रहे हैं। बहिर्मुखी को बाहर दौड़ने में बड़ा इसलिए कृष्ण कहते हैं, जो ऐसा देखता है, वही देखता है। | रस मालूम पड़ेगा। अंतर्मुखी को भीतर डूबने में बड़ा रस मालूम कर्म-संन्यास भी और कर्मयोग भी एक ही परम स्थिति को उपलब्ध | पड़ेगा। बहिर्मुखी को भीतर डूबना मौत जैसा मालूम पड़ेगा कि मर करा देते हैं।
जाएंगे। इससे तो बेहतर है कि कुछ और कर लें। अंतर्मुखी को बाहर की बात सोचना-विचारना बहुत ही कष्टपूर्ण, बहुत भारी,
बहुत बोझिल हो जाएगा। अंतर्मुखी एकांत मांगेगा, बहिर्मुखी भीड़ प्रश्नः भगवान श्री, पहले दिन आपने कहा कि चाहेगा। ये लक्षण बता रहा हूं। कर्म-संन्यास अंतर्मुखी व्यक्ति की साधना है तथा अंतर्मुखी को एकांत में छोड़ दो, तो प्रसन्न हो जाएगा। भीड़ में निष्काम कर्म बहिर्मुखी व्यक्ति की साधना है। लेकिन | | खड़ा कर दो, तो उदास हो जाएगा। अंतर्मुखी भीड़ से लौटेगा, तो लोगों का अनुभव है कि कभी वे बहिर्मुखी होते हैं, || | उसको लगेगा, कुछ खोकर लौट रहा हूं। और एकांत से लौटेगा,
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तो फुलफिल्ड, कुछ भरकर लौट रहा हूं; कुछ पाकर लौट रहा हूं। नहीं, आप अपने स्वधर्म को नहीं पहचान रहे हैं। इसलिए बहिर्मुखी को एकांत में रख दो, तो निर्जीव हो जाएगा। फीका, पीला परेशान हैं। और चूंकि पूरब का धर्म का बड़ा हिस्सा, अगर हम पड़ जाएगा। जिंदगी लगेगी बेकार है। कुछ सार नहीं। क्लब में | कृष्ण को छोड़ दें पूरब में, तो पूरब के बुद्ध और महावीर, नागार्जुन रख दो, मंदिर में रख दो, मस्जिद में रख दो, भीड़ में ले | और शंकर, सब के सब अंतर्मुखी हैं। उन सब की बातों ने पूरब के आओ-जिंदगी वापस लौट आएगी। पत्ते लहलहा उठेंगे। फूल | | मन को अंतर्मुखी धर्म का खयाल दे दिया है। और सौ में से खिलने लगेंगे।
| निन्यानबे आदमी बहिर्मुखी हैं। इसलिए बड़ी बेचैनी हो गई, बड़ी यह एक-एक व्यक्ति को अपने जीवन की स्थितियों में जांचते मुश्किल हो गई। रहना चाहिए कि उसकी अंतर्धारा बाहर की तरफ बहने को आतुर तो बहिर्मुखी आदमी सोचता है, अपने वश का नहीं है धर्म। रहती है या भीतर की तरफ बहने को आतुर रहती है। टर्निंग इन, अपने भाग्य में नहीं है। मौन तो होता ही नहीं मन; ठहरता ही नहीं। ऐसी है उसकी धारा, भीतर की तरफ मुड़ती चली जाती है; कि ऐसी | | भीतर तो कुछ पता ही नहीं चलता। भीतर तो जाना होता ही नहीं। है धारा कि बाहर की तरफ दौड़ती है, टर्निंग आउट।
तो जरूर हम किसी पिछले जन्मों के पापों और कर्मों का फल भोग यह प्रत्येक व्यक्ति अपने को कस ले सकता है। भीड़ में अच्छा लगता है कि अकेले में ? कोई नहीं होता है कमरे में, सन्नाटा होता | नहीं; जरूरी नहीं है। आप सिर्फ एक भ्रांति का फल भोग रहे हैं। है, तब अच्छा लगता है ? कि कमरे में कोई हो, तभी अच्छा लगता | आप ठीक से समझ नहीं पाए कि आप बहिर्मुखी हैं। अगर है? खाली बैठे रहते हैं, तो बेचैनी मालूम पड़ती है? कि खाली | | बहिर्मुखी हैं, तो धर्म की रूप-रेखा आपके लिए बिलकुल अलग बैठे रहते हैं. तो रिलैक्स्ड. शांत. मौन मालम पडता है? घर में होगी। अगर बहिर्मखी हैं. तो आपको धर्म भी ऐसा चाहिए जो मेहमान आते हैं, तब अच्छा लगता है? कि जब जाते हैं. तब | आपकी बहिर्मुख चेतना का उपयोग कर सके। अंतर्मुखी धर्म के अच्छा लगता है?
लिए, ध्यान; बहिर्मुखी धर्म के लिए, प्रार्थना। इसकी थोड़ी जांच करते रहना चाहिए। नहीं मेहमान आते हैं, तो कभी आपने खयाल किया कि ध्यान और प्रार्थना बड़े अलग बेचैन हो जाती है तबियत, उठाकर फोन करने लगते हैं? अखबार रास्ते हैं! ध्यान का मतलब है, अंतर्मुखी का धर्म। प्रार्थना का अर्थ में जरा देर हो जाती है आने में, तो बेचैनी होती है, रेडियो खोल लेते है, बहिर्मुखी का धर्म। ध्यान में परमात्मा की भी गुंजाइश नहीं है। हैं? कभी अपने को अकेला छोड़ते हैं या नहीं छोड़ते हैं? कोई न | ध्यान का मतलब है, अकेले, अकेले, और अकेले। ध्यान का कोई होना ही चाहिए-कंपेनियन, साथी, संगी, मित्र, पत्नी, पति, मतलब है, उस जगह पहुंच जाना है, जहां मैं ही अकेला रह जाऊं बच्चे-कोई न कोई होना ही चाहिए? कि कभी ऐसा भी लगता है और कुछ न बचे। और प्रार्थना का मतलब है, परमात्मा; अकेले कि कोई भी न हो? अकेला! किस चीज का स्वाद है, इसे नहीं, दो। और प्रार्थना का मतलब है, उस जगह पहुंच जाना अंततः पहचानना चाहिए।
| कि परमात्मा ही बचे, मैं न बचूं। इन दोनों का अंतिम फल एक हो आज के युग में सौ आदमी में मुश्किल से एक आदमी स्वभावतः | | जाएगा। लेकिन प्रार्थना दूसरे से शुरू होगी, परमात्मा से; और अंतर्मुखी है। निन्यानबे मौके पर आप पाएंगे, आप बहिर्मुखी हैं। ध्यान स्वयं से शुरू होगा।
और अगर लगता है कि आप बहिर्मुखी हैं, तो भूलकर भी अंतर्मुखी | ___ इसलिए ध्यान के जो धर्म हैं, जैसे जैन, वे परमात्मा को इनकार धर्म की बातों में मत पड़ जाना, अन्यथा बहुत कठिनाई में पड़ेंगे। | कर देंगे। परमात्मा को इनकार करने का बुनियादी कारण यह नहीं
और उसका एक ही परिणाम होगा, फ्रस्ट्रेशन। अगर बहिर्मुखी | | है कि परमात्मा नहीं है। परमात्मा को इनकार करने का बुनियादी व्यक्ति अंतर्मुखी बातों में पड़ जाए, तो वह अपने को पापी, | | कारण यह है कि महावीर का स्वधर्म अंतर्मुखी है। महावीर इंट्रोवर्ट
अपराधी, गिल्टी, नारकीय समझेगा। क्योंकि वह अंतर्मुखी तो हो हैं। परमात्मा की कोई जरूरत नहीं है, नान एसेंशियल है। महावीर नहीं पाएगा। तब वह समझेगा कि हम न मालूम किन जन्मों का पाप के लिए परमात्मा की कोई भी जरूरत नहीं है। इसलिए महावीर भोग रहे हैं! ध्यान करने बैठते हैं, एक क्षण ध्यान नहीं लगता! न कहेंगे, मैं ही परमात्मा हूं, और कोई परमात्मा नहीं है। जब वे मालूम कहां-कहां की बातें खयाल आती हैं!
| अंतर्मुख होकर पूरे अपने भीतर पहुंचेंगे, तो पहुंच जाएंगे वहीं, जहां
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बहिर्मुखी व्यक्ति परमात्मा को प्रार्थना कर-करके पहुंचता है। इसलिए अगर क्रिश्चियनिटी में या इस्लाम में अंतर्मुखी व्यक्ति
खयाल किया आपने। परमात्मा की यात्रा करने वाला आखिर में पैदा हो जाए. तो मश्किल में पड़ जाता है. क्योंकि वेधर्म बहिर्मखी कहेगा, परमात्मा है, मैं नहीं हूं। अंतर्मुखी अंत में कहेगा, मैं ही हूं, | हैं। अगर महावीर के धर्म में बहिर्मुखी पैदा हो जाए, तो मुश्किल में अहं ब्रह्मास्मि, और कोई परमात्मा नहीं है। दोनों एक ही जगह पहुंच | | पड़ जाता है, क्योंकि वह धर्म अंतर्मुखी है। गए। लेकिन उनके वक्तव्य बड़े भिन्न हैं। उनकी यात्रा बड़ी भिन्न है। ___ इसलिए मोहम्मद के पीछे चलने वाले लोगों ने नासमझी से मंसूर भिन्न है, विरोधी नहीं। और चूंकि एक ही जगह पहुंचाती है, इसलिए | | जैसे अंतर्मुखी को काटकर दो टुकड़े कर दिया। क्योंकि मंसूर जो जानते हैं, वे कहेंगे, एक ही है।
उनकी समझ में नहीं पड़ा। मंसूर कहने लगा, अहं ब्रह्मास्मि, मैंने कहा आपसे कि कृष्ण जो संदेश दे रहे हैं अर्जुन को, वह | | अनलहक, मैं ही ब्रह्म हूं। उन्होंने कहा, पागल हो गए हो! कभी बहिर्मुखी के लिए है। इसलिए इस बात की बहुत संभावना है कि | भूलकर यह मत कहना कि तुम परमात्मा हो। कहां परमात्मा और आने वाले भविष्य में गीता का मूल्य रोज-रोज बढ़ता जाएगा। बुद्ध | | कहां हम नाचीज? यह तो कुफ्र है। यह तो तुम काफिर की बात और महावीर से भी ज्यादा शायद कृष्ण भविष्य के लिए ज्यादा | बोल रहे हो। तुम परमात्मा होने का दावा नहीं कर सकते हो। उपयोगी सिद्ध होंगे। क्योंकि चेतना बहिर्मुखी होती चली जाती है। | लेकिन मंसूर ने कहा कि मेरे अलावा और कौन परमात्मा होने का आदमी बाहर, और बाहर, और बाहर भटकता है।
दावा कर सकता है! मैं कहता हूं, तुम भी परमात्मा होने का दावा अगर बाहर ही भटकना है, तो परमात्मा पर भटके, प्रार्थना का कर सकते हो। तब तो उन्होंने कहा कि यह हद की बात कर रहा है! इतना ही मतलब है। बाहर ही भटकना है, धन पर भटकते हैं, धन | यह आदमी पागल हो गया। पर न भटकें, परमात्मा पर भटकें। बाहर ही चेतना जाती है, मित्र । बहिर्मुखी व्यवस्था है धर्म की, तो अंतर्मुखी व्यक्ति पागल ही खोजना है, तो शरीरधारी मित्र को न खोजें, अशरीरी मित्र को | | मालूम होने लगेगा। मंसूर को काट डाला, मार डाला। और खोज लें। बिना कंपेनियन के नहीं चलता, तो साधारण साथी मत | | कठिनाई यह है कि बहिर्मुखी व्यक्ति कभी भी अंतर्मुखी की भाषा खोजें; परम साथी खोज लें। अगर पढ़ना ही है अखबार, तो | | नहीं समझ पाएगा। अंतर्मुखी की भाषा बहिर्मुखी नहीं समझ
बार न पढकर गीता ही पढ लें। अगर सनना ही है संगीत. तो पाएगा। उन दोनों की भाषाएं बडी दर हैं। बडी कठिनाई है। जरूरी क्या है कि फिल्म का संगीत सुनें! मीरा का पद या कबीर | इसलिए मैंने कहा कि बहिर्मुखता के लिए निष्काम कर्मयोग; का पद सुन लें। बाहर ही जाएं, लेकिन बाहर की यात्रा को ही धर्म | अंतर्मुखता, इंट्रोवर्शन के लिए कर्म-संन्यास। की यात्रा बना लें। तब आप अपराधी अनुभव नहीं करेंगे और ऐसा | असल में जो व्यक्ति अंतर्मुखी है, उसे करने की इच्छा ही नहीं नहीं लगेगा कि मैं कोई पाप कर रहा हूं।
| होती। उसे कर्म का भाव ही पैदा नहीं होता। क्योंकि कर्म का अर्थ अगर बहिर्मुखी धर्म में कोई अंतर्मुखी व्यक्ति फंस जाए, तो वह | | ही बाहर जाकर करना है। भीतर तो कर्म हो नहीं सकता। भीतर कर्म भी दिक्कत में पड़ेगा। वह अगर परमात्मा के सामने हाथ जोड़कर का कोई उपाय नहीं है। एक्शन बाहर ही जाकर करना पड़ेगा। भीतर खड़ा हो, आंख बंद करेगा, परमात्मा खो जाएगा। मूर्ति नदारद हो | कोई कर्म नहीं हो सकता। भीतर तो सिर्फ चैतन्य हो सकता है, जाएगी, वह अकेला ही रह जाएगा। वह भी पछताएगा। वह भी कांशसनेस हो सकती है, एक्शन नहीं हो सकता। और अगर किसी कहेगा कि मैं कैसा पापी हूं! परमात्मा का इतना ध्यान करता हूं, | को कर्म करना हो, तो बाहर ही हो सकता है, भीतर नहीं हो सकता। लेकिन भीतर मूर्ति नहीं बनती।
| भीतर आप क्या कर्म करिएगा? भीतर सिर्फ चेतना हो सकती है। अंतर्मुखी के भीतर परमात्मा की मूर्ति नहीं बनेगी, सिर्फ ___ इसलिए जो व्यक्ति अंतर्मुखी चेतना में साधना कर रहा हो, वह बहिर्मुखी के भीतर बन सकती है। अंतर्मुखी तो तत्काल भीतर चला | | धीरे-धीरे कर्म से हटता चला जाएगा। कहना ठीक नहीं है कि कर्म जाएगा, मूर्ति सब बाहर रह जाएंगी। परमात्मा की मूर्ति भी बाहर रह | से हटता चला जाएगा, धीरे-धीरे कर्म उससे हटते चले जाएंगे। जाएगी। मूर्ति मात्र बाहर रह जाएगी। क्योंकि मूर्त का अर्थ है, | | अब जैसे कि रमण हैं। सारा कर्म गिर जाएंगा। बस उठने-बैठने बाहर। अमूर्त ही रह जाएगा। तो बेचारा वह भी तकलीफ में पड़ेगा, के, खाने-पीने के, इतने ही अत्यंत अत्यल्प, जीवन के लिए वह भी घबड़ाएगा।
बिलकुल ही अनिवार्य कर्म शेष रह जाएंगे। वह भी रमण जैसा
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आदमी इस तरह करेगा, जैसे कि न करना पड़ता, तो अच्छा। अगर दौड़ने वाली है, तो आपका मार्ग होगा, निष्काम कर्म। अगर बिना उठे चल जाता, तो अच्छा। देखी है रमण की फोटो! वह एक आपकी चित्त-दशा अकर्म की तरफ दौड़ने वाली है, तो आपका ही गद्दी पर बैठे रहेंगे दिनभर। वह तो हाथ ही मुश्किल में पड़ मार्ग होगा, कर्म-संन्यास। दोनों से ही पहुंच जाते हैं। दोनों से ही जाएगा टिका-टिका और हाथ ही कहेगा कि अब बहुत हो गया, लोग पहुंचते रहे हैं। दोनों से ही सदा पहुंचते रहेंगे। जरा करवट बदल लो, तो वे करवट बदल लेंगे।
लेकिन प्रत्येक युग में पलड़ा बदल जाता है। कभी अंतर्मुखता एक्सट्रोवर्ट को यह बात बिलकुल समझ में नहीं आएगी कि यह | की धारा होती है जगत में, तो अंतर्मुखी धर्म निर्मित होते हैं। और आदमी आलसी है! यह क्या कर रहा है? यह तो तमस हो गया, यह | जितने धर्म निर्मित हुए भारत में, वे करीब-करीब सब अंतर्मुखी हैं। तो आलस्य हो गया। कुछ कर्म करो! लेकिन ऐसे व्यक्ति के भीतर वही धारा थी। भारत के बाहर जितने धर्म निर्मित हुए, वे सब कर्म उठता ही नहीं। वह हंसेगा। सब शांत हो गया भीतर। भीतर लौट | बहिर्मुखी हैं। चाहे इस्लाम हो और चाहे ईसाइयत हो, धारा गई धारा। वह अपने में लीन हो गया। कर्म तक पहुंचने की कोई | बहिर्मुखता की थी। इसलिए ईसाइयत और इस्लाम में ध्यान की संभावना नहीं रही। कोशिश भी करे, तो नहीं पहुंच सकता। धारणा विकसित न कर पाए वे। प्रेयर, प्रार्थना से आगे बात नहीं
बहिर्मुखी उलटी हालत में होता है। बहिर्मुखी एक जगह बैठ गई। प्रार्थना से काम चल गया। ध्यान की धारणा तो अंतर्मुखी जाए, तो टांग ही हिलाता रहेगा, कुछ नहीं तो। कुछ भी नहीं हिलाने साधकों ने विकसित की। का मौका है, तो बैठकर टांग ही हिला रहा है!
आप अपने लिए खोज लें। और कठिन नहीं है खोजना। जांच बुद्ध के सामने एक दिन एक आदमी बैठकर टांग हिला रहा है। बड़ी आसान है। इसलिए और भी आसान है कि सौ में से निन्यानबे बोल रहे हैं बुद्ध। उन्होंने बोलना बीच में बंद कर दिया। उन्होंने मौके पर बहिर्मुखी होंगे आप। एकाध आदमी अंतर्मुखी होता है। कहा, यह टांग क्यों हिला रहे हो? उस आदमी ने कहा, आप भी । लेकिन दो-तीन जांच-परख के लिए नियम बना लें अकेले में कैसा कहां की फिजूल की बात में आ गए! यों ही हिला रहे हैं। हमको लगता है, भीड़ में कैसा लगता है? स्वाद क्या है दोनों बातों का? कुछ पता ही नहीं था। बुद्ध ने कहा, तेरी टांग, और तुझे पता नहीं, अकेले में स्वाद मुंह का कड़वा हो जाता है कि मिठास से भर जाता
और हिल रही है! टांग किसकी है यह? उस आदमी ने कहा, है तो है? भीड़ में स्वाद मधुर हो जाता है कि तिक्त हो जाता है? कर्म में मेरी। फिर तू क्यों हिला रहा है? उसने कहा, आप बड़ा कठिन अच्छा लगता है कि विश्राम में डूब जाते हैं, तो अच्छा लगता है? सवाल पूछते हैं। इतना ही कह सकता हूं कि बिना हिलाए मैं रह ध्यान रहे, विश्राम का मतलब आलस्य नहीं है। आलस्य और नहीं सकता। कुछ न कुछ हिलाता ही रहूंगा। रात में भी बड़बड़ाता | विश्राम में बड़ा फर्क है। आलसी विश्राम में नहीं होता, सिर्फ श्रम हूं, नींद में भी बोलता हूं।
से बचाव में होता है; एस्केप में होता है। विश्राम तो बड़ी पाजिटिव ___ महावीर जैसा आदमी एक ही करवट सोता है रातभर। करवट | स्थिति है, निगेटिव नहीं है। विश्राम तो बड़ी जीवंत अवस्था है। नहीं बदलेंगे रातभर। रातभर जहां पैर है वहीं पैर, जहां हाथ है वहीं बुद्ध की मूर्ति देखें, तो आलसी नहीं मालूम पड़ते। चेहरे पर हाथ! रात में एक दफा करवट न बदलेंगे। कोई पूछता है महावीर चमक है। आंखों में ज्योति है। शरीर पर आलस्य की छाया नहीं है। को या बुद्ध को...। बुद्ध भी करवट नहीं बदलते रातभर। वे कहते, शरीर पर जागती हुई सुबह की रोशनी है। महावीर को देखें, खड़े अकारण! एक ही करवट से चल जाता है।
| हुए उनकी मूर्ति को देखें, तो भीतर से प्राण फूटे पड़ रहे हैं, बहे जा ___ अब यह जो भाव दशा है। हम तो जागे में भी करवट बदलते रहते | रहे हैं। आलस्य नहीं है, विश्राम है। हैं। वे कहते हैं, नींद में एक ही करवट से...। एक करवट भी जैसे आलस्य, कहना चाहिए, चमकहीन होता है। विश्राम चमक से मजबूरी है! यानी एक करवट के बिना तो सो ही नहीं सकते। एक | भरा होता है। विश्राम-भीतर तो झरना लबालब भरा है ऊर्जा का, करवट तो लेनी ही पड़ेगी, इसलिए लेते हैं। मिनिमम, जो न्यूनतम | लेकिन कर्म की इच्छा नहीं है। आलस्य-कर्म की तो इच्छा है, संभव है, वह लेते हैं। आप कितनी करवट लेते हैं? मैक्जिमम! लेकिन शक्ति नहीं है, ऊर्जा नहीं है, इसलिए पड़े हैं। कर्म की तो जितनी ज्यादा संभव है। बिस्तर भी थक जाता है रातभर! | बड़ी इच्छा है। दिल तो अपना भी है कि सिकंदर हो जाते, कि इंदिरा
अपने को पहचानें। यदि आपकी चित्त-दशा कर्म की तरफ | गांधी हो जाते। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। बाकी ऊर्जा नहीं है;
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गीता दर्शन भाग-2
भीतर एनर्जी नहीं है। पड़े हैं अपने बिस्तर से टिके हुए। ऊर्जा नहीं र पुनः कृष्ण कहते हैं! शायद फिर अर्जुन की आंख में है. शक्ति नहीं है। इरादे तो बहत हैं कि जीत लें दनिया को। इरादे
झलक लगी होगी कि जब दोनों ही मार्ग ठीक हैं. और कर रहे हैं आंख बंद करके वहीं दुनिया को जीतने के। आलस्य में | जब कर्म को छोड़ने वाला भी वहीं पहुंच जाता है, जहां पड़े हुए लोग भी सिकंदर से कम यात्राएं नहीं करते। लेकिन भीतर कर्म को करने वाला। तो अर्जुन के मन को लगा होगा, फिर कर्म ही भीतर करते हैं, बाहर नहीं। आलस्य और विश्राम में भेद है। | को छोड़ ही दूं। छोड़ना चाहता है। छोड़ना चाहता था, इसीलिए तो
कर्म-संन्यास विश्राम की अवस्था है, आलस्य की नहीं। | यह सारा संवाद संभव हो सका है। सोचा होगा, कृष्ण अब कर्मयोग और कर्म-संन्यास दोनों के लिए शक्ति की जरूरत है। | बिलकुल मेरे अनुकूल आए चले जाते हैं। अब तो वही कहते हैं मेरे दोनों के लिए। आलसी दोनों नहीं हो सकता। आलसी कर्मयोगी तो मन की, मनचाही, मनचीती बात। यही तो मैं चाहता है कि छोड़ दं हो ही नहीं सकता, क्योंकि कर्म करने की ऊर्जा नहीं है। आलसी | सब। और जब छोड़ने से भी पहुंच जाते हैं वहां, तो इस व्यर्थ के कर्मत्यागी भी नहीं हो सकता, क्योंकि कर्म के त्याग के लिए भी युद्ध के उपद्रव को मैं मोल क्यों लूं! विराट ऊर्जा की जरूरत है। जितनी कर्म को करने के लिए जरूरत । ये सब सपने उसकी आंखों में फिर तिर गए होंगे। ये सब उसकी है, उतनी ही कर्म को छोड़ने के लिए जरूरत है। हीरे को पकड़ने के आंखों में भाव फिर आ गए होंगे। उसे फिर जस्टीफिकेशन मिला लिए मुट्ठी में जितनी ताकत चाहिए, हीरे को छोड़ने के लिए और | होगा। उसे फिर लगा होगा कि फिर मैं ही ठीक था, फिर कृष्ण क्यों भी ज्यादा ताकत चाहिए। देखें छोड़कर, तो पता चलेगा। एक रुपए। इतनी देर तक लंबी बातचीत किए! जब मैंने गांडीव रखा था और को हाथ में पकड़ें। पकड़े हुए खड़े रहें सड़क पर, और फिर छोड़ें। शिथिल गात होकर बैठ गया था, तभी मुझसे कहते कि हे अर्जुन, पता चलेगा कि पकड़ने में कम ताकत लग रही थी, छोड़ने में ज्यादा हे महाबाहो, तू तो कर्म-संन्यासी हो गया है। और कर्म-संन्यास से ताकत लग रही है।
भी लोग वहीं पहुंच जाते हैं, जहां कर्म करने वाले पहुंचते हैं। प्रसन्न कर्म-संन्यास भी शक्ति मांगता है। और कर्मयोग तो शक्ति हुआ होगा मन में कहीं। जो चाहता था, वही करीब दिखा होगा। मांगता ही है। आलसी के लिए दोनों मार्ग नहीं हैं। आलसी, अगर वही कृष्ण के मुंह से भी उसे सुनाई पड़ा होगा। वही कृष्ण की बात हम ठीक से कहें, तो थर्ड सेक्स है, नपुंसक। बहिर्मुखी भी नहीं है। में भी ध्वनित हुआ होगा। वह, अंतर्मुखी भी नहीं है; बीच की देहली पर खड़े हैं! थर्ड सेक्स, | उसे देखकर ही कृष्ण तत्काल कहते हैं, लेकिन अर्जुन, जब तक न पुरुष हैं, न स्त्री। न अंतर्मुखी, न बहिर्मुखी। बीच में खड़े हैं। उनकी | | आकांक्षा न छूट जाए और कर्म में निष्कामता न सध जाए, तब तक कोई भी यात्रा नहीं है। न वे भीतर जाते, न वे बाहर जाते। वे कहीं | | कोई व्यक्ति कर्म को छोड़ना आसान नहीं पाता है। जाते ही नहीं। वे अपनी देहली पर बैठे हुए हैं! भीतर जाने की हिम्मत | __ फिर दुविधा उन्होंने खड़ी कर दी होगी! अर्जुन से फिर छीन लिया नहीं जुटा पाते, बाहर जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाते। जाने के लिए | होगा उसका मिलता हुआ आश्वासन। सांत्वना बंधती होगी, तो हिम्मत चाहिए, साहस चाहिए। यात्रा कोई भी हो, कहीं से भी | | कंसोलेशन उतर रहा होगा उसकी छाती पर, वह फिर हटा दिया जाना हो, बिना ऊर्जा, बिना साहस के कोई यात्रा संभव नहीं है। | होगा। कहा कि नहीं, आकांक्षा छोड़कर कर्म का जो अभ्यास न कर
| ले, वह कर्म भी छोड़ पाए, यह बहुत कठिन है। क्योंकि जो
| आकांक्षा नहीं छोड़ पाता, वह कर्म क्या छोड़ पाएगा! जो आकांक्षा ___संन्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः। | तक छोड़ नहीं सकता,, वह कर्म क्या छोड़ पाएगा! और जो
योगयुक्तो मुनिब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति ।।६।। आकांक्षा नहीं छोड़ सकता और कर्म छोड़कर भाग जाएगा, बहुत परंतु हे अर्जुन! निष्काम कर्मयोग के बिना संन्यास अर्थात | डर तो यही है कि सिर्फ कर्म ही छूटेगा, आकांक्षा न छूटेगी। खतरा मन, इंद्रियों और शरीर द्वारा होने वाले संपूर्ण कमों में | है। कर्म छोड़ना एक लिहाज से आसान है। कर्तापन का त्याग प्राप्त होना कठिन है। और भगवत् - एक चोर है। हम जब उसे जेल में बंद कर देते हैं, तो चोरी का स्वरूप को मनन करने वाला निष्काम कर्मयोगी परब्रह्म - कर्म छूट जाता है। कर्म-संन्यास हो गया? कर्म तो छूट गया। चोरी
परमात्मा को शीघ्र ही प्राप्त हो जाता है। | तो नहीं कर पाता है अब। लेकिन चोर होना बंद नहीं होता। चोर
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O सम्यक दृष्टि
होना जारी है। चोर वह अब भी है। प्रतीक्षा कर रहा है, कब अवसर | किसी झील में दिखाई पड़ जाएगा। कभी किसी पानी के झरने में मिले। शायद और बड़ा चोर होकर बाहर निकलेगा। दिखाई पड़ जाएगा। कभी कोई राहगीर गुजरता होगा, उसकी आंख
अब तक तो यही हुआ है। अब तक कोई कारागृह किसी चोर | में दिखाई पड़ जाएगा। को चोरी से मुक्त नहीं करा पाया है, सिर्फ निष्णात चोर बनाकर ___ सुना है मैंने कि एक संन्यासी तीस वर्ष तक हिमालय पर था। बाहर भेजता है—ट्रेंड! क्योंकि और सदगुरु वहां उपलब्ध हो जाते | तीस वर्ष जिस चीज को छुड़ाने आया था, वह कभी की छूट गई। हैं! और भी गहन ज्ञानी, अनुभवी पुरुष! और चोर को भी पता चल | फिर आश्वस्त हो गया। अहंकार से पीड़ित था, उसी से बचने सब जाता है कि यह चोरी का दंड नहीं मिल रहा है। यह दंड तो चोरी छोडकर हिमालय आया था। गल गया. हिमालय की ठंड। नहीं ठीक से न करने का मिल रहा है। अभ्यास करूं, और-और साधू बचा होगा। लेकिन कहीं ठंड से. सर्दी से अहंकार गलते हैं? कुशलता, तो फिर यह भूल नहीं होगी।
हिमालय की ऊंचाई अहंकार न चढ़ पाया होगा! इतनी ऊंचाई पर कोई अदालत, कोई जेलखाना अब तक किसी चोर को चोरी से | | थक गया होगा, सांस भर गई होगी! नीचे ही रुक गया होगा, नहीं छुड़ा पाया। कर्म से छुड़ा देता है। वही भ्रम है, जो कई बार | संन्यासी ऊपर चला गया होगा। लेकिन अहंकार कहीं थकता है कर्मत्यागी भी कर बैठता है ।
ऊंचाइयां चढ़ने से? कर्मत्यागी सोचता है कि ठीक है, बाजार में बैठता हूं, तो लोभ | । सच तो यह है कि अहंकार ऊंचाइयां चढ़ने से बड़ा प्रसन्न होता पकड़ता है। तो बाजार छोड़ दूं। जैसे कि बाजार में लोभ पैदा करने है। अहंकार ऊंचाइयां चढ़ने की आकांक्षा का नाम है। जितना ऊंचा का कोई उपाय हो! लोभ तो होता है भीतर। बाजार में तो लोभ नहीं| शिखर हो, उतना ही उसका दम फूलता नहीं और मजबूत होता है। होता। सोचता है, बाजार में लोभ पकड़ता है, बाजार छोड़ दूं। स्त्री | लेकिन तीस साल अहंकार की रेखा भी पता न चलती थी। को देखकर वासना जगती है, स्त्री की तरफ पीठ कर लूं। पद को भरोसा हो गया पक्का। बहुत तरह से खोजकर देखा, कहीं अहंकार देखकर मन होता है कि पद पर चढ़कर बैठ जाऊं, तो ऐसी जगह न था। फिर उसने सोचा, अब क्या डर है! अब वापस चलूं। नीचे चला जाऊं, जहां पद ही न हो। तो कोई कर्म को छोड़कर भाग | उतरकर एक गांव के पास रहने लगा। गांव के लोग आने लगे। सकता है। सौ में से निन्यानबे मौके पर डर इस बात का है कि कर्म | दर्पण वापस लौट आए। कोई पैर छूने लगा, कोई महात्मा कहने तो छूट जाए और आकांक्षा और वासना न छूटे। तब वह जंगल के लगा। भीतर कोई चीज जो तीस साल से बिलकुल पता न थी, झाड़ के नीचे बैठकर भी वही आदमी होगा, जो बाजार में था। धीरे-धीरे उठने लगी। पर अभी भी उसे पता नहीं है, क्योंकि आदमी में कोई क्वालिटेटिव, कोई गुणात्मक अंतर नहीं पड़ेगा। पहचान भूल गई, रिकग्नीशन भूल गया। तीस साल से देखा नहीं, परिस्थिति बदल जाएगी. मनःस्थिति नहीं बदलेगी।
| एकदम से समझ में नहीं आता कि क्या हो रहा है। लेकिन कुछ हो
एकदम से समझ में नहीं आता कि क्या हो मनःस्थिति बदलनी बड़ी कठिन बात है! और जो मनःस्थिति रहा है। कोई चीज, कोई गर्मी, कोई ऊष्मा चारों तरफ खून में फैलती बदल सकता है, कृष्ण कहते हैं, वह छोड़कर भी क्यों जाएं? वह चली जाती है। यहां भी बदल सकता है। और जो यहां नहीं बदल सकता, क्या फिर बड़ा मेला भरता था, कुंभ का भरता होगा। कुंभ का मेला भरोसा है कि वह वहां बदल सकेगा? जाऊंगा तो मैं ही, मैं चाहे | महात्माओं की परीक्षा के लिए बड़ी अच्छी जगह है! बाजार में रहूं और चाहे हिमालय पर चला जाऊं। बाजार तो यहीं ___ गांव के लोगों ने कहा, इतने बड़े महात्मा और कुंभ के मेला नहीं रह जाएगा बंबई में, मैं हिमालय चला जाऊंगा। लेकिन मैं तो अपने | चलेंगे, तो नहीं चलेगा। बड़ा महात्मा और कुंभ के मेला न जाए, साथ ही चला जाऊंगा। मेरे सारे रोग, मेरे सारे मन की रुग्णताएं मेरे ऐसा हो नहीं सकता। चलना ही पड़ेगा। फिर महात्मा ने कहा, अब साथ चली जाएंगी। उनको यहां नहीं छोड़कर जा सकूँगा। । | डर भी क्या है! जिस चीज से डरते थे, वह तो खतम ही हो चुकी।
हां, अवसर हो सकता है यहां छूट जाए। हो सकता है, दर्पण | चल सकते हैं। यहां छूट जाए, लेकिन चेहरा तो मेरा मेरे साथ चला जाएगा। और लेकिन यह खयाल भी आ जाना कि मेरा अहंकार खतम हो चुका यह भी हो सकता है कि दर्पण न हो, तो चेहरा दिखाई न पड़े। है, बड़ा गहरा अहंकार है। इसका उसे पता नहीं। चल पड़ा। जब लेकिन इससे चेहरा नहीं है, यह तो नहीं है। चेहरा तो है ही। कभी कुंभ के मेले में पहुंचे, भीड़ थी भारी, महात्मा को कोई पहचानता
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0 गीता दर्शन भाग-20
न था। और महात्मा को पहचानते न हों आप, तो महात्मा और गया हो, तो कर्म छोड़ने से भी कुछ होगा नहीं। गैर-महात्मा में कोई फर्क होता है? पहचान का ही फर्क होता है। अर्जुन की आंख में देखकर उन्होंने फिर बात खड़ी की होगी। ऐसा नहीं कि महात्मा और गैर-महात्मा में फर्क नहीं होता, लेकिन और अर्जुन से कहा होगा, ऐसा मत सोच कि मैं कह रहा हूं कि तू वह भीतरी फर्क है, वह आपकी पकड़ में नहीं आता। आप तो छोड़कर चला जा। पहले त निष्काम कर्म साध। यदि निष्काम कर्म पहचान से ही पकड़ते हैं। अगर बगल में एक महात्मा बैठा हो और | सध जाए, तो कर्मत्याग भी कर सकता है। आप पहचानते न हों, तो बिलकुल नहीं पता चलेगा कि महात्मा लेकिन बड़े मजे की बात यह है कि अगर निष्काम कर्म सध बैठा है। पहचानते हों, तो पता चलेगा कि महात्मा बैठा है। | जाए, तो कर्मत्याग करना, न करना बराबर है। कोई भेद नहीं है। पहचानते हों कि चोर है, तो पता चलेगा कि चोर बैठा है। बेईमान फिर वह व्यक्ति की अंतर्मुखता या बहिर्मुखता पर निर्भर करेगा। है, तो बेईमान बैठा है। भीतर जो है, वह तो बहुत गहरे में है, उसका | अगर निष्काम कर्म सध जाए, तो बहिर्मुखी व्यक्ति कर्म को करता आपको पता नहीं चलता। उसका तो खुद को भी पता चल जाए, | चला जाएगा, अंतर्मुखी व्यक्ति कर्म को अचानक पाएगा कि वे बंद तो काफी है। दूसरे को पता चलना तो बहुत मुश्किल है। | हो गए हैं। लेकिन वासना से मुक्ति तो सधनी ही चाहिए, निष्कामता
वहां कोई पहचानता नहीं था महात्मा को। गांव के थोड़े-से लोग तो सधनी ही चाहिए। वह तो अनिवार्य शर्त है। उससे कोई बचाव पहचानते थे। वहां भारी भीड़; धक्का-मुक्की हो गई। किसी ने पैर नहीं है। इसलिए कृष्ण ने पुनः अर्जुन को याद दिला दी। पर जूता रख दिया महात्मा के। महात्मा को गुस्सा आ गया। कृष्ण पूरे समय अर्जुन को पढ़ते चलते हैं। और गुरु वही है, जो उचककर उसकी गर्दन पकड़ ली और कहा, गर्दन दबा दूंगा! | शिष्य को पढ़ ले। शिष्य तो गुरु को कैसे पढ़ेगा! वह तो बहुत जानता नहीं मैं कौन हूं!
| मुश्किल है, असंभव है। अगर शिष्य गुरु को पढ़ सके, तो वह खुद तब अचानक खयाल आया कि तीस साल विलीन हो गए ही गुरु हो गया। उसके लिए अब किसी गुरु की जरूरत नहीं है। एकदम। तीस साल पहले का आदमी वापस खडा हो गया। तीस गरु वही है, जो शिष्य को पढ ले खली किताब की तरह. उसके साल पहले यही आदमी था वह, कि कोई पैर पर जूता रख देता, तो एक-एक अध्याय को उसके जीवन के; उसके मन की एक-एक गर्दन पकड़ लेता और कहता, जान से मार डालूंगा। जानता नहीं मैं | | पर्त को झांक ले। गुरु वह नहीं है कि शिष्य जो कहे, वह उसे बता' कौन हूं! वे तीस साल बीच के एकदम तिरोहित हो गए, जैसे थे ही दे। गुरु वह है, जो वही बताए, जो शिष्य के लिए जरूरी है। गुरु नहीं। जैसे फिल्म में सिनेमा के पर्दे पर कैलेंडर एकदम से उड़ता है। वह नहीं है, जो शिष्य के लिए सिर्फ सिद्धांत जुटा दे। गुरु वह है, न; तारीख एकदम बदलती चली जाती है। तीन घंटे में कई साल जो शिष्य के लिए ट्रांसफार्मेशन, रूपांतरण, क्रांति का मार्ग बिताने पड़ते हैं। एक सेकेंड में तीस साल का कैलेंडर एकदम हवा | | व्यवस्थित कर दे। में उड़ गया! वापस वह आदमी वहीं खड़ा हो गया, जिस दिन | __ अर्जुन तो यही चाहता है कि कृष्ण कह दें कि अर्जुन, छोड़ दे, हिमालय गया था—अहंकार अपनी जगह, गर्दन पर हाथ कसे हुए! | | तो अर्जुन प्रफुल्लित हो जाए। और सारी दुनिया में डंके से कह दे
लेकिन फिर उसने झुककर उस आदमी के पैर पड़ लिए, जिसकी | | कि कोई मैंने छोड़ा, ऐसा मत कहना। असल में अर्जुन चाहता है गर्दन पकड़ी थी। वह आदमी बहुत हैरान हुआ। उसने कहा, यह कि कृष्ण की गवाही मिल जाए, तो वह सारी दुनिया को कह सके क्या करते हो! उस संन्यासी ने कहा कि आपने मुझ पर बड़ी कृपा | कि मैं कोई कायर नहीं हूं। डर तो उसे यही है गहरे में, बहुत गहरे की जो मेरे पैर पर जूता रख दिया। हिमालय तीस साल तक जो मुझे में। क्षत्रिय है वह। एक ही डर है उसे कि कोई कायर न कह दे। न बता पाया, वह आपके जूते ने मुझे बता दिया। तीस साल | इसलिए वह फिलासफी की बातें कर रहा है। वह यह कह रहा है हिमालय में मुझे पता न चला कि अहंकार है, वह एक आदमी की | | | कि मुझे कोई दार्शनिक सिद्धांत मिल जाए, जिसकी आड़ में मैं पीठ जरा-सी चोट से पता चल गया। आपकी बड़ी अनुकंपा है। बड़ी | दिखा सकूँ और मैं दुनिया से कह सकूँ कि मैं कोई कायर नहीं हूं। कृपा है।
| मैंने कर्म-त्याग कर दिया है। और अगर तुम कहते हो कि मैं गलत कृष्ण कहते हैं, कर्म से छोड़कर भाग जाना तो कठिन नहीं है, | हूं, तो पूछो कृष्ण से। कृष्ण की गवाही से छोड़ा है। ये गवाह हैं। लेकिन अगर आकांक्षा न गई हो और अगर निष्काम कर्म न सध लेकिन उसे पता नहीं कि वह जिस आदमी को गवाह बना रहा
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सम्यक दृष्टि
है, उस आदमी को गवाह बनाना बहुत आसान नहीं है। और जिस आदमी से वह अपनी कायरता के लिए, भागने के लिए, एस्केप के लिए, पलायन के लिए सहारे खोज रहा है, उस आदमी से इस तरह के सहारे खोजने संभव नहीं हैं। कृष्ण उसे क्रांति दे सकते हैं, सहारा नहीं दे सकते। कृष्ण उसे रूपांतरित कर सकते हैं, लेकिन पलायन नहीं करवा सकते। कृष्ण उसे नया व्यक्तित्व दे सकते हैं, लेकिन उसके भीतर छिपी हुई कमजोरियों के लिए आड़ नहीं बन सकते हैं।
इसलिए बार-बार कृष्ण जब भी - जब भी - कर्म- संन्यास की कोई बात कहते हैं, अर्जुन प्रफुल्लित मालूम होता है। वह कहता है, यही, यही ! बिलकुल ठीक कह रहे हैं।
ऐसा मैं देखता हूं रोज । रोज मैं देखता हूं, साधुओं और संन्यासियों और गुरुओं के पास जो लोग बैठे होते हैं, वे कहते हैं कि बिलकुल ठीक कह रहे हैं महाराज ! वे उसी वक्त कहते हैं, बिलकुल ठीक कह रहे हैं, जहां उनको कोई सहारा मिलता है; जहां उन्हें लगता है कि ठीक, अपनी बेईमानी में कुछ सहारा मिल रहा है; अपनी चोरी में कुछ सहारा मिल रहा है। अगर कोई महात्मा समझाता है कि आत्मा तो शुद्ध-बुद्ध है, आत्मा ने कभी पाप ही नहीं किए, तो पापी बड़े सिर हिलाते हैं। वे कहते हैं, बिलकुल ठीक! यही तो हम कहते हैं । पापी को बड़ा रस आता है कि बिलकुल ठीक | महात्मा भी यही कह रहे हैं।
इसलिए महात्माओं के पास अगर पापी इकट्ठे हो जाते हैं, तो कोई आश्चर्य नहीं है। लेकिन हिम्मत कृष्ण जैसी महात्माओं में जब तक न हो, तब तक सुनने वालों का कोई भी लाभ नहीं होता, हानि होती है। और मेरा ऐसा अनुभव है कि सौ में निन्यानबे महात्मा सुनने वालों को हानि पहुंचाते हैं, सहारा बन जाते हैं।
कृष्ण सहारा नहीं बनेंगे। इसलिए जरा-सी भी कोई बात ऐसी होती है कि अर्जुन उसको मैनिपुलेट कर सके, उसको घुमा-फिराकर अपना सहारा बना सके, कृष्ण फौरन छिन-भिन्न कर देते हैं; तलवार उठाकर काट देते हैं। वे कहते हैं, इस भूल में मत पड़ जाना। यह मत समझ लेना तू कि कर्म छोड़ना आसान है। जब तक निष्कामता न
जाए, तब तक कर्म छोड़ना बहुत कठिन है ।
और दूसरी बात यह कहते हैं कि अर्जुन, निष्काम कर्म सरल है। जो अर्जुन को कठिन मालूम पड़ रहा है, उसे वे सरल कहते हैं; और जो अर्जुन को सरल मालूम पड़ रहा है, उसे वे कठिन कहते हैं। इसे खयाल में रख I
सरल है। पत्नी को छोड़कर भाग जाना कोई कठिन बात है! दूकान को छोड़कर भाग जाना कोई बहुत कठिन बात है! जब कि दिवाला भी निकल रहा हो, तब तो और भी सरल है, तब तो कर्म-त्याग बिलकुल ही आसान है ! दुख की घड़ी में कर्म को छोड़ देना कोई कठिन बात है ? सुख की घड़ी में कोई छोड़ता नहीं ।
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यह अर्जुन कभी भी नहीं आज तक इसके पहले – यह कोई अर्जुन की कृष्ण की पहली मुलाकात नहीं है। जिंदगीभर के साथी हैं। गीता को अब तक पैदा होने का मौका नहीं आया था। अर्जुन अब तक ऐसे उपद्रव में, ऐसी क्राइसिस, ऐसे संकट में पड़ा नहीं था । और वह तो जरा दुविधा हो गई, नहीं तो वह संकट में पड़ता नहीं ।
अगर दुश्मनी साफ-साफ होती, जैसे कि हिंदू-मुसलमानों का दंगा हो जाता है, तो कोई दिक्कत नहीं होती। क्योंकि उस तरफ न कोई अपनी पत्नी का भाई होता, न कोई मामा होता, न कोई गुरु होता, न कोई रिश्तेदार होता। हिंदू-मुस्लिम का दंगा हो जाता, तो दंगा बड़ा मजेदार होता - सीधा । कोई झगड़ा नहीं | कोई कांसिएंस को अर्जुन की दिक्कत न होती, अगर हिंदू-मुस्लिम का दंगा होता ।
लेकिन यह दंगा हिंदू-मुस्लिम का नहीं, एक परिवार का था, एक घर का था। उस तरफ भी अपने लोग थे, जिनके साथ खेले और बड़े हुए, जिनसे सीखे और जिनकी गोद में बैठे। गुरु थे, पितामह थे, भाई थे, मित्र थे - सब अपने थे। उस तरफ भी अपने थे, इस तरफ भी अपने थे। दोनों तरफ परिवार बंटकर खड़ा था।
इसलिए प्रासांगिक रूप से आपसे कहता हूं, अगर कभी दुनिया में हिंदू, मुसलमान, ईसाई, जैन, बौद्धों के दंगे मिटाने हों, तो जब तक हिंदू-मुसलमान परिवार नहीं बन जाते, तब तक दंगे नहीं मिट सकेंगे। जब उस तरफ भी अपना कोई मरने को हो, तभी मरने से रोका जा सकता है, नहीं तो नहीं रोका जा सकता। इसलिए धार्मिक लोग शादी नहीं होने देते हैं एक-दूसरे में। क्योंकि शादी हो गई, तो दंगे नहीं करवाए जा सकते। अगर मेरी पत्नी मुसलमान के घर में है, और मेरे भाई की पत्नी ईसाई के घर में है, और मेरी बहन किसी जैन के घर में है, और मेरी मां यहूदी है, तो दंगा करना बहुत मुश्किल मामला हो जाएगा। दंगा होगा किससे ? दंगा हो सकता है, क्योंकि चीजें कटी हैं।
अर्जुन क्राइसिस में पड़ गया, क्योंकि परिवार सब बंटा हुआ | सामने खड़ा था। यहां भी अपने थे। जीतेंगे तो, हारेंगे तो, मरेंगे अपने ही। कुछ भी हो, अपने मर जाएंगे। इससे बेचैनी खड़ी हो
अर्जुन को यही सरल मालूम पड़ रहा है, कर्म त्याग बिलकुल गई। इसलिए मुश्किल में पड़ गया। इसलिए अब वह राह खोजने
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गीता दर्शन भाग-26
लगा, ज्ञान की बातें करने लगा। उसके मन में कभी भी, कभी भी ___ अब पांच मिनट उठेंगे नहीं जरा भी! एक भी नहीं उठेगा। क्योंकि हिंसा के प्रति कोई अड़चन न थी। वह इतनी मौज से मार सकता | और कोई प्रसाद बांटने के लिए हमारे संन्यासियों के पास नहीं है। था कि वह हाथ भी नहीं धोता और मजे से खाना खाता। उसको वे अपना कीर्तन पांच मिनट आपको बांट देंगे। वह आपके मन में कोई मारने में तकलीफ नहीं थी। मारने में वह कुशलहस्त है। उससे गूंजता हुआ घर ले जाएं। वह उनका प्रसाद लेकर जाएं। और बीच ज्यादा कुशलहस्त आदमी खोजना मुश्किल है मारने में। लेकिन | | में कोई न उठे। एक जन उठ जाता है, तो बाकी लोगों को भी उठना आज क्या अड़चन थी! सोचता है, सरल तो यही है कि सब छोड़ पड़ता है। पांच मिनट बैठे रहें और पांच मिनट इस आनंद को लें दूं। और कृष्ण कैसा उलटा आदमी मिल गया! कहां गलत आदमी और फिर चुपचाप चले जाएं। को सारथी बना लिया!
इसलिए भगवान को सारथी बनाने से जरा बचना चाहिए। वे दिक्कत में रखेंगे। आपके रथ को ऐसी जगह ले जाएंगे, जहां आप नहीं चाहते कि जाए। उसी दिन गलती हो गई, जिस दिन कृष्ण को सारथी बना लिया। जिसने भी कृष्ण को सारथी बनाया, फिर रास्ता सुगम नहीं है। रास्ता अड़चन का होगा, यद्यपि परम उपलब्धि आनंद की होगी। मार्ग कठिन होगा, फल अमृत के होंगे। और गलत सारथी मिला, तो मार्ग तो बड़ा सरल होगा, लेकिन फल नर्क | हो सकता है। अंधेरी रात के गड्ड में गिरा देता है।
जैसे ही कृष्ण को दिखाई पड़ा कि उसको लग रहा है कि अब मैं उसके करीब आ रहा हूं, वे तत्काल हट जाते हैं। आते हैं और हट जाते हैं। उन्होंने फौरन कहा कि ध्यान रख, निष्काम कर्म साधे बिना कर्म-त्याग नहीं हो सकता। पहले तू युद्ध कर। ऐसे कर कि फल की कोई आकांक्षा न हो। अगर तू युद्ध करके फल की आकांक्षा के पार उठ गया, तो ठीक है; फिर तू कर्म भी त्याग कर देना। अर्जुन कहेगा, फिर कर्म-त्याग करने से मतलब ही क्या है! वक्त ही निकल गया। फिर तो राज्य हाथ में होगा। फिर त्याग करने का क्या मतलब है? कृष्ण कहते हैं, युद्ध तो कर ले, फल की आकांक्षा छोड़कर। और जब राज्य मिल जाए और युद्ध गुजर जाए और तू निष्काम साध ले, तब तू त्याग कर देना!
अर्जुन को यह बहुत कठिन लगता है। दुख की घड़ी तो गुजारो और सुख की घड़ी में छोड़ देना! लेकिन ध्यान रहे, धर्म की यही अपेक्षा है। सुख की घड़ी में जो छोड़े, वही धर्म को उपलब्ध होता है। दुख की घड़ी में कोई कितना ही छोड़े, धर्म को उपलब्ध नहीं होता है। दुख की घड़ी में कोई भी छोड़ना चाहता है। दुख की घड़ी में छोड़ना नैसर्गिक है, धार्मिक नहीं। सुख की घड़ी में छोड़ना एक बड़ी इंपासिबल रेवोल्यूशन, एक बड़ी असंभव क्रांति से गुजरना है। वह कृष्ण कहते हैं, उस असंभव क्रांति से गुजरना ही होगा अर्जुन!
आज इतना ही।
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अध्याय 5 चौथा प्रवचन
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गीता दर्शन भाग-26
योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः। बिना आत्मा की खोज के, वह शरीर को दो हिस्सों में बांट लेगा।
सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वत्रपि न लिप्यते ।।७।। | और शरीर को ही शरीर से लड़ाता रहेगा। कभी भी शरीर वश में तथा वश में किया हुआ है शरीर जिसके, ऐसा जितेंद्रिय और | नहीं होगा। शरीर को भी शरीर से लड़ाया जा सकता है। लेकिन विशुद्ध अंतःकरण वाला, एवं संपूर्ण प्राणियों के आत्मरूप शरीर को शरीर से लड़ाकर कोई वश नहीं होता। परमात्मा में एकीभाव हुआ निष्काम कर्मयोगी कर्म करता समझें, एक आदमी के मन में कामना है, वासना है। जहां भी हुआ भी लिपायमान नहीं होता। | आंख जाती है, वहीं वासना के विषय दिखाई पड़ते हैं। वह अपने
हाथ से आंख फोड़ लेता है। वह शरीर से ही शरीर को लड़ा रहा
है। हाथ भी शरीर है, आंख भी शरीर है। गरीर वश में किया हुआ है जिसका! इस बात को सबसे | | शरीर से शरीर को लड़ाकर कोई भी शरीर को वश में नहीं कर श पहले ठीक से समझ लें। साधारणतः हमें पता ही नहीं | | सकता है। मन से मन को लड़ाकर कोई मन को वश में नहीं कर
होता कि शरीर के अतिरिक्त भी हमारा कोई होना है। | सकता है। कोई भी चीज वश में तभी होती है, जब उसके पार किसी वश में करेगा कौन? वश में होगा कौन? हम तो स्वयं को शरीर | | तत्व का अनुभव शुरू होता है। अन्यथा वश में नहीं होती। मानकर ही जीते हैं। और जब तक कोई व्यक्ति स्वयं को शरीर | ___ हमेशा जो पार है, वह वश में करने वाला सिद्ध होता है। शरीर मानकर जीता है, तब तक शरीर वश में नहीं हो सकता, क्योंकि | | से श्रेष्ठतर को खोज लें अपने भीतर और शरीर वश में हो जाएगा। वश में करने वाले की हमें कोई खबर ही नहीं है।
श्रेष्ठतर के समक्ष निकृष्ट अपने आप ही झुक जाता है, झुकाना नहीं शरीर से अतिरिक्त कुछ और भी है हमारे भीतर, इसका | | पड़ता है। और मजा नहीं है कि झुकाना पड़े। और जिसे जबर्दस्ती अनुसंधान ही हम कभी नहीं करते हैं। जहां तक बाहर के जीवन की | | झुकाया है, वह आज नहीं कल बदला लेगा। जो सहज झुक गया जरूरत है, स्वयं को शरीर मानकर काम चल जाता है। लेकिन जहां | | है, श्रेष्ठ के आगमन पर जो उसके चरणों में गिर गया है, तो ही वश तक गहरे जीवन, परमात्मा की, अमृत की, आनंद की खोज की | में हो पाता है। जरूरत है, वहां शरीर की अकेली नाव से काम नहीं चलता है। शरीर से लड़कर, शरीर-दमन से, कृच्छ साधनाओं से, शरीर शरीर की नाव संसार के लिए पर्याप्त है। लेकिन जिसने आत्मा की | | को कोड़े मारकर, शरीर को कांटों पर लिटाकर, शरीर को धूप में नाव नहीं खोजी, वह प्रभु के सागर में प्रवेश नहीं कर पाएगा। | बिठाकर, शरीर को बर्फ में लिटाकर, शरीर को कितना ही कोई
और जिसे थोड़ा-सा भी पता चलना शुरू हुआ कि मैं शरीर से सताए, शरीर को कितना ही कोई परेशान करे, इससे कभी शरीर भिन्न हूं, उसे शरीर को वश में करना नहीं होता, शरीर तत्काल वश वश में नहीं होता। शरीर को परेशान करना और शरीर को सताना में होना शुरू हो जाता है। इस बात का अनुभव कि मैं शरीर से भी शरीर के द्वारा ही हो रहा है। इससे कभी भी शरीर वश में नहीं अलग, पृथक और ऊपर हूं, ट्रांसेंडेंटल हूं, शरीर का अतिक्रमण होता। हां, निर्बल हो सकता है, दीन हो सकता है, कमजोर हो करता हूं, मालिक के आ जाने की खबर है। जैसे किसी कक्षा में । सकता है। और निर्बलता से धोखा पैदा होता है कि वश में हो गया। शिक्षक भीतर आ जाए, शोरगुल बंद हो जाए। जैसे नौकरों के बीच __ यदि हम एक आदमी को भोजन न दें, इतना कम भोजन दें, में मालिक आ जाए और नौकर सम्हलकर अनुशासित हो जाएं। इतना न्यून कि उसकी शरीर की जरूरतें उस भोजन से पूरी न हो शरीर के भीतर इस बात का स्मरण भी आ जाए कि मैं भिन्न हूं, तो पाएं, तो उसमें वीर्य निर्मित नहीं होगा। वीर्य सदा अतिरिक्त शक्ति शरीर तत्काल अनुशासन में खड़ा हो जाता है।
| से निर्मित होता है। और तब उसे यह भ्रम पैदा हो सकता है कि मेरी शरीर वश में हो गया जिसका!
कामवासना पर मेरा काबू हो गया। धोखे में है वह। अगर एक किसका? सिर्फ उसका ही होता है शरीर वश में, जिसको स्वयं व्यक्ति के शरीर को दीन कर दिया जाए, हीन कर दिया जाए, के अशरीरी होने का अनुभव शुरू हुआ है।
| उसकी शक्ति ही छीन ली जाए-अनशन से, सताकर, परेशान लेकिन साधारणतः लोग शरीर को वश में करने में लग जाते हैं, करके, शरीर को उसकी पूरी जरूरतें न देकर तो शरीर कमजोरी बिना अशरीरी को खोजे। शरीर को वश में करने जो लग जाएगा की वजह से वासना की तरफ उठने में असमर्थ हो जाएगा। लेकिन
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ॐ वासना अशुद्धि है ®
इससे धोखे में नहीं पड़ जाना है।
और ध्यान रहे, सबलता अपने आप में, अपने आप में विजय अभी केलिफोर्निया यूनिवर्सिटी में कुछ विद्यार्थियों पर वे एक | | है। इसलिए निर्बल के लिए मार्ग नहीं है। प्रयोग कर रहे थे। तीस विद्यार्थियों को तीस दिन तक भूखा रखा | लेकिन शरीर को वश में करने के नाम पर बहुत हैरानी की था। दस दिन के बाद ही उन विद्यार्थियों की काम में, यौन में, सेक्स | घटनाएं सारी दुनिया में घटी हैं। आसान है शरीर को निर्बल करना; में कोई रुचि न रह गई। वे कोई संन्यासी न थे; न ही वे कोई साधक कठिन है आत्मा को सबल करना। भूखा मरना बहुत कठिन नहीं थे; न ही वे कोई योगी थे। लेकिन दस दिन के बाद नंगी तस्वीरें है। न ही शरीर को सताना बहत कठिन है। कुछ लोगों के लिए तो
पास पडी रहें. तो वे उनको उठाकर भी नहीं देखेंगे। पंद्रह दिन बहुत आसान है। जिन लोगों को भी सताने की वत्ति है किसी को. के बाद तो उनसे अगर कोई बात करना चाहे वासना की, तो वे | किसी को भी सताने की जिनके मन में वृत्ति है...। दूसरे को सताने बिलकुल ही विरस हो गए। उनके चेहरों का रंग खो गया, उनके | | में कानून बाधा बनता है। पुलिस है, अदालत है। दूसरे को
चेहरों की ताजगी खो गई, उनके शरीर की शक्ति खो गई। तीस दिन | सताइएगा, झंझट में पड़िएगा। सताना अगर निरापद रूप से करना पूरे होने पर तीसों से पूछा गया और उन तीसों ने कहा कि हमें याद | | है, तो अपने को सताइए। न कोई पुलिस रोक सकती है, न कोई भी नहीं आता कि कभी हमारे मन में कामवासना भी उठती थी। । कानून। बल्कि लोग जुलूस भी निकालेंगे, शोभा-यात्रा भी कि
सब सूख गया। क्या शरीर वश में हो गया? दो दिन भोजन दिया तपस्वी हैं आप! गया, सब हरा हो गया। फिर वही वापस। फिर वे नंगी तस्वीरें सुंदर | इसलिए जो दुष्टजन हैं, वायलेंट, जिनके मन में गहरी हिंसा है, मालूम पड़ने लगीं। फिर नंगी फिल्म को देखने का रस आने लगा। | दूसरे पर हिंसा प्रकट करने में कठिनाई है, वे अपने पर हिंसा शुरू फिर वही बात, फिर वही मजाक, फिर वही अश्लीलता! सब लौट कर देते हैं। और आत्म-हिंसा को लोग तपश्चर्या समझ लेते हैं। आई। क्या हुआ!
तपश्चर्या आत्महिंसा नहीं है। . अगर इन युवकों को जिंदगीभर न्यून भोजन पर रखा जाए, तो | और ध्यान रहे, जो आदमी अपने पर हिंसा करेगा, वह दूसरे पर जिंदगी में अब वासना फिर न सिर उठाएगी। लेकिन यह शरीर पर कभी भी अहिंसक नहीं हो सकता है। जो अपने पर अहिंसक नहीं विजय न हुई, यह शरीर की निर्बलता हुई।
हो सका, वह इस पृथ्वी पर किसी पर भी अहिंसक नहीं हो सकता शरीर पर तो तभी विजय है, जब शरीर हो पूरा सबल; शरीर है। जीवन की सारी यात्रा स्वयं से शुरू होती है। निर्मित करता हो सभी रसों को; शरीर की शक्तियां हों पूर्ण युवा; ___ इसलिए मैं आपसे कहना चाहूंगा, और कृष्ण को जो जानते हैं शरीर के भीतर सब हो हरा और ताजा; और फिर भी, फिर भी वश | थोड़ा भी, वे स्वभावतः समझते हैं भलीभांति कि कृष्ण का अर्थ, में हो, तभी जानना कि शरीर वश में है। लेकिन यह तभी हो पाएगा, | शरीर को जीत लेता है जो, उससे किसी निर्बल. शरीर को सताने जब आत्मा सबल हो।
वाले, मैसोचिस्ट, दुखवादी, आत्मपीड़क, आत्महिंसक व्यक्ति का दो रास्ते हैं शरीर को वश में करने के। एक-झूठा, धोखे का, | नहीं होगा, नहीं हो सकता है। कष्ण तो शरीर को बड़ा प्रेम करने डिसेप्टिव। प्रतीत होता है, वश में हआ होता कभी भी नहीं। वह | वाले व्यक्तियों में से एक हैं। रास्ता है, शरीर को निर्बल करो। एक दूसरा रास्ता है, वास्तविक, | ध्यान रहे, शरीर से भयभीत वही होता है, जिसकी आत्मा प्रामाणिक, आथेंटिक, जिससे ही केवल शरीर वश में होता है। वह | कमजोर है। क्योंकि अगर शरीर सबल हुआ, तो कमजोर आत्मा है, आत्मा को सबल करो।
| मुश्किल में पड़ जाएगी। शरीर लेकर भागेगा। रथ है बहुत कमजोर, शरीर को निर्बल करो, तो भी वश में मालूम होता है; आत्मा को | | घोड़े हैं बहुत मजबूत, गड्ढे में गिरना निश्चित! डरेगा आदमी। सबल करो, तो वश में हो जाता है। शरीर को निर्बल करने से लेकिन रथ भी है मजबूत, सारथी भी है सबल, कुशलता भी है आत्मा सबल नहीं होती। आत्मा तो वहीं के वहीं होती है, जहां थी; | लगाम को हाथ में साधने की, फिर मजबूत घोड़ों का मजा है। फिर सिर्फ शरीर निर्बल हो जाता है। आत्मा के सबल होने से शरीर को घोड़ों को निर्बल करने की जरूरत नहीं है। निर्बल नहीं करना पड़ता; लेकिन आत्मा पार उठ जाती है, सबल | कृष्ण घोड़ों को निर्बल करने के पक्ष में नहीं हैं। कृष्ण आत्मा को होकर शरीर के ऊपर मालिक हो जाती है।
| सबल करने के पक्ष में हैं। यह आत्मा सबल कैसे हो जाएगी?
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गीता दर्शन भाग-28
तो कृष्ण कहते हैं, अंतःकरण शुद्ध है जिसका! किया है, सोशियलाइज किया है। वेश्या के पास जाते वक्त जितना अंतःकरण अशुद्ध होगा, आत्मा उतनी निर्बल होगी। | निर्बलता मालूम पड़ती है, क्योंकि वह पाप सोशियलाइज नहीं है, आत्मा की निर्बलता हमेशा अशुद्धि से आती है। आत्मा की | | इंडिविजुअल है। पूरा समाज उसमें सहयोगी नहीं है, आप अकेले सबलता शद्धि से आती है। वह जितनी प्योरिफाइड. जितनी पवित्र जा रहे हैं। हुई चेतना है, उतनी ही सबल हो जाती है। आत्मा के जगत में | | लेकिन जो आदमी गहरे में समझेगा, उसे समझ लेना चाहिए कि पवित्रता ही बल है और अपवित्रता निर्बलता है।
| जिस क्षण भी मैं अपने सुख के लिए किसी के भी पास जाता इसलिए जब भी कोई अपवित्र काम आप करेंगे, तत्काल पाएंगे, | | हूं-चाहे वह पत्नी हो, चाहे वह पति हो, चाहे वह मित्र हो, चाहे आत्मा निर्बल हो गई। जरा चोरी करने का विचार करके सोचें। | | वह वेश्या हो-जब भी मैं किसी और के द्वार पर भिक्षा का पात्र करना तो दूर, थोड़ा सोचें कि पड़ोस में रखी हुई आदमी की चीज | लेकर खड़ा होता हूं, तभी आत्मा अशुद्ध हो जाती है। न दिखाई पड़ती उठा लें। अचानक भीतर पाएंगे कि कोई चीज निर्बल हो गई, कोई | हो, लंबी आदत से अंधापन पैदा हो जाता है। बहुत बार एक ही बात चीज नीचे गिर गई। सोचें भर कि चोरी कर लूं, और भीतर कोई | को दोहराने से, करने से, मजबूत यांत्रिक व्यवस्था हो जाती है। चीज निर्बल हो गई। सोचें कि किसी को दान दे दूं, और भीतर कोई __ चोर भी रोज-रोज थोड़े ही अनुभव करता है कि आत्मा पाप में चीज सबल हो गई। सोचें मांगने की, और भीतर निर्बलता आ जाती | पड़ रही है। नियमित चोरी करने वाला धीरे-धीरे चोरी में इतना गहरा है। सोचें देने की, और भीतर कोई सिर उठाकर खड़ा हो जाता है। | हो जाता है कि अंतःकरण की आवाज फिर सुनाई नहीं पड़ती है।
जहां अशुद्धि है, वहां निर्बलता है। जहां शुद्धि है, वहां सबलता | | फिर तो किसी दिन चोरी करने न जाए, तो लगता है कि कुछ गलती है। और निर्बल और सबल होने को आप अशुद्धि और शुद्धि का | | हो रही है। मापदंड समझें। जब मन भीतर निर्बल होने लगे, तो समझें कि | लेकिन आत्मा निरंतर आवाज देती है। और इसलिए दूसरी बात आस-पास जरूर कोई अशुद्धि घटित हो रही है। और जब भीतर | आपसे कह दूं कि जब भी आप कोई पहला काम कर रहे हों जीवन सबल मालूम पड़ें प्राण, तब समझें कि जरूर कोई शुद्धि की यात्रा | | में, तब बहुत गौर से आत्मा से पूछ लेना, उस वक्त आवाज बहुत पर आप निकल गए हैं। ये दोनों बंधी हुई चीजें हैं।
साफ होती है। जितना ज्यादा करते चले जाएंगे, उतनी आवाज धीमी इसलिए कृष्ण कहते हैं, अंतःकरण जिसका शुद्ध है! अंतःकरण | | होती चली जाएगी। आदतें मजबूत हो जाएंगी। अशुद्धि ही शुद्धि जिसका शुद्ध है...।
| मालम पडने लगेगी। गंदगी ही सगंध मालम पडने लगेगी। यह अंतःकरण की शुद्धि और अशुद्धि को ठीक से समझ लेना | ___ आदत दूसरा स्वभाव है। जोर से उसकी पर्त बन जाती है, फिर जरूरी है।
| भीतर की आवाज आनी बंद हो जाती है। फिर खयाल में नहीं आता ___ अंतःकरण कब होता है अशुद्ध ? जब भी—जब भी हम | कि भीतर की कोई आवाज है। हमने उसको बंद कर दिया, और किसी दूसरे पर निर्भर होते हैं, किसी भी सुख के लिए। किसी भी हमने इतनी बार ठुकराया। अब भी आत्मा बोलती है, लेकिन रोज सुख के लिए जब भी हम किसी दूसरे पर निर्भर होते हैं, तभी धीमी हो जाती है, और धीमी आवाज होती चली जाती है। या हम अंतःकरण अशुद्ध हो जाता है। दूसरे पर निर्भरता अशुद्धि है। और इतने बहरे होते चले जाते हैं आदत से, कि वह आवाज सुनाई नहीं दूसरे पर निर्भरताएं सभी बहुत गहरे अर्थ में पाप हैं। लेकिन हम | पड़ती है। कुछ पापों को सोशियलाइज किए हुए हैं, उनको हमने समाजीकृत | | इसलिए पहली बार जब भी जो आप कर रहे हों. करने के पहले किया हुआ है। इसलिए अंतःकरण को पता नहीं चलता। भीतर देख लेना, निर्बल होते हैं या सबल। जिस चीज से भी
अगर एक आदमी सोचता है कि आज मैं वेश्या के घर जाऊं, सबलता आती हो भीतर, उस चीज को समझना कि वह आत्मा के तो मन निर्बल होता मालूम पड़ता है कि पाप कर रहा हूं। लेकिन | | पक्ष में है। और जिस चीज से निर्बलता आती हो, समझना कि वह सोचता है, अपनी पत्नी के पास जाऊं, तो मन निर्बल होता नहीं विपक्ष में है। मालूम पड़ता है। पत्नी के पास जाते समय मन निर्बल मालूम नहीं| | दूसरे पर निर्भर सभी सुख दुर्बल कर जाते हैं। असल में दूसरे पड़ता है, क्योंकि पत्नी और पति के संबंध को हमने समाजीकृत के द्वार पर खड़े होना भिखारी होना है। वह भीख कितनी ही सूक्ष्म
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ॐ वासना अशुद्धि है -
हो सकती है। इसलिए यह भी हो सकता है कि सिकंदर जैसा | | कि झरने का पानी पीने को आतुर हो जाए। इतना स्फटिक जैसा आदमी, बहादुर है, तलवार से भयभीत नहीं होता, युद्ध में मौत से स्वच्छ जल है वहां! तो उसने एक तरकीब की। सोचा कि यदि नहीं डरता, लेकिन यह इतना बहादुर शेर जैसा आदमी भी घर | डिनोशियस प्रसन्न हो जाए, तो कुछ वरदान मांग लूं। उसने झरने में आकर पत्नी से डरता है। यह क्या बात है? यह पत्नी से क्यों डरता शराब मिलवा दी। है? इसने दुनिया में किसी और से कभी कुछ नहीं मांगा, लेकिन और जब डिनोशियस आया, तो झरना सचमुच ऐसा सुगंध से पत्नी के पास आकर कमजोर हो जाता है।
भरा था और ऐसा स्फटिक जैसा स्वच्छ था कि उस देवता __अक्सर यह होगा कि जो लोग मकान के बाहर बहुत हिम्मतवर | | डिनोशियस को भी स्वर्ग के झरने फीके मालूम पड़े। और उसने दिखाई पड़ेंगे, मकान के भीतर बहुत कमजोर दिखाई पड़ेंगे। और . | कहा कि तुम्हारे झरने का पानी मैं जरूर ही पीऊंगा। उसने पानी स्त्रियां उनके राज को जानती हैं कि उनके सामने वे किसी गहरे अर्थ | पीया, शराब में डूबकर बेहोश हो गया। बेहोशी में मिडास ने उससे में भिखारी हैं। किसी सुख के लिए उन पर निर्भर हैं। उस सुख की | वरदान मांग लिया। मांग लिया वरदान कि मैं जो कुछ भी छुऊं, वह निर्भरता उन्हें कमजोर बनाती है।
सोने का हो जाए। और उस दिन से मिडास जो भी छता, सोने का इसलिए पति चाहे कितनी ही बहादुरी करता हो बाहर, भला हो जाता। किसी युद्ध में चैंपियन हो जाता हो, वह घर आकर पत्नी के सामने लेकिन मुश्किल शुरू हो गई। सोचता था कि किसी दिन अगर एकदम दब्बू हो जाता है। वहां भीख शुरू हो गई। वहां गुलामी शुरू | यह वरदान मिल जाए कि जो भी छुळं सोने का हो जाए, तो मुझसे हो गई। वहां कुछ मांगना है उसे। वहां किसी पर निर्भर होना है। ज्यादा सुखी कोई भी न होगा। लेकिन मिडास से ज्यादा दुखी बस, उपद्रव शुरू हो गया।
आदमी पृथ्वी पर कभी भी नहीं हुआ। • यह मैं पति के लिए नहीं, सभी के लिए कह रहा हूं। जहां भी । पत्नी को छुआ, वह सोने की हो गई। बेटी को छुआ, वह सोने हम किसी पर कुछ मांगने को निर्भर होते हैं, वहां चित्त दीन होने | की हो गई। खाने को छुआ, वह सोने का हो गया। पानी को लगता है।
| छुआ, वह सोने का हो गया। एक दिन, दो दिन, भूखा-प्यासा कृष्ण कहते हैं, अंतःकरण है शुद्ध जिसका।
चीखने-चिल्लाने लगा। पागल होने के करीब आ गया। लोग उसे तो एक, निर्भर नहीं है जो अपने सुखों के लिए किसी पर। दूसरी | | देखकर भागने लगे कि कहीं छ न ले। घर के लोग भी ताले लगाकर बात, चित्त में अशुद्धियां, इंप्योरिटीज किस द्वार से प्रवेश करती हैं? | अपने कमरों में छिप गए कि कहीं छ न ले। वजीरों ने छुट्टियां ले ___ कल-परसों मैंने आपसे बात की कि कामना, आकांक्षा, वासना ली। सेनापतियों ने कहा, क्षमा करो! पहले इस वरदान से छुटकारा के द्वार से अशुद्धियां प्रवेश करती हैं। वासना से ग्रस्त, पैसोनेट, | लो, फिर हम आ सकते हैं। द्वारपाल अब तक लोगों से रक्षा करते इच्छा से भरा हुआ मन, कमजोर भी होता है, अशुद्ध भी होता है, थे उसकी। अब द्वारपाल बंदूकें उलटी लेकर खड़े हो गए और लोगों दुखी भी होता है, अंधकार में भी डूबता है। मजा यह है कि इच्छा की रक्षा करने लगे उससे। पूरी हो जाए, तो भी सुख नहीं मिलता! इच्छा पूरी हो जाए, तो भी | - मिडास बड़ी मुश्किल में पड़ गया। चिल्लाता है, रोता है, मगर सुख नहीं मिलता; इच्छा पूरी न हो, तब तो दुख मिलता ही है। ।। | डिनोशियस का कोई पता नहीं लगता। कहते हैं, मरा; और जब वह
मुझे याद आती है एक यूनानी कथा। सुना है मैंने कि यूनान में मरा, तो उसके मुंह से जो वचन निकले, उसके मरते वक्त भी वह एक सम्राट हुआ, मिडास। कहते हैं, सारी पृथ्वी जीत ली है उसने।। | यही कह रहा था, बिफोर गोल्ड किल्स मी, एज इट किल्स आल सुंदर-सुंदर स्वर्ण के महल हैं उसके पास। अदभुत बगीचे हैं। ऐसे | | मेन, डियर डिनोशियस, गिव मी बैक टेन फिंगर टिप्स, दैट लीव अदभुत बगीचे हैं कि एक दिन खबर मिली मिडास को कि स्वर्ग | | दि वर्ल्ड अलोन। इसके पहले कि सोना मुझे मार डाले, जैसा कि का देवता डिनोशियस उसके बगीचे को देखने आ रहा है। बड़े । । | सभी को मार रहा है, मार डालता है, प्यारे डिनोशियस, वापस अदभुत झरने हैं उसके बगीचे में और एक तो उसका अपना बहुत | | लौटा दो मुझे मेरी वे दस अंगुलियां, जिनसे मैं दुनिया को छुऊं, ही प्यारा झरना है। उसने सोचा, डिनोशियस को वह झरना तो | लेकिन दुनिया उनसे अस्पर्शित रह जाए। लेकिन वह यह कहते हुए दिखाएंगे ही। फिर उसे खयाल आया कि डिनोशियस हो सकता है | | ही मरा।
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ॐगीता दर्शन भाग-2
इच्छा पूरी न हो, तब तो दुख देती ही है; इच्छा पूरी हो जाए, तो | अलग-अलग रखती है। मिट्टी टूट जाए, बीच से हट जाए! और भी भयंकर दुख देती है। और दुख गंदगी है। सारे प्राण गंदगी | लेकिन अगर गगरी का पानी समझता हो कि मैं मिट्टी की गगरी से भर जाते हैं। दुख अंधेरा है, दुख धुआं है। जहां दुख नहीं है प्राणों | | हूं, तब कभी भी नहीं तोड़ेगा। फिर तो मैं ही टूट जाऊंगा! अगर में, वहां प्राणों की ज्योति उज्ज्वल जलती है, धुएं से मुक्त। ज्योति | | गगरी के भीतर का पानी सोचता हो कि यह मिट्टी की जो पर्त मेरे होती है सिर्फ, धुएं से रिक्त।
चारों तरफ गगरी की है, यही मैं हूं, तो सागर से मिलन कभी भी न तो कृष्ण कहते हैं, अंतःकरण है शुद्ध जिसका...। होगा। लेकिन पानी को पता चल जाए कि मैं गगरी नहीं, पानी हूं, वासना के द्वार से जिसने भी खोज की, उसका अंतःकरण शुद्ध | तो गगरी तोड़ी जा सकती है। और गगरी टूटे, तो भीतर का पानी नहीं होगा। सड़ेगा। वासना सड़ाती है। उससे ज्यादा सड़ाने वाला और बाहर का पानी एक हो जाए। वह जो भीतर की आत्मा और
और कोई तत्व पृथ्वी पर नहीं है, और कोई केमिकल नहीं है। जितने बाहर की आत्मा है, एक हो जाए। ढंग से वासना सड़ाती है, उतने ढंग से कोई केमिकल नहीं सड़ाता और जब ऐसा हो जाए, तो कृष्ण कहते हैं, ऐसा व्यक्ति सब है। व्यक्ति सड़ता चला जाता है।
| कुछ करे-सब कुछ, अनकंडीशनली; कोई शर्त नहीं है ऐसे तीसरी बात कृष्ण कहते हैं कि जिसने जीता शरीर को; जिसका | व्यक्ति पर सब कछ करे, तो भी कर्म उससे चिपकते नहीं हैं। अंतःकरण शुद्ध है; और जिसने जाना अपने को प्रभु के साथ एक! कर्मों का उस पर कोई भी लेप नहीं चढ़ता है।
दो शर्ते पूरी हों, तो ही तीसरी बात पूरी हो सकती है। शरीर पर इस वक्तव्य से बहुत-से लोगों को कठिनाई होती है। पूछता है हो विजय, तो ही अंतःकरण शुद्ध हो सकता है। नहीं तो शरीर ऐसे | आदमी, सब कुछ करे! चोरी करे, बेईमानी करे! तब वह फिर रास्तों पर ले जाएगा कि आत्मा अशुद्ध होती ही रहेगी। अंतःकरण समझा नहीं बात। चोरी-बेईमानी करे, तो यहां तक पहुंचेगा नहीं। हो शुद्ध, आत्मा हो पवित्र, तो उस पवित्रता के क्षण में ही विराट यहां पहुंच जाए, तो चोरी करने योग्य कुछ बचता नहीं। चोरी के साथ एकात्म सध सकता है। अपवित्रता दीवाल है। पवित्रता में | किसकी करे, वह भी नहीं बचता। चोरी कौन करे, वह भी नहीं सब दीवालें गिर जाती हैं। खुले आकाश से मिलन हो जाता है। बचता। मन होगा, पूछेगा कि कृष्ण कहते हैं, ऐसा आदमी कुछ भी अपवित्रता की दीवाल ही हमें परमात्मा से अलग किए हए है। करे! तो ऐसे आदमी पर कोई नैतिक बंधन नहीं? ।। हमारी ही वासनाओं की अपवित्र दीवाल और ईटें हमें मजबती से बिलकुल नहीं। क्योंकि नीति के बंधन अभी जिसके ऊपर हैं, अपने भीतर बंद किए हैं। गिर जाए दीवाल, तो व्यक्ति जान पाता | उसके भीतर अनीति होनी चाहिए। अनीति के लिए नीति के बंधन है कि मैं और प्रभु एक हैं।
जरूरी हैं। और जो अभी अनीति से भरा है, वह तो अभी गंदगी से इस बात को ऐसा भी समझ लें, जो जानता है कि मैं और शरीर मुक्त नहीं हुआ, अंतःकरण शुद्ध नहीं हुआ। वह यहां तक आएगा एक हैं, वह कभी नहीं जान पाएगा कि मैं और परमात्मा एक हैं। जो | नहीं। यह जो बात है, सब कुछ करे ऐसा व्यक्ति, उसके पहले तीन जान लेगा, मैं और शरीर भिन्न हैं, वह जान पाएगा कि मैं और | बातों को स्मरण रख लेना, शरीर पर पाई जिसने विजय, अंतःकरण परमात्मा एक हैं। ये एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जिसने अपने को | हुआ जिसका शुद्ध, परमात्मा से जानी जिसने एकता!
शरीर से जोड़ रखा है, वह परमात्मा से टूटा हुआ पाएगा। और इन तीन शर्तों के बाद बेशर्त, कृष्ण कहते हैं, ऐसा व्यक्ति कुछ जिसने अपने को शरीर से तोड़ा, वह परमात्मा से जुड़ा हुआ पाएगा। | भी करे। ऐसा व्यक्ति कुछ भी करेगा नहीं, इसीलिए कह पाते हैं कि जिसकी नजर शरीर से जुड़ी है, उसकी पीठ परमात्मा पर होगी। और। | ऐसा व्यक्ति कुछ भी करे। आपसे नहीं कह रहे हैं। अर्जुन से भी जिसकी नजर शरीर से हटी, उसकी आंख परमात्मा पर पड़ जाएगी। नहीं कह रहे हैं। ये तीन सीढ़ियां पार कर लेने के बाद ऐसा व्यक्ति इसलिए शरीर से मुक्त, शरीर के पार उठना अनिवार्य है। कुछ भी करे। ऐसे व्यक्ति पर कोई भी नियम नहीं है, कोई नीति
शुद्ध अंतःकरण, वासनाओं की गंदगी की दीवाल बीच में नहीं नहीं, कोई धर्म नहीं। क्योंकि ऐसा व्यक्ति उस जगह आ गया है, चाहिए, तभी एकात्म-प्रभु और स्वयं के बीच ऐसा मिलन, जैसे जहां अनीति बची ही नहीं। और जब अनीति न बचती हो, तो नीति मटकी टूट जाए और मटकी के भीतर का पानी सागर के पानी से एक की क्या सार्थकता है ? अधर्म बचा नहीं। और जहां अधर्म न बचता हो जाए। मिट्टी की मटकी सागर के पानी को और गगरी के पानी को हो, वहां धर्म बेकार है। और जिसने स्वयं को प्रभु के साथ एक
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वासना अशुद्धि है
जाना, जिसकी अस्मिता और अहंकार न बचा, अब कोई उपाय नहीं | | के बीच बोल रहे थे, उनके जीवन का एक स्तर था, समझ की एक रहा कि उससे कुछ गलत हो जाए।
| सीमा थी। ध्यान रहे, जीसस अत्यंत ही अविकसित समाज में बोल हमसे गलत होता है। ज्यादा से ज्यादा गलत हम रोक पाते हैं। | रहे थे, नहीं तो सूली न लगती। नासमझों के बीच बोल रहे थे। ऐसे व्यक्ति से गलत होता ही नहीं। ऐसा व्यक्ति जो भी करता है, __ कृष्ण नासमझ से नहीं बोल रहे हैं। कृष्ण एक बहुत संभावी वही सही है। हमें वह करना चाहिए, जो सही है; वह नहीं करना | आत्मा से बोल रहे हैं, जिसका बहुत विकास संभव है। एक चाहिए, जो गलत है। ऐसा व्यक्ति, जिसकी कृष्ण बात कर रहे हैं, | बुद्धिमान आदमी से बोल रहे हैं, जो धर्म के संबंध में बहुत कुछ जो करता है, वही सही है; जो नहीं करता, वही गलत है। ऐसे | जानता है। अनुभव नहीं है उसे; जानता है, सुना है, पढ़ा है, व्यक्ति मापदंड हैं। ऐसे व्यक्ति चरम हैं, परम मूल्य है उनका। ऐसे | सुशिक्षित है, सुसंस्कृत है। अर्जुन जैसे सुसंस्कृत आदमी कम होते व्यक्ति के लिए जो वक्तव्य है, वह वक्तव्य सबके लिए नहीं है। | हैं। उस जमाने में, जिसको हम कहें, शिखर पर जो संस्कृति के रहा
अन्यथा चोर भी पढ़कर प्रसन्न होता है गीता के इस वचन को, | | होगा, ऐसा व्यक्तित्व है। कृष्ण भी जिसको सखा मान सकते हों, कि ठीक है, कुछ भी करो! बेईमान भी पढ़कर प्रसन्न हो सकता है। | मित्र मान सकते हों, वह संस्कृति के शिखर पर है। उससे बात कर
और यह भी सोच सकता है कि ज्यादा तो हमसे नहीं बनता, पहली | रहे हैं। जानते हैं, भूल नहीं हो पाएगी। इसलिए तीन शर्तों के बाद तीन चीजें नहीं बनतीं, कम से कम चौथी चीज तो करो ही। जितना चौथी बात भी कह देते हैं। बने, उतना ही क्या बुरा है!
जीसस ने कभी ऐसी बात नहीं कही। मोहम्मद ने कभी ऐसी बात नहीं, इसमें क्रम है। तीन के बिना चौथा पढ़ना ही मत। चौथे को | | नहीं कही। मोहम्मद और जीसस एक लिहाज से अभागे समाज में काट देना गीता से अभी। जब तीन पूरी हो जाएं, तब तीन को काट | पैदा हुए, उन लोगों के बीच, जिनसे इतनी ऊंची बातें नहीं कही जा देना, चौथी को पढ़ना। बेशर्त, अनकंडीशनल वही व्यक्ति हो | सकती थीं। ऊंची बातें कहने का अवसर, समय और स्थिति उनको सकता, जिसने अनिवार्य तीन शर्ते पूरी कर ली हैं।
नहीं मिली। __ यह बात, पश्चिम में जब पहली दफे गीता के अनुवाद हुए, __ इसलिए गीता को जो पढ़ता है, उसे कुरान कभी फीका लग जर्मन, फ्रेंच, अंग्रेजी में, तो वहां भी कठिनाई हुई। उनको भी हैरानी | | सकता है। लेकिन इसमें ज्यादती कर रहे हैं। कुरान को फीका मत हुई। क्योंकि बाइबिल टेन कमांडमेंट्स के ऊपर नहीं जाती। देखना। जो गीता को पढ़ता है, उसे बाइबिल उतनी गहरी नहीं बाइबिल में एक भी कमांडमेंट ऐसा नहीं है, एक भी आदेश ऐसा | मालूम पड़ेगी। लेकिन ज्यादती मत करना। नहीं है, कि जो करना हो, करो। बाइबिल कहती है, चोरी मत करो; ___ जीसस और मोहम्मद, कृष्ण जैसे ही गहरे व्यक्ति हैं। लेकिन बेईमानी मत करो; दूसरे की औरत को बुरी नजर से मत देखो; यह | अर्जुन जैसा शिष्य पाना सदा आसान नहीं है। बात तो अर्जुन से सब कहती है पड़ोसी को प्रेम करो; यह सब कहती है। ऐसा एक | कही जा रही है, इसलिए तीन शर्ते पूरी करके उन्होंने चौथी, अंतिम, भी वक्तव्य बाइबिल में नहीं है, जो इसके मुकाबले हो। जो वक्तव्य | दि अल्टिमेट, आखिरी बात भी कह दी कि फिर व्यक्ति कुछ भी यह कहता हो कि अब तुम्हें जो भी करना हो, करो। | करे, उस पर कोई नियम, कोई मर्यादा नहीं है।
तो जब पहली दफा गीता का अनुवाद हुआ, तो कठिनाई मालूम | राम की भी हिम्मत नहीं होती यह कहने की। राम भी मोहम्मद पड़ी। स्पष्ट लगा बाइबिल को पढ़ने वाले और प्रेम करने वाले लोगों | | और जीसस से ऊंची बात नहीं कह पाते हैं। मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। को कि यह किताब तो थोड़ी-सी इम्मारल मालूम होती है, अनैतिक | मर्यादा की बात करते हैं। इस बात से तो राम भी थोड़े चौंकते कि मालूम होती है। इसमें ऐसी बात भी है, कुछ भी करो! तो फिर टेन | | कुछ भी करे! इससे राम को भी अड़चन पड़ती! राम नैतिक चिंतन कमांडमेंट्स का क्या हुआ, चोरी मत करो, बेईमानी मत करो, । । की पराकाष्ठा हैं। व्यभिचार मत करो! उनका क्या होगा? क्या व्यभिचार भी करो? | | लेकिन धर्म वहीं शुरू होता है, जहां नीति समाप्त होती है। धर्म
उन्हें पता नहीं कि जीसस जिन लोगों से बोल रहे थे, उनसे यह आगे की यात्रा है और, जहां सब नियम गिर जाते हैं। क्योंकि नीति चौथी बात नहीं कही जा सकती थी। जिस समाज में बोल रहे थे, | | के नियम, माना कि बहुत सुंदर हैं, लेकिन नियम ही हैं। माना कि उस समाज में यह चौथी बात नहीं कही जा सकती थी। जिन लोगों मर्यादाएं बड़ी अदभुत हैं, लेकिन मर्यादाएं ही हैं। माना कि दीवारें
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गीता दर्शन भाग-20
सोने की हैं, लेकिन फिर भी दीवारें हैं। माना कि बंधन नीति के सोने | हिस्सा क्या है कर्म का? भीतरी हिस्सा कर्ता है, दि डुअर। डूइंग बाहर के हैं, लोहे की जंजीरें नहीं हैं; हीरे-जवाहरातों से जड़ी हैं, लेकिन | है; डुअर भीतर है। ये एक ही घटना के दो हिस्से हैं। बाहर कर्म छुटे, फिर भी जंजीरें हैं।
तो भीतर कर्ता विदा हो जाएगा। सच में ही कर्म छूट जाए, तो कर्ता कृष्ण तो परम मुक्ति की बात कर रहे हैं। वे कह रहे हैं, ये तीन | | तत्काल विदा हो जाएगा, क्योंकि कर्म के बिना कर्ता हो नहीं सकता। शर्त तू पूरी कर, फिर तू कुछ भी कर। फिर अगर तू भागता भी हो | कर्ता का मतलब ही यह है कि जो कर्म करता है। यहां से, तो मैं तुझसे नहीं कहूंगा कि तू रुक। तू लड़ता हो, तो मैं लेकिन भाषा में गलती होती है। एक पंखा है आपके हाथ में। मैं नहीं कहूंगा कि मत लड़। लेकिन ये तीन शर्त पूरी हो जानी चाहिए। | पूछता हूं, पंखे का क्या अर्थ है? आप कहते हैं, जो हवा करता है।
इस लिहाज से इस जमीन पर जगत के श्रेष्ठतम वक्तव्य दिए जा | लेकिन अभी पंखा हवा नहीं कर रहा है, आप हाथ में पकड़े हुए सके हैं। पृथ्वी पर किसी भी देश में इतने श्रेष्ठ वक्तव्य देने की | | बैठे हैं। अभी पंखा है या नहीं? पंखे की परिभाषा है, जो हवा करता स्थिति कभी भी पैदा नहीं हुई थी। इतनी उड़ान की और इतनी ऊंची | है; डोलता है, हवा करता है। अभी डोल नहीं रहा है। तो अगर ठीक बात, बादलों के पार, जहां सब अतिक्रमण हो जाता है, वहीं है परम | | सिमैनटिक्स, ठीक भाषा का प्रयोग करें, तो अभी वह पंखा है नहीं। स्वतंत्रता और परम मुक्ति। ऐसे व्यक्ति को कोई भी कर्म नहीं | पंखा तो वह है, जो पंख की तरह हवा करता है। पोटेंशियल है बांधता है।
अभी, कर सकता है। इसलिए हम कामचलाऊ दुनिया में कहते हैं, पंखा है। इसका मतलब यह है कि पंखा हो सकता है। इसका
उपयोग करें, तो यह पंखे का काम दे सकता है। . प्रश्नः भगवान श्री, आपने कर्म-संन्यास का अर्थ | | एक किताब रखी है। किताब का मतलब यह है कि जिसमें कुछ कर्म-त्याग कहा है। लेकिन पिछले छठवें श्लोक में | | ज्ञान संगृहीत है। लेकिन मैं किताब उठाकर आपके सिर पर मार देता कर्म-संन्यास का अर्थ संपूर्ण कर्मों में कर्तापन का | हूं, उस वक्त वह किताब नहीं है। उस वक्त वह पत्थर का काम कर त्याग कहा गया है। कृपया कर्म-संन्यास के इन दो | | रही है। भाषा में तो अब भी किताब है। हम कहेंगे, किताब फेंककर अर्थों में दिखाई पड़ने वाली भिन्नता को स्पष्ट करें। | मार दी। लेकिन किताब, किताब का मतलब ही यह है कि जिसमें
| ज्ञान संगृहीत है। कहीं संगृहीत ज्ञान फेंककर मारा जा सकता है?
लेकिन जब मैं किताब को फेंककर मार रहा हूं, तो वस्तुतः मैं किताब कर्म-संन्यास का बहिअर्थ तो कर्म का त्याग है। अंतर्थ | का उपयोग किताब की तरह नहीं कर रहा हूं, पत्थर की तरह कर पा भी है। क्योंकि मनुष्य के जीवन में जो भी घटना रहा हूं। अगर वैज्ञानिक ढंग से कहना हो, तो उसको अब किताब
___ घटेगी, उसके दो पहलू होंगे, बाहर भी, भीतर भी। नहीं कहना चाहिए। अब वह किताब नहीं है। अब इस वक्त वह अगर कर्म-संन्यासी को आप देखेंगे बाहर से, तो दिखाई पड़ेगा कि | पत्थर है। कर्म का त्याग किया।
जब तक आप कर्म कर रहे हैं, तब तक आप कर्ता हैं। कर्म बंद महावीर चले जंगल की तरफ; छोड़ दिया राजमहल, धन, घर, | | हुआ, कर्ता खो गया। कर्ता बचता नहीं। इससे उलटा भी सही है। द्वार, प्रियजन, परिजन। हम देखने खड़े होंगे मार्ग में, तो क्या कर्ता खो जाए, कर्म खो जाता है। दिखाई पड़ेगा? दिखाई पड़ेगा कि महावीर जा रहे हैं सब छोड़कर। | जहां तक दूसरों के देखने का संबंध है, वहां पहले कर्म खोता है। कर्म छोड़कर जा रहे हैं। अगर हम कहेंगे कि महावीर के कर्म और जहां तक स्वयं के देखने का संबंध है, पहले कर्ता खोता है। संन्यास का क्या अर्थ है? तो अर्थ होगा, कर्म का त्याग। लेकिन | अगर मैं अपने भीतर से देखें, तो पहले मेरा कर्ता खो जाएगा, तभी अगर महावीर से पूछे कि उनके भीतर क्या हो रहा है? क्योंकि | | मेरा कर्म खोएगा। पहले मैं कर्ता नहीं रह जाऊंगा, तभी मेरा कर्म गिर घर-द्वार, महल, हाथी, घोड़े भीतर नहीं हैं। कर्म, प्रिय, परिजन | जाएगा। लेकिन जहां तक आप देखेंगे, पहले कर्म गिरेगा, पीछे आप भीतर नहीं हैं। भीतर क्या है?
अनुमान लगाएंगे कि कर्ता भी खो गया होगा। क्योंकि मेरे भीतर के जब बाहर से कोई कर्म छोड़ता है, तो भीतर क्या छूटता है? भीतरी कर्ता को आप देख नहीं सकते, सिर्फ मैं ही देख सकता हूं।
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ॐ वासना अशुद्धि है ®
इसलिए कृष्ण जो कह रहे हैं कि जहां कर्तृत्व खो गया, जहां कर्ता नहीं है! बहुत गहरी खदान है। खोदने में ज्यादा पैसा खराब होगा, खो गया! यह अंतर्व्याख्या है। भीतर से साधक को जानना पड़ेगा निकलेगा कुछ खास नहीं। इसीलिए तो जला देते हैं या गाड़ देते हैं। कि मेरा जो करने वाला था, वह अब नहीं रहा। अब कोई करने आदमी के शरीर का अब तक कोई उपयोग नहीं है। वाला भीतर नहीं है।
तो बुद्ध कहते हैं कि खोजो कि तुम क्या-क्या हो? कुछ कब खोता है करने वाला? इसके लिए भी दो-तीन सूत्र खयाल | थोड़ी-सी चीजों का जोड़ हो। सांस चल रही है इस धौंकनी में। में लेंगे, तो उपयोगी होंगे। साधक की दृष्टि से बड़ी कीमत के हैं। बस, यही हो? कहोगे कि थोड़े विचार भी हैं मेरे पास। माना। __या तो कर्ता तब खोता है, जब आप समझें कि मैं शून्यवत हूं; विचार भी क्या हैं? हवा में बने हुए खिलौने। पानी पर खींची गई हूं ही नहीं। समझें कि मैं क्या हूं? कुछ भी तो नहीं; मिट्टी का एक | रेखाएं। बहुत इम्मैटीरियल। क्या मतलब है! और एक आदमी की ढेर। कभी आंख बंद करके देखें, तो क्या पता चलता है? क्या गर्दन काट कर खोजो, तो विचार कहीं भी नहीं मिलते। हवा के हूं? सांस की धड़कन? क्या हूं? जैसे कि लोहार की धौंकनी | झोंके की तरह हैं। हवा के झोंके में पत्ते हिलते रहते हैं, जिंदगी के चलती हो। कभी सांस को चलने दें, आंख बंद कर लें। और धक्के में विचार हिलते रहते हैं। किसी ने गाली दी, धक्का आया भीतर खोजें कि मैं कौन हूं!
भीतर, थोड़े विचार हिलने लगे। गाली उठने लगी। किसी ने प्रशंसा क्या पता चलेगा? बस इतना ही पता चलेगा कि धौंकनी चल की, गले में माला डाल दी, भीतर हवा का धक्का पहुंचा। बड़े रही है। लोहार की धौंकनी ऊपर-नीचे हो रही है। श्वास भीतर आ | प्रसन्न हो गए; छाती फूल गई; सांस जरा जोर से चलने लगी। रही है, बाहर जा रही है। अगर पूरे शांत होकर देखेंगे, तो सिवाय तो बुद्ध कहते हैं, जरा ठीक से देख लो कि तुम्हारा पूरा जोड़ क्या श्वास के चलने के कुछ भी पता नहीं चलेगा। क्या श्वास का है। इसी जोड़ पर इतने अकड़े हुए हो? तो बुद्ध कहते ६. संघात चलना भर इतनी बड़ी बात है कि मैं कहं कि मैं हं। और फिर श्वास हो, सिर्फ एक जोड़ हो। नाहक परेशान मत होओ। शुन्य समझो भी मैं तो नहीं चला रहा हूं! जब तक चलती है, चलती है; जब नहीं | अपने को। जो इस जोड़ को ठीक से समझ ले, वह शून्यवत हो चलती है, तो नहीं चलती है। जिस दिन नहीं चलेगी, मैं चला नहीं | जाएगा। शून्यवत हो जाए, तो कर्ता खो जाता है। सकूँगा। एक श्वास भी नहीं ले सकूँगा, जिस दिन नहीं चलेगी। एक और रास्ता है। वह रास्ता यह है कि न मैं पैदा हुआ; न मैं श्वास ही चल रही है; वह भी मैं नहीं चला रहा। पता नहीं कौन | मरूंगा अपने हाथ से, न अपने हाथ से पैदा हुआ। जन्मते वक्त अज्ञात शक्ति चला रही है! बस, इतना-सा खेल है। इस इतने से कोई मुझसे पूछता नहीं कि जन्मना चाहते हो? मरते वक्त कोई खेल को इतनी अकड़ से क्यों ले रहा हूं?
मुझसे दस्तखत नहीं करवाता कि अब आपके इरादे जाने के हैं? तो एक मार्ग तो है कि मैं खोजूं कि मैं हूं क्या! तो पता चले कि मुझसे कोई पूछता ही नहीं। मैं बिलकुल गैर-जरूरी हूं। जिंदगी मेरी, कुछ भी नहीं हूं।
कहता हूं कि जिंदगी मेरी। और मुझसे बिना पूछे भेज दिया जाता बुद्ध का यह मार्ग है। बुद्ध कहते हैं, खोजो, तुम क्या हो! हूं! कहता हूं, जिंदगी मेरी। और मुझसे बिना पूछे विदा कर दिया क्या-क्या हो, खोज लो। थोड़ी-सी मिट्टी है, थोड़ा-सा पानी है, जाता हूं! कोई मुझसे इसके लिए भी नहीं पूछता कि आप जाना थोड़ी-सी आग है, थोड़ी-सी हवा है।
चाहते हैं, आना चाहते हैं, क्या इरादे हैं? नहीं, मेरी कोई पूछताछ वैज्ञानिक से पूछे, तो वह कहता है, कोई चार और पांच रुपए ही नहीं है। के बीच का सामान है। थोड़ा एल्युमिनियम भी है, थोड़ा तांबा भी तो एक दूसरा मार्ग है, जो है नियति का, डेस्टिनी का। उस मार्ग है, थोड़ा लोहा भी है। मुश्किल से चार-पांच रुपए के बीच; से ही भाग्य की बहुत गहरी धारणा पैदा हुई। हमने तो उसके बहुत चार-पांच इसलिए कि दाम घटते-बढ़ते रहते हैं! बाकी इससे दुरुपयोग किए, लेकिन वह धारणा बड़ी गहरी है। वह यह कहती ज्यादा का सामान नहीं है आदमी के पास। हालांकि मर जाए, तो | है कि मैं हूं ही नहीं, भाग्य है। न मालूम कौन मुझे पैदा कर देता, न इतना पैसा भी मिल नहीं सकता। पांच रुपए में भी कोई खरीदने को | | मालूम कौन मुझे चलाता, न मालूम कौन मुझे विदा कर देता। मैं राजी नहीं होगा। क्योंकि वह सामान भी इतना उलझा हआ है कि कुछ भी नहीं है। उसको निकालने में बहुत रुपए लग जाएं। वह पांच रुपए के लायक | एक सूखा पत्ता हवाओं में उड़ता हुआ। हवाएं जहां ले जाती हैं,
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गीता दर्शन भाग-20
चला जाता है। पत्ते की कोई आवाज नहीं, पत्ते की कोई पूछ नहीं। | अगर, तो भीतर कर्ता को न बचा सकेंगे। वह गिर जाएगा। भीतर पत्ता कहे कि मुझे पूरब जाना है; कोई सुनता ही नहीं। पत्ता पश्चिम कर्ता को विदा कर दें, तो बाहर कर्म को न बचा सकेंगे; वह खो चला जाता है! पत्ता कहे, मुझे जमीन पर विश्राम करना है, हवाएं | जाएगा। कर्म-संन्यास की जो बहिर्व्याख्या है, वह कर्म-त्याग है। उसे आकाश में उठा देती हैं। तो नियति की एक धारणा है. वह हिंदू कर्म-संन्यास की जो अंतर्व्याख्या है, वह कर्ता-त्याग है। विचार की बहुत गहरी धारणा है।
बुद्ध ने शून्य का प्रयोग किया, हिंदू विचार ने नियति का प्रयोग किया। और कहा कि सब नियंता के हाथ में है। पता नहीं कौन प्रश्नः भगवान श्री, इसी संबंध में एक बात और. स्पष्ट
अज्ञात, कोई अननोन शक्ति भेज देती है, वही बुला लेती है। जब कर लेने को है। कृष्ण कर्म-संन्यास अर्थात कर्मों में हम कुछ हैं ही नहीं, तो हम नाहक क्यों इतराए हुए घूमें? क्यों | कर्तापन के त्याग को अर्जुन के लिए कठिन बता रहे परेशान हों? परमात्मा है, उसके हाथ में छोड़ देते हैं। तब कर्ता शून्य हैं। तथा निष्काम कर्मयोग को सरल बता रहे हैं। हो जाता है। जब हम कुछ करने वाले नहीं, तो जो उसकी मर्जी है, कृपया स्पष्ट करें कि कर्मों में कर्तापन के त्याग के वह करा लेता है। नहीं मर्जी है, नहीं कराता है। ऐसा जो अपने को बिना निष्काम कर्म कैसे संभव होता है? छोड़ दे पूरी तरह समर्पण में, तो भी कर्ता खो जाता है।
तीसरा एक रास्ता और है। और वह तीसरा रास्ता है, उसको जान लेने का, जो हमारे भीतर है। कृष्ण का वही रास्ता है, उसको जान कष्ण अर्जुन से कह रहे हैं कि यह जो उन्होंने लेने का, जो हमारे भीतर है। महावीर का भी वही रास्ता है। yा कर्म-संन्यास की बात कही है, यह कठिन है। और
निरंतर कहे चले जाते हैं, मैं, मैं, मैं। बिना इसकी फिक्र किए कि ८ निष्काम कर्म की जो दूसरी पद्धति कही है, वह सरल यह मैं कौन है ? क्या है? इसका हम कोई पता नहीं लगाते। भीतर | | है। निष्काम कर्म की पद्धति में कर्म भी नहीं छोड़ना पड़ता, कर्ता प्रवेश करें। इसके पहले कि मैं कहें, ठीक से जान तो लें, यह मैं | भी नहीं छोड़ना पड़ता। न कर्म के त्याग का सवाल है, न कर्ता के किसको कह रहे हैं। जितने भीतर जाते हैं, उतना ही मैं खोता जाता त्याग का सवाल है। प्राथमिक शर्त नहीं है वह। निष्काम कर्मयोग' है-जितने भीतर। जितने ऊपर आते हैं, उतना मैं होता है। जितने में सिर्फ कर्म के फल को छोड़ना पड़ता है—सिर्फ कर्म के फल भीतर जाते हैं, उतना मैं खोता जाता है। एक घड़ी आती है कि आप को। यद्यपि कर्म का फल जिस दिन छुट जाता है, उस दिन कर्ता तो होते हैं और मैं बिलकुल नहीं होता। एक ऐसा बिंदु आ जाता है छूट जाता है। लेकिन वह परिणाम है। भीतर, जो बिलकुल ईगोलेस, बिलकुल मैं शून्य है; जहां मैं की | कर्म-संन्यास में जो पद्धति सीढ़ियां बनाती है, निष्काम कर्मयोग कोई आवाज ही नहीं उठती।
में वह पद्धति परिणाम में आती है। फल छोड़ दो! फल छूटा, तो उसको जान लें, तो कर्ता खो जाता है। क्योंकि उसको जान लेने | कर्ता नहीं बचता है। और जब कर्ता न बचे, तो कर्म अभिनय रह के बाद मैं का भाव नहीं उठता; और मैं का भाव न उठे, तो कर्ता जाता है, खेल। दसरों के लिए. अपने लिए नहीं। अपने लिए निर्मित नहीं होता। कर्ता के निर्माण के लिए मैं का भाव अनिवार्य | | समाप्त हुआ। है। मैं की ईंट के बिना कर्ता का भाव निर्मित नहीं होता। ठीक ऐसे ही, जैसे पिता अपने बच्चे के साथ खेल रहा है।
ये तीनों एक अर्थ में एक ही बात हैं। चाहे जान लें कि मैं कुछ उसकी गुड़िया को सजा रहा है, उसके गुड्डे को तैयार करवा रहा है। भी नहीं है, तो भी कर्ता गिर जाता है। जान लें कि परमात्मा सब | बारात निकलवा रहा है। उसके लिए खेल है अब। बच्चे के लिए कुछ है, तो भी कर्ता गिर जाता है। जान लें कि मैं ऐसी जगह हं, | खेल नहीं है। खेल में सम्मिलित है, सम्मिलित होने से बिलकुल जहां मैं है ही नहीं, तो भी कर्ता गिर जाता है। तीनों स्थितियों से कर्ता | सम्मिलित नहीं है। सम्मिलित है पूरा, पर कहीं भी इनवाल्व्ड, कहीं शून्य हो जाता है। भीतर कर्ता शून्य होता है, बाहर कर्म गिर जाते भी डूबा हुआ नहीं है। मौज से खेल रहा है। बच्चा तो बहुत उद्विग्न हैं। वह उसका ही दूसरा हिस्सा है।
| और परेशान रहेगा कि पता नहीं गुड्डा ठीक बनता है कि नहीं! कोई दोनों तरफ से चल सकते हैं। बाहर कर्म को छोड़ दें पूरी तरह वधू राजी होती है कि नहीं। पता नहीं शादी निपट पाएगी ठीक से
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• वासना अशुद्धि है
कि नहीं निपट पाएगी! कोई अड़चन तो नहीं आ जाएगी! कोई ग्रह, इसलिए जिनको भी फल मिल सकता है बिना कर्म के, वे जरूर मंगल बाधा तो नहीं देंगे। कोई पंडित पत्री में उपद्रव तो खड़ा नहीं फल को बिना कर्म के पाने की कोशिश करेंगे। जो विद्यार्थी बिना करेगा! बच्चा बहुत चिंतित है। उसके लिए खेल नहीं है। उसके । पढ़े पास हो सकता है, वह पढ़ना छोड़ देगा। अगर सरल कर्म से लिए मामला गंभीर है; काम है। बाप मजे से खेल रहा है साथ में। काम हो सकता है, कि शिक्षक को जरा छुरा दिखाने से काम हो कर्म तो कर रहा है, भीतर कर्ता बिलकुल नहीं है।
सकता है, तो सरल कर्म कर लेगा। चोरी से हो सकता है, तो उससे कर्म तो कर रहा है, कर्ता क्यों नहीं है? क्योंकि बच्चा फल में कर लेगा। सालभर का उपद्रव छोड़ देगा, दो-चार दिन में हो सकता उत्सुक है, एक्साइटेड है, उत्तेजित है। सांझ बैंड-बाजे बजेंगे, है, उससे कर लेगा। रिश्वत से हो सकता है, उससे कर लेगा। बारात निकलेगी। भारी काम उसके सिर पर है। सब ठीक से निपट किसी का भी रस कर्म में नहीं है। ध्यान रहे, दुनिया में रिश्वत न जाए, इसकी चिंता है। सारे मित्र इकट्ठे होने वाले हैं, कोई भूल-चूक हो, बेईमानी न हो, अगर लोगों का रस कर्म में हो। रस तो है फल न हो जाए। चिंतित है, उद्विग्न है, परेशान है। हो सकता है, रातभर | में, तो फल फिर जैसे मिल जाए, उससे ही आदमी पा लेता है। और नींद न आए। रातभर सपने में भी शादी करे, तैयारियां करे। | कम कर्म से मिल जाए, तो और बेहतर है। खुशामद से मिल जाए, उठ-उठकर बैठ जाए। यह सब हो सकता है। लेकिन पिता भी वही और बेहतर। तैयारी कर रहा है, लेकिन कोई फल का सवाल नहीं है। सांझ क्या मंदिर में जाकर लोग परमात्मा के सामने खुशामद कर रहे हैं, होगा, इससे कोई मतलब नहीं है। खेल है, फल का कोई सवाल | स्तुति कर रहे हैं, रिश्वत का वचन दे रहे हैं कि एक नारियल चढ़ा नहीं है।
देंगे पांच आने का, जरा लड़के को पास करा दो! पक्का रहा, पांच कृष्ण कहते हैं, दूसरी बात अर्जुन, सरल है कि तू फल का आने का नारियल जरूर देंगे। 'खयाल छोड़ दे और कर्म में लगा रह।
अब जिसके पास सब कुछ हो, उसको आप पांच आने का फल का खयाल छोड़ते ही कर्ता तो गिर जाएगा। क्योंकि फल नारियल और देने का वायदा कर रहे हैं। अगर मान जाए, तो बुद्ध अगर न हो, तो कर्ता को कोई मजा ही नहीं है; उसको बचने का | | है। अगर परमात्मा आपकी मान जाए पांच आने के नारियल से, तो कोई रस नहीं है। मैं कर्म करने से नहीं बचता हूं; मैं बचता हूं, कर्म बुद्ध है निपट! लेकिन बुद्ध आप ही हैं। क्या देने गए हैं? क्या से जो मिलेगा. उसकी आकांक्षा से. उसको पाने से, उसको इकट्ठा रिश्वत बता रहे हैं? करने से। मेरा जो लोभ है, वह फल के लिए है।
इसलिए भारत जैसे मुल्क में इतनी रिश्वत बढ़ सकी, उसका अगर आपको कोई कहे कि आप जो कर्म कर रहे हैं, यह बिना कारण है गहरे में कि हम तो रिश्वत देने वाली पुरानी कौम हैं। हम किए आपको फल मिल सकता है, आप कर्म करने को राजी नहीं तो भगवान को सदा से-जब भगवान तक रिश्वत में पांच आने होंगे। आप कहेंगे, बिलकुल ठीक। यही तो हम पहले से चाहते थे। के राजी होता है, तो डिप्टी कलेक्टर नहीं होगा? तो कोई डिप्टी नहीं मिल सकता था बिना कर्म के, इसलिए कर्म करते थे। अगर कलेक्टर भगवान से बड़ी चीज है? कि कोई मिनिस्टर कोई भगवान बिना कर्म के मिल सकता है, तो सिर्फ पागल ही कर्म करने को | से बड़ी चीज है? अरे! हम भगवान को भी रास्ते पर ले आते हैं राजी होगा। हम अभी तैयार हैं।
पांच आने का नारियल चढ़ाकर! मिनिस्टर है बेचारा! इसको तो आपकी उत्सुकता कर्म में नहीं है; कर्म मजबूरी है। आपकी | | निपटा ही लेंगे। और जब मिनिस्टर देखता है कि भगवान तक नहीं उत्सुकता फल में है। फल आकांक्षा है, कर्म मजबूरी है। कर्म करना | | छोड़ रहे हैं नारियल, तो हम काहे को छोड़ें! पड़ता है, क्योंकि उसके बिना फल नहीं है। फल मिल जाए बिना और अगर किसी दिन कोई दिक्कत भी आई भगवान के सामने, कर्म के, तो कर्म फौरन छोड़ देंगे आप।
| तो कह देंगे कि तुम तो हजारों साल से ले रहे हो; हमने तो कर्ता का रस कहां है, कर्म में या फल में ? कर्ता का रस फल में | | अभी-अभी, अभी यही कोई बीस साल पहले शुरू किया। इतना है। दिखता है जुड़ा हुआ कर्म से, असल में जुड़ा है फल से। कर्ता | अनुभव भी नहीं है। और तुम तो सदा से बैठे हो सिंहासन पर, तुम्हें जो है, वह एरोड टुवर्ड्स दि रिजल्ट। उसका तीर जो है, वह हमेशा | कोई जल्दी भी नहीं है। हमारे सिंहासन का कोई भरोसा ही नहीं है। फल की तरफ है। कर्म की तरफ तो मजबूरी है।
तो जितनी जल्दी ले लें, ले लेते हैं।
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गीता दर्शन भाग-20
यह जो हमारा चित्त है, वह सदा फल के लिए उत्सुक है। | हो जाता है, जिसमें अब कोई फर्क नहीं पड़ेंगे! जिंदगी, जब हम इसलिए कछ भी कर्म से बच सके और फल मिल जाए तो हम ले पाते हैं जीने के लिए. खडे होते हैं. तब तक करीब-करीब हमारे लेंगे। इसलिए कृष्ण कहते हैं कि निष्काम कर्मयोग चिंता नहीं करता | भीतर तय हो गई होती है। उसका एक पैटर्न, उसका एक ढांचा कि तुम कर्म छोड़ो। वह चिंता करता है कि तुम फल छोड़ो। तुम | निर्मित हो गया होता है। फल की फिक्र छोड़ दो।
अर्जुन आज युद्ध के मैदान पर खड़ा है, कोरी स्लेट की तरह और फल की फिक्र दो तरह से छोड़ी जा सकती है। एक रास्ता | नहीं। अगर कोरी स्लेट की तरह होता, तो कृष्ण उससे कहते कि ये तो यह है कि हम मान लें कि परमात्मा है; जो उसकी मर्जी। वह दो रास्ते हैं, तू कोई भी लिख ले; दोनों ही सरल हैं। क्योंकि तेरी नियतिवादी जो मैंने बात कही, जो मानता है कि नियति है, परमात्मा | स्लेट कोरी है। कुछ भी लिख। जो भी लिखेगा, वही काम दे को फल देना है, देगा; नहीं देना है, नहीं देगा। जो नियति की धारणा जाएगा। लेकिन अर्जुन कोरी स्लेट की तरह नहीं खड़ा है। बहुत से जीता है गहरे में, वह छोड़ पाता है। वह कहता है, ठीक है; फल | | कुछ लिखा जा चुका है। जगह अब कुछ और लिखने को है नहीं; हमारे हाथ में नहीं है; परमात्मा जाने। हम ही हमारे हाथ में नहीं हैं, | भरा हुआ खड़ा है। क्षत्रिय होना निर्णीत हो चुका है। क्षत्रिय होना तो फल भी हमारे हाथ में कैसे हो सकता है?
| उसका पूरा हो चुका है। अब उसको ब्राह्मण बनाने की कोशिश बड़ी __ या फिर वह फल छोड़ देता है, दूसरा, जो कि मानता है कि मैं | | उपद्रव की है। तो हूं ही नहीं। मिट्टी का जोड़ हूं। मुझसे क्या फल आएगा! मैं क्या | ब्राह्मण बनाने का मतलब है, नई, अब स से शुरू करनी पड़ेगी फल निकाल पाऊंगा! ना-कुछ हूं, मुझसे कुछ भी निकलने वाला यात्रा। अर्जुन को अगर वापस उसकी मां के पेट में, गर्भ में ले जाया नहीं है। बुद्ध का मार्ग है, वह कहता है, कुछ निकलने वाला नहीं जा सके, तो फिर से बात हो सकती है। अन्यथा नहीं हो सकती है। है, इसलिए फल छोड़ देता है। मैं ही नहीं हूं, तो फल लेगा कौन? | | या फिर उसका परा ब्रेनवाश करना पडे। तब कष्ण के वक्त में इसलिए फल छोड़ देता है।
उसका उपाय नहीं था; अब है। उसकी खोपड़ी बिलकुल साफ तीसरा भी मार्ग है, वह कृष्ण का मार्ग या महावीर का मार्ग, कि करनी पड़े बिजली के धक्कों से। हालांकि जरूरी नहीं है कि खोपड़ी पीछे भीतर प्र
प्रवेश करता है और उसको खोज लेता है, जिसे किसी साफ करने के बाद वह कोई बेहतर आदमी बन सके। जरूरी नहीं फल की जरूरत नहीं है। उसे खोज लेता है, जिसे सब मिला ही है। बहुत डर तो यही है कि वह आदमी सदा के लिए लंगड़ा हो हुआ है। इसलिए कोई मांग नहीं रह जाती। तो भी फल गिर जाता जाए। क्योंकि तीस साल की उम्र में अगर हम किसी आदमी के है। फल गिर जाए, तो कर्ता खो जाता है। लेकिन निष्काम कर्म में | मस्तिष्क को फिर से साफ करें, तो उसकी उम्र तो तीस साल होगी कर्म बना रहता है और कर्म-संन्यास में कर्म भी गिर जाता है, उतना और पहले दिन के बच्चे जैसा व्यवहार करेगा। बहुत उपद्रव का ही फर्क है।
मामला है। अर्जुन से कहते हैं कृष्ण कि सरल है निष्काम कर्म। अर्जुन को तो अर्जुन एक सुनिश्चित व्यक्तित्व लेकर खड़ा है, एक देखकर कहते हैं, मैं फिर दोहरा दूं। जरूरी नहीं है कि आपके लिए | पर्सनैलिटी है उसके पास। तो जब कृष्ण उससे कहते हैं कि अर्जुन, भी सरल हो। अर्जुन से कहते हैं कि तेरे लिए सरल है अर्जुन, | तू जो कि कर्म में ही जीया और बड़ा हुआ है, कर्म ही जिसका निष्काम कर्म। अर्जुन के लिए आसान है फल को छोड़ना। कर्म को | | स्वभाव है, कर्म के बिना जिसने कभी कुछ न जाना, न सोचा, न छोड़ना कठिन है।
| किया। जिसके व्यक्तित्व की सारी गरिमा उसके कर्म के शिखर पर इसके लिए दो-तीन बातें खयाल में ले लें।
है। जिसका सारा गौरव, जिसकी सारी चमक, जिसकी सारी मां के पेट में सात महीने का बच्चा करीब-करीब पच्चीस | | सफलता उसके कर्म की कुशलता है। इस आदमी को कृष्ण कहते प्रतिशत निर्मित हो जाता है; पच्चीस प्रतिशत। बाकी पचहत्तर | हैं कि तेरे लिए सरल है कि तू फल को छोड़ दे। प्रतिशत बाकी सत्तर साल में निर्मित होगा। सात महीने का बच्चा और ध्यान रखें, क्षत्रिय के लिए फल को छोड़ना आसान है, कर्म पच्चीस प्रतिशत बिलकुल निर्मित हो जाता है, जिसमें अब कोई | | को छोड़ना कठिन है। क्षत्रिय के लिए फल को छोड़ना आसान है, अंतर नहीं पड़ेंगे। सात साल का बच्चा तो पचहत्तर प्रतिशत निर्मित कर्म को छोड़ना कठिन है। ब्राह्मण के लिए कर्म को छोड़ना आसान
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वासना अशुद्धि है -
है, फल को छोड़ना कठिन है। व्यक्तित्व की बनावटें हैं। और उसकी कला है।
ब्राह्मण वैसे ही कर्म में नहीं होता। ब्राह्मण कर्म के जाल के बाहर समुराई के युद्ध का जो सूत्र है, वह यह है कि जब तुम तलवार खड़ा रहता है। समाज ने फल उसके लिए निश्चित कर रखा था। चलाओ, तब तलवार ही बचे, तुम न बचो। तलवार ही चले। तुम फल से वह राजी था। कर्म वह सदा से छोड़े हुए था। यद्यपि थोड़ा तो अपने को छोड़ो। तलवार ही हो जाओ। और यह भी मत सोचना कर्म करने से ज्यादा फल मिल सकता था, लेकिन नहीं, वह बहुत | कि एक क्षण बाद क्या होगा, क्योंकि एक क्षण के बाद का तुम थोडे फल से राजी था. लेकिन कर्म की झंझट में नहीं था। कर्म | सोचोगे, तो तुम्हारे सामने की तलवार तुम्हारी गर्दन काट जाएगी। छोड़कर खड़ा था।
तुम तो अभी देखना, जो हो रहा है। एक क्षण के बाद भी हटे, चेतना __ अब महावीर या बुद्ध कर्म करें, तो क्या पैदा नहीं कर ले सकते इतनी भी हटी, कि चूके। हैं। लेकिन महावीर या बुद्ध भिक्षा का पात्र लेकर दो रोटी भीख मांग तो अगर दो समुराई कभी युद्ध में पड़ जाएं, तो बड़ा मुश्किल हो लेते हैं। उतने से तृप्त हैं। ब्राह्मण इस देश का सदा से कर्म छोड़कर जाता है। युद्ध निर्णायक नहीं हो पाता। बड़ी कठिनाई हो जाती है, जीया है। थोड़े-से फल से राजी है, अल्प फल से राजी है। कर्म के क्योंकि दोनों उसी क्षण में जीते हैं। जो भी आगे की सोचता है, वही छोड़ने में उसे कोई कठिनाई नहीं है।
हार जाता है। क्षत्रिय फल को बिलकुल छोड़ सकता है, लेकिन कर्म को नहीं | तो क्षत्रिय के लिए सरल है कि फल की फिक्र छोड़ दे। वैश्य के छोड़ सकता। क्षत्रिय के लिए सवाल यह नहीं है कि हारूंगा या | लिए सरल नहीं है कि फल की फिक्र छोड़ दे। वैश्य कह सकता है, जीतूंगा। क्षत्रिय के लिए यह भी सवाल नहीं है कि विजय मिलेगी | कर्म छोड़ सकते हैं। फल! फल जरा छोड़ना मुश्किल है। क्षत्रिय या हार हो जाएगी। क्षत्रिय के लिए सवाल यह है कि मैं लड़ा या कह सकता है, फल छोड़ सकते हैं। लेकिन कम! कम छोड़ना जरा नहीं लड़ा। क्षत्रिय को अंततः निर्णय इससे होगा कि वह लड़ा या| मुश्किल है। ट्रेनिंग है, प्रशिक्षण है। नहीं लड़ा। लड़ने से भागा तो नहीं! क्षत्रिय अगर लड़ते हुए मर ___ तो कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं कि तेरे लिए सुगम है, सरल है, जाएगा, तो भी भागे हुए क्षत्रिय से ज्यादा शांति से मरेगा। कर्म से | फल की आकांक्षा छोड़, युद्ध में उतर जा। कर्म पूरा कर और शेष नहीं भागा; कर्म से नहीं हटा। लड़ लिया। जो कर सकता था, वह प्रभु पर छोड़ दे। तेरे लिए पहली बात आसान नहीं है कि तू कहे कि किया। जो हो सकता था, वह हुआ। फल का कोई बड़ा सवाल नहीं मैं कर्म छोड़कर चला जाऊं। है उसके लिए।
अगर यह अर्जुन कर्म छोड़कर चला भी जाए, मान लें एक क्षण और क्षत्रिय अगर फल की सोचे, तो क्षत्रिय नहीं हो सकता। को कि गीता यहीं समाप्त हो जाती है और अर्जुन छोड़कर चले जाते क्योंकि युद्ध के क्षण में फल को भूल जाना पड़ता है। दुकान एक हैं जंगल में। क्या करेंगे? कोई आसनी बिछाकर किसी झाड़ के बात है, युद्ध दूसरी बात है। दुकान पर आप बैठकर आराम से सोच नीचे ध्यान करेंगे? ध्यान भी करेंगे, तो पास की झाड़ी में चलता सकते हैं कि क्या लाभ होगा, क्या हानि होगी। क्योंकि कर्म कोई हुआ शेर दिखाई पड़ेगा। धनुष-बाण खींच लेंगे। पक्षी सुनाई पड़ेंगे जान नहीं ले रहा है अभी आपकी। ग्राहक कोई आपकी गर्दन नहीं वृक्ष पर; याद आएगी बचपन की कि निशानेबाज था। आंख ही पकड़े हुए है। ग्राहक सामने बैठा है; आप सोच सकते हैं। आज दिखाई पड़ती थी मुझे। और मेरे सारे साथियों को पूरा पक्षी दिखाई नहीं करेंगे सौदा, कल कर लेंगे। क्षत्रिय के सामने तो कर्म इतना पड़ता था। गुरु द्रोण ने कहा था कि तू ही एक धनुर्धर है। यह याद प्रखर है कि अगर वह फल को सोचने में चला जाए, चूक जाए, आएगा। यह ट्रेनिंग है उसकी। ज्यादा देर ध्यान-व्यान नहीं करेगा, तो गर्दन कट जाए। उसको तो कर्म में ही होना चाहिए। बहुत जल्दी शिकार करने में लग जाएगा। आदमी वैसा है।
इसलिए जापान में, जहां कि क्षत्रियों का शायद आज की दुनिया कृष्ण उसे भलीभांति पहचानते हैं। कृष्ण उसके मन में गहरे में जीवित वर्ग है, समुराई। सारी पृथ्वी पर क्षत्रियों का एकमात्र, | देखते हैं कि वह आदमी कैसा है। वह लड़ने का कोई न कोई उपाय ठीक जैसा कि अर्जुन रहा होगा। अर्जुन को मैं समुराई कहता हूं! खोज लेगा जंगल में। वह कोई न कोई उपद्रव में पड़ेगा। वह बिना कभी समुराई हमने पैदा किए थे। अब वे नहीं हैं। जापान में एक | लड़े नहीं जी सकेगा। क्योंकि बिना लड़े तलवार पर जंग चढ़ छोटा-सा वर्ग है, समुराई। लड़ना ही उसका जीवन, उसका आनंद जाएगी। बिना लड़े क्षत्रिय पर भी जंग चढ़ जाती है। उसकी तो धार,
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गीता दर्शन भाग-2
क्षत्रिय की धार तो उसके लड़ने में है।
मैंने सुना है कि एक समुराई तीस वर्ष तक एक ही तलवार से लड़ता रहा—एक ही तलवार से। और जब जापान के एक सम्राट ने उसे बुलाकर उसकी तलवार देखी, तो दंग रह गया। जैसे कल ही उस पर धार रखी गई हो! तो सम्राट ने पूछा कि क्या धार अभी रखवाई है? उसने कहा, समुराई को तलवार पर धार रखवानी नहीं पड़ती। लड़ने से रोज धार बनती रहती है। और जिस दिन समुराई को तलवार पर धार रखवानी पड़े, उस दिन वह गया, हारा। क्योंकि तलवार जंग खा गई, उतनी देर में समुराई भी जंग खा जाएगा।
अर्जुन तो तलवार की चमक है। उस पर जंग न चढ़ जाए। जंग उसको डुबा देगी। वह युद्ध भी खोएगा, क्षत्रित्व भी खोएगा, और ब्राह्मण हो नहीं सकता। उसके लिए अगले जन्म की प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। अगले जन्म में भी डर है। वह क्षत्रिय है। अगले जन्म में भी बहुत डर तो यह है कि क्षत्रिय ही होगा।
इसलिए कृष्ण उससे कहते हैं कि तुझे देखकर मैं कहता हूं कि तेरे लिए यही निज-धर्म है। तेरी यही निजता है, तेरी यही इंडिविजुअलिटी है। तू इसके लिए निर्मित हुआ है। यही तेरी निय है, यही तेरा भाग्य है कि तू लड़, तू कर्म में उतर । फल को जाने दे। फल हटा, कर्ता हट जाएगा, कर्म रह जाएगा। और अकेला कर्म रह जाए, तो निष्काम कर्म फलित हो जाता है।
अब पांच मिनट हम कीर्तन करेंगे। कोई उठे न। पांच मिनट संन्यासी जो देते हैं, उसे लेते हुए जाएं। उनका प्रसाद स्वीकार करें। कोई भी न उठे। पांच मिनट के लिए इतनी जल्दी न करें। और साथ दें। ताली तो बजा ही सकते हैं! आनंद में सम्मिलित हो जाएं।
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अध्याय 5 पांचवां प्रवचन
मन का ढांचाजन्मों-जन्मों का
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ॐगीता दर्शन भाग-20
नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित् । | अब तक विज्ञान यह भी मानने को राजी नहीं था कि एक तत्व है। पश्यऽशृण्वस्पृशञ्जिवनश्नन्गच्छन्स्वपश्वसन् ।।८।। वह कहता था, एक सौ आठ तत्व हैं। प्रलपन्विसृजनगृह्णन्नुन्मिपन्निमिषन्नपि।
ऊपर से देखने पर अनंत तत्व मालूम पड़ते हैं जगत में। तत्वों इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन् ।। ९ ।। के भीतर जब विज्ञान का प्रवेश हआ. तो पता चला कि सभी तत्व और हे अर्जुन, तत्व को जानने वाला सांख्ययोगी तो देखता एक ही तत्व के भिन्न-भिन्न रूप हैं। जैसे एक ही सोने के बहुत-से हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूंघता हुआ, भोजन आभूषण हों। रूप अलग हैं। वह जो रूपायित हुआ है, जो पीछे
करता हुआ, गमन करता हुआ, सोता हुआ, श्वास लेता छिपा है, वह एक है। इसे विज्ञान अब स्वीकार करता है कि वह हुआ, बोलता हुआ, त्यागता हुआ, ग्रहण करता हुआ तथा एक तत्व विद्युत ऊर्जा है, शक्ति है। अभी उसे धर्म की दूसरी बात
आंखों को खोलता और मींचता हुआ भी, सब इंद्रियां | से भी सहमत होना पड़ेगा। अब तक वह पहली बात से भी सहमत अपने-अपने अर्थों में बर्त रही है, इस प्रकार समझता हुआ | नहीं था कि तत्व एक है। वह कहता था, तत्व अनेक हैं। निःसंदेह ऐसे माने कि मैं कुछ भी नहीं करता हूं। अब तक विज्ञान प्लूरालिस्ट था, अनेक को मानता था। अब
| विज्ञान मानिस्ट हुआ, अब वह एक को मानने लंगा। वह कहता
है, एक ही ऊर्जा है। पानी में भी वही ऊर्जा है और पत्थर में भी वही न त्व को जानता हुआ पुरुष सब करते हुए भी ऐसा ही | ऊर्जा है। उस ऊर्जा के कणों का विभिन्न जमाव है। बस, उसका ही (1 जानता है, जैसे मैं कुछ भी नहीं करता हूं। इंद्रियां बर्तती सारा अंतर है। वह अंतर ठीक आभूषण जैसे सोने के विभिन्न जमाव
हैं अपने-अपने स्वभाव से। इंद्रियों के वर्तन को, तत्व से निर्मित होते हैं, वैसा ही अंतर है। और बहुत देर नहीं है कि एक को जानने वाला पुरुष, अपना कर्म नहीं मानता है। तत्व को जानने तत्व को हम अब दूसरे तत्वों में रूपांतरित कर सकेंगे। . वाला पुरुष कर्ता नहीं होता, वरन इंद्रियों के कर्मों का मात्र साक्षी | बहुत जमाने तक अल्केमिस्ट खोजते थे, कोई ऐसी तरकीब कि होता है।
जिससे लोहा सोना हो जाए। अब बहुत कठिन नहीं है। क्योंकि इसे दो-तीन आयामों से समझ लेना उपयोगी है। लोहा भी उसी ऊर्जा से बना है, जिससे सोना बना है। और लोहा
एक, तत्व को जानने वाला पुरुष। कौन है जो तत्व को जानता सोना बन सकता है और सोना लोहा बन सकता है। ज्यादा देर नहीं है? ध्यान रहे, कृष्ण नहीं कहते, तत्वों को जानने वाला पुरुष। है, मौलिक बात तय हो गई है कि दोनों को बनाने वाला संघटक कहते हैं, तत्व को जानने वाला पुरुष।
एक ही तत्व है। इसलिए रूपांतरण हो सकता है। तत्व एक ही है। वह जो जीवन के, गहन जीवन के प्राण में छिपा ऐसे भी आप देखते हैं, कोयले को पड़ा हुआ। सोचते न होंगे है, वह अस्तित्व एक ही है।
कि हीरा भी कोयला है। हीरा भी कोयला है! हीरा भी कोयले का हम साधारणतः पांच तत्वों की बात करते हैं, वे तत्व नहीं हैं। | ही रूप है। लाखों साल तक जमीन के नीचे गर्मी में दबा रहने पर मिट्टी है, पानी है, आग है, आकाश है, वायु है; वे वस्तुतः तत्व कोयला हीरे में रूपांतरित होता है। एक ही तत्व हैं; दोनों में कोई नहीं हैं। और विज्ञान तो एक सौ आठ तत्वों की बात करता है। | भी भेद नहीं है। लेकिन अब इधर विज्ञान को यह खयाल आना शुरू हुआ कि जो | | सारे तत्वों के भीतर एक है। धर्म की इस पहली घोषणा से विज्ञान उसने एक सौ आठ तत्व सोचे थे, वे कोई भी तत्व नहीं हैं। | रिलक्टेंटली, बहुत झिझकते-झिझकते राजी हो गया है। मजबूरी
विज्ञान भी एक सौ आठ तत्वों की लंबी संख्या के बाद एक नए | थी। विज्ञान सत्य को इनकार नहीं कर सकता है। अब दूसरा कदम नतीजे पर पहुंच रहा है और वह यह कि ये एक सौ आठ तत्व भी | | और शेष रह गया है। और वह कदम यह है कि वह एक तत्व चेतन एक ही तत्व के रूप हैं। उस तत्व को विज्ञान इलेक्ट्रिसिटी कहता | | है या अचेतन? अब तक विज्ञान माने चला जाता है कि वह अचेतन है, विद्युत कहता है। कृष्ण उस तत्व को विद्युत नहीं कहते, चेतना | | है। यह उसका दूसरा आग्रह है। पहला आग्रह था, अनेक हैं तत्व। कहते हैं, कांशसनेस कहते हैं। शायद बहुत शीघ्र विज्ञान को | वह गिर गया। दूसरा आग्रह अभी शेष है कि वह तत्व अचेतन है। स्वीकार कर लेना पड़ेगा कि वह तत्व चेतना ही है। क्यों? क्योंकि धर्म का खयाल है कि वह तत्व अचेतन नहीं है। और उसके
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मन का ढांचा-जन्मों-जन्मों का
कारण हैं। क्योंकि धर्म का खयाल है कि निकृष्ट से श्रेष्ठ अगर | | अगर छिपी न हो, तो प्रकट कहां से होगी! यह भी बिल्ट-इन है, जन्मता है, तो मानना होगा कि वह उसमें कहीं छिपा था, सदा | इसका भी पदार्थ में छिपा हुआ रूप है। फिर यह कहना गलत है मौजूद था। अगर बीज से वृक्ष पैदा होता है, तो चाहे दिखाई पड़ता | | कि पदार्थ में छिपी है, क्योंकि धर्म भी कहता है, एक ही तत्व है; हो और चाहे न दिखाई पड़ता हो. वक्ष बीज में छिपा था. और विज्ञान भी कहता है, एक ही तत्व है। पदार्थ में छिपी है, ऐसा पोटेंशियली मौजूद था। अन्यथा पैदा नहीं हो सकता है। यदि चेतना | कहने से दो तत्वों का खयाल आता है—पदार्थ है कुछ, चेतना पैदा हो रही है जगत में कहीं भी, और पदार्थ से ही पैदा हो रही है, | उसमें छिपी है। इसलिए विज्ञान के हिसाब से भी कहना ठीक नहीं तो समझना पड़ेगा कि वह पदार्थ में कहीं गहरे में छिपी है, मौजूद | | कि पदार्थ में छिपी है। धर्म के लिहाज से भी कहना ठीक नहीं कि है। उसकी मौजूदगी को इनकार करना अवैज्ञानिक है, वैज्ञानिक पदार्थ में छिपी है। फिर तो यही कहना ठीक है कि विज्ञान जिसे नहीं। जो भी प्रकट हो सकता है, वह छिपा है और मौजूद है। | विद्युत कहता है, धर्म उसे चेतना कहता है। और धर्म की बात ही अनमैनिफेस्टेड है, अव्यक्त है, अप्रकट है।
ज्यादा सही मालूम पड़ती है। क्योंकि जो प्रकट होता है, वह कहीं लेकिन विज्ञान कहता है कि एक ही चीज है अब जगत में, वह | | मौजूद होना चाहिए। अन्यथा वह प्रकट नहीं हो सकता है। है विद्युत ऊर्जा। और धर्म भी कहता है, एक ही चीज है जगत में, | | कृष्ण कहते हैं, जो इस एक तत्व को जानता है। वह है चेतना। यह चेतना अप्रकट हो सकती है विद्युत ऊर्जा में। ___ इसलिए तत्वों की बात उन्होंने नहीं कही। एक ही काफी है। मनुष्य में आकर विकसित होकर प्रकट हो जाती है।
| अज्ञानी बहुत चीजों को जानते हैं; ज्ञानी एक को ही जानता है। __ एक छोटा बच्चा है। वह कल जवान होगा, परसों बूढ़ा होगा। | इसलिए कई बार ऐसा हो सकता है कि अज्ञानी के साथ ज्ञानी परीक्षा
आज विज्ञान, मानता है कि जवान और बूढ़े होने का में हार जाए। बिल्ट-इन-प्रोग्रेम उसके जेनेटिक सेल में मौजूद है। वह जो बच्चे | अगर हम बुद्ध और महावीर को किसी अज्ञानी के साथ परीक्षा का पहला अणु है मां-बाप से मिला, उसमें उसकी पूरी जिंदगी का में बिठा दें, तो हार जाने का डर है! अज्ञानी बहुत चीजें जानता है। ब्लूप्रिंट, पूरा नक्शा मौजूद है। अन्यथा वह हो नहीं सकता। । | अगर अज्ञानी पूछने लगे कि आक्सीजन क्या है? तो बुद्ध जरा
एक बीज आप जमीन में गाड़ देते हैं। फिर उसमें से अंकुर | मुश्किल में पड़ेंगे। या अज्ञानी पूछने लगे कि साइकिल का पंक्चर निकलता है, फिर पत्ते आते हैं। बड़ी हैरानी की बात है कि इस बीज | कैसे जुड़ता है? तो महावीर को जरा अड़चन आएगी। और जरा में ठीक वैसे ही पत्ते आते हैं, जैसे इस बीज के पिता वृक्ष में थे। यह | | क्या, काफी अड़चन आएगी! साइकिल रिपेयरिंग से उनका कभी पत्तों का बिल्ट-इन-प्रोग्रेम अगर बीज के भीतर छिपा हुआ न हो, | | कोई संबंध नहीं रहा। तो बड़ा चमत्कार है। यह वैसे ही पत्ते वापस कैसे आ सकते हैं? | । अज्ञानी बहुत चीजें जानता है। एक को छोड़कर सब जानता है। या तो फिर यह बीज अदभुत होशियार है, या फिर इस बीज के पीछे ज्ञानी सबको छोड़ देता है और एक को जानता है। लेकिन उस एक कोई बहुत बड़ा जादूगर बैठा है। इस बीज में भी वैसे ही फूल | | को जानकर वह सब जान लेता है। और अज्ञानी सबको जानकर लगेंगे, जैसे उस वृक्ष में लगे थे, जिससे यह बीज आया है। वे ही कुछ भी नहीं जानता है। वृक्ष की पत्तियां होंगी, वे ही शाखाएं होंगी। वही फैलाव होगा। वही | | इसलिए कृष्ण कहते हैं, एक को जान लेता है जो-एक तत्व रूप-रंग होगा। वही फूल फिर से खिलेंगे। और इस एक बीज से | | को-ऐसे ज्ञानवान व्यक्ति को, ऐसे सांख्य को उपलब्ध व्यक्ति फिर करोड़ों बीज पैदा होंगे—वही बीज, जिनसे यह पैदा हुआ था। | को, इंद्रियों का कर्म अपना किया हुआ नहीं, इंद्रियों का ही किया इस बीज के भीतर बिल्ट-इन, छिपा हुआ प्रोग्रेम है। हुआ मालूम पड़ता है।
वैज्ञानिक आज कह सकते हैं कि बीज में वृक्ष पूरी तरह छिपा ___ यह दूसरी बात समझ लेनी जरूरी है। हुआ है। प्रकट होने की देर है। समय लगेगा प्रकट होने में। लेकिन इंद्रियां आपके काम कर रही हैं, लेकिन निरंतर आप एक भ्रांत जो प्रकट होगा, वह मौजूद था। कह सकते हैं, बीज वृक्ष है, | | आइडेंटिटी, एक झूठा तादात्म्य कर लेते हैं और सोचते हैं, मैं कर अदृश्य; और वृक्ष बीज है, दृश्य हो गया।
| रहा हूं। जब आपको भूख लगती है, तब आप कहते हैं, मुझे भूख लेकिन इतनी जगत में चेतना दिखाई पड़ती है, यह पदार्थ में लगी है। कृपा करके फिर से सोचना, भूख आपको लगती है या पेट
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गीता दर्शन भाग-20
को लगती है? भूख आपको लगती है या आपको पता चलती है? ___ इंद्रियों से यह जोड़ तोड़ देना पड़ेगा। इसे तोड़ने के दो उपाय हैं।
इन दोनों में फर्क है। भूख का लगना एक बात है, भूख का पता | | एक तो निरंतर खयाल रखें कि जो इंद्रियों को हो रहा है, वह इंद्रियों लगना दूसरी बात है। आपके पेट में जब भूख लगती है, तब | को हो रहा है; आपको नहीं हो रहा है। इसकी रिमेंबरिंग चाहिए आपको पता चलता है कि भूख लगी है। लेकिन भूख तो पेट को | | निरंतर, सतत स्मरण कि भूख पेट को लगी है; दर्द पैर में हो रहा ही लगती है। और पेट को जरा से में धोखा दिया जा सकता है। | है; कांटा हाथ में चुभा है; शरीर थक गया है। निरंतर, जिन-जिन
और आपकी भूख मिट जाएगी। एक शक्कर की गोली आपके पेट | क्रियाओं के पीछे आप निरंतर मैं का उपयोग करते हैं, बड़ी कृपा में डाल दी जाए, पेट धोखे में आ जाएगा। भूख मर जाएगी। आप | होगी, उसके पीछे उनसे संबंधित इंद्रियों का उपयोग करें। कहें कि कहेंगे, भूख खतम हो गई। शक्कर की गोली से भूख खतम नहीं पैर थक गया है। होती। सिर्फ शक्कर की गोली से पेट खबर देना बंद कर देता है कि और हैरानी होगी, यह बात अनुभव करने से फर्क मालूम पड़ेगा। भूख लगी है। खबर आपको नहीं मिलती; भूख खतम हो जाती है। जब आप कहेंगे, पैर थक गया है, तो इसका परिणाम चित्त पर
भूख तो लगती है पेट को। पेट की इंद्रिय को भूख लगती है। | बिलकुल दूसरा होगा, बजाय उसके, जब आप कहते हैं, मैं थक लेकिन आप कहते हैं, मुझे भूख लगी। कान को सुनाई पड़ता है, गया है। मैं बहत बडी चीज है। पैर बहुत छोटी चीज है। पैर के थकने आप तो सिर्फ जानते हैं कि कान को सुनाई पड़ा। लेकिन आप कहते | से जरूरी नहीं है कि मैं थक जाऊं। मैं बहुत ही और हूं। पैर से अपने हैं, मुझे सुनाई पड़ता है। आंख से दिखाई पड़ता है, आपको तो पता को थोड़ा अलग करके देखना शुरू करें। इंद्रियों से थोड़ा दूर खड़े चलता है कि आंख को दिखाई पड़ता है। आपको दिखाई नहीं | होकर देखना शुरू करें। जैसे-जैसे यह समझ गहरी होगी, वैसे-वैसे पड़ता। लेकिन आप कहते हैं, मुझे दिखाई पड़ता है। | लगेगा, इंद्रियां अपना काम करती हैं। मैं कोई कर्ता नहीं हूं।
प्रत्येक इंद्रिय से हम अपने को जोड़ लेते हैं। असल में बहुत एक झेन फकीर से किसी ने जाकर पूछा, आपकी साधना क्या निकट है इंद्रिय, इसलिए जोड़ना आसानी से हो जाता है। आप है? उसने कहा, जब भूख लगती, तब मैं खाना दे देता हूं। जब नींद चश्मा लगाए हुए हैं। चश्मे से आपको दिखाई पड़ता है, तो भी आप | आती है, तो मैं बिस्तर लगा देता हूं। तो उस आदमी ने पूछा, सोचते हैं, मुझे दिखाई पड़ता है। चश्मे को दिखाई पड़ता है। चश्मे किसके लिए? तो झेन फकीर ने कहा, जिसको नींद आती है, उसके से आंख को दिखाई पड़ता है। आंख से आपको पता चलता है कि | लिए; जिसको भूख लगती है, उसके लिए। उस आदमी ने पूछा, दिखाई पड़ रहा है। लेकिन चश्मा अलग हटाकर देखें, तब आपको आप किस तरह की बातें कर रहे हैं! इस मकान में, इस झोपड़े में पता चलेगा। तब आपको पता चलेगा कि नहीं, अब मुझे दिखाई आप अकेले ही दिखाई पड़ते हैं, और तो कोई भी नहीं है! नहीं पड़ रहा। आप तो वहीं हैं, बीच से चश्मा हट गया। आंख बंद उस फकीर ने कहा, जब मैं अज्ञानी था, तब मुझे भी एक ही कर लें; आप तो अब भी वहीं हैं, जहां आंख खुली थी तब थे | | दिखाई पड़ता था इस झोपड़े में। अब मुझे दो दिखाई पड़ते हैं। एक
देखाई नहीं पड़ रहा है। दिखाई आंख से पड़ता है। मैं. जो जानने वाला है और एक वह. जो करने वाला है। जिसे आंख यंत्र है, उपकरण है। सारी इंद्रियां काम करती हैं और आप | भूख लगती है, वह मैं नहीं हूं। जिसे नींद आती है, वह मैं नहीं हूं। अपने को जोड़ लेते हैं कि मैं। मुझे दिखाई पड़ता है; मुझे सुनाई | | जो थक जाता है, वह मैं नहीं हूं। जो देखता है, जो सुनता है, वह पड़ता है; मुझे भूख लगती है; मुझे प्यास लगती है। | मैं नहीं हूं। अब इस कमरे में एक वह भी है, जो थकता है; और
ते हैं. जो उस एक तत्व को जान लेता है. वह यह भी एक वह भी है. जो कभी नहीं थका। एक वह भी. जो दखी और जान लेता है, इंद्रियां अपना काम कर रही हैं, मैं कर्ता नहीं हूं। और | | सुखी होता रहता है और एक वह भी, जो कभी दुखी और सुखी इसलिए कई बार ऐसा भी हो जाता, कई बार ऐसा भी हो जाता है | नहीं हुआ। कि इन इंद्रियों के साथ निरंतर तादात्म्य के कारण आप अपने को | | कृष्ण कहते हैं, ऐसा व्यक्ति इंद्रियों के काम को इंद्रियों का काम यही समझ लेते हैं कि मैं इंद्रियों का जोड़ मात्र हूं। इंद्रियों का जोड़ समझता है। जोड़ता नहीं अपने को, अलग जानता है। जितना यह मात्र! फिर उसका कभी पता नहीं चलता, जो जोड़ के पार है। जो | | ज्ञान बढ़ता जाता है कि मैं पृथक हूं, उतना ही इंद्रियां मालिक नहीं ट्रांसेंडेंटल है, उसका कभी पता नहीं चलता। .
| रह जातीं; गुलाम हो जाती हैं। उतना ही शरीर पर वश, शरीर की
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मन का ढांचा-जन्मों-जन्मों का
मालकियत आ जाती है।
मैंने सुना है, एक दिन एक आदमी ने अपने मकान को पोतने के लेकिन हम सारे लोग दुनिया में दूसरों की मालकियत करने में | | लिए एक आदमी को ठेका दिया है। दो रुपया घंटे से वह मकान समय गंवा देते हैं, अपनी मालकियत का खयाल ही नहीं आ पाता।। | पोतने का ठेका देकर गया है। जब सांझ को वापस लौटा, तो देखा दूसरों की मालकियत! लेकिन ध्यान रहे, दूसरों की कितनी ही कि वह आदमी झाड़ के नीचे आराम से लेटा हुआ है। उसने पूछा मालकियत आप कर लें, मालिक आप कभी न हो पाएंगे। मालिक | कि क्या कर रहे हो? मकान की पोताई नहीं कर रहे? उसने कहा तो सिर्फ वही हो सकता है, जो अपना मालिक हो जाता है। और | | कि कर रहा है; देखो! मकान की तरफ देखा, एक दूसरा आदमी दूसरों के जो मालिक होते हैं, वे गुलामों के भी गुलाम होते हैं। | पोताई कर रहा है! उस मकान के मालिक ने पूछा कि मैं समझा __मैंने सुना है, एक आदमी एक गाय को रस्सी से बांधकर एक नहीं! तो उसने कहा कि मैंने दो रुपया घंटे के हिसाब से इस आदमी सड़क से गुजरता है। एक फकीर भी निकल रहा है वहां से। उस को काम करने के लिए रखा है। उस मकान मालिक ने पूछा, बड़े फकीर ने अपने शिष्यों से कहा कि देखते हो तुम, यह एक आदमी | | पागल हो! इससे तुम्हें फायदा क्या होगा? क्योंकि दो रुपए घंटे पर
और यह एक गाय दोनों बंधे हैं। जो गाय को बांधे हुए था, उसने | मैंने तुम्हें रखा है। दो रुपए घंटे पर तुमने इसे रखा है। फायदा क्या कहा, माफ करिए, आप गलत बोलते हैं। मैं नहीं बंधा है; मैं गाय है? उसने कहा कि कभी-कभी मालिक होने का मजा हम भी लेना को बांधे हुए हूं। उस फकीर ने कहा, देखते हो शिष्यों, ये दोनों चाहते हैं! हम जरा वृक्ष के नीचे लेटे हैं। इट इज़ वर्थ टु बी दि बास एक-दूसरे से बंधे हैं। उस आदमी ने कहा, गलत बोलते हैं आप। | फार सम टाइम। कभी थोड़ा बास हो जाने में थोड़ा मजा आता है। मैं गाय से नहीं बंधा हूं; गाय मुझसे बंधी है। मैंने गाय को बांधा आज दिनभर से लेटे हैं और आज्ञा दे रहे हैं कि यह कर, ऐसा कर। हुआ है। उस फकीर ने कहा, अच्छा तो तुम गाय को छोड़ दो। फिर फायदा तो कुछ भी नहीं, उसने कहा। दिनभर गंवाया, लेकिन जरा देखें, कौन किसके पीछे भागता है! जो पीछे भागेगा, वही गुलाम मालिक होने का मजा! है, उस फकीर ने कहा। और मैं तुमसे कहता हूं, गाय बांधी गई है; । जिंदगी के आखिर में ऐसी हालत न हो कि पाएं कि जिंदगी तुम बंधे हो। गाय को तुम जबर्दस्ती बांधे हो, खुद को तुम स्वेच्छा | | गंवायी, थोड़ा मालिक होने का मजा लिया। से बांधे हए हो। गाय मजबरी में गलाम है: तम अपनी इच्छा से यह आदमी मढ मालम पडता है। लेकिन इससे कम मढ आदमी गलाम हो। छोड़ो गाय को, जरा हम भी देखें कि कौन किसके पीछे खोजना मश्किल है। यह आदमी मढ मालम पड़ता है: आप हंसते भागता है! उस आदमी ने कहा कि यह तो नहीं हो सकेगा। गाय | हैं इस पर। लेकिन जिंदगी के आखिर में अपना हिसाब करीब-करीब खरीदकर ला रहा हूं। तो उसने अपने शिष्यों से कहा कि देखते हो! ऐसा पाएंगे कि थोड़ा बास होने का मजा लिया! हाथ में कुछ होगा अभी जो मैंने कहा था, वह गलत था। अब मैं तुमसे कहता हूं, गाय नहीं। हाथ में तो केवल उनके कुछ होता है, जो अपने मालिक। इस आदमी से नहीं बंधी है, यह आदमी गाय से बंधा है। यह तो कृष्ण कहते हैं, वैसा व्यक्ति जो तत्व को जान लेता, इंद्रियां आदमी गाय का गुलाम है।
अपना काम करती हैं, ऐसा जान लेता, और ऐसा जानते ही दूर खड़ा __ असल में जिसको हम बांधते हैं, उससे हम बंध जाते हैं। जिसको | | हो जाता है इंद्रियों के सारे धुएं के बाहर। इंद्रियों की बदलियों के हम गुलाम बनाते हैं, उसके हम गुलाम बन जाते हैं। इसलिए इस | बाहर सूरज के साथ एक हो जाता है। दुनिया में जितने ज्यादा गुलाम जिस आदमी के पास, उतनी बड़ी ___ वह जो सूरज के साथ एक हुआ है, वह मालिक है। उसकी कोई उसकी गुलामी। लेकिन दूसरे पर मालकियत का मजा बड़ा है। | गुलामी नहीं है। ऐसा व्यक्ति ही निष्काम कर्म को उपलब्ध होता है।
और ध्यान रहे, दूसरे की मालकियत का मजा केवल उन्हीं को | | ऐसे व्यक्ति के आनंद की कोई सीमा नहीं है। ऐसे व्यक्ति की मुक्ति है, जिन्होंने अपनी मालकियत का रस नहीं जाना। जिसने एक बार | का कोई अंत नहीं है। और जब तक ऐसा न हो जाए, तब तक जीवन भी अपनी मालकियत का रस जाना, वह इस दुनिया में किसी का हम गंवा रहे हैं; तब तक हम जीवन से कुछ कमा नहीं रहे हैं। चाहे मालिक न होना चाहेगा। क्योंकि वह जानता है कि किसी का | हम कितना ही कमाते हुए मालूम पड़ रहे हों, हम सिर्फ गंवा रहे हैं। मालिक होना, अपनी गुलामी के आधार रखना है। लेकिन हम बड़ा | यहां ढेर लग जाएगा धन का, और वहां जिंदगी चुक जाएगी। यहां रस लेते हैं।
सामान इकट्ठा हो जाएगा, और आदमी खो जाएगा। और यहां
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गीता दर्शन भाग-20
संसार की विजय-यात्रा पूरी हो जाएगी, और भीतर हम पाएंगे कि | मैं एक स्त्री को देखने गया, वह नौ महीने से बेहोश थी, कोमा हम खाली हाथ आए और खाली हाथ जा रहे हैं।
| में पड़ी है। और डाक्टर कहते हैं, अब कभी होश में नहीं आएगी। __ इंद्रियों पर थोड़ी जागरूकता लानी जरूरी है। इसलिए कृष्ण के चार साल तक बेहोश रह सकती है और बेहोशी में ही मर जाएगी। ये वचन सिर्फ व्याख्या से समझ में आ जाएंगे, इस भूल में पड़ने | लेकिन बराबर ग्लूकोज दिया जा रहा है, दूध पिलाया जा रहा है, की कोई भी जरूरत नहीं है। ये सारे सूत्र साधना के सूत्र हैं। | पेट पचा रहा है; वह नौ महीने से बेहोश है। शरीर खून बना रहा
लेकिन मजा है, हमारे मुल्क में लोग गीता का पाठ कर रहे हैं! | है। सांस चल रही है। कौन ले रहा है? यह काम कौन कर रहा है? सोचते हैं, पाठ से कुछ हो जाएगा। पाठ तोते भी कर लेते हैं। और | | आप? तो वह औरत तो बेहोश पड़ी है; वह तो है ही नहीं अब एक पाठ करने वाले अक्सर धीरे-धीरे तोते हो जाते हैं। सब कंठस्थ हो | अर्थ में। प्रकृति किए चली जा रही है! जाता है। दोहराना आ जाता है। यंत्रवत गीता बोलने लगते हैं। सब। ___ इंद्रियां प्रकृति के हाथ हैं, हमारे भीतर फैले हुए। इंद्रियां प्रकृति अर्थ उन्हें पता हैं। सब शब्द उन्हें पता हैं। गीता पूरी कंठस्थ है। | के हाथ हैं, हमारे द्वारा बाहर के आकाश और जगत तक फैले हुए। करने को कुछ बचता नहीं। कृष्ण अपना सिर ठोकते होंगे। | इंद्रियां प्रकृति का यंत्र हैं, वे अपना काम कर रही हैं, भूलकर उनसे
गीता के सूत्र साधना के सूत्र हैं। समझ लिया कि ठीक बात है, अपने को न जोड़ें। जो इंद्रियों से अपने को जोड़ता है, वह अज्ञानी इंद्रियां अपना काम करती हैं। लेकिन कल सुबह फिर कहा कि मुझे है। जो इंद्रियों से अपने को अलग देख लेता है, वह ज्ञानी है। भूख लगी है, तो गलती है। फिर समझे नहीं। फिर भीतर से थोड़ा सोचना चाहिए, मुझे भूख लगती है?
इंद्रियों के प्रत्येक कृत्य में खोजकर देखें, कर्ता आप नहीं हैं। प्रश्न : भगवान श्री, कल आपने अंतर्मुखी व बहिर्मुखी इंद्रियों का समस्त कर्म प्रकृति से हो रहा है। आपकी कोई भी जरूरत व्यक्तित्व की सविस्तार चर्चा की। इस संबंध में एक नहीं है। कभी आप खयाल करते हैं! खाना तो आप मुंह में डाल बात और स्पष्ट करना है। किसी का अंतर्मुखी होना लेते हैं; पचाते आप हैं? कौन पचाता है? खाना आप खाते हैं; अथवा किसी का बहिर्मुखी होना, इसके क्या मौलिक पचाता कौन है? कभी पता चलता है, कौन पचा रहा है? इंद्रिय आधार व कारण हैं? और क्या बहिर्मुखता या पचा रही है। पता ही नहीं चलता, कौन पचा रहा है! कौन इस रोटी | अंतर्मुखता अपरिवर्तनीय है? स्वतः कृष्ण अंतर्मुखी हैं को खून बना रहा है! मिरेकल घट रहा है पेट के भीतर। या बहिर्मुखी? __ अभी वैज्ञानिक फिलहाल समर्थ नहीं हैं। कहते हैं कि शायद
अभी और काफी समय लगेगा, तब हम रोटी से सीधा खून बना सकेंगे। आपका पेट कर ही रहा है वह काम बिना किसी बड़े नाभी हम हैं, जहां भी हम हैं, जैसे भी हम हैं, वह हमारे
आइंस्टीन की बुद्धि के। इंद्रिय कुछ आइंस्टीन से कम बुद्धिमान | UII अनंत जन्मों की यात्राओं का इकट्ठा जोड़ है। अनंत मालूम नहीं पड़ती! प्रकृति कुछ कम रहस्यपूर्ण नहीं मालूम पड़ती।
संस्कार का जोड़ है। बहिर्मुखी हैं तो, अंतर्मुखी हैं तो। वैज्ञानिक कहते हैं, और अगर हम किसी दिन रोटी से खुन बनाने | | जो हमने किया है—अंतहीन आवर्तन लिए हैं जीवन के–जो हमने में समर्थ भी हो गए, तो एक आदमी का पेट जो काम करता है, | | किया है, उस सबका इकट्ठा रूप ही हमारा आज का होना है। उतना काम करने के लिए कम से कम एक वर्ग मील जमीन पर उदाहरण के लिए, कल आपने दिन में आठ दफे क्रोध किया। फैक्टरी बनानी पड़ेगी! एक पेट में जो काम चलता है, एक वर्ग | आठ बार क्रोधित हुए, नाराज हुए, आग से भर गए, आंखें खून से मील का भारी कारखाना होगा, तब कहीं हम रोटी को खून तक ले | भर गईं। मैं भी कल था; कल मैंने आठ बार क्रोध नहीं किया। हम जा सकते हैं। वह भी अभी सूत्र साफ नहीं हो सके। लेकिन आप दोनों रात साथ-साथ सोए। एक ही कमरे में सोए। लेकिन मेरे सपने रोज कर रहे हैं। कौन कर रहा है? आप कर रहे हैं? आप तो सो अलग होंगे, आपके सपने अलग होंगे। कमरा एक होगा। बिस्तर जाते हैं रात, तब भी होता रहता है। आप शराब पीकर नाली में पड़े | एक जैसा हो सकता है। सब एक जैसा है। मेरे सपने अलग होंगे, रहते हैं, तब भी होता रहता है।
आपके सपने अलग होंगे। क्योंकि आठ बार दिन में क्रोध किया.
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| मन का ढांचा - जन्मों-जन्मों का
सपनों में जुड़ेगा। नहीं किया आठ बार, सपनों में घटेगा। फिर हम दोनों सुबह उठे। मैंने पाया कि मेरी चाय आने थोड़ी देर हो गई। आपने भी पाया कि चाय आने में थोड़ी देर हो गई। तो हम दोनों की प्रतिक्रियाएं अलग होंगी। जिसने कल आठ बार क्रोध किया है, वह आज फिर सुबह तैयार उठ रहा है । फिर संभावना बहुत है कि वह तत्काल क्रोध कर ले | जिसने कल आठ बार क्रोध नहीं किया, उसकी संभावना है कि वह क्रोध का कोई मौका आए, तो छोड़ जाए, बच जाए, वंचित रह जाए।
एक-एक व्यक्ति अपने जीवन में जो भी कर रहा है— इस जीवन में तो ही, पिछले जीवनों में भी उन सबका जोड़ है।
बहिर्मुखी का अर्थ है, ऐसा व्यक्ति, जिसने निरंतर बहिर्मुखता को साधा है। निरंतर ! धन खोजा कभी, कभी यश खोजा, कभी वासना, और चक्कर लेता रहा उन्हीं के । तो धीरे-धीरे, धीरे-धीरे मन की वह जो अंतर्मुखता की धारणा है, वह क्षीण होती चली जाती है। और अंतर्मुखी जो द्वार है, वह निरंतर बंद रहने से जंग खा जाता है । फिर उसे एकदम से खोला नहीं जा सकता। जैसे घर में कोई एक दरवाजे को दो-चार - दस साल बंद रखे, तो फिर एकदम से खोलना मुश्किल हो जाए। वह चूं-चर्राहट करे, बहुत आवाज करे; मुश्किल पड़े; तोड़ना पड़े। लेकिन जिस दरवाजे को हम रोज खोलते हैं, वह भी बीस साल पुराना होगा, लेकिन वह खुलने में सुगमता पाता है। जो हम करते रहते हैं निरंतर, वह सुगम हो जाता है।
हम सभी बहिर्मुख जीवन में जीते हैं। सारी शिक्षा, सारा समाज, परिवार, जगत बहिर्मुखी होने के लिए तैयारी करवाता है। एक-एक बच्चे को हम तैयार करते हैं, शिक्षा देते हैं। ध्यान की कभी नहीं देते, प्रतियोगिता की देते हैं, कांपिटीशन की देते हैं; एंबीशन, महत्वाकांक्षा की देते हैं। शांति की कभी नहीं देते, मौन की कभी नहीं देते, शब्द की जरूर देते हैं। शब्द सिखाते हैं हम हर बच्चे को, मौन किसी बच्चे को नहीं सिखाते। और शब्द में जो जितना कुशल हो जाए, संभव है कि उतना सफल हो जाए। मौन जो रह जाए, हो सकता है जिंदगी में हार जाए, असफल हो जाए।
पूरी जिंदगी हम बाहर की तरफ जीते हैं । सारा शिक्षण, सारी सफलता, सारा इंतजाम जगत का बहिर्मुखी है। और हम उसमें ही दौड़ते चले जाते हैं। बच्चे आते हैं, हम पागलों की दौड़ में हम उनको भी सम्मिलित कर लेते हैं। जैसे किसी पागलखाने में हम एक बच्चे को भेज दें। बहुत संभावना है कि बच्चा पागल हो जाएगा। पागलों के साथ रहेगा, पागल अपने ढंग सिखा देंगे । और अगर
बच्चे न सीखें ढंग, तो मां-बाप नाराज होते हैं कि हम तुम्हें अपने | ढंग सिखा रहे हैं और तुम सीखते नहीं! और मां-बाप कभी नहीं सोचते कि उनके ढंग से वे खुद कहां पहुंचे हैं! कहीं नहीं पहुंचे हैं। लेकिन बड़ा आग्रह है कि अपने ढंग बच्चों पर थोप दें।
सब पीढ़ियां अपने बच्चों को बहिर्मुखी कर जाती हैं। और बच्चे भी पिछले जन्म से बहिर्मुखी होकर आते हैं। ध्यान रहे, जो बच्चा आपके घर में पैदा होता है, वह थोड़ी ही देर पहले बूढ़ा रह चुका है। । एकदम बच्चा तो इस जमीन पर कोई पैदा होता नहीं। बूढ़े पैदा होते हैं। वह तो बहिर्मुखी होने की सारी यात्रा लेकर आ ही रहे हैं। फिर दुबारा चारों तरफ से दबाव पड़ता है उनके बहिर्मुखी होने का। ऐसा जन्मों-जन्मों तक चलता है।
इस जन्मों-जन्मों की यात्रा में अगर धीरे-धीरे सौ में से निन्यानबे | आदमी बहिर्मुखी हो जाते हैं, तो आश्चर्य नहीं है। आश्चर्य तो यह है कि कुछ लोग फिर भी अंतर्मुखी रह जाते हैं, हमारी सारी व्यवस्था के बावजूद, हमारे बावजूद ! हमारे सारे इंतजाम को तोड़कर भी कुछ लोग भाग निकलते हैं।
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यह बहिर्मुखता जीवन में उपयोगी है, इसलिए हम सीख लेते हैं; युटिलिटेरियन है। अंतर्मुखी आदमी जीवन में असफल हो जाता है। आप जानते हैं, हम अंतर्मुखी आदमी को कहते हैं, बुद्ध। लेकिन कभी समझा आपने, सोचा कि यह बुद्ध शब्द जो है बुद्ध से बना है !
असल में जब पहली दफा बुद्ध बैठ गए सब घर-द्वार छोड़कर, तो जो बुद्धिमान थे गांव में, उन्होंने कहा, बुद्ध निकला ! बुद्ध | | क्योंकि बुद्धूपन तो था ही हम सबकी आंखों में, हम सबकी दुनिया में, हिसाब में। सुंदर स्त्रियां थीं, जैसी कि किसी आदमी को शायद ही कभी मिली हों। छोड़कर भाग गया ! यह आदमी बुद्ध है। साम्राज्य था। हम जिंदगीभर खोजते हैं, और नहीं पाते। नाक रगड़ते रहते हैं पत्थरों पर और नहीं पहुंच पाते। और इस आदमी को जन्म से मिला था साम्राज्य । सिंहासन पर बैठने का क्षण आता था और भाग खड़ा हुआ ! बुद्ध है।
बुद्ध को तो सीधा सामने किसी ने भी नहीं कहा होगा। लेकिन | जब कोई और आदमी बुद्ध की तरह झाड़ के नीचे हाथ बांधकर बैठने लगा, तो उन्होंने कहा, यह भी बुद्ध हुआ; यह भी बुद्ध जैसा हुआ !
यह जो हमारा जगत है, वहां केवल बहिर्मुखता उपयोगी मालूम पड़ती है, अंतर्मुखी का कोई मूल्य नहीं है। कोई मूल्य नहीं है। लेकिन जीवन की गहराइयों में अंतर्मुखता का ही मूल्य है। बुद्ध हम जिनको कहते हैं, वे हमको बुद्ध मानते हैं। बुद्ध से हम
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गीता दर्शन भाग-20
पूछने जाएंगे, तो वे हम को अज्ञानी मानते हैं। वे मानते हैं कि तुम को जिंदगी में तकलीफ मिल जाती है, राष्ट्रपति को मरने में। अगर सब नासमझ हो। क्योंकि तुम जो कर रहे हो, उससे कहीं पहुंचोगे | | हिसाब लगाने जाएं, तो कुछ फर्क नहीं रहता। पलड़े बराबर हो नहीं। और जिन चीजों में तुम मूल्य देख रहे हो, उनमें कोई भी मूल्य | जाते हैं। नहीं है। अगर हार गए, तब तो हारोगे ही; अगर जीत गए, तो भी बुद्ध जैसा आदमी कहेगा, तुम यह सब पाकर करोगे क्या? मुश्किल में पड़ोगे।
आखिर में एकदम हटा दिए जाओगे सबसे। और जो चीज छीन ही जिंदगी बहुत कंपनसेशन करती है, बहुत हैरानी के। जो लोग ली जानी हैं, उन्हें हम खुद छोड़ देते हैं अपनी मौज से। जो स्त्रियां जिंदगी में असफल रहते हैं, उनको जिंदगी में तकलीफ होती है। छिन जाएंगी, जो धन छिन जाएगा, वह हम छोड़ देते हैं अपनी मौज
असफलता की पीड़ा, अहंकार को चोट लगती है। जो लोग सफल | से। हम मालिक हैं अपने। तुम गुलाम हो। तुम तड़पते हुए मरोगे; हो जाते हैं, उनको मरते वक्त भारी पीड़ा होती है। बराबर हो जाता | हम खुशी से जिंदा रहेंगे। और मौत हमसे कुछ भी न छीन पाएगी। है दोनों का पलड़ा। मरते वक्त सफल आदमी को भारी पीड़ा होती | | मौत हमारे पास आकर थक जाएगी और हार जाएगी और मुश्किल है कि सब किया-कराया गया!
में पड़ जाएगी कि क्या छीनो! क्योंकि हम सब पहले ही दे चुके, मैंने सुना है, एक आदमी बड़ा व्यवसायी है। लेकिन धीरे-धीरे | | जो मौत हमसे ले लेती। कुछ दिन से पता चलता है कि उसका मुनीम पैसे हड़प रहा है। इस पृथ्वी पर बुद्धिमान लोगों ने वह सब खुद ही छोड़ दिया है, धीरे-धीरे बात पक्की हो गई, प्रमाण हाथ लग गए, तो उस मालिक | | जो मौत उनसे छीन लेती है। और जिस व्यक्ति को मौत का खयाल ने उस मुनीम को एक दिन बुलाया और कहा कि तुम्हारी तनख्वाह है, वह अंतर्मुखी हो जाएगा; और जिसको जिंदगी का खयाल है, कितनी है? उस मुनीम ने कहा कि पंद्रह सौ रुपए महीना। उस वह बहिर्मुखी हो जाएगा। जिंदगी में बहिर्मुखता उपयोगी है। मौत मालिक ने कहा, मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूं। और आज से तुम्हारी को ध्यान में रखिएगा, तो अंतर्मुखता उपयोगी है। तनख्वाह करते हैं दो हजार। फिर कहा, नहीं-नहीं-नहीं, दो हजार इसलिए जिन समाजों में मौत का स्मरण रहा है सदा, वे अंतर्मुखी तो कम ही होगा। तुम्हारा काम देखते हुए ढाई हजार करना ठीक | रहे। और जिन समाजों में मौत भुला दी गई, उन समाजों में होगा। मुनीम तो एकदम हैरानी से खड़ा हो गया। उसने कहा, क्या | बहिर्मुखता बढ़ गई। कह रहे हैं आप! एकदम हजार रुपए की बढ़ती! छाती जोर से बुद्ध के पास कोई जाता, तो वे कहते, पहले ध्यान मत करो, धड़कने लगी। मालिक ने कहा कि इतने से तुम खुश हो गए? मैंने | पहले मरघट पर तीन महीने रहकर आओ। वह कहता, लेकिन मुझे तो सोचा था कि तीन हजार...। उस मुनीम ने हाथ पकड़ लिए और ध्यान सीधा सिखा दें; मरघट से क्या मतलब है? बुद्ध कहते, जो कहा, धन्यवाद! मालिक ने कहा कि एक आखिरी बात और कि | आदमी मौत के प्रति जागा नहीं, वह अंतर्मुखी, इंट्रोवर्ट नहीं हो आज से तम्हारी नौकरी खतम। उस आदमी ने कहा, आप क्या कह सकता। पहले तम देखकर आओ, जिंदगी का फल क्या है। तब रहे हैं? अगर नौकरी ही खतम करनी थी, तो तीन हजार तक तुम्हारी बहिर्मुखता टूटेगी। पहले तुम देखो कि जो सफल हुए थे, तनख्वाह क्यों बढ़ाई? उस मालिक ने कहा, अब तुम जरा ज्यादा | वे कहां जा रहे हैं। जिन्होंने जिंदगी में सब पा लिया था, आखिर में परेशान रहोगे। पंद्रह सौ की नौकरी नहीं छूट रही है, तीन हजार की | | वे अर्थी पर बंधे हुए मरघट पहुंच जाते हैं। तुम जरा मरघट पर तीन छूट रही है! अब जाओ।
महीने रहकर देख आओ कि बहिर्मुखता का अंतिम परिणाम क्या सफल आदमी मरते वक्त पाता है कि तीन हजार की नौकरी गई। | | है! फिर तुम अंतर्मुखी हो सकोगे। मुश्किल से तो राष्ट्रपति हो पाए थे, वह गया मामला! चपरासी | लेकिन हम मौत की बात ही नहीं करते। बच्चों को हम कभी मौत मरते वक्त इतनी तकलीफ नहीं पाता। चपरासी जिंदा में बहुत | | की बात नहीं बताते। अर्थी निकलती हो, तो बच्चों को मां घर में तकलीफ पाता है, कि सिर्फ चपरासी! राष्ट्रपति मरते वक्त | | बुला लेती है, भीतर आ जा। बाहर कोई अर्थी निकल रही है! तकलीफ पाता है कि राष्ट्रपति हुए और मरे। तीन हजार तनख्वाह | बुद्धिमान मा हो, तो बच्चे को बाहर ले आना चाहिए कि देख, अर्थी मिली, एंड फायर्ड!
निकल रही है। लेकिन तब मुश्किल में पड़ेगी वह। क्योंकि कहीं जिंदगी बराबर कर देती है चपरासी और राष्ट्रपति को। चपरासी | | बच्चा अगर ज्यादा बुद्धिमान हो जाए, तो मुश्किल आ सकती है।
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मन का ढांचा-जन्मों-जन्मों का
बच्चा अगर पूछने लगे, अगर सभी को मर जाना है, तो फिर इस | स्थायी है। और जिंदगी का आखिरी पड़ाव मौत है। जो आखिरी सब दौड़-धूप का क्या फायदा?
पड़ाव को सम्हाल लेता है, वही आगे की यात्रा को सम्हालता है। लेकिन मां-बाप अपने बच्चे के कंधे पर यात्रा करना चाहते हैं और जो यहां बीच की व्यर्थ की बातों को सम्हाल रहा है, वह कुछ लंबी। वह श्रवण के अंधे मां-बाप ने तो तीर्थयात्रा की थी, बाकी सम्हाल नहीं पाता, सिर्फ समय को खोता है। इसलिए हम बहिर्मुखी सब मां-बाप भी अपने बच्चों पर धन की, यश की यात्रा करना | हो जाते हैं। चाहते हैं। सभी अंधे यात्रा करना चाहते हैं। वह कोई श्रवण के | लेकिन जो बहिर्मुखी है, आज अगर हम उसे चाहें कि वह मां-बाप करना चाहते थे, ऐसा नहीं। सभी अंधे यात्रा करना चाहते | | अंतर्मुखी हो जाए, तो बहुत कठिन है। जन्मों की यात्रा है उसकी हैं। फिर भी उन्होंने बेचारों ने तीर्थयात्रा की थी। सभी मां-बाप अपने | बहिर्मुखता की। अगर हम कहें कि तू अंतर्मुखी हो जा, तो वह बच्चों के कंधों से यात्रा करना चाहते हैं, इसलिए बच्चा अगर यात्रा कहेगा कि असंभव मालूम होता है। फिर अगले जन्म तक प्रतीक्षा करने में सहायता न दें, तो मां-बाप बड़े पीड़ित होते हैं। करनी पड़ेगी। लेकिन अगले जन्म में भी वह अंतर्मुखी हो नहीं
एक मेरे मित्र हैं। उनका युवा पुत्र मर गया। पुत्र एक राज्य में पाएगा। क्योंकि इस जिंदगी का और जुड़ जाएगा बहिर्मुखता की मिनिस्टर था। बड़े पीड़ित हुए, बड़े दुखी हुए। मेरे निकट हैं। मैंने | यात्रा का हिस्सा। वह और भी बहिर्मुखी हो जाएगा। उनसे पूछा, इतनी पीड़ा, इतना दुख, बात क्या है? कहने लगे कि इसलिए कोई जरूरत नहीं है कि बहिर्मुखी अंतर्मुखी हो, तभी अगली बार उसके चीफ मिनिस्टर हो जाने की बिलकुल संभावना | धार्मिक हो सके। बहिर्मुखी बहिर्मुखी रहते हुए धार्मिक हो सकता थी। मैं तो बहुत चौंका। मैंने सोचा भी नहीं था कि गहरे में पीड़ा | है। उसकी धर्म की साधना में भेद होंगे। वही भेद कृष्ण स्पष्ट कर कहां छिदती है।
| रहे हैं। वे कह रहे हैं, भेद यही है कि बहिर्मुखी कर्म को छोड़ नहीं • चीफ मिनिस्टर हो जाने की संभावना थी। खद भी होना चाहा है। सकेगा। कर्म को करे, फल को छोड़ दे। कर्म में दौड़े, फल को जिंदगीभर उन्होंने; हो नहीं पाए हैं। अब अपने अहंकार को पुत्र के | छोड़ दे। कर्म करे, कर्ता को भुला दे। बहिर्मुखी रहे, लेकिन इस कंधों पर रखकर यात्रा करना चाहते थे। वह हो जाता। वह मर गया। | बहिर्मुखी यात्रा को भी धन से हटाकर धर्म पर लगा दे। पदार्थ से कहने लगे कि अब मैं तो बिलकुल मरा ही जैसा हो गया हूं। मैंने हटाकर परमात्मा पर लगा दे। पद से हटाकर परमपद पर लगा दे। कहा, अभी दूसरा बेटा है, उस पर कुछ इरादे बांधो! कहे, वह है इतना करे। धीरे-धीरे वहीं पहुंच जाएगा, जहां अंतर्मुखी पहुंचता है। तो जरूर, लेकिन उतना योग्य नहीं है।
अंतर्मुखी का मार्ग अलग होगा। यह बदलाहट कठिन है। नके घर गया, पत्र मर गया है, लेकिन वे सब तारों लेकिन कभी-कभी बदलाहट होती है। असंभव नहीं है। मैंने कहा की गड्डी पास में लिए बैठे हैं! जब मैं उनके घर गया सांत्वना प्रकट साधारणतः बहिर्मुखी अंतर्मुखी नहीं बनाया जा सकता। अंतर्मुखी करने कि न हों परेशान, तो गडी उन्होंने सरका दी। कहा कि देखें. बहिर्मखी नहीं बनाया जा सकता। लेकिन कभी-कभी बदलाहट राष्ट्रपति का भी तार आया, प्रधान मंत्री का भी तार आया। लड़के होती है। का मरना, आंसू बह रहे हैं। लेकिन राष्ट्रपति का तार आया है, बदलाहट दो कारणों से होती है। या तो कोई इतना बहिर्मुखी हो उसकी चमक भी है आंखों में। आदमी का मन!
| कि उसके जीवन में अंतर्मुखता न के बराबर, शून्य शेष रह जाए। बाप बेटों पर यात्रा करना चाहते हैं। जो खुद नहीं कर पाए, सिर्फ बहिर्मुखी ही हो जाए। धन ही धन, धन ही धन; मकान, धन, अनफुलफिल्ड ड्रीम्स, अधूरे रह गए, अतृप्त सपने बच्चों पर पूरा | दौलत, यश, इसी-इसी में डूब जाए। इतना डूब जाए, और उसी करना चाहते हैं। तो इसलिए वे उनको बहिर्मुखी बनाएंगे ही; वे | | डूबे में कोई इतना बड़ा धक्का, कोई इतना बड़ा शॉक आ जाए कि उनको छोड़ नहीं सकते। अंतर्मुखी वे हो जाएं, तो कठिनाई हो | | सब छितर-बितर हो जाए, तो एकदम से कनवर्शन होता है। इतना जाएगी।
| बड़ा धक्का आए कि उसके बाहर के बनाए हुए सारे महल ताश के जिंदगी का खयाल रखा, तो जिंदगी में उपयोगिता बहिर्मुखता की पत्तों की तरह एकदम गिर जाएं। सब राख हो जाए। इतने बड़े धक्के है। अगर मृत्यु का स्मरण रखा, तो उपयोगिता अंतर्मुखता की है। | में संभावना है कि वह एकदम लौट जाए। और ध्यान रखें, जिंदगी तो चली जाएगी; मृत्यु बहुत थिर और । लेकिन अगर छोटा-मोटा बहिर्मुखी होगा, तो नहीं लौटेगा।
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गीता दर्शन भाग-20
आखिरी एक्सट्रीम पर गया हुआ बहिर्मुखी होगा, तो लौट सकता है। को क्यों फंसाते हो? तुम्हारा काम, तुम जानो! बूढ़ा आदमी हूं, मुझे अंत पर पहुंच गया हो, जो भी पाने जैसा था पा लिया हो, और फिर | दो रोटी देते हो, इतना तुम्हारा कर्तव्य है बेटे होने की तरह। सब जमीन पर गिरकर मिट्टी में मिल जाए। तो ऐसा आदमी-अब सारा भवन गिर गया उसका। सारी हत्याएं आंख के सामने खड़ी आगे तो कोई उपाय बचता नहीं—पीछे लौट जाता है। | हो गईं, सारे डाके। जिनके लिए किए थे, वे भागीदार बनने को राजी
लेकिन अगर पूरा बहिर्मुखी न हो, पचहत्तर परसेंट हो, तो अभी | नहीं हैं ! लौट पड़ा। आदमी बदल गया। कोई सोच नहीं सकता था, पच्चीस परसेंट आगे यात्रा बाकी रहती है। वह सोचता है, कोई बात | इस डकैत और लुटेरे से रामायण का जन्म होगा। लौट गया नहीं। इस मध्यावधि चुनाव में नहीं आए, कोई फिक्र नहीं। डेढ़ साल | | बिलकुल। बात ही खतम हो गई। वह जिस साधु से उसको संदेश
और रुक जाओ। और रुक जाओ, डेढ़ साल और प्रतीक्षा करो। मिला था, वह साधु तो पीछे पड़ गया होगा, वाल्मीकि और भी फिर एक दांव लगाया जाए। अभी मोरारजी तक नहीं थके हैं। अभी आगे निकल गया। डेढ़ साल के बाद दांव लगाने की आकांक्षा है! बहिर्मुखता अगर | क्या हुआ? एक दुर्घटना। एक ऐसा धक्का, जिसमें सारा पूरी हो, तो भी किसी बड़ी दुर्घटना के क्षण में-दुर्घटना के क्षण | मकान जिस बुनियाद पर खड़ा था, वह ढह गया। कभी ऐसा में व्यक्ति सब छोड़ देता है, कि ठीक है, जाने दो। मिट्टी हो गया कनवर्शन...। जो किया। ठीक उलटे पर लौट जाता है।
इसी को मैं कनवर्शन कहता हूं। हिंदू मुसलमान हो जाए, इसको इसलिए कभी कोई वाल्मीकि गहन पाप करते-करते क्षणभर में | | मैं कनवर्शन नहीं कहता। यह निपट नासमझी है। ईसाई हिंदू हो संत हो जाता है। बहिर्मुखी है पूरा; अंतर्मुखी हो जाता है। एक गहन | | जाए, यह पागलपन है। इसमें कोई मतलब नहीं है। ये सब घटना घट गई, एक बहुत बड़ा शॉक, जो सोचा भी नहीं था। | पोलिटिकल स्टंट हैं कि कोई हिंदू को ईसाई बनाता रहे; कोई ईसाई वाल्मीकि को खयाल न था। वाल्मीकि तो बाद में हुए। तब तो | | को हिंदू बनाता रहे। कोई आर्यसमाजी किसी को शुद्ध करे; कोई उनका नाम बाल्या भील था। काम था, डकैती, हत्या। | किसी को अशुद्ध करे। यह सब पागलपन है।
एक साधु को लूट लिया। पर उस साधु ने कहा कि तुम इतना | | एक ही कनवर्शन है, और वह कनवर्शन है, संसार से चित्त हट उपद्रव, इतनी लूट-खसोट, यह सब करते हो। किसके लिए? मुझे | जाए और परमात्मा की तरफ चला जाए। एक ही रूपांतरण है, और मारना जरूर। रस्सी से बांधकर एक वृक्ष से कस दिया। कहा, । कोई रूपांतरण नहीं है। ऐसे क्षणों में कभी होता है कि बहिर्मुखी मारना जरूर। लेकिन इतना जवाब तो दे दो! क्योंकि मेरा तो काम | | एकदम अंतर्मुखी हो जाता है। लेकिन यह कभी-कभी होता है। पूरा हो गया, साधु ने कहा, मेरे मरने से कोई फर्क नहीं पड़ता। | मुश्किल से होता है। इसका हिसाब नहीं रखना चाहिए। यह लेकिन इतना तो बता दो कि यह करते किसलिए हो? उसने कहा, | | एक्सेप्शनल है, अपवाद है। इसको नियम नहीं बनाना चाहिए। अपने घर वालों के लिए। तो उस साधु ने कहा, मुझे यहां बांध | नियम तो यही है कि आप जो हैं, उसका ही उपयोग करके धर्म की जाओ और जरा घर वालों से पूछकर आओ कि इस हत्या का जो | | यात्रा पर निकलें। प्रतीक्षा न करें कि अंतर्मुखी हो जाएंगे, तब। फल होगा, उसके लिए वे बंटाने को राजी हैं? भागीदार होंगे? ___ इसमें एक-दो बातें और खयाल में ले लें।
आदमी शांत और सीधा मालम पडता था। मरने को तैयार था।। साधारणतः आदमी बीच में होते हैं, न पूरे अंतर्मुखी होते हैं, न भागता नहीं था। सीधा बंधकर खड़ा हो गया था। बाल्या ने सोचा, पूरे बहिर्मुखी होते हैं; मीडियाकर होते हैं। इनकी बड़ी तकलीफ पूछ लूं। हर्ज क्या है! लौटकर घर जाकर पत्नी से पूछा कि मैं इतनी होती है। इनकी जिंदगी में सब कुछ कुनकुना, ल्यूकवार्म होता है।
. इतने डाके डालता है। कल अगर इसके फल में न तो इतना उबलता कि भाप बन जाए. न इतना ठंडा होता कि बर्फ मुझे नर्क जाना पड़े, तो कौन-कौन मेरे साथ चलेगा? पत्नी ने कहा, | | बन जाए। बस कुनकुना रहता है। दोनों तरफ यात्रा हो सकती है। यह तुम जानो। यह तुम्हारा काम! इससे हमारा क्या लेना-देना? | | | पानी बहुत ठंडा हो जाए, तो बर्फ हो जाता है; पानी नहीं रह जाता। हमें तो तुम पत्नी बनाकर घर ले आए हो। दो रोटी दे देते हो, काफी | | | उबल जाए, भाप बन जाए, तो फिर पानी नहीं रह जाता। लेकिन है। तुम कहां से रोटी लाते हो, यह तुम जानो। तुम कैसे रोटी लाते कुनकुना बना रहे-न इधर, न उधर-वह पानी ही बना रहता है। हो, यह तम्हारा काम है। पिता से पूछा। पिता ने कहा कि मुझ बूढ़े न कभी वह सौ डिग्री तक पहंचता है कि भाप बनकर उड़ जाए
हत्याएं
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मन का ढांचा-जन्मों-जन्मों का
आकाश में। न कभी वह इतने शून्य डिग्री के नीचे पहुंचता है कि | अपना गीत गाने को नहीं है। बांसुरी तो पोली है, बांस का टुकड़ा जमकर पानी बर्फ हो जाए।
है पोला। बस, परमात्मा जो बजा दे, वही बज जाएगा। कृष्ण जैसे अंतर्मुखता भी एक छोर है, बहिर्मुखता दूसरा छोर है। दोनों छोरों | व्यक्ति इसीलिए अवतार हैं, व्यक्ति नहीं हैं। पर्सनैलिटी गई। शून्य में से कहीं से भी छलांग लग सकती है। लेकिन बीच में से कहीं की भांति हैं खाली, रिक्त। अपना कुछ भी नहीं बचा। अब तो छलांग नहीं लग सकती। इसलिए बीच के लोग सबसे ज्यादा | परमात्मा जो करवा ले। इसलिए कृष्ण के पास व्यक्तित्व नहीं है, तकलीफ में पड़ जाते हैं। फिर भी बीच में भी बहुत कम लोग हैं, न | | न बहिर्मुखी, न अंतर्मुखी। कृष्ण के पास व्यक्तित्व ही नहीं है। के बराबर। और जिसकी समझ में आ जाए कि मैं बीच में हूं, उसे | इसमें एक खयाल और ले लें। भी देखना चाहिए कि उसका झुकाव क्या है। अगर बहिर्मुखता का महावीर भी जब ज्ञान को उपलब्ध हो जाते हैं, तो उनके पास कोई है, तो ठीक है। अंतर्मुखता का है, तो ठीक है। और अपनी नियति व्यक्तित्व नहीं बचता। बुद्ध भी जब ज्ञान को उपलब्ध हो जाते हैं,
और अपने व्यक्तित्व को, अपने साइकोलाजिकल टाइप को ठीक से . तो उनके पास भी कोई व्यक्तित्व नहीं बचता। लेकिन महावीर की समझकर उसके अनुकूल साधना पद्धति को चुन लेना चाहिए। जो साधना पद्धति है, उस साधना पद्धति के कारण एक व्यक्तित्व
यहां कृष्ण दो की बात कर रहे हैं, कर्म-संन्यास और कर्म-त्याग। | हमें मालूम पड़ता है। उनका कोई व्यक्तित्व बचता नहीं, लेकिन इन दो में से कोई भी एक चुन लेना चाहिए। क्या चुनते हैं, इससे | | साधना पद्धति का एक व्यक्तित्व हमें मालूम पड़ता है। बुद्ध का भी फर्क नहीं पड़ता। कहां पहुंचते हैं, असली सवाल यही है। एक व्यक्तित्व मालूम पड़ता है। उनकी भी एक साधना पद्धति है।
कृष्ण इस मामले में बहुत विशिष्ट हैं। उनकी एक साधना पद्धति कृष्ण का व्यक्तित्व?
नहीं है। वे समस्त साधना पद्धतियों की बात करते हैं। इसलिए
उनका कोई व्यक्तित्व भी मालूम नहीं पड़ता। इसलिए कृष्ण को हां, पूछते हैं, कृष्ण का व्यक्तित्व कैसा है? यह थोड़ा कठिन है। | कोई जैसा चाहे, वैसा देख ले सकता है। भागवतकार कुछ और यह थोड़ा कठिन इसलिए है कि कृष्ण के पास व्यक्तित्व नहीं है। | अर्थों में देखते हैं कृष्ण को; कवि कुछ और अर्थों में देखते हैं। इसलिए कठिन है।
केशव से पूछे, तो कुछ और कहेगा। सूर से पूछे, तो कुछ और जो पहुंच जाता है, उसके पास व्यक्तित्व खो जाता है। व्यक्तित्व | कहेंगे। गीता के कृष्ण कुछ और मालूम होते हैं, भागवत के कुछ उनके पास होते हैं, जो यात्रा में हैं। मंजिल पर व्यक्तित्व नहीं होते। और मालूम होते हैं! हजार तरह की बातें उनके व्यक्तित्व से मंजिल पर तो परमात्मा ही बचता है। व्यक्तित्व यात्रा में होते हैं। झलकती हैं। शून्य हैं। कोई एक साधना की पद्धति नहीं है। जैसे वाहन! मैं बैलगाड़ी पर बैठा हूं, आप हवाई जहाज पर बैठे हैं, | इसीलिए राम को हमने कभी पूर्णावतार नहीं कहा। क्योंकि राम कोई रेलगाड़ी में बैठा है, कोई मोटरगाड़ी में बैठा है। ये वाहन तो | की एक विशिष्ट साधना पद्धति है, जीवन की एक व्यवस्था है। वह यात्रा में होते हैं। मंजिल पर पहुंचे कि वाहन से उतर जाता है। | व्यवस्था ही उनका व्यक्तित्व मालूम पड़ती है। वे हमारे जगत से आदमी। फिर न हवाई जहाज में होते हैं आप, न बैलगाड़ी में होते | संबंधित होते हैं एक विशेष व्यक्तित्व को बीच में लेकर। कृष्ण हैं। बैलगाड़ी भी गई, हवाई जहाज भी गया, मंजिल आ गई। हमसे सीधे संबंधित हैं: कोई व्यक्तित्व नहीं है
कृष्ण जैसे लोग मंजिल पर खड़े हुए लोग हैं। ये व्यक्तित्व से साथ में नहीं है। कोई मर्यादा नहीं, कोई सीमा नहीं। उतर गए। व्यक्तित्व गया। उसी व्यक्ति को हम अवतार कहते हैं, ___ इसलिए इस देश में हमने किसी को पूर्ण अवतार नहीं कहा जिसका व्यक्तित्व नहीं है। इसको समझ लें। उसी व्यक्ति को | सिवाय कृष्ण के। उसका कारण है। पूर्ण प्रकट हो रहा है उनसे। अवतार कहते हैं, जिसका कोई व्यक्तित्व नहीं है। जब अपना व्यक्तित्व से सदा अपूर्ण प्रकट होता है, चुना हुआ प्रकट होता है। व्यक्तित्व नहीं होता, तभी तो परमात्मा प्रकट होता है। जब तक खतरे हैं पूर्ण प्रकट करने में। खतरा सबसे बड़ा तो यह है कि अपना व्यक्तित्व होता है, तब तक प्रकट नहीं होता। | बहुत मिसअंडरस्टैंडिंग पैदा होगी। महावीर के संबंध में इतनी
कृष्ण तो बांसुरी की तरह हैं। अपना कोई स्वर नहीं है। परमात्मा | गलतफहमी नहीं हो सकती. क्योंकि उनकी रूप-रेखा साफ है। वे जो बजा दे, वही। बांसुरी को कुछ गाना नहीं है। बांसुरी के पास जो कहते हैं, वह एक साधना है। बुद्ध के संबंध में भ्रांति नहीं हो
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गीता दर्शन भाग-2
सकती, वे एक साधना हैं।
राम के संबंध में भ्रांति नहीं हो सकती; बात साफ है। राम प्रेडिक्टेबल हैं। अगर हमें पता भी न हो, अगर रामायण का एक पन्ना खो जाए, बिलकुल खो जाए, तो उस पन्ने को हम फिर से लिख सकते हैं। आगे के पत्रे और पीछे के पन्ने बता देंगे कि इस आदमी ने बीच में क्या किया होगा। प्रेडिक्टेबल है। अगर रामायण का एक अध्याय खतम हो जाए, तो फिर से लिखा जा सकता है; इसमें अड़चन नहीं आएगी। क्योंकि राम का व्यक्तित्व एक लीक में बंधा हुआ है, सीधा है। हम जानते हैं कि दो और दो चार हुए हैं, इतना सीधा है।
लेकिन कृष्ण के मामले में तय नहीं है। अगर एक अध्याय खो , तो उसको दुबारा नहीं लिखा जा सकता, जब तक कृष्ण फिर पैदा न हों। उसको कोई पूरा नहीं कर सकेगा। क्योंकि कुछ नहीं कहा जा सकता, यह आदमी क्या करेगा। यह बांसुरी बजाएगा बीच में, कि युद्ध द्र में लड़ेगा, कि सखियों के साथ नाचेगा, कि स्त्रियों के कपड़े उठाकर वृक्ष पर चढ़ जाएगा ! बीच में क्या करेगा, कुछ पक्का नहीं है। बीच में कुछ भी हो सकता है। अनप्रेडिक्टेबल है।
पूर्ण आदमी सदा ही भविष्यवाणी के बाहर होगा । और इसलिए पूर्ण व्यक्ति को समझना कठिन होगा। इसलिए कृष्ण को मानने वाले, प्रेम करने वाले बहुत हैं, लेकिन फिर भी कृष्ण को मानने वाले न के बराबर हैं।
कृष्ण को मानना बहुत दुरूह है, बहुत कठिन है। इसलिए जो भी मानता है, वह भी चुन लेता है। वह भी पूरे कृष्ण को नहीं मानता, वह भी चुनाव कर लेता है। कुछ लोग हैं, जो बाल-कृष्ण को मानते हैं। वे युवा-कृष्ण की बिलकुल बात ही नहीं करते। वे कहते हैं, हमारे तो बाल - गोपाल भले हैं। क्योंकि वह बाद का कृष्ण खतरनाक मालूम पड़ता है। तो वे तो कहते हैं, छोटा कन्हैया । उससे ही वे अपना काम चला लेते हैं। उनका डर अपना है। क्योंकि बाद में वह जो कृष्ण जवान हो जाता है और जवान होकर जो करता है, वह उनके लिए घबड़ाने वाला है।
अब सूरदास कैसे जवान कृष्ण को मानें! वे तो स्त्रियों को देखकर आंख फोड़ लिए! बड़ी कठिनाई है। कृष्ण और सूर के बीच, जवान कृष्ण और सूर के बीच तालमेल नहीं हो सकता। क्योंकि कहां सूरदास ! देखा कि आंख भटकाती है वासना में, फोड़ दो आंख । आंख फोड़ दी और कहां कृष्ण कि पूरी आंखें नचाकर बांसुरी बजा सकते हैं। और कहां सूरदास, आंख फोड़कर बैठ गए।
सूरदास कहेंगे कि बाद का कृष्ण भरोसे का नहीं है। अपना | बाल-कृष्ण ठीक है। वह सूरदास की सीमा है। इसलिए बाल-कृष्ण से अपना काम चला लेंगे।
अब अगर कोई केशव को कहे कि बाल कृष्ण से काम चला | लो - दही की मटकी तोड़े, यह करे, वह करे – वे कहेंगे, उसमें कुछ रस नहीं है । उसमें कोई खास बात नहीं है। केशव के लिए तो युवा कृष्ण, यौवन के पूरे राग-रंग में नाचता हुआ। क्योंकि केशव कहते हैं कि जो परमात्मा राग-रंग में पूरा न नाच सके, वह अभी कमजोर है। अभी उसे भी भय है क्या ? आदमी भयभीत हो, समझ में आ जाए। परमात्मा भी भयभीत हो, तो फिर समझ में नहीं आता। वह तो अभय होकर ... ।
तो केशव बच्चे कृष्ण को छोड़ देंगे, युवा कृष्ण की कथा के | आस-पास उनके सब गीत रचे जाएंगे। वह जो गीत-गोविंद का | रूप होगा, वह युवा का होगा। वह राग-रंग है, युवा काव्य है, सौंदर्य है, संगीत है, वह सब उसमें आएगा।
ये अपने-अपने चुनाव होंगे। और कृष्ण इतने विराट हैं कि पूरा | पचाने की हिम्मत न के बराबर होती है। थोड़ा-थोड़ा अपना जितना पच सके, आदमी चुन लेता है।
लेकिन मेरा कहना है, जब भी कोई चुनेगा, तब वह खंड कर देगा। और खंडित कृष्ण का कोई अर्थ नहीं होता। अखंड कृष्ण का | ही कुछ अर्थ है। इसलिए मैं कहता हूं कि मानने वाले बहुत हैं, फिर भी मानने वाले न के बराबर हैं। क्योंकि जो पूरे अखंड कृष्ण को | जान पाए, वही मान पाएगा, अन्यथा नहीं मान सकता है।
तो कृष्ण का कोई अपना व्यक्तित्व नहीं है। कृष्ण स व्यक्तित्व अपने हैं । इसलिए कृष्ण के हमने कितने नाम रखे, खयाल किया ! इतने नाम रखे कृष्ण के, जिसका हिसाब नहीं | जितने नाम हो सकते हैं, सब कृष्ण के रख दिए। क्योंकि इतने | आदमी इसमें झलके एक साथ ! इतने व्यक्तित्व इसमें दिखाई पड़े।
कौन सोच सकता है कि जो आदमी बांसुरी बजाने जैसे कोमल जगत में जीता हो, वह आदमी चक्र लेकर खड़ा हो जाएगा ! कोई | सोच नहीं सकता कि जिन अंगुलियों ने बांसुरी बजाई हो, वे हत्या का चक्र भी हाथ ले सकती हैं। ये अंगुलियां बड़ी अजीब हैं! इनका व्यक्तित्व क्या है? बांसुरी बजाने वाली अंगुलियां चक्र हाथ में नहीं ले सकती हैं। सुदर्शन लेकर हत्या का इंतजाम करना, अचूक हत्या | का इंतजाम करना, बांसुरी बजाने वाली अंगुलियों का काम नहीं है ! इन अंगुलियों का कोई व्यक्तित्व अगर होता, तो यह मुश्किल था ।
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मन का ढांचा - जन्मों-जन्मों का
हम सोच भी नहीं सकते कि बुद्ध या महावीर या जीसस चक्र लेकर खड़े हो जाएंगे। सोच भी नहीं सकते। लेकिन कृष्ण सोचे जा सकते हैं। इनकंसिवेबल हैं, सोचना कठिन पड़ता है, लेकिन वे कर सकते हैं।
यह जो व्यक्ति है, इसके पास अपना कोई निजी व्यक्तित्व नहीं है। इसलिए इस मुल्क के समझदार लोगों ने इसे पूर्ण अवतार कहा। पूर्ण अवतार इसीलिए कि जिसके पास अपनी कोई धारणा नहीं, जिसके पास अपना कोई वाहन नहीं, जिसके पास अपना कुछ' भी नहीं है; पूरा परमात्मा जैसा प्रकट होना चाहे, हो सकता है। जो जरा | भी बाधा नहीं देगा।
अगर राम से परमात्मा कहे कि जरा नाचो, तो राम कहेंगे, ठहरिए ! यह हमसे न हो सकेगा। नाचना ! तो राम परमात्मा से कहेंगे, सम्हालिए। इतना आगे हम न जा सकेंगे। यह हमसे न होगा। राम परमात्मा में भी चुनाव कर लेंगे। वे कहेंगे, इतना हम प्रकट कर सकते हैं, इसके आगे हमसे प्रकट न होगा। हमारी सीमा है। लेकिन कृष्ण से कुछ भी कहे, वे राजी हो जाएंगे। राजी क्या, वे देर ही नहीं लगाएंगे। वे नाचने लगेंगे !
यह जो कृष्ण की स्थिति है, यह एक व्यक्तित्व - मुक्त, ट्रांस- पर्सनैलिटी, यह व्यक्तित्व - अतीत उनकी स्थिति है । और इसीलिए उनको हम पूर्ण कह पाए ।
ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः । लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा ।। १० ।। जो पुरुष सब कर्मों को परमात्मा में अर्पण करके और आसक्ति को त्यागकर कर्म करता है, वह पुरुष जल से कमल के पत्ते की सदृश पाप से लिपायमान नहीं होता ।
प
रमात्मा को समर्पण करके समस्त कर्मों को जीता है जो पुरुष, वह कमल के पत्तों की भांति जल में रहते हुए भी जल से, पाप से लिप्त नहीं होता है। दो-तीन छोटी-सी बातें खयाल में ले लेनी जरूरी हैं। पहली बात, परमात्मा को समर्पित कर देता है जो !
हम भी परमात्मा को समर्पित करना चाहते हैं। कभी-कभी करते हैं, लेकिन केवल अपनी असफलताएं! सफलताएं कभी भी नहीं ।
केवल पराजय, जीत कभी भी नहीं । केवल दुख, सुख कभी भी नहीं ।
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कोई हार जाता है, तो कहता है, भाग्य। और कोई जीत जाता है, तो कहता है, मैं । कोई टूट जाता है, गिर जाता है, तो कहता है, अवसर, समय। सफल हो जाता है, तो कहता है, मैं। सफलताएं सब मैं को समर्पित कर देते हैं; असफलताएं सब परमात्मा को समर्पित कर देते हैं! दुख आते हैं, तो परमात्मा की तरफ हाथ उठाकर कहते हैं कि क्यों देता है दुख ! सुख आते हैं, तो अकड़कर निकलते हैं कि देखा, सुख निर्मित कर लिया !
इसलिए कृष्ण कहते हैं, सब समर्पित कर देता है जो। समर्पित तो हम भी करते हैं, सब नहीं, चुन-चुनकर समर्पित करते हैं। सब ! कह देता है, हार तेरी, जीत तेरी । कह देता है, तू ही है, मैं नहीं। कह देता है, फल तेरे। न फल आएं, तो निष्फलता तेरी । मेरा कुछ भी नहीं । स्वभावतः, जो इतनी सामर्थ्य दिखा पाएगा...।
और ध्यान रहे, समर्पण से बड़ी सामर्थ्य नहीं है। समर्पण से बड़ा संकल्प भी नहीं है। समर्पण कमजोरों की दुनिया की बात नहीं है, समर्पण इस जगत में बड़ी से बड़ी शक्ति की घटना है।
जो कह देता है, सब तेरा, स्वभावतः उसी क्षण बाहर हो जाता है । स्वभावतः, उसी क्षण सारी झंझट के बाहर हो जाता है । फिर छुएगा कैसे! फिर पाप छुएंगे कैसे? जब कर्म ही नहीं छूता, तो पाप कैसे छुएंगे ! पुण्य भी नहीं छुएंगे, ध्यान रखना। नहीं तो भूल होती है निरंतर गीता पढ़ने वालों को। वे सोचते हैं कि ऐसे आदमी को पाप नहीं छूते, पुण्य इकट्ठे करता चला जाता है! पुण्य भी नहीं छुएंगे। जिसे पाप नहीं छूते, उसे पुण्य छुएंगे? वह जो कमल का पत्ता होता है; क्या आप सोचते हैं, गंदा पानी उसको नहीं छूता, स्वच्छ पानी छू लेता है? क्या पानी में इत्र डाल देंगे, तो छू लेगा?
नहीं, जब कर्म ही नहीं छूते, तो न पाप छूता है, न पुण्य छूते हैं। कुछ भी नहीं छूता । वैसा आदमी अस्पर्शित, अनटच्ड जीवन से गुजर जाता है। बस, ठीक कमल के पत्ते की तरह। जल में ही होता है। पूरे समय जल की धार भी उस पर पड़ती है। कभी जल की लहरें छलांग मारकर उसकी छाती पर पड़ जाती हैं। बूंदें चमकने लगती हैं उसकी छाती पर मोतियों की तरह। लेकिन अस्पर्शित; पत्ते को छू नहीं पातीं। पड़ी रहती हैं ऊपर, तो पड़ी रहें। परमात्मा को समर्पित। सागर जाने, सागर की लहरें जानें। जब वापस लेना होगा | हवा के झोंकों को, फिर उतर जाएंगी बूंदें । लेकिन पत्ता अस्पर्शित रह जाता है।
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गीता दर्शन भाग-20
ठीक ऐसे ही, जो पुरुष कर देता सब कर्म समर्पित प्रभु को, वह आज इतना ही! फिर कल हम बात करेंगे। भी अस्पर्शित जीवन में यात्रा करता है। और जिसे न पाप छुएं और पांच मिनट बैठे रहेंगे, वैसे ही जैसे कमल का पत्ता पानी में बैठा न पुण्य, उसकी ताजगी, उसका क्वांरापन, उसकी वर्जिनिटी...। रहता है। थोड़ा इस कीर्तन को इस कीर्तन की लहरों को उछल जाने सच पूछे, तो वही क्वांरा है। जिसे छू जाएं पाप और पुण्य, वह | | दें आपके पास। शायद कुछ बूंद पड़ी रह जाएं! बैठे रहें पांच क्वांरा न रहा।
| मिनट। इतनी देर बैठे रहे हैं, पांच मिनट जल्दी न करें। कोई एकाध ईसाइयों की कथा है कि जीसस क्वांरी लड़की से पैदा हुए। ईसाई | | जन बीच में उठता है, दूसरों को तकलीफ होती है। तो पांच मिनट समझाने में बड़ी मुश्किल में पड़ते हैं कि कैसे पैदा हुए होंगे क्वारी भजन का आनंद लें, और फिर चुपचाप चले जाएं। . लड़की से! बड़ी मुश्किल में रहे हैं। ईसाइयों को बड़ी कठिनाई आई है कि कैसे समझाएं कि क्वांरी लड़की से पैदा हुए होंगे।
काश! जीसस को समझाने वालों को पता होता कि कर्मों के बाहर कमल के पत्ते की तरह भी रहा जा सकता है। अगर कर्मों के बाहर रहा जा सकता है, तो संभोग के क्षण में भी संभोग के बाहर रहा जा सकता है। अगर संभोग के क्षण में संभोग के बाहर रहा जा सके; वह व्यक्ति कहीं भी संभोग में सम्मिलित न हो, न पुरुष, न स्त्री; संभोग बाहर घटती घटना हो, परमात्मा को समर्पित; तो निश्चित कहना पड़ेगा कि यह बेटा वर्जिन मां का है; क्वांरी मां का बेटा है।
और मुझे लगता है कि जीसस क्वांरी मां से ही पैदा हुए होंगे। सच तो यह है कि जीसस के संबंध में यह बात दुनिया को पता चल गई। कृष्ण भी क्वांरी मां से पैदा होंगे। महावीर और बुद्ध भी क्वांरी मां से पैदा होंगे। क्योंकि इतना पवित्र पुत्र जिस मां से पैदा हो, उस मां को अगर क्वारापन न हो, तो पैदा हो नहीं सकता।
पर क्वारेपन का बहुत गहरा अर्थ है-अस्पर्शित, कृत्य के बाहर। कर्म परमात्मा को समर्पित है तब। तब कोई भी व्यक्ति इस जीवन से ऐसे गुजर जाता है, जैसे आया ही न हो। ऐसे गुजर जाता है कि जैसे हवा का झोंका आया और निकल गया। जैसा आया, वैसा ही निकल गया।
यह सूत्र, निष्काम कर्मयोगी हो कोई या कोई कर्म-त्याग के संन्यास में जी रहा हो, दोनों के लिए सार्थक है। एक ही बात स्मरण रखने की है, सारे कर्म परमात्मा को समर्पित!
वही है धार्मिक, जो कहता है कि करने वाला परमात्मा है। वही है अधार्मिक, जो कहता है, करने वाला मैं हैं। अगर आपने प्रार्थना करने में भी यह कहा कि मैंने प्रार्थना की है, तो आप अधार्मिक हो गए। आपने पूजा करके भी यह कहा कि मैंने पूजा की है, तो आप अधार्मिक हो गए! जहां कृत्य का भाव स्वयं से जुड़ा, अधर्म आ गया। और जहां कृत्य परमात्मा पर छोड़ दिया, वहीं धर्म है।
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अध्याय 5 छठवां प्रवचन
अहंकार की छाया है
ममत्व
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0 गीता दर्शन भाग-20
कायेन मनसा बुद्ध्या केवलैरिन्द्रियैरपि। | जाते हैं। बच्चे सरल होते, बूढ़े जटिल हो जाते हैं। जिंदगी के सारे योगिनः कर्म कुन्ति सङ्गं त्यक्त्वात्मशुद्धये ।। ११।। | अनुभव उन्हें और गड्ढों में पहुंचा देते हैं। इसलिए निष्काम कर्मयोगी ममत्व बुद्धिरहित केवल इंद्रिय, | तो हम उतार पर हैं, एक तो यह बात खयाल में ले लें। और मन, बुद्धि और शरीर द्वारा भी आसक्ति को त्यागकर | अनंत जन्मों का हमारे कर्मों का मोमेंटम है, गति है। अगर मैं आज अंतःकरण की शुद्धि के लिए कर्म करते हैं। | सारे काम बंद भी कर दूं, तो कोई अंतर नहीं पड़ता; मेरा मन फिर
भी उतरता चला जाएगा।
इसलिए कृष्ण ने इसमें एक बहुत अदभुत बात कही। उन्होंने 1 मत्व बुद्धि को त्यागकर अंतःकरण की शुद्धि के लिए, | कहा है कि ऐसे पुरुष, जो निष्काम कर्म में जीते हैं, वे अपने पिछले 01 जो जानते हैं, वे पुरुष शरीर, मन, इंद्रियों से काम | कर्मों की जो गति है, उसे काटने के लिए कर्म में रत होते हैं। वह __करते हैं।
जो उन्होंने गति दी है पिछले जन्मों में अपने कर्मों की, वह जो किया इस संबंध में दो-तीन बातें खयाल में ले लेनी चाहिए। है, उसे अनडन करने के लिए, उसे पोंछ डालने के लिए. कर्म में
एक, मनुष्य ने जो भी किया है अनंत जीवन में, आज तक, इस | रत होते हैं। घड़ी तक, उस कर्म का एक बड़ा जाल है। और आज ही मैं सब अगर उन्होंने क्रोध किया है अतीत जन्मों में, तो वे क्षमा के कर्म करना बंद कर दूं, तो भी मेरे पिछले अतीत जन्मों के कर्मों का जाल | में लग जाते हैं। अगर उन्होंने कठोरता और क्रूरता की है, तो वे टूट नहीं जाता है। उसका मोमेंटम है। जैसे मैं साइकिल चला रहा | | करुणा के कृत्य में लीन हो जाते हैं। अगर उन्होंने वासना और हूं। पैडल बंद कर दिए हैं, अब नहीं चला रहा हूं, लेकिन साइकिल | कामना में ही जीवन को बिताया है अनंत-अनंत बार, तो अब वे चली जा रही है-मोमेंटम है। दो मील से चलाता हुआ आ रहा हूं, | | सेवा में जीवन को लगा देते हैं। ठीक जो उन्होंने किया है अब तक, साइकिल के चाकों ने गति पकड़ ली है। अगर दो-चार-पांच मिनट | | उससे बिलकुल विपरीत, उतार की तरफ जाने वाला नहीं, चढ़ाव मैं बंद भी कर दं, तो भी साइकिल चलती चली जाती है। फिर अगर की तरफ जाने वाला कर्म वे शुरू कर देते हैं। उतार हो जीव
जीवन में तब तो मीलों भी चली जा सकती है। चढाव हो. लेकिन उसमें भी एक शर्त कष्ण की है। और वह जिसे खयाल तो जल्दी रुक जाएगी।
| में न रहेगी, वह भूल में पड़ सकता है। वह शर्त यह है कि ममत्व और जीवन में हमारे उतार है, चढ़ाव नहीं है। जैसे हम जीते हैं, | | को छोड़कर! क्योंकि कोई आदमी ममत्व के साथ, और ऊपर की वह सदा ही उतार में जीते हैं और नीचे, और नीचे, और नीचे। | यात्रा करना चाहे, तो गलती में है, यह असंभव है। बच्चे शिखर पर होते हैं, बूढ़े घाटियों में पहुंच जाते हैं। होना नहीं ___ ममत्व नीचे की यात्रा पर सहयोगी है, ममत्व ऊपर की यात्रा पर चाहिए। होना चाहिए उलटा, होता यही है। बच्चे एकदम पवित्र | | बाधा है। कर्म निर्मित करने हों, तो ममत्व कीमिया है, केमिस्ट्री है। सुगंध लेकर आते हैं, बूढ़े सिवाय दुर्गंध के और कुछ भी लेकर जाते | उसके बिना कर्म निर्मित नहीं होते। और कर्म काटने हों, तो ममत्व हुए मालूम नहीं पड़ते हैं। जिंदगी में हम कमाते कम, लुटते ज्यादा | तत्काल ही अलग कर देना जरूरी है, अन्यथा कर्म कटते नहीं। हैं। पाते कम, खोते ज्यादा हैं।
ममत्व से अर्थ क्या है? ममत्व से अर्थ है, एक तो हूं मैं, जैसे मैं जिंदगी एक उतार है हमारी। रोज हम नीचे उतरते जाते हैं। कल | | खड़ा हो जाऊं धूप में, तो एक तो मैं हूं जो खड़ा हूं, और धूप में मेरी जिसने चोरी की थी, वह आज और भी ज्यादा चोरी करेगा। कल एक छाया बनेगी। वह छाया मेरे चारों तरफ, जहां मैं जाऊंगा, घूमती जो झूठ बोला था, आज वह और भी ज्यादा झूठ बोलेगा। कल जो रहेगी। मैं तो ईगो है और ममत्व ईगो की छाया है, अहंकार की छाया क्रोधी था, वह आज और क्रोधी हो जाएगा। और रोज यह क्रोध, | है। मैं तो मेरा खयाल है कि मैं हूं; और मैं अकेला नहीं हो सकता, यह हिंसा, यह घृणा, यह काम, यह वासना, रोज बढ़ते चले| इसलिए मैं मेरे के एक जाल को फैलाता हूं अपने चारों तरफ। जाएंगे। फिर मन एक निश्चित आदत बना लेता है। फिर अपनी || मेरे के बिना मैं के खड़े होने में बड़ी कठिनाई है। इसलिए मेरे आदतों को दोहराए जाता है, बढ़ाए चला जाता है।
की छाया जितनी बड़ी हो, उतना ही लगता है कि मैं बड़ा हूं। मेरा हम उतार पर हैं। बच्चे श्रद्धा से भरे होते हैं, बूढ़े चालाकी से भर धन, मेरे मित्र, मेरा परिवार, मेरा मकान, मेरा महल, मेरे पद जितने
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अहंकार की छाया है ममत्व
बड़े हों... ।
मैंने सुना है, एक दिन सुबह-सुबह एक लोमड़ी शिकार के लिए निकली है। चली है शिकार को देखा है कि उसकी बड़ी लंबी छाया बनती है। सूरज निकल रहा है पीछे, बड़ी लंबी छाया है! उस लोमड़ी ने अपनी छाया देखी और सोचा, आज तो एक ऊंट शिकार को मिल जाए, तभी काम चलेगा! स्वभावतः, इतनी बड़ी छाया बनती है, तो लोमड़ी छोटी नहीं हो सकती! लोमड़ी के तर्क में कहीं कोई गलती नहीं है। गणित ठीक है। इतनी बड़ी छाया बन रही है कि एक ऊंट मिले शिकार में, तो ही काम चल सकेगा, लोमड़ी ने सोचा ।
दिनभर खोजते दोपहर हो गई है। शिकार मिला नहीं। सूरज सिर पर आ गया है। लोमड़ी भूखी है। नीचे की तरफ देखा, छाया बड़ी छोटी बनती है, न के बराबर । उसने कहा, क्या हुआ ! क्या भूख में मैं इतनी सिकुड़ गई ? अब तो एक चींटी भी मिल जाए, तो शायद काम चल जाए !
लोमड़ी का तर्क ठीक है। हम अपनी छाया से ही सोचते हैं कि हम कितने बड़े हैं। छाया नाप लेते हैं, सोच लेते हैं कि इतने बड़े हैं। अगर छाया बड़ी है मेरे की— मेरा मकान बड़ा है, तो मैं बड़ा; और अगर मेरा मकान छोटा है, तो मैं छोटा। मेरे धन का ढेर बड़ा है, तो मैं बड़ा और मेरे धन का ढेर छोटा है, तो मैं छोटा । मुझे नमस्कार करने वाले लोग ज्यादा हैं, तो मैं बड़ा; और मुझे नमस्कार करने वाले लोग थोड़े हैं, तो मैं छोटा ! छाया !
और जिंदगी के शुरू में सभी को वही भूल होती है, जो उस लोमड़ी को हुई थी। जब जिंदगी शुरू होती है, तो हर आदमी सोचता है कि मैं ! मेरे जैसा कोई भी नहीं । सारी जमीन भी छोटी पड़ेगी । और जब जिंदगी अंत होने के करीब आती है, तो पता चलता है कि अब तो कुछ भी नहीं रहा, छाया सिकुड़ गई है!
हम छाया को देखकर जीते हैं, इसलिए हम छाया को बढ़ाते रहते हैं, बड़ा करने की कोशिश में लगे रहते हैं। मेरे का अर्थ है, मैं की छाया, शैडो आफ दि ईगो । झूठा है। ध्यान रहे, कोई' झूठ खड़ा करना हो, तो और पच्चीस झूठ का सहारा लेना पड़ता है। सत्य को खड़ा करना हो, तो सत्य अकेला खड़ा हो जाता है, इंडिपेन्डेंट, स्वतंत्र । कोई झूठ अकेला खड़ा नहीं होता। किसी झूठ को आप अकेला कभी खड़ा नहीं कर सकते; उसको तो बैसाखियां लगानी पड़ती हैं और नए झूठों की ।
झूठ को खड़ा करना हो, तो पच्चीस झूठों का जाल खड़ा करना पड़ता है। और ऐसा नहीं है कि बात यहीं समाप्त हो जाती है। वे
जो पच्चीस झूठ आपने खड़े किए, प्रत्येक उनमें से एक के लिए भी पच्चीस । और यह इनफिनिट रिग्रेस है। और यह रोज करते रहना पड़ेगा ।
मैं बड़ा से बड़ा झूठ है मनुष्य की जिंदगी में। अगर इस अस्तित्व में किसी को मैं कहने का हक हो सकता है न्यायसंगत, तो वह | सिवाय परमात्मा के और किसी को नहीं हो सकता है। लेकिन उसने कभी कहा नहीं कि मैं हूं। लोग बहुत दफे चिल्लाकर पूछते हैं, कहां हो तुम? तो भी बोलता नहीं। लोग खोजने भी निकल जाते हैं, पहाड़ की कंदराओं को खोद डालते हैं, नदियों के उदगम तक चले जाते हैं, सारी जमीन छान डालते हैं, आकाश-पाताल एक कर देते हैं, फिर भी उसका पता नहीं चलता कि कहां है वह !
जिसे अधिकार है कहने का कि कह सके मैं, वह चुप है। और जिन्हें कोई अधिकार नहीं है, वे जिंदगीभर सुबह से सांझ तक बोलते रहते हैं - मैं, मैं, मैं शायद इसीलिए परमात्मा नहीं बोलता, | क्योंकि वह आश्वस्त है कि है । और हम इसीलिए बोलते हैं कि हमें कोई भरोसा नहीं है । बोल-बोलकर भरोसा पैदा करते रहते हैं कि हूं! चौबीस घंटे दोहरा दोहराकर भरोसा पैदा करते रहते हैं अपने ही मन में, आटोहिप्नोटिक, खुद को सम्मोहित करते रहते हैं कि मैं हूं। इसलिए अगर कोई आपके मैं को जरा-सी भी चोट पहुंचा दे, तो आप तिलमिला उठते हैं। क्योंकि आपका झूठ बिखर सकता हैं।
इस मैं के बड़े झूठ को खड़ा करने के लिए मेरे का जाल फैलाना | पड़ता है, उसको कृष्ण ममत्व कहते हैं। मेरे का जाल ।
मैं अकेला खड़ा नहीं रह सकता। अगर आपसे आपका मकान छीन लिया जाए, तो आप यह मत सोचना कि सिर्फ मकान छिना, आपके मैं की भी दीवालें गिर गई हैं। अगर आपसे आपका धन छीन लिया जाए, तो सिर्फ तिजोड़ी खाली नहीं होती, आप भी खाली हो जाते हैं। आपसे आपका पद छीन लिया जाए, तो पद ही नहीं छिनता, आपके भीतर की अकड़ भी छिन जाती है।
वह मैं मेरे के छिनने से क्षीण होता है। मेरे के बढ़ने से बड़ा होता है । तो जिसे भी धोखे में रखना है अपने को कि मैं हूं, उसे मेरे को बनाए जाना चाहिए, बढ़ाए जाना चाहिए। और जिसे धोखा तोड़ना हो, उसे ममत्व को छोड़कर देखना चाहिए कि मेरे को छोड़कर मैं बचता हूं?
जिसने मेरे को छोड़ा, वह अचानक पाता है, मैं भी खो गया । और जब तक मैं न खो जाए, तब तक कर्मों की धारा बंद नहीं होती। और जब तक मेरा न खो जाए और मैं न खो जाए, तब तक ऊर्ध्व
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गीता दर्शन भाग-26
यात्रा, ऊपर की यात्रा शुरू नहीं होती। मैं का पत्थर हमारी गर्दन में किया जा सकता। लटका हुआ हमें नीचे डुबाए चला जाता है।
त्याग को भी लोग कहते हैं, मेरा। आदमी बहुत अदभुत है। एक अहंकार से बडा पाप नहीं है। बाकी सारे पाप उसी से पैदा होते आदमी कहता है. धन मेरा: एक आदमी कहता है कि धन मेरा था. हैं। संततियां हैं। मूल अहंकार है। फिर लोभ, और क्रोध, और अब त्याग मेरा है। मैंने लाख रुपये त्याग कर दिए। अब वह त्याग काम, सब उस अहंकार के आस-पास जन्म लेते चले जाते हैं। पर भी मेरे होने का दावा करता है। धन पर कोई दावा करे, समझ इसलिए कृष्ण कहते हैं, ममत्व को छोड़ दे जो! | में आता है; पागल है। लेकिन त्याग का भी कोई दावा करे, तब तो मेरा क्या है ? हाथ, जब मैं विदा होऊगा, बिलकुल खाली होंगे। | महा पागल है। एक आदमी कहता है, मेरे पास लाख रुपए हैं। और जिसे मैं ले जा न सकूँगा, वह मेरा कैसे है? और जिसे मैं मेरा अकड़कर चलता है रास्ते पर। दूसरा आदमी कहता है, मैंने लाख कह रहा हूं, वह मेरे पहले भी था; मैं उसे लाया नहीं, वह मेरा कैसे | रुपए त्याग कर दिए हैं। वह और भी ज्यादा अकड़कर चलता है है? और जिसे मैं मेरा कह रहा हूं, मुझसे पहले न मालूम कितने | रास्ते पर। त्याग भी मेरा! तब लगता है कि आदमी के पागलपन लोगों ने उसे मेरा कहा है। वे सब खो गए। वह अभी भी बना है। | की कोई सीमा नहीं है और अहंकार की तरकीबों का कोई अंत नहीं हम भी खो जाएंगे, वह फिर भी बना रहेगा।
| है। वह कहीं से भी रास्ता खोज लेता है। .. जमीन को हम कहते हैं, मेरी जमीन। उस जमीन ने हमारे जैसे | | इस पृथ्वी पर जो मान ले कि मैं अज्ञानी हूं, समझना कि उसने बहुत-से पागल देखे हैं। जिन्होंने मेरे की घोषणा की, लड़े, कटे | | ज्ञान का बहुत बड़ा कदम उठाया। जो मान ले कि मैं भोगी हूं,
और मिट्टी में खो गए। वह जमीन हंसती होगी कि दावेदार खोते | समझना कि उसने त्याग का बहुत बड़ा कदम उठाया। क्योंकि यह नहीं! वही पुराना दावा जारी रहता है! कितने लोग दावेदार हो चुके | मान्यता, यह समझ विनम्र कर जाती है और अहंकार को तोड़ती है। हैं उस जमीन के टुकड़े के, जिसके आप भी दावेदार हैं। कितने | लेकिन इस पृथ्वी पर कोई मानने को राजी नहीं है कि मैं अज्ञानी हूं। लोगों ने नहीं कहा कि मेरा है। फिर वे सब मेरे का दावा करने वाले | | मैंने सुना है कि एक ज्ञानी एक चर्च में गया, एक पादरी। और लोग खो गए; वह जमीन अपनी जगह पड़ी है। वह जमीन हंसती जो भी धर्मशास्त्र पढ़ लेते हैं, वे ज्ञानी हो जाते हैं ! ज्ञानी होना बड़ा होगी, जब आप अपने घर पर तख्ती लगाते होंगे कि मेरी जमीन, | | सरल है! है नहीं, मान लेना बहुत सरल है। उस पादरी को खयाल तब जमीन जरूर मुस्कुराती होगी कि फिर कोई पागल आ गया! | है कि मैं जानता हूं। आते ही उसने पहली धाक लोगों पर जमा देनी फिर वही भूल!
| चाही। उसने खड़े होकर लोगों से कहा कि मैं तुमको समझाऊंगा इस दुनिया में नई भूलें करने वाले लोग तक खोजना मुश्किल | | बाद में, पहले मैं यह पूछ लूं कि तुम में कोई अज्ञानी हो, तो खड़ा हैं। लोग पुरानी भूलें ही किए चले जाते हैं। नई भूल करना है भी | हो जाए। मुश्किल। आदमी सब भूलें कर चुका है; हजारों बार कर चुका है। ___ कौन खड़ा होता! लोग एक-दूसरे की तरफ देखने लगे। जैसे मैं
कृष्ण कहते हैं, ममत्व छूट जाए, कर्म जारी रहे, तो ऊर्ध्व यात्रा | आपसे पूछु कि कोई अज्ञानी हो, तो खड़ा हो जाए। तो जो जिसको शुरू हो जाती है। अतीत के कर्म कटते हैं और आदमी ऊपर उठता | | अज्ञानी समझता होगा—अपने को छोड़कर ही समझेगा
सदा-वह उसकी तरफ देखेगा कि फलां खडा हो रहा है कि नहीं? लेकिन ममत्व बहुत गहरा है। धन का तो है ही, पद का तो है ही; | अब तक खड़ा नहीं हुआ! पत्नी पति की तरफ देखेगी, पति पत्नी ज्ञान का और त्याग तक का ममत्व होता है। आदमी कहता है, मैं | की तरफ देखेगा; बाप बेटे की तरफ देखेगा, बेटा बाप की तरफ इतना जानता हूं। जानने पर भी मेरे को हावी कर लेता है। हद हो गई! देखेगा कि अभी तक खड़े नहीं हो रहे! कोई खड़ा नहीं होगा। ममत्व अज्ञान का हो, तो समझ में आ सकता है। ज्ञान का भी ममत्व! कोई खड़ा नहीं हुआ। उस पादरी ने कहा, कोई भी अज्ञानी नहीं
इसलिए उपनिषद कहते हैं कि अज्ञानी तो भटकते ही हैं अंधकार | है? धक्का लगा उसे। क्योंकि वह सोचता था, वह ज्ञानी है। और में, कभी-कभी ज्ञानी महा अंधकार में भटक जाते हैं। अगर किसी जब कोई भी खड़ा नहीं होता, तो सभी ज्ञानी हैं! तभी एक डरा हुआ ने ज्ञान पर कहा कि मेरा, तो वह अज्ञानी से भी लंबी भटकन में पड़ | सा आदमी, बहुत दीन-हीन सा आदमी झिझकता हुआ, चुपचाप जाएगा। क्योंकि अज्ञानी क्षमा किया जा सकता है; ज्ञानी क्षमा नहीं | उठकर खड़ा हो गया। उस पादरी ने कहा, आश्चर्य। चलो, एक
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अहंकार की छाया है ममत्व
आदमी तो अज्ञानी मिला। क्या तुम अपने को अज्ञानी समझते हो? + ही प्रकार के वर्ग हैं जगत में, दो ही प्रकार के लोग हैं उसने कहा कि नहीं महानुभाव, आपको अकेला खड़ा देखकर मुझे | | जगत में, सकामी और निष्कामी। आध्यात्मिक अर्थों बड़ी शर्म मालूम पड़ती है, इसलिए मैं खड़ा हो गया हूं। आप
में दो ही विभाजन हो सकते हैं। वे, जो कर्म में लीन अकेले ही खड़े हैं! अच्छा नहीं मालूम पड़ता, शिष्टाचार नहीं होते हैं तभी, जब फल की आकांक्षा से उत्प्रेरित होते हैं। जब तक मालूम पड़ता। आप अजनबी हैं, बाहर से आए हैं। इसलिए मैं खड़ा | फल की आकांक्षा का तेल न मिले, तब तक उनके कर्म की ज्योति हो गया हूं, अज्ञानी मैं नहीं हूं।
जलती नहीं। फ्यूल जो है, वह फल की आकांक्षा से मिलता है। वह इस पृथ्वी पर कोई अपने को अज्ञानी मानने को राजी नहीं है। जो ईंधन है, उसके बिना उनकी कर्म की अग्नि जलती नहीं। उनके कोई अपने को भोगी मानने को राजी नहीं है। कोई अपने को कर्म की अग्नि को जरूरी है कि ईंधन मिले फल की आकांक्षा का। अहंकारी मानने को राजी नहीं है। कोई अपने को ममत्व से घिरा है, और ध्यान रहे, फल की आकांक्षा बड़ी गीली चीज है; सूखी ऐसा मानने को राजी नहीं है। और सब ऐसे हैं। और जब बीमारी चीज नहीं है। होगी ही गीली। क्योंकि सूखी चीज भविष्य में कभी अस्वीकार की जाए, तो उसे ठीक करना मुश्किल हो जाता है। नहीं होती। सूखी चीज सदा अतीत में होती है। भविष्य में तो गीली बीमारी स्वीकार की जाए, तो उसका इलाज हो सकता है, निदान हो | | आकांक्षाएं होती हैं। हो सकता है, हो भी जाएं; हो सकता है, न भी सकता है, चिकित्सा हो सकती है।
| हों। पता नहीं क्या मार्गलें, क्या फल आए। कुछ पक्का नहीं होता। देख लेना ठीक से। कृष्ण कहते हैं, ममत्व को छोड़ देता है जो! __भविष्य बहुत गीला है। गीली लकड़ी की तरह है; मुड़ेगा; मुड़
पर ममत्व को मानना पहले कि ममत्व है आपकी जिंदगी में, | सकता है। अतीत सूखा होता है, सूखी लकड़ी की तरह; मुड़ नहीं तभी छोड़ सकेंगे। जो बहुत चालाक हैं, वे कहेंगे, छोड़ना क्या है! सकता। भविष्य की आकांक्षाओं को जो ईंधन बनाते हैं अपने जीवन ममत्व तो हमारी जिंदगी में है ही नहीं। धोखा पक्का हो गया। | की कर्म-अग्नि में, धुएं से भर जाते हैं। गीला है ईंधन। हाथ में फल - ममत्व है। लगता है, कोई मेरा है-चाहे पत्नी, चाहे पिता, चाहे नहीं लगता है, सिर्फ धुआं लगता है-दुख-आंखों में आंसू भर मां, चाहे बेटा, चाहे मित्र, चाहे शत्रु-मेरा है! शत्रु तक से ममत्व | जाते हैं धुएं से, और कुछ परिणाम नहीं लगता है हाथ में। होता है। इसलिए ध्यान रखना, जब शत्र मरता है. तब भी आप कछ। एक तो इस तरह के लोग हैं जो कर्म में इंचभर भी न चलेंगे, जब कम हो जाते हैं, समथिंग लेस। क्योंकि उसकी वजह से भी आपमें तक फल उनको खींचे न। फल उनको ऐसे ही न खींचे, जैसे कि कुछ था। वह भी आपको कुछ बल देता था। उसके खिलाफ | कोई जानवर की गर्दन में रस्सी बांधकर खींचता है। क्या आपको लड़कर भी कुछ कमाई चलती थी। वह भी आपके ममत्व का | पता है कि पशु हम जानवर को इसीलिए कहते हैं। पशु संस्कृत का हिस्सा था।
बहुत अदभुत शब्द है। उसका अर्थ है, जिसे खींचना हो, तो गले ___ ममत्व जो छोड़ दे, फिर भी कर्म में संलग्न हो। इंद्रियों और शरीर में पाश बांधना पड़ता है, उसको पशु कहते हैं। जिसे खींचने के के कर्मों को करता चला जाए, इसलिए ताकि पिछले कर्मों की गति | लिए पाश बांधना पड़े, वह पशु। इसलिए बहुत पुराने ज्ञानी हमको कटे और कर्म-बंधन से मुक्ति हो, ऐसे व्यक्ति को कृष्ण निष्काम | | पशु ही कहेंगे। जो भी भविष्य की आकांक्षा से बंधे हुए चलते हैं, कर्मयोगी कहते हैं।
| वे पशु हैं। ___ पशु का मतलब, कर्म से नहीं चलते, फल से बंधे हुए चलते हैं।
गर्दन फंसी है एक जाल में। भविष्य के हाथ में है वह रस्सी। वह युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम् । | खींच रहा है। या तो भविष्य खींचे, तो हम चलते हैं; कोई हमारी अयुक्तः कामकारेण फलै सक्तो निबध्यते ।। १२ ।। | गर्दन में रस्सी बांध ले। और या अतीत धक्का दे, तो हम चलते हैं। इसी से निष्काम कर्मयोगी कर्मों के फल को परमेश्वर के | जैसे कोई जानवर को पीछे से लकड़ी मारे या कोई बाहर से रस्सी अर्पण करके भगवत प्राप्ति रूप शांति को प्राप्त होता है। खींचे आगे से। या तो कोई पुल करे या पुश करे, तो ही जानवर चले। और सकामी पुरुष फल में आसक्त हुआ कामना के द्वारा | तो पुराने ज्ञानी कहते हैं कि वह आदमी पशु है, जो या तो अतीत बंधता है।
| के कर्मों के धक्के की वजह से चलता है और या भविष्य की
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गीता दर्शन भाग-20
अभी।
आकांक्षाओं के पाश में बंधकर खिंचता है। वह आदमी नहीं है। यह आप पर निर्भर करता है कि जहां आप प्रवेश कर रहे हैं, वह
मंदिर है या मकान। जिस भूमि पर आप निष्काम होकर खड़े हो आदमी कौन है? आदमी वह है, जो अतीत के धक्के को भी नहीं जाएं, वह तीर्थ हो जाती है। और जिस भूमि पर आप सकाम होकर मानता और जो भविष्य की आकांक्षा को नहीं मानता, जो वर्तमान खड़े हो जाएं, वह पाप हो जाती है। भूमि पर निर्भर नहीं है यह। यह के कर्म में जीता है। जो अतीत के धक्के को भी स्वीकार नहीं करता आप पर निर्भर है। लेकिन हम तो पूरे समय कामवासना से ही जीते
और जो भविष्य के आकर्षण को भी स्वीकार नहीं करता। जो कहता हैं। कुछ भी करेंगे...। है, मैं तो अभी, यह जो क्षण मिला है, इसमें जीऊंगा।
एक मित्र कल मेरे पास आए। उन्होंने कहा कि इस भजन-कीर्तन लेकिन यह जीना तभी संभव है, जब कोई अतीत को और | से क्या मिलेगा? मैं भी करना चाहता हूं, लेकिन मिलेगा क्या? भविष्य को परमात्मा पर समर्पित कर दे। अन्यथा अतीत धक्के स्वाभाविक। न मिले, तो नाहक परेशान होने से कोई सार नहीं। मैंने मारेगा, अन्यथा भविष्य खींचेगा।
उनसे कहा कि जब तक मिलने का खयाल है, तब तक कीर्तन न आदमी बहुत कमजोर है। आदमी स्वभावतः बहुत सीमित शक्ति | कर पाओगे। क्योंकि मिलने के खयाल से तो कीर्तन का कोई संबंध का है। आदमी भविष्य को और अतीत को बिना परमात्मा के सहारे ही नहीं जुड़ता। फिर दूकान करो। के छोड़ना बहुत मुश्किल पाएगा। लेकिन परमात्मा को समर्पित | कीर्तन का तो अर्थ ही यह है कि कुछ घड़ी ऐसी भी है, जब हम करके आसान हो जाती है बात। छोड़ देता है कि जो तेरी मर्जी होगी, कुछ भी नहीं पाना चाहते। कुछ दस क्षण के लिए हम ऐसे जीना कल वह हो जाएगा। अभी जो समय मुझे मिला है, वह मैं काम में | चाहते हैं कि कुछ पाना नहीं, नान-परपजिव, कोई प्रयोजन नहीं है। लगा देता हूं। और मेरा आनंद इतना ही है कि मैंने काम किया; फल | जीवन मिला है, इसके आनंद में, इसके उत्सव में नाच रहे हैं। से मेरा कोई प्रयोजन नहीं है।
| श्वास चल रही है, इसके आनंद-उत्सव में नाच रहे हैं। परमात्मा __ आनंद जिसका कर्म बन जाता है! लेकिन तभी बन पाता है, जब | ने हमें भी इस योग्य समझा कि जीवन दे, इसकी खुशी में नाच रहे कोई प्रभु पर समर्पित करने की सामर्थ्य रखता है। इसलिए कृष्ण | | हैं। कुछ पाने के लिए नहीं, धन्यवाद की तरह, एक आभार, कहते हैं, फल की आकांक्षा को छोड़कर, निष्काम होकर प्रभु को | | ग्रेटिटयूड की तरह। कीर्तन एक आभार है, बैंक्स गिविंग। कुछ पाने समर्पित कर देता है जो सारा जीवन, वही आनंद को उपलब्ध होता | के लिए प्रयोजन नहीं है। कुछ मिलेगा नहीं उससे। है। कामीजन, सकामीजन कभी आनंद को उपलब्ध नहीं होते। दुख | ऐसा जब मैं कहता हूं, कुछ मिलेगा नहीं उससे, तो आप यह का धुआं ही उनका फलश्रुति है।
| मत समझ लेना कि जो कीर्तन करते हैं, उन्हें कुछ मिलता नहीं है। लेकिन हम तो अगर मंदिर में परमात्मा पर कुछ समर्पण भी करने | | ऐसा मत समझ लेना। जब मैं कहता हूं, कुछ मिलेगा नहीं, तो मैं जाएं, तो सकाम होते हैं। प्रार्थना भी हम मुफ्त में नहीं करते; प्रार्थना | यह कहता हूं कि कीर्तन में आना हो, तो मिलने का खयाल छोड़कर में भी हम कुछ पाना चाहते हैं! हाथ भी जोड़ते हैं परमात्मा को, तो | आना। जो आ जाता है, उसे तो बहुत मिलता है, जिसका कोई शर्त, कंडीशन होती है। कुछ मिल जाए। जिसे कुछ नहीं चाहिए, | | हिसाब नहीं है। लेकिन उसका खयाल रखकर जो आएगा, उसको वह मंदिर जाता नहीं। जाता ही तब है कोई, जब उसे कुछ चाहिए। नहीं मिलेगा। यह कठिनाई है।
और ध्यान रहे, जब कोई कुछ मांगने मंदिर जाता है, तो मंदिर | अगर आप यह खयाल रखकर आए कि बहुत कुछ मिलेगा, तो पहुंच ही नहीं पाता। मंदिर पहुंच ही नहीं सकता है। मंदिर के द्वार | आप खाली हाथ लौट जाएंगे। और अगर आप खाली मन आए; पर ही निष्काम हो जाए जो, वही भीतर प्रवेश कर सकता है। । | कुछ लेने नहीं, सिर्फ प्रभु को धन्यवाद देने, बेशर्त; हृदय भर
आप कहेंगे, हम तो मंदिर में रोज प्रवेश कर जाते हैं। जाएगा किसी अनूठे आनंद से। एक नया ही द्वार खुल जाएगा।
आप मकान में प्रवेश करते हैं, मंदिर में नहीं। मंदिर और मकान | | ध्यान रहे, कृष्ण यह नहीं कह रहे हैं कि जो निष्काम कर्म करता में बड़ा फर्क है। जिस मकान में भी आप निष्काम प्रवेश कर जाएं, | है, उसे फल मिलता नहीं है। इस भूल में मत पड़ जाना कि उसको वह मंदिर हो जाता है। और मंदिर में भी सकाम प्रवेश कर जाएं, | | फल नहीं मिलता। और इस भूल में भी मत पड़ जाना कि जो सकाम वह मकान हो जाता है।
कर्म करता है, उसको फल मिलता है। हालत बिलकुल उलटी है।
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अहंकार की छाया है ममत्व
जो सकाम जीता है, उसे फल कभी नहीं मिलता। और जो | | पहुंचे, अब पहुंचे। कहीं पहुंचते नहीं। चक्कर खाकर नीचे गिर निष्काम जीता है, उसके जीवन पर प्रतिपल फल की वर्षा होती है! पड़ते हैं। और लकड़ी के घोड़े की चकरी पर से तो उतरकर अपने लेकिन बड़ा उलटा नियम है जिंदगी का। जो मांगता है, वह भिखारी | | घर वापस लौट आते हैं; लेकिन जिंदगी की चकरी से जब चक्कर की तरह मांगता रहता है, उसे कभी नहीं मिलता। और जो नहीं | खाकर गिरते हैं, तो कब्र में वापस पहुंचते हैं; घर-वर नहीं पहुंचते। मांगता, वह सम्राट की तरह खड़ा हो जाता है और सब उसे मिल | - जिंदगीभर कामना दौड़ाती है-लकड़ी के घोड़े ही हैं; कहीं जाता है।
| पहुंचाते नहीं-दौड़ाती है। शायद आपको खयाल न हो, यह जीसस ने कहा है, जो बचाएगा, वह खो देगा; और जो खो संस्कृत का शब्द संसार बहुत अदभुत है। इसका मतलब होता है, देगा, वह पा लेगा।
|चक्कर, दि व्हील। वह जो भारत के राष्ट्रीय ध्वज पर व्हील बना अजीब-सी बात कही है! जो बचाएगा, वह खो देगा। हम सब | । हुआ है, वह नेहरू को पता नहीं था, नहीं तो वे कभी न बनाते। बचा रहे हैं। आखिर में खाली, शून्य हाथ में रह आएगा। और जो | उनको पता नहीं था कि वह बुद्ध का प्रतीक है। और अशोक ने खो देगा, वह पा लेगा। उससे फिर कुछ छीना नहीं जा सकता है। | अपने स्तंभ पर खुदवाया था इसलिए कि यह संसार चकरी की तरह
कृष्ण की बात को भी ठीक से समझ लें। वे कहते हैं, दो तरह है। इस पर बैठकर घूमते रहोगे सदा, पहुंचोगे कहीं नहीं। उनको के लोग हैं। एक कामना से जीने वाले, सकामी। कुछ भी करेंगे, | पता नहीं था, नहीं तो वे कभी न बनवाते, क्योंकि दिल्ली में तो सिर्फ पहले पक्का कर लेंगे, फल क्या मिलेगा! प्रेम तक करने जाएंगे, | चकरी वाले ही लोग इकट्ठे होते हैं। जिनको अपने गांव छोटे पड़ते तो पहले पक्का कर लेंगे, फल क्या मिलेगा! प्रार्थना करने जाएंगे, | हैं, उनको जरा बड़े घोड़े चाहिए। दिल्ली में काफी सरकस चलता तो पहले पक्का कर लेंगे कि फल क्या मिलेगा। फल पहले. फिर है बड़े घोड़ों वाला। उस पर बैठकर वे चक्कर खाते रहते हैं। पांच कुछ कदम उठाएंगे। इन्हें फल कभी नहीं मिलेगा। मेहनत ये बहुत | | साल के बाद फिर जनता से कहते हैं कि हमें पहुंचाओ; हमें फिर करेंगे। दौड़ेंगे बहुत, पहुंचेंगे कहीं भी नहीं। इनकी हालत चक्कर खाना है! करीब-करीब वैसी होगी...।।
__यह पूरा का पूरा संसार सकाम चक्कर है, ए व्हील आफ मुझे याद आता है कि मेरे गांव के पास वर्ष में कोई दो-तीन बार | डिजायरिंग। बस, इच्छा होती है, यह मिल जाएगा, यह मिल मेला भरता था। और बचपन से ही एक बात मेरी समझ में कभी भी | जाएगा। चक्कर लगा लेते हैं, मिलता कभी कुछ नहीं है। मरते हुए नहीं आई कि उस मेले में लकड़ी के घोड़ों की चकरी लगती थी। | आदमी से पूछो कि क्या मिला?
और जितने भी लोग जाते, उस पर बैठते; पैसे खर्च करते; उस मैंने उस शिक्षक से पूछा था, कहां पहुंचे? वे चौंककर खड़े हो चक्कर में गोल चक्कर खाते। बच्चे चक्कर खात थे, तो ठीक। एक गए। उन्होंने मुझसे उलटा ही कहा। उन्होंने कहा कि अभी तुम न दिन मैंने देखा कि मेरे स्कूल के शिक्षक भी उस पर बैठकर चक्कर | | समझ सकोगे, तुम्हारी उम्र कम है। खा रहे हैं! मैं बहुत हैरान हुआ। मैंने जाकर उनसे पूछा-काफी | | उन्होंने मुझसे कहा, अभी तुम न समझ सकोगे, तुम्हारी उम्र कम चक्कर वे ले चुके, उनकी जेब के सब पैसे खाली हो गए उस है। मैं अभी तक नहीं समझा। अभी भी गांव जाता हूं, तो उनके पास चक्कर में-मैंने उनसे पूछा कि आप पहुंचे कहां? चले तो बहुत। जाता हूं कि अब जरा मेरी उम्र तो काफी हो गई, अब समझा दें। उन्होंने कहा, पहुंचे! लकड़ी के घोड़े पर बैठकर चकरी में घूम रहे | | उस चकरी पर आप बैठे थे, कहां पहुंचे? अब मुझसे इस बार मैं हैं। पहुंच कहीं भी नहीं रहे, सिर्फ चकरा रहे हैं।
गया, तो वे कहने लगे, छोड़ो भी उस बकवास को। तीस साल हो __ अनेक को उतरकर चक्कर खाते देखा। किसी को वामिट होते | | | गए! मैंने कहा, उस वक्त आपने कहा था कि उम्र कम है। अब देखी। समझ में मेरे कभी न आया कि यह हो क्या रहा है। लेकिन | तीस साल...। कब? कहीं ऐसा न हो कि दुबारा मैं आऊं और आप अब धीरे-धीरे समझ में आता है कि वह मेले की चकरी तो बहुत | न बचें, क्योंकि आपकी उम्र अब अस्सी साल होती है। मुझे कब छोटी है, उस पर तो कभी कोई बैठता है। संसार की चकरी पर सब | बताइएगा कि आप पहुंचे कहां थे उस चकरी पर बैठकर! बैठे रहते हैं। कहीं पहुंचते नहीं। हालांकि हर पल लगता है कि अब | वे मुझे देखते हैं कि डर जाते हैं। वे समझते हैं कि मैं आया, वह पहुंचे, अब पहुंचे! घोड़ा बढ़ता ही चला जाता है। लगता है, अब | चकरी का सवाल उठेगा। एक दफा मैंने उनको बैठा देख लिया!
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गीता दर्शन भाग-20
अभी तक इतनी हिम्मत नहीं जुटा पाए कि वे मुझसे कह दें कि कहीं | प्रश्नः भगवान श्री, आपने पिछली चर्चा में कहा है नहीं पहुंचा। इतना कमजोर है आदमी! एक दफा मुझसे कह दें, | | कि प्रार्थना बहिर्मुखी लोगों की साधना है और ध्यान झंझट मिट जाए। मैं तो नहीं छोडूंगा। मैं तो जब भी जाता हूं, पहले अंतर्मुखी लोगों की साधना है। तब तो आज के इस उनके घर पहुंचता हूं कि अब बता दें। एक साल और बीत गया। बहिर्मुखी युग को प्रार्थना की साधना में ले जाना
अभी तक मेरी समझ में नहीं आया कि आप कहां पहुंचे थे। चाहिए। लेकिन आप तो ध्यान का आंदोलन चलाते ___ वह आदमी शक्तिशाली है, जो कमजोरी को स्वीकार कर लेता | | हैं! आपकी नई ध्यान पद्धति अंतर्मुखी व बहिर्मुखी है, क्योंकि तब कमजोरी के पार हुआ जा सकता है। सकाम दौड़ता | | व्यक्तित्व के लिए किस ढंग से संबंधित है? इन दोनों है बहुत, पहुंचता कहीं भी नहीं है, सिवाय दुख के। निष्काम कहीं बातों पर प्रकाश डालें। भी नहीं पहुंचना चाहता है, और जहां खड़ा होता है, वही से पहुंच जाता है।
तो यह मत सोचना आप कि निष्काम व्यक्ति को फल नहीं | निश्चित ही, ध्यान अंतर्मुखी व्यक्ति की यात्रा रही है और मिलता। निष्काम को ही फल मिलता है। लेकिन निष्काम फल IUI प्रार्थना बहिर्मुखी व्यक्ति की यात्रा रही है। लेकिन चाहता नहीं। वह कर्म को पूरा कर लेता है और चुप रह जाता है। ध्यान के हजारों मार्ग संभव हो सकते हैं और प्रार्थना परमात्मा पर छोड़ देता है।
के भी हजारों रूप संभव हो सकते हैं। और ऐसा भी नहीं है कि इतने भरोसे से जो समर्पण कर सकता है परमात्मा पर, वह अगर | | ध्यान के जितने रूप आज तक रहे हैं, उनसे और ज्यादा रूप नहीं निष्फल चला जाए, तो इस पृथ्वी पर धर्म की फिर कोई जगह नहीं | | हो सकते। और ऐसा भी नहीं है कि जितनी प्रार्थनाओं की पद्धतियां है। जो इतने भरोसे से परमात्मा पर छोड़ देता है कि करूंगा मैं और अब तक खोजी गई हैं, उससे और ज्यादा पद्धतियां नहीं खोजी जा सो जाऊंगा, फल तेरे ऊपर रहा। अगर वह भी निष्फल चला जाए, | सकती हैं। तो फिर इस पृथ्वी पर धर्म की कोई भी जगह नहीं है। ___ मैं जिस ध्यान की पद्धति की बात करता हूं, वह बहुत गहरे अर्थों
लेकिन वह कभी निष्फल नहीं गया। इसलिए धर्म का कितना ही में दोनों का जोड़ है। मैं जिसे ध्यान कहता हूं, वह दोनों का जोड़ ह्रास होता चला जाए, धर्म मर नहीं सकता। और धर्म का कितना | है। उसमें तीन हिस्से बहिर्मुखी व्यक्ति के लिए हैं और चौथा हिस्सा ही विरोध होता रहे, कोई न कोई उसे फिर जगा लेता है, फिर | | अंतर्मुखी व्यक्ति के लिए है। जो तीन हिस्से उस ध्यान के कर लेगा पुनरुज्जीवित कर देता है।
बहिर्मुखी व्यक्ति भी, वह भी वहीं पहुंच जाएगा, जहां अंतर्मुखी जिसको भी जिंदगी में इस राज का पता चल जाता है कि बिना व्यक्ति पहुंचता है। और अंतर्मुखी व्यक्ति को पहले तीन हिस्सों को मांगे मिलता है और मांगने से नहीं मिलता, वही व्यक्ति धार्मिक हो | | करने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी, वह पहले ही हिस्से से चौथे में जाता है। और जब तक आपको इस सीक्रेट का पता नहीं है, आप छलांग लगा जाएगा। चाहे हिंदू हों, चाहे मुसलमान, चाहे जैन, चाहे ईसाई, चाहे आप | | ध्यान की ऐसी प्रक्रिया संभव है, जिसमें बहिर्मुखी और अंतर्मुखी कोई भी हों; मंदिर जाते हों, मस्जिद जाते हों-कुछ भी न होगा। | | दोनों के लिए द्वार खोजा जा सके। और प्रार्थना भी ऐसी खोजी जा
जिस दिन आपको यह पता चल जाएगा कि जो नहीं मांगता, उसे | सकती है, जिसमें अंतर्मुखी और बहिर्मुखी दोनों के लिए द्वार खोजा मिलता है। जो प्रभु पर छोड़ देता है, वह पा लेता है। और जो अपने जा सके। ही हाथ में सब कुंजी रखता है, वह सब गंवा देता है। जब तक ___ उदाहरण के लिए, आपने यहां कीर्तन देखा है। इस कीर्तन में आपको इसका पता नहीं है। तब तक आपकी जिंदगी में धर्म का | | अंतर्मुखी भी सम्मिलित हो सकता है, बहिर्मुखी भी सम्मिलित हो अवतरण नहीं हो सकता है।
सकता है। लेकिन थोड़ी ही देर में फर्क पड़ने शुरू हो जाएंगे। ___ इस सूत्र में कृष्ण ने धर्म की बुनियादी 'की', कुंजी की बात कही | | बहिर्मुखी नृत्य में गहरा बढ़ता चला जाएगा। उसकी आवाज प्रकट
| होने लगेगी, उसका गीत झरने लगेगा, उसका नृत्य बढ़ने लगेगा। | अंतर्मुखी अगर गीत से शुरू भी करेगा, थोड़ी देर में गीत खो
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• अहंकार की छाया है ममत्व
जाएगा। नृत्य से शुरू भी करेगा, थोड़ी देर में नृत्य खो जाएगा। तो चलता ही रहता है! तो मैं उससे कहता हूं, पहले खूब चला लो। अंततः वह गिर पड़ेगा, चुप हो जाएगा, मौन में डूब जाएगा। चिल्लाओ जोर से। रोओ, कूदो, नाचो, गाओ। खूब चला लो।
बहिर्मुखी नृत्य की चरम स्थिति में जो अनुभव करेगा, वही | | इतना चला लो कि तुम्हारा चलने का जो मन है, उसको पूरी-पूरी अंतर्मुखी गिरकर, बिलकुल मुर्दे की भांति पड़कर अनुभव करेगा। | तृप्ति मिल जाए। उसी तृप्ति के मार्ग से पहुंचो वहां, जहां चलना दोनों अपनी-अपनी यात्रा पर निकल जाएंगे।
ठहर जाता है। और मेरी अपनी समझ ऐसी है कि भविष्य के लिए ऐसी विधियां | | मेरी पद्धति में बहिर्मुखी अंतर्मुखी दोनों के लिए समान प्रवेश है। खोजी जानी चाहिए, जो विधियां दोनों के लिए उपयोगी हो सकें | ये जो अंतर्मुखता और बहिर्मुखता के मार्ग हैं, ये कोई विपरीत
और जिस भांति का व्यक्ति भी उसमें प्रवेश करे, वह अपने लिए मार्ग नहीं हैं। भिन्न-भिन्न प्रकार के लोगों के लिए एक ही जगह द्वार खोज ले।
पहुंचा देने वाले मार्ग हैं। यह कीर्तन है। इसमें अंतर्मुखी थोड़ी ही देर में गाना छोड़ देगा, नाचना छोड़ देगा, डूब जाएगा, खो जाएगा कहीं। बहिर्मुखी नाच में गहरा चला जाएगा, और इतना गहरा चला जाएगा, आखिर में प्रश्नः भगवान श्री, इस गीता ज्ञान यज्ञ से नाचने-गाने नाच ही बचेगा, नाचने वाला खो जाएगा। तब फिर वह भी वहीं का क्या संबंध है, इसे और स्पष्ट कीजिए। और इस पहुंच जाएगा, जहां वह नाच खो गया और एक आदमी शून्य हो संकीर्तन में नाचना अस्तव्यस्त, डिसआर्डरली और गया। फिर नाच ही रह गया और नृत्य करने वाला खो गया, वह मनमाना क्यों है, इसे भी साफ करें। भी भीतर शून्य हो गया। दोनों की परम स्थिति एक हो जाएगी। लेकिन दोनों एक ही विधि से प्रवेश कर पा सकते हैं।
ठीक ऐसा ही मेरा ध्यान भी है। उसमें तीन चरण एक्सट्रोवर्ट हैं। मनभावतः, ऐसा खयाल और मित्रों को भी उठा। उन्होंने पहले चरण में गहरी श्वास है, वह बहिर्मुखी के लिए बड़ी उपयोगी रप भी मुझे पूछा है कि गीता ज्ञान यज्ञ से कीर्तन का, धुन है। दूसरे चरण में नृत्य है, कूदना है, चिल्लाना है, वह भी बहिर्मुखी ____का, नृत्य का क्या संबंध? और फिर नृत्य भी हो, तो के लिए बड़ा उपयोगी है। तीसरे चरण में, मैं कौन हूं, इसकी | | व्यवस्थित हो, तालबद्ध हो! डिसआर्डरली, अव्यवस्थित, अराजक, इंक्वायरी, जिज्ञासा है। जोर से पूछना है, मैं कौन हूं। वह भी | | केआटिक, इसका क्या मतलब है? बहिर्मुखी के लिए बहुत उपयोगी है। और चौथे में बिलकुल मौन | | इसका मतलब है। हो जाना है।
एक तो मैं आपको यह जाहिर कर दूं कि जो गीता मैं समझा रहा पूछेगे आप कि चार चरणों में एक रखा सिर्फ अंतर्मुखी के लिए, | हूं, आप समझने से ही समझ लेंगे, ऐसा मेरा भरोसा नहीं। समझने तीन रखे बहिर्मुखी के लिए? क्योंकि मैं कहता हूं कि आज का युग से केवल बुद्धि तक बात पहुंचती है, हृदय तक नहीं पहुंचती। और बहिर्मुखी है। सौ आदमी करने आएंगे, तो मुश्किल है कि पच्चीस गीता जिसे समझनी हो, वह अगर सिर्फ बुद्धि से समझने चलेगा, भी अंतर्मुखी हों, पचहत्तर तो बहिर्मुखी—निन्यानबे की संभावना तो पंडित तो हो जाएगा, ज्ञानी नहीं हो पाएगा। इंटलेक्ट बता सकती है बहिर्मुखी होने की और एक की अंतर्मुखी होने की। उसके लिए है, क्या अर्थ है। विश्लेषण कर सकती है। तोड़-तोड़कर तर्क भी जगह बना रखी है।
व्यवस्था दे सकती है, लेकिन हृदय को छूती नहीं। तर्क से हृदय के इसलिए अंतर्मुखी व्यक्ति जब मेरे पास आता है, तो वह कहता | | फूल खिलते नहीं। और न ही तर्क और बुद्धि से हृदय की वीणा की है, सांस लेते बनती ही नहीं; नाचते बनता ही नहीं; पूर्वी किससे? | झंकार पैदा होती है। कौन पूछे? कौन पूछे, मैं कौन हूं! वह कहता है, हमें तो सीधा चौथे। जानता हूं भलीभांति कि आज की दुनिया में कोई उपाय नहीं है में जाना अच्छा लगता है। मैं उसको कहता हूं, चौथे में चले जाओ। कि आपसे बुद्धि के द्वारा कहा जाए। बुद्धि से कहना पड़ेगा,
लेकिन बहिर्मुखी व्यक्ति से कहें कि चुपचाप बैठ जाओ; वह इसलिए घंटे सवा घंटे आपके साथ बुद्धि के साथ मेहनत करता हूं कहेगा, मुश्किल मालूम पड़ता है। कैसे चुपचाप बैठे जाएं? कुछ आपकी। और आखिर में बिलकुल निर्बुद्धि एक काम करवाता हूं।
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गीता दर्शन भाग-20
बिलकुल बुद्धिहीन! सिर्फ यही आपको खबर देने के लिए कि बुद्धि | मुश्किल थी। से जो नहीं हो सकेगा, वह बुद्धि को छोड़कर हो पाता है। और यह इसलिए कृष्ण के व्यक्तित्व का जो गहरा रूप है, वह तो उनका भी खबर देने के लिए कि घंटेभर मैंने आपकी बुद्धि को समझाने की | नाचता हुआ, बांसुरी बजाता हुआ रूप है। गीता सुनकर कहीं ऐसा कोशिश की. जिनकी समझ में आ गया होगा, उनको इस नत्य में भी खयाल न हो कि गीता सिर्फ एक दर्शन शास्त्र का विवेचन है. एक समझ में आना चाहिए। और अगर समझ में इसमें न आए, तो उनके | मेटाफिजिक्स है। गीता सुनकर ऐसा भी लगे कि वह एक पास केवल बौद्धिक शब्द पहुंचे और कुछ भी नहीं पहुंचा है। जीवन-संगीत भी है। ऐसा भी लगे कि वह नाचने की एक कला
अगर मेरी बातें समझ में आई हैं, तो आपका हृदय खुलेगा, भी है। नाचना चाहेगा, प्रफुल्लित होगा, प्रमुदित होगा। आप यही सोचते | | इसलिए मैंने जानकर, कंसीडर्डली. पीछे पांच-सात मिनटहुए नहीं जाएंगे कि जो बोला, वह तर्कयुक्त मालूम होता है। आप | पांच-सात मिनट आपके अधैर्य को देखकर; नहीं तो मैं तो चाहता ऐसा अनुभव करते जाएंगे कि जो बोला, वह हृदय को स्पर्शित कि घंटेभर चर्चा हो, तो घंटेभर नृत्य हो। लेकिन आपकी हिम्मत करता मालूम पड़ता है।
बहुत कमजोर है, इसलिए पांच मिनट! पांच मिनट में ही कई की हृदय को स्पर्शित करना और बात है। इसलिए चाहता हूं कि अंत | दम टूट जाती है, वे भागने की तैयारी में हो जाते हैं। उन्हें पता नहीं हृदय की किसी घटना से हो। इसलिए यहां चाहा कि दस मिनट, | कि क्या हो रहा है। उन्हें पता नहीं कि क्या बंट रहा है। उन्हें पता पांच मिनट भूल जाएं विचार को, शब्द को; घंटेभर मैं बोलता हूं, | नहीं कि क्या घटना घट रही है। उसे पांच मिनट प्रेम से देख लें; छोड़ें उसे। शब्द असमर्थ हैं। शब्द की असमर्थता आपको बताना उसे पी जाएं। और मैं आपसे कहता हूं कि जो मेरे समझामे से नहीं चाहता हूं। और यह भी बताना चाहता हूं कि शायद जो मैं न कह हो सका होगा, जो कृष्ण के कहने से नहीं हो सका होगा, वह भी पाया होऊं, जो कृष्ण भी न कह पाए हों, वह इन नाचते हुए उस नृत्य से हो सकता है। संन्यासियों के नत्य से आपको उसकी झलक मिल जाए।
अव्यवस्थित इसलिए कि व्यवस्था का संबंध बद्धि से है। हृदय और ध्यान रहे, अर्जुन नहीं समझ पाया कृष्ण से जितना, उतना का व्यवस्था से कोई संबंध नहीं है। जिस दिन नृत्य व्यवस्थित हो कृष्ण से गोपियां समझ गईं। लेकिन गोपियों को कृष्ण ने कोई गीता | जाता है, बौद्धिक हो जाता है, इंटेलेक्चुअल हो जाता है। एक-एक नहीं कही थी। उनके साथ नाच लिए थे। गोपियों से कोई गीता नहीं | । पद है, एक-एक चाप है। सब इंतजाम है। वह गणित हो जाता है। कही, बांसुरी बजाकर नाच लिए थे किसी वंशी वट में, यमुना के । शास्त्रीय संगीत बिलकुल मैथमेटिकल है। वह गणित है। कहना तट पर। और गोपियां जितना समझीं, उतना अर्जुन नहीं समझ | चाहिए, वह गणित ही है। पाया। अर्जुन को गीता कही है। बड़ा बौद्धिक कम्युनिकेशन है, यह कोई संगीत नहीं है, यह कोई गणित नहीं है। यह तो हृदय बड़ा बुद्धिगत संवाद है।
का उन्मेष है। हृदय के उन्मेष में हिसाब नहीं होता। गणित में दो आपसे मैं भी बुद्धि की बात कहता हूं, लेकिन कृष्ण का और भी और दो चार होते हैं, प्रेम में जरूरी नहीं है। प्रेम में दो और दो पांच गहरा पहल है. वह भी आपसे छट न जाए। गीता पढने वाले लोगों | भी हो सकते हैं। प्रेम के पास हिसाब नहीं है। ये तो प्रेम में आए से अक्सर छूट जाता है। कृष्ण सिर्फ गीता कहने वाले कृष्ण ही नहीं | | हुए संन्यासी हैं, वे नाच रहे हैं। हैं, कृष्ण नाचने वाले कृष्ण भी हैं। और वह उनका असली, और | मुझे कहा किसी ने कि इनको थोड़ी ट्रेनिंग दे देनी चाहिए कि ये ज्यादा गहरा, और ज्यादा महत्वपूर्ण रूप है।
| थोड़ा ढंग से नाचें। तो ट्रेनिंग से नाचने वाले तो सारी दुनिया में बहुत गीता न भी कही होती, तो कोई और भी कह सकता था, यह मैं | हैं; कोई कमी है! सो तो आप जाकर थिएटर में देख आते हैं; सब आपसे कहता हूं। गीता बुद्ध भी कह सकते हैं, महावीर भी कह ट्रेनिंग से नाच चल रहा है। लेकिन ट्रेनिंग से जब कोई नाचता है, सकते हैं, क्राइस्ट भी कह सकते हैं। अगर कृष्ण ने गीता न कही | तो शरीर ही नाचता है; हृदय नहीं नाचता। ट्रेनिंग से कहीं नाच हुए होती, तो कोई और कह सकता था। लेकिन अगर कृष्ण न नाचे | हैं? हां, नाच हो जाएगा, लेकिन वह वेश्या का होगा, अभिनेता का होते, तो न बुद्ध नाच सकते, न महावीर नाच सकते, न जीसस नाच | होगा, एक्टर का होगा, एक्ट्रेस का होगा। संन्यासी का नहीं होगा। सकते। वह अधूरा रह गया होता। वह बात और किसी से होनी संन्यासी के नृत्य में कुछ भेद है। वह नृत्य नहीं है, वह हृदय का
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अहंकार की छाया है ममत्व*
उन्मेष है। कुछ चीज भीतर भर गई है, वह बाहर बह रही है। शरीर रही थी कि यह क्या पाप हो रहा है! स्त्री और पुरुष साथ नाच रहे नहीं सम्हलता, इसलिए नाच रहा है।
हैं! कृष्ण को न समझ पाएगी ऐसी बुद्धि। अगर नृत्य और कीर्तन यह नृत्य कोई लय-तालबद्ध व्यवस्था नहीं है, इसलिए में भी स्त्री-पुरुष का खयाल बना रहे, तो अच्छा है कि नृत्य-कीर्तन डिसआर्डरली है। इसमें कोई व्यवस्था नहीं है। व्यवस्था होनी भी नहीं| मत करो। इतना भी न भूलता हो! दूसरे का शरीर न भूलता हो, तो चाहिए, तभी उसकी मौज है, तभी उसकी नैसर्गिकता है, तभी उसकी अपना शरीर कैसे भूलेगा? अगर इसका भी खयाल बना रहे कि स्पांटेनिटी है, और तभी आप उसमें भीतर प्रवेश कर पाएंगे। आज पास में स्त्री खड़ी है, इसलिए बच-बचकर नाचो, तो मत नाचना। मैंने यह कहा, तो जरा आज फिर गौर से देखना आप। आप शायद क्योंकि फिर अपने शरीर का खयाल भूलने वाला नहीं है। सोचते होंगे कि ठीक है...।
कोई तो घड़ी हो, जहां आप शरीर न रह जाएं और सिर्फ वही रह एक मित्र आए, वे बोले, हम तो कीर्तन बीस साल से करते-करते | जाएं, जो भीतर हैं। वहां न कोई स्त्री है, न कोई पुरुष है। किसी थक गए। कुछ होता नहीं। होगा भी नहीं। क्योंकि कीर्तन कोई किया घड़ी में तो सब भूल जाना चाहिए। लेकिन हमारे मंदिर में भी थोड़े ही जाता है। होना चाहिए। वह आनंद की अभिव्यक्ति बननी स्त्री-पुरुषों के फासले बने हुए हैं। स्त्रियां अलग बैठी हैं, पुरुष चाहिए। वे कहते हैं, हमें कीर्तन बीस साल हो गए करते-करते, कुछ अलग बैठे हैं! हुआ नहीं। तो वे कुछ फल की आकांक्षा से कर रहे होंगे; कीर्तन | __ सुनी है न आपने घटना मीरा की कि जब वह गई वृंदावन, तो सकाम हो गया। वे सोच रहे होंगे, कुछ हो जाए।
| मंदिर के पुजारी ने भीतर न आने दिया। उसने कहा कि मैं स्त्री को ये संन्यासी जो यहां बैठे हैं, कुछ होने के लिए नहीं कर रहे हैं। | देखता ही नहीं। तो मीरा ने खबर भिजवाई कि गोस्वामी को कहो इनका आनंद है। गीता घंटेभर सुनी। अगर इतने आनंद से भी हृदय | | कि मैं तो सोचती थी, एक ही पुरुष है, कृष्ण! तुम दूसरे पुरुष कहां न भर जाए, कि नाच लें पांच मिनट और फिर विदा हो जाएं, तो | से आ गए? बेकार गई बात।
क्षमा मांगी आकर कि माफ कर दो। भूल हो गई। इसलिए जानकर यह अव्यवस्थित है। यह अव्यवस्थित ही ये नासमझियां धर्म के नाम पर बहुत हैं। ये तोड़ने जैसी हैं। रहेगा। फिर भी आपके डर से, आपकी मौजूदगी से नए संन्यासी उन्मुक्त! किसी घड़ी में तो जीवन के सारे थोथे नियमों को एक तरफ कोई आते हैं, तो वे तो हिम्मत भी नहीं जुटा पाते हैं। वे धीमे-धीमे | रखकर डूब जाएं। और फिर देखने वाली दृष्टि कैसी बेहूदी है! जिस करते रहते हैं। लेकिन मैं चाहता हूं कि दो-चार वर्ष में पूरे मुल्क में | | स्त्री को, जिस पुरुष को यहां कीर्तन नहीं दिखाई पड़ा, कृष्ण का इस. हवा को फैलाऊंगा। पूरे मुल्क में क्यों, सारी दुनिया के नाम नहीं सुनाई पड़ा, हरिनाम नहीं सुनाई पड़ा, उसे दिखाई पड़ा कि कोने-कोने तक फैलाने जैसी है। और वह जो फेस्टिव डायमेंशन है। एक औरत एक पुरुष के पास नाच रही है! उस स्त्री की बुद्धि कितनी मनुष्य के उत्साह का, उमंग का; उत्सव का जो आयाम है चित्त का, है! उस स्त्री की समझ कैसी है! और जिसने मुझे खबर दी उसने वह खुलना चाहिए।
कहा कि वह वृद्धा थी। अगर वृद्ध होकर भी अभी यौन के इतने धर्म बहुत गंभीर हो गया है। और जितना गंभीर होगा धर्म, उतना अंतर भूले नहीं, तो फिर कब? कब्र के बाद? अर्थी उठ जाएगी रुग्ण और बीमार होगा। गंभीर शकलों को मंदिरों से विदा कर दो। | तब? कब होगा? ये भेद कब गिरेंगे? ये कहीं तो गिर जाने चाहिए। मंदिर नृत्य के और जीवन के उत्सव के स्थल हों, तो हम धर्म को | । इसलिए अव्यवस्थित है, कोई व्यवस्था नहीं है। हरिनाम की वापस ला पाएंगे।
कोई व्यवस्था नहीं होती, सिर्फ आनंद होता है। अराजक है, गंभीर चेहरे, बीमार, घबड़ाए हुए, जिंदगी से परेशान, पीड़ित- | केआटिक है। जानकर है, क्योंकि जितना अराजक होगा, उतने ही नहीं, मंदिर को बेरौनक कर गए हैं। मंदिर तो जीवन के नृत्य का क्षण| | भीतर के बंधन गिरेंगे। और भीतर जो छिपी आत्मा है, वह प्रकट है। वहां तो जिंदगी की सारी गंभीरता बाजार में छोड़कर चले जाना | हो सकेगी। चाहिए। वहां तो नाचते हुए ही जाना चाहिए। वहां तो नाचना चाहिए और किसी पाने की आकांक्षा से नहीं है। सिर्फ प्रभु को धन्यवाद घड़ीभर सब भूलकर, लोग-लिहाज, लाज-लज्जा, सब भूलकर। देने की आकांक्षा है। घंटेभर सुनी गीता; हृदय के कहीं फूल खिले;
कल एक महिला ने मुझे खबर दी कि कोई बूढ़ी महिला पीछे कह कहीं कोई वीणा का तार छुआ और बजा; कहीं कोई भीतर बुझा
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गीता दर्शन भाग-20
हुआ दीया जला, तो बाद में पांच मिनट परमात्मा को धन्यवाद देकर | लेकिन हमारी हालत वैसी है, जैसा मैंने सुना है, एक मछली ने विदा हो जाना चाहिए। इसलिए कि यह भी समझ हमारी कहां, तेरी | | एक दिन जाकर सागर की रानी मछली से पूछा कि यह सागर कहां ही है! उसको ही समर्पित करके चले जाना चाहिए। यह भी हम है? बहुत सुनती हूं चर्चा! मछलियां बड़ी बात करती हैं! पुरखों से कहां समझ पाते! तूने समझाना चाहा, तो हम समझ गए। तूने सुनी है यह बात कि सागर है कोई। पर कहां है? सागर कहां है? दिखाना चाहा. तो दिखाई पड़ गया। तने इशारा किया. तो इशारा | स्वभावतः, मछली सागर में ही पैदा होती है, सागर में ही जीती मिल गया। तुझे धन्यवाद दे देते हैं और चले जाते हैं। है और सागर में ही समाप्त हो जाती है। जो इतना निकट है और
बैंक्स गिविंग है। यह सिर्फ आभार है। और आज तो मैं आपसे सदा निकट है, वह दिखाई नहीं पड़ता। जो बहुत ऑबियस.है, जो कहूंगा, अपनी जगह बैठकर ही डोलें और ताली बजाएं और प्रभु | बिलकुल सदा ही साथ है, वह दिखाई नहीं पड़ता। दिखाई पड़ने के का नाम लें। और एक भी आदमी जाए न।
लिए बीच-बीच में खो जाना जरूरी है। एक सूत्र और ले लें।
मछली को सागर से निकालो, तब उसे पता चलता है कि सागर कहां है। डाल दो तट पर मछली को निकालकर, तब तड़फन आती
| है। तब पता चलता है, सागर कहां है। अन्यथा सागर में रही मछली सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी। | को कभी पता नहीं चलता कि सागर कहां है। पता चलेगा भी कैसे?
नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन् ।। १३ ।। | दूरी चाहिए पता चलने को। पर्सपेक्टिव चाहिए, फासला चाहिए। और हे अर्जुन, वश में है अंतःकरण जिसके, ऐसा सांख्ययोग | | थोड़ा फासला हो तो पता चलता है, नहीं तो पता नहीं चलता। का आचरण करने वाला पुरुष निःसंदेह न करता हुआ और तो सागर की मछली को पता न हो, आश्चर्य नहीं है। हमको भी न करवाता हुआ, नौ द्वारों वाले शरीररूप घर में सब को | पता नहीं है कि हम परमात्मा में ही जीते, पैदा होते, जन्मते, बड़े को मन से त्यागकर, अर्थात इंद्रियां इंद्रियों के अर्थों में बर्तती | होते, बिखरते, विसर्जित होते हैं। और सागर की मछली तो कोशिश है, ऐसा मानता हुआ आनंदपूर्वक, सच्चिदानंदघन परमात्मा करने से कभी किनारे पर भी आ सकती है। हम परमात्मा के किनारे के स्वरूप में स्थित रहता है।
| पर कभी नहीं आ सकते, क्योंकि कोई किनारा है ही नहीं। इसीलिए तो हमें पता नहीं चलता कि परमात्मा कहां है।
लोग पूछते हैं, परमात्मा कहां है? अगर परमात्मा कोई चीज न समें एक ही नई बात कही है, वह समझ लें।। होती, तो बताई जा सकती थी, यह रही। एक पत्थर भी बताया जा र कहा है, अंतःकरण वश में हुआ जिसका! इस संबंध सकता है, यह रहा; और परमात्मा नहीं बताया जा सकता कि कहां
में हमने बात की है। न करता है, न कराता हुआ, है। क्योंकि परमात्मा कहां है, यह पूछना ही गलत है। परमात्मा का सच्चिदानंद परमात्मा में सदा स्थित रहता है। यह आखिरी बात इस मतलब ही यह होता है कि जो सब जगह है, जो सब कहीं है, सूत्र में नई है।
एवरीव्हेयर। हर कहीं है जो, उसका नाम परमात्मा है। ऐसा व्यक्ति, ऐसे ज्ञान को उपलब्ध, इंद्रियों से अपने को भिन्न इसका यह मतलब भी होता है कि जैसे हम दूसरी चीजों को बता जानता है जो, वासनाएं जिसके अंतःकरण को अशुद्ध और कुरूप | सकते हैं कि यह रही, ऐसे हम परमात्मा को नहीं बता सकते।
और दुर्गधित नहीं करतीं; कर्म करता हुआ भी जानता नहीं, मानता | | इसलिए हम यह भी कह सकते हैं कि परमात्मा का मतलब है, वही, नहीं कि मैं कर्म करता हूं। प्रभु ही करता है। कराता हुआ भी नहीं| जो कहीं भी नहीं है, नोव्हेयर। कहीं नहीं बता सकते कि यह रहा। मानता कि मैं कराता हूं। प्रभु ही कराता है। ऐसा पुरुष प्रतिपल, हर कहीं भी अंगुली निर्देश नहीं कर सकती कि यह रहा। सब चीजों को घड़ी, सोते-जागते, उठते-बैठते सच्चिदानंद परमात्मा में ही स्थिर बता सकते हैं, यह रही, परमात्मा को नहीं बता सकते। अगर रहता है। एक क्षण को भी वह हटता नहीं वहां से। हटे तो हम भी परमात्मा को बताना हो, तो अंगुली के इशारे से नहीं बता सकते; नहीं हैं, लेकिन हमें इसका पता नहीं है, उसे पता होता है। हटे तो | | मुट्ठी बंद करके बताना पड़ेगा कि यह रहा। अंगुली से इशारा करेंगे, हम भी नहीं हैं। सच्चिदानंद परमात्मा हमारा स्वरूप है। | तो गलती हो जाएगी। क्योंकि फिर अंगुली के अतिरिक्त जो इशारे
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अहंकार की छाया है ममत्व
छूट गए, वहां कौन होगा? वहां भी वही है। भीतर भी वही है, बाहर भी वही है। सब जगह वही है।
परमात्मा का अर्थ है, अस्तित्व, दि एक्झिस्टेंस। हम भी उसी में जीते हैं, लेकिन हमें पता नहीं है। लेकिन जिस व्यक्ति ने अंतःकरण को शुद्ध कर लिया, उसे इसका पता हो जाता है। ठीक ऐसे ही पता | हो जाता है, जैसे कि दर्पण पर धूल जमी हो और चेहरा न बनता हो। और किसी ने दर्पण को साफ कर लिया और चेहरा बन जाए। और दर्पण में दिखाई पड़ जाए कि अरे, मैं तो यह रहा ! लेकिन जब धूल जमी थी, तब भी दर्पण पूरा दर्पण था। धूल हट गई, तब भी दर्पण वही दर्पण है। लेकिन जब धूल पड़ी थी, तो चेहरा बन नहीं पाता था, प्रतिफलित नहीं होता था; अब प्रतिफलित होता है।
शुद्ध अंतःकरण मिरर लाइक, दर्पण के जैसा हो जाता है। इसलिए कृष्ण ने कहा, जिसका अंतःकरण शुद्ध है। जिसके अंतःकरण से सारी फलाकांक्षा की धूल हट गई, वासनाओं का सब जाल हट गया, कूड़ा-करकट सब फेंक दिया उठाकर, कर्ता का बोझ हटा दिया, सब परमात्मा पर छोड़ दिया। इतना शुद्ध और हलका हुआ अंतःकरण, शांत और मौन, निर्भार हुआ अंतःकरण, जानता है प्रतिपल कि मैं सच्चिदानंद परमात्मा में हूं। होता ही उसी में है सदा । लेकिन अब जानता है। अब ध्यानपूर्वक जानता है। अभी सोया हुआ था, अब जागकर जानता है।
जैसे आप सोए हों। सूरज की रोशनी बरसती है चारों तरफ, आप सोए हैं। आपकी बंद पलकों पर सूरज की रोशनी टपकती है, लेकिन आपको कोई भी पता नहीं, आप सोए हैं, सूरज चारों तरफ बरस रहा है। आपके खून में सूरज की गर्मी जा रही है, आपके भीतर तक। आपका हृदय सूरज की गर्मी में धड़क रहा है। सब तरफ सूरज है, बाहर और भीतर, लेकिन आपको कोई पता नहीं है; आप सोए हैं।
फिर एक आदमी उठ आया और उसने जाना और अब वह पाता है कि हर घड़ी सूरज में है। सोया हुआ भी सूरज में है, जागा हुआ भी सूरज में है। लेकिन सोए हुए को पता नहीं है, कांशसनेस नहीं है।
अंतःकरण जिसका शुद्ध होता है, वह जानता है प्रतिपल, मैं परमात्मा में हूं। और जिसको यह पता चल जाए कि प्रतिपल मैं परमात्मा में हूं, स्वभावतः सच्चिदानंद की तिहरी घटना उसके जीवन में घट जाती है।
ये सत, चित, आनंद, तीन शब्द हैं। यह भारत की मनीषा ने जो
श्रेष्ठतम नवनीत निकाला है सारे जीवन के अनुभव से, उनका इन तीन शब्दों में जोड़ है।
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सत! सत का अर्थ है, एक्झिस्टेंस; जिसका अस्तित्व है । चित! चित का अर्थ है, कांशसनेस, जिसमें चेतना है। आनंद! आनंद का अर्थ है, ब्लिस; जो सदा ही आनंद में है। ये तीन शब्द भारत की समस्त साधना की निष्पत्तियां हैं।
अस्तित्व है किसका? पत्थर का ? पानी का, जमीन का ? आदमी का ? दिखाई पड़ता है, है नहीं। क्योंकि आज है और कल नहीं हो जाएगा। भारत उसको अस्तित्व कहता है, जो सदा है। जो बदल जाता है, उसके अस्तित्व को अस्तित्व नहीं कहता। उसके अस्तित्व का कोई मतलब नहीं है। अस्तित्व उसका है, जो अपरिवर्तनीय, नित्य है । वही है अस्तित्ववान । बाकी तो सब खेल है छाया का ।
बच्चे थे आप, फिर जवान हो गए, फिर बूढ़े हो गए। न तो बचपन का कोई अस्तित्व है; बचपन भी एक फेज है; एक्झिस्टेंस नहीं, चेंज ! बचपन एक परिवर्तन है। इसे जरा समझें।
हम कहते हैं एक आदमी से, यह बच्चा है। कहना नहीं चाहिए। वैज्ञानिक नहीं है कहना। साइंटिफिक नहीं है। क्योंकि बच्चा है, ऐसा कहने से लगता है, कोई चीज स्टैटिक, ठहरी हुई है। कहना चाहिए, बच्चा हो रहा है। जवान हो रहा है। है की स्थिति में तो कोई जवान नहीं होता, नहीं तो बूढ़ा हो ही नहीं सकेगा फिर । बूढ़ा भी बूढ़ा नहीं होता । बूढ़ा भी होता रहता है। नदी बहती है, तो हम कहते हैं, नदी बह रही है। कहते हैं, नदी है। कहना नहीं चाहिए है, है । कहना चाहिए, नदी हो रही है।
इस जगत में इज़, है शब्द ठीक नहीं है। गलत है। सब चीजें हो रही हैं। हम कहते हैं, वृक्ष है। जब हम कहते हैं, है, तब वृक्ष कुछ और हो गया। एक नई पत्ती निकल गई होगी। एक पुरानी पत्ती टपक गई होगी। एक फूल खिल गया होगा। एक कली आ गई होगी जब तक हमने कहा, है, तब तक वृक्ष बदल गया।
बुद्ध के पास एक आदमी मिलने आया और उसने कहा कि अब मैं जाता हूं। बड़ी कृपा की आपने । फिर आऊंगा कभी । बुद्ध ने | कहा, तुम दुबारा अब न आ सकोगे। और तुमसे मैं कहता हूं कि तुम जो आए थे, वही तुम जा भी नहीं रहे हो। घंटेभर में गंगा का | बहुत पानी बह चुका है।
यहां कुछ भी ठहरा हुआ नहीं है। इसलिए परमात्मा को हम कहते हैं, एक्झिस्टेंस और जगत को कहते हैं, चेंज । संसार है परिवर्तन
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O गीता दर्शन भाग-2
और परमात्मा है अस्तित्व। सत का अर्थ है, वह जो सदा है। | सुख सदा किसी पर निर्भर होता है। आनंद सदा ही स्वतंत्र होता है।
जिस व्यक्ति का अंतःकरण शुद्ध हुआ, वह जानता है, मैं सदा इसलिए सुख के लिए दूसरे का मोहताज होना पड़ता है। आनंद के हूं। न मैं कभी पैदा हुआ और न कभी मरूंगा। न मैं बच्चा हूं, न मैं लिए किसी का मोहताज होने की जरूरत नहीं है। बढ़ा हूं, न मैं जवान हूं। मैं वह हूं, जो सदा है, जो कभी परिवर्तित - अगर मुझे सुखी होना है, तो मुझे समाज में किसी के साथ होना नहीं होता है।
| पड़ेगा। और अगर मुझे आनंदित होना है, तो मैं अकेला भी हो दूसरा शब्द है, चित। चित का अर्थ है, चैतन्य। जो व्यक्ति सकता हूं। अगर इस पृथ्वी पर मैं अकेला रह जाऊं और आप सब जितना शुद्ध होकर भीतर झांकता है, उतना ही पाता है कि वहां कहीं विदा हो जाएं, तो मैं सुखी तो नहीं हो सकता, आनंदित हो चेतना ही चेतना है; वहां कोई मूर्छा नहीं। और जब कोई अपने | सकता हूं। भीतर देख लेता है कि सब चैतन्य है, उसे बाहर भी चैतन्य दिखाई | | लेकिन ध्यान रहे, जिनसे हमें सुख मिलता है, उनसे ही दुख पड़ने लगता है।
| मिलता है। जिसे आनंद मिलता है, उसे दुख का उपाय नहीं रह जाता। ध्यान रहे, जो हम भीतर हैं, वही हमें बाहर दिखाई पड़ता है। ___एक बात अंतिम। आप सोच न पाएंगे, मनुष्य की भाषा में सब चोर को चोर दिखाई पड़ते हैं बाहर। ईमानदार को ईमानदार दिखाई | भाषाओं के विपरीत शब्द हैं, आनंद के विपरीत कोई शब्द नहीं है। पड़ते हैं बाहर। बाहर हमें वही दिखाई पड़ता है, जो हम भीतर हैं। सुख का ठीक पैरेलल दुख है। खड़ा है सामने। प्रेम के पैरेलल, चूंकि भीतर हम मूछित हैं, इसलिए बाहर हमें पदार्थ दिखाई पड़ता | समानांतर खड़ी है घृणा। दया के समानांतर खड़ी है क्रूरता। सबके है। जब हम भीतर चेतना को अनुभव करते हैं शुद्ध अंतःकरण में, समानांतर कोई खड़ा है। आनंद अकेला शब्द है। क्योंकि आनंद तो बाहर भी चेतना का सागर दिखाई पड़ने लगता है। तब सब चीजें | स्वनिर्भर है, द्वंद्व के बाहर है, अद्वैत है। सुख-दुख, प्रेम-घृणा, सब चेतन हैं। तब पत्थर भी जीवंत और चेतन है। तब इस जगत में कछ वंद्र के भीतर हैं. दैत हैं। भी जड़ नहीं है। तो ऐसा व्यक्ति सदा चेतना में थिर होता है। इसलिए कृष्ण कहते हैं, अंतःकरण शुद्ध हुआ जिसका, वह
और तीसरी बात है, आनंद। जिसे पता चल गया अस्तित्व का, सच्चिदानंद परमात्मा में स्थिर, सदा स्थिर होता है। उसका दुख मिट जाता है। दुख परिवर्तन में है। जहां परिवर्तन है, शेष कल हम बात करेंगे। पर बैठे रहें। पांच मिनट अब उस वहीं दुख है। और जहां परिवर्तन नहीं है, वहीं आनंद है। जिस | आनंद की खबर को अपने भीतर समा जाने दें। देखें। ताली बजाएं। व्यक्ति को पता चल गया कि परिवर्तन के बाहर हूं मैं, उसके जीवन गा सकें, गाएं। बैठे-बैठे डोल सकें, डोलें। इस आनंद को लें और से दुख विदा हो जाता है।
फिर पांच मिनट बाद चुपचाप विदा हो जाएं। मूर्छा में दुख है। जहां बेहोशी है, वहां दुख है। ध्यान रखें, इसलिए दुखी आदमी शराब पीने लगते हैं। और शराबी आदमी दुखी हो जाते हैं। जहां-जहां दुख है, वहां-वहां बेहोशी की तलाश होती है। और जहां-जहां बेहोशी है, वहां-वहां दुख बढ़ता चला जाता है, विशियस सर्किल की तरह। इसलिए दुखी आदमी शराब पीने लगेगा। दुनिया में जितना दुख बढ़ेगा, उतनी शराब बढ़ेगी। जितनी शराब बढ़ेगी, उतना दुख बढ़ेगा। और एक-दूसरे को बढ़ाते चले जाएंगे। जितना ही आदमी होश से भरता है, उतना ही दुख के बाहर हो जाता है।
नित्य का पता चल जाए, चैतन्य का अनुभव हो जाए, आनंद की घटना घट जाती है। और ध्यान रहे, यह आनंद किसी से मिलता नहीं। यह फर्क है। सुख किसी से मिलता है। आनंद किसी से मिलता नहीं है, भीतर से आता है। सुख सदा बाहर से आता है।
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अध्याय 5 सातवां प्रवचन
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6 गीता दर्शन भाग-26
न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः। | फिर भी भिन्न है। भिन्न इसलिए है कि नर्तक तो नृत्य के बिना हो न कर्मफलसंयोग स्वभावस्तु प्रवर्तते । । १४ ।। | सकता है, लेकिन नृत्य नर्तक के बिना नहीं हो सकता। नर्तक नृत्य और परमेश्वर भी भूतप्राणियों के न कर्तापन को और न | | के बिना हो सकता है, लेकिन नृत्य नर्तक के बिना नहीं हो सकता। कों को तथा न कर्मों के फल के संयोग को वास्तव में मूर्तिकार और मूर्ति में जो भेद है, वैसा भेद तो नृत्यकार और रचता है। किंतु परमात्मा के सकाश से प्रकृति ही बर्तती है, | नर्तक में नहीं है, लेकिन पूरा अभेद भी नहीं है। एक भी नहीं हैं अर्थात गुण ही गुणों में बर्त रहे हैं। | दोनों। क्योंकि नृत्यकार हो सकता है, नृत्य न हो, लेकिन नृत्य नहीं
हो सकेगा। ठीक ऐसे ही, जैसे सागर हो सकता है, लहर न हो।
लेकिन लहर नहीं हो सकती सागर के बिना। सागर के होने में कोई 1 रमात्मा स्रष्टा तो है, लेकिन कर्ता नहीं है। इस सूत्र में | | कठिनाई नहीं है बिना लहर के। लेकिन लहर सागर के बिना नहीं 4 कृष्ण ने बहुत ही महत्वपूर्ण बात कही है, परमात्मा | हो सकती है। इसलिए सागर और लहर एक भी हैं और एक नहीं
स्रष्टा तो है, लेकिन कर्ता नहीं है। कर्ता इसलिए नहीं | | भी हैं। कि परमात्मा को यह स्मरण भी नहीं है-स्मरण हो भी नहीं सकता परमात्मा का जगत से जो संबंध है, वह नर्तक जैसा है। इसलिए है कि मैं हूं। मैं का खयाल ही तू के विरोध में पैदा होता है। तू | अगर हिंदुओं ने नटराज की धारणा की, तो बड़ी कीमती है। नाचते हो, तो ही मैं पैदा होता है। परमात्मा के लिए तू जैसा अस्तित्व में | हुए परमात्मा की धारणा की है। नृत्य करते शिव को सोचा, तो बहुत कुछ भी नहीं है। इसलिए मैं का कोई खयाल परमात्मा को पैदा नहीं गहरा है। शायद पृथ्वी पर नृत्य करते हुए परमात्मा की धारणा हिंदू हो सकता है।
धर्म के अतिरिक्त और कहीं भी नहीं है। जहां भी लोगों ने परमात्मा मैं के लिए जरूरी है कि तू सामने खड़ा हो। तू के खिलाफ, तू के | की सृष्टि की बात सोची है, वहां सृष्टि मूर्ति और मूर्तिकार वाली विरोध में, तू के साथ-सहयोग में मैं निर्मित होता है। परमात्मा के मैं सोची है, नृत्य और नर्तक वाली नहीं। का, अहंकार के निर्माण का कोई भी उपाय नहीं है। इसलिए कर्ता का | | लोग उदाहरण देते हैं कि जैसे कुम्हार घड़े को बनाता है। नहीं, कोई खयाल परमात्मा को नहीं हो सकता। लेकिन स्रष्टा वह है। और | परमात्मा इस तरह जगत को नहीं बनाता है। परमात्मा इसी तरह स्रष्टा से अर्थ है कि जीवन की सारी सजन-धारा उससे ही बहती है।। | जगत को बनाता है, जैसे नर्तक नृत्य को बनाता है-एक। पूरे सारा जीवन उससे ही जन्मता और उसी में लीन होता है। लेकिन इस | समय डूबा हुआ नृत्य में और फिर भी अलग। क्योंकि चाहे तो नृत्य स्रष्टा की बात को भी थोड़ा-सा समझ लेना जरूरी होगा। | को छोड़ दे और अलग खड़ा हो जाए। नृत्य बचेगा नहीं उसके
स्रष्टा भी बहुत तरह से हो सकता है कोई। एक मूर्तिकार एक | | बिना। नर्तक उसके बिना बच सकता है। इसलिए नृत्य नर्तक पर मूर्ति का निर्माण करता है। मूर्ति बनती जाती है, मूर्तिकार से अलग | | निर्भर है, नर्तक नृत्य पर निर्भर नहीं है। होती चली जाती है। जब मूर्ति बन जाती है, तो मूर्तिकार अलग होता ___ परमात्मा और प्रकृति के बीच नर्तक और नृत्य जैसा संबंध है। है, मूर्ति अलग होती है। मूर्तिकार मर भी जाए, तो जरूरी नहीं कि प्रकृति निर्भर है परमात्मा पर। परमात्मा प्रकृति पर निर्भर नहीं है। मूर्ति मरे। मूर्तिकार के बाद भी मूर्ति जिंदा रह सकती है। मूर्तिकार ने | परमात्मा न हो, तो प्रकृति खो जाएगी, शून्य हो जाएगी। लेकिन जो सृष्टि की, वह सृष्टि अपने से अन्य है, अलग है, बाहर है। | परमात्मा प्रकृति के बिना भी हो सकता है। भेद भी है और अभेद मूर्तिकार बनाएगा जरूर, लेकिन मूर्तिकार पृथक है। | भी, भिन्नता भी है और अभिन्नता भी, दोनों एक साथ। ___एक नृत्यकार नाचता है। एक नर्तक नाचता है। वह भी सृजन प्रकृति के बीच परमात्मा वैसे ही है, जैसे नृत्य के बीच नर्तक है। करता है नृत्य का। लेकिन नृत्य नर्तक से अलग नहीं होता है। नर्तक लेकिन जब नर्तक नाचता है, तो शरीर का उपयोग करता है। शरीर चला गया, नृत्य भी चला गया। नर्तक मर जाएगा, तो नृत्य भी मर की सीमाएं शुरू हो जाती हैं। पैर थक जाएगा, जरूरी नहीं कि नर्तक जाएगा। नर्तक ठहर जाएगा, तो नृत्य भी ठहर जाएगा। नृत्य नर्तक थके। पैर टूट भी सकता है, जरूरी नहीं कि नर्तक टे। पैर चलने से भिन्न कहीं भी नहीं है, फिर भी भिन्न है। इस अर्थ में तो भिन्न नहीं | | से थकेगा, पैर की सीमा है। हो सकता है, नर्तक अभी न थका हो। है नर्तक से नृत्य, जिस अर्थ में मूर्ति मूर्तिकार से भिन्न होती है। लेकिन | नर्तक नृत्य करते शरीर के भीतर कैटेलिटिक एजेंट की तरह है।
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माया अर्थात सम्मोहन
कैटेलिटिक एजेंट की बात थोड़ी खयाल में ले लें, तो कृष्ण का सूत्र | को भूख लग सकती है या नहीं? आप मर गए समझिए। शरीर अब समझ में आएगा।
भी है, पेट अब भी है। भूख अब भी लगनी चाहिए; क्योंकि पेट विज्ञान में कैटेलिटिक एजेंट का बड़ा मूल्य है, अर्थ है। को भूख लगती थी, आपको तो लगती नहीं थी। आप अब नहीं हैं, कैटेलिटिक एजेंट से ऐसे तत्वों का प्रयोजन है, जो स्वयं भाग तो | पेट को भूख अब नहीं लगती है। यद्यपि इससे यह मतलब नहीं कि नहीं लेते किसी क्रिया में, लेकिन उनके बिना क्रिया हो भी नहीं आपको भूख लगती थी। आपकी मौजूदगी पेट को भूख लगने के सकती। जैसे कि हाइड्रोजन और आक्सीजन को हम मिला दें, तो | | लिए जरूरी थी। अन्यथा उसको भूख भी नहीं लगती। फिर भी भूख पानी नहीं बनेगा। बनना चाहिए, क्योंकि हाइड्रोजन और आक्सीजन | आपको नहीं लगती थी, भूख पेट को ही लगती थी। के अतिरिक्त पानी में और कुछ भी नहीं होता। हाइड्रोजन और सारी प्रकृति बर्तती है अपने-अपने गुणधर्म से, परमात्मा की आक्सीजन को मौजूद कर देने से पानी नहीं बनेगा। बनना चाहिए। | मौजूदगी में। सिर्फ उसकी प्रेजेंस काफी है। बस वह है, और प्रकृति क्योंकि पानी को अगर हम तोड़ें, तो सिवाय हाइड्रोजन और बर्तती चली जाती है। लेकिन वर्तन का कोई भी कृत्य परमात्मा को आक्सीजन के कुछ भी नहीं होता।
कर्ता नहीं बनाता है। कर्ता और स्रष्टा में मैं यही फर्क कर रहा हूं। फिर पानी कैसे बनेगा? अगर हाइड्रोजन और आक्सीजन के | उसके बिना सृष्टि चल नहीं सकती, इसलिए उसे मैं स्रष्टा कहता बीच में बिजली कौंधा दें, तो पानी बनेगा।
हूं। वह सृष्टि को चलाता नहीं रोज-रोज, इसलिए उसे मैं कर्ता नहीं बिजली क्या करती है कौंधकर? वैज्ञानिक कहते हैं, बिजली | कहता है। कुछ भी नहीं करती; सिर्फ उसकी मौजूदगी, प्रेजेंस कुछ करती है। कृष्ण के इस सूत्र में उन्होंने कहा है, जो जानते हैं, वे जानते हैं सिर्फ मौजूदगी! बिजली कुछ नहीं करती, सिर्फ उसकी मौजूदगी | | कि प्रकृति अपने गुणधर्म से काम करती रहती है। कुछ करती है। सिर्फ मौजूदगी। ध्यान रहे, बिजली कर्ता नहीं बनती; पानी भाप बनता रहता है। परमात्मा पानी को भाप नहीं बनाता। कुछ करती नहीं। सिर्फ मौजूदगी; बस उसके मौजूद होने में, उसकी लेकिन परमात्मा की मौजूदगी के बिना पानी भाप नहीं बनेगा। पानी मौजूदगी की छाया में हाइड्रोजन और आक्सीजन मिलकर पानी बन भाप बनकर बादल बन जाएगा। बादल सर्द होंगे, बरसा होगी। जाते हैं।
पहाड़ों पर पानी गिरेगा। गंगाओं से बहेगा। सागर में पहुंचेगा। फिर इसीलिए अगर हम पानी को तोड़ें, तो हाइड्रोजन और बादल बनेंगे। यह चलता रहेगा। बीज वृक्षों से गिरेंगे जमीन में, आक्सीजनं तो हमको मिलेंगे, लेकिन बिजली नहीं मिलेगी। क्योंकि फिर अंकुर आएंगे। परमात्मा किसी बीज को अंकुर बनाता नहीं, बिजली कृत्य में प्रवेश नहीं करती। लेकिन बड़े मजे की बात यह है लेकिन परमात्मा के बिना कोई बीज अंकुरित नहीं हो सकता है। कि बिजली अगर मौजूद न हो, तो हाइड्रोजन और आक्सीजन उसकी मौजूदगी! लेकिन मौजूदगी का यह जो कैटेलिटिक एजेंट का मिलते भी नहीं हैं। इनके मिलन के लिए बिजली की मौजूदगी जरूरी खयाल है, इसे एक तरफ से और समझें। है। अब इस मौजूदगी को हम क्या कहें? इस मौजूदगी ने कुछ पश्चिम में एक वैज्ञानिक है, जीन पियागेट। उसने मां और बेटे किया जरूर, फिर भी कुछ भी नहीं किया; कर्ता नहीं है। के बीच, मां और बच्चे के बीच, जीवनभर क्या-क्या होता है,
परमात्मा को इस सूत्र में कृष्ण बिलकुल कैटेलिटिक एजेंट कह इसका ही अध्ययन किया है। वह कुछ अजीब नतीजों पर पहुंचा है, रहे हैं। वे यह कह रहे हैं कि सारी प्रकृति बर्तती है। यद्यपि परमात्मा | वह मैं आपसे कहना चाहूंगा। वे भी कैटेलिटिक एजेंट जैसे नतीजे की मौजूदगी के बिना प्रकृति बर्त नहीं सकेगी। फिर भी परमात्मा की हैं। लेकिन कैटेलिटिक एजेंट तो पदार्थ की बात है। मां का संबंध मौजूदगी में प्रकृति ही बर्तती है, परमात्मा नहीं बर्तता। | और बेटे का संबंध पदार्थ की बात नहीं, चेतना की घटना है।
जैसे मैंने उदाहरण के लिए कल आपको कहा था, उसे थोड़ा । जीन पियागेट का कहना है कि मां से बच्चे को दूध मिलता है, गहरे में देख लें। आपको भूख लगी है। मैंने आपसे कहा, भूख | यह तो हम जानते हैं। लेकिन कुछ और भी मिलता है, जो हमारी आपको नहीं लगती, पेट को लगती है। निश्चित ही भूख आपको पकड़ में नहीं आता। क्योंकि पियागेट ने ऐसे बहुत-से प्रयोग किए, नहीं लगती, पेट को लगती है। आपको सिर्फ पता चलता है कि पेट |
| | जिनमें बच्चे को मां से अलग कर लिया। सब दिया, जो मां से को भूख लगी। लेकिन अगर आप शरीर के बाहर हों, तो फिर पेट मिलता था। दूध दिया। सेवा दी। सब दिया। लेकिन फिर भी मां से
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गीता दर्शन भाग-28
जो बच्चा अलग हुआ, उसकी ग्रोथ रुक गई, उसका विकास रुक बनाया जा सकता है। इसमें कोई अड़चन नहीं है। लेकिन फिर भी गया। उसके विकास में कोई बाधा पड़ गई। वह रुग्ण और बीमार | उसके भीतर से जो अनजानी धारा बहती थी, वह जो कैटेलिटिक रहने लगा।
| एजेंट था मदरहुड का, मातृत्व का, वह नहीं पैदा किया जा सकता। चालीस साल के निरंतर अध्ययन के बाद पियागेट यह कहता है | दूध के साथ वह भी बहता था। अभी हमारे पास नापने का उसे कोई कि मां की मौजूदगी, प्रेजेंस कुछ करती है। सिर्फ उसकी मौजूदगी। | उपाय नहीं है। बच्चा खेल रहा है बाहर। मां बैठी है अपने मकान के भीतर। मां लेकिन हम आज नहीं कल...रोज-रोज जितनी हमारी समझ भीतर मौजूद है, बच्चा कुछ और है। सिर्फ मौजूदगी, एक मिल्यू, बढ़ती है, यह बात साफ होती चली जाती है कि मानवीय संबंधों में एक हवा मां की मौजूदगी की!
भी कुछ बहता है। जब भी ऐसा कोई बहाव होता है, तभी हमें प्रेम अरब में एक बहुत पुरानी कहावत है कि चूंकि परमात्मा सब का अनुभव होता है। और जब परमात्मा और हमारे बीच ऐसा कोई जगह नहीं हो सकता था, इसलिए उसने माताओं का निर्माण किया। | बहाव होता है, तो हमें प्रार्थना का अनुभव होता है। ये दोनों अनुभव बहुत बढ़िया कहावत है। चूंकि परमात्मा सब जगह कहां-कहां किसी अदृश्य मौजूदगी के अनुभव हैं। आता. इसलिए उसने बहत-सी मां बना दीं. ताकि परमात्मा की लेकिन कष्ण कहते हैं. परमात्मा कछ करता नहीं। मौजूदगी मां से बह सके।
ध्यान रहे, करना उसे पड़ता है, जो कमजोर हो। करना कमजोरी मां से कुछ बहता है, जो इम्मैटीरियल है, पदार्थगत नहीं है। का लक्षण है। जो शक्तिशाली है, उसकी मौजूदगी ही करती है। जिसको नापा नहीं जा सकता है। कोई ऊष्मा, कोई प्रीति, कोई स्नेह एक शिक्षक क्लास में आता है और आकर डंडा बजाकर की धार-शायद किसी दिन हम जान लें।
विद्यार्थियों को कहता है कि देखो, मैं आ गया। मैं तुम्हारा शिक्षक बहुत-सी चीजें हैं, जो हमारे चारों तरफ हैं, अभी हम नाप नहीं | हूं। चुप हो जाओ! यह शिक्षक कमजोर है। सच में जब कोई पाए। जमीन में ग्रेविटेशन है, हम जानते हैं। पत्थर को ऊपर फेंकें, शिक्षक कमरे में आता है, तो सन्नाटा छा जाता है, उसकी मौजूदगी नीचे आ जाता है। लेकिन अभी तक ग्रेविटेशन नापा नहीं जा सका। | से। कहना पड़े, तो शिक्षक है ही नहीं। कि है क्या! यह जमीन की जो कशिश है, यह क्या है! चांद पर इसलिए पुराने सूत्र यह नहीं कहते कि गुरु को आदर करो। पुराने हम पहुंच गए हैं, लेकिन अभी कशिश के मामले में हम कहीं नहीं सूत्र कहते हैं, जिसको आदर करना ही पड़ता है, उसका नाम गुरु है। पहुंचे हैं। अभी हमें पता नहीं कि यह कशिश क्या है, जमीन जो | जिस गुरु को आदर करने के लिए कहना पड़े, वह गुरु नहीं है। खींचती है।
| जो गुरु कहे, मुझे आदर करो, वह दो कौड़ी के योग्य है। वह कोई पियागेट कहता है कि मां और बेटे के बीच भी ठीक ऐसी ही | गुरु-कुरु नहीं है। गुरु है ही वह कि आप न भी चाहें कि आदर करो, कशिश है, कोई ग्रेविटेशन है। जिससे बेटा वंचित हो जाए, तो हमें | तो भी आदर करना ही पड़े। उसकी मौजूदगी, तत्काल भीतर से कुछ पता नहीं चलेगा, लेकिन सूखना शुरू हो जाएगा, मुाना शुरू हो बहना शुरू हो जाए। नहीं; वह चाहता भी नहीं। नहीं; वह कहता जाएगा।
भी नहीं। उसे पता भी नहीं है कि कोई उसे आदर करे। लेकिन कोई आश्चर्य नहीं है कि अमेरिका में जिस दिन से परिवार उसकी मौजूदगी, और आदर बहना शुरू हो जाता है। शिथिल हआ और मां और बेटे के संबंध क्षीण हए. उसी दिन से परमात्मा परम शक्ति का नाम है। अगर उसको भी कछ करके अमेरिका विक्षिप्त होता जा रहा है। पचास सालों में अमेरिका रोज करना पड़े, तो कमजोर है। कृष्ण कहते हैं, वह कुछ करता नहीं है। पागलपन के करीब गया है। और अब मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि वह है, इतना ही काफी है। उसका होना पर्याप्त है। पर्याप्त से थोड़ा उस पागलपन का सबसे बड़ा कारण यह है कि मां और बेटे के बीच | ज्यादा ही है। और प्रकृति काम करती चली जाती है। उसकी संबंध की जो धारा थी, वह क्षीण हो गई।
| मौजूदगी में सारा काम चलता चला जाता है। अमेरिका की स्त्री बच्चे को दूध पिलाने को राजी नहीं है। क्योंकि | लेकिन प्रकृति बर्तती है अपने गुणों से, अपने नियमों से। वैज्ञानिक कहते हैं, इतना ही दूध तो बोतल से भी पिलाया जा सकता। इसलिए जो ज्ञान को उपलब्ध हो जाता है, जो इस मौलिक तत्व को है। और कोई हैरानी नहीं है कि मां के स्तन से भी अच्छा स्तन और आधार को समझ लेता है, वह फिर मैं करता हूं, इस भ्रांति से
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Gमाया अर्थात सम्मोहन ॐ
छूट जाता है।
हमारा भरोसा शरीर पर है। तुम मुझे छुरा भी मारोगे, तो भी शरीर इतना बड़ा विराट अस्तित्व चल रहा है बिना कर्ता के, तो मेरी | अपना काम जो करता है, कर लेगा। चांटा मारोगे, तो मेरे गाल पर छोटी-सी गृहस्थी बिना कर्ता के नहीं चल पाएगी? इतने चांद-तारे | हाथ का निशान बन जाएगा। शरीर अपना काम बर्त लेगा। अगर यात्राएं कर रहे हैं बिना कर्ता के! रोज सुबह सूरज उग आता है। हर | मेरे भीतर खयाल हो कि मुझे मारा गया, तो उपद्रव भीतर तक प्रवेश वर्ष वसंत आ जाता है। अरबों-खरबों वर्षों से पृथ्वियां घूमती हैं, | कर जाएगा। अन्यथा मैं देखूगा कि मेरे शरीर को मारा गया। शरीर निर्मित होती हैं, मिटती हैं। अनंत तारों का जाल चलता रहता है। को मारा गया; शरीर को जो करना है, वह अपना कर लेगा। बिना किसी कर्ता के इतना सब चल रहा है। लेकिन मैं कहता हूं, और हैरानी की बात है कि शरीर चुपचाप अपने नियम में बर्तकर मेरी दुकान बिना कर्ता के कैसे चलेगी!
अपनी जगह वापस लौट जाता है। प्रकृति बड़ी शांति से अपना काम जो व्यक्ति इस मूल आधार को समझ लेता है कि इतना विराट | कर लेती है। उसके हाथ का निशान बन गया था, थोड़ी देर बाद अस्तित्व चलता चला जा रहा है. तो मेरे क्षद्र कामों में मैं नाहक ही मैंने देखा, वह खो गया; शरीर उसे पी गया। लेकिन अगर मैं कर्ता कर्ता को पकड़कर बैठा हुआ हूं। इतना विराट चल सकता है कर्ता बन जाऊं, मुझे मारा गया या मैं मारूं या उत्तर दूं या कुछ करूं, तो से मुक्त होकर, तो मैं भी चल सकता हूं। जिस व्यक्ति को यह | फिर उपद्रव शुरू हुआ। लेकिन हमारी पकड़ शरीर की भाषा से, स्मरण आ गया, वह संन्यासी है। जिस व्यक्ति को यह स्मरण आ प्रकृति की भाषा से ऊपर नहीं उठती। गया कि इतना विराट चलता है बिना कर्ता के, तो अब मैं भी बिना अगर मुझे मजाक करना होता, तो एक चांटा मैं भी उसे मार कर्ता के चलता हूं। उलूंगा सुबह, दुकान पर जाकर बैठ जाऊंगा। सकता था। मजाक करना होता! लेकिन गरीब नासमझ औरत, काम कर लूंगा। भूख लगेगी, खाना खा लूंगा। नींद आएगी, सो | उसके साथ मजाक करनी ठीक भी नहीं। लेकिन हम भाषा कौन-सी जाऊंगा। लेकिन अब मैं कर्ता नहीं रहूंगा। प्रकृति करेगी, मैं देखता समझते हैं! रहूंगा। बाधा भी नहीं डालूंगा। क्योंकि जो बाधा डालेगा, वह भी जब वह चली गई, तो मुझे खयाल आया। एक फकीर हुआ, कर्ता हो जाएगा।
| नसरुद्दीन। उसके पास एक गधा था, जिस पर वह यात्रा करता रहता आपको नींद आ रही है और आपने कहा, हम न सोएंगे, तो भी | | था। एक दिन पड़ोस का एक आदमी उसका गधा मांगने आया और आप कर्ता हो गए। सुबह नींद आ रही है और आप जबर्दस्ती बोले | | उसने नसरुद्दीन से कहा कि अपना गधा मुझे दे दें; बहुत जरूरी कि हम तो ब्रह्ममुहूर्त में उठकर रहेंगे, तो भी कर्ता हो गए। काम है। नसरुद्दीन ने कहा कि गधा तो कोई और उधार मांग ले गया
जीवन को सहज, जैसा जीवन है, उसको कर्ता को छोड़कर | है। लेकिन तभी-गधा ही तो ठहरा-पीछे से अस्तबल से गधे प्रकृति पर छोड़ देने वाला व्यक्ति संन्यासी है। कृष्ण उसी निष्काम | ने आवाज दी। वह आदमी क्रोध से भर गया। उसने कहा कि धोखा कर्मयोगी की बात कर रहे हैं।
देते हैं मुझे? गधा अंदर बंधा हुआ मालूम पड़ता है। नसरुद्दीन ने लेकिन हमारे मन में बडी-बडी भ्रांत धारणाएं हैं। आज दोपहर कहा. क्या मतलब तम्हारा? मेरी बात नहीं मानते. गधे की बात एक बहत मजेदार बात हई। एक महिला मझे मिलने आई। आते ही मानते हो? मैं कहता हूं. मेरा तम्हें भरोसा नहीं आता। गधा आवाज उसने एक चांटा मेरे मुंह पर मार दिया। मैंने उससे पूछा, और क्या | देता है, उसका तुम्हें भरोसा आता है! किस तरह की भाषा समझते कहना है? तो उसने कहा, दूसरा गाल भी मेरे सामने करिए। मैंने | हो? आदमी हो कि गधे? दूसरा गाल भी उसके सामने कर दिया। उसने दूसरा चांटा भी मार ___ मैं जो कह रहा हूं, वह समझ में नहीं आएगा। मेरे शरीर को एक दिया। मैंने कहा, और क्या कहना है? उसने कहा कि नहीं, और चांटा मारकर कोई परीक्षा लेने आता है। लेकिन शरीर सवारी से कुछ नहीं कहना। मैं तो आपकी परीक्षा लेने आई थी। मैंने कहा, ज्यादा नहीं है, गधे से ज्यादा नहीं है। पर कुछ लोग उसकी ही भाषा मेरे शरीर को चांटा मारकर मेरी परीक्षा कैसे होगी? उससे नहीं समझते हैं। कहा, क्योंकि जिसकी शरीर पर बुद्धि अटकी हो, उससे कुछ भी प्रकृति की भाषा से ऊपर हम नहीं उठ पाते, इसलिए परमात्मा कहना कठिन है।
की हमें कोई झलक भी नहीं मिल पाती है। परमात्मा की झलक लेनी मेरे शरीर को चोट पहुंचाकर मेरी परीक्षा कैसे होगी? लेकिन हो, तो प्रकृति की भाषा से थोड़ा पार जाना पड़ेगा। और यह चारों
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गीता दर्शन भाग-2
तरफ जो भी हमें दिखाई पड़ रहा है, सब प्रकृति का खेल है। जो भी हमारी आंख में दिखाई पड़ता है, जो भी हमारे कान में सुनाई पड़ता है, जिस भी हम हाथ से छूते हैं, वह सब प्रकृति का खेल है। प्रकृति अपने गुणधर्म से बरत रही है। अगर इतने पर ही कोई रुक गया, तो वह कभी परमात्मा की झलक को उपलब्ध न होगा।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, उसकी झलक को अगर उपलब्ध होना हो, तो यह प्रकृति का काम है, ऐसा समझकर गहरे में इसे प्रकृति
करने दो। तुम मत करो। तुम कर्ता मत रह जाओ, तुम सिर्फ द्रष्टा हो जाओ; साक्षी हो जाओ कि प्रकृति ऐसा कर रही है। तुम सिर्फ देखते रहो एक दर्शक की भांति । और धीरे-धीरे -धीरे वह द्वार खुल जाएगा, जहां से, जिसने कभी कुछ नहीं किया, यद्यपि जिसके बिना कभी 'कुछ नहीं हुआ, उस परमात्मा की प्रतिमा झलकनी शुरू हो जाएगी।
प्रश्न : भगवान श्री, आपने पिछली एक चर्चा में कहा है कि परमात्मा अर्थात अस्तित्व, एक्झिस्टेंस, समग्रता, टोटेलिटी । लेकिन इस श्लोक में भूतप्राणी और परमात्मा, या प्रकृति और परमात्मा ऐसे दो अलग-अलग विभाग कैसे कहे गए हैं, इसके क्या कारण हैं?
व
ही, जैसा मैंने कहा, नृत्य और नृत्यकार | अगर हम नृत्यकार की तरफ से देखें, तो दोनों एक हैं। लेकिन अगर नृत्य की तरफ से देखें, तो दोनों एक नहीं हैं। जैसे लहर और सागर । सागर की तरफ से देखें, तो दोनों एक हैं। लहर की तरफ से देखें, तो दोनों एक नहीं हैं।
तो यदि हम परमात्मा की तरफ से देखें, तब तो प्रकृति है ही नहीं; वही है। लेकिन अगर प्रकृति की तरफ से देखें, तो प्रकृति है ।
ये जो भेद हैं, सब भेद मनुष्य की बुद्धि से निर्मित हैं - सब भेद। और अगर कृष्ण जैसे व्यक्ति को भी समझाना हो किसी को - कृष्ण भलीभांति जानते हैं अभेद को, नहीं कोई भेद है, एक ही है। लेकिन समझना हो किसी को, तो तत्काल दो करने पड़ेंगे।
यह बहुत समझने जैसी बात है। जैसे कि कांच के एक प्रिज्म में से हम सूरज की किरण को निकालें, तो सात टुकड़ों में बंट जाती
है । किरण तो एक होती है, लेकिन तत्काल प्रिज्म में से निकलते ही के साथ सात हो जाती है।
कभी पानी में एक लकड़ी के डंडे को डालकर देखें। डंडा सीधा हो, पानी में जाते ही तिरछा दिखाई पड़ने लगता है। बाहर निकालें, फिर सीधा हो गया। फिर पानी में डालें, फिर तिरछा हो गया ! क्या, | बात क्या है? डंडा तिरछा हो जाता है? हो नहीं जाता। लेकिन पानी के माध्यम में किरणों का प्रवाह, किरणों की धारा और दिशा थोड़ी-सी झुक जाती है पानी की मौजूदगी से इसलिए डंडा तिरछा | दिखाई देने लगता है। और आप दस दफे निकालकर देख लें कि डंडा सीधा है, ग्यारहवीं बार फिर डालें, तो भी तिरछा ही दिखाई | पड़ेगा। आप यह मत सोचना कि हम दस बार देख लिए कि सीधा है, इसलिए ग्यारहवीं बार धोखा नहीं होगा, अब की दफे सीधा दिखाई पड़ेगा। तिरछा ही दिखाई पड़ेगा।
बुद्धि का एक माध्यम है। समझाया तो जाता है बुद्धि से और | समझा भी जाता है बुद्धि से । सत्य है अद्वैत, लेकिन समझ सदा द्वैत की होती है। टूथ इज़ नान-डुअल; अंडरस्टैंडिंग इज़ आलवेज डुअल । सत्य तो है एक, . लेकिन समझ सदा होती है द्वैत की । | समझाना हो, तो दो करने ही पड़ेंगे। असल में जब भी कोई किसी को समझाता है, तभी दो हो गए। समझाने वाला और समझने वाला जहां आ गए, वहां दो आ गए। कोई समझा रहा है, कोई समझ रहा दो हो गए |
एक फकीर का मुझे स्मरण आता है। एक फकीर बांकेई के पास एक आदमी गया और उसने कहा कि मुझे कुछ सत्य के संबंध में कहो। बांके बैठा रहा; कुछ भी न बोला। उस आदमी ने समझा | कि शायद बहरा मालूम पड़ता है। जोर से कहा कि मुझे सत्य के संबंध में कुछ कहिए! लेकिन बांकेई वैसे ही बैठा रहा । लगा कि वज्र बहरा मालूम होता है । हिलाया जोर से बांकेई को उस आदमी | ने। बांकेई हिल गया। उसने कहा कि मैं पूछ रहा हूं सत्य के संबंध में। बांकेई ने कहा, मुझे सुनाई पड़ता है। उस आदमी ने कहा, |जवाब क्यों नहीं देते ? तो बांकेई ने कहा, अगर मैं जवाब दूं, तो द्वैत हो जाएगा। और अगर मैं चुप रहूं, तो तुम समझोगे नहीं। तुमने मुझे | बड़ी मुश्किल में डाल दिया है।
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कृष्ण को अगर अद्वैत की ओर इशारा करना हो, तो मौन रह जाना पड़े। लेकिन अर्जुन की समझ के बाहर होगा मौन और भाषा जब भी विचार शुरू करती है, तभी टूट शुरू हो जाती है। तोड़ना ही पड़ेगा। अनिवार्य रूप से बुद्धि खंडन करती है, खंड करती है,
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CR माया अर्थात सम्मोहन ॐ
एनालिसिस करती है, टुकड़े करती है।
वह पाएगा कि न कोई प्रकृति है, न कोई परमात्मा है, एक ही है। इसीलिए तो विज्ञान की जो पद्धति है, वह एनालिसिस है। तोड़ो, | जैसे कि हम एक आदमी से कहें कि ये जो लहरें तुझे दिखाई पड़ खंड-खंड करते जाओ और तोडते चले जाओ। हर चीज को. रही हैं, ये सागर नहीं हैं। जिसको भी समझना हो, तोड़ना पड़ेगा।
आपको खयाल नहीं होगा; आप सागर के किनारे बहुत बार गए अभी पचास साल पहले डाक्टर होता था, तो वह पूरे आदमी | होंगे, लेकिन लहरों को देखकर लौट आए और समझा कि सागर का डाक्टर होता था। वह आपकी बीमारी का इलाज कम करता था, को देखकर आ रहे हैं। सागर को आपने कभी नहीं देखा होगा; बीमार का इलाज ज्यादा करता था। आपसे परिचित होता था सिर्फ लहरों को देखा है। सागर की छाती पर लहरें ही होती हैं, भलीभांति। मरीज को पूरी तरह पहचानता था। आज हालत सागर नहीं होता। लेकिन कहते यही हैं कि हम सागर को देखकर बिलकुल बदल गई है। अगर बाएं कान में दर्द है, तो एक डाक्टर चले आ रहे हैं। सागर का दर्शन कर आए। दर्शन किया है सिर्फ के पास जाइए; दाएं कान में दर्द है, तो दूसरे डाक्टर के पास जाइए। लहरों का। सागर बड़ी गहरी चीज है; लहरें बड़ी उथली चीज हैं। उसको आपसे मतलब नहीं है। बस, उस कान के टुकड़े से मतलब कहां लहरों का उथलापन और कहां सागर की गहराई! पर लहरों है। बाकी मरीज बेकार है; हो या न हो। वह अपने कान की जांच | को हम सागर समझ लेते हैं। कर लेगा।
__ आप अगर मेरे पास आएं और कहें कि मैं सागर का दर्शन करके - इसलिए आज मरीज की कोई चिकित्सा नहीं होती, सिर्फ बीमारी आ रहा हूं, तो मैं कहूंगा, ध्यान रखो, सागर और लहरें दो चीज हैं। की चिकित्सा होती है। और इनमें बड़ा फर्क है। टु ट्रीट ए डिसीज | तुम लहरों का दर्शन करके आ रहे हो, उसको सागर मत समझ एंड टु ट्रीट ए पेशेंट, बहुत फर्क बातें हैं। क्योंकि जब मरीज की | लेना। सागर बहुत बड़ा है। बहुत गहरे, भीतर छिपा है। और अगर चिकित्सा करनी हो, तो करुणा की जरूरत पड़ती है। और जब सिर्फ | सागर को देखना हो, तो तब देखना, जब लहरें बिलकुल शांत हों। बीमारी की चिकित्सा करनी हो, तो यांत्रिकता पर्याप्त है। | तब तुम झांक पाओगे सागर में। स्पेशलिस्ट जो है, वह कान की जांच करके और लिख देगा कि | | आप मुझसे कह सकते हैं कि बड़ी गलत बात आप कह रहे हैं। क्या गड़बड़ है।
सागर और लहरें तो एक ही हैं। लेकिन यह उसका अनुभव है, विज्ञान जैसे विकसित होगा, चीजें खंड-खंड होती चली | | जिसने सागर को जाना। जिसने लहरों को जाना, उसका यह जाएंगी। विज्ञान की प्रक्रिया बद्धि की प्रक्रिया है। धर्म जैसे विकसित | अनभव नहीं है। होगा, चीजें जुड़ती चली जाएंगी, खंड इकट्ठे होते जाएंगे। विज्ञान | ___ तो कृष्ण की कठिनाई है। वे तो सागर को जानते हुए खड़े हैं। का मैथड है एनालिसिस, धर्म का मैथड है सिंथीसिस, जोड़ते चले | | लेकिन अर्जुन तो लहरों पर जी रहा है। उससे वे कहते हैं कि जिसे तू जाओ। इसलिए धर्म जब परम स्थिति को उपलब्ध होता है, तो एक | जान रहा है, वह प्रकृति है। इस लहरों की उथल-पुथल को, इस ही रह जाता है। और विज्ञान जब परम स्थिति को उपलब्ध होता है, लहरों की अशांति को तू सागर मत समझ लेना। यह सागर का हृदय तो परमाणु हाथ में रह जाते हैं, अनंत परमाणु। और जब धर्म | नहीं है। सागर के हृदय को तो पता ही नहीं है कि कहीं लहरें भी उठ विकसित होता है, तो अनंत अद्वैत, एक ही हाथ में रह जाता है। | रही हैं। सागर के गहरे में तो पता भी नहीं है। वहां कभी कोई लहर
कृष्ण की कठिनाई है, और वह सब कृष्णों की कठिनाई है, चाहे | उठी ही नहीं है। इसलिए दो हिस्सों में तोड़ लेना पड़ता है। वे कहीं पैदा हुए हों-जेरूसलम में, कि मक्का में, कि चीन में, ज्ञान में सब द्वैत गलत है। अज्ञान में सब अद्वैत समझ के बाहर कि तिब्बत में कहीं भी पैदा हुआ हो कोई जानता हुआ आदमी, | | है। अज्ञान में अद्वैत समझ के अतीत है, पार है। ज्ञान में द्वैत विदा उसकी कठिनाई यही है कि बुद्धि से कहते ही दो करने पड़ते हैं। । | हो जाता है, बचता नहीं।
इसलिए कृष्ण दो कर रहे हैं, अर्जुन की तरफ से इस बात को फिर क्या किया जाए ? जब ज्ञानी अज्ञानी से बोले, तो क्या करे? स्मरण रखना-लहर की तरफ से दो कर रहे हैं। कह रहे हैं कि मजबेरी में अज्ञानी की भाषा का ही उपयोग करना पड़ता है, इस प्रकृति है एक अर्जुन! यह सारा काम प्रकृति कर रही है। इतना तू आशा में कि उसी भाषा का उपयोग करके क्रमशः इशारा करते हुए, समझ और द्रष्टा हो जा। अगर अर्जुन द्रष्टा हो जाए, तो एक दिन किसी घड़ी धक्का दिया जा सकेगा।
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गीता दर्शन भाग-28
एक बच्चे को हम सिखाने बैठते हैं। उससे हम कहते हैं कि ग पहली बात तो यह कि पाप और पुण्य केवल उसी के जीवन की गणेश का। अब सेकुलर गवर्नमेंट आ गई, तो अब हम कहते हैं, धारणाएं हैं, जिसे खयाल है कि मैं कर्ता हूं। इसे ठीक से खयाल में ग गधे का! धर्मनिरपेक्ष राज्य हो गया, अब गणेश को तो उपयोग ले लें। जो मानता है, मैं कर्ता हूं, करने वाला हूं, फिर उसे यह भी कर नहीं सकते! गधा सेकुलर है, धर्मनिरपेक्ष! गणेश तो धार्मिक मानना पड़ेगा कि मैंने बुरा किया, अच्छा किया। अगर परमात्मा कर्ता बात हो जाएगी। इसलिए बदलना पड़ा किताबों में। पर गधे से या| नहीं है, तो अच्छे-बुरे का सवाल नहीं उठता है। जो आदमी मानता गणेश से ग का क्या लेना-देना? फिर बच्चा बड़ा हो जाएगा, तो | है कि मैंने किया, फिर वह दूसरी चीज से न बच सकेगा कि जो उसने हर बार जब भी पढ़ेगा कुछ, तो क्या पढ़ेगा कि ग गणेश का, ग | किया, वह ठीक था, गलत था, सही था, शुभ था, अशुभ था! गधे का ? भूल जाएंगे। गधे भी भूल जाएंगे, गणेश भी भूल जाएंगे। कर्म को मान लिया कि मैंने किया, तो फिर नैतिकता से बचना ग बचेगा। मुक्त हो जाएगा, जिससे जोड़कर बताया था। लेकिन | असंभव है। फिर नीति आएगी। क्योंकि कोई भी कर्म सिर्फ कर्म बताते वक्त बहुत जरूरी था।
नहीं है। वह अच्छा है या बुरा है। और कर्ता के साथ जुड़ते ही आप अगर हम बच्चे को बिना किसी प्रतीक के बताना चाहें, तो बता | अच्छे और बुरे के साथ भी जुड़ जाते हैं। अच्छे और बुरे से हमारा न सकेंगे। और अगर बड़ा होकर भी बच्चा प्रतीक को पकड़े रहे, संबंध कर्ता के बिना नहीं होता। जिस क्षण हमने सोचा कि मैंने तो गलती हो गई; वह पागल हो गया। दोनों करने पड़ेंगे। प्रतीक | किया, उसी क्षण हमारा कर्म विभाजन हो गया, अच्छे या बुरे का से यात्रा शुरू करनी पड़ेगी, और एक घड़ी आएगी, जब प्रतीक | निर्णय हमारे साथ जुड़ गया। तो परमात्मा तक अच्छा और बुरा नहीं छीन लेना पड़ेगा।
| पहुंच पाता, क्योंकि कर्ता की कोई धारणा वहां नहीं है। तो कृष्ण द्वैत की बात करेंगे, करते रहेंगे, करते रहेंगे। और जब ऐसा समझें कि पानी हमने बहाया। जहां गड्ढा होगा, वहां पानी लगेगा कि अर्जुन उस जगह आया, जहां द्वैत छीना जा सकता है, तो | भर जाता है। गड्ढा न हो, तो पानी उस तरफ नहीं जाता। कर्ता का अद्वैत की बात भी करेंगे। उस इशारे की प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। लेकिन | गड्डा भीतर हो, तो ही अच्छे और बुरे कर्म उसमें भर पाते हैं। वह न इस घड़ी तक, अभी तक अर्जुन पर भरोसा नहीं किया जा सकता है। | हो, तो नहीं भर पाते हैं। कर्ता एक गड्डे का काम करता है। परमात्मा इसलिए कृष्ण प्रकृति और परमात्मा, दो की बात कर रहे हैं। के पास कोई गड्डा नहीं है, जिसमें कोई कर्म भर जाए। कर्ता नहीं है।
परमात्मा की तो बात दूर, हममें से भी कोई अगर कर्ता न रह जाए,
तो न कुछ अच्छा है, न कुछ बुरा है। बात ही समाप्त हो गई। अच्छे नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः। और बुरे का खयाल तभी तक है, जब तक हमें भी खयाल है कि अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यति जन्तवः ।। १५ ।। मैं कर्ता हैं। और सर्वव्यापी परमात्मा न किसी के पापकर्म को और न मुझे निरंतर प्रीतिकर रही है एक घटना। कलकत्ते के एक मुहल्ले किसी के शुभकर्म को भी ग्रहण करता है, किंतु माया के | में एक नाटक चलता था। पुरानी बात है। एक बड़े बुद्धिमान आदमी द्वारा ज्ञान ढंका हुआ है। इससे सब जीव मोहित हो रहे हैं। | विद्यासागर देखने गए हैं। सामने ही बैठे हैं। प्रतिष्ठित, नगर के
जाने-माने पंडित हैं। सामने बैठे हैं। फिर नाटक कुछ ऐसा है, कथा
कुछ ऐसी है कि उसमें एक पात्र है, जो एक स्त्री को निरंतर सता र न ही वह परम शक्ति किसी के पाप या किसी के | | रहा है, परेशान कर रहा है। बढ़ती जाती है कहानी। उस स्त्री की ll पुण्य या अशुभ या शुभ कर्मों को ग्रहण करती है। उस | परेशानी और उस आदमी के हमले और आक्रमण भी बढ़ते चले
____ परम शक्ति को शुभ-अशुभ का भी कोई परिणाम, | जाते हैं। और फिर एक दिन एक अंधेरी गली में उसने उस स्त्री को कोई प्रभाव नहीं होता है। लेकिन हम, वे जो अज्ञान से दबे हैं, वे | | पकड़ ही लिया। बस, फिर बरदाश्त के बाहर हो गया विद्यासागर जो स्वप्न में खोए हैं, वे उस स्वप्न और अज्ञान और माया में डूबे के। छलांग लगाकर मंच पर चढ़ गए, निकाला जूता और पीटने हुए, पाप और पुण्य के जाल में घूमते रहते हैं। इसमें दो-तीन बातें | लगे उस आदमी को! समझ लेने जैसी हैं।
लेकिन उस आदमी ने विद्यासागर से भी ज्यादा बुद्धिमानी का
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माया अर्थात सम्मोहन
परिचय दिया। उसने सिर झुकाकर उनका जूता सिर पर ले लिया। जूता हाथ में लेकर जनता से कहा कि इतना बड़ा पुरस्कार मुझे कभी नहीं मिला। मैं सोच नहीं सकता था कि विद्यासागर जैसा बुद्धिमान आदमी मेरे अभिनय को वास्तविक समझ लेगा !
विद्यासागर को तो पसीना छूट गया। खयाल आया कि नाटक देख रहे थे! नाटक था; कर्ता बन गए। दर्शक न रह पाए। भूल गए। समझा कि स्त्री की इज्जत जा रही है, तो बचाने कूद पड़े। बहुत उस आदमी से कहा, जूता वापस कर दो। माफ कर दो। उसने कहा, यह मेरा पुरस्कार है। इसे तो मैं घर में सम्हालकर रखूंगा। क्योंकि मैंने सोचा भी नहीं था कि इतना कुशल हो सकेगा मेरा अभिनय कि आप धोखे में आ जाएं।
क्या हुआ क्या? विद्यासागर को बचाने का खयाल पकड़ गया। कर्ता आ गया कहीं से, सात्विक अहंकार । बुरा नहीं था, पायस ईगोइज्म। बड़ा शुद्ध अहंकार रहा होगा। लेकिन अहंकार कितना ही शुद्ध हो, जहर कितना ही शुद्ध हो, जहर ही है। शुद्ध जहर और खतरनाक है । आजकल तो मिलता नहीं शुद्ध जहर ।
मैंने सुना है, एक आदमी ने जहर खा लिया और सो गया। सुबह पाया कि सब ठीक है। वापस गया। दुकानदार को उसने कहा कि कैसा जहर दिया? उसने कहा, भई हम क्या करें, अडल्ट्रेशन ! जहर शुद्ध अब कहां मिलता है!
लेकिन अहंकार तो शुद्ध मिलता है। जिनको हम अच्छे लोग कहते हैं, उनके पास शुद्ध अहंकार होता है। जिनको हम बुरे लोग कहते हैं, उनके पास अशुद्ध अहंकार होता है। जिनको हम अच्छे लोग कहते हैं, हम चाहे कहें या न कहें, जो अपने को अच्छे लोग समझते हैं, उनके पास बड़ा सूक्ष्म और पैना अहंकार होता है। सूक्ष्म, सुई की तरह। पता भी नहीं चलता कि कहां पड़ा है, लेकिन चुभता रहता है।
विद्यासागर कूद पड़े। भीतर लगा होगा, बचाऊं । स्त्री की इज्जत चली जा रही है! लेकिन उस अभिनेता ने ठीक ही कहा । क्योंकि ये जूते अभिनय में नहीं पड़े थे; ये जूते तो वास्तविक पड़े
थे एक अर्थ में। स्त्री को सताना तो अभिनय था, एक्टिंग था । लेकिन विद्यासागर के जूते जो अभिनेता को पड़े थे, ये तो वास्तविक थे। लेकिन उस अभिनेता ने इनको भी अभिनय में लिया । और उसने कहा कि बड़ी कृपा है कि पुरस्कार दिया। विद्यासागर अभिनय को वास्तविक समझ लिए, उसने वास्तविक को भी अभिनय माना। इसलिए फिर ते का लगना बुरा और भला
न रहा। और विद्यासागर के बाबत निर्णय लेने की कोई जरूरत न रही कि उन्होंने बुरा किया कि अच्छा किया।
जहां कर्ता है, वहां शुभ और अशुभ पैदा होते हैं। जहां कर्ता नहीं, वहां शुभ और अशुभ पैदा नहीं होते हैं। कृष्ण कहते हैं कि परमात्मा तक हमारे शुभ और अशुभ कुछ भी नहीं पहुंचते । हम ही परेशान हैं, अपनी ही माया में।
यह माया क्या है जिसमें हम परेशान हैं? इस माया शब्द को थोड़ा वैज्ञानिक रूप से समझना जरूरी है।
अंग्रेजी में एक शब्द है, हिप्नोसिस । मैं माया का अर्थ हिप्नोसिस करता हूं, सम्मोहन । माया का अर्थ इलूजन नहीं करता, माया का अर्थ भ्रम नहीं है। माया का अर्थ है, सम्मोहन । माया का अर्थ है, | हिप्नोटाइज्ड हो जाना।
कभी आपने अगर किसी हिप्नोटिस्ट को देखा है, मैक्स कोली या किसी को देखा है; नहीं तो घर में छोटा-मोटा प्रयोग खुद भी कर सकते हैं, तो आपकी समझ में आएगा कि माया क्या है।
अगर एक व्यक्ति सुझाव देकर, सजेशन देकर बेहोश कर दिया जाए, और कोई भी सहयोग करे तो बेहोश हो जाता है। घर जाकर प्रयोग करके देखें। अगर पत्नी आपकी मानती हो— जिसकी संभावना बहुत कम है तो उसे लिटा दें और सुझाव दें कि तू बेहोश हो रही है। और सहयोग कर। और अगर न मानती हो, तो खुद लेट जाएं और उससे कहें कि तू मुझको सुझाव दे - जिसकी संभावना ज्यादा है — और मानें। पांच-सात मिनट में आप बेहोश हो जाएंगे। या जिसको आप बेहोश करना चाहते हैं, वह बेहोश हो जाएगा। इंड्यूस्ड स्लीप पैदा हो जाएगी। पैदा की हुई नींद में चले जाएंगे। उस नींद में चेतन मन खो जाता है, अचेतन मन रह जाता है।
मन के दो हिस्से हैं। चेतन बहुत छोटा-सा हिस्सा है, दसवां भाग । अचेतन, अनकांशस नौ हिस्से का नाम है; और एक हिस्सा चेतन है । जैसे बर्फ के टुकड़े को पानी में डाल दें, तो जितना ऊपर रहता है, उतना चेतन; और जितना नीचे डूब जाता है, उतना अचेतन। नौ हिस्से भीतर अंधेरे में पड़े हैं। एक हिस्सा भर थोड़ा-सा होश में भरा हुआ है। सुझाव से वह एक हिस्सा भी नीचे | डूब जाता है। बरफ का टुकड़ा पूरा पानी में डूब जाता है।
अचेतन मन की एक खूबी है कि वह तर्क नहीं करता, विचार नहीं करता, सोच नहीं करता। जो भी कहा जाए, उसे मानता है। बस, मान लेता है। बड़ा श्रद्धालु है ! जो बेहोश हो गया, उससे अब | आप कुछ भी कहिए। उससे आप कहिए कि अब तुम आदमी नहीं
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गीता दर्शन भाग-28
हो जाने
हो, घोड़े हो गए। घोड़े की आवाज करो! तो वह हिनहिनाने लगेगा। मैं एक युवक पर प्रयोग कर रहा था। उसे मैंने बेहोश किया। उसका मन मान लेता है कि मैं घोड़ा हो गया। अब उसको खयाल और मैंने उसे बेहोशी में पोस्ट-हिप्नोटिक सजेशन के लिए कहा कि भी नहीं रहा कि वह आदमी है। वह घोड़े की तरह हिनहिनाने जब तू होश में आ जाएगा, तब यह जो तकिया रखा हुआ है तेरे लगेगा। उसके मुंह में प्याज डाल दो और कहना कि यह बहुत पास, तू इसे बिना छाती से लगाए, बिना चूमे नहीं रहेगा, इसका तू सुगंधित मिठाई का टुकड़ा डाल रहे हैं। वह प्याज की दुर्गंध उसे | चुंबन लेकर रहेगा। यह बड़ा प्यारा तकिया है। इससे ज्यादा सुंदर नहीं आएगी, उसे सुगंधित मिठाई मालूम पड़ेगी। वह बड़े रस से | न तो कोई स्त्री है पृथ्वी पर, न कोई पुरुष है। यह मैंने उसे बेहोशी लेगा और कहेगा, बहुत मीठी है, बड़ी सुगंधित है। | में कहा। मान लिया उसने। उसने तकिए पर हाथ फिराकर देखा। अचेतन
मैंने कहा, देखता है कितनी सकोमल त्वचा है इसकी। इस तकिए की संभावना है। जो भी हम होना चाहें, वह हम हो जा सकते हैं। | की चमड़ी कितनी सुकोमल है! उसने कहा, हां, बहुत सुकोमल है। यह तो आपने कोशिश करके सम्मोहन पैदा किया, लेकिन जन्म के कितनी गुदगुदी है! उसने कहा, बहुत गुदगुदी है। मैंने कहा, होश साथ हम अनंत जन्मों के सजेशन साथ लेकर आते हैं। उनका एक | में आने के बीस मिनट बाद तू रुक न सकेगा। इस तकिए को छाती गहरा सम्मोहन हमारे पीछे अचेतन में दबा रहता है। अनंत जन्मों में से लगाकर रहेगा और चुंबन भी लेगा। हम जो संस्कार इकट्ठे करते हैं, वे हमारे अनकांशस माइंड में, फिर उसे होश में ला दिया गया। दस-पांच मित्र बैठकर इसको अचेतन मन में इकट्ठे हैं। वे इकट्ठे संस्कार भीतर से धक्का देते रहते देखते थे। फिर वह होश में आ गया, सब बातचीत करने लगा। हैं। हमसे कहते रहते हैं, यह करो, यह करो। यह हो जाओ, यह | | सब तरह से सब दस मित्रों ने जांच कर ली कि वह बराबर होश में हो जाओ, यह बन जाओ। वे हमारे भीतर से हमें पूरे समय धक्का | | आ गया है। बाथरूम गया; लौटकर आया। उससे एक गणित
करवाया; उसने जोड़ करके बताया। किताब पढ़वाई। किताब जब आप क्रोध से भरते हैं, तो आपने कई बार तय किया है कि | पढ़कर उसने बताई। उसने कहा, यह सब क्या करवा रहे हैं! वह अब दुबारा क्रोध नहीं करूंगा। लेकिन फिर जब क्रोध का मौका | | बिलकुल होश में है। लेकिन बस, अठारह मिनट के बाद, जैसे आता है, तो सब भूल जाते हैं कि वह तय किया हुआ क्या हुआ! | बीस मिनट करीब घड़ी आने लगी, उसकी बेचैनी बढ़ने लगी और फिर क्रोध आ जाता है। फिर तय करते हैं, अब क्रोध नहीं करूंगा। माथे पर पसीना आने लगा। वही पसीना, जो कोई पुरुष किसी स्त्री शर्म भी नहीं खाते कि अब तय नहीं करना चाहिए। कितनी बार तय | के सामने प्रेम निवेदन करते वक्त अनुभव करता है। अब वह कर चुके! अब कम से कम तय करना ही छोड़ो। फिर तय करते हैं | | तकिए से जुड़ गया है अचेतन में। कि अब क्रोध नहीं करेंगे। फिर कल सुबह!
__ अब हम सारे लोग, और वह तकिया मेरे पीछे रखा है, वे सज्जन आदमी की स्मृति बड़ी कमजोर है। वह भूल जाता है, कितनी मेरे बगल में बैठे हैं। लेकिन अब उनका किसी में रस नहीं है। वे दफे तय कर चुका। अब तो मुझे खोजना चाहिए कि तय कर लेता चोरी-चोरी से उस तकिए को बार-बार देखने लगे हैं। वैसे ही जैसे हूं, फिर भी करता हूं, इसका मतलब क्या है? इसका मतलब यह कि कोई किसी के प्रेम की माया में पड़ता है, तो सारी दुनिया बैठी है कि आपके अचेतन से क्रोध आता है और निर्णय तो चेतन में रहे, कोई नहीं दिखाई पड़ता! सम्मोहन है। बिलकुल अचेतन की होता है। तो चेतन का निर्णय काम नहीं करता। ऊपर-ऊपर निर्णय | | बेहोशी है। होता है, भीतर तो जन्मों का क्रोध भरा है। जब वह फूटता है, सब | | मैंने तकिया और दूर हटा दिया। जब मैंने तकिया छुआ, तो उसको निर्णय वगैरह दो कौड़ी के अलग हट जाते हैं, वह फूटकर बाहर वैसी ही चोट लगी, जैसे कोई किसी की प्रेयसी को छू दे। उसके चेहरे आ जाता है। वह सम्मोहित क्रोध है; वह माया है।
| पर सारा भाव झलक गया। फिर मैं उठा, और जैसे ही बीस मिनट कितनी बार तय किया है कि ब्रह्मचर्य से रहेंगे। लेकिन वह सब करीब आने को थे, मैं तकिए को उठाकर जाकर अलमारी में बंद बह जाता, वह कहीं बचता नहीं। जन्मों-जन्मों की यात्रा में करने लगा। वह भागा हुआ मेरे पास आया और बिलकुल होश के कामवासना गहरी होती चली गई है, वह बड़ी भीतर बैठ गई है, वह बाहर उसने तकिया छीना, चूमा और छाती से लगाया। सम्मोहक है।
सारे लोग हंसने लगे। उन्होंने कहा, तुम यह क्या कर रहे हो? वह
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माया अर्थात सम्मोहन
रोने लगा। उसने कहा, मेरी भी समझ में नहीं आ रहा है कि मैं क्या कर रहा हूं। लेकिन अब मुझे बड़ी राहत, बड़ी रिलीफ मिली। कुछ ऐसी बेचैनी हो रही थी कि इसको बिना किए रुक ही नहीं सकता; इस तकिए को छाती से लगाना ही पड़े। मैं बिलकुल पागल हूं! उसे कुछ पता नहीं कि बेहोशी में उसे क्या कहा गया है। क्या स्त्री और पुरुष के बीच जो आकर्षण है, वह ऐसा ही नहीं है! लेकिन किसी ने आपको सम्मोहित नहीं किया। आप ही सम्मोहित हैं अनंत जन्मों की यात्रा से । प्रकृति का ही सम्मोहन है। इसको माया - पुराना शब्द है इसके लिए माया, नया शब्द है हिप्नोसिस ।
माया से आवृत, अपने ही चक्कर में डूबा हुआ आदमी भटकता रहता है स्वप्न में। एक ड्रीमलैंड बनाया हुआ है अपना-अपना । खोए हैं अपने-अपने सपनों में। कोई पैसे से सम्मोहित है। तो देखें, जब पैसा वह देखता है, तो कैसे उसके प्राण ! छोटे-मोटे लोगों की बात छोड़ दें। जो पैसे के बड़े त्यागी मालूम पड़ते हैं, उनको भी अगर बहुत गौर से देखें, तो पाएंगे कि वे हिप्नोटाइज्ड हैं पैसे से ।
अभी खान अब्दुल गफ्फार उर्फ सरहदी गांधी भारत होकर गए। तो गांधीजी के प्रतिनिधि आदमी हैं। लेकिन अभी उनकी कमेटी के आदमी ने खबर दी है, टी.एन. सिंह ने, कि वह रात जो दिन में उनको थैली मिलती थी, जब थैली मिलती थी, तब तो वे ऐसा दिखाते थे कि कोई बात नहीं; लेकिन रात दरवाजा बंद करके दो बजे रात तक रुपया गिनते थे। उस आदमी ने लिखा है कि मैं तो जब उनको पहली दफे दिल्ली के एयर पोर्ट पर स्वागत करने गया था - रिसेप्शन कमेटी का आदमी है - तो जब मैंने उन्हें पोटली हाथ में दबाए हुए उतरते देखा, तो मेरे हृदय में बड़ा भाव उठा था कि कितना सीधा-सादा आदमी है। लेकिन जब रात मैंने दो-दो तीन-तीन बजे तक उन्हें दरवाजा बंद करके रुपए गिनते देखा, तब मुझे बड़ी हैरानी हुई कि क्या बात है!
जब वे गए, तब भी पोटली उनके हाथ में थी। वही पोटली, जिसे लेकर वें आए थे। दिल्ली के एयर पोर्ट पर तब भी वही पोटली थी विदा करने वालों को। लेकिन टी. एन. सिंह ने कहा कि लेकिन तब मुझे धोखा नहीं हो सका, क्योंकि बाईस सूटकेस एयर पोर्ट पर थे, जो पीछे आ रहे थे। और अस्सी लाख का वायदा किया था उनको उनके मित्रों ने, कि भारत से भेंट करेंगे। लेकिन चालीस लाख ही हो पाया, इसलिए बड़े नाराज गए कि सिर्फ चालीस लाख !
आदमी की पकड़ बड़ी हैरानी की है ! त्याग भी करता हुआ
| दिखाई पड़ता हुआ आदमी जरूर नहीं कि हिप्नोसिस के बाहर हो । | त्याग भी एंटी हिप्नोटिक हो सकता है, वह भी सम्मोहन का ही विपरीत वर्ग हो सकता है। अक्सर ऐसा होता है। पैसे को पकड़ने वाले, पैसे को छोड़ने वाले - सम्मोहित होते हैं। शरीर को पकड़ने वाले, शरीर को छोड़ने वाले - सम्मोहित होते हैं।
सम्मोहन के बाहर जो जाग जाता है, एक अवेकनिंग, होश से भर जाता है कि यह सब प्रकृति का खेल है और इस खेल में मैं | इतना लीन होकर डूब जाऊं, तो पागल हूं। और एक-एक इंच पर जागने लगता है। तो जब वह किसी स्त्री से या किसी पुरुष से आकर्षित होकर उसके हाथ को छूता है, तब जानता है कि यह शरीर और शरीर का कोई आंतरिक आकर्षण मालूंम होता है। मैं दूर खड़े होकर देखता रहूं।
कभी इसको प्रयोग करके देखें। कभी अपनी प्रेयसी के हाथ में हाथ रखकर आंख बंद करके साक्षी रह जाएं कि हाथ में हाथ मैं नहीं रखे हूं; हाथ ही हाथ पर पड़ा है। और तब थोड़ी देर में सिवाय पसीने के हाथ में कुछ भी नहीं रह जाएगा। लेकिन अगर सम्मोहन रहा, तो पसीने में भी सुगंध आती है ! कवियों से पूछें न ।
हमारी पृथ्वी पर कवियों से ज्यादा हिप्नोटाइज्ड आदमी खोजना मुश्किल है। वे पसीने में भी गुलाब के इत्र को खोज लेते हैं! आंखों में कमल खोज लेते हैं! पैरों में कमल खोज लेते हैं। पागलपन की भी कुछ हद होती है। सम्मोहित ! क्या-क्या खोज लेते हैं! जो कहीं नहीं है, वह सब उन्हें दिखाई पड़ने लगता है उनकी हिप्नोसिस में, | उनके भीतर के सम्मोहन में। ऐसा भी नहीं है कि उनको दिखाई नहीं पड़ता । उनको दिखाई पड़ने लगता है। प्रोजेक्शन शुरू हो जाता है।
किसी के प्रेम में अगर आप गिरे हों, तो पता होगा कि कैसा प्रोजेक्शन शुरू होता है। दिनभर उसी का नाम गूंजने लगता है। किसी के भी पैर की आहट सुनाई पड़े, पता लगता है, वही आ रहा | है । कोई दरवाजा खटखटा दे, लगता है कि उसी की खबर आ गई। हवा दरवाजा खटखटा जाए, तो लगता है कि पोस्टमैन आ गया, चिट्ठी आ गई।
फिर जब डिसइलूजनमेंट होता है, प्रेम जा चुका होता है, सम्मोहन टूट जाता है, तब ? तब उस आदमी की शकल देखने जैसी भी नहीं लगती। तब वह रास्ते पर मिल जाए, तो ऐसा लगता है, कैसे बचकर निकल जाएं! क्या हो जाता है? वही आदमी है। उसी के पदचाप संगीत से मधुर मालूम होते थे। उसी के पदचाप आज | सुनने में अत्यंत कर्णकटु हो गए ! उसी के शब्द ओंठों से निकलते
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गीता दर्शन भाग-26
थे, तो लगता था, अमृत में भीगकर आते हैं। आज उसके ओंठों से डरूंगा। रस्सी को देखकर मारने की तैयारी नहीं करूंगा, सांप को सिवाय जहर के कुछ और मिलता हुआ मालूम नहीं पड़ता है। उसी | | देखकर मारने की तैयारी करूंगा। सांप पैर पर पड़ जाए, तो मर भी की आंखें कल गिरती थीं, तो लगता था कि आशीर्वाद बरस रहे हैं। जा सकता हूं। रस्सी पैर पर पड़ जाए, तो मरने का कोई सवाल ही आज उसकी आंखों में सिवाय तिरस्कार और घृणा के कुछ भी | नहीं है। दिखाई नहीं पड़ता। हो क्या गया? वही आंख है, वही आदमी है। जिस आदमी को अंधेरे में रस्सी सांप जैसी दिखाई पड़ रही है, भीतर की हिप्नोसिस उखड़ गई। भीतर का सम्मोहन उखड़ गया, उससे अगर आप कहो कि रस्सी और सांप सब एक हैं; बेफिक्री से टूट गया, विजड़ित हो गया।
जा। तो वह कहेगा, माफ करो। रस्सी और सांप एक नहीं हैं! रस्सी कृष्ण कहते हैं, प्रकृति की माया, प्रकृति की हिप्नोसिस में डूबा भी सांप दिखाई पड़ रही हो, तो भी उसके लिए तो सांप ही है। हुआ आदमी अपने ही अच्छे और बुरे के सोच-विचार में भटकता सांपों का जो लोग अध्ययन करते हैं, वे कहते हैं कि सत्तानबे रहता है।
परसेंट सांप में जहर ही नहीं होता। सिर्फ सौ में तीन सांपों में जहर समझें, एक रात आपने सपना देखा कि चोरी की है। और एक | | होता है। लेकिन जिन सांपों में जहर नहीं होता, उनके काटे हुए लोग रात आपने सपना देखा कि साधु हो गए हैं। सुबह जब उठते हैं, तो भी मर जाते हैं। अब जहर होता ही नहीं, तो बड़ा चमत्कार है। जब क्या चोरी का जो सपना था, वह बुरा; और साधु का जो सपना था, जहर नहीं है, तो यह आदमी काटने से मर क्यों गया? वह अच्छा! सुबह जागकर दोनों सपने हो जाते हैं। न कुछ अच्छा आदमी सांप के जहर से कम मरता है। सांप ने काटा, इस रह जाता है, न बुरा रह जाता है। दोनों सपने हो जाते हैं। | सम्मोहन से मरता है। इसीलिए तो जहर उतारने वाले जहर उतार
संत उसे ही कहते हैं, जो अच्छे और बुरे दोनों के सपने के बाहर | | देते हैं। जहर वगैरह कोई नहीं उतारता। अगर सांप बिना जहर का आ गया। और जो कहता है कि वह भी सपना है, यह भी सपना रहा, तो मंत्र वगैरह काम कर जाते हैं। और सत्तानबे परसेंट सांप है। बुरा भी, अच्छा भी, दोनों सम्मोहन हैं।
| बिना जहर के हैं। इसलिए बड़ी आसानी से उतर जाता है। कठिनाई ___ इस सम्मोहन से कोई जाग जाए, तो ही तो ही केवल–जीवन नहीं पड़ती। इतना भरोसा भर दिलाना है कि उतार दिया। चढ़ा तो में वह परम घटना घटती है, जिसकी ओर कृष्ण इशारा कर रहे हैं। | था ही नहीं! उतर जाता है! लेकिन जरूरी नहीं है कि न उतारा, तो
नहीं मरता आदमी। आदमी मर सकता था। इसलिए काम तो परा
हुआ, आदमी को बचाया तो है ही। प्रश्नः भगवान श्री, माया और परमात्मा में क्या । | इसलिए मैं मंत्र के खिलाफ में नहीं हूं। जब तक नकली सांप से भिन्नता है? माया से ज्ञान कैसे व क्यों ढंकता है? मरने वाले लोग हैं, तब तक नकली मंत्र से जिलाने वाले लोगों की
जरूरत रहेगी। जरूरत है। रस्सी पर भी पैर पड़ जाए और अगर
आपको खयाल है कि सांप है, तो मौत हो सकती है। आपके लिए गया और परमात्मा में क्या भिन्नता है?
| फर्क है। 11 जो माया में डूबे हैं, उन्हें तो बड़ी भिन्नता है। जैसे जो | | मैंने सुना है, एक गांव में एक फकीर रहता है गांव के बाहर।
रात सपने में डबा है. उसे तो सपने में और जागने में और एक काली छाया अंदर जा रही है। उस फकीर ने पछा त कौन बड़ी भिन्नता है। लेकिन जो जाग गया, उसे सपने में और जागने में | है? उसने कहा, मैं मौत हूं। तू इस गांव में किसलिए जा रही है? भिन्नता नहीं होती, क्योंकि जागकर सपना बचता ही नहीं। भिन्नता | उसने कहा कि गांव में प्लेग आ रही है और मुझे दस हजार आदमी किससे? इसको ठीक से समझ लें।
मारने हैं! एक रस्सी पड़ी है और मुझे सांप दिखाई पड़ रहा है। तो जब तक महीनेभर में कोई पचास हजार आदमी मर गए। फकीर ने कहा, मुझे सांप दिखाई पड़ रहा है, तब तक तो रस्सी और सांप में बड़ी | | हद हो गई! आदमी झूठ बोलते हैं, बोलते हैं; लेकिन मौत भी झूठ भिन्नता है। क्योंकि रस्सी को देखकर मैं भागूंगा नहीं, सांप को | | बोलने लगी! अब तो परमात्मा का भी भरोसा करना ठीक नहीं है। देखकर भागूंगा। रस्सी को देखकर डरूंगा नहीं, सांप को देखकर पता नहीं, वह भी झूठ बोलने लगा हो!
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माया अर्थात सम्मोहन
जागता रहा कि कब लौटे, तो पकडूं। एक रात मौत वापस | शंकर कहते हैं, परमात्मा तो है। यह जगत नहीं है, लेकिन तुम्हें लौटती थी। कहा, ठहर। हद हो गई! इतना झूठ! मुझसे कहा, दस | | दिखाई पड़ता है। हजार लोग मारने हैं। पचास हजार तो मर चुके! उस मौत ने कहा, । माया का अर्थ है, जो नहीं है और दिखाई पड़ता है। जिस दिन तुम मैंने दस हजार मारे हैं; बाकी अपने आप मर गए। बाकी घबड़ाहट जानोगे उसे, जो है, उस दिन जो दिखाई पड़ता था और नहीं था, वह में मर गए। मेरा कोई हाथ नहीं है। बाकी यह समझकर कि प्लेग खो जाएगा, तिरोहित हो जाएगा। संबंध कभी जोड़ना नहीं पड़ेगा। आई, मर गए। दस हजार मारकर मैं जा रही हूं, बाकी चालीस हजार जब तक जगत है, जगत है; परमात्मा नहीं है। संबंध का कोई अपने आप मरे हैं। और आगे भी मरें, तो मेरा कोई जिम्मा नहीं है। सवाल नहीं है। जिस दिन परमात्मा होता है, परमात्मा ही होता है;
रस्सी और सांप एक नहीं हैं उसे, जिसे रस्सी सांप दिखाई पड़ | जगत नहीं होता। संबंध का कोई सवाल नहीं है। रही है। जगत जिन्हें दिखाई पड़ रहा है अभी, उनसे यह कहना कि | इसलिए परमात्मा और माया के बीच कोई भी संबंध नहीं है, माया और परमात्मा एक हैं, बड़ा कठिन है समझना। कैसे एक हो | रिलेटेड नहीं हैं। संबंध हो नहीं सकता। एक सत्य और एक असत्य सकते हैं? एक नहीं हैं।
के बीच संबंध हो कैसे सकता है। नदी पर अगर हमें एक बिज जगत दिखाई पड़ रहा है, तब तक परमात्मा है ही नहीं। एक का | बनाना हो, एक सेतु, एक पुल बनाना हो; एक किनारा सच हो और सवाल कहां है! माया ही है। नींद है गहरी; वही है। जिस दिन नींद | | दूसरा किनारा झूठ हो, पुल बना सकते हैं आप? कैसे बनाइएगा से कोई जागता है, तो परमात्मा ही बचता है, जगत नहीं बचता। । | पुल ? सच्चे किनारे पर एक हिस्सा पुल का रख जाएगा, पर दूसरे
इसलिए एक बहुत कठिन पहेली है यह। बहुत कठिन पहेली है। | हिस्से को कहां रखिएगा? और अगर दूसरा हिस्सा झूठ पर भी रखा पहेली इसलिए कठिन है कि जिन लोगों ने जाना, उन्होंने कहा, | जा सकता है, तो फिर सच का भी शक हो जाएगा। परमात्मा ही है, जगत नहीं है। पर हम, जो जानते हैं, जगत है, उनसे माया और ब्रह्म दोनों कभी आमने-सामने खड़े नहीं होते किसी पूछते ही गए कि कुछ तो बताओ! जगत है तो ही। शंकर कहते हैं | । मनुष्य के अनुभव में, लेकिन इस तरह के मनुष्य आमने-सामने कि जगत माया है। माया मतलब, नहीं है। पर हम पूछते हैं, हम कैसे | | खड़े हो जाते हैं, एक का अनुभव ब्रह्म का और एक का अनुभव मान लें कि माया है। पैर में कांटा गड़ता है, तो खून निकलता है! । | माया का। वे आमने-सामने बातचीत करते हैं। तब इन दो शब्दों __ योरोप में एक विचारक हुआ, इंग्लैंड में, बर्कले। वह भी कहता | | का उपयोग करना पड़ता है। वह जो ब्रह्म को जानता है, उसे मानना था शंकर की तरह कि सब जगत इलूजन है, एपियरेंस है, दिखावा तो पड़ता है कि जगत है, क्योंकि सामने वाला कह रहा है कि है। है, कुछ है नहीं। वह डाक्टर जानसन के साथ एक दिन सुबह घूमने इस चर्चा को आगे नहीं बढ़ाया जा सकता, अगर वह कह दे कि निकला। और उसने डाक्टर जानसन से भी कहा कि सब जगत | नहीं ही है। तब भी सामने वाला कहेगा कि जिसको तुम इतने जोर माया है। .
से कहते हो, नहीं है, वह कुछ तो होना चाहिए, नहीं तो इतने जोर ___जानसन बहुत यथार्थवादी। उसने एक पत्थर उठाकर बर्कले के | | की जरूरत क्या है? जब तुम कहते हो, नहीं है, तो तुम किस चीज पैर पर पटक दिया। लहूलुहान हो गया पैर। बर्कले पैर पकड़कर को कह रहे हो कि नहीं है। किसी चीज को तो नहीं कह रहे हो! बैठ गए। जानसन खड़ा है बगल में। वह कहता है कि जब सब मान लो, नहीं है जगत; लेकिन जिससे कह रहे हो, वह तो है! यह माया है, तो पैर किसलिए पकड़कर बैठे हो! पत्थर है ही नहीं। | कठिनाई है।
शंकर से लोग पूछते हैं कि जगत माया है, कैसे मानें? तुम भी संसार और सत्य, माया और ब्रह्म, आमने-सामने एनकाउंटर तो भिक्षा मांगते हो। भूख लगती है। खाना भी खाते हो। सोते भी | | उनका कभी होता नहीं। उनका कभी कोई मिलन नहीं होता। उनके हो। कैसे मानें? शंकर का वश चले, तो शंकर कहें, जगत है ही | | बीच कोई संबंध नहीं है। माया का मतलब ही है कि जो नहीं है और नहीं। लेकिन लोग, जिनसे उन्हें बात करनी है, वे कहते हैं, जगत | | दिखाई पड़ता है। है। परमात्मा नहीं है तुम्हारा। कहीं दिखाई नहीं पड़ता! जगत तो सांप दिखाई पड़ रहा है और नहीं है; रस्सी है। अब बड़ी दिखाई पड़ता है। उलटी बातें कहते हो। जो है, उसको कहते हो, कठिनाई है कि वह कहां से आ रहा है! क्यों दिखाई पड़ रहा है! नहीं है। और जो नहीं है, उसको कहते हो, है। तो शंकर क्या कहें? | | कृष्ण कहेंगे, वह तुम्हारा प्रोजेक्शन है, तुम्हारी माया है। तुमने ही
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गीता दर्शन भाग-20
किसी भय के क्षण में, डर के क्षण में रस्सी को सांप समझ लिया हो गया। उसने कहा, चकित करते हो तुम। तुम अभी तक थके है। वहां कहीं है नहीं।
| नहीं? उस बीमा एजेंट ने कहा कि कौन कब थकता है? रस्सी और सांप के बीच क्या संबंध है? कोई संबंध नहीं है। कोई थकता नहीं। कितनी ही आशाएं निराशाएं हों, फिर भी क्योंकि जो उठा लेगा जाकर रस्सी, देखेगा, रस्सी है, उसके लिए लगता है कि शायद एक मौका और। एक बार और। जाल को हम सांप खो गया। संबंध कैसे बनाएगा? जिसको रस्सी नहीं दिखाई | | फैलाए चले जाते हैं। मौत भी सामने आ जाए, तो भी हम मौत के पड़ती, सांप दिखाई पड़ता है, उसके पास रस्सी नहीं है। संबंध कैसे | पार प्रोजेक्शन को फैलाए चले जाते हैं। मरता हुआ आदमी सोचता बनाएगा?
है, गाय को दान कर दें, स्वर्ग में इंतजाम हो जाएगा। प्रोजेक्शन ब्रह्म और माया के बीच कोई भी संबंध नहीं है। माया है ही नहीं | | फैला रहे हैं अभी भी। मौत दरवाजे पर खड़ी है, लेकिन उनकी सिवाय प्रोजेक्शन के, प्रक्षेपण के। मन की कल्पनाओं की क्षमता | फिल्म का प्रोजेक्टर अभी भी काम कर रहा है। वह बंद नहीं हो रहा है कि हम फैलाव कर लेते हैं। फैलाव बड़ा कर ले सकते हैं। इतना | है। वे अभी फैलाए चले जा रहे हैं! वे सोच रहे हैं कि चार आने फैल सकता है, जिसका कोई हिसाब नहीं है। उसमें हम जीते हैं। | | किसी ब्राह्मण को दे दें, तो भगवान को बता सकेंगे कि चार आने एक छोटी-सी कहानी और आज की बात मैं पूरी करूं। | एक ब्राह्मण को दिए थे, जरा अच्छी-सी जगह! और अगर आपके
हमारा सपना कितनी ही बार टूटे, हम फिर सम्हाल लेते हैं। रोज | मकान में ही हो सके, तो बहत अच्छा है। यहीं ठहरा लें। टूटता है। सुबह टूटता है, दोपहर टूटता है, सांझ टूटता है, हम फिर । लंदन में, लंदन यूनिवर्सिटी का मेडिकल हास्पिटल है। हर तीन थेगड़े लगा लेते हैं। हम बड़े कुशल कारीगर हैं अपने सपने में थेगड़े महीने में वहां एक अजीब घटना घटती है। उस हास्पिटल की हर लगाने में। एक इच्छा हार जाती है, कुछ नहीं पाते। तत्काल दूसरी तीन महीने में ट्रस्टीज की बैठक होती है। इच्छा निर्मित कर लेते हैं। कारण खोज लेते हैं, इसलिए हार हो गई! | अगर कभी आप उस बैठक को देखें, तो बहुत हैरान होंगे। थोड़ी अगली बार ऐसा नहीं होगा। एक आशा खंडित हो जाती है, दूसरी देर में चकित हो जाएंगे। आप देखेंगे कि प्रेसिडेंट की जगह जो आशा तत्काल निर्मित कर लेते हैं। जिंदगी रोज, यथार्थ रोज हमारे आदमी प्रेसिडेंट की चेयर पर बैठा हुआ है, कुर्सी पर बैठा हुआ है प्रोजेक्शन को तोडता है. लेकिन हम बनाए चले जाते हैं. निर्मित अध्यक्ष की.न तो हिलता. न तो डलता. न उसकी पतली हिलती।' किए चले जाते हैं!
| बहुत हैरान होंगे। थोड़ी देर में आपको शक होगा कि वह आदमी मैंने सुना है, सांझ एक धनपति अपने दरवाजे को बंद करने के जिंदा है या मरा हुआ! जब आप पास जाएंगे, तो पाएंगे, वह तो ही करीब है कि उसके चपरासी ने फिर भीतर आकर कहा कि मुर्दा है। लाश रखी है सौ साल से! सुनिए, चौबीस, दो दर्जन बीमा एजेंटों को हम आज दिनभर में | जरेमी बैंथम नाम के आदमी ने वह हास्पिटल बनाया था। फिर बाहर निकाल चुके हैं। पच्चीसवां हाजिर है। कहता है, भीतर आने वह अपनी वसीयत में लिख गया कि यह मैं मरने के बाद भी बर्दाश्त दें। चौबीस लोगों को भगाया जा चुका है। उस धनपति को भी दया नहीं कर सकता कि मैं अस्पताल बनाऊं और अध्यक्षता कोई और
आ गई। उसने कहा, अच्छा, उस पच्चीसवें को आ जाने दो। अब | करे। इसलिए मेरी लाश को यहां रखना। और मैं ही अध्यक्षता दरवाजा बंद ही होने के करीब है।
करूंगा, जब भी ट्रस्टीज की बैठक होगी। प्रेसिडेंट मैं ही रहूंगा। __वह अंदर आया। धनपति ने उसे देखा और कहा कि तुम | तो अभी भी उसकी लाश रखी हुई है। सामने प्रेसिडेंट की तख्ती सौभाग्यशाली हो। क्योंकि चौबीस, दो दर्जन बीमा एजेंट आज मैं | उसके रखी रहती है। हर बार जब ट्रस्टीज की बैठक पूरी होती है दरवाजे के बाहर से ही भगा चुका हूं। तुम्हें पता है! तुम | | और किसी मसले पर वोटिंग होती है, तो उनको लिखना पड़ता है, सौभाग्यशाली हो। तुम्हें भीतर आने दिया। उस आदमी ने कहा कि | दि प्रेसिडेंट इज़ प्रेजेंट, बट नाट वोटिंग। मौजूद हैं सभापति, लेकिन आई नो वेरी वेल सर, बिकाज आई एम देम! मुझे अच्छी तरह पता | वोट नहीं कर रहे हैं! यह सौ साल से चल रहा है। है, क्योंकि वे चौबीस आदमी मैं ही हूं।
आदमी का पागलपन! ऐसा हमारा सारा मन है। इसको हम वह आदमी चौबीस दफे आ चुका है दिनभर में। वह एक ही फैलाए चले जाते हैं। इस मन से जागे बिना कोई प्रभु की यात्रा पर आदमी है। मुझे भलीभांति पता है, वह मैं ही हूं। मालिक तो हैरान | नहीं निकला है।
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माया अर्थात सम्मोहन
आज इतना। लेकिन पांच मिनट बैठे रहेंगे। मुर्दा आदमी बैठे हैं, तो जिंदा आदमी को तो बैठे रहना चाहिए। इट मैटर्स नाट इफ यू डोंट वोट, मगर बैठे! कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन जो वोट कर सकते हों, वे ताली बजाएं और भजन में साथ दें।
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अध्याय 5 आठवां प्रवचन
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तीन सूत्र - आत्म-ज्ञान के लिए
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गीता दर्शन भाग-2
ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः ।
अस्तित्व तो प्रकाश का है। या प्रकाश का अस्तित्व नहीं है। जहां तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम् ।। १६ ।। | प्रकाश नहीं है, वहां अंधेरा मालूम पड़ता है। अंधेरा कोई वस्तु नहीं परंतु जिनका वह अंतःकरण का अज्ञान, आत्मज्ञान द्वारा है। अंधेरे में कोई थिंगहड, कोई वस्तुगत पदार्थ अंधेरे में नहीं है। नाश हो गया है, उनका वह ज्ञान सूर्य के सदृश उस | फिर भी अंधेरा है तो। सच्चिदानंदघन परमात्मा को प्रकाशता है। ठीक ऐसे ही आत्म-ज्ञान है। और आत्म-अज्ञान का कोई
अस्तित्व नहीं है। लेकिन फिर भी आत्म-अज्ञान से हम भरे हुए हैं।
और आत्म-अज्ञान में चिंतित हैं, पीड़ित हैं, परेशान हैं, दुखी हैं, गत एक रहस्य है। रहस्य इसलिए कि इस जगत में | | नर्क भोग रहे हैं। जब कि आत्म-अज्ञान का वैसा ही कोई अस्तित्व UI अंधकार, जो कि नहीं है. प्रकाश को ढंक लेता है. जो | नहीं है, जैसे अंधेरे का कोई अस्तित्व नहीं है।
कि है। इस जगत में मृत्यु, जो कि नहीं है, जीवन को | आत्मा स्वयं ज्ञान है, इसलिए आत्म-अज्ञान का कोई अस्तित्व धोखा दे देती है, कि है।
| हो नहीं सकता। आत्मा ही ज्ञान है। ज्ञान आत्मा का आंतरिक जीवन है, और मृत्यु नहीं है। प्रकाश है, और अंधकार नहीं है। | स्वभाव है। इसलिए आत्मा बिना ज्ञान के कभी हो नहीं सकती। फिर भी, अंधकार प्रकाश को ढंके हुए मालूम पड़ता है। फिर भी | और अगर आत्मा बिना ज्ञान के होगी, तो पदार्थ में और आत्मा में रोज-रोज जीवन मरता हुआ दिखाई पड़ता है। इसलिए कहता हूं, | फर्क क्या होगा? आत्मा का अर्थ ही यह है कि जो ज्ञान है। आत्मा जीवन एक रहस्य, एक मिस्ट्री है। और उस रहस्य का मूल इसी | कभी भी ज्ञान के बिना नहीं हो सकती। ज्ञान और आत्मा पर्यायवाची पहेली में है।
हैं, सिनानिम। एक ही मतलब है दोनों बात का। रोज देखते हैं अंधेरे को आप। कभी सोचा भी नहीं होगा कि | फिर आत्म-अज्ञान का क्या मतलब होगा? ये शब्द तो विरोधी अंधेरे का कोई अस्तित्व नहीं है। अंधेरा एक्झिस्टेंशियल नहीं है। | हैं! आत्म-अज्ञान हो ही नहीं सकता। जहां आत्मा है, वहां अज्ञान फिर भी होता है। रास्ता भटक जाते हैं अंधेरे में। गड्ढे में गिर सकते | कैसे होगा? क्योंकि आत्मा ज्ञान है। लेकिन फिर भी आत्म-अज्ञान हैं अंधेरे में। चोर लूट ले सकते हैं अंधेरे में। छुरा भोंका जा सकता है। क्या, हुआ क्या है? जो ज्ञान है आत्मा, वह किस चीज से ढंक है अंधेरे में। अंधेरे में सब कुछ हो सकता है और अंधेरा नहीं है! गई है? टकरा सकते हैं, सिर फूट सकता है और अंधेरा नहीं है। पर | कृष्ण कहते हैं, संसार माया से ढंका; आत्मा आत्म-अज्ञान से अंधेरे में यह सब हो सकता है।
ढंकी; ज्ञान अविद्या से ढंका। जब मैं कहता हूं, अंधेरा नहीं है, तो थोड़ा ठीक से समझ लें। क्या इसका अर्थ है? क्या समझें इससे?
प्रकाश तो है, इसलिए प्रकाश को बुझा सकते हैं, जला सकते हैं। । इससे सिर्फ एक बात समझ लेने जैसी है। आत्मा तो ज्ञान है, लेकिन अंधेरे को बुझा भी नहीं सकते, जला भी नहीं सकते। चाहें| | लेकिन ज्ञान यदि चाहे तो सो सकता है; ज्ञान यदि चाहे तो जाग कि दुश्मन के घर पर अंधेरा फेंक दें, तो फेंक भी नहीं सकते। कभी | | सकता है। सोया हुआ ज्ञान भी ज्ञान है; जागा हुआ ज्ञान भी ज्ञान आपने सोचा है कि अंधेरे के साथ कुछ भी करना संभव नहीं है! | | है। लेकिन सोए हुए ज्ञान के चारों तरफ अज्ञान इकट्ठा हो जाता है।
और जब रात आप चाहते हैं कि कमरे में अंधेरा भर जाए, तो | | सोया हुआ ज्ञान ऐसे है, जैसे कि आपके खीसे में लाइटर पड़ा हुआ आप अंधेरे को नहीं बुलाते, केवल प्रकाश को बुझाते हैं। प्रकाश | है अनजला; जलने की पूरी क्षमता लिए हुए है। माचिस की काड़ी बुझा नहीं कि अंधेरा है। और जब सुबह आप अंधेरे को अलग रखी है अनजली, प्रज्वलित होने को किसी भी क्षण तत्पर। आग करना चाहते हैं, या रात अंधेरे को अलग करना चाहते हैं, तो अंधेरे | | छिपी है, सोई है। चारों तरफ अंधेरा है, माचिस रखी है। चारों तरफ को धक्का नहीं देते, प्रकाश को जलाते हैं। और प्रकाश जला कि अंधेरा है। माचिस से कोई रोशनी निकलती नहीं है। लेकिन माचिस अंधेरा नहीं है।
से रोशनी निकल सकती है। और जब निकलती है, तब अंधेरा ट अंधेरा सिर्फ प्रकाश की अनुपस्थिति है, गैर-मौजूदगी है, जाता है। और जब निकलती है, तो इसका यह मतलब नहीं कि एब्सेंस है। अंधेरे का अपना कोई विधायक अस्तित्व नहीं है। आसमान से आ गई। माचिस में थी, तो ही निकली, अन्यथा
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तीन सूत्र - आत्म-ज्ञान के लिए
फर्क क्या है ?
निकल न सकती। फिर क्या, ' आत्म-अज्ञान और आत्म-ज्ञान में फर्क ? आत्म-अज्ञान और आत्म-ज्ञान सिर्फ नींद के और जागने का फर्क है। इसलिए हम बुद्ध को कहते हैं, बुद्ध । नाम उनका नहीं है। नाम तो उनका था, सिद्धार्थ गौतम बुद्ध का मतलब होता है, दि अवेकंड, जो जाग गया। गौतम सिद्धार्थ को हम कहते हैं, बुद्ध । इसलिए कहते हैं कि जो जाग गया। महावीर को हम कहते हैं, जिन। जिन का अर्थ है, जिसने अपने को जीत लिया।
जागना जीतना बन जाता है और सोना हार बन जाती है। जागने में विजय है और निद्रा में पराजय है। बड़ी से बड़ी शक्ति भी सोई हो, तो छोटी से छोटी शक्ति से पराजित हो जाती है। एक पहलवान सोया हो, एक छोटा बच्चा उसकी छाती में छुरा भोंक सकता है। एक हाथी सोया हो, एक छोटी-सी चींटी उसकी नाक में चली जाए, तो मौत हो सकती है।
आत्मा बड़ी विराट शक्ति है, बड़ी प्रज्वलित अग्नि है। लेकिन सोई हो, तो क्रोध जैसी ना-कुछ चीज हावी हो जाती है। काम जैसी ना-कुछ शक्ति हावी हो जाती है। अंधेरा जो बिलकुल नहीं है, घेर लेता है उसको, जो बहुत है, गहरे में है, सदा है, कभी खोती नहीं | है। विराट से विराट शक्ति सोई हो, तो क्षुद्र से क्षुद्र शक्ति से हार जाती है।
हमारी हार हमारी नींद है। हमारा आत्म-अज्ञान हमारी तंद्रा है, - स्लीपीनेस । हम सब नींद में चलते हुए लोग हैं। इसलिए आत्मा, जो कि कभी अज्ञानी नहीं है, वह भी अज्ञान से ढंकी हुई है। दीया हैबुझा हुआ, सोया हुआ । तेल भी है, बाती भी है, माचिस भी है, आग भी जल सकती है। पर सब अंधकार है।
आदमी में वह सब मौजूद है, जो रोशनी बन जाए। सब मौजूद है । कोई भी कमी नहीं । परमात्मा प्रत्येक व्यक्ति को पूर्ण ही भेजता है। और हम सब अपूर्ण जीते हैं और अपूर्ण ही मरते हैं। बल्कि और हैरानी क़ी बात है, जितने पूर्ण पैदा होते हैं, उससे भी ज्यादा अपूर्ण होकर मरते हैं। बच्चा जो संपदा लेकर आता है, बूढ़ा उसे भी गंवाकर विदा हो जाता है। क्या होता है?
हमारी नींद और गहरी होती चली जाती है। जीवन में हमारी तंद्रा और बढ़ती चली जाती है। बचपन में हम जितने होश में होते हैं, जवानी में उतने होश में नहीं होते। जवानी में बड़ी तंद्रा पकड़ लेती है । वह तंद्रा है काम की, सेक्स की। मूर्च्छा है, वासना है, वह पकड़ लेती है।
बुढ़ापे में हम और भी डूब जाते हैं। बुढ़ापे में कौन सी तंद्रा पकड़ती है? जवानी में कामवासना गहरा अंधकार बनकर व्यक्ति को पकड़ लेती है । फिर वह जो भी करता है, उसी वासना के लिए करता है। धन कमाए, पद कमाए, यश कमाए, वह सब समर्पित है काम के लिए, सेक्स के लिए, वासना के लिए।
जवानी में आदमी काम की तंद्रा में डूबा और सोया रहता है। बुढ़ापे में काम तो विदा हो जाता है, क्योंकि इंद्रियां शिथिल होने | लगती हैं। शरीर मरने के करीब आने लगता है। इसलिए बुढ़ापे में जीवन का मोह पकड़ता है; लस्ट फार लाइफ पकड़ती है । जीवेषणा पकड़ती है कि मैं मर न जाऊं; मैं बचा रहूं; मैं किसी भी तरह बचा रहूं।
इसलिए बूढ़ा आदमी, जिस तरह जवान आदमी दूसरे को जन्म | देने के लिए लालायित होता है, बूढ़ा आदमी अपने को बचाने के लिए लालायित रहता है। दूसरे को जन्म देने की वासना काम बन जाती है; और अपने को बचाने की वासना लोभ बन जाती है । जवानी की बीमारी, काम; बुढ़ापे की बीमारी, लोभ । और अगर बूढ़ा आदमी किसी जवान को समझाता भी है कि काम से बचो, तो जो कारण बताता है, वे लोभ के होते हैं - कि बर्बाद हो जाएगा; धन खो जाएगा; स्वास्थ्य खो जाएगा। जो भी कारण बूढ़े आदमी देते हैं जवानों को, वह लोभ उनके पीछे बुनियाद होती है। काम है पीड़ा, जवानी का अंधकार; और लोभ है, बुढ़ापे की पीड़ा । बूढ़ा आदमी लोभी से लोभी होता चला जाता है।
मैंने सुना है कि किसी एक महानगरी के एक बड़े राजपथ पर एक भिखारी भीख मांगता रहता था। सुबह जब वह आता, तब वह कुछ अपने बगल में छिपाए रहता। दोपहर तक नहीं निकालता था। एक तख्त छिपाए रखता था अपने कपड़ों में। दोपहर तक मांगता रहता लोगों से चिल्ला-चिल्लाकर; फिर दोपहर तक थक जाता। तो वह तख्ती निकालकर अपने सामने रखकर पीछे चुप बैठ जाता। तख्ती पर लिखा होता था, आई एम डेफ एंड डंब, मैं गूंगा और | बहरा हूं । थक जाता दोपहर तक। फिर चिल्लाने की ताकत न रहती, तो गूंगा और बहरा हो जाता। शराब पीने की उसे आदत थी।
सभी भिखारियों को होती है। सिर्फ सम्राट बच सकते हैं। और अगर सम्राट भी पीते हों, तो जानना कि भिखारी हैं । और अगर भिखारी भी न पीते हों, तो जानना कि सम्राट हैं। असल में जो आदमी दुखी है, वह अपने को बेहोश करने से नहीं बच सकता। और दुखी कौन होता है इस जगत में ? दुखी वही होता है, जिसकी
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गीता दर्शन भाग-28
आकांक्षाएं बहुत हैं। आकांक्षाएं तृप्त नहीं होती; दुख आता है। | जवानी, बुढ़ापा; फिर डूबा सूरज; फिर गिर गए बेहोश होकर मिट्टी
भिखारी की बड़ी आकांक्षाएं हैं। दोपहर तक बहुत मांगता। रोज | | | में। फिर उठेंगे; फिर गिरेंगे। और इस नींद से जागने का हमें कोई इरादे करके आता था कि आज करोड़ मांग लूंगा, कि अरब रुपए | खयाल नहीं आता। मांग लूंगा। कि आज तो कोई सम्राट निकलेगा, और सोने-चांदी __ कृष्ण कहते हैं, जो जाग जाता है, उसकी आत्मा का ज्ञान की बरसा हो जाएगी। लेकिन कुछ न होता, वही तांबे के ठीकरे | अभिव्यक्त हो उठता है; आत्म-अज्ञान गिर जाता है। और ऐसा दो-चार गिरते। परेशान हो जाता दोपहर तक; शराब पीना शुरू कर | व्यक्ति ही केवल इस अस्तित्व में परमात्मा को देख पा सकता है। देता। सांझ होते-होते, सूरज ढलते-ढलते तक, वह इतना बेहोश | ऐसे ही व्यक्ति को केवल परमात्मा का अनुभव हो सकता है। होने लगता कि आखिरी होश में, आखिरी वक्त वह अपनी तख्ती | सोए हए आदमी को अपना ही अनभव नहीं होता. परमात्मा का उलटी करके रख देता।
| अनुभव तो बहुत दूर की बात है। नींद में दबे हुए आदमी को अपना रिवर्सिबल साइनबोर्ड था वह! उस पर दोनों तरफ लिखा हुआ | | ही पता नहीं, परमात्मा का पता तो बहुत कठिन है। लेकिन बहुत था। दूसरी तरफ लिखा हुआ था, आई एम पैरालाइज्ड, मुझे लकवा लोग हैं, जिन्हें अपना पता नहीं और जो परमात्मा को खोजने निकल लग गया है। बेहोश होकर गिर जाता। सुबह मांगता रहता; दोपहर | | जाते हैं। उनकी खोज कभी पूरी नहीं होगी। गूंगा-बहरा हो जाता; सांझ नशे में डूब जाता। आखिरी काम वह आत्म-ज्ञान परमात्म-ज्ञान का द्वार है। और जिसे स्वयं का पता इतना कर देता नशे में गिरने के पहले, तख्ती उलटकर रख देता। | | चल गया, दूर नहीं है परमात्मा अब; अब बिलकुल निकट है। अब __ करीब-करीब जिंदगी ऐसी ही बीतती है। बचपन बड़ी आशाओं| | दर्पण तो मिल ही गया; अब परमात्मा की झलक को पकड़ लेना से भरा हुआ है। बड़ी आशाओं से भरा हुआ है, सब मिल जाएगा। | कठिन नहीं है; पकड़ ही जाएगी। परमात्मा तो सब तरफ मौजूद है। बड़े कल्पना के फूल और सपनों के गीत। और फिर जवानी आती | | एक दफा हृदय का दर्पण साफ, स्वच्छ...। है। और तब एक-एक चीज डिसइलूजन होने लगती है, एक-एक ___ अंतःकरण शुद्ध हो जिसका, कृष्ण कहते हैं। शुद्ध और चीज का भ्रम टूटने लगता है। बुढ़ापा आने के पहले-पहले आदमी | | साफ-परमात्मा की झलक पकड़नी शुरू हो जाती है। और फिर की सारी इंद्रियां गूंगी और बहरी हो जाती हैं। फिर बेहोशी और तंद्रा | | ऐसा नहीं है कि उसे देखने कहीं बद्री-केदार या काबा या मक्का या पकड़नी शुरू कर देती है। मरने के पहले अधिकतम लोग | जेरूसलम जाना पड़ता है। जहां हैं आप, वहीं उसकी तस्वीर है। जो पैरालाइज्ड हो जाते हैं, पैरालाइज्ड सब अर्थों में। बहुत गहरे अर्थों | भी आप देखते हैं, उसमें वही है। न देखें, आंख बंद कर लें, तो भी में लकवा लग जाता है।
वही है। सो जाएं, तो बाहर से शरीर ही सोता है फिर। भीतर तो वह मरने के बहत पहले बहत लोग मर जाते हैं। मरने तक जिंदा रहने जागकर जानता ही रहता है. देखता ही रहता है। हम जागकर भी वाले बहुत कम लोग हैं जमीन पर। मरने तक जिंदा रहने वाले बहुत | सोते हैं, आत्म-ज्ञानी सोया हुआ भी जागता ही रहता है। कम लोग हैं, मरने के बहुत पहले मर जाते हैं। कुछ लोग तीस साल इसलिए कृष्ण कहते हैं, आत्म-अज्ञान की जो तंद्रा है, जिसने की उम्र में मर जाते हैं, कुछ लोग चालीस साल की उम्र में। यह बात | घेर लिया है, उसे हटा देना पड़े, तोड़ देना पड़े। दूसरी है कि दफनाया जाता है कोई सत्तर साल में, कोई अस्सी साल कैसे तोड़ें उसे? अगर अंधेरे को हटाना हो, तो क्या करें? अंधेरे में। दफनाने में और मरने में अक्सर फासला होता है। और जो को काटें तलवार लाकर? नहीं कटेगा। होता तो कट जाता। 3 आदमी मरने तक जिंदा है-उतना ही ताजा, जैसा बचपन में ताजा | नहीं कटेगा तलवार से। दीए को जलाएं; दीए की ज्योति को बड़ा था, उतना ही प्रफुल्लित—उसे मौत भी न मार पाएगी। मौत आकर | | करें। अगर आत्म-अज्ञान मिटाना है, तो आत्म-अज्ञान की फिक्र गुजर जाएगी और वह मौत के पार भी जिंदा खड़ा रह जाएगा। | ही न करें। आत्म-ज्ञान को जगाएं और बढ़ाएं। किन चीजों से
लेकिन नींद रोज बढ़ती है। ठीक सुबह जब हम उठते हैं, तो ताजे आत्म-ज्ञान बढ़ता है? होते हैं; दोपहर थक गए होते हैं, तंद्रा उतरनी शुरू हो जाती है; सांझ एक, दो-तीन सूत्र आपसे कहना चाहूंगा। एक-संकल्प, थक जाते हैं, गिर जाते हैं, सो जाते हैं। हर बार, हर जिंदगी में यही विल। जिस व्यक्ति को भी आत्म-ज्ञान की ज्योति को जगाना है, सुबह, यही दोपहर, यही सांझ। अंतहीन यही चलता है। बचपन, उसे संकल्प के सूत्र को पकड़ लेना चाहिए। संकल्प तेल है, उसके
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तीन सूत्र-आत्म-ज्ञान के लिए
बिना दीया नहीं जलेगा भीतर का। संकल्प के बिना आत्म-ज्ञान | | समझ गया कि समझ ठीक थी! आ गए वे लोग। अंदर भी आ रहे
का दीया नहीं जलेगा। और संकल्प हममें बिलकल भी नहीं है। हैं! वह आंख बंद करके पड़ रहा। है ही नहीं।
| जब उन लोगों ने देखा कि यह आदमी जाग रहा है. जिंदा है और एक मित्र परसों आए और उन्होंने कहा, संन्यास तो मैं लेना | | कब्र में लेटा है और हमें देखकर आंख भी बंद कर ली, तो बेचारे चाहता हूं, लेकिन ये गेरुए वस्त्र मैं सिर्फ घर में ही पहनूंगा, बाहर | | दीवाल से उतरकर अंदर आए। जब वे अंदर आए, तो उसने कहा, नहीं। बाहर क्यों नहीं पहनिएगा! उन्होंने कहा, लोग क्या कहेंगे! | हो गया फैसला! उसने श्वास भी रोक ली।
लोग क्या कहेंगे! पब्लिक ओपीनियन हमारी आत्मा बन गई है। | उन्होंने उसे आकर हिलाया और कहा कि यह क्या कर रहे हैं लोग क्या कहेंगे! घर में छिपकर कोई संन्यासी हो सकता है ? कि | आप? जिंदा होकर कब्र में क्यों पड़े हैं? क्या है कारण आपके घर में दरवाजा बंद करके हम गेरुए कपड़े पहन लें। काफी बहादुरी | भागने का? आप भागे क्यों? डरे क्यों? इतने घबड़ा क्यों रहे हैं? है! तो फिर ऐसा क्यों नहीं करते कि मरते वक्त पहन लेना और कब्र कंप क्यों रहे हैं? नसरुद्दीन ने कहा, अब यह मत पूछो। मैं तुमसे में चले जाना! तो दुबारा लौटकर कोई कुछ कह नहीं सकेगा। | पछना चाहता हं कि तुम मेरे पीछे क्यों पडे हो? तम यहां क्यों
इतनी संकल्पहीनता! इतनी कमजोरी! इतना मन हीन, इतना दीन | | आए? उन्होंने कहा, यही तो हम तुमसे पूछना चाहते हैं कि तुम यहां कि कोई क्या कहेगा! इतनी परतंत्रता कि लोग क्या कहेंगे इस पर! | क्यों कब्र में छिपे हो? नसरुद्दीन ने कहा, खतम करो बात को। आई तो फिर आत्मा को जगाना बहुत कठिन हो जाएगा। बहुत कठिन हो | | एम हियर बिकाज आफ यू, एंड यू आर हियर बिकाज आफ मी। जाएगा। यह तो बड़ी छोटी-सी बात है। कपड़े तो आपकी मौज है। | छोड़ो। जाने दो। मैं तुम्हारी वजह से यहां हूं, तुम मेरी वजह से यहां अपनी। इतनी भी स्वतंत्रता नहीं मनुष्य को कि कपड़े खुद पहन ले | | हो। और बेवजह है सारा मामला! जो उसे पहनने हैं? इसके लिए भी दूसरे से पूछने जाना पड़ेगा? तो | | हम दूसरों से डर रहे हैं, दूसरे हमसे डर रहे हैं! सब एक-दूसरे फिर आप हैं या नहीं? और बड़े मजे की बात यह है कि जिनसे आप | से डरे हैं। डर रहे हैं, वे आपसे डर रहे हैं। जिनसे आप डर रहे हैं, वे आपसे। | नहीं; ऐसे आत्मा पैदा न होगी। संकल्प का पहला लक्षण यह है डर रहे हैं!
कि मुझे जो ठीक लगता है, वह मैं करूंगा। जो मुझे गलत लगता मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन सांझ एक कब्र के पास | है, वह मैं नहीं करूंगा। चाहे सारी दुनिया कहती हो, करो, तो नहीं कब्रगाह की दीवाल पर बैठा हुआ था। उसने किताब पढ़ी थी, डान | करूंगा। और जो मुझे ठीक लगता है, वह मैं करूंगा; चाहे सारी क्विक्जोट के संबंध की किताब पढ़ी थी। किताब में उसने पढ़ा था | दुनिया कहती हो कि मत करो, तो भी मैं करूंगा। कि कई बार अकेले में दुश्मन हमला कर देता है। और-और बातें | इस जगत में केवल उन्हीं लोगों की आत्माएं विकसित होती हैं, पढ़ी थीं। सांझ ढल रही थी, सूरज उतर रहा था नीचे। देखा उसने जो भीड़ के व्यर्थ भय से मुक्त हो जाते हैं। कि गांव के बाहर कुछ लोग बैंड-बाजा बजाते हुए, तलवारें लिए __ संकल्प पहला सूत्र है आत्म-ज्ञान को बढ़ाने के लिए, विल चले आ रहे हैं। उसने समझा कि हुआ खतरा; दिखता है, दुश्मन पावर। आ रहे हैं! अभी किताब से भरा हुआ था। सोच लिया कि दुश्मन दूसरा सूत्र है, साहस। हम रोज टालते रहते हैं। रोज टालते रहते आ रहे हैं। भागकर कब्रगाह के अंदर चला गया। देखा, कहां | हैं, कल करेंगे, परसों करेंगे। सोचते हैं, अभी ठीक समय नहीं छिपूं? एक नई कब्र किसी ने खोदी थी। मुर्दे को लेने गए होंगे। | आया। असली बात दूसरी होती है। साहस नहीं जुटा पाते हैं, तो सोचा उसने कि इसी में लेट जाऊं, जब तक ये लोग निकल जाएंगे। अपने को धोखा देते हैं। यह भी समझने की तैयारी नहीं होती कि मैं वह उस गड्ढे में लेट गया।
दुस्साहसी नहीं हूं, साहसी नहीं हूं; कमजोर हूं। यह भी कोई समझ उसे कूदते और भागते उन लोगों ने भी देखा, जो आ रहे थे। वे | ले, तो मैं कहता हूं, बड़ा साहस है। जो आदमी यह समझ ले कि कोई दुश्मन न थे, न कोई शत्रु थे। वह एक बरात थी, दूसरे गांव मैं साहसी नहीं हूं, उसने भी बहुत बड़ा साहस किया। लेकिन हम जा रही थी। वे भी हैरान हुए कि यह आदमी इतनी तेजी से भागा! अपने को साहसी भी समझे जाते हैं और कल पर छोड़े जाते हैं; क्या हुआ! वे लोग दीवाल पर चढ़कर झांके। नसरुद्दीन पक्का कल करेंगे, परसों करेंगे। इस आशा में कि नहीं, कर तो हम सकते
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ॐ गीता दर्शन भाग-26
ही हैं; कल कर लेंगे, परसों कर लेंगे। पोस्टपोनमेंट करते जाते हैं। नींद आ जाती है। आ ही जाएगी। ताकत भी तो बचनी चाहिए
साहस का मतलब है, जो ठीक लगे, उसे अभी और आज और थोड़ी-बहुत। लास्ट आइटम समझा हुआ है ध्यान को! जब सब यहीं करना शुरू कर देना, क्योंकि कल का कोई भी भरोसा नहीं है। कर चुके, सब तरह की बेवकूफियां निपटा चुके-लड़ चुके, कल आएगा भी, इसका भी कुछ पक्का नहीं है। और साहस का झगड़ चुके, क्रोध कर चुके; प्रेम-घृणा, मित्रता-शत्रुता-सब कर मतलब इतना ही नहीं होता है कि अंधेरे में आप चले जाते हैं, तो चुके, कौड़ी-कौड़ी पर सब गंवा चुके। जब कुछ भी नहीं बचता बड़े साहसी हैं। साहस का मतलब यह भी नहीं होता है कि किसी करने को, रद्दी में दो पैसे का खरीदा हुआ अखबार भी दिन में दस से जूझ जाते हैं, लड़ जाते हैं, तो बड़े साहसी हैं। साहस का गहरा | | दफे चढ़ चुके। रेडियो का नाब कई दफा खोल चुके, बंद कर चुके। आध्यात्मिक अर्थ होता है, अज्ञात में छलांग, अननोन में उतर जाने | वही बकवास पत्नी से, बेटे से, जो हजार दफा हो चुकी है, कर का साहस।
चुके। जब कुछ भी नहीं बचता है करने को, तब एक आदमी जो जाना-माना है, उसमें तो हम बड़े मजे से चले जाते हैं। | सोचता है कि चलो, अब ध्यान कर लें। तब वह आंख बंद करके अज्ञात, अननोन में नहीं जा पाते। और ध्यान रहे, परमात्मा अज्ञात | बैठ जाता है! है। और ध्यान रहे, आत्मा बिलकुल अज्ञात है, अननोन है। इतनी इंपोटेंस से, इतने शक्ति-दौर्बल्य से कभी ध्यान नहीं होने अनजान मार्ग है। अनजान राह है। अपरिचित सागर है। नक्शा पास वाला है। भीतर आप नहीं जाएंगे, नींद में चले जाएंगे। शक्ति में नहीं। अकेले जाना है। साथ कोई जा नहीं सकता। | चाहिए भीतर की यात्रा के लिए भी। इसलिए आत्म-ज्ञान की तरफ - ध्यान रहे, साहस का यह भी मतलब है, दि करेज टु बी अलोन, | | जाने वाले व्यक्ति को समझना चाहिए, एक-एक कण शक्ति का अकेले होने की हिम्मत। क्योंकि बाहर तो हम सबके साथ हो सकते मूल्य चुका रहे हैं आप, और बहुत महंगा मूल्य चुका रहे हैं। हैं, भीतर हमें अकेला ही होना पड़ेगा।
जब एक आदमी किसी पर क्रोध से भरकर आग से भर जाता अगर इतना साहस नहीं है अकेले होने का, तो आप कभी भी है, तब उसे पता नहीं कि वह क्या गंवा रहा है! उसे कुछ भी पता आत्म-ज्ञान को उपलब्ध न हो सकेंगे। क्योंकि आत्म-ज्ञान में | नहीं कि वह क्या खो रहा है! इतनी शक्ति पर, जिसमें उसने सिर्फ कंपनी, साथी-संगी नहीं हो सकते। अकेले ही होना पड़ेगा। जो चार गालियां फेंकी, इतनी शक्ति को लेकर तो वह गहरे ध्यान में , आदमी कहता है कि हम तो अकेले न हो सकेंगे, कोई न कोई साथ | | कूद सकता था। चाहिए, वह सारी दुनिया की यात्रा कर सकता है, चांद पर भी जा | | एक आदमी ताश खेलकर क्या गंवा रहा है, उसे पता नहीं। एक सकता है, कल मंगल पर भी चला जाएगा, लेकिन अपने भीतर | आदमी शतरंज के घोड़ों पर, हाथियों पर लगा हुआ है। वह क्या नहीं जा सकेगा। क्योंकि वहां अकेले ही जाया जा सकता है, दूसरे गंवा रहा है, उसे पता नहीं। एक आदमी सिगरेट पीकर धुआं
के साथ का कोई उपाय नहीं है। साहस का यही अर्थ है। निकाल रहा है बाहर-भीतर। वह क्या गंवा रहा है, उसे पता नहीं। __ और तीसरी बात। जो लोग जिंदगी की क्षुद्रतम, अति क्षुद्रतम इतनी शक्ति से तो भीतर की यात्रा हो सकती थी। बातों में ऊर्जा को गंवाते रहते हैं, वे कभी भी आत्म-ज्ञान को | और ध्यान रहे, बूंद-बूंद चुककर सागर चुक जाते हैं। और उपलब्ध न हो सकेंगे। पहला सूत्र, संकल्प; दूसरा सूत्र, साहस; | | आदमी के पास, इस शरीर के कारण, सीमित शक्ति है। जीवन और तीसरा सूत्र, संयम।
बहुत जल्दी रिक्त हो जाता है। जो लोग जीवन की ऊर्जा को व्यर्थ गंवाते रहते हैं, दिन में इतना | __ तीन सूत्र आपसे कहता हूं। इन तीन सूत्रों का यदि खयाल गंवा देते हैं कि उनके पास कुछ बचता नहीं कि उस शक्ति पर सवार रहे-संकल्प, विल; साहस, करेज; संयम, कंजरवेशन-अगर होकर भीतर जा सकें। जिस दीए में छेद हो, और तेल टपक जाता | ये तीन सूत्र खयाल में रह जाएं, ये तीन स अगर खयाल में रह जाएं, हो। जिस नाव में छेद हो, और पानी भर जाता हो। जिस बाल्टी में| तो आपका आत्म-ज्ञान भभककर जल सकता है। और उस क्षण में छेद हो, और कुएं में डालकर पानी खींचना चाहते हों। वैसी फिर आत्म-अज्ञान विलीन हो जाता है। और जो जानता है स्वयं को...। आपकी हालत है। चौबीस घंटे गंवाते हैं। फिर इतना बचता नहीं! ये तीन सूत्र खयाल में हों, तो आत्म-अज्ञान कट जाता है। जो मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, हम ध्यान को बैठते हैं, तो शेष रह जाता है, वह आत्म-ज्ञान की ज्योति है। उस ज्योति की
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तीन सूत्र-आत्म-ज्ञान के लिए *
निर्मलता में, उस ज्योति के दर्पण में ही प्रभु की छवि पकड़ी जाती | होता है। आंखें और चौंधिया गई होती हैं। है, वही कृष्ण इस सूत्र में कहे हैं।
बहुत बार परमात्मा की एक झलक मिल जाती है, लेकिन झलक से तदरूपता नहीं होती है। इसलिए कृष्ण कहते हैं, जो तदरूप हो
गया! ऐसा नहीं कि परमात्मा को जान लिया, बल्कि ऐसा कि जो तबुद्धयस्तदात्मानस्तनिष्ठास्तत्परायणाः। | परमात्मा हो गया। ऐसा नहीं है कि दूर से एक झलक ले ली, बल्कि गच्छन्त्यपुनरावृत्ति ज्ञाननि—तकल्मषाः ।। १७ ।। | ऐसा कि अब कोई फासला न बचा। अब वही हो गए, उसी के साथ और हे अर्जुन, तद्प है बुद्धि जिनकी तथा तद्प है मन | एक हो गए। तब पुनरागमन नहीं है। फिर पुनरावर्तन नहीं होता। जिनका और उस सच्चिदानंदघन परमात्मा में ही निरंतर | | फिर लौटना नहीं होता। एकीभाव से स्थिति है जिनकी, ऐसे तत्परायण पुरुष ज्ञान के साधक को बहुत बार झलक मिल जाती है! और झलक से द्वारा पापरहित हुए अपुनरावृत्ति को अर्थात परमगति को सावधान रहने की जरूरत है, कि जो झलक को तदरूपता समझ प्राप्त होते हैं।
| लेगा, उसकी जिंदगी और गहन अंधकार में पड़ सकती है। । झलक और तदरूपता में क्या फर्क है? झलक में आप मौजद
होते हैं, और परमात्मा का अनुभव होता है। तदरूपता में आप मिट निकी वृत्ति, जिनकी चेतना परमात्मा से तदरूप हो गई, जाते हैं, और परमात्मा का अनुभव होता है। तदरूपता में परमात्मा I एक हो गई, तादात्म्य को पा गई है; जिनकी अपनी | ही होता है, आप नहीं होते। झलक में आप होते हैं, परमात्मा
छोटी-सी ज्योति परमात्मा के परम सूर्य के साथ एक | क्षणभर को दिखाई पड़ता है। यह क्षणभर को दिखाई कभी-कभी हो गई, एकतान हो गई है; जिनका अपना छोटा-सा वीणा का स्वर अनायास भी पड़ जाता है। अनायास! उसके परम नाद के साथ संयुक्त हो गया है-ऐसे पुरुष वापस नहीं ___ एडमंड बर्क ने लिखा है कि गुजर रहा था एक रास्ते से और बस लौटते हैं; उनका पुनरागमन नहीं होता है। ऐसे पुरुष प्वाइंट आफ | | अचानक-न कोई साधना, न कोई उपाय, न कोई प्रयास, बस नो रिटर्न, उस जगह पहुंच जाते हैं, जहां से वापसी नहीं है, जहां से | अचानक–अचानक लगा कि चारों तरफ प्रकाश हो गया है। यह पीछे नहीं गिरना पड़ता है, जहां से वापस अंधकार में और अज्ञान | | भी अचानक नहीं है। बर्क को लगा, अचानक हो गया है। यह भी में नहीं डूब जाना पड़ता है।
पिछले जन्मों की चेष्टाओं का कहीं कोई छिपा हुआ कण है, जो इसमें दो-तीन बातें खयाल में ले लेनी चाहिए।
भभक उठा किसी संगत स्थिति को पाकर। एक तो, परमात्मा की झलक मिल जाती है बहुत बार, लेकिन कभी-कभी हिमालय की ऊंचाई पर गए हुए साधक को तदरूपता नहीं मिलती। परमात्मा की झलक मिल जाती है बहुत | अचानक...। इसलिए हिमालय का इतना आकर्षण पैदा हो गया। बार, लेकिन परमात्मा से एकता नहीं सधती। झलक ऐसी मिल उसका कारण है। हिमालय के शुभ्र, श्वेत शिखर दूर तक फैले हुए जाती है कि जैसे कोई व्यक्ति जमीन से छलांग लगाए, तो एक क्षण | हैं। किसी क्षण में सूर्य की चमकती हुई किरणों में स्वर्ण हो जाते हैं। को जमीन के ग्रेविटेशन के बाहर हो जाता है, एक क्षण को जमीन लोग छूट गए दूर। समाज छूट गया दूर। जमीन का गोरखधंधा, की कशिश के बाहर हो जाता है। लेकिन क्षणभर को! हो भी नहीं | दिन-रात की बातचीत. दिन-रात की दनिया. दैनंदिन व्यवहार छट पाता कि वापस जमीन उसे अपने पास बुला लेती है। फिर लौट | गया दूर। शीतल है सब। ठंडा है सब। क्रोधित हो सकें, इतना भी आता है।
शरीर गर्म नहीं। रक्तचाप नीचे आ गया। चारों तरफ फैले हुए शुभ्र जैसे रात अंधेरे में बिजली कौंध जाए। अमावस की रात हो, | | शिखर, सूर्य की चमकती हुई किरणों में स्वर्ण हो गए हैं। उस क्षण भादों की रात हो, अंधेरा हो–बिजली कौंध जाए। एक क्षण को | | में कभी मन उस दशा में आ जाता है, प्राकृतिक कारण से ही, कि झलक में सब दिखाई पड़ जाता है; और दिखाई भी नहीं पड़ा कि | | एक क्षण को ऐसा लगता है, चारों ओर परमात्मा है। घनघोर अंधकार छा जाता है। और ध्यान रहे, बिजली के बाद जब | लेकिन इस झलक को तादात्म्य नहीं कहा जा सकता। और यह अंधकार छाता है, तो बिजली के पहले वाले अंधकार से ज्यादा घना | | झलक और-और उपायों से भी मिल सकती है। लेकिन झलक सदा
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गीता दर्शन भाग-20
ही एक अनुभव की तरह, एक एक्सपीरिएंस की तरह मालूम होगी। | कहा कृष्ण ने। लगेगा कि मेरे पास एक अनुभव और बढ़ गया। मैं नहीं मिलूंगा।। परम मुक्ति का अर्थ है, मैं की मुक्ति नहीं, मैं से मुक्ति। फिर से मैं बना रहूंगा। मेरी पुरानी स्मृति बनी रहेगी। मेरी कंटिन्यूटी बनी | दोहराता हूं। परम मुक्ति का अर्थ है, मैं की मुक्ति नहीं, मैं से मुक्ति। रहेगी। मेरी पुरानी स्मृति में मैं एक स्मृति और जोड़ दूंगा कि मैंने | हम सबके मन में ऐसा ही होता है कि मुक्त हो जाएंगे, तो मोक्ष परमात्मा की झलक भी पाई।
| में बड़े आनंद से रहेंगे। मुक्त हो जाएंगे, तो कोई दुख न रहेगा; हम ऐसे आदमी का अहंकार और मजबूत हो जाएगा। वह कहता | तो रहेंगे! मुक्त हो जाएंगे, तो कोई पीड़ा न रहेगी, कोई बंधन न फिरेगा कि मैंने परमात्मा को जान लिया। लेकिन परमात्मा पर जोर | | रहेगा; हम तो रहेंगे! लेकिन ध्यान रहे, सबसे बड़ी पीड़ा और कम, मैंने जान लिया, इस पर जोर उसका ज्यादा होगा। और अगर | | सबसे बड़ा बंधन मेरा होना है। मैं पर ज्यादा जोर है, तो अंधेरा और बढ़ गया।
इसलिए जो लोग ऐसा सोचते हैं कि मोक्ष में सुख ही सुख होगा इसलिए कृष्ण ने बहुत स्पष्ट कहा, तदरूप हो जाता है जो! | और हम होंगे और सुख ही सुख होगा, वे गलती में हैं। अगर आप
वही केवल वापस नहीं लौटता। तदरूप का अर्थ है, परमात्मा | | होंगे, तो दुख ही दुख होगा। अगर आपको अपने को बचाना हो, से एक ही हो जाता है। इसलिए जिसने सच में ही परमात्मा के साथ | तो नर्क बहुत ही सुगम, सुविधापूर्ण, सुरक्षित जगह है। अगर स्वयं तदरूपता पाई, वह यह नहीं कहेगा कि मैंने परमात्मा जाना। वह | को बचाना हो, तो नर्क बहुत ही सुव्यवस्थित बचाव है। कहेगा, मैं तो मिट गया। अब परमात्मा ही है। मैं तो हूं ही नहीं। ___ अगर मैं को बचाना है, तो नर्क की यात्रा करनी चाहिए। वहां मैं वह यह नहीं कहेगा, मुझे परमात्मा का अनुभव हुआ। वह कहेगा| | बहुत प्रगाढ़ हो जाता है। उसी की प्रगाढ़ता से इतनी अग्नि जलती कि मैं जब तक था, तब तक तो अनुभव हुआ ही नहीं। जब मैं नहीं | मालूम पड़ती है चारों तरफ इतनी लपटें, इतना दुख, इतनी पीड़ा। था, तब अनुभव हुआ। मुझे नहीं हुआ।
| लेकिन कभी आपने सोचा कि आपके सारे दुख मैं के दख हैं! ध्यान रहे, मैं का और परमात्मा का वास्तविक मिलन कभी भी कभी आपने कोई ऐसा दुख पाया है, जो मैं के बिना पाया हो? सब नहीं होता। मैं और परमात्मा वस्तुतः कभी आमने-सामने नहीं होते। दुख मैं के दुख हैं। मैं के साथ आनंद का कोई उपाय नहीं है। मैं के एक झलक हो सकती है। लेकिन परमात्मा के सामने मैं तदरूप | साथ दुख आएगा ही छाया की तरह। इसलिए अगर कोई अपने मैं . अगर हो जाए, पूर्ण रूप से खड़ा हो जाए, तो तत्काल गिर जाता है। | को बचाकर स्वर्ग भी पहुंच गया, तो भूल हो रही है उससे; वह और विलीन हो जाता है।
स्वर्ग आया नहीं होगा, नर्क ही आएगा। कबीर ने कहा है कि जब तक खोजता था, तब तक वह मिला | सुना है मैंने कि एक दिन स्वर्ग के द्वार पर एक आदमी ने जाकर नहीं। क्योंकि मैं था खोजने वाला। फिर खोजते-खोजते मैं खो | | दस्तक दी। स्वर्ग के द्वारपाल ने दरवाजा खोला। कहा, आएं; गया, तब वह मिला। जब मैं न बचा, तब वह मिला। और जब तक | | स्वागत है। फिर दरवाजा बंद हो गया। एक और गरीब-सा आदमी, मैं था, तब तक वह मिला नहीं।
| दीन-हीन सा आदमी, पहले से, बहुत पहले से आकर दरवाजे के तदरूपता का अर्थ है, ईगोलेसनेस। खो जाए मेरा भाव कि मैं | बाहर खड़ा था। इतना दीन-हीन था कि दरवाजा खटखटाने की हूं। आ जाए यह स्थिति कि परमात्मा ही है। फिर लौटना नहीं है। | हिम्मत भी जुटा नहीं पाया था। यह देखकर कि दरवाजा खटखटाने क्योंकि लौटेंगे किसको लेकर अब? वह तो खो गया, जो लौट | | से खुलता है, और अंदर कोई आदमी ले गया, उसकी भी हिम्मत सकता था।
बढ़ी। वह भी बाहर आया। तभी उसने देखा कि अंदर बैंड-बाजे इस जगत की सारी यात्रा अहंकार की यात्रा है, आना और जाना। | | बज रहे हैं और स्वागत-समारोह हो रहा है। शायद, जो आदमी ध्यान रहे, जन्मों की लंबी कथा, आत्मा की नहीं, अहंकार की कथा | भीतर गया है, उसका स्वागत-समारोह हो रहा होगा। . है। अहंकार ही आता और जाता। आत्मा न तो आती और न जाती। | उसने भी हिम्मत करके द्वार खटखटाया। फिर द्वारपाल ने एक बार भी जिसने यह जान लिया, उसका आवागमन गया। उसके | | दरवाजा खोला। कहा, भीतर आ जाओ। भीतर गया। सोचा, अब लिए लौटने का कोई उपाय न रहा; सब सेतु गिर गए। खंडित हो | बैंड-बाजे बजेंगे मेरे लिए भी। स्वागत-समारोह होगा। कुछ न गए मार्ग। लौटने वाला ही खो गया। इस स्थिति को परम मुक्ति | | हुआ। उसने द्वारपाल से पूछा, बैंड-बाजे कहां हैं? स्वागत कहां
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तीन सूत्र-आत्म-ज्ञान के लिए
है? मेरे पहले कोई आया, उसका स्वागत हुआ। क्या यहां भी हम । ठीक ऐसे ही जब कोई अहंकार परमात्मा की आग में अपने को गरीबों के साथ ज्यादती और अन्याय चलता है?
छोड़कर जलता जाता है, जलता जाता है, जलने को राजी हो जाता द्वारपाल ने कहा, ऐसा नहीं है। तुम्हारे जैसे गरीब तो रोज यहां | | है, तदरूप हो जाता है; तो ही–तो ही—उस जगह पहुंचता है, आते हैं। तुम्हारे जैसे विनम्र, जो दरवाजा नहीं खटखटाते और जहां से कोई वापसी नहीं है। किनारे पर प्रतीक्षा करते रहते हैं; तुम्हारे जैसे विनम्र तो रोज आते | और उस जगह पहुंचे बिना जीवन में न कोई आनंद है, न कोई हैं। यह जो आदमी अभी भीतर गया है, एक महापंडित है। यह बड़ा | अमृत है, न कोई रस है, न कोई सौंदर्य है, न कोई संगीत है। उसी ज्ञानी था। ऐसे ज्ञानी सौ, दो सौ, चार सौ, पांच सौ वर्ष बीत जाते क्षण से संगीत शुरू होता, उसके पहले शोरगुल है। उसी क्षण से हैं, तब कभी-कभी आते हैं। इसलिए उसका स्वागत किया गया है। | अमृत शुरू होता, उसके पहले मृत्यु ही मृत्यु की कथा है। उसी क्षण यह बड़ी रेयर घटना है। तुम्हारे जैसे विनम्र लोग तो रोज आते हैं। से प्रकाश शुरू होता, उसके पहले अंधकार और अंधकार है। उसी लेकिन ऐसा महापंडित कभी दो-चार सौ साल में एक बार आता | | क्षण से जीवन उत्सव बनता। है। इसलिए स्वागत किया गया है। यह जरा विशेष घटना थी। जिस क्षण से मैं खोता हूं, उसी क्षण से जीवन एक फेस्टिविटी
वह बहुत हैरान हुआ। उसने कहा कि पंडित तो हम सोचते हैं | है—एक उत्सव, एक नृत्य, एक आनंदमग्नता, एक एक्सटैसी, कि सदा जाते होंगे। हम दीन-हीन, न समझने वाले नर्क में पड़ते | | एक समाधि, एक हर्षोन्माद। उसके पहले तो जीवन सिर्फ कांटों से होंगे! उस द्वारपाल ने कहा कि पृथ्वी में बहुत तरह की भूलों में यह चुभा हुआ है। उसके पहले तो जीवन सिर्फ बिंधा हुआ है पीड़ाओं एक भूल भी प्रचलित है।
| से, संताप से, सड़ता हुआ। उसके पहले तो जीवन एक दुर्गंध है, पंडित को इतना खयाल होता है कि मैं जानता हूं कि स्वर्ग में | | और एक विसंगीत है; एक विक्षिप्तता, एक पागलपन है। 'प्रवेश बड़ा मुश्किल है। अज्ञानी भी एक बार प्रवेश कर सकता है, | | कृष्ण कहते हैं, ऐसा हो सकता है अर्जुन। अंतःकरण हो शुद्ध, विनम्र हो तो। क्योंकि जो विनम्र है, वह अज्ञानी न रहा। क्योंकि जो | | आत्मा ने जागकर पाया हो ज्ञान, हो गई हो तदरूप परमात्मा के विनम्र है, वह तभी हो सकता है, जब अहंकार को छोड़ने का | साथ; खो दी हो ज्योति ने अपने को परम प्रकाश में, तो फिर कोई सामर्थ्य आ गया हो।
लौटना नहीं है। ज्ञानी भी प्रवेश नहीं कर सकता, अगर अविनम्र है। क्योंकि जहां अविनम्रता है और अहंकार है, वहां तो ज्ञान का सिर्फ दंभ होगा, भ्रम होगा, ज्ञान हो नहीं सकता है।
विद्याविनयसंपन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि । मैं से जो मुक्त होने को तैयार है, वही केवल मोक्ष में प्रवेश पाता शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः ।। १८।। है। यह जो मैं से मुक्ति है—मैं की मुक्ति नहीं, मैं से मुक्ति—इसमें इहैव तैर्जितः सगों येषां साम्ये स्थितं मनः । ही तदरूप हो जाता है आदमी। तदरूप! एक ही।
निदोष हि समं ब्रह्म तस्माद् ब्रह्मणि ते स्थिताः ।। १९ ।। जिंदगी में कहां आपको तदरूपता दिखाई पड़ती है? कहीं
ऐसे वे ज्ञानीजन विद्या और विनय युक्त ब्राह्मण में, तथा गौ, आपने तदरूपता देखी जिंदगी में, जहां कोई चीज वही हो जाती
हाथी, कुत्ते और चांडाल में भी समभाव से हो, जो है? आग जलाते हैं। थोड़ी ही देर में थोड़ी ही देर
देखने वाले ही होते हैं। में लकड़ियां जलती हैं और आग के साथ एक हो जाती हैं। राख इसलिए जिनका मन समत्वभाव में स्थित है, उनके द्वारा इस पड़ी रह जाती है।
जीवित अवस्था में ही संपूर्ण संसार जीत लिया गया, इसलिए अग्नि को बहुत पहले समस्त दुनिया के धर्मों ने एक क्योंकि सच्चिदानंदघन परमात्मा निर्दोष और सम है। प्रतीक की तरह चुन लिया। उसमें लकड़ी जलकर आग के साथ इससे वे सच्चिदानंदघन परमात्मा में ही स्थित है। एक हो जाती है। इसलिए अग्नि यज्ञ बन गई। पारसियों ने अग्नि को चौबीस घंटे जलाकर पवित्र पूजा का स्थल बना लिया। क्योंकि अग्नि में लकड़ी जलकर तदरूप होती रहती है।
ना हो जिसे प्रभु को, उसे प्रभु जैसा हो जाना पड़ेगा।
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गीता दर्शन भाग-20
पाने की एक ही शर्त है, जो पाना हो, उस जैसा ही हो जाना पड़ता जिस चीज से आपके भीतर जितनी ज्यादा विषमता पैदा होती हो, है। यह शर्त गहरी है। और यह नियम शाश्वत है। और जीवन के | | जानना, वह उतनी ही अधर्म है। अधर्म की एक कसौटी है, जिससे समस्त तलों पर लागू है।
उत्तेजना और विषमता पैदा होती हो। धर्म की भी एक कसौटी है, अगर किसी व्यक्ति को धन पाना है, तो थोड़े दिन में पाएंगे कि | जिससे समता और संतुलन निर्मित होता हो। ऐसी घड़ी भीतर आ वह आदमी भी धातु का ठीकरा हो गया। अगर किसी व्यक्ति को | जाए कि आपका हृदय दो पलड़ों की तरह ठहर जाए, तराजू सम हो पद पाना है, तो थोड़े दिन में पाएंगे कि उस आदमी में और कुर्सी | | जाए। कोई भी पल्ला न नीचे हो, न ऊपर हो। वजन किसी पर न रह की जड़ता में कोई फर्क नहीं रहा। असल में हमें जो भी पाना है, | | जाए। दोनों पल्ले समान आ जाएं। ऐसी तराजू की स्थिति आ जाए जाने-अनजाने हमें वही बन जाना पड़ता है। बिना बने, हम पा नहीं | | सम, उसी क्षण परमात्मा से तदरूपता सधनी शुरू हो जाती है। सकते। हम वही पा सकते हैं, जो हम बनते हैं। जो भी हम चाहते | लेकिन हमारा मन सदा ही कहीं न कहीं झुका रहता है—किसी हैं इस जगत में, इस जगत के पार, हम वही बन जाते हैं। | पक्ष में, किसी वृत्ति में, किसी लोभ में, किसी वासना में-कहीं न
इसलिए आदमी के चेहरे पर, आंखों में, हाथों में, वह सब कहीं झुका रहता है। हम किसी के खिलाफ और किसी के पक्ष में लिखा रहता है, वह जो उसकी खोज है, वह जो पाना चाहता है। | झुके रहते हैं। किसी के विपरीत और किसी के अनुकूल झुके रहते
आदमी को देखकर कहा जा सकता है, वह क्या पाना चाहता है। हैं। किसी के विकर्षण में और किसी के आकर्षण में झुके रहते हैं। क्योंकि उसके सारे भावों पर, उसकी चमड़ी पर सब अंकित हो गया | हम सदा ही झुके रहते हैं। और यह झुकाव चौबीस घंटे बदलता होता है।
रहता है। चौबीस घंटे! हमें भी पक्का नहीं होता कि ऊंट.सांझ तक परमात्मा को जिसे पाना है, उसे परमात्मा जैसा हो जाना पड़ेगा। | किस करवट बैठेगा। दिन में बहुत करवट बदलते हैं। परमात्मा के क्या मौलिक लक्षण हैं?
यह जो चित्त की दशा है विषम, यह परमात्मा की तरफ ले जाने एक, कि परमात्मा सम है, विषम नहीं है। समता की स्थिति है | | वाली नहीं बन सकती है। परमात्मा, संतुलन की, दि एब्सोल्यूट बैलेंस। सब चीजें सम हैं | परमात्मा है सम, समता। अगर वैज्ञानिक शब्दों में कहें, तो परमात्मा में। कोई लहर भी नहीं है, जो विषमता लाती हो। सब! समत्व। परमात्मा शब्द को छोड़ा जा सकता है। इतना ही कहना जैसे कि तराजू के दोनों पलड़े बिलकुल एक जगह पर हों, कंपन काफी है कि जीवन का जो मूल स्वभाव है, वह समत्व है। वहां सब भी न होता है। जैसे वीणा के तार बिलकुल सधे हों। न बहुत ढीले | समान है। हों, न बहुत खिंचे हों। ऐसी समता परमात्मा का स्वरूप है। जिस व्यक्ति को परमात्मा की यात्रा करनी है, उसे चौबीस घंटे
जिसे भी परमात्मा को पाना है, उसे समता की तरफ बढ़ना | | ध्यान में रखना चाहिए कि वह समत्व खोता है या बढ़ाता है ! ऊपर पड़ेगा। कोई चाहे कि मैं विषम रहकर और परमात्मा को पा लूं, तो | | से बहुत अंतर नहीं पड़ता, असली सवाल भीतर जानकारी का है। नहीं पा सकेगा। विषम रहकर परमात्मा को पाना असंभव है। ऊपर हो सकता है कि एक आदमी सम मालूम पड़े और भीतर
इसीलिए जो आदमी क्रोध में, लोभ में, काम में, घृणा में, ईर्ष्या विषम हो। इससे विपरीत भी हो सकता है। कृष्ण जैसा आदमी जब में डूबता है, वह परमात्मा की तरफ नहीं बढ़ पाएगा। क्योंकि ये | चक्र हाथ में ले ले सुदर्शन, तो बाहर से तो लोगों को लगेगा ही कि सब चीजें मन को विषम करती हैं, उत्तेजित करती हैं, आंदोलन विषम हो गया, पर भीतर सम है। करती हैं. सम नहीं करती हैं। इसलिए जो आदमी करुणा में, प्रेम असली सवाल भीतर है। इसलिए दसरे का सवाल नहीं है। में, क्षमा में, दान में, दया में विकसित होगा, वह धीरे-धीरे | | प्रत्येक को अपने भीतर देखते रहना चाहिए कि मैं समता को बढ़ाता परमात्मा की तरफ बढ़ेगा। क्योंकि दान है, दया है, क्षमा है, करुणा | | हूं, गहराता हूं, घनी कर रहा हूं; या तोड़ रहा हूं, मिटा रहा हूं, नष्ट है, प्रेम है, ये भीतर समता को पैदा करवाते हैं।
कर रहा हूं। क्या कभी आपने खयाल किया कि जब आप लोभ से भरते हैं, | जैसे कोई आदमी बगीचे की तरफ जा रहा हो। अभी बगीचा तो आपके भीतर का संतुलन डगमगा जाता है। पलड़े नीचे-ऊपर बहुत दूर है, लेकिन जैसे-जैसे पास पहुंचता है, हवाएं ठंडी होने होने लगते हैं। लहरें उठ जाती हैं।
| लगती हैं। हवाओं को ठंडा जानकर वह सोचता है कि मेरे कदम
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तीन सूत्र-आत्म-ज्ञान के लिए
ठीक रास्ते पर पड़ रहे हैं। और पास पहुंचता है, अभी भी बगीचा | | ने कहा कि बस, अब बहुत हो गया! यू हैव फूल्ड मी ट्वाइस। दिखाई नहीं पड़ता, लेकिन फूलों की सुगंध आने लगती है। तो वह थ्राइस, इट इज़ टू मच टु एक्सपेक्ट! दो दफे तुम मुझे मूर्ख बना सोचता है कि मेरे कदम ठीक रास्ते पर पड़ रहे हैं।
चुके। लेकिन तीसरी बार, अब यह जरूरत से ज्यादा है। अब मैं ठीक ऐसे ही, अगर आपके भीतर समता का भाव आने लगे, हिम्मत नहीं कर सकता। उस आदमी ने कहा, मैंने तुम्हें कहां मूर्ख तो आप समझना कि परमात्मा की तरफ कदम पड़ रहे हैं। और बनाया! दो दफे तो मैंने तुम्हें रुपए लौटा दिए। उस आदमी ने कहा अगर विषमता का भाव आने लगे, तो समझना कि कदम विपरीत | कि तुमने लौटा दिए होंगे, लेकिन मैंने दो में से एक भी दफे नहीं पड़ रहे हैं। हवाएं गर्म होने लगें, तो समझना कि बगीचे से उलटे | सोचा था कि तुम लौटाओगे। तुम न लौटाते, तो मैं समझता कि मैं जा रहे हैं। और सगंध की जगह दर्गंध से चित्त भरने लगे. तो होशियार हैं। बात पक्की हो गई। जो मैंने जाना था, वह हो गया। समझना कि बगीचे के विपरीत जा रहे हैं।
| तुमने लौटाए, उससे तो मैं मूर्ख बना। मैंने सोचा था, रुपए लौटेंगे इसलिए कृष्ण कहते हैं, समत्व को जो उपलब्ध हो जाए, वही | | नहीं, और तुमने लौटा दिए। एक दफे तुमने मूर्ख बना दिया। फिर उस परमात्मा से भी एक हो पाता है, तदरूप हो पाता है। और जब | | भी दूसरी बार मैंने सोचा था कि रुपए लौटेंगे नहीं। फिर भी तुमने कोई उस परमात्मा से एक हो जाता है, तो हाथी में, घोड़े में, गाय | | मुझे मूर्ख बना दिया। लेकिन अब क्षमा करो। अब बहुत ज्यादा है। में किसी में भी-कृष्ण ने सारे नाम गिनाए, फिर वह परमात्मा तीन बार भरोसा करना बहुत मुश्किल है, उसने कहा कि अब मुझे को ही देखता है।
तुम क्षमा कर दो। वह मित्र तो समझ ही नहीं पाया कि बात क्या है। यह दूसरा भी एक महत्वपूर्ण नियम है जीवन का कि हम बाहर अक्सर ऐसा होता है। हम समझ ही नहीं पाते कि बात क्या है। वही देखते हैं, जो हमारे भीतर गहरे में होता है। हम अपने से ज्यादा दूसरा आदमी अपने भीतर से बात करता है, हम अपने भीतर से इस जगत में कभी कुछ नहीं देख पाते। बाहर हम वही देखते हैं, जो बात करते हैं। इसलिए दुनिया में संवाद बहुत कम होते हैं। सब गहरे में हमारे भीतर होता है।
अपने भीतर से बात करते हैं। और आप जब बात करते हैं, तो कोई आदमी आपके पास आता है। फौरन देखते हैं कि पता नहीं, | | उससे बात नहीं करते, जो आपके सामने मौजूद है। आप उस इमेज रुपए मांगने तो नहीं आ गया! अभी उसने कुछ कहा नहीं है। से बात करते हैं, जो आप सोचते हैं कि आपके सामने मौजूद है।
मैंने सुना है, एक आदमी ने किसी मित्र से रुपए मांगे, सौ रुपए ___ पति कुछ कहता है, पत्नी कुछ समझती है। पत्नी कुछ कहती है, मांगे। चौंककर उस मित्र ने देखा। स्वभावतः, जैसा कि किसी से | पति कुछ समझता है। पत्नी बहुत कहती है, यह मेरा मतलब ही भी रुपए मांगो, जिस तरह वह देखता है, वैसे उसने देखा। सोचा नहीं, तब भी पति कुछ और समझता है। पति बहुत कहता है, यह कि गए। लेकिन सौ रुपए देना उसकी सामर्थ्य के भीतर था। मित्रता | मेरा कभी मतलब नहीं, लेकिन पत्नी फिर भी कुछ और समझती खोनी उसने ठीक नहीं समझी। सोचा, सौ रुपए जाएंगे, यही उचित | | है! बात क्या है? इस दुनिया में संवाद ही नहीं हो पाता। है। सौ रुपए दे दिए।
हम वही समझते हैं, जो हम प्रोजेक्ट करते हैं। जब किसी कमरे लेकिन ठीक पंद्रह दिन बाद जो वायदा था, उस दिन, बारह बजे में दो आदमी मिलते हैं, तो वहां दो आदमी नहीं मिलते; वहां छः दोपहर का जैसा वचन था, उस आदमी ने लाकर सौ रुपए लौटा | | आदमी मिलते हैं। कम से कम छः, ज्यादा हो सकते हैं! एक तो मैं, दिए। फिर उसने चौंककर देखा। यह बिलकुल भरोसे के बाहर की जैसा मैं हूं; और एक वह, जिससे मैं मिल रहा हूं, जैसा वह है। ये बात थी।
| दो आदमी तो मुश्किल से मिलते हैं। इनका तो कोई मिलन होता ही लेकिन पंद्रह दिन बाद उसने फिर पांच सौ रुपए मांगे। अब उसकी | नहीं, जैसे हम हैं। एक वह जैसा मैं दिखलाने की कोशिश करता हूं हृदय की धड़कन बहुत बढ़ गई। लेकिन फिर भी उसकी सीमा के | कि मैं हूं, और एक वह जैसा वह दिखलाने की कोशिश करता है भीतर था, उसने पांच सौ रुपए दे दिए। और आश्चर्यों का आश्चर्य कि वह है। इनका भी मिलन कभी-कभी होता है। एक वह, जैसा कि वह फिर पंद्रह दिन बाद, ठीक वक्त पर, जो समय तय था, उसने | | मैं समझता हूं कि वह है, और एक वह, जैसा वह समझता है कि लाकर पांच सौ रुपए लौटा दिए। वह और भी चकित हो गया। । | मैं हूं, इन दोनों की मुलाकात होती है। तो छः आदमी! जब दो पंद्रह दिन बाद फिर उस आदमी ने हजार रुपए मांगे। उस मित्र | आदमी मिलें, तो समझ लेना, छः आदमी। उनमें दो जो मिलते हैं,
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| गीता दर्शन भाग-29
बिलकुल झूठे होते हैं। उनसे जो कम झूठे हैं, वे कभी-कभी मिलते हैं। और जो आथेंटिक हैं, उनका कोई मिलन ही नहीं हो पाता । उसका कारण है।
हम दूसरे में वही देखते हैं, जो हमारे भीतर होता है। जो आदमी परमात्मा से तदरूप हो जाएगा, वह अपने चारों ओर परमात्मा को देखना शुरू कर देगा। इसके अलावा उपाय नहीं बचेगा। उपाय नहीं है फिर । देखेगा ही। क्योंकि जब भीतर परमात्मा दिखाई पड़ेगा, तो आपकी आंखों के पार भी परमात्मा दिखाई पड़ेगा। जब अपनी हड्डी के पार परमात्मा दिखाई पड़ेगा, तो दूसरे की हड्डी में भी छिपा वही दिखाई पड़ेगा। जब अपनी देह के भीतर उसका मंदिर मालूम पड़ेगा, तो दूसरे की देह के भीतर भी उसका मंदिर मालूम पड़ेगा। इसलिए कृष्ण कहते हैं, सब में वह परमात्मा को देखना शुरू कर देता है।
हम तो अपने में ही नहीं देखते, तो दूसरे में देखने की तो बात बहुत मुश्किल है! सारी यात्रा अपने ही घर से शुरू करनी पड़ती है। अभी तो मुझे अपने में ही पता न चलता हो कि परमात्मा है, तो मैं आपमें कैसे देख सकूंगा? अपने भीतर तो पता चलता है, चोर है, बेईमान है। तो मैं दूसरे में भी चोर और बेईमान ही देख सकता हूं। पढूंगा मैं, किताब आपकी होगी, लेकिन पढूंगा वही, जो मैं पढ़ सकता हूं। अर्थ मैं वही निकालूंगा, जो मैं निकाल सकता हूं।
इसलिए इस जगत में हर किताब गलत पढ़ी जाती है, हर आदमी गलत पढ़ा जाता है। पढ़ा ही जाएगा, क्योंकि पढ़ने वाला वही पढ़ सकता है।
बुद्ध ने कहा है – एक रात ऐसा हुआ कि बुद्ध की सभा में, जैसे आज आप यहां इकट्ठे हैं, ऐसे ही हजारों लोग इकट्ठे थे – बुद्ध ने कहा कि सुनो भिक्षुओ, मैं जो कहता हूं, तुम वही नहीं समझोगे । तुम वही समझोगे, जो तुम समझ सकते हो । एक भिक्षु ने खड़े होकर कहा कि यह आप क्या कहते हैं! हम तो वही समझेंगे, जो आप कहते हैं। हम वह कैसे समझेंगे, जो आप नहीं कहते हैं? बुद्ध ने कहा, सुनो, कल रात ऐसा हुआ। कल रात भी तुम आए थे। कल रात एक चोर भी आया था; एक वेश्या भी आई थी। और जब रात अंतिम प्रवचन के बाद... ।
जैसा मैं आपसे कहता हूं कि अब कीर्तन में डूब जाएं, ऐसा बुद्ध कहते थे, अब ध्यान में लग जाएं। लेकिन यह रोज-रोज क्या कहना। तो बुद्ध रोज इतना ही कह देते थे बोलने के बाद कि अब रात का जो आखिरी काम है, उसमें लग जाओ।
तो कल, बुद्ध ने कहा, जब मैंने कहा, अब रात के आखिरी काम में लग जाओ अर्थात ध्यान में चले जाओ, तो भिक्षु तो आंख बंद | करके ध्यान में चले गए। चोर को खयाल आया कि रात काफी हो गई और काम में लगने का वक्त आ गया। और वेश्या को खयाल आया कि उठूं । ग्राहक आने शुरू हो गए होंगे।
बुद्ध ने कहा कि आखिरी काम में लग जाओ। जिसे ध्यान करना था, वह ध्यान में चला गया। जिसे चोरी करनी थी, वह चोरी करने | चला गया। जिसे शरीर बेचना था, वह शरीर बेचने जा चुकी ।
बुद्ध ने कहा, मैंने तो भिक्षुओ, एक ही बात कही थी, लेकिन तीन अर्थ हो गए।
नहीं; हम वही पढ़ लेते, वही समझ लेते, हम वही मान लेते, वही जान लेते, जो हमारे भीतर है। हमारा जगत हमारा प्रोजेक्शन | है। एक - एक आदमी अपनी दुनिया को अपने साथ लेकर चलता है। एक- एक आदमी अपनी दुनिया को अपने साथ लेकर चलता है। कोई भी चीज बाहर घटे, हमें अपनी ही बात याद आती है।
मैंने सुना है कि एक गांव में भूकंप आ गया। भूकंप जैसी चीज ! एक आदमी रास्ते से गुजर रहा है — बहुत लोग गुजर रहे हैं - एक | आदमी रास्ते से गुजर रहा है । भूकंप आया जोर से। मकान कंपने लगे। मकानों से चीजें नीचे गिरने लगीं। दूसरे लोग चिल्लाकर भागे कि हे राम ! मर जाएंगे। उस आदमी ने कहा, हे भगवान! मुझे खयाल आया कि मेरी पत्नी ने मुझे चिट्ठी डालने को दी थी दो दिन पहले, और वह अभी तक मेरे खीसे में रखी है! भूकंप देखकर खयाल आया ! पड़ोस वाले आदमी ने कहा कि तू यह क्या कह रहा है ! भूकंप देखकर तुझे यह खयाल आया कि पत्नी ने चिट्ठी दी थी डालने को, वह अभी तक खीसे में रखी है। उसने कहा कि हां, क्योंकि अगर चिट्ठी नहीं डाली गई है, यह पता चल गया, तो मेरे घर में भूकंप आता है !
वह दूसरा आदमी समझ ही नहीं सका कि भूकंप से और चिट्ठी डालने का क्या संबंध हो सकता है। कोई भी तो संबंध नहीं है, इररेलेवेंट है। लेकिन किसी का हो सकता है। अपने-अपने घर की बात है! अपने-अपने अनुभव की बात है।
भूकंप से खयाल आया घर का कि चिट्ठी अभी तक डाली नहीं | गई। भागा। लोग जान बचाने भागे। वह भी अपनी जान बचाने भागा ! वह चिट्ठी लेकर जल्दी से भागा कि वह चिट्ठी डाल दे।
आदमी के भीतर एक जाल है। उसी जाल से वह सारे जगत को बाहर से नापता - जोखता है। इसलिए जब आपको कोई आदमी चोर
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EC तीन सूत्र-आत्म-ज्ञान के लिए
मालूम पड़े, तो एक बार सोचना फिर से कि उसके चोर मालूम | परमात्मा को देखना कठिन हो जाता है। और जिसमें हम मधुर पड़ने में आपके भीतर का चोर तो सहयोगी नहीं हो रहा। और जब बांसरी का संगीत सनते हैं. उसमें परमात्मा को देखना सरल हो कोई आदमी बेईमान मालूम पड़े, तो सोचना भीतर से कि उसके | जाता है। और अगर दूसरे में चोर दिखेगा, तो भीतर विषमता बेईमान दिखाई पड़ने में आपके भीतर का बेईमान तो कारण नहीं आएगी। और दूसरे में अगर बजती हुई बांसुरी सुनाई पड़ेगी, तो बन रहा!
भीतर समता आएगी। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि बाहर लोग बेईमान नहीं हैं और चोर | ये दो सूत्र भी एक ही सूत्र के हिस्से हैं। अगर भीतर समता लानी नहीं हैं। होंगे! उससे कोई प्रयोजन नहीं है। लेकिन जब आपको | | हो, तो बाहर शुभ को देखना अनिवार्य है। और अगर भीतर दिखाई पड़ता है, तो जरा भीतर देखना कि आपके भीतर कोई कारण | | विषमता लानी हो, तो बाहर अशुभ को देखना अनिवार्य है। तो इस व्याख्या के लिए आधार नहीं है? और अगर हो, तो दूसरे के | बाहर अशुभ को देखना छोड़ते चले जाएं। और ध्यान रखें, इस चोर होने से इतना नुकसान नहीं है, जितना दूसरे के चोर दिखाई पड़ने | । पृथ्वी पर बुरे से बुरा आदमी भी ऐसा नहीं है, जिसके भीतर शुभ से नुकसान है। क्योंकि फिर इस जगत में आपको परमात्मा दिखाई | | की कोई किरण न हो। और यह भी ध्यान रखें, इस पृथ्वी पर भले पड़ना मुश्किल है। और दूसरा चोर होकर आपसे कुछ कीमती चीज | |से भला आदमी भी ऐसा नहीं है, जिसके भीतर कोई अशुभ न नहीं छीन सकता, लेकिन आप दूसरे में चोर देखते हैं, इससे आप | | खोजा जा सके। आप पर निर्भर है। और जब आपको एक अशुभ बहुत बड़ी कीमती चीज से वंचित रह जा सकते हैं। वह दूसरे में | | मिल जाता है किसी में, तो उसमें दूसरे शुभ पर भरोसा करना कठिन परमात्मा दिख सकता था, उससे आप वंचित रह जा सकते हैं। हो जाता है। और जब आपको किसी में एक शुभ मिल जाता है, तो
इसलिए साधक के लिए कहता हूं, आखिरी बात! साधक निरंतर | दूसरे शुभ के लिए भी द्वार खुल जाता है। इस चेष्टा में रहेगा, पहला सूत्र मैंने कहा, समता की ओर बढ़ रहा | । भीतर लानी हो समता, तो बाहर शुभ का दर्शन करना शुरू करें। हूं या नहीं। दूसरा सूत्र, साधक निरंतर इस चेष्टा में रहेगा कि दूसरे जितना शुभ का दर्शन कर सकें बाहर, करें। उतनी समता घनी होगी। के भीतर कोई ऐसी शुभ चीज को देख ले, जिससे परमात्मा का __ भीतर समता, बाहर शुभ। और आप पाएंगे कि इन दोनों के बीच स्मरण आ सके। अगर दूसरे के भीतर अशुभ को देखा, तो शैतान | | में प्रभु की किरण धीरे-धीरे उतरने लगी। और वह दिन भी दूर नहीं का स्मरण आ सकता है, परमात्मा का स्मरण नहीं आ सकता। | होगा कि जिस दिन समता और शुभ की पूर्ण स्थिति में प्रभु से दूसरे के भीतर मैं कोई चीज देख लूं, जिससे परमात्मा का स्मरण | | तदरूपता हो जाती है। आ सके।
अब हम पांच मिनट तदरूपता में हो जाएं प्रभु के साथ। इसको तिब्बत में एक फकीर हुआ, मिलरेपा। वह कहा करता था कि | | कीर्तन ही न समझें, तदरूपता समझें। परमात्मा ही नाचता है, ऐसा अधार्मिक आदमी मैं उसको कहता हूं, जिससे अगर हम कहें कि ही समझें। बैठे रहें, ताली बजाएं, गीत गाएं। वहीं बैठे-बैठे हमारे गांव में फला-फलां आदमी बहुत अच्छी बांसुरी बजाता है, | | आनंदमग्न हो जाएं। तो वह फौरन कहेगा कि छोड़ो भी; क्या खाक बांसुरी बजाएगा! वह निपट चोर रखा है। और धार्मिक आदमी मैं उसे कहता हूं, मिलस्पा कहता था कि अगर हम उससे कहें कि हमारे गांव में फला
आदमी चोर है, तो वह कहेगा, मान नहीं सकता; वह इतनी अच्छी बांसुरी बजाता है कि चोरी कैसे करता होगा!
एक ही आदमी के बाबत, जो चोरी करता है और बांसुरी बजाता है, अधार्मिक आदमी चोरी को चुन लेता है, बांसुरी को काट देता है; धार्मिक आदमी बांसुरी को चुन लेता है, चोरी को काट देता है। इससे चोर में कोई फर्क नहीं पड़ता. लेकिन देखने वाले व्याख्याकार में बुनियादी फर्क पड़ता है। क्योंकि जिसमें हम चोर देखते हैं, उसमें
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अध्याय 5 नौवां प्रवचन
अकंप चेतना
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गीता दर्शन भाग-28
न प्रहष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम् । शीघ्र ही आकर्षण की जगह तिरस्कार, और तिरस्कार के बाद स्थिरबुद्धिरसंमूढो ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः ।। २० ।। विकर्षण जगह बना लेता है। और जो पुरुष प्रिय को प्राप्त होकर हर्षित नहीं हो और सुना है मैंने, सिगमंड फ्रायड के एक शिष्य के पास एक व्यक्ति अप्रिय को प्राप्त होकर उद्वेगवान न हो. ऐसा स्थिर बद्धि, मनस चिकित्सा के लिए आया। उस व्यक्ति ने कहा, मैं बहत संशयरहित, ब्रह्मवेत्ता पुरुष सच्चिदानंदघन परब्रह्म परमात्मा | परेशान हूं। एक स्वप्न मुझे बार-बार आता है। हर रोज, हर रात। में एकीभाव से नित्य स्थित है।
और कभी तो रात में दो-चार बार भी आता है। मैं उस स्वप्न से इतना परेशान हो गया हूं कि कुछ रास्ता खोजने आपके पास आया
हूं। मनोवैज्ञानिक ने कहा, क्या है वह स्वप्न? उस व्यक्ति ने कहा 7 य को जो प्रिय समझकर आकर्षित न होता हो; अप्रिय | कि मैं बहुत हैरानी का सपना देखता हूं। हर रात नींद में, स्वप्न में [ को अप्रिय समझकर जो विकर्षित न होता हो; जो न पहुंच जाता हूं युवतियों के एक छात्रावास में। रोज, नियमित! और
मोहित होता हो, न विराग से भर जाता हो; जो न तो फिर धीरे से फुसफुसाकर कहा कि सारी युवतियां छात्रावास की किसी के द्वारा खींचा जा सके और न किसी के द्वारा विपरीत गति नग्न घूमती मालूम पड़ती हैं! में डाला जा सके-ऐसे स्वयं में ठहर गए व्यक्तित्व को, ऐसी मनोवैज्ञानिक ने कहा, घबड़ाओ मत। क्या तुम चाहते हो, यह स्वयं में ठहर गई बुद्धि को कृष्ण कहते हैं, सच्चिदानंद परमात्मा की स्वप्न बंद हो जाए? उस आदमी ने कहा, आप मुझे गलत समझे। स्थिति में सदा ही निवास मिल जाता है।
मेरा पूरा स्वप्न तो सुन लें। लेकिन जैसे ही मैं दरवाजे में प्रवेश करने इसमें दो-तीन बातें समझ लेने जैसी हैं।
लगता हूं उस छात्रावास के, मेरी नींद खुल जाती है। कुछ ऐसा करें किसे हम कहते हैं प्रिय? कौन-सी बात प्रीतिकर मालूम पड़ती | कि मेरी नींद दरवाजे में प्रवेश करते वक्त खुले न! है? कौन-सी बात अप्रीतिकर, अप्रिय मालूम पड़ती है? और किसी __ स्वभावतः, मनोवैज्ञानिक हैरान हुआ होगा। लेकिन वह आदमी बात के प्रीतिकर मालूम पड़ने में और अप्रीतिकर मालूम पड़ने में ईमानदार रहा होगा। उसने कहा, सपना तोड़ना नहीं चाहता। लेकिन कारण क्या होता है?
सपना पूरा ही नहीं हो पाता। भीतर प्रवेश करता हूं, दरवाजे पर पैर इंद्रियों को जो चीज तृप्ति देती मालूम पड़ती है—देती है या नहीं, रखता हूं कि नींद टूट जाती है। छात्रावास खो जाता है; नग्न यह दूसरी बात-इंद्रियों को जो चीज तृप्ति देती मालूम पड़ती है, युवतियां खो जाती हैं। मनोवैज्ञानिक ने कहा कि हम कुछ कोशिश वह प्रीतिकर लगती है। इंद्रियों को जो चीज तृप्ति देती नहीं मालूम | करें। सपना तोड़ना तो आसान था, लेकिन नींद को बचाना जरा पड़ती, उसके प्रति तिरस्कार शुरू हो जाता है। और इंद्रियों को जो कठिन है, फिर भी कोशिश करें। चीज विधायक रूप से कष्ट देती मालूम पड़ने लगती है, वह । उसे सम्मोहित किया। दो-चार दिन सम्मोहित करके, हिप्नोटाइज अप्रीतिकर हो जाती है। फिर जरूरी नहीं है कि आज इंद्रियों को जो करके उसे सुझाव दिए। चीज प्रीतिकर मालूम पड़े, कल भी मालूम पड़े। और यह भी जरूरी चौथे दिन वह आदमी बहुत क्रोध में आया। आधी रात दरवाजे नहीं है कि आज जो अप्रीतिकर मालूम पड़े, वह कल भी अप्रीतिकर खटखटाए। मनोवैज्ञानिक ने कहा कि इतनी रात आने की क्या मालूम पड़े। आज जो चीज इंद्रियों को प्रीतिकर मालूम पड़ती है, जरूरत? उसने कहा कि बहुत गलत किया तुमने। आज सपना नहीं बहुत संभावना यही है कि कल वह प्रीतिकर मालम नहीं पड़ेगी।
टटा। मैं भीतर भी प्रवेश कर गया। लेकिन मैं वापस चाहता है, वही जब तक कुछ मिलता नहीं, तब तक आकर्षित करता है। जैसे | | सपना ठीक था, जो दरवाजे पर टूट जाता था। ही मिलता है, व्यर्थ हो जाता है। सारा आकर्षण न मिले हुए का | | उस मनोवैज्ञानिक ने कहा, क्यों वापस चाहते हो? उसने कहा
आकर्षण है। दूर के ढोल सुहावने मालूम पड़ते हैं। जैसे-जैसे जाते | | कि कम से कम थोड़ा आकर्षण तो था; अब वह भी नहीं है। अभी हैं पास, वैसे-वैसे आकर्षण क्षीण होने लगता है। और मिल ही | | तक एक आशा तो थी कि कभी यह सपना नहीं टूटेगा। आज नहीं जाए जो चीज चाही हो, तो क्षणभर को भला धोखा हो जाए, मिलने | | टूटा है। लेकिन मिला तो कुछ भी नहीं। वरन मैंने कुछ खोया है। के क्षण में, लेकिन मिलते ही आकर्षण विदा होने लगता है। बहुत | मेरा अधूरा सपना वापस लौटा दो।
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अकंप चेतना
आदमी जीवन में जो-जो सपने देखता है, जब तक देखता रहता | और जानना कि लोग कांटे फेंक रहे हैं, गालियां फेंक रहे हैं। लेकिन है, तब तक प्रीतिकर होते हैं। जब सपने हाथ में आ जाते हैं, तो बड़े | देखना भीतर यह कि स्वयं चलित तो नहीं हो जाते, स्वयं तो नहीं बह अप्रीतिकर हो जाते हैं।
| जाते फूलों और कांटों के साथ! स्वयं तो खड़े ही रह जाना भीतर। जिस चीज को प्रेम करें, अगर प्रेम जारी रखना हो, तो जरा दूर ही. ऐसे प्रत्येक अवसर को जो तटस्थ साक्षी का क्षण बना लेता है, रहना, निकट मत जाना। निकट गए कि प्रेम उजड़ जाएगा, विकर्षण | | | वह धीरे-धीरे अंतर-समता को उपलब्ध होता है। धीरे-धीरे ही होती जगह ले लेगा। क्योंकि सारा आकर्षण अनजान, अपरिचित, दूर जो | है यह बात। एक-एक कदम समता की तरफ उठाना पड़ता है। है, आशा में है, होप। जितनी ज्यादा आशा मिश्रित मालूम होती है, | | लेकिन जो कभी भी नहीं उठाएगा, वह कभी पहुंचेगा नहीं। उतना आकर्षण मालूम होता है। हाथ में आ गए तथ्य विकर्षित हो | बहुत छोटे-छोटे मौकों पर-जब कोई गाली दे रहा हो, तब जाते हैं। बहुत देर हाथ में रह गए तथ्य, फेंकने जैसे हो जाते हैं। जिसे | | उसकी गाली पर से ध्यान हटाकर भीतर ध्यान देना कि मन चलित चाहा था बहुत मांगों से, उससे दूर हटने की आकांक्षा पैदा हो जाती तो नहीं होता। और ध्यान देते ही मन ठहर जाएगा। यह बहुत मजे है। अप्रीतिकर हो जाता है वही, जो प्रीतिकर था।
की बात है। जब कोई गाली देता है, तो हमारा ध्यान गाली देने वाले इसलिए कृष्ण कहते हैं, जिन्हें लोग प्रीतिकर समझते हैं, जिन्हें पर चला जाता है। अगर कृष्ण की बात समझनी हो, तो जब कोई लोग अप्रीतिकर समझते हैं...।
गाली दे, तो ध्यान जिसको गाली दी गई है, उस पर ले जाना। किन्हें समझते हैं लोग? दूर की आशाओं को लोग प्रीतिकर | जैसे ही ध्यान भीतर जाएगा, हंसी आएगी। गाली बाहर रह समझते हैं। इंद्रियों को प्रलोभन जहां से मिलता है, वहां प्रीतिकर | | जाएगी; गाली देने वाला बाहर रह जाएगा; आप किनारे पर खड़े मालूम होता है सब। जहां-जहां इंद्रियां पहुंच जाती हैं, वहीं अप्रीति | | हो जाएंगे। गाली से अछूते, कमल के पत्ते की तरह पानी में। चारों बैठ जाती है; वहीं अंधेरा छा जाता है; वहीं हटने का मन हो जाता | | तरफ पानी है और आप अस्पर्शित, अनटच्ड रह जाएंगे। उस क्षण है। इसीलिए तो जो हम पा लेते हैं, बस वह बेकार हो जाता है। | इतने आनंद की प्रतीति होगी, जिसका हिसाब नहीं। आंखें फिर कहीं और अटक जाती हैं।
जिसने भी गाली के क्षण में या सम्मान के क्षण में भीतर खड़े लेकिन एक और अर्थ में भी इस बात को समझ लेना जरूरी है। होने को पा लिया, जस्ट स्टैंडिंग को पा लिया, वह इतने अतिरेक कोई आपके गले में फूल की मालाएं डाल रहा है। प्रीतिकर लगता | आनंद से भर जाता है, जिसका कोई हिसाब नहीं। क्यों? क्योंकि है। स्वागत, सम्मान, प्रतिष्ठा प्रीतिकर लगती है। कोई जूते की पहली बार वह स्वतंत्र हुआ। अब कोई उसे बाहर से चलित नहीं मालाएं डाल दे गले में, अप्रीतिकर लगता है।
कर सकता है। अब वह यंत्र नहीं है, मनुष्य हुआ। हम बटन दबाते ___ कृष्ण कहते हैं, ये व्याख्याओं से जो भीतर आंदोलित हो जाता | | हैं, बिजली जल जाती है। हम बटन दबाते हैं, बिजली बुझ जाती है, वह प्रभु की सतत आनंद की स्थिति में प्रवेश नहीं कर सकता। | है। बिजली परतंत्र है, बटन दबाने से जलती और बुझती है। किसी क्योंकि गले में डाले गए फूल कि गले में डाले गए कांटे, चेतना | ने गाली दी; हमारे भीतर दुख छा गया। किसी ने कहा कि आप तो को इससे अंतर नहीं पड़ना चाहिए। चेतना को अंतर पड़ता है, बड़े महान हैं; हमारे भीतर खुशी की लहर दौड़ गई। तो हममें और इसका अर्थ यह हुआ कि बाहर के लोग आपको प्रभावित कर | | बिजली में बहुत फर्क न हुआ, बटन दबाई... सकते हैं। और जब तक बाहर के लोग आपको प्रभावित कर सकते __ अभी अमेरिका में कुछ मनोवैज्ञानिक, इरिक फ्रोम, डा.सर्ज हैं, तब तक भीतर की धारा में प्रवेश नहीं होता।
और कुछ दूसरे मनोवैज्ञानिक एक छोटा-सा प्रयोग कर रहे हैं, जो बाहर से जो प्रभावित होगा, उसकी चेतना बाहर की तरफ बहती मैं आपको याद दिलाना चाहूंगा। वह प्रयोग यह है कि हमारे रहेगी। जब बाहर से कोई बिलकुल अप्रभावित, तटस्थ हो जाता | मस्तिष्क में कुछ सेंटर्स हैं, कुछ केंद्र हैं, जिनमें अगर बिजली की है, तभी चेतना अंतर्गमन को उपलब्ध होती है।
| धारा प्रवाहित की जाए, तो बड़ा प्रीतिकर लगता है। और दूसरे भी जब मिले स्वागत, जब मिले सम्मान, जब प्रेम की वर्षा होती कुछ केंद्र हैं हमारे मस्तिष्क में, जिनमें बिजली की धारा प्रवाहित की लगे, तब भी भीतर साक्षी रह जाना, देखना कि लोग फूल डाल रहे | | | जाए, तो बड़ा अप्रीतिकर लगता है। सिर्फ बिजली की धारा! तो हैं। जब मिले अपमान, जब बरसें गालियां, तब भी साक्षी रह जाना इलेक्ट्रोड, बिजली का तार डाल देते हैं खोपड़ी के भीतर, और जिस
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ॐ गीता दर्शन भाग-26
हिस्से से इंद्रियां प्रीतिकर अनुभव करती हैं, उससे जोड़ देते हैं। | न अब उसे चूहे पकड़ने में रस आता है; न अब उसे खाने में रस बाहर बटन दबा देते हैं, वहां बिजली की धारा उस केंद्र को आता है; न उसे अब बिल्लियों से प्रेम बसाने में रस आता है। अब संचालित करने लगती है। आदमी बड़ा मुग्ध हो जाता है-मुग्ध। तो वह उसी कमरे में बार-बार आ जाती है, जहां उसको बटन दिया दुखद हिस्से को पकड़ा देते हैं तार को, आदमी बड़ा दुखी हो जाता | गया था और जहां उसने बटन दबाया था। वह पागल हो गई है। है। आदमी ही नहीं जानवर भी!
अब उसकी स्मृति भारी है। अब उतना तीव्र रस उसको किसी बात अभी एक बिल्ली पर वे प्रयोग कर रहे थे। और उस बिल्ली को | में नहीं आता है। विक्षिप्त है। तार लगा दिया और उसके सामने बटन भी उसे सिखा दी दबानी। __ मैंने सुना है कि एक मनोवैज्ञानिक दो वर्षों से एक आदमी का भीतर सुखद जहां अनुभव होती है बिजली की दौड़, उसमें तार लगा | इलाज कर रहा है। फिर एक दिन हजारों रुपए के खर्च, इलाज और दिया और बिल्ली को बटन दबाना भी सिखा दिया। बहुत हैरान हो | चिकित्सा और मनोविश्लेषण के बाद उसने उस आदमी को कहा कि गए वे। बिल्ली ने चौबीस घंटे खाना-पीना-सोना सब बंद कर | अब आप बिलकुल ठीक हो गए। धन्यवाद दो परमात्मा को कि आप दिया। बस, वह बटन ही दबाती रही! उसने चौबीस घंटे में छ: | अब बिलकुल ठीक हो गए हैं। अब आपको कभी भी महान होने का हजार बार बटन दबाया। और मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि अगर | | जो पागलपन पहले पकड़ा था, वह अब कभी भी नहीं पकड़ेगा। उस हम उसे अलग न कर देते, तो वह मर जाती, लेकिन बटन दबाना | आदमी को पंडित जवाहरलाल नेहरू होने का भ्रम था। उस बंद न करती। खाने-पीने की फुर्सत न रही उसे!
मनोवैज्ञानिक ने कहा, अब तुम्हें इस तरह के ग्रॅडयोर, इस तरह के जब आपको किसी से प्रीतिकर संबंध मालूम पड़ता है, कोई | | महिमाशाली होने के पागलपन की बातें कभी नहीं पकड़ेंगी। प्रियजन, तो अगर आप मनोवैज्ञानिक से अब पूछे, तो वह कहेगा, उस बीमार ने कहा, धन्यवाद प्रभु का और धन्यवाद तुम्हारा। जब आप अपनी प्रेयसी से मिलते हैं या प्रेमी से मिलते हैं, तो | तुमने बड़ी मेहनत ली। बड़ी कृपा है तुम्हारी कि मैं ठीक हो गया। आपके भीतर उसके शरीर से वह बिजली प्रवाहित होने लगती है, | | क्या तुम्हारा फोन उपयोग कर सकता हूं? चिकित्सक ने पूछा, जो आपके विशेष केंद्रों को स्पर्श करती है। और कुछ नहीं होता। | किसको फोन करना है? उसने कहा, मैं जरा अपनी बेटी इंदिरा और आप उस बिल्ली से बहुत अच्छी हालत में नहीं हैं। और अगर गांधी को खबर दूं कि मैं ठीक हो गया है। चिकित्सक तो दंग! उसने बार-बार मन होता है कि प्रेयसी से मिलें, तो जो बिल्ली का तर्क | कहा, दो साल पर पानी फेर दिया तुमने! उस आदमी ने कहा, तुम्हें है, वही तर्क आपका है कि बार-बार बटन को दबाएं! | पता नहीं: कितना सखद है पंडित जवाहरलाल नेहरू होना। पागल
आज नहीं कल, जिस दिन यह पूरे शरीर का फिजियोलाजिकल | होना बेहतर! पंडित नेहरू होना छोड़ना बेहतर नहीं। मैं पागल रह और केमिकल, यह जो हमारी व्यवस्था है शारीरिक और | सकता हूं, इतना सुखद है! रासायनिक, इसका पूरा राज पता चल जाएगा, तो आप अपने खीसे जो हमारा सुख है, हम उसके पीछे सभी पागल हो जाते हैं। दुख में एक बटन रखकर दबाते रहना बैटरी को। उससे आपको सुखद | | भी हमें पागल करता है, क्योंकि उससे हम भागते रहते हैं। सुख भी और दुखद अनुभव होते रहेंगे।
पागल करता है, क्योंकि उसकी हम मांग करते रहते हैं। और जब इससे साफ होता है कि जिन लोगों ने आध्यात्मिक गहराइयों में | | चेतना इस तरह प्रीतिकर-अप्रीतिकर के बीच डांवाडोल होती रहती जाकर यह कहा कि वही आदमी वास्तविक आनंद को उपलब्ध | है, तो थिर कैसे होगी? ठहरेगी कैसे? खड़ी कैसे होगी? फिर तो होगा, जो ख और दुख दोनों के बीच थिर हो जाता है। वही उसकी हालत ऐसी होती है, जैसे दीया तुफान और आंधी में झोंके आदमी शरीर के इस रासायनिक, शारीरिक, वैद्युतिक प्रवाह के | लेता रहता है—कभी बाएं, कभी दाएं। कभी ठहर नहीं पाता। सुख-दुख के भ्रम के ऊपर उठ पाता है। तटस्थ हो जाने की जरूरत __ कृष्ण जिस आदमी की बात कर रहे हैं, वह उस आदमी की बात है। दोनों के बीच एक-सा हो जाने की जरूरत है।
है, जिसकी चेतना का दीया, जिसकी चेतना की ज्योति ठहर गई। वह बिल्ली पागल हो गई। चौबीस घंटे बाद उसका स्विच तो | | ऐसे, जैसे बंद कमरे में जहां हवा के कोई झोंके न आते हों। ठहर अलग कर दिया गया, इलेक्ट्रोड अलग कर दिया गया, लेकिन वह गई ज्योति, रुक गई। पागल हो गई। उस दिन से उसको फिर दुनिया में कोई रस न रहा। जिस दिन चेतना सम हो जाती है-न प्रीतिकर खींचता, न
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अकंप चेतना
अप्रीतिकर हटाता; न दुखद कहता कि हटो, न सुखद कहता है कि करेंगे। कांटे को निकालेंगे; मलहम-पट्टी करेंगे। लेकिन चेतना आओ और जब चेतना पर कोई भी बाहर के आंदोलन प्रभाव | इससे विचलित नहीं होती है। चेतना ठहरी ही रह जाती है! नहीं डालते हैं और चेतना बिलकल ठहरकर खडी हो जाती है. उस बद्ध या महावीर की मर्ति देखते हैं बैठी हुई। जैसे दी
ए की ज्योति खड़ी हुई चेतना में ही व्यक्ति सच्चिदानंद स्वरूप परमात्मा में थिर | | ठहरी हो। इसलिए बुद्ध और महावीर और सारे जगत के उन सारे होता है।
लोगों की, जिनकी चेतना ठहर गई, हमने पत्थर में मूर्तियां बनाईं। इसे ऐसा समझ लें, डोलती हुई चेतना, उसी तरह है, जैसे कभी अकारण नहीं! पत्थर में बनाने का कारण था। पत्थर जितना ठहरा आपके रेडिओ का कांटा ढीला हो गया हो। आप घुमाते हों उसे, हुआ है, इतनी और कोई चीज ठहरी हुई नहीं है। तूफान आते हैं; वह कोई स्टेशन पर टयून नहीं हो पाता हो; कहीं भी ठहर न पाता | जिस वृक्ष के नीचे मूर्ति रखी है बुद्ध की, वृक्ष हिल जाता है, कंप हो। हिलता हो, डुलता हो; दो-चार स्टेशन साथ-साथ पकड़ता जाता है। जड़ें कंप जाती हैं, पत्ते कंप जाते हैं, लेकिन मूर्ति है कि हो। कुछ भी समझ-बूझ न पड़ता हो कि क्या हो रहा है। ठहरी रहती है। वह जो उनके भीतर थिर हो गई थी चेतना, उस
चेतना जब तक डोलती है सुख और दुख के धक्कों में, झोंकों | | थिरता के समानांतर खोजने के लिए हमने पत्थर खोजा। वहां सब में, तब तक कभी भी टघूनिंग नहीं हो पाती परमात्मा से। जैसे ही | ठहरा हुआ है। खड़ी हो जाती है थिर, वैसे ही परमात्मा से संबंध जुड़ जाता है। । अप्रीतिकर, प्रीतिकर के बीच ऐसे जो ठहर जाता है, वह पुरुष
परमात्मा और व्यक्ति के बीच संबंध किसी भी क्षण हो सकता | सच्चिदानंद के साथ एकलीनता, एकलयता को उपलब्ध होता है। है, लेकिन व्यक्ति की चेतना के ठहरने की अनिवार्य शर्त है। परमात्मा तो सदा ठहरा हुआ है। हम भी ठहर जाएं, तो मिलन हो जाए। उस मिलन में ही सच्चिदानंद का अनुभव है। और इस मिलन | प्रश्नः भगवान श्री, इस श्लोक में कहा गया है कि के बाद कोई विरह नहीं है। सुख मिलेंगे, छूटेंगे। दुख मिलेंगे, प्रिय और अप्रिय अनुभवों में उद्वेगरहित, स्थिर बुद्धि छूटेंगे। परमात्मा मिला, तो फिर नहीं छूटता है। आनंद मिला, तो व संशयरहित ब्रह्मवेत्ता पुरुष परमात्मा में एकीभाव से फिर नहीं छूटता है।
नित्य स्थित है। इसमें एक शब्द है, संशयरहित। तो उसी की तलाश है सारे जीवन, उसी की खोज है। वह मिल प्रीतिकर और अप्रीतिकर अनुभवों में समता रखने जाए, जो मिलकर नहीं छूटता है। वह पा लिया जाए, जिसे पाने के | वाला पुरुष कैसे संशयरहित होता है, इस पर कुछ बाद कुछ पाने को शेष नहीं रहता है। उसी की जन्मों-जन्मों की यात्रा कहें। है। लेकिन हर बार चूक जाते हैं। वह डोलती हुई चेतना, थिर नहीं हो पाती। और वह थिर क्यों नहीं हो पाती? प्रीतिकर और अप्रीतिकर में हम भटकते रहते हैं।
- शय भी चेतना के कंपन का नाम है। संशय की बात इसलिए कृष्ण कहते हैं, जागो! प्रीतिकर, अप्रीतिकर दोनों के | रा भी कृष्ण ने कही-संशयरहित की जानकर। बीच खड़े हो जाओ, मौन।
चेतना दो तरह से कंपती है। या तो भाव के द्वार से, निश्चित ही कांटा चुभेगा, तो अप्रीतिकर लगेगा। कृष्ण को भी इमोशन के द्वार से; या बुद्धि के द्वार से, इंटलेक्ट के द्वार से। चेतना चुभेगा, तो भी लगेगा। फूल हाथ पर आएगा, तो अप्रीतिकर नहीं | | के दो द्वार हैं, भाव या विचार। पहली बात कृष्ण ने कही कि लगेगा। यह मत सोचना कि कृष्ण को हम कांटा गड़ाएंगे, तो खून | | प्रीतिकर और अप्रीतिकर के बीच थिर है जो। यह भाव के द्वार की नहीं बहेगा। कि कृष्ण को कांटा गड़ाएंगे, तो वे पत्थर हैं, उन्हें पता बात है। भावना में न कंपे कोई। प्रीतिकर हो या अप्रीतिकर, यह नहीं चलेगा। पता पूरा चलेगा। शरीर पूरी प्रतिक्रिया करेगा। शरीर हृदय की बात है। हृदय को प्रीतिकर लगता है, तो भी कंपन आ में पीड़ा होगी, चुभन होगी। शरीर खबर भेजेगा मस्तिष्क को कि | जाता; अप्रीतिकर लगता है, तो भी कंपन आ जाता। हृदय के द्वार कांटा चुभता है, खून बहता है। लेकिन चेतना डांवाडोल नहीं होगी। से थिर हो जाए। चेतना कहेगी, ठीक है। आते हैं; जो किया जा सकता है, वह दूसरी बात भी कही कि संशयरहित हो। संशय, बुद्धि का कंपन
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गीता दर्शन भाग-2
है। बुद्धि जब कंपती है, तो प्रीतिकर-अप्रीतिकर से नहीं कंपती।। खयाल था। अब मैं कोई खयाल न बनाऊंगा। बुद्ध ने कहा, ईश्वर बुद्धि जब कंपती है, तो ठीक या गलत, इससे कंपती है। हृदय | | के संबंध में कुछ भी न कहोगे? उसने कहा कि अगर मेरी आंखें कंपता है प्रीतिकर-अप्रीतिकर से। बुद्धि कंपती है, ठीक या गलत।। | कह सकें, तो कहें। अगर मेरे चलते हुए पैर कह सकें, तो कहें। ठीक में भी वह वैसा ही खड़ा रहे, गलत में भी वह वैसा ही खड़ा | | अगर मेरे हाथ कह सकें, तो कहें। अगर मेरा अस्तित्व कह सके, रहे। बुद्धि भी न कंपे, बुद्धि के द्वार से भी न कंपे।
तो कहे। मैं नहीं कहूंगा। और अगर ईश्वर है, तो पूरे प्राण, एक व्यक्ति आपसे कहता है, ईश्वर है? बुद्धि तत्काल कहती | श्वास-श्वास कहेगी। है, है। किसी की बुद्धि कहती है, नहीं है। कंप गई। कंप गई! __ आस्तिकता भी एक संशय है, एक कंपन–पक्ष में। नास्तिकता
आस्तिक भी कंप गया, जिसने कहा, है। नास्तिक भी कंप गया, | भी एक संशय है, एक कंपन-विपक्ष में। धार्मिकता अकंप है, जिसने कहा, नहीं है। आस्तिक प्रीतिकर ढंग से कंपा। नास्तिक | निष्कंप-न पक्ष, न विपक्ष। धार्मिकता आस्तिकता और अप्रीतिकर ढंग से कंपा। आस्तिक पक्ष में कंपा; नास्तिक विपक्ष में | | नास्तिकता दोनों का ट्रांसेंडेंस है, दोनों के पार चले जाना है। कंपा। लेकिन कंप गया।
और ध्यान रहे, नास्तिक को कोई कितना ही समझाकर आस्तिक कृष्ण उस धार्मिक की बात कर रहे हैं कि कोई कहता है, ईश्वर बना दे, बीमारी बदल जाती है, नास्तिक नहीं बदलता। आस्तिक है, और बुद्धि संशय में नहीं पड़ती। इतना भी संशय नहीं करती कि | | को कोई कितना समझाकर नास्तिक बना दे, बीमारी बदल जाती है, है या नहीं। अकंपित रह जाती है।
आस्तिक नहीं बदलता। बीमारी के बदल जाने से स्वास्थ्य नहीं परम आस्तिक का लक्षण तो यही है। परमात्मा के पक्ष में भी न | आता। कंपे, विपक्ष में भी न कंपे, वही व्यक्ति परमात्मा को उपलब्ध होता ___ पक्ष बीमारी है, निष्पक्षता स्वास्थ्य है। पक्ष बीमारी है, निष्पक्षता है। जरा कठिन है बात। अति कठिन है। परम आस्तिक, वस्तुतः स्वास्थ्य है। पक्ष यानी झुके, डोले, गए। कुछ चुन लिया। च्वाइस आस्तिक वही है, जो परमात्मा है, इतना भी आग्रह नहीं करेगा। | हो गई। चुनाव कर लिया। तटस्थ न रह सके। निष्पक्ष, यानी नहीं क्योंकि यह कंपन है। यह नहीं के विरोध में चले जाना है। यह | किया चुनाव, तटस्थ रहे। नास्तिक से उलटा होना है, आस्तिक होना नहीं है। आस्तिक इतनी | हृदय के लिए प्रीतिकर और अप्रीतिकर कंपाते हैं। बुद्धि के लिए . बड़ी घटना है कि नास्तिक को भी समा लेती है।
| विश्वास और अविश्वास कंपाते हैं। विश्वास और अविश्वास में बुद्ध के पास एक व्यक्ति आया और उसने कहा कि मैं ईश्वर को | भी जो निःसंशय खड़ा है। नहीं मानता हूं, शांत हो सकता हूं? बुद्ध ने कहा, ईश्वर को मान | | ध्यान रहे, आमतौर से लोग व्याख्या करते हैं निःसंशय की ही कैसे सकोगे बिना शांत हुए? उस आदमी ने कहा, ईश्वर को | विश्वासी के लिए, कि जो विश्वास करता है दृढ़ता से, वह आदमी नहीं मानता है, शांत हो सकता हूं? बुद्ध ने कहा, शांत हुए बिना | | संशयरहित है। मैं नहीं करता हूं। मैं कहता हूं, जो आदमी कहता है, ईश्वर को मान ही कैसे सकोगे? तो जो तुमसे कहता हो कि ईश्वर | | मैं दृढ़ता से विश्वास करता हूं, उसके भीतर संशय उतनी ही दृढ़ता को पहले मान लो, वह गलत कहता है। ईश्वर को मानकर कोई | | से मौजूद है। उस संशय को ही दबाने के लिए वह दृढ़ता का पत्थर दुनिया में शांत नहीं होता। क्योंकि जो शांत नहीं है, वह ईश्वर को | रख रहा है। जो आदमी कहता है, मैं पक्का विश्वास करता हूं; मान ही नहीं सकता है। तुम शांत हो जाओ। उसने कहा, ईश्वर को | | जानना कि वह डरा हुआ है अपने भीतर के अविश्वास से। उसको मानने की कोई भी जरूरत नहीं है? बुद्ध ने कहा, कोई भी जरूरत ही दबाने के लिए पक्के विश्वास की दीवाल खड़ी कर रहा है। जो नहीं है। तम शांत हो जाओ, शांत हो जाने की जरूरत है। | आदमी सच में विश्वास करता है, पक्का-कच्चा नहीं करता।
शांति की साधना में लग गया वह व्यक्ति। वर्ष बीता। बुद्ध ने | | जो आदमी आपसे कहे कि मैं पक्का प्रेम करता हूं, समझना कि उससे पूछा, शांत हुए? उसने कहा, पूरी तरह शांत हो गया हूं। बुद्ध | | प्रेम पक्का नहीं है। क्योंकि पक्के का खयाल ही कच्चे वाले को ने कहा, ईश्वर के संबंध में क्या खयाल है? उसने कहा, अब कोई | | आता है, नहीं तो पक्के की कोई बात ही नहीं है। जो प्रेम करता है, खयाल न बनाऊंगा। अब मैं जानता हूं कि ईश्वर है, यह भी अशांत | | वह तो शायद कह भी नहीं सकता कि मैं प्रेम करता हूं। इतना कहना लोगों का खयाल था; ईश्वर नहीं है, यह भी अशांत लोगों का | | भी उसे गलत मालूम पड़ेगा। अगर प्रेम ने खुद नहीं कह दिया है,
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अकंप चेतना
तो अब शब्दों से और क्या कहा जा सकता है! अगर प्रेम खुद भी नहीं कह पाया, अब शब्दों से और क्या कहा जा सकता है!
इस पृथ्वी पर जिन्होंने सच में प्रेम किया है, उन्होंने शायद कहा ही नहीं। क्या कहें? अगर प्रेम ही नहीं कह पा रहा है, तो अब और हम क्या कह सकेंगे?
नहीं लेकिन जो कहता है छाती ठोककर कि मैं पक्का विश्वास दिलाता हूं, प्रेम मेरा सच्चा और पक्का है; उसके भीतर अगर हम थोड़ा प्रवेश करें, तो कहीं कच्चा और झूठा छिपा हुआ मिल जाएगा। उसी को दबाने के लिए वह इंतजाम कर रहा है। यह सेफ्टी मेजर है।
जब एक आदमी कहता है कि मेरा विश्वास पक्का है, जितना अकड़कर कहे कि मेरा विश्वास पक्का है, उतना ही समझना कि वह खुद से डरा है। ये पक्के विश्वासी दूसरे की बात सुनने तक में डरेंगे। क्योंकि उनके भीतर छिपा हुआ डर है। वह कभी भी प्रकट हो सकता है। इसीलिए तो डाग्मेटिज्म पैदा होता है, मतांधता पैदा होती है। हर आदमी कहता है, मैं बिलकुल पक्का हूं। शक खुद ही 'है। जिसे शक नहीं है, वह निःसंशय है। जिसने शक को दबाया, उसने केवल संशय को दबाया है; वह निःसंशय नहीं है।
कृष्ण कहते हैं, संशयरहित! जिसके भीतर संशय ही नहीं है। बड़ी इनोसेंट अवस्था है संशयरहितता की । विश्वास की बहुत निष्कपट अवस्था नहीं है, पक्के इंतजाम की, कैलकुलेटेड है। हिसाब-किताब है वहां। डरे हुए हैं भीतर की नास्तिकता से, इसलिए आस्तिकता को पकड़े हुए हैं। इसी डर से कि कहीं कोई नास्तिक की बात सुनाई न पड़ जाए, तो कान बंद किए हुए हैं!
सुना है न आपने, एक आदमी घंटाकर्ण, जो कान में घंटे बांधे रखता था कि कहीं कोई विपरीत बात सुनाई न पड़ जाए ! वह घंटे अपने बजाता रहता कान के । न कान सुनेंगे, न सुनाई पड़ेगी। लेकिन बड़ा कमजोर आदमी रहा होगा। अगर विपरीत बात सुनने से इतना भय है, तो यह भय विपरीत बात से नहीं आता, अपने भीतर कहीं से आता है । कहीं छिपा है गहरे में।
संशयरहित कौन होगा? संशयरहित वही होगा, जो ठीक जैसे हृदय में प्रीति और अप्रीति के बीच तटस्थ होता है, ऐसे ही बुद्धि में विश्वास और अविश्वास के बीच तटस्थ होता है।
और इस दुनिया में हम किसी के विश्वास बदलवा नहीं सकते। बीमारी बदल सकते हैं। और अक्सर तो यह होता है कि बीमारी भी नहीं बदल पाते। कितना ही समझाओ, कोई किसी को इस दुनिया
में कनविन्स कर पाता है? नहीं कर पाता ।
समझाओ किसी को । जितना समझाओगे, वह उतना और मजबूत होता जाता है अपनी ही बात में। क्योंकि वह इतना इंतजाम और करता है कि यह आदमी हमला बोल रहा है। भीतर से उसको डर लगता है कि कहीं दीवाल कमजोर न पड़ जाए; वह और | ईंट-पत्थर जोड़कर बड़ी दीवाल खड़ी कर लेता है; इंतजाम कर लेता है। समझाने वाले अक्सर उस आदमी को उसके पक्ष में और | मजबूत कर जाते हैं। और कुछ नहीं करते। नास्तिक को समझाएं, तो नास्तिक और मजबूत नास्तिक हो जाता है। आस्तिक को समझाएं, तो आस्तिक और मजबूत आस्तिक हो जाता है । क्यों ? क्योंकि उसे लगता है, हमला हो रहा है, इंतजाम करो ।
मैंने सुना है कि एक आदमी का दिमाग खराब हुआ और खयाल |पैदा हो गया कि वह मर गया है। जिंदा था, खयाल पैदा हो गया कि मर गया है। घर के लोग परेशान हो गए। समझा-समझाकर हैरान हो गए कि तुम जिंदा हो। लेकिन वह कहे, मैं कैसे मानूं, जब मैं मर ही चुका हूं! कैसे समझाएं इस आदमी को कि यह आदमी जिंदा है ! लोग कहते कि हमें देखो, तुम्हारे सामने खड़े हैं। वह | कहता कि तुम सब भी मर गए हो। भूत-प्रेत हैं। हम सब भूत-प्रेत हो गए हैं। कोई जिंदा नहीं है, सब मर चुके हैं। लोग कहते, हम तुमसे बोल रहे हैं। वह कहता, मैं सुन रहा हूं। लेकिन सब भूत-प्रेत हैं। कोई जिंदा है नहीं ।
बड़े परेशान हो गए, तब उसको चिकित्सक के पास ले गए। चिकित्सक ने कहा, घबड़ाओ मत। हम कुछ इसे कनविन्स करने | का उपाय करते हैं। इसे समझाएंगे। उस आदमी से कहा, आईने के सामने खड़े हो जाओ। वह आदमी आईने के सामने खड़ा हो गया। और उससे कहा, तीन घंटे तक मंत्र की तरह एक ही बात कहते रहो, डेड मेन डू नाट ब्लीड । मरे हुए आदमियों के शरीर से खून | नहीं निकलता, तीन घंटे तक कहते रहो।
वह आदमी तीन घंटे तक कहता रहा, मरे हुए आदमी के शरीर से खून नहीं निकलता, डेड मेन डोंट ब्लीड । तीन घंटे के बाद चिकित्सक उसके पास गया, हाथ में चाकू मारा उस पागल के, खून बहने लगा । प्रसन्नता से हंसकर कहा कि देखो, इससे क्या सिद्ध होता है ? व्हाट इज़ प्रूव्ड बाई दिस? हाथ से खून निकल रहा है! | उस आदमी ने कहा कि दिस प्रूव्स दैट डेड मेन डू ब्लीड – इससे सिद्ध होता है कि मरे आदमी में से खून निकलता है। और क्या | सिद्ध होता है !
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गीता दर्शन भाग-28
सारे तर्क बेमानी हैं। सब तर्क विपरीत को, विरोध को और | डोलती रहती है। उसके सीधे, निष्कंप होते ही सच्चिदानंद परमात्मा मजबूत कर जाते हैं। सोचते हैं, उस डाक्टर की क्या हालत हुई | | के साथ तालमेल, हार्मनी, संगीत निर्मित हो जाता है। होगी! तीन घंटे की मेहनत एक वाक्य में उसने समाप्त कर दी!
दुनिया में कोई विवाद से कभी बात तय नहीं होती। क्यों नहीं | होती तय? कोई सत्य की खोज में नहीं है, पक्ष की खोज में है। और । बाह्यस्पशेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम् । जब पक्ष को कोई निर्मित करता है, तो वह सदा डरा रहता है, उसके | सब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते । । २१।।। भीतर विपरीत भी मौजूद रहता है। वह आपसे अपना बचाव कम | और बाहर के विषयों में आसक्तिरहित पुरुष अंतःकरण में करता है; अपने ही भीतर के एक्सप्लोजन, विस्फोट से बचाव जो भगवत्ध्यान जनित आनंद है, उसको प्राप्त होता है और करता है। तो वह इंतजाम मजबूत करता चला जाता है। आप दस वह पुरुष सच्चिदानंदघन परब्रह्म परमात्मा रूप योग में तरकीबें लाते हैं, दस दलीलें लाते हैं कि ईश्वर है। वह भी दस एकीभाव से स्थित हुआ अक्षय आनंद को अनुभव करता है। दलीलें लाता है कि नहीं है। आप दस दलीलें लाते हैं कि ईश्वर नहीं है, आस्तिक दस दलीलें लाता है कि है। इसीलिए तो पांच-दस हजार साल से दुनिया में विवाद चलता है। किसी का संशय मिटता ला ह्य विषयों में अनासक्त हुआ! वही बात एक दूसरे है विश्वास से, अविश्वास से? हिंदू से, मुसलमान से? ईसाई से? पा आयाम से पुनः कृष्ण कहते हैं। किसी का कोई संशय नहीं मिटता।।
कृष्ण जैसे व्यक्तियों की भी कठिनाइयां हैं। जो बात ___ कृष्ण का अर्थ बहुत दूसरा है। वे कहते हैं कि अगर संशय | एक बार कही जा सकती है, वह भी हजार बार कहनी पड़ती है। मिटाना है, तो तुम पक्ष-विपक्ष में मत पड़ो। तुम मौन, दोनों से दूर | फिर भी जरूरी नहीं है कि सुनने वाले ने सुनी हो। हजार बार कहकर खड़े हो जाओ। तुम कहो कि मुझे पता नहीं कि यह ठीक है या वह | | भी डर यही है कि नहीं सुनी जाएगी। ठीक है। मैं निष्पक्ष खड़ा हो जाता हूं।
बहुत-बहुत मार्गों से वे वही-वही, फिर-फिर अर्जुन से कहते हैं। निष्पक्ष खड़े होना ठीक है। दो के बीच एक को चुनना ठीक नहीं, | शायद एक आयाम से समझ में न आई हो, दूसरे आयाम से समझ तीसरे बिंदु पर निष्पक्ष खड़े हो जाना ठीक है, निःसंशय। तब फिर | में आ जाए। शायद हृदय के द्वार से खयाल में न आई हो, बुद्धि के कोई संशय नहीं होगा।
द्वार से खयाल में आ जाए। शायद हृदय और बुद्धि दोनों की बात संशय तभी होता है, जब कोई विश्वास होता है। यह भी बात | | गहरी पड़ गई हो, तो वस्तुओं के मार्ग से समझ में आ जाए। खयाल में ले लें। जिसने भी विश्वास को पकड़ा, उसको संदेह भी आब्जेक्टिव वर्ल्ड है हमारे चारों तरफ; वस्तुओं का जगत है। पकड़ेगा। अगर आपने पकड़ा कि ईश्वर है, तो पच्चीस तरह के | दो वस्तुओं के बीच जो अनासक्त है! वस्तुओं के बीच, जहां इंद्रियां संदेह उठेंगे, कैसा है ? क्यों है? कब से हुआ? अगर आपने कहा, | आकर्षित होकर टिकती हैं, आसक्ति के गेह बनाती हैं, घर बनाती नहीं है, तो पच्चीस तरह के संदेह पकड़ेंगे कि फिर यह जगत कैसे | हैं, वहां जो अनासक्त-भाव से जीता है, वह भी, वह भी वहीं पहुंच है? यह जीवन क्यों चल रहा है? आदमी क्यों मरता-जीता है? | | जाता है, सच्चिदानंद स्वरूप ब्रह्म में। सुखी-दुखी क्यों होता है ? पकड़ते चले जाएंगे। लेकिन अगर आप | | किसी भी द्वार से तटस्थ हो जाना सूत्र है। किसी भी व्यवस्था से कोई विश्वास, कोई अविश्वास न पकड़ें, तो आपको संशय पकड़ | च्वाइसलेस, चुनावरहित हो जाना मार्ग है। किसी भी ढंग, किसी सकता है ? संशय की कोई जगह न रही। संशय को टिकने के लिए | | भी विधि, किसी भी मार्ग से दो के बीच अकंप हो जाना सूत्र विश्वास या अविश्वास की खूटी चाहिए। दोनों न पकड़ें। कृष्ण | है-स्वर्ण सूत्र। कहते हैं, संशयरहित हो जाएंगे, निःसंशय हो जाएंगे।
वस्तुएं भी निरंतर बुला रही हैं। मन आसक्त कब होता है? प्रीतिकर-अप्रीतिकर से हृदय के द्वार पर तटस्थ हो जाएं; वस्तुओं को देखने से नहीं होता मन आसक्त। रास्ते से गुजरते हैं विश्वास-अविश्वास से बुद्धि के द्वार पर तटस्थ हो जाएं। ये दो आप, दुकान पर दिखाई पड़ा है कुछ; शो रूम में, शो केस में कुछ तरह की तटस्थताएं भीतर उस ज्योति को सीधा कर देंगी, जो | | दिखाई पड़ता है। दिखाई पड़ने से मन आसक्त नहीं होता। आंख
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ॐ अकंप चेतना
खबर दे देती है कि देखते हैं, शो रूम में हीरे का हार है! आंख का | और ध्यान रहे, एक क्षण को भी खबर बेकार चली जाए, तो खबर देना फर्ज है। आंख ठीक है, तो खबर देगी। जितनी ठीक है, | | फिर मिलन नहीं होगा। यह भी आप खयाल में ले लें। एक क्षण भी उतनी ठीक खबर देगी। आंख खबर दे देती है मस्तिष्क को। | चूक हो जाए, क्रासिंग न हो पाए; बाहर से शरीर खबर लाए, इंद्रियां मस्तिष्क भीतर मन को खबर दे देता है कि हार है। इतनी खबर से | कहें, सुंदर है हार; और उसी क्षण भीतर अगर आप जागे रहें और कहीं भी कोई आसक्ति नहीं हुई जा रही है।
| देखते रहें कि कोई वासना आकर इस इनफर्मेशन, इस सूचना से लेकिन मन ने कहा, है, सुंदर है-शुरू हुई यात्रा। अभी बहुत | | मेल नहीं करती, तो बस एक क्षण में विदा हो जाएगी। वह एक क्षण सूक्ष्म है। कहा, सुंदर है–यात्रा शुरू हुई। क्योंकि सुंदर जैसे ही | ही चूक जाता है, बेहोश...। मन कहता है, मन के किसी कोने में धुआं उठने लगता है पाने का। वह क्षण हम कैसे चूकते हैं? उसके चूकने की भी व्यवस्था है। जैसे ही कहा, सुंदर है, पाने की आकांक्षा ने निर्माण करना शुरू कर | जैसे ही हार दिखाई पड़ा कि हमारी पूरी अटेंशन, पूरा ध्यान हार पर दिया। अभी आप कहेंगे कि नहीं अभी तो सिर्फ एक एस्थेटिक चला जाता है। वह जो भीतर से वासना आती है, वह अंधेरे में जजमेंट हुआ, एक सौंदर्यगत निर्णय किया। इसमें क्या बात है! चुपचाप चली आती है। उसे कोई पहरेदार नहीं मिलता। कहा कि सुंदर है।
साधक के लिए इस प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। जब हीरे के नहीं; लेकिन बहुत गहरे में, सूक्ष्म में जैसे ही कहा, सुंदर हार की खबर दी आंखों ने, तब तत्काल आंख बंद करके ध्यान ले है-पहले हमें यही पता चलता है कि सुंदर है और फिर पता चलता। | जाएं भीतर, कि भीतर से कौन आ रहा है! बाहर से तो खबर आ है कि पाना है। लेकिन अगर स्थिति को ठीक से समझें, तो पहले | गई; अब भीतर से कौन आ रहा है! ध्यान को ले जाएं भीतर। देखें, मन के गहरे में इच्छा आ आती है, पाना है; और तब बुद्धि कहती | कोई वृत्ति सरकती है? कोई मांग, कोई इच्छा पैदा होती है? भीतर है, सुंदर है। ऊपर से देखने पर पहले तो हमें यही पता चलता है। पहुंच जाएं। कि सुंदर है। फिर पीछे से छाया की तरह सरकती हुई कोई वासना | और बड़े मजे की बात है। बुद्ध ने कहा है कि जैसे किसी घर पर आती है और कहती है, पाओ! लेकिन आध्यात्मिक जितने खोजी | | पहरेदार न हो, तो चोर घुस जाते हैं, ऐसे ही जिस आत्मा के द्वार हैं, वे कहते हैं कि पहले तो मन के गहरे में वासना सरक जाती है | पर ध्यान न हो, तो वृत्तियां घुस जाती हैं। जिस घर के द्वार पर और कहती है, पाओ। उस खबर को सुनकर भीतर से मन कहता |
| पहरेदार न हो, तो चोर घुस जाते हैं! ध्यान पहरेदार है, अटेंशन। है, सुंदर है।
तो कृष्ण कहते हैं, वस्तुओं में अनासक्त! इसमें दो तरह समझ लें। मन को दो तरह की खबरें मिलती हैं। वस्तुओं में अनासक्त वही होगा, जो वृत्तियों के प्रति जागरूक मन बीच में खड़ा है। बाहर शरीर है; भीतर आत्मा है। शरीर खबर | है, जो वासना के प्रति होशपूर्वक है, जागा हुआ है। जो देखता है देता है, हीरे का हार है सुंदर। शरीर खबर देता है, विषय की, वस्तु | कि ठीक; आंख ने खबर दी कि हार सुंदर है। अब भीतर से क्या की। आत्मा के भीतर से खबर आती है, वासना की, वृत्ति की, चाह आता है, उसे देखता है। और अगर कोई व्यक्ति जागकर वृत्तियों की–पाना है। दोनों का मिलन होता है मन पर, और आसक्ति | को देखने लगे, तो इंद्रियां खबर देती हैं, लेकिन वृत्तियों को उठने निर्मित होती है।
का मौका नहीं मिल पाता। एक क्षण की चूक-चूक हो गई। तब अनासक्ति का अर्थ है, बाहर से तो खबर आए-आनी ही तक सूचना खो गई, और आपका होश आपकी शक्ति को बचा चाहिए, नहीं तो जीना असंभव हो जाएगा। अगर आंखें ठीक से न गया। आसक्ति निर्मित नहीं हुई। देखेंगी, कान ठीक से न सुनेंगे, हाथ ठीक से स्पर्श न करेंगे, तो - वृत्ति और इंद्रिय की सूचना के मिलन से आसक्ति निर्मित होती जीना कठिन हो जाएगा। अस्वस्थ होगी वैसी देह। देह स्वस्थ होगी, | | है। इन दोनों का सेतु बन जाए, तो आसक्ति निर्मित होती है। इनका तो खबर पूरी होगी। लेकिन भीतर से कोई वासना आकर मन के | | सेतु न बन पाए, तो अनासक्ति निर्मित हो जाती है। दरवाजे पर मिलेगी नहीं। बाहर से खबर आएगी। समझी जाएगी। - वस्तुओं में जो अनासक्त है! वस्तुओं के बीच जो होशपूर्वक सुनी जाएगी। आगे बढ़ जाया जाएगा। भीतर से कोई आया नहीं चल रहा है! मिलने को; खबर बेकार चली गई।
चारों तरफ हजार-हजार आकर्षण हैं। इंद्रियों पर लाखों आघात
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गीता दर्शन भाग-20
पड़ रहे हैं रोज। कहीं से आवाज कान में आती। कहीं से आंख में | नान-वालंटरी है, स्वेच्छा के बाहर चलती है। रोशनी आती। कहीं से स्पर्श हाथ को मिलता। कहीं से गंध मिलती। | जैसे खून बह रहा है आपके शरीर में; आपकी स्वेच्छा का कोई कहीं से स्वाद का स्मरण आता। कहीं से कुछ, कहीं से कुछ। | | हिस्सा नहीं है। आपको पता ही नहीं चलता; खून बहता रहता है।
चारों तरफ से अनंत-अनंत आघात पड़ रहे हैं आपके ऊपर। | तीन सौ साल पहले तक तो यह भी पता नहीं था कि शरीर में खून और आपकी वृत्तियां हैं कि तत्काल हर आघात को पकड़ लेती हैं। बहता है। लोग समझते थे, भरा हुआ है; बहता नहीं है! बहने का फिर वासना का और आसक्ति का गहन जाल निर्मित हो जाता है। कोई पता ही नहीं चलता। आपको पता चलता है कि खून बह रहा फिर एक कारागृह बन जाता है भीतर, जिसमें आप बंद होकर जीते है शरीर में? बड़ी गति से बह रहा है! गंगा बहुत धीमी बह रही है। हैं। फिर जिंदगी दुख बन जाती है—मांग, मांग; भीख, भीख! यह जब तक मैंने आपसे यह बात की, आपके पैर में जो खून था, वह चाहिए, यह चाहिए, यह चाहिए! और सब मिल जाए, फिर भी सिर में आ गया। तेजी से बह रहा है। सतत गति है खून की। कुछ मिलता हुआ मालूम नहीं पड़ता। क्योंकि जब तक एक चीज परिभ्रमण चल रहा है। उसी परिभ्रमण से वह स्वच्छ है, ताजा है। मिल पाती है, तब तक वासना ने नए बीज बो लिए होते हैं और तब यह खून आपकी स्वेच्छा के बाहर है। आपकी इच्छा नहीं चल तक आसक्ति ने नए मार्ग बना लिए होते हैं। इधर मिल नहीं पाता, सकती इसमें, वालंटरी नहीं है। लेकिन योग कहता है कि अगर तब तक आप न मालूम और कितने बीज बो चुके! | थोड़े प्रयोग किए जाएं, तो यह भी स्वेच्छा के भीतर आ जाता है।
फिर यह पूरी जिंदगी वृत्तियों के बीच, जैसे कि पानी की लहरों पर और योग ने इस तरह के प्रयोग करके सारे जगत में दिखा दिए हैं। कोई कागज की नाव पड़ी हो, ऐसी हो जाती है। कागज की नाव | | नाड़ी की गति कम-ज्यादा हो जाती है स्वेच्छा से, थोड़े अभ्यास से। सागर की लहरों पर! हर लहर धकाती है, हर लहर डुबाती है, धक्के | | आप भी थोड़ा प्रयोग करेंगे, तो सफल हो सकते हैं। बहुत कठिन
और धक्के। फिर पूरा जीवन वृत्तियों की लहरों पर धक्के खाने में | | नहीं है। बीतता है। रोज करो पूरी आसक्ति, और नई आसक्ति निर्मित होती कभी नाड़ी अपनी नाप लें। पाया कि सौ चल रही है एक मिनट चली जाती है। जीवन एक दुख-स्वप्न से ज्यादा नहीं है। में। तब पांच मिनट बैठकर संकल्प करें कि अब एक सौ पांच चले।
इसलिए कृष्ण कहते हैं कि अगर आनंद की यात्रा करनी हो, पांच मिनट बाद फिर से नापें। और आप पाएंगे कि अब एक सौ. अगर उस आनंद को पाना हो, जिसे हम प्रभु कहते, परमात्मा पांच नहीं, तो एक सौ तीन तो चलने ही लगी। दो-चार-दस दिन कहते, तो वृत्तियों को ठहराना, जगाना, चेतना को होश से भरना, | में एक सौ पांच चलने लगेगी। फिर कम भी कर सकते हैं। तब वस्तुओं में आकर्षित मत होना, आसक्त मत बनना। | थोड़ी-सी स्वेच्छा के भीतर आ गई। आपने संकल्प का थोड़ा
कैसे टूटेगी लेकिन यह आसक्ति? एक तो मैंने आपसे कहा कि विस्तार किया। जब भी आसक्ति निर्मित हो...।
कुछ चीजें हमारी स्वेच्छा से चलती हैं। यह मेरा हाथ है; ऊपर ध्यान रहे, मन के जगत के लिए एक परम सूत्र आपसे कहता उठाता हूं, नीचे गिराता हूं। मेरी इच्छा से उठता है। न उठाऊं, तो नहीं हं, एक अल्टिमेट फार्मूला, और वह यह है कि मन के जगत में उठता है। अब एक नई बात खोज में आई है और वह यह कि कोई किसी चीज को मिटाना बहुत कठिन है, बनने न देना बहुत सरल भी वृत्ति जो स्वेच्छा से उठाई जाती है, एक सीमा के बाद है। मिटाना बहुत कठिन है, बनने न देना बहुत सरल है। | नान-वालंटरी हो जाती है। एक सीमा तक स्वेच्छा के भीतर होती है। .. अभी मनोवैज्ञानिक और फिजियोलाजिस्ट, शरीरशास्त्री भी एक समझें, जैसे एक व्यक्ति को कामवासना भर गई। तो कामवासना नियम पर पहुंच गए, जो कि योग की तो बहुत पुरानी खोज है, | | एक सीमा तक स्वेच्छा के भीतर होती है। अगर आप इस स्वेच्छा लेकिन अभी शरीरशास्त्रियों को पहली दफा खयाल में आया। वह | की सीमा के भीतर जाग गए, तो आप कामवासना को शिथिल भी मैं आपसे कहना चाहता हूं। वह यह खयाल में उनको आना | करके वापस सुला देंगे। लेकिन एक सीमा के बाद वह स्वेच्छा के शुरू हुआ, खासकर रूस में पावलव को यह खयाल में आया कि | बाहर चली जाती है। और जो नान-वालंटरी मैकेनिज्म है शरीर का, शरीर में दो तरह के यंत्र एक साथ काम कर रहे हैं। एक तो यंत्र है | | वह पकड़ लेता है। जब नान-वालंटरी मैकेनिज्म पकड लेता है. वालंटरी, स्वेच्छा से चलता है। एक ऐसी यांत्रिक व्यवस्था है, जो जब स्वेच्छा के बाहर का यंत्र पकड़ लेता है, तो फिर आपके हाथ
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अकंप चेतना
के बाहर हो गई बात। अब आप नहीं रोक सकते। अब बात बाहर | सके, तो भी वहीं पहुंच जाएगा। चली गई।
एक अदभुत ग्रंथ है भारत में। और मैं समझता हूं, उस ग्रंथ से जब आपको क्रोध उठता है, जब उसकी पहली झलक भीतर | | अदभुत ग्रंथ पृथ्वी पर दूसरा नहीं है। उस ग्रंथ का नाम है, विज्ञान आनी शुरू होती है कि उठा; अभी वह स्वेच्छा के भीतर है। लेकिन | | भैरव। छोटी-सी किताब है। इससे छोटी किताब भी दुनिया में जब खून में एड्रिनल तत्व छूट गया और खून में जहर पहुंच गया | | खोजनी मुश्किल है। कुल एक सौ बारह सूत्र हैं। हर सूत्र में एक ही
और खून ने क्रोध को पकड़ लिया, फिर आपके हाथ के बाहर हो बात है। हर सत्र में एक ही बात। पहले सत्र में जो बात कह दी है. गया। लेकिन पहले, जब आप में क्रोध उठता है, तो थोड़ी देर तक | | वही एक सौ बारह बार दोहराई गई है—एक ही बात! और हर दो एड्रिनल ग्रंथियां, जिनमें जहर भरा हुआ है आपके शरीर में, प्रतीक्षा | सूत्र में एक विधि पूरी हो जाती है। करती हैं कि शायद यह आदमी अभी भी रुक जाए। शायद रुक । पार्वती पूछ रही है शंकर से, शांत कैसे हो जाऊं? आनंद को जाए। आप नहीं रुकते, बढ़ते चले जाते हैं। फिर मजबूरी में जहर | | कैसे उपलब्ध हो जाऊं? अमृत कैसे मिलेगा? और दो-दो पंक्तियों की ग्रंथियों को जहर छोड़ देना पड़ता है। जहर के छूटते ही अब | | में शंकर उत्तर देते हैं। दो पंक्तियों में वे कहते हैं, बाहर जाती है आपके हाथ के बाहर हो गया।
| श्वास, भीतर आती है श्वास। दोनों के बीच में ठहर जा; अमृत को ठीक वैसे ही कामवासना में भी वीर्य की ग्रंथियां एक सीमा तक उपलब्ध हो जाएगी। एक सूत्र पूरा हुआ। बाहर जाती है श्वास, प्रतीक्षा करती हैं कि शायद यह आदमी रुक जाए। एक सीमा के भीतर आती है श्वास; दोनों के बीच ठहरकर देख ले, अमृत को बाद जब देखती हैं कि यह आदमी रुकने वाला नहीं है, तो वीर्य की उपलब्ध हो जाएगी। ग्रंथियां वीर्य को छोड़ देती हैं। फिर स्वेच्छा के बाहर हो गया। | पार्वती कहती है, समझ में नहीं आया। कुछ और कहें। और - शरीर की सारी व्यवस्था, मन की सारी व्यवस्था एक सीमा के | शंकर दो-दो सूत्र में कहते चले जाते हैं। हर बार पार्वती कहती है, बाद स्वेच्छा के बाहर हो जाती है। तो अगर आपको अनासक्त होना | नहीं समझ में आया। कुछ और कहें। फिर दो पंक्तियां। और हर हो, तो जब स्वेच्छा के भीतर चल रहा है काम, तभी जाग जाना | | पंक्ति का एक ही मतलब है, दो के बीच ठहर जा। हर पंक्ति का जरूरी है। जब स्वेच्छा के बाहर चला गया, तब जागने से पछतावे | एक ही अर्थ है, दो के बीच ठहर जा। बाहर जाती श्वास, अंदर के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है, प्रायश्चित्त के अतिरिक्त और | जाती श्वास। जन्म और मृत्यु; यह रहा जन्म, यह रही मौत; दोनों कुछ भी नहीं है।
के बीच ठहर जा। पार्वती कहती है, समझ में कुछ आता नहीं। कुछ इसलिए जितने जल्दी हो सके, जैसे ही आपको लगे कि कोई| | और कहें। चीज सुंदर मालूम पड़ी कि फौरन भीतर जाएं और देखें कि वासना एक सौ बारह बार! पर एक ही बात, दो विरोधों के बीच में और वृत्तियां उठ रही हैं। यही मौका है। जरा-सी चूक, और वृत्तियां | | ठहर जा। प्रीतिकर-अप्रीतिकर, ठहर जा-अमृत की उपलब्धि। आसक्ति को निर्मित कर लेंगी।
पक्ष-विपक्ष, ठहर जा-अमृत की उपलब्धि। आसक्ति-विरक्ति, निर्मित आसक्ति को विघटित करना बहुत कठिन है, अनिर्मित | | ठहर जा-अमृत की उपलब्धि। दो के बीच, दो विपरीत के बीच जो आसक्ति को बनने देने से रोकना बहुत सरल है। जब तक नहीं बनी | ठहर जाए, वह गोल्डन मीन, स्वर्ण सेतु को उपलब्ध हो जाता है। है, अगर जाग गए, तो नहीं बनेगी। बन गई, जाग भी गए, तो बहुत | यह तीसरा सूत्र भी वही है। और आप भी अपने-अपने सूत्र कठिनाई हो जाएगी। बहुत कांप्लेक्स, बहुत जटिल हो जाएगी। | खोज सकते हैं, कोई कठिनाई नहीं है। एक ही नियम है कि दो और यह हमेशा बेहतर है, प्रिवेंशन इज़ बेटर दैन क्योर। अच्छा है, | विपरीत के बीच ठहर जाना, तटस्थ हो जाना। सम्मान-अपमान, रोक लें पहले, बजाय पीछे चिकित्सा करनी पड़े। अच्छा है, बीमारी | ठहर जाओ-मुक्ति। दुख-सुख, रुक जाओ-प्रभु में प्रवेश। पकड़े, उसके पहले सम्हल जाएं; बजाय इसके कि बीमारी पकड़ मित्र-शत्रु, ठहर जाओ-सच्चिदानंद में गति। जाए और फिर बिस्तर पर लगे और चिकित्सा हो।
कहीं से भी दो विपरीत को खोज लेना और दो के बीच में तटस्थ __ आसक्ति के निर्मित होने के पहले ही जाग जाना जरूरी है। कृष्ण | हो जाना। न इस तरफ झुकना, न उस तरफ। समस्त योग का सार तीसरी बात कहते हैं कि अर्जुन, अगर वस्तुओं में तू अनासक्त रह | | इतना ही है, दो के बीच में जो ठहर जाता, वह जो दो के बाहर है,
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गीता दर्शन भाग-20
उसको उपलब्ध हो जाता है। द्वैत में जो तटस्थ हो जाता, अद्वैत में | आकर होगा। दूर के निर्णय अंतिम नहीं माने जा सकते। गति कर जाता है। द्वैत में ठहरी हुई चेतना अद्वैत में प्रतिष्ठित हो | सुख जब तक नहीं मिलता, तब तक तो सुख मालूम पड़ता है। जाती है। द्वैत में भटकती चेतना, अद्वैत से च्युत हो जाती है। बस, लेकिन मिलते से किसे मालूम पड़ता है! हाथ में आने पर किसे इतना ही।
मालूम पड़ता है! हाथ में आने पर अचानक लगता है कि खो गया। लेकिन मजबूरी है-चाहे शिव की हो, और चाहे कृष्ण की हो, निश्चित ही, पास का निर्णय ही अंतिम निर्णय है। या किसी और की हो—वही बात फिर-फिर कहनी पड़ती है। आपने भी अपनी जिंदगी में बहुत सुख पाए होंगे, लेकिन पाकर फिर-फिर कहनी पड़ती है। कहनी पड़ती है इसलिए, इस आशा में | किस सुख को सुख पाया! पा भी नहीं पाते कि दूसरे सुख की कि शायद इस मार्ग से खयाल में न आया हो, किसी और मार्ग से तलाश शुरू कर देते हैं। क्यों कर देते हैं? अगर सुख मिल गया, खयाल आ जाए।
तो अब ठहरकर उसे भोग लो! सुख तो मिलता नहीं; ठहरकर भोगें एक सूत्र और।
क्या? फिर दिखाई पड़ता है, कल, भविष्य में; फिर दौड़ते हैं। वहां पहुंचते नहीं कि पाते हैं कि वहां भी खो गया!
सुख जब हाथ में आता है, तब निर्णायक रूप से तय होता है कि ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते। | सुख नहीं है। और जब तक दूर रहता है, तब तक निश्चित मालूम आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः ।। २२ ।।। | पड़ता है कि सुख है। इंद्रधनुष जैसा है। दिखाई पड़ता है; लेकिन और जो ये इंद्रिय तथा विषयों के संयोग से उत्पन्न होने वाले | | इंद्रधनुष के पास मत जाना। वह रेनबो वर्षा में बन जाता है आकाश सब भोग है, वे यद्यपि विषयों पुरुषों को सुखरूप भासते हैं, | में। कितना सुंदर! मन होता है कि बांधकर घर के बैठकखाने में तो मी निस्संदेह दुख के ही हेतु है, और आदि-अंत वाले | लगा लें। जाना मत। वहां जाकर कुछ भी नहीं मिलेगा। अर्थात अनित्य है। इसलिए हे अर्जुन! बुद्धिमान विवेकी अगर पहुंच गए इंद्रधनुष के पास-पास भी न पहुंच सकेंगे, पुरुष उनमें नहीं रमता।
| क्योंकि जैसे-जैसे पास पहुंचेंगे, वह खोने लगेगा-जब पास पहुंचेंगे, तो सिवाय भाप के बादलों के और उनमें से गुजरती सूरज
की किरणों के वहां कुछ भी नहीं मिलेगा। कोई रंग नहीं, कोई रूप यों और वासनाओं के मेल से प्रतीत होने वाले सुख नहीं, कोई आकार नहीं। लेकिन कितना प्यारा लगता है इंद्रधनुष दूर र अंततः दुख ही हैं। और शुरू होते हैं और समाप्त होते | से! कितना काव्य की तरह आकाश में खिंचा हुआ! कैसा मन
हैं; शाश्वत नहीं हैं, सनातन नहीं हैं; सदा साथ रहने करता है कि बांध लो घर में! वाले नहीं हैं। क्षणिक हैं। ऐसा जान लेने वाला पुरुष उनसे मुक्त ध्यान रहे, जहां-जहां इंद्रधनुष दिखाई पड़ते हैं सुख के, होने लगता है।
| वहां-वहां यही हालत है। जब पास जाएंगे, तो सिर्फ धुआं ही हाथ दो बातें हैं। एक, जो हमें सुख जैसा भासता है, वह सुख नहीं | में लगता है। कुछ भी हाथ में नहीं मिलता! है। भासता है निश्चित। है नहीं; उससे भी ज्यादा निश्चित। कृष्ण कहते हैं, सुख प्रतीत होता है, सुख है नहीं। ऐसा जो समझ एपियरेंस, भासना किसी चीज का, तब तक पक्का पता नहीं | | लेगा ठीक से, स्वभावतः उसकी वासना उठकर, इंद्रियों से मिलकर चलता, जब तक उसके पास न जाएं। अंधेरी है रात, दूर से देखता आसक्ति बनना बंद कर देगी। हूं, दिखाई पड़ता है कि शायद कोई आदमी खड़ा है। और पास | । दूसरी बात वे कहते हैं, यह भी स्मरण रख अर्जुन, कि यह भी
आता हूं, तो लगता है, नहीं, आदमी नहीं है; शायद लकड़ी का | सुख जो कि दिखाई पड़ता है, न होने की हालत में है। अगर कोई कोई डंडा पोता हुआ है! और पास आता हूं, तो लगता है, नहीं, | | इस भ्रम में भी पड़ता हो कि नहीं, है। जैसा कि अज्ञानी को लगता लकड़ी का कोई डंडा नहीं, वृक्ष से कोई कपड़ा लटकता है। | है कि है। वह कहेगा कि कितना ही समझाओ कि नहीं है, लेकिन जैसे-जैसे पास आता हूं, वैसे-वैसे जो दूर से जाना था, वह मैं कैसे मानूं! मैं कैसे मानूं कि उस बड़े महल में पहुंच जाऊंगा, तो बदलता है। अंतिम निर्णय तो वही होगा, जो ठेठ बिलकुल पास | सुख नहीं होगा? यद्यपि वह कभी नहीं पूछता उस बड़े महल में रहने
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अकंप चेतना 0
वाले से कि अगर बड़े महल में रहने वाले को सुख मिल गया है, | | बाप से बहुत प्रेम था। उसने कहा, मैं तो ठीक, लेकिन पिता बुजुर्ग तो अब वह किसके लिए दौड़ रहा है? अब उसे सुख ले लेना | हुए। उनकी मौत करीब है। मैं तो अभी इसके बिना भी बहुत दिन चाहिए। वह दौड़ रहा है; वह भागा हुआ है। उसे बड़े महल का | | जी लूंगा। उसने पिता को दे दिया। लेकिन पिता फकीर का भक्त पता ही नहीं है। बड़ा महल उन्हीं को दिखाई पड़ता है, जो झोपड़ों | था; उसी फकीर का। उसने सोचा कि हमारे रहने न रहने का क्या में हैं। जो बड़े महल में हैं, उनको दिखाई ही नहीं पड़ता। उनके लिए सवाल! वह फकीर रहे जमीन पर, तो हजारों के काम आएगा। वह
और बड़े महल हैं! वे दिखाई पड़ते हैं, जिनमें वे नहीं हैं। जहां वे | जाकर फकीर के चरणों में फल रखा। फकीर ने फल देखा। उसने नहीं हैं।
कहा, यह फल आया कैसे तुम्हारे पास! मन की आदत ऐसी है कि अगर आपका एक दांत टूट जाए, तो | | सब कहीं और जी रहे हैं। सब कहीं और! कोई वहां नहीं जी रहा जीभ वहीं-वहीं जाती है. जहां दांत टट गया है। बाकी दांतों को छोड | है, जहां है। कहीं और! सब दौड़ रहे हैं किसी और के लिए। सब देती है, जो हैं; और जो नहीं है, उसके साथ बड़ा लगाव बना लेती | | भागे हुए हैं; कोई खड़ा हुआ नहीं है। यह जो भागा हुआ पन है...। है। पता नहीं क्या दिमाग खराब हो जाता है जीभ का! और एक ___ अगर कृष्ण कहते हैं कि अज्ञानी ऐसा भी कहते हों कि नहीं, हमें दफे देख लिया कि नहीं है, अब दुबारा क्या देखना? लेकिन जीभ | | मिला नहीं, हम कैसे मान लें! हो सकता है, अर्जुन मान ले; सब है कि देखे चली जाती है। उन दांतों को कभी नहीं देखती, जो हैं। सुख उसने जाने हैं। आप शायद न मानें; बहुत सुख नहीं जाने हैं। जो नहीं है, अभाव, एब्सेंस का जो गड्डा बन जाता है, उसी में जीभ | | क्या पता हमें, जो सुख हमें मिले नहीं, वे हैं या नहीं? जाती है। मन भी जहां-जहां अभाव है, वहीं जाता है।
तो कृष्ण दूसरा सूत्र उनके लिए कहते हैं, जो मान न पाएं। महल जिसके पास है, उसको महल नहीं दिखाई पड़ता। उसकी | | जिन्होंने सुख न देखे हों, उनके लिए वे कहते हैं कि अगर सुख हों जीभ महल पर नहीं जाती। उसके लिए कहीं कोई और चीज है, जो | भी-हाइपोथेटिकली, बातचीत के लिए मान लें कि सुख है नहीं है। उसकी जीभ वहां चली जाती है।
| भी-तो भी सुख शुरू होता और समाप्त हो जाता है। — मैंने सुनी है एक इजिप्शियन कहानी। मैंने सुना है कि एक और ध्यान रहे, जो सुख शुरू होता है और समाप्त हो जाता है, इजिप्शियन फकीर से परमात्मा प्रसन्न हो गया। बहुत प्रसन्न हो गया, वह अगर हो भी, तो परिणाम में सिवाय दुख के कुछ भी नहीं छोड़ तो उस फकीर को कहा कि तुझे जो चाहिए वह मांग ले। उसने कहा | जाएगा। क्योंकि सुख के बाद दुख की छाया हो जाएगी। ऐसे ही कि आपकी जो मर्जी हो! तो परमात्मा ने, कहते हैं, उसे एक फल जैसे कभी रास्ते से गुजर रहे हों, अंधेरी रात हो, और जोर से कोई दे दिया और कहा कि इसे जो खा लेगा, वह अमर हो जाएगा। कार आपकी आंखों में प्रकाश डालती हुई गुजर जाए। पीछे और लेकिन उस फकीर ने कहा कि दो आदमी खाएं, तो दो हो सकते | घनघोर अंधेरा हो जाता है। पहले कुछ दिखाई भी पड़ता था, अब हैं? परमात्मा ने कहा, नहीं, एक!
वह भी दिखाई नहीं पड़ता। उस फकीर का अपने शिष्य से बड़ा प्रेम था। उसने सोचा कि | सुख मिले भी, तो समाप्त होता है क्षण में। यह भी कृष्ण उनके अगर मैं अमर हो गया और शिष्य मर गया, कोई सार नहीं है। | लिए कह रहे हैं, जो नहीं जानते। जो जानते हैं, वे तो कहते हैं, एक उसके बिना तो मेरा कोई सुख ही नहीं है। उसने शिष्य को कहा कि क्षण को भी नहीं मिलता। लेकिन अज्ञानी के लिए इतना छोड़ते हैं तू यह ले ले। तू अमर हो जा। पर उस शिष्य का एक लड़की से | कि शायद क्षणभर को मिले भी, तो शुरू हुआ कि समाप्त हुआ। प्रेम था। उसने सोचा, मैं अकेला अमर हो गया, तो बिलकुल | इधर शुरू नहीं हुआ कि उधर समाप्त होना शुरू हो जाता है। इधर बेकार! वह उस लड़की को दे आया। पर उस लड़की का गांव के जन्मा नहीं कि उधर मरा। इधर लहर बनी नहीं कि बिखरी। इधर एक सिपाही से प्रेम था। उसने कहा कि मैं अमर हो गई! वह उस | | किरण उतरी नहीं कि खोई। आता भी नहीं है हाथ में कि जाने की सिपाही को दे आई। लेकिन उस सिपाही का लगाव राजा की स्त्री तैयारी करके आता है। ऐसा सुख मिल भी जाए यदि, तो पीछे से लगा हुआ था। वह रात जाकर उसको दे आया। उस स्त्री ने सिवाय दुख के घाव के कुछ भी नहीं छोड़ जाता है। ऐसा भी जो सोचा कि मैं अगर खाकर अमर हो जाऊं, तो मेरे बेटे का क्या | जान ले, वह भी विषयों, वृत्तियों के तालमेल को निर्मित नहीं होने होगा? उसका भारी लगाव, उसने बेटे को दे दिया। बेटे का अपने | | देता। अनासक्त, वीतराग, स्वयं में ठहरा हुआ हो जाता है। और
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गीता दर्शन भाग-29
चेतना जहां ठहर जाती है अर्जुन, कृष्ण कहते हैं, वहीं परम सत्ता में प्रवेश कर जाती है।
आज इतना ही। बैठे रहेंगे। उठेगा कोई भी नहीं। पांच मिनट कीर्तन को पी जाएं, फिर चुपचाप चले जाएं।
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अध्याय 5 दसवां प्रवचन
काम से राम तक
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गीता दर्शन भाग-20
शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात्। हम फ्रायड से पूछे, तो वह कहेगा, काम ही मनुष्य का सब कुछ कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः ।। २३ ।। है, उसकी आत्मा है। और जहां तक साधारण मनुष्य का संबंध है, जो मनुष्य शरीर के नाश होने से पहले ही काम और क्रोध फ्रायड बिलकुल ही ठीक कहता है। धन भी कमाते हैं इसलिए कि से उत्पन्न हुए वेग को सहन करने में समर्थ है, अर्थात काम खरीदा जा सके। यश भी पाते हैं इसलिए कि काम खरीदा जा काम-क्रोध को जिसने सदा के लिए जीत लिया है, वह सके। चौबीस घंटे दौड़ हमारी, गहरे में अगर खोजें, तो किसी से मनुष्य इस लोक में योगी है और वहीं सुखी है। सुख पाने की दौड़ है।
सुना है मैंने कि फ्रेंक वू करके एक मनोचिकित्सक के पास एक
| आदमी आया है। अति क्रोध से पीड़ित है। क्रोध ही बीमारी है जीवन में काम और क्रोध के वेग को जिस पुरुष ने जीत उसकी। क्रोध ने ही उसे जला डाला है भीतर। क्रोध ने उसे सुखा UII लिया, वह इस लोक में योगी है, परलोक में मुक्त है, | | दिया है। उसके सारे रस-स्रोत विषाक्त हो गए हैं। आंखों में क्रोध ___ वही आनंद को भी उपलब्ध है।
के रेशे हैं। चेहरे पर क्रोध की रेखाएं हैं। नींद खो गई है। हिंसा ही काम से अर्थ है, दूसरे से सुख लेने की आकांक्षा। जहां भी दूसरे | हिंसा मन में घूमती है। से सुख लेने की आकांक्षा है, वहीं काम है।
फ्रेंक व उसे बिठाता है, और उसके मनोविश्लेषण के लिए एक काम बड़ी विराट घटना है। काम सिर्फ यौन नहीं है, सेक्स नहीं | छोटा-सा प्रयोग करता है। हाथ में उठाता है अपना रूमाल ऊंचा, है; काम विराट घटना है। यौन भी काम के विराट जाल का | और उस आदमी से कहता है, इसे देखो। और रूमाल को छोड़ देता छोटा-सा हिस्सा है।
है। वह रूमाल नीचे गिर जाता है। फ्रेंक वू उस आदमी से कहता __ जहां भी दूसरे से सुख पाने की इच्छा है, वहां दूसरे का शोषण | है, आंख बंद करो और मुझे बताओ कि रूमाल के गिरने से तुम्हें करने के भी रास्ते निर्मित होते हैं। जब भी मैं किसी दूसरे से सुख किस चीज का खयाल आया? तुम्हारे मन में पहला खयाल क्या लेना चाहता हूं, तभी शोषण शुरू हो जाता है। और अगर कोई मेरे | उठता है रूमाल के गिरने से? काम में, मेरे दूसरे से सुख पाने में बाधा बने, तो क्रोध उत्पन्न होता वह आदमी आंख बंद करता है और कहता है, आई एम है। इसलिए कृष्ण ने काम और क्रोध को एक साथ ही इस सूत्र में | | | रिमाइंडेड आफ सेक्स-मुझे तो कामवासना का खयाल आता है। कहा है। संयुक्त वेग हैं।
फ्रेंक वू थोड़ा हैरान हुआ, क्योंकि रूमाल के गिरने से कामवासना कामना में बाधा कोई खड़ी करे, काम के पूरे होने में कोई | | का क्या संबंध? फ्रेंक वू ने पास में पड़ी एक किताब उठाई और व्यवधान बने, कोई दीवाल बने, कोई आड़े आए, तो क्रोध जन्मता कहा, इसे मैं खोलता हूं; गौर से देखो। किताब खोलकर रखी, है। काम के वेग को जहां से भी रुकावट मिलती है. वहीं से लौटकर कहा, आंख बंद करो और मुझे कहो कि किताब खुलती देखकर वह क्रोध बन जाता है। काम के वेग को यदि व्यवधान न मिले, तुम्हें क्या खयाल आता है ? रुकावट न मिले और काम का वेग अपनी इच्छा को पूरा कर ले, | उसने कहा, आई एम अगेन रिमाइंडेड आफ सेक्स-मुझे फिर तो फ्रस्ट्रेशन, विषाद बन जाता है।
| कामवासना की ही याद आती है! काम की तृप्ति पर, काम पूरा हो जाए, तो पीछे सिर्फ विषाद की फ्रेंक वू और हैरान हुआ। उसने टेबल पर पड़ी हुई घंटी बजाई कालिमा छूट जाती है, अंधेरा छूट जाता है। और काम पूरा न हो | और कहा कि घंटी को ठीक से सुनो! आंख बंद करो। क्या याद पाए, कोई व्यवधान डाल दे, तो काम लपट बन जाता है क्रोध की। आता है? उसने कहा, आई एम रिमाइंडेड आफ सेक्स-वही क्रोध काम का ही अवरुद्ध रूप है; रुका हुआ रूप है। मैं चाहता कामवासना का खयाल आता है! था कुछ करना, नहीं कर सका, तो जिसने बाधा दी, उस पर मेरे । फ्रेंक वू ने कहा, बड़ी हैरानी की बात है कि तीन बिलकुल अलग काम की वासना क्रोध की अग्नि बनकर बरस पड़ती है। | चीजें तुम्हें एक ही चीज की याद कैसे दिलाती हैं! रूमाल का गिरना,
मैंने कहा, काम बड़ी घटना है। अगर हम मनसशास्त्रियों से किताब का खुलना, घंटी का बजना—इतनी विभिन्न बातें हैं! तुम्हें पूछे, तो वे कहते हैं कि मनुष्य काम के लिए ही जी रहा है। अगर इन तीनों में एक ही बात का खयाल आता है; कारण क्या है?
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काम से राम तक
उस आदमी ने कहा, तुम्हारी चीजों से मुझे कोई संबंध नहीं। मुझे | | इसलिए सेक्स के संबंध में समाज के सारे नियम, सारी व्यवस्था सिवाय सेक्स के और कोई खयाल आता ही नहीं। तुम्हारी चीजों से टूटी जा रही है। कोई संबंध नहीं है। तुम रूमाल गिराओ कि पत्थर गिराओ। तुम घंटी | जितनी दुनिया समृद्ध होगी, उतनी सेक्स के मामले में सब बजाओ कि घंटा बजाओ। तुम किताब खोलो कि बंद करो। इससे | | सीमाएं तोड़ती चली जाएगी। इससे कुछ ऐसा नहीं है कि कुछ बड़ी कोई फर्क नहीं पड़ता। मैं तो सिवाय काम के कुछ सोचता ही नहीं। | उपलब्धि हो जाएगी। एक तरफ अमेरिका जैसे समृद्ध समाज में
यह आदमी पागल मालूम पड़ेगा। लेकिन दुनिया में सौ में से सेक्स के सब व्यवधान टूट गए, और दूसरी तरफ विफलता और निन्यानबे आदमी इस भांति के हैं। उन्हें पता हो या न पता हो। और | विषाद घना होता जाता है और आत्महत्याएं बढ़ती चली जाती हैं। जिन्हें पता है, उनकी तो चिकित्सा हो सकती है, जिन्हें पता नहीं है, समाज के पास दो ही उपाय हैं। या तो वह आपकी काम की वे बड़ी खतरनाक हालत में हैं।
वासना को पूरा होने की खुली छूट दे दे; तो भी आप पागल हो __हमें लगेगा कि यह तो बात ठीक नहीं है। रूमाल के गिरने से | जाएंगे-विषाद में, फ्रस्ट्रेशन में। जैसा अमेरिका में हुआ है। यौन हमें क्यों खयाल आएगा? लेकिन अगर आप अपने मन का के संबंध में परी स्वतंत्रता पैदा हो गई है। और इसका परिणाम यह थोड़ा-सा अंतर्विश्लेषण करेंगे सुबह से रात सोने तक, थोड़ा भीतर | हआ कि यौन में रस भी कम हो गया: विरस हो गया: काम की झांककर देखेंगे, तो आप हैरान होंगे कि कहीं अंतस्तल पर एक पर्त गहराई भी खो गई; काम का मूल्य भी खो गया; और आदमी कामवासना की पूरे समय चलती रहती है।
विषाद में खड़ा है। अब कोई दूसरा सेंसेशन चाहिए, कोई दूसरा मनोवैज्ञानिक उस राज को पकड़ लिए हैं, इसलिए सारी दुनिया वेग, कोई दूसरी उत्तेजना। वह दिखाई नहीं पड़ती। के विज्ञापनदाताओं को उन्होंने कह दिया है कि आदमी को कोई भी इसलिए काम के विकृत रूप सारे पश्चिम में फैलने शुरू हो चीज बेचनी हो, सेक्स के साथ जोड़ दो; बिकेगी। अन्यथा नहीं गए। होमोसेक्सुअलिटी इतने जोर से बढ़ती है, जैसा कि दुनिया में बिकेगी। कार बेचनी हो, तो एक नग्न स्त्री को कार के साथ खड़ा कभी भी नहीं बढ़ी थी। क्योंकि स्त्री के साथ पुरुष ने देख लिया, करो। कोई संबंध नहीं है। सिगरेट बेचनी हो, तो एक स्त्री को खड़ा | स्त्री ने पुरुष के साथ देख लिया। रस नहीं है कुछ बहुत। अब क्या करो। कछ भी बेचना हो. तो नग्न स्त्री को बीच में लाओ। जिसका करें। अब नए आविष्कार करने पड़ते हैं। विक्षिप्त आविष्कार पैदा कोई भी संबंध नहीं है, तो भी खड़ा करो। क्यों? आदमी के मन की | होते हैं; विकृतियां, परवरशंस पैदा होते हैं। अंतर्धारा का पता चल गया है। हर चीज उसी की याद दिलाती है। ।। अगर समाज बिलकुल खुला छोड़ दे सेक्स, तो परवर्ट होगा। तो अगर स्त्री को खड़ा कर दो, तो वह चीज उसके मन में गहरे | और अगर समाज बिलकुल खुला न छोड़े, तो सप्रेशन होगा। और संयुक्त हो जाएगी, गहरी उतर जाएगी।, फिर वह चीज नहीं जितना दमन होगा, उतना क्रोध पैदा होगा। या तो काम को खुला खरीदेगा। खरीदेगा चीज, और समझेगा कि किसी जाने-अनजाने छोड़ो, तो विषाद फैल जाता है; जीवन रसहीन हो जाता है। लोग रास्ते स्त्री खरीदी है।
थके-हारे, अर्थहीन हो जाते हैं। एंप्टीनेस पकड़ लेती है। सब यह काम से भरा हुआ चित्त अगर चौबीस घंटे क्रोध से भरता रिक्त, कुछ भी नहीं है जिंदगी में। और यदि काम को रोको, तो है. तो आश्चर्य नहीं है। यह काम चौबीस घंटे हजार बाधाएं पाता | क्रोध उत्पन्न होता है। क्रोध हजार-हजार रूपों में प्रकट होता है। है, रुकावटें पाता है। यह पूरा नहीं हो पाता। पीड़ा देता है। भीतर क्या आपको पता है कि आज से सौ साल पहले दुनिया में उबल जाते हैं प्राण। ऊर्जा काम में बहना चाहती है, रुकावटें पाती युवकों के विद्रोह कहीं भी नहीं थे। कोई दुनिया में नए तरह के यूथ है हजार तरह की। इसलिए तो जहां सुविधा बन जाएगी, वहां लोग | पैदा नहीं हो गए हैं; कोई नए तरह के युवक पैदा नहीं हो गए हैं। रुकावटों को तोड़ना शुरू कर देंगे। जैसा अमेरिका में हुआ। दुनिया में युवक-विद्रोह कभी भी न था। युवकों ने कभी भी पत्थर
जब तक दुनिया गरीब थी, तो आदमी समाज से डरता था। | मारकर न तो कालेज के कांच तोड़े थे, न स्कूल तोड़े थे, न आगें क्योंकि भूखा मरेगा, अगर समाज के खिलाफ गया तो। नौकरी, । | लगाई थीं, न बस और ट्राम जलाई थीं। न गुरुओं को, शिक्षकों को, रोजी-रोटी खो जाएगी। जिंदा रहना मुश्किल हो जाएगा। आज माता-पिताओं को इस तरह की चिंता में डाल दिया था। न समाज अमेरिका में धन काफी है। कोई भय नहीं रहा समाज का उतना। की सारी व्यवस्था को इस तरह अस्तव्यस्त कभी किया था। क्या
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गीता दर्शन भाग-20
बात है? युवक के भीतर कुछ नए हारमोन, कोई नई केमिस्ट्री हो खड़ा हो जाता है, जिसे काम आंदोलित नहीं करता और जिसे क्रोध गई? कोई नई बात पैदा हो गई?
| अग्नि की लपटों में नहीं डालता, ऐसा व्यक्ति यहां भी और परलोक युवक बिलकुल वैसे ही हैं, जैसे सदा थे। सिर्फ एक बात का | | में भी सुख को उपलब्ध होता है। फर्क पड़ा है, दुनिया से बाल-विवाह विदा हो गया। तेरह-चौदह लेकिन हम तो दुख ही दुख को उपलब्ध होते हैं। इससे साफ साल में युवक कामवासना से भर जाता है। लेकिन समाज सब | | समझ लेना चाहिए कि हमारी स्थिति बिलकुल प्रतिकूल होगी। हम तरफ से रोक पैदा कर देता है। रोक पैदा कर देता है, क्रोध पैदा होता | ठीक उलटे होंगे कृष्ण के आदमी से। दुख ही दुख! दुख के जोड़ है। काम अवरुद्ध हुआ कि क्रोध पैदा हुआ। क्रोध पैदा हुआ कि के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं। विध्वंस होगा।
फ्रायड से मरते वक्त किसी ने पूछा कि तुमने जिंदगीभर इतने इसलिए सारी दुनिया में विध्वंस की लहर दौड़ गई है। युवक तोड़ लोगों की मनस-चिकित्सा की। क्या तुम सोचते हो कि आदमी को रहे हैं उन चीजों को, उन्हीं चीजों को, जिनको उनके मां-बाप ने | मनस-चिकित्सा के द्वारा सुख तक पहुंचाया जा सकता है ? ब्लिस निर्मित किया उनके लिए। विश्वविद्यालय जलेंगे, बच नहीं सकते। | उपलब्ध हो सकती है? फ्रायड ने जो बात कही, बहुत हैरानी की
इसलिए अमेरिका के एक बहत समझदार मनोवैज्ञानिक किन्से | है। फ्रायड ने कहा कि नहीं; जैसा आदमी है, इस आदमी को सुख ने दस साल के अध्ययन के बाद यह कहा कि अगर दनिया से | तक कभी नहीं पहुंचाया जा सकता। ज्यादा से ज्यादा सामान्य दुख युवक-विद्रोह खतम करना है, तो हमें बाल-विवाह पर वापस लौट | तक आदमी पहुंचे, इतना इंतजाम किया जा सकता है-जनरल जाना चाहिए।
अनहैपिनेस! फ्रायड ने कहा, सुख तक तो किसी को नहीं पहुंचाया बाल-विवाह पर कोई अमेरिकी मनोवैज्ञानिक कहेगा, वापस | जा सकता। लोग बहुत दुख तक न जाएं, न्यूरोटिक अनहेपिनेस लौट जाना चाहिए! क्या कारण है? अगर काम अवरुद्ध होगा, तो तक न जाएं; पागल न हो जाएं दुख में; साधारण बने रहें-इतने क्रोध बनेगा। और क्रोध फिर हिंसा बनेगा, और जीवन को सब दुख तक पहुंचाया जा सकता है! जनरल अनहैपिनेस! बस, ज्यादा तरफ से तोड़ डालेगा।
से ज्यादा जो हम कर सकते हैं, वह फ्रायड ने कहा, इतना कि हम लेकिन बाल-विवाह करने से दूसरी परेशानियां हैं। जैसे ही इतने दख तक आपको रोक सकते हैं, जितना सबको है। बाल-विवाह होना शुरू होता है, जैसे ही बच्चों का विवाह कर __ अगर फ्रायड जैसा इस युग का मनीषी कहे कि अंतिम लक्ष्य दिया जाए, वैसे ही उनके जीवन में क्रिएटिविटी खो जाती है; वे | | इससे ज्यादा दिखाई नहीं पड़ता, तो हमें मनोविज्ञान के पूरे आधारों सृजन नहीं कर पाते। बच्चे ही पैदा करते हैं, फिर और कुछ सृजन | | पर पुनर्विचार करना पड़ेगा। न्यूरोटिक अनहैपिनेस से हम उतार नहीं करते। इसलिए बाल-विवाह वाले समाज आविष्कार नहीं कर | | सकते हैं जनरल अनहैपिनेस तक! बस, इससे ज्यादा नहीं! इतना पाते, वैज्ञानिक खोज नहीं कर पाते, हिमालय पर नहीं चढ़ पाते, | दुखी न होने देंगे कि आप पागलखाने चले जाओ। इतना दुखी न चांद-तारों पर नहीं पहुंच पाते।
होने देंगे कि आत्महत्या कर लो। इतना दुखी न होने देंगे कि आप जहां बाल-विवाह होगा, वहां खोज, सृजन, क्रिएशन, सब बंद | | पागल हो जाओ। बस इतना दुखी होने देंगे कि दुकान चलाते रहो, हो जाएगा। लेकिन जहां खोज होगी, क्रिएशन होगा, बाल-विवाह | घर बच्चों को बड़ा करते रहो। इतना दुखी होने देंगे, जनरल रुकेगा, वहां क्रोध और हिंसा की आग फैल जाएगी। फिर क्या | अनहैपिनेस, जितने सभी लोग दुखी हैं। बस, इससे आगे नहीं। किया जाए?
इससे आगे कुछ नहीं किया जा सकता। कृष्ण कुछ और ही सुझाव देते हैं। वे कहते हैं, न तो काम को | अगर फ्रायड ऐसा कहता है, तो थोड़ा सोचने जैसा है। क्योंकि खुला छोड़ देने से कोई हल है, न काम को रोक लेने से कोई हल भारत के सारे मनसविद–चाहे कृष्ण, चाहे पतंजलि, चाहे कणाद, है। काम और क्रोध दोनों वेग के अतीत, पार हो जाने में, दोनों के | चाहे बुद्ध, चाहे महावीर, चाहे शंकर, चाहे नागार्जुन-वे सभी ऊपर उठ जाने में है। दोनों वेगों के बीच अलिप्त हो जाने में है; कहते हैं कि मनुष्य परम आनंद को उपलब्ध हो सकता है। और दोनों के साथ अनासक्त हो जाने में है।
ऐसा वे प्रामाणिक रूप से कहते हैं, क्योंकि वे खुद उस परम आनंद जो व्यक्ति इस पृथ्वी पर इन दो वेगों के साथ अलिप्त होकर में खड़े हुए हैं।
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काम से राम तक
जरूर बुनियादों में कोई फर्क है, आधारभूत कोई तात्विक भेद है। पश्चिम मानता है कि काम से आदमी मुक्त हो ही नहीं सकता। तो फिर दुख से भी मुक्त नहीं हो सकता। इतना पर्याप्त लक्ष्य है कि जनरल अनहैपिनेस रहे। ज्यादा न हो जाए; सामान्य रहे, नार्मल ! पूरब मानता है कि मनुष्य काम की वासना से मुक्त हो सकता है। कैसे हो सकता है?
जब तक हमें खयाल में है कुछ गलत विधि, तब तक हम कितनी ही कोशिश करें, कोई परिणाम नहीं होगा। और कई बार ऐसा होता है कि गलत विधि पर हम वर्षों मेहनत करते रहें, श्रम बहुत करें, परिणाम कुछ न हो। ठीक चाबी हाथ में हो, तो क्षणभर में ताला खुल जाए।
सुना है मैंने, एक आदमी बहुत परेशान है। वह चिकित्सक के पास गया। वह कहता है, मेरी परेशानी यही है कि जब रात मैं बिस्तर के ऊपर सोता हूं, तो मुझे ऐसा लगता है कि बिस्तर के नीचे कोई है। फिर मैं नीचे चला जाता हूं सोने के लिए, देखता हूं, कोई नहीं है। लेकिन तब मुझे लगता है, ऊपर कोई है। फिर मैं ऊपर आता हूं, तब ऊपर किसी को नहीं पाता । पाता हूं कि अब नीचे कोई है। ऐसा रातभर मैं बिस्तर के ऊपर-नीचे होता रहता हूं। नींद मेरी नष्ट हो गई है। मैं पागल हुआ जा रहा हूं। मुझे छुटकारा दिलाओ। जानता हूं भलीभांति, नीचे जाकर पाता हूं, कोई नहीं है। लेकिन तब तक मुझे लगता है, ऊपर कोई है। अब मैं नीचे हूं, ऊपर का भरोसा कैसे करूं कि नहीं है? जाऊं, तभी पता चले। लेकिन जब तक ऊपर जाता हूं, तब तक लगता है, नीचे कोई है !
मनोवैज्ञानिक ने कहा, यह बहुत कठिन मामला है। दो वर्ष लग जाएंगे। फिर भी पक्का नहीं कहा जा सकता कि आप इस नासमझी के बाहर हो सकेंगे। कोशिश मैं करूंगा। सौ रुपए सप्ताह का खर्च होगा। हर सप्ताह दो बैठक मुझे तुम्हें देनी पड़ेंगी। और दो साल मेहनत चलेगी। उस आदमी ने कहा, इतनी मेरी आर्थिक हैसियत नहीं है। इतना लंबा इलाज मैं न करवा पाऊंगा। फिर भी मैं कोशिश करता हूं। पत्नी से जाकर बात कर लूं। कोई रास्ता बन जाए, तो मैं इलाज करवा लूं। मैं कल आपको खबर करूंगा।
लेकिन उस आदमी ने सात दिन तक कोई खबर न की । मनोवैज्ञानिक रास्ता देखता रहा। सातवें दिन उसने फोन किया कि क्या हुआ? आप आए नहीं ! उसने कहा कि मैं बिलकुल ठीक हूं। हद हो गई! मेरी पत्नी ने इलाज कर दिया ! मनोवैज्ञानिक ने कहा, कैसा इलाज किया होगा? क्या तुम ठीक हो गए? उस आदमी ने
'कहा, बिलकुल ठीक। तुम्हारी पत्नी ने क्या किया ? मनोवैज्ञानिक हैरान हुआ; क्योंकि बीमारी खतरनाक थी और लंबी दिखाई पड़ती थी। उस आदमी ने कहा, मेरी पत्नी ने केवल बिस्तर के चारों पैर काट डाले; पलंग के चारों पैर काट दिए और कुछ नहीं किया। अब नीचे किसी के होने का उपाय ही नहीं रहा। अब मैं मजे से सो रहा हूं!
और मैं आपसे कहता हूं कि वह मनोवैज्ञानिक दो साल नहीं, दो साल में भी उस आदमी को ठीक न कर पाता। कई बार जरा सा | गलत रुख, और यात्रा कितनी ही हो, मंजिल फिर नहीं मिलती।
पश्चिम के मनोवैज्ञानिक कहते हैं, काम से मुक्त नहीं हुआ जा सकता। बस, यहां से पश्चिम की सारी जड़ सड़नी शुरू हो गई। | यहीं पश्चिम बीमार पड़ गया। काम से मुक्त नहीं हुआ जा सकता, | यह बात पचास साल में उन्होंने इतनी गहरी बिठा दी हर आदमी के मन में कि अब सच में ही मुक्त नहीं हुआ जाता। सेल्फ फुलफिलिंग प्रोफेसी हो गई वह । कह दिया कि नहीं हुआ जा सकता। आदमी तो चाहता ही था कि न हुआ जा सके, तो उत्तरदायित्व भी खो जाए, अपराध भी खो जाए। और अगर मैं कुछ गलत करूं, तो मैं कह सकूं, यह तो मनुष्य का स्वभाव है, कोई उपाय नहीं है, क्या कर सकता हूं!
लेकिन पूरब कहता है, काम से मुक्त हुआ जा सकता है। और आज नहीं कल पश्चिम को पूरब से इस सूत्र को पुनः सीखना ही | पड़ेगा। अन्यथा पश्चिम मरेगा, अपनी ही नासमझी में दबकर मर जाएगा।
पूरब कहता है, हुआ जा सकता है। कृष्ण कहते हैं, हो जाया जा सकता है, हो सकते हो अर्जुन। कैसे ?
जब तक भी मुझे अपने भीतर के आनंद का कोई पता नहीं है, | तब तक स्वभावतः मैं दूसरे से सुख पाने पर निर्भर रहूंगा। जब तक मुझे भीतर कोई रस आता ही नहीं; जब तक आंख बंद करता हूं, भीतर कोई शांति, कोई आनंद की झलक नहीं मिलती- तब तक मैं किसी और के पास जाऊंगा कि कोई मुझे सुख दे दे।
और मजे की बात तो यह है कि जिसके पास मैं जाऊंगा, वह भी मेरे पास इसीलिए आया है कि मैं उसे सुख दे दूं ! और दो भिखारी एक-दूसरे के सामने भिक्षापात्र रखकर बैठ जाएं, तो कुछ हल होने वाला है? कोई हल होने वाला नहीं है। हम सब ऐसे ही भिखारी हैं।
मैं किसी से सोचता हूं कि इससे मिलेगा सुख; उसके पीछे | दौड़ता हूं। वह भी मेरे पीछे इसलिए दौड़ रहा है कि मुझसे मिलेगा
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गीता दर्शन भाग-26
सुख! हम दोनों लेने की तलाश में हैं, और दोनों के पास देने को नहीं | | तिरोहित हो गई। दो क्षण में! इससे ज्यादा वक्त नहीं लगेगा। और है। देने को होता, अगर मेरे पास किसी को सुख देने को होता, तो | | जैसे ही काम की वासना तिरोहित होगी, जो ऊर्जा उठ गई, उसका सबसे पहले तो मैं ले लेता। अगर मेरे घर में कुआं होता और मैं प्यास | क्या होगा? अपनी बुझा सकता, तो मैं दूसरे की प्यास भी बुझाने के लिए कुएं | ऊर्जा सदा उपयोग में आती है। उठ जाए तो, कुछ न कुछ पर बुला लेता। लेकिन मेरे घर में कुआं नहीं, मैं प्यासा मरा जा रहा | उपयोग होता है। जो शक्ति जाग गई, उसका क्या होगा? अब हूं; और एक दूसरे आदमी के पीछे चल रहा हूं, इस आशा में कि | बाहर जाने का कोई मार्ग न रहा. तो शक्ति भीतर जाना शरू हो उससे मेरी प्यास बुझ जाएगी! वह खुद भी मेरे घर इसीलिए आया | | जाती है। उस शक्ति के बहाव का नाम कंडलिनी है। उस शक्ति के हुआ है कि उसकी प्यास मुझसे बुझ जाएगी। न उसके घर कुआं है, | भीतर बहने का नाम कुंडलिनी है। सेक्स के, यौन के केंद्र से शक्ति न मेरे घर कुआं है! हम दोनों एक-दूसरे को धोखा दे रहे हैं। | उठती है और रीढ़ के मार्ग से ऊपर की तरफ बहनी शुरू हो जाती
मैं उसे ऐसा दिखाने की कोशिश कर रहा हूं कि मैं तुझे सुख दूंगा, है। जैसे कोई सर्प उठता हो। क्योंकि इस तरह का आश्वासन अगर मैं न दिलाऊं, तो उससे मुझे | यौन के केंद्र पर शक्ति का संग्रह है। या तो वहां से बाहर चली सुख मिलने का रास्ता नहीं बनेगा। वह मुझे धोखा दे रहा है कि मैं | जाएगी, या वहां से भीतर चली जाएगी। वह द्वार है। अगर बाहर तुम्हें सुख दूंगा। वह भी इसीलिए धोखा दे रहा है, क्योंकि अगर | | गई, तो या तो विषाद बनेगी, या क्रोध बनेगी। अगर भीतर गई, तो वह ऐसा आश्वासन न दे, तो मुझसे सुख न पा सकेगा। और हम | ठीक उलटी घटना बनेगी। अगर अवरुद्ध हो जाए, तो क्षमा बनेगी, दोनों एक-दूसरे को धोखा दे रहे हैं।
जैसे बाहर अवरुद्ध होने से क्रोध बनती है। अगर भीतर अवरुद्ध इस जगत में हम सब एक-दूसरे को धोखा दे रहे हैं इस बात का | | हो जाए, तो क्षमा बनेगी। और जैसे बाहर पूरे होने से विषाद बनती कि सुख लिया-दिया जा सकेगा। वह संभव नहीं है। जिसके पास | | है, अगर भीतर पूरी हो जाए, तो आनंद बनेगी। भीतर सुख नहीं है, वह किसी को दे नहीं सकता। जो हमारे पास | | खयाल रख लें, बाहर ऊर्जा जाए, पूरे लक्ष्य तक पहुंच जाए, तो है, वही हम दे सकते हैं। और जो हमारे पास है, वह देने के पहले | | विषाद फल बनेगा। भीतर उठे, और सहस्रार तक पहुंच जाए ऊपर हमें मिल गया होता है।
तक, तो आनंद फलित होगा। अगर बाहर रुकावट बन जाए, तो. इस जगत में वह आदमी सुख दे सकता है, जिसके पास है। क्रोध बनेगी; अगर भीतर कहीं रुकावट बन जाए, तो क्षमा बनेगी। लेकिन हमारे पास तो कोई सुख नहीं है। काम से केवल वही व्यक्ति | लेकिन हम तो बाहर से ही परिचित हैं। हम बाहर से ही परिचित मुक्त होगा, जिसे आनंद के अंतर-स्रोत उपलब्ध हो जाएं, अन्यथा | | हैं, हमें भीतर का कोई खयाल नहीं है। मुक्त नहीं होगा।
कृष्ण क्यों इस बात को स्पष्ट नहीं कह रहे हैं, यह भी सोचने तो जब कृष्ण कहते हैं, काम और क्रोध से मुक्त हो जाता है जो, | | जैसा है। कृष्ण को अर्जुन को बताना चाहिए कि तू काम-केंद्र पर, तो उसका अर्थ ही यह है। उसका अर्थ ही यह है कि जब भी मन में | | सेक्स सेंटर पर ध्यान को केंद्रित कर। यह अर्जुन से कृष्ण क्यों नहीं काम उठे तो काम एक ऊर्जा है, एनर्जी है, बड़ी शक्ति है। कह रहे हैं? मैं इसे क्यों कह रहा हूं आपसे? उसका कारण है। इसीलिए तो प्रकृति काम-ऊर्जा को संतति के लिए, जन्म के लिए | इस देश की एक व्यवस्था थी ब्रह्मचर्य आश्रम की। सारे बच्चे, उपयोग में लाती है। बड़ी शक्ति है, विराट शक्ति है काम। जब जो भी गुरु के पास ब्रह्मचर्य के काल में आश्रम में रहते थे, उन काम उठे, आपके भीतर जब वासना उठे, किसी से सुख लेने की | | सबको अनिवार्य रूप से सेक्स सेंटर पर ध्यान करना सिखा दिया इच्छा उठे, तब आंख बंद करके दूसरे को भूल जाना और आपके | | जाता था। ब्रह्मचर्य की साधना ही थी वह। यह सामान्य ज्ञान की ही भीतर वह ऊर्जा कहां उठ रही है, उस बिंदु पर ध्यान करना। बात थी, इसलिए कृष्ण को इसे विशेष रूप से कहने की कोई
स्वभावतः, साधारणतः सेक्स सेंटर से ऊर्जा उठती है और बाहर | जरूरत नहीं है। इतना ही वे कह सकते हैं कि अर्जुन, काम और फैल जाना चाहती है। यदि कोई व्यक्ति, जिस क्षण सेक्स की | | क्रोध से जो मुक्त हो जाता है, वह इस पृथ्वी पर सुख को और उस कामना मन को घेर ले, आंख बंद करके अपने सारे ध्यान को सेक्स | | लोक में भी आनंद को उपलब्ध होता है। के सेंटर पर ले जाए, तो दो क्षण में पाएगा कि काम की वासना । आपसे मुझे विस्तार से कहने की जरूरत है, क्योंकि वह जो
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काम से राम तक
अंतर्नाद पैदा
ब्रह्मचर्य के आश्रम का काल था, वह हमारी जिंदगी से बिलकुल अचानक उन्हें खयाल आया कि आवाज कहीं रामतीर्थ के पास से काटकर फेंक दिया गया है। हम गृहस्थ ही शुरू होते हैं, जो कि | आ रही है। वे जितने पास आए, हैरान हो गए। बहुत ही बेहूदी बात है। बच्चा भी गृहस्थ की तरह शुरू होता है, | रामतीर्थ सो रहे हैं। नींद लगी है। रामतीर्थ के हाथ पर कान जो कि बड़ी गलत शुरुआत है। जीवन के सुनिश्चित आधार रखे | रखकर देखा, तो आवाज आ रही है, राम, राम। पैर पर कान ही नहीं जाते।
रखकर देखा, तो आवाज आ रही है, राम, राम। बहुत घबड़ा गए _ अर्जुन को भलीभांति पता है कि काम की ऊर्जा कैसे अंतर्ग्रवाहित | | कि यह क्या हो रहा है! शरीर आवाज दे रहा है! रोआं-रोआं होती है, इसलिए उसको उल्लेख नहीं किया है। वह सभी को पता | आवाज दे रहा है! था। उसका उल्लेख करने की कोई जरूरत न थी। वह सामान्य ज्ञान संभव है। बिलकुल संभव है। शरीर बहुत संवेदनशील यंत्र है। था। वह ऐसा ही सामान्य ज्ञान था, जैसे मैं आपसे कहूं कि जाओ, | | जब आप कामवासना से भरे होते हैं, तब भी रोआ-रोआं खबर देता कार ले जाओ। तो यह सामान्य ज्ञान है कि पेट्रोल डला लेना। | है, काम, काम। कामवासना से भरे हुए आदमी का हाथ छुएं। हाथ इसको कहने की कोई जरूरत न पड़े। पेट्रोल न हो, तो कार नहीं | | खबर देता है, काम। कामवासना से भरे आदमी की आंख में आंख जाएगी, यह सामान्य ज्ञान की बात है।
| डालें; खबर आती है, काम। कामवासना से भरे आदमी को कहीं ठीक ऐसे ही जीवन की ऊर्जा भीतर कैसे यात्रा करती है, उसके से भी टटोलें; खबर आती है, काम। मेडिटेशन की विधि सबको ज्ञात थी। वह हर बच्चे को जन्म के बाद | राम से भी इतना ही भरा जा सकता है। और जब ऊर्जा अंतर्यात्रा पहली चीज थी। जैसे ही बच्चा होश में भरता. जो पहली चीज हम बनकर सहस्रार पर पहुंचकर अंतर्गज पैदा करती है सिखाते थे, वह ब्रह्मचर्य था। जो पहला पाठ हम देते थे उसके | करती है, तो उस व्यक्ति ने जिस शब्द का भी उपयोग करके यह जीवन में, वह ब्रह्मचर्य था। क्योंकि वही सबसे बड़ा पाठ है, जो | | यात्रा की हो-कृष्ण का, या राम का, या क्राइस्ट का, या अल्लाह जीवन की ऊर्जा को काम से हटाकर राम की तरफ ले जाता है। । | का—वह शब्द उसके रोएं-रोएं से प्रस्फुटित होने लगता है; गूंजने
काम है दूसरे पर निर्भरता, राम है स्वनिर्भरता। काम है बहिर्गमन, | | लगता है। और जिनके पास सुनने के कान हैं, वे सुन सकते हैं। राम है अंतर्गमन। काम और राम के बीच हमारे सारे जीवन का | | बड़े सूक्ष्म कान चाहिए।
आंदोलन है। जो बाहर ही दौड़ रहा है, उसे काम ही काम सुनाई पड़ता | ___ अब अभी कहा गया आपको, एलिजाबेथ, जिसने कल रात है। जो भीतर दौड़ रहा है, उसे राम ही राम सुनाई पड़ता है। ग्यारह बजे जाकर संन्यास लिया, वह कल यहां धुन में खड़ी थी।
जैसे मैंने आपसे कही उस आदमी की बात-रूमाल गिराया, स्वभावतः, जैसा अमेरिकन दिमाग होता है, स्केप्टिकल है। परसों तो उसने कहा, आइ एम रिमाइंडेड आफ सेक्स। अगर किसी भक्त | सुबह ही उसने मुझसे बात की कि मैं श्रद्धा बिलकुल नहीं कर को, किसी साधक को रूमाल गिराओ, और पूछो कि किस चीज | सकती। मुझे तो बड़े संदेह उठते हैं। और भारतीय दिमाग से मेरा का स्मरण आया? वह कहेगा, राम का। घंटी बजाओ; पूछो, किस | कोई तालमेल नहीं बैठता। मुझे तो रेशनल, बुद्धिगत कोई बात चीज का स्मरण आया? वह कहेगा, राम का। किताब खोलो; | समझ में आनी चाहिए। ये संन्यासी नाच रहे हैं, ये सब कर रहे हैं, पूछो, किस चीज का स्मरण आया? वह कहेगा, राम का। यह मुझे बहुत अजीब लगता है। स्वभावतः! यह मुझे ठीक नहीं
स्वामी रामतीर्थ हिंदुस्तान जब वापस लौटे, तो सरदार पूर्णसिंह | | लगता। मैं नाच नहीं सकती हूं। कठोर थी परसों सुबह। नाम के एक बहुत विचारशील व्यक्ति उनके पास रात को रुकते थे। | मैंने उससे कहा कि ठीक है। कोई चिंता मत कर। तू खड़े होकर एक दिन बड़े हैरान हुए। कमरे में कोई नहीं है। राम सोते हैं। | | देख। नाच मत। खड़े होकर सिर्फ देख। और दूसरे के लिए पूर्णसिंह जाग गए हैं। कमरे में राम की ध्वनि आ रही है। और राम | जजमेंट मत ले कि दूसरे क्या कर रहे हैं, क्योंकि दूसरे के भीतर तो सोए हुए हैं। कमरे के बाहर जाकर पूर्णसिंह चक्कर लगा आएः | | हम प्रवेश नहीं कर सकते हैं। उसके भीतर क्या हो रहा है, हमें कोई नहीं है। कहीं से कोई आवाज नहीं है। जितना कमरे से दूर गए, | | कुछ पता नहीं है। आवाज कम होती चली गई। कमरे में वापस लौटकर आए। रात | परसों रात वह खड़ी रही, देखती रही। कल रात भी खड़ी होकर के दो बजे हैं। जैसे कमरे के पास आए, आवाज बढ़ने लगी। तब देखती रही। फिर अचानक कब उसकी ताली बजने लगी, उसे पता
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गीता दर्शन भाग-20
नहीं। फिर वह कब डोलने लगी, उसे पता नहीं। और कब यह नृत्य ठीक बाहर जाती ऊर्जा से जो परिणाम होते हैं, उसके ठीक उसके लिए मिट गया और सिर्फ प्रकाश ही प्रकाश यहां शेष रह | विपरीत भीतर जाती ऊर्जा से परिणाम होते हैं। बाहर है दुख; भीतर गया...।
है सुख। रात ग्यारह बजे जब मेरे पास गई, तो उसे रोका गया कि इतनी __ कृष्ण कहते हैं, इस पृथ्वी पर भी उस योगी को आनंद है; रात नहीं, अब मैं सोने को हूं। उसने कहा कि इसी वक्त मुझे | परलोक में उसकी मुक्ति है। संन्यास लेना है। क्योंकि कल सुबह का क्या भरोसा? जो मुझे अनुभव हुआ है, मुझे इसी वक्त छलांग लगा देनी चाहिए। जो मैंने देखा है...।
योऽन्तःसुखोऽन्तरारामस्तथान्तज्योतिरेव यः।' वह मुझसे आकर बोली कि मुझे कुछ हुआ है, जो अनबिलीवेबल __ स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति ।। २४ ।। है; मैं अभी भी विश्वास नहीं कर सकती। क्योंकि मेरा दिमाग | जो पुरुष निश्चय करके अंतरात्मा में ही सुख वाला है और स्केप्टिकल, अभी भी मौजूद है। वह पीछे खड़ा है और कह रहा है | आत्मा में ही आराम वाला है तथा जो आत्मा में ही ज्ञान कि ऐसा हो नहीं सकता। मेरा दिमाग कह रहा है, ऐसा हो नहीं | वाला है, ऐसा वह ब्रह्म के साथ एकीभाव हुआ सांख्ययोगी सकता। लेकिन हुआ है, यह भी मैं जानती हूं। दोनों बातें एक साथ
ब्राह्म-निर्वाण को प्राप्त होता है। हैं। घटना घटी है, वह भी मैंने देखा। नहीं हो सकता है, यह भी मेरा दिमाग कहता है। लेकिन अगर किसी और को हुआ होता, तो मैं इनकार कर देती। अब इनकार करने का भी कोई उपाय नहीं है। जो आत्मा में ही विश्राम में जीता है, जो आत्मा में ही आप भी देखते हैं। नहीं देख पाते हैं। इतने लोग इकट्ठे हैं। एक
Oil आनंद को अनुभव करता है, जो आत्मा में ही ज्ञान को को जो हुआ है, वह सब को हो सकता है; सबकी पोटेंशियलिटी
पाता है, जिसके जीवन का सब कुछ उसकी आत्मा है! है। लेकिन देखने वाली आंख, सुनने वाले कान तैयार होने चाहिए। इसे दो-तीन मार्गों से खयाल में लेना जरूरी है। .
आज मैं कहूंगा कि जरा देखें! शांत, मौन, सिर्फ देखते रहें। हमारा सब कुछ सदा ही आत्मा के बाहर होता है। सुख, बाहर; . जल्दी न करें। कितनी जल्दी है भागने की! पांच मिनट बाद सही। ज्ञान, बाहर। कोई देगा, तो हमें मिलेगा। कोई नहीं देगा, तो हम मौन। हो सकता है, जो उसे हुआ, वह आपको हो जाए। हो सकता | | अज्ञानी रह जाएंगे। यूनिवर्सिटी, कालेज ज्ञान देंगे, तो हम ज्ञानी हो है, आपको भी यहां नाचते हुए संन्यासियों के शरीर में ध्वनियां | जाएंगे। इसीलिए तो सारी दुनिया पढ़े-लिखे अज्ञानियों से भरती सुनाई पड़ने लगें। और उनके नृत्य की झलक के साथ प्रकाश | चली जाती है! दिखाई पड़ने लगे।
__ दूसरे से मिलेगा-चाहे ज्ञान हो, चाहे सुख हो, चाहे शांति वह सब घटित हो रहा है। चारों तरफ परमात्मा हजार तरह से हो-दूसरे से मिलेगी। सब कुछ आएगा सदा दूसरे से। अपने प्रकट होता है। लेकिन हम! हम अपने भीतर खोए रहते हैं—बहरे, | | भीतर कुछ भी नहीं है। तो हम बिलकुल खाली हैं? कोई कंटेंट नहीं अंधे। हमें कुछ सुनाई नहीं पड़ता। राम भी सुनाई पड़ सकता है, | | भीतर! कंटेनर हैं, सिर्फ एक डब्बा हैं खाली, जिसके भीतर कुछ भीतर ऊर्जा जागी हो तो।
| भी नहीं है! भिक्षापात्र हैं! दूसरे जो डाल देंगे, वही भर जाएगा; वही कभी आपने खयाल किया, संभोग के बाद स्त्री-पुरुष दोनों के हमारी संपदा है! तो दूसरे कहां से ले आएंगे? वे भी खाली हैं। वे शरीर से खास तरह की दुर्गंध निकलनी शुरू हो जाती है। लोग | | भी हमारे जैसे ही रिक्त डब्बे हैं। तो फिर हम एक-दूसरे को प्रवंचना कहते हैं कि महावीर चलते, तो उनके शरीर से सुगंध निकलती। | देते रहते हैं। बिलकुल निकल सकती है।
न तो दूसरे से मिलता है सुख, न दूसरे से मिलता है ज्ञान। दूसरे जब शरीर की ऊर्जा बाहर जाती है, तो शरीर को दुर्गंध की स्थिति से मिल सकता है सुख का आभास, और अंततः दुख। दूसरे से में छोड़ जाती है। और जब शरीर की ऊर्जा भीतर जाती है, तो शरीर मिल सकती हैं सूचनाएं, अंततः अज्ञान को छिपाने वाली; और कुछ को सुगंध की स्थिति में छोड़ जाती है।
भी नहीं। इनफर्मेशन मिल सकती है दूसरे से, नालेज नहीं।
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काम से राम तक
कोई विश्वविद्यालय ज्ञान नहीं दे रहा है। सब विश्वविद्यालय | | ढालता गया। मित्रों ने कहा, यह क्या कर रहे हो? उसने कहा, मैं सिर्फ नालेज की जगह इनफर्मेशन, सूचनाएं दे रहे हैं। ज्ञान बड़ी | | फिर भी कहता हूं कि मैंने एक प्याली से ज्यादा नहीं पी। उन्होंने
आंतरिक घटना है। सूचना बाहर से मिलती है, ज्ञान भीतर से आता कहा, तुम्हारा मतलब क्या है? तब इसका मतलब है कि हमारी है। आभास बाहर खड़े किए जा सकते हैं, वास्तविक सुख का कोई भाषाएं अलग-अलग हैं! उस आदमी ने कहा, निश्चित। एक अनुभव बाहर नहीं होता है। कभी नहीं हुआ; कभी हो भी नहीं प्याली तो मैं पीता हूं, फिर दूसरी प्याली पहली प्याली पीती है। फिर सकता है।
एड इनफिनिटम, फिर तीसरी प्याली चौथी प्याली पीती है। फिर बाहर से मिलता है तनाव, टेंशन; विश्राम नहीं, विराम नहीं। चौथी प्याली पांचवीं प्याली! मैं एक ही प्याली पीता हूं। बाकी कृष्ण कहते हैं, आत्मा को ही जिसने आराम जाना! बाहर से सिवाय प्याली के लिए मेरा कोई जिम्मा नहीं। मैं तो कसम खाकर आता हूं तनाव के और कुछ भी नहीं मिलता। और अगर तनाव बहुत बढ़ कि एक से ज्यादा न पीऊंगा। लेकिन कसम खाने वाला एक पीकर जाएं, तो निद्रा मिल सकती है, और कुछ भी नहीं मिल सकता। रोज | ही बेहोश हो जाता है। फिर प्याली पर प्याली पीती चली जाती हैं। तनाव बढ़ते जाते हैं, विश्राम खोता चला जाता है। टेंशंस बढ़ते चले __ आज मूर्छा में खोएंगे, कल और बड़ी मूर्छा चाहिए, परसों जाते हैं, इकट्ठे होते चले जाते हैं। एक-एक आदमी हिमालय जैसे | और बड़ी मूर्छा चाहिए; प्याली पर प्याली बढ़ती चली जाएगी। टेंशंस, तनाव अपने सिर पर लिए चल रहा है।
तनाव मिलते हैं बाहर से, विश्राम नहीं। या मिल सकती है तंद्रा, तनाव बहुत बढ़ जाते हैं, अब क्या करना? इन तनावों के बीच | | जो कि विश्राम नहीं है, जो कि केवल मूर्छा है। विश्राम तो आंतरिक कैसे जीना? तो बाहर से तनाव को भुलाने की तरकीबें मिल सकती | | घटना है, विराम, सब ठहर गया जहां। शांत, जैसे झील पर लहर हैं; केमिकल ड्रग्स मिल सकते हैं, शराब मिल सकती है, एल एस | न हो। आकाश, जहां कि बदलियां न हों। निरभ्र आकाश। सब डी मिल सकती है, मेस्कलीन मिल सकती है, मारिजुआना मिल| चुप, मौन। होश पूरा, शांति भी पूरी। ऐसे विराम के क्षण तो भीतर सकता है। फिर बाहर से केमिकल ड्रग्स मिल सकते हैं कि पी लो | इनको और नींद में खो जाओ; डूब जाओ अंधेरे में।
कृष्ण कहते हैं, सुख जिसने जाना भीतर, विश्राम जिसने जाना बाहर से मिल सकते हैं तनाव, और विश्राम के नाम पर मिल | | भीतर, ज्ञान जिसने जाना भीतर, ऐसा पुरुष ही सांख्य का ज्ञानयोगी सकती है निद्रा। टूटेगी निद्रा, तनाव वापस दुगुने वेग से खड़े हो है। ऐसा पुरुष ही ज्ञानयोगी है। जाएंगे। दुगुने वेग से क्यों? क्योंकि निद्रा की इस रासायनिक मूर्छा तीन चीजों पर जोर देते हैं वे। कारण है। तीन ही तरह की चीजें के बाद आप कमजोर होकर वापस आएंगे। तनाव तो वही रहेंगे, | हैं, जो हम चाहते हैं। या तो सुख चाहते हैं। कुछ लोग हैं, जो सुख लेकिन आप कमजोर होकर वापस आएंगे। तनाव दुगुनी ताकत के | के लिए दौड़ते रहते हैं। कुछ लोग हैं, जो सुख से भी ज्यादा ज्ञान हो जाएंगे, आप और कमजोर हो जाएंगे। फिर एक ही उपाय है कि चाहते हैं। और पीओ शराब।
| एक वैज्ञानिक है। सब तरह के दुख झेलता है। सब तरह की एक शराबी कहा करता था कि मैंने कभी एक प्याली से ज्यादा | पीड़ा झेलता है। बीमारियां अपने ऊपर बुला लेता है कि बीमारियों शराब नहीं पी। जो मित्र उसको जानते थे, उन्होंने कहा, हमसे झूठ को मिटाने की तरकीब खोज ले। जहर चख लेता है कि जहर का बोलते हो? आंखों से हमने देखा है तुम्हें प्यालियों पर प्याली पता चल जाए कि आदमी मरता है कि नहीं मरता है। सुख से भी ढालते! उसने कहा, मैंने एक प्याली से ज्यादा कभी नहीं पी। मैं यह ज्यादा ज्ञान की तलाश है। बाइबिल पर हाथ रखकर कसम खाकर कह सकता हूं। मित्रों को कुछ लोग हैं, जो सुख की खोज में हैं। कुछ लोग हैं, जो ज्ञान भरोसा न हुआ! बाइबिल उठा लाया। उसने बाइबिल पर हाथ की खोज में हैं। कुछ लोग विश्राम की खोज में हैं। सुख के खोजी, रखकर कसम खा ली, एक प्याली से ज्यादा मैंने कभी नहीं पी। उन | | हम जिनको संसारी कहते हैं, ऐसे सारे लोग सुख के खोजी हैं। मित्रों ने कहा, हद हो गई! झूठ की भी एक सीमा होती है! तुम | जिनको हम विचारक, वैज्ञानिक, कलाकार, इस कोटि में रखते बाइबिल को भी झूठ में घसीट रहे हो। आज सांझ को देखेंगे। | | हैं-दार्शनिक, चिंतक-ये सारे के सारे लोग ज्ञान के खोजी हैं।
सांझ को देखा, जैसा कि वह रोज पीता था, प्याली पर प्याली जिनको हम कहते हैं, साधु, संत, मिस्टिक्स, ये सब के सब विश्राम
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के खोजी हैं। बस, ये तीन तरह के खोजी हैं इस जगत में। लेकिन ठीक ऐसे ही प्रत्येक व्यक्ति की आत्मा प्रत्येक व्यक्ति को अंडे इसीलिए कृष्ण ने तीन गिनाए कि इन तीनों की भूल हो जाए, अगर | | की तरह बनाए हुए भीतर बेचैन है। प्रकट होना चाहती है। आनंद ये बाहर खोजें।
को पाना चाहती है। ज्ञान को पाना चाहती है। शांति को पाना चाहती भीतर खोज शुरू हो जाए तो कोई सुख को खोजता हुआ | | है। विश्राम को पाना चाहती है। स्वतंत्रता को पाना चाहती है। यह भीतर पहुंच जाए तो भी चलेगा, ज्ञान को खोजता हुआ पहुंच जाए| | भीतर की जो मांग है, यह इस बात की खबर है कि वह जो अंडे में तो भी चलेगा, विश्राम को खोजता हुआ पहुंच जाए तो भी चलेगा। | बंद है चूजा, उसके पास पंख हैं। वह खुले आकाश में उड़ सकता
जान लें आपकी खोज क्या है तीन में से। जो भी खोज हो, फिर | है। वह पत्थरों में पड़े रहने को पैदा नहीं हुआ है। अंडा पड़ा है यह देख लें कि उसको बाहर खोज रहे हैं, तो भ्रांत है खोज। | पत्थरों के बगल में। जब बगल में अंडा पड़ा होता है, तो पत्थर और भटकेंगे। कभी पहुंचेंगे नहीं कहीं। यात्रा बहुत होगी, नाव बहुत | अंडे में क्या फर्क मालूम पड़ता है! कुछ फर्क नहीं है। लेकिन बहुत चलेगी, किनारा कभी नहीं आएगा। पैर बहुत दौड़ेंगे, थक जाएंगे, फर्क है। अंडे के भीतर कोई छिपा है, जिसमें पंख निकल आएंगे, मंजिल कभी नहीं आएगी; मुकाम कभी नहीं आएगा। मुकाम तो | जो दूर आकाश की यात्रा पर भी उड़ सकता है। केवल उनको मिलता है, जो स्वयं को एक खाली डब्बे की तरह __ हम सबके भीतर भी कुछ छिपा है, जिसमें पंख लग सकते हैं; नहीं मानते हैं। और स्वयं को खाली डब्बे की तरह, एंप्टी मानने से | जो उड़ सकता है; जिसकी बड़ी संभावनाएं हैं। उन बड़ी बड़ा अपमान और हीनता कुछ भी नहीं है।
संभावनाओं में तीन पर कृष्ण ने आग्रह किया। उन तीन में बाकी धर्म मनुष्य की बड़ी गरिमा की घोषणा करता है। धर्म कहता है, | सब संभावनाएं समाविष्ट हो जाती हैं। तम जो भी चाहते हो. वह तम्हारे भीतर है। और इस कारण से भी खोजें सख को. तो ध्यान रखना. अगर बाहर खोजा. तो कभी कहता है कि अगर तुम्हारे भीतर न होता, तो तुम चाह भी न सकते | | मिलेगा नहीं। भीतर छिपा है। खोजा ज्ञान को बाहर, तो इनफर्मेशन थे। इस बात को भी ठीक से समझ लेना चाहिए। | इकट्ठी हो जाएगी, पंडित हो जाएंगे, पांडित्य हो जाएगा। जानेंगे
अगर मनुष्य के भीतर विश्राम की क्षमता और संभावना न हो, | | सब, और कुछ भी न जानेंगे। लगेगा सब जानते हैं, और हाथ में तो मनुष्य विश्राम की मांग भी नहीं कर सकता था। हम वही मांगते | सिवाय शब्दों की राख के कुछ भी न होगा। लगेगा कि सब पता हैं, जो हमारे भीतर पोटेंशियल छिपा है और एक्वुअल होना चाहता | चल गया, और सिवाय शास्त्रों के नीचे दबे हुए जानवर की भांति है। जो हमारे भीतर बीज की तरह बंद है और वृक्ष की तरह खुलना | स्थिति होगी। बोझ ढोएंगे, और कुछ भी नहीं होगा। चाहता है। हमारी सब मांगें हमारे बीज की मांगें हैं, जो वृक्ष होना । सोचा कि मिलेगा बाहर विश्राम, बहुत बड़े महल में मिलेगा। चाहती हैं। हमारी सब मांगें हमारी संभावनाओं की मांगें हैं, जो | महल बन जाएगा। विश्राम जितना महल बनने के पहले था, उससे वास्तविक होने के लिए आतुर हैं।
| भी कम हो जाएगा। क्योंकि महल बनाने में जितने तनाव अर्जित जैसे एक बीज को गड़ा दिया जमीन में। वह आतुर है। पत्थर को | करने पड़ेंगे, वे कहां जाएंगे! महल में नहीं जाएंगे, आप में चले हटा देगा। जमीन को तोड़ेगा। बाहर फूटकर निकलेगा। अंकुर | जाएंगे। सोचा कि बहुत धन-दौलत होगी, तब विश्राम करेंगे। तो बनेगा। आकाश की तरफ उठेगा। सूरज में खिलेगा फूल की तरह। बहुत धन-दौलत बनाने में जो तनाव लेने पड़ेंगे, वे तनाव कहां वह परेशान है भीतर। और जब तक बीज न टूट जाए और अंकुर | जाएंगे? धन-दौलत बाहर इकट्ठी हो जाएगी; तनाव भीतर इकट्ठे हो न बन जाए, तब तक परेशानी नहीं मिटेगी।
| जाएंगे। जब तक धन-दौलत हाथ में आएगी, तब तक तनाव इतने जैसे एक अंडा है और एक मुर्गी का चूजा उसमें बंद है। तो चूजा | | हो जाएंगे कि किसी मतलबे की न रह जाएगी। परेशान है। तोड़ेगा अंडे को आज नहीं कल, बाहर निकलेगा खुले | यह बड़े मजे की बात है। जिनके पास खाने को नहीं है, उनके आकाश में। एक बच्चा एक मां के पेट में बंद है। तैयार हो रहा है। | पास पेट होता है, जो पचा सकता है। और जिनके पास खाने को है, कि कब बाहर निकल पड़े। मां के पेट में गति है, मूवमेंट है। पूरे | | उनके पास पेट नहीं होता, जो पचा सकता है। जिनके पास गहरी नींद वक्त मां को पता है कि कोई जीवन भीतर विकसित हो रहा है। | है, उनके पास सिरहाने तकिया नहीं होता। और जिनके पास सुंदर उसकी बेचैनी है।
| तकिए आ जाते हैं, उनकी नींद खो जाती है। चमत्कार है! मगर ऐसा
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काम से राम तक
ही होता है; बिलकुल ऐसा ही होता है। क्यों ऐसा होता है? मैंने सुना है कि जर्मनी में एक बहुत बड़ा पंडित था। उसने जिंदगी
ऐसा होता इसलिए है कि जिसे हम खोजने निकले, वह मार्ग, | में सारी दुनिया के शास्त्र इकट्ठे किए। बहुत शास्त्र हैं दुनिया में, वह दिशा, वह आयाम गलत था। जिसे हमने खोजा, गलत माध्यम | उसने सारे धर्मों के शास्त्र इकट्ठे किए। उसके मित्रों ने कहा भी कि
और गलत साधन से खोजा। कोई आदमी तनाव का अभ्यास करके | तुम पढ़ोगे कब? उसने कहा कि पहले मैं सब इकट्ठा कर लूं। विश्राम को नहीं पा सकता। यह बिलकुल बेहूदी बात है, एब्सर्ड है, | क्योंकि मैं पढ़ने में लग जाऊंगा, फिर इकट्ठा कौन करेगा? पहले इल्लाजिकल है, तर्कसंगत भी नहीं है। आपका अभ्यास इतना | मैं सब इकट्ठा कर लं, निश्चित होकर ताला बंद करके फिर पढ़ने ज्यादा हो जाएगा कि फिर रुकिएगा कैसे?
में लग जाऊंगा। एक आदमी कहता है कि हमें विश्राम करना है, तो हम पहले सौ वह इकट्ठा करता रहा। उसकी लाइब्रेरी बड़ी होती चली गई, बड़ी मील की दौड़ दौड़ेंगे। फिर तभी तो विश्राम करेंगे, सौ मील के बाद | | होती चली गई। कहते हैं, उसके पास इतनी किताबें इकट्ठी हो गईं जो वृक्ष है, उसके नीचे विश्राम करेंगे। लेकिन सौ मील तक दौड़ने | | कि अगर जमीन पर एक के बाद एक किताब रखी जाए, तो एक वाला आदमी अक्सर तो सौ मील के वृक्ष तक पहुंच नहीं पाता, | चक्कर पूरा का पूरा लग जाए पूरी जमीन का। लेकिन यह जब तक बीच में ही टूटकर मर जाता है। और अगर कभी पहुंच भी जाए, घटना घटी, तब तक वह नब्बे साल का हो चुका था। तो दौड़ने की ऐसी आदत मजबूत हो जाती है कि फिर वह वृक्ष के सब धर्मग्रंथ, सब तरह की साधना पद्धतियों के ग्रंथ उसने इकट्ठे चक्कर लगाता है। वह कहता है, अब बैठे कैसे? पैरों का अभ्यास | | कर लिए। जिस दिन उसके संग्राहकों ने कहा कि अब और कोई भारी हो गया, अब बैठते बनता नहीं! अब वह दौड़ता है। जिस वृक्ष किताब बची नहीं धर्म की, तब वह आखिरी सांसें गिन रहा था। की छाया में सोचा था कि पहुंचकर विश्राम करेंगे। अनेक तो पहुंच | उसने आंख खोली और उसने कहा कि अब तो बहुत देर हो गई। नहीं पाते, पहले ही टूट जाते हैं। इतना तनाव झेल नहीं पाते। जो | | मैं पढूंगा कब? इतना करो कि मुझे स्ट्रेचर पर उठाकर मेरी लाइब्रेरी पहुंच जाते हैं, वे भी अभागे सिद्ध होते हैं। पहुंचकर वृक्ष का चक्कर | में एक चक्कर लगवा दो। देख तो लूं कम से कम! लगाते हैं! अभ्यास मजबूत हो गया। अभ्यास को छोड़ना बड़ा __ वह आदमी जिंदगीभर हिंदुस्तान, तिब्बत और चीन की यात्राएं कठिन है। अब अभ्यास को हटाओ; अब इस अभ्यास के विपरीत करता रहा। कहीं भी कोई धर्मग्रंथ हो, सब इकट्ठा कर लो! शिंटो अभ्यास करो।
का हो, तिब्बतन हो, चीनी हो—जहां मिले। कहीं दूर खबर मिलती जिस व्यक्ति ने भी, जिस तरह का संस्कार अर्जित कर लिया, | कि अफ्रीका के फलां जंगल की जाति के पास एक किताब है, जो उसे छोड़ना रोज कठिन होता चला जाता है। रोज-रोज कठिन होता छपी नहीं; तो वहां जाकर अनुलिपि तैयार करवाकर, उतरवाकर, चला जाता है। हम सब अपने-अपने अर्जित संस्कारों में ग्रस्त हो किसी भी तरह वह लाएगा। नब्बे साल बीत गए। मरा, तब उसके जाते हैं। पहले सोचा कि धन मिलेगा, फिर आनंद से मौज करेंगे। पास सिर्फ किताबें थीं। जिनको उसने देखा था, जिनको उसने पढ़ा लेकिन धन कमाते वक्त मौज पर रोक लगानी पड़ती है, नहीं तो नहीं था। अक्सर ऐसा होता है। अक्सर ऐसा ही होता है। धन इकट्ठा नहीं हो पाएगा। धन कमाना है अगर और बचाना है मौज कृष्ण कहते हैं, भीतर तू खोज। अभी मिल जाएगा। कल की के लिए, तो कंजूस होना पड़ेगा, कृपण होना पड़ेगा। एक-एक | जरूरत नहीं है। तीन चीजों को तू भीतर खोज ले, आनंद को...। दमड़ी पकड़नी पड़ेगी जोर से।
कभी आप सोचते हैं कि दुख बाहर से आता है, शांति भीतर से फिर चालीस-पचास साल दमड़ी पकड़ते-पकड़ते करोड़ इकट्ठे | आती है। जब आप शांत होते हैं कभी एक क्षण को, तो आप बता हो जाएंगे। लेकिन तब तक दमड़ी पकड़ने वाला आदमी भी काफी | सकते हैं, यह शांति कहां से आई? आप न बता सकेंगे। लेकिन मजबूत हो जाएगा। और जब करोड़ पास में आएंगे और आपका | जब आप अशांत होते हैं, तब तो आप पक्का बता सकते हैं न कि मन कहेगा कि ठीक, आ गई मंजिल; अब जरा मजा करें। तब वह | अशांति कहां से आई? फलां आदमी ने गाली दी। फलां आदमी ने दमड़ी पकड़ने वाला मन कहेगा, क्या कह रहे हो! प्राण निकल | धक्का मार दिया। दुकान में नुकसान लग गया। लाटरी मिलना जाएंगे मेरे। एक-एक दमड़ी तो बचाई मैंने।
| पक्की थी, नहीं मिली। कुछ कारण आप बता सकते हैं। ये जिंदगी के कंट्राडिक्शंस हैं। अनिवार्य हैं।
अशांति कहां से आई? आप बता सकते हैं सोर्स, वहां से आई।
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0 गीता दर्शन भाग-28
लेकिन जब भी आप शांत होंगे—कभी हुए ही न हों, तो बात डूबी, मिटी। उसके मिटने के खयाल से ही ऊर्जा उठती है और अलग—जब भी आप शांत होंगे, तब आप नहीं बता सकते कि व्यवस्थित होती है। शांति कहां से आती है। इट कम्स फ्राम नो व्हेयर। कहीं से नहीं | तो आप अगर कहते हों कि पहले थोड़ा आनंद मिलने लगे, तो आती। जब भी आप दुख में होते हैं, तो दुख कहीं से आता है, फ्राम हम भीतर जाएंगे, तो यह कभी नहीं होगा। आप भीतर जाएं, तो समव्हेअर। और जब आप आनंदमग्न होते हैं, इट कम्स फ्राम नो आनंद मिलेगा। आप कहेंगे, अभी हम कैसे जाएं? व्हेयर; वह कहीं से नहीं आता। जब आप आनंद में होते हैं, तब | कभी भी क्षणभर को, जब भी मौका मिले, आंख बंद कर लें। वह कहीं से नहीं आता; आपके भीतर से उठता है और फैलता है।। | क्षणभर को भीतर होने की बात को खयाल में लें। जब भी मौका और जब आप दुख में होते हैं, तब वह बाहर से आता है और मिले, आंख बंद कर लें; थोड़ी देर को भीतर हो जाएं। भूल जाएं बादलों की तरह आपको घेरता है।
बाहर को। भूलते-भूलते भूल जाएंगे। रोज-रोज अगर एक क्षण को इस भेद को थोड़ा देखने की कोशिश करेंगे। जैसे-जैसे यह | भी दस-बीस दफा आंख बंद कर लें कार में चलते, बस में बैठे, दिखाई पड़ने लगेगा, वैसे-वैसे लगेगा कि अगर आनंद को खोजना ट्रेन में सफर करते, कुसी पर दफ्तर में बैठे-एक क्षण को आंख है, तो चलो भीतर, गहरे, वहां पहुंच जाओ, जहां कोई दिशा नहीं है। | बंद कर लें। भल जाएं बाहर को कि नहीं है। मैं ही हं अकेला। उत्तर-पश्चिम कोई नहीं है जहां। जहां कोई दूसरा नहीं है। जहां | देखने लगें अपनी श्वास को, अपने हृदय की धड़कन को। भीतर बिलकुल अकेले हैं। जहां स्वयं ही बचे। और आखिर में ऐसी घड़ी उतर जाएं।
आ जाती है कि स्वयं भी नहीं बचते, सिर्फ बचना ही बच रह जाता धीरे-धीरे-धीरे आपको पता लगेगा, भीतर परम विश्राम है। है। सिर्फ अस्तित्व। सिर्फ धड़कती छाती, चलती श्वास। सिर्फ | महीनों की थकान क्षणभर में मिट सकती है भीतर। पहाड़ जैसे दुख, होना, बीइंग रह जाता है। चलो वहां। और जो भी उसकी एक झलक भीतर के जरा सी सुख की किरण के सामने विसर्जित हो जाते हैं। पा ले, वह कहेगा, सब कुछ भीतर है, बाहर कुछ भी नहीं है। अज्ञान कितना ही जीवन का हो, भीतर प्रकाश की एक जरा सी
लेकिन जब तक झलक न मिले, भरोसा नहीं आता। मैं कितना ज्योति जलती है और अज्ञान एकदम अंधेरे की तरह खो जाता है। ही कहूं कि तैरने का बड़ा आनंद है, उतरो पानी में। लेकिन जो कभी | | लेकिन कोई उपाय नहीं; जाने बिना कोई उपाय नहीं है, गए बिना. पानी में उतरा नहीं और जिसने कभी तैरना जाना नहीं, वह सुनेगा। | कोई उपाय नहीं है, उतरे बिना कोई उपाय नहीं है। उतरें। जब मैं उससे कहूंगा, उतरो पानी में, अगर मैं कूदू भी उसके सामने, वही कृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं कि इस जगत में तेरे लिए सुख पानी में तैरूं भी, तो उसे तैरने के आनंद का कुछ पता न चलेगा। | की राह बन जाएगी। योगी हो जाएगा तू। योग का अर्थ होता है, उसे इतना ही पता चलेगा कि अगर मैं कूदा, तो डूबा और मरा! उसे अपने से जुड़ जाएगा तू। योग का अर्थ है, कम्यूनियन। योग का सिर्फ भय का ही पता चलेगा, मेरे आनंद का नहीं, अपने भय का। अर्थ है, एक हो जाना अपने से। और परलोक में मुक्ति तेरी है।
और वह आदमी मझसे कह सकता है कि मानते हैं आपकी और इसे वे कहते हैं. यह सांख्ययोग है। इसे वे कहते हैं. यही बात। राजी हैं बिलकुल। उतरेंगे पानी में। लेकिन उतरने के पहले | सांख्ययोगी का लक्षण है। तैरना सिखा दें!
सांख्य के संबंध में एक बात खयाल में ले लें। फिर हम कीर्तन स्वभावतः, उसका तर्क दुरुस्त है। कहता है, पहले तैरना सिखा | | में उतरेंगे। कृष्ण कहते हैं, यही सांख्ययोग है। सांख्य इस पृथ्वी पर दें, फिर हम उतरने को राजी हैं। मेरी भी अपनी मजबूरी होगी। मैं ज्ञान की परम कुंजी है, दि मोस्ट सीक्रेट की। सांख्य का आग्रह क्या कहूंगा, पहले तुम उतरो, तो तैरना सिखाया जा सकता है। नहीं तो है? सांख्य की व्यवस्था क्या है? सांख्य क्या कहता है? तैरना कैसे मैं सिखाऊंगा? गद्दे-तकियों पर तैरना अभी तक भी नहीं | सांख्य शब्द का अर्थ होता है, ज्ञान! सांख्य का कहना है, करना सिखाया जा सका है। कुछ लोग कोशिश करते हैं गद्दे-तकियों पर कुछ भी नहीं है। करने योग्य कुछ भी नहीं है। करना नहीं है, होना तैरना सीखने की। हाथ-पैर में चोट लग जाएगी, लले-लंगड़े हो | है। करने से जो भी मिलेगा, वह बाहर मिलेगा। न करने से जो भी जाएंगे। गद्दे-तकियों पर तैरना नहीं सीखा जाता! असल में तैरना | | मिलेगा, वह भीतर मिलेगा! यह तो हमें समझ में आ सकता है। उस खतरे में ही पैदा होता है, जहां जिंदगी को लगता है कि गई, | अगर बाहर की दुनिया में कुछ भी पाना है, तो कुछ करना पड़ेगा;
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काम से राम तक
धन पाना है, तो कुछ करना पड़ेगा। बिना किए बाहर कुछ भी | | भीतर मौजूद है। सदा मौजूद है। है ही। सिर्फ विस्मृत, सिर्फ मिलने वाला नहीं है। कुछ भी पाना है, तो करना पड़ेगा। लेकिन | | फारगेटफुलनेस, भूल गए हैं। बस, इससे ज्यादा नहीं है। खोया नहीं, भीतर अगर कुछ पाना है, तो? तो न करना सीखना पड़ेगा। उलटी | सिर्फ भूल गए हैं। भीतर जाएं, याद आ जाए, स्मरण आ जाए। यात्रा है।
लेकिन हम बाहर उलझे हैं, उलझे ही चले जाते हैं। और एक जैसे रात आपको नींद नहीं आती है और बड़ी मुश्किल में पड़े | | उलझाव दस नए उलझाव बना जाता है। और हम सोचते रहते हैं कि हैं। पूछते हैं, क्या करें? नींद कैसे आए? क्या करें? गलत सवाल | आज नहीं कल जब सब उलझाव सुलझ जाएंगे, तो हम भीतर चले पूछते हैं। किसी से पूछना ही मत। और अगर कोई जवाब दे, तो जाएंगे। इस भ्रांत तर्क में जो पड़ा, वह सदा के लिए खो जाता है। कान पर हाथ रख लेना; सुनना मत। जब आप पूछते हैं, नींद नहीं | बाहर के उलझाव कभी कम न होंगे, कभी कम न होंगे। एक आती, क्या करें, तो आप गलत सवाल पूछते हैं। क्योंकि आपने | उलझाव दस निर्मित करता है। दस, सौ निर्मित कर जाते हैं। सौ, कुछ किया कि नींद फिर बिलकुल नहीं आएगी। करने से नींद की हजार निर्मित कर जाते हैं। दुश्मनी है। करने से कहीं नींद आई है! करने से तो लगी हुई नींद आप यह मत सोचना कि हम एक दिन उलझाव हल कर लेंगे। हो, तो भी टूट जाएगी। करना मत।
| उलझाव हल करने में जो आप कर रहे हैं. वह हर करना नए कोई अगर कह दे कि भेड़ों को गिनो; एक से लेकर सौ तक उलझाव बनाता चला जाता है। अगर किसी भी दिन आपको खयाल गिनती करो; सौ से एक तक गिनती करो। बस, गए आप! कभी | आ जाए कि इस अंतर्लोक ज्ञान की खोज में निकलना है, तो यह नहीं होगा। इससे नींद नहीं आएगी। और अगर कभी आती हुई | | उलझावों को रहने देना अपनी जगह; उलझावों के बीच ही 'मालूम पड़ी, तो वह इससे नहीं आएगी। कर-करके थक जाएंगे; | कभी-कभी भीतर डूबना शुरू कर देना। थोड़ी देर में पाएंगे कि नहीं आती; छोड़ो। तब आ जाएगी। न करने | लेकिन जैसा मैंने कहा, आदतें खराब हैं। अगर छुट्टी का भी दिन से आएगी। कुछ न करें। पड़े रह जाएं। नींद उतर आती है। हो—अंग्रेजी में नाम अच्छा है, हॉली-डे। दिया तो था इसी खयाल __कुछ न करें; पड़े रह जाएं। होश से भरे रहें। ध्यान उतर आता है, | से कि एक दिन आप कुछ न करेंगे। ईसाइयों का खयाल यही है कि ज्ञान उतर आता है। कुछ न करें। एक घड़ीभर के लिए चौबीस घंटे परमात्मा ने भी छः दिन काम किया और सातवें दिन विश्राम किया। में एक कोने में बैठ जाएं और कुछ न करें। बाहर भी नहीं करें, भीतर रविवार के दिन उसने कोई काम नहीं किया, इसलिए वह हॉली-डे भी नहीं करें। बाहर नहीं करना तो बहुत आसान है। हाथ-पैर छोड़कर हो गया, पवित्र दिन हो गया। बैठ गए, तो बाहर नहीं होगा कुछ। मन भीतर करेगा। उसकी आदत लेकिन बड़े मजे की बात है कि छुट्टी के दिन ज्यादा काम होता है। उसको कभी हमने बिना काम छोड़ा नहीं; उससे काम लेते ही | | है, जितना बाकी दिन होता है। और अमेरिका में तो एक मजाक रहते हैं। कुछ न कुछ करेगा वह भीतर। उसको भी कह दें कि काहे चलती है कि एक दिन की छुट्टी के लिए सात दिन विश्राम करना को परेशान हो रहा है। मत कर। एक दिन में मानेगा नहीं; दो दिन में | | पड़ता है बाद में। इतनी भाग-दौड़ कर लेते हैं लोग छुट्टी के दिन नहीं मानेगा। लेकिन आप भी मत मानें। चलते जाएं।
कि फिर सात दिन विश्राम चाहिए। छुट्टी के दिन इतना काम हो जाता __ आज नहीं कल, कल नहीं परसों, धीरे-धीरे मन पाएगा कि कोई | है। सबसे ज्यादा एक्सिडेंट छुट्टी के दिन होते हैं। सारे लोग निकल उत्सुकता नहीं है आपकी, शिथिलं होने लगेगा। कभी-कभी गैप्स | पड़े हैं समुद्र की तरफ! सारे लोग पहाड़ की तरफ, हिल स्टेशन की आ जाएंगे, खाली जगह आ जाएगी। कुछ नहीं करेगा मन भी। उसी | | तरफ! भारी काम चल रहा है। गले से गले में उलझी हुई कारें लाखों खाली जगह में से अचानक विश्राम, अचानक विश्राम उतर की तादाद में दौड़ी
जा रही हैं। जाएगा। अचानक जैसे कोई बडी गहन शांति ने सब तरफ से । बड़े मजे की बात है। जब सारा बाजार ही बीच पर पहुंच जाएगा, आपको घेर लिया। भीतर, बाहर, सब तरफ आकाश जैसा विराट | | तो बीच पर जाने से क्या होगा! वहां सबके सब पहुंच गए। वही कुछ शांत हो गया, ठहर गया। फिर विराम बढ़ने लगेगा। इस | | सारी दुनिया वहीं खड़ी हो गई! फिर भागे; फिर घर आ गए। फिर विराम में ही ज्ञान भी उतरेगा, इस विराम में आनंद भी उतरेगा। । | वही काम की दुनिया शुरू हो गई!
सांख्य कहता है, कुछ करके नहीं पाना है। जो पाना है, वह हमारे पवित्र क्षण का या पवित्र दिन का अर्थ है कि उस दिन कुछ मत
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गीता दर्शन भाग-20
करना, कुछ करना ही मत। उस दिन पूरे विश्राम में भीतर चले | वासनाएं भभकाए चले जा रहे हैं। खुद रोज उसमें पेट्रोल डालते हैं। जाना।
और जब आग जोर से जलती है, तो कहते हैं कि बड़ी तकलीफ पर नहीं; उस दिन सिनेमा देखना है, थिएटर जाना है! टिकटें उठा रहा हूं; बड़ी मुश्किल में पड़ा हुआ हूं। खरीद ली गई हैं। सारा उपद्रव पहले से तैयार है। पवित्र दिन को रोज अपेक्षा में जीते हैं, फिर दुख आता है, तो कहते हैं कि बड़ी अपवित्र करने की पूरी तैयारी पहले से है। तो फिर अंतर में उतरने | तकलीफ में पड़ा हूं! किसने कहा था, अपेक्षा करो? एक्सपेक्टेशन का समय कब आएगा? कब? फिर शायद कभी न आए। आज से | किया कि दुख आया। रोज वासना से भर रहे हैं और कह रहे हैं ही, अभी से ही जो थोड़ा-थोड़ा भीतर की तरफ यात्रा करने कि बड़ा विषाद आता है मन में; बड़ा हारापन लगता है। किसने लगे...।
कहा था? तो सांख्य का कहना है कि ज्ञान है आपके पास; वह आपका लाओत्से ने कहा है कि मुझे कोई कभी हरा नहीं सका, क्योंकि स्वभाव है। कोई अर्जन नहीं करना है। वह आप हैं ही। सिर्फ जानना हम सदा से हारे ही हुए हैं। हमने कभी जीतने की इच्छा ही न की। है; जागना है; होश से भरना है कि मैं कौन हूं। विश्राम पाने कहीं | हमें कोई हरा ही न सका, क्योंकि जीतने की हमने कभी इच्छा न जाना नहीं है किसी यात्रा पर। जहां खड़े हैं, वहीं मिल जाएगा। एक की। लाओत्से ने कहा है, हमें कभी कोई घर के बाहर न निकाल बार पीछे लौटकर देखना है कि मैं कहां हूं!
सका, क्योंकि हम किसी के भी घर गए, तो बाहर ही बैठे, दरवाजे ज्ञान किसी के हाथ से भीख नहीं मांगनी है। कोई सिखाएगा नहीं | पर ही बैठे। हमने कहा, इसके पहले कि निकालने का मौका आए, ज्ञान। ज्ञान दबा पड़ा है; ऐसे ही जैसे कि हर जमीन के नीचे पानी हम बाहर ही बैठ जाते हैं। कोई हमें दुख न दे सका, लाओत्से ने दबा है। जरा मिट्टी की पर्तों को अलग करना है, और पानी के कहा है, क्योंकि हमने सुख की कभी किसी से मांग ही न की। कोई फव्वारे छूटने लगेंगे।
| हमारा दुश्मन न था इस जमीन पर, क्योंकि हमने कभी किसी को हां, यह हो सकता है कि कहीं सौ फीट पर है, कहीं पचास फीट मित्र बनाने की चेष्टा ही न की। पर है, कहीं दस फीट है, कहीं दो फीट पर है। यह फर्क हो सकता अब यह जो आदमी है, यह जिस विराम, जिस शांति और जिस है मिट्टी की पर्तों का। क्योंकि सभी लोगों ने अलग-अलग जन्मों | आनंद को उपलब्ध होगा, वह सांख्य की स्थिति है। में अलग-अलग मिट्टी की पर्ते निर्मित कर ली हैं। लेकिन एक बात शेष कल हम बात करेंगे। उठेगा कोई भी नहीं। बैठे रहें। एक सुनिश्चित है, ऐसा कोई जमीन का टुकड़ा नहीं है, जिसके नीचे भी जन न उठे। मौन से देखें इस नृत्य को। देखें इसमें परमात्मा की पानी न दबा हो। कितना ही गहरा हो, एक बात का आश्वासन दिया छवि को, चारों तरफ नाचते हुए। शायद कुछ हो सके। जा सकता है कि पानी दबा ही है। चट्टान भी आ जाए बीच में, तो कोई हर्ज नहीं: पानी तो नीचे है ही। बीच की पर्त को अलग कर देंगे और जल-स्रोत उपलब्ध हो जाते हैं।
ऐसा ही ज्ञान दबा है भीतर। पर भीतर की यात्रा, दि इनवर्ड जर्नी, कब करेंगे? कैसे करेंगे? जिसने पोस्टपोन किया, वह कभी नहीं करेगा। जिसने कहा, कल करेंगे, अच्छा है कि वह कह दे कि नहीं करेंगे। वह कम से कम सच्चा तो रहेगा। कल नहीं। घर में आग लगी हो, तो कोई नहीं कहता कि कल बुझाएंगे!
जिंदगी में लगी है आग, और आप कहते हैं, कल! जिंदगी पूरी जलती हुई है-दुख, पीड़ा, चिंता, संताप-सब तरफ धुआं और आग है। और आप कहते हैं, कल! तो इसका मतलब यही है कि आपको पता ही नहीं है कि आप क्या कर रहे हैं। और आप ही हैं कि अपनी इस जलती हुई आग में रोज पेट्रोल डाले चले जा रहे हैं, |
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अध्याय 5 ग्यारहवां प्रवचन
काम-क्रोध से मुक्ति
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गीता दर्शन भाग-2
लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः । | है अंगूरों का। अब तो वहीं जाकर अंगूरों के उस बगीचे में ही मेहनत छिन्नद्वधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः । । २५ ।। करनी है, विश्राम करना है। और नाश हो गए हैं सब पाप जिनके, तथा ज्ञान करके निवृत्त साधु बहुत प्रसन्न हुआ, खुशी से नाचने लगा। उसने कहा कि हो गया है संशय जिनका और संपूर्ण भूत प्राणियों के हित में | मुझे कुछ दिन से लग रहा था, यू आर रिफार्मिंग; कुछ तुम्हारे भीतर
है रति जिनकी, एकाग्र हुआ है भगवान के ध्यान में चित्त | बदल रहा है। उस कैदी ने चौंककर रहा, हू सेज एनीथिंग अबाउट जिनका, ऐसे ब्रह्मवेत्ता पुरुष शांत परब्रह्म को प्राप्त होते हैं। | रिफार्मिंग? आई एम जस्ट रिटायरिंग! किसने तुमसे कहा कि मैं
बदल रहा हूं? मैं सिर्फ रिटायर हो रहा हूं। किसने कहा कि मैं बदल
रहा हूं, मैं सिर्फ थक गया हूं और अब विश्राम को जा रहा हूँ! 11 प से हो गए हैं जो मुक्त, चित्त की वासनाएं जिनकी __ अर्जुन रिटायर होना चाहता था; कृष्ण रिफार्म करना चाहते हैं। पा शांत हुईं, जो स्वयं में एक शांत झील बन गए हैं, वे | अर्जुन चाहता था, सिर्फ बच निकले! कृष्ण उसकी पूरी जीवन ऊर्जा ____ शांत ब्रह्म को उपलब्ध होते हैं।
को नई दिशा दे देना चाहते हैं। अर्जुन तो चाहता था केवल पलायन। नहीं सोचा था उसने कि | | और दो ही प्रकार के मार्ग हैं जीवन ऊर्जा के लिए। एक तो मार्ग कृष्ण उसे एक अंतर-क्रांति में ले जाने के लिए उत्सुक हो जाएंगे। । है कि हम अशांति के जालों को निर्मित करते चले जाएं, जैसा कि उलझ गया बेचारा। सोचा था, सहारा मिलेगा भागने में। नहीं सोचा हम सब करते हैं। अशांति की भी अपनी विधि है। पागलपन की था कि किसी आत्मक्रांति से गुजरना पड़ेगा। उसकी मर्जी जिज्ञासा | भी अपनी विधि होती है। बीमार होने के भी अपने उपाय होते हैं। शुरू करने की इतनी ही थी, इस युद्ध से कैसे बच जाऊं। कोई नए | | चित्त को रुग्ण करना और विक्षिप्त करना भी बड़ा सुनियोजित काम जीवन को उपलब्ध करने की आकांक्षा नहीं है। लेकिन कृष्ण जैसे | | है! पता नहीं चलता हमें, क्योंकि बचपन से जिस समाज में हम बड़े व्यक्ति के पास कोई पत्थर खोजता हुआ भी जाए, तो भी उनकी | | होते हैं, वहां चारों तरफ हमारे जैसे ही लोग हैं। जो भी हम करते मजबूरी है कि वे पत्थर दे नहीं सकते हैं। वे हीरे ही दे सकते हैं। | हैं, बिना इस बात को सोचे-समझे कि जो भी हम कर रहे हैं, वह कोई पत्थर खोजता हुआ जाए, तो भी कृष्ण को कोई उपाय नहीं कि | हमें भी बदल जाएगा। पत्थर दें, हीरे ही दे सकते हैं।
कोई भी कृत्य करने वाले को अछूता नहीं छोड़ता है। विचार भी जो अर्जुन को कृष्ण ने दिया है, वह अर्जुन ने पूछा नहीं, चाहा करने वाले को अछूता नहीं छोड़ता है। अगर आप घंटेभर बैठकर नहीं। कठिनाई में पड़ता होगा सुनकर उनकी बातें। ब्रह्म और शांत | | किसी की हत्या का विचार कर रहे हैं, माना कि अपने कोई हत्या हुए चित्त का ब्रह्म से तादात्म्य-लगता होगा अर्जुन को, सिर पर | नहीं की, घंटेभर बाद विचार के बाहर हो जाएंगे। लेकिन घंटेभर से निकल रही हैं बातें।
तक हत्या के विचार ने आपको पतित किया, आप नीचे गिरे। मुझे एक घटना स्मरण आती है। एक साधु-चित्त व्यक्ति वर्षों से | | आपकी चेतना नीचे उतरी। और आपके लिए हत्या करना अब एक कारागृह के कैदियों को परिवर्तित करने के लिए श्रम में रत था। ज्यादा आसान होगा, जितना घंटेभर के पहले था। आपकी हत्या वर्षों से लगा था कि कारागृह के कैदी रूपांतरित हो जाएं, ट्रांसफार्म | करने की संभावना विकसित हो गई। अगर आप मन में किसी पर हो जाएं। कोई सफलता मिलती हुई दिखाई नहीं पड़ती थी। पर साधु | क्रोध कर रहे हैं, नहीं किया क्रोध तो भी, तो भी आपके अशांत होने वही है कि जहां असफलता भी हो, तो भी शुभ के लिए प्रयत्न के बीज आपने बो दिए, जो कभी भी अंकुरित हो सकते हैं। करता रहे। उसने प्रयत्न जारी रखा था।
हमारी कठिनाई यही है कि मनुष्य की चेतना में जो बीज हम आज ___ एक दिन चार बार सजा पाया हुआ व्यक्ति, चौथी बार सजा पूरी बोते हैं, कभी-कभी हम भूल ही जाते हैं कि हमने ये बीज बोए थे। करके घर वापस लौट रहा है। साठ वर्ष उस अपराधी की उम्र हो| जब उनके फल आते हैं, तो इतना फासला मालूम पड़ता है दोनों गई। उस साधु ने उसे द्वार पर जेलखाने के विदा देते समय पूछा कि | स्थितियों में कि हम कभी जोड़ नहीं पाते कि फल और बीज का कोई अब तुम्हारे क्या इरादे हैं? आगे की क्या योजना है? उस बूढ़े | | जोड़ है। अपराधी ने कहा, अब दूर गांव में मेरी लड़की का एक बड़ा बगीचा | जो भी हमारे जीवन में घटित होता है, उसे हमने बोया है। हो
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काम-क्रोध से मुक्ति
सकता है, कितनी ही देर हो गई हो किसान को अनाज डाले, छः | सदा की आदत है, मैं कोई समता का मार्ग निकाल लेता हूं। वह महीने बाद आया हो अंकुर, सालभर बाद आया हो अंकुर, लेकिन | मैंने निकाल लिया है। जिसने पांच हजार भेजे हैं, वह हजार रुपए अंकुर बिना बीज के नहीं आता है।
वापस ले जाए। चार-चार हजार दोनों के बराबर रह गए। अब हम अशांति को उपलब्ध होते चले जाते हैं। जितनी अशांति बढ़ती समता से अदालत का काम आगे चल सकता है! जाती है, उतना ही ब्रह्म से संबंध क्षीण मालूम पड़ता है; क्योंकि ब्रह्म हमारी समताएं ऐसी ही हैं। अगर हम दूसरे दो व्यक्तियों के प्रति से केवल वे ही संबंधित हो सकते हैं, जो परम शांत हैं। शांति ब्रह्म | समता भी रख लें, तो भी अपने प्रति और दसरों के बीच समता नहीं
और स्वयं के बीच सेतु है। जैसे ही कोई शांत हुआ, वैसे ही ब्रह्म के | रख पाते। असली समता दूसरे दो व्यक्तियों के बीच निर्मित नहीं साथ एक हुआ। जैसे ही अशांत हुआ कि मुंह मुड़ गया। होती, अपने और दूसरे के बीच निर्मित होती है!
अशांत चित्त संसार से संबंधित हो सकता है। शांत चित्त संसार __ उस मजिस्ट्रेट ने ठीक कहा। जहां तक दोनों पक्षों का सवाल है, से संबंधित नहीं हो पाता। अशांत चित्त परमात्मा से संबंधित नहीं बात समान हो गई। दोनों के चार-चार हजार रिश्वत में मिल गए। हो पाता। शांत चित्त परमात्मा में विराजमान हो जाता है। अब बात शुरू हो सकती है, जैसे कि न मिले हों। चार हजार ने इसलिए कृष्ण कहते हैं, पाप जिनके क्षीण हुए!
चार हजार काट दिए। लेकिन जहां तक मजिस्ट्रेट का संबंध है, क्या है पाप? जब भी हम किसी दूसरे को दुख पहुंचाना चाहते उसके पास आठ हजार रुपए हो गए। समता उसने दो अन्यों के हैं, विचार में या कृत्य में, तभी पाप घटित हो जाता है। जो व्यक्ति बीच में खोज ली, अपने और अन्य के बीच में नहीं। दूसरे को दुख पहुंचाना चाहता है, कृत्य में या भाव में, वह पाप __गहरी समता दो के बीच नहीं होती। गहरी समता सदा अपने और में ग्रसित हो जाता है। जो व्यक्ति इस पृथ्वी पर किसी को भी दुख | दूसरे के बीच होती है। दूसरे के बीच तटस्थ हो जाना बहुत आसान नहीं पहुंचाना चाहता, कृत्य में या विचार में, वह पाप के बाहर हो | है। बहुत आसान है। सवाल तो तब उठते हैं, जब अपने और दूसरे जाता है।
| के बीच तटस्थ होने की बात उठती है। बुद्धि हुई जिनकी निःसंशय!
बढ़ेंड रसेल ने पंडित नेहरू की बहुत गहरी आलोचना की है, जिनकी बुद्धि निःसंशय हो गई, सम हो गई, समान हो गई; | | कीमती आलोचना की है। कहा है कि जब तक दूसरे दो मुल्कों के ठहर गए ज़ो; जिनके भीतर कोई संशय की हवाएं अब नहीं बहतीं; बीच झगड़े थे, पंडित नेहरू सदा तटस्थता की बात करते रहे। कोई तूफान, आंधियां नहीं उठतीं संशय की; निःसंशय होकर सम | लेकिन जब वे खुद, उनका राष्ट्र किसी मुल्क के साथ झगड़े में हो गए हैं।
पड़ा, तब सारी तटस्थता खो गई। तब उन्होंने वही काम किया, जो हममें से बहुत-से लोग समझते हैं कि समता में रहते हैं। जब | उस मजिस्ट्रेट ने किया। आसान है सदा। हमें लगता है कि हम समता में भी हैं—तब भी—तब भी हम ___ दो लोग लड़ रहे हों रास्ते पर, आप किनारे खड़े होकर कह समता में होते नहीं। हमारी समता करीब-करीब वैसी होती है, जैसा सकते हैं कि हम तटस्थ हैं, न्यूट्रल हैं, हम किसी के पक्ष में नहीं एक दिन एक अदालत में लोगों को पता चला।
हैं। असली सवाल तो यह है कि जब कोई आपकी छाती पर छुरा मजिस्ट्रेट सुबह-सुबह आया और उसने अदालत में खड़े होकर | | लेकर खड़ा हो जाए, तब आप तटस्थ रह पाएं। कहा कि जैसा कि आप सब जानते हैं जरी. वकील, और | समता दो के बीच नहीं, अपने और अन्य के बीच समता है। अदालत के सारे लोग–कि मैं सदा ही न्याय और समता में और निःसंशय, शांत, सम वही होता है, जो अपने प्रति भी तटस्थ प्रतिष्ठित रहता हूं। आज तक मैंने कभी किसी का पक्ष नहीं लिया। हो जाता है; जो अपने प्रति भी साक्षी हो जाता है; जो अपने को भी कानून एकमात्र मेरी दृष्टि है। लेकिन आज जिस मुकदमे का मुझे अन्य की भांति देखने लगता है। फैसला करना है, उस मुकदमे के एक पक्ष ने कल रात मेरे घर एक ___ अगर आपने मुझे गाली दी और मैंने गाली सुनी, और इस गाली लिफाफा भेजा, उसमें चार हजार रुपए भेजे। उसके आधी घड़ी बाद | की घटना में दो ही व्यक्ति रहे, आप देने वाले और मैं सुनने वाला, दूसरे पक्ष ने भी एक लिफाफा भेजा और उसमें पांच हजार रुपए | तो तटस्थता निर्मित न हो पाएगी। तटस्थता तब निर्मित होगी, जब भेजे। अब मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गया हूं। लेकिन जैसा कि मेरी | | मैं जानूं कि आपने मुझे गाली दी, तीन व्यक्ति हैं यहां, एक गाली
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गीता दर्शन भाग-26
देने वाला, एक गाली सुनने वाला, और एक मैं—दोनों से भिन्न, के लिए वासना पकड़ती है, बाकी चौबीस घंटे तो हम वासना के दोनों के पार-तब तटस्थता निर्मित हो पाएगी।
बाहर हैं। क्षण दो क्षण को क्रोध पकड़ता है, वैसे तो हम अक्रोधी हैं। तटस्थ केवल वे ही हो सकते हैं, जो द्वंद्व के बाहर तीसरे बिंदु | लेकिन इस भ्रांति को समझ लेना। यह बहुत खतरनाक भ्रांति है। पर खड़े हो जाते हैं; जो द्वंद्वातीत हैं।
जो आदमी चौबीस घंटे क्रोध की अंडर करेंट, अंतर्धारा में नहीं ध्यान रहे, द्वंद्व के जो बाहर है, वह शांत है। द्वंद्व के भीतर जो | | है, वह क्षणभर को भी क्रोध नहीं कर सकता है। और जो आदमी है, वह अशांत है। दो के बीच जो चुनाव कर रहा है, वह अशांत | | चौबीस घंटे काम से भीतर घिरा हुआ नहीं है, वह क्षणभर को भी है। दो के बीच जो च्वाइसलेस अवेयरनेस को–कृष्णमूर्ति कहते कामवासना में ग्रसित नहीं हो सकता है। हैं जिस शब्द को बार-बार–कि जो चुनावरहित, विकल्परहित __ हमारी स्थिति ऐसी है, जैसे एक कुआं है। जब हम बाल्टी डालते चैतन्य को उपलब्ध हो गया है, वैसा व्यक्ति शांत हो जाता है। | हैं, पानी बाहर निकल आता है। कुआं सोच सकता है कि पानी मुझ
ऐसे शांत व्यक्ति का शांत ब्रह्म से संबंध निर्मित होता है। ऐसी | में नहीं है। कभी-कभी चौबीस घंटे में जब कोई बाल्टी डालता है, शांति ही मंदिर है, तीर्थ है। जो ऐसी शांति में प्रवेश करता है, उसके तो क्षणभर को निकल आता है। लेकिन अगर कुएं में पानी न हो, लिए प्रभु के द्वार खुल जाते हैं।
तो क्षणभर को बाल्टी डालने से निकलेगा नहीं। सूखे कुएं में बाल्टी | डालें और प्रयोग करें, तो पता चलेगा। बाल्टी खाली लौट आती
है। चौबीस घंटे कएं से कोई पानी नहीं भरता। जितनी देर भरता है. कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम्।। | कुएं को लगता होगा कि पानी है। और जब कोई नहीं भरता, तब अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम् ।। २६।। । कुएं को लगता होगा कि पानी नहीं है।
और काम-क्रोध से रहित, जीते हुए चित्त वाले परब्रह्म ___ जब कोई आपको गाली देता है, तो क्रोध निकल आता। जब परमात्मा का साक्षात्कार किए हुए ज्ञानी पुरुषों के लिए, सब कोई गाली नहीं देता, तो क्रोध नहीं निकलता। गाली सिर्फ बाल्टी ओर से शांत परब्रह्म परमात्मा ही प्राप्त है। का काम करती है। क्रोध आप में चौबीस घंटे भरा हुआ है।
जब कोई विषय, वासना का कोई आकर्षक बिंदु आपके.
आस-पास घूम आता है, तब आप एकदम आकर्षित हो जाते हैं। काम और क्रोध के बाहर हुए पुरुष को सब ओर से | बाल्टी पड़ गई; वासना बाहर आ गई! पा परमात्मा ही प्राप्त है। काम और क्रोध से मुक्त हुई सुंदर स्त्री पास से निकली, सुंदर पुरुष पास से निकला, कि चेतना को!
सुंदर कार गुजरी, कुछ भी हुआ, जिसने मन को खींचा। वासना काम के संबंध में सदा ऐसे लगता है कि मैं कभी-कभी कामी | बाहर निकल आई। आप सोचते हैं, कभी-कभी आ जाती है। यह होता हूं, सदा नहीं। क्रोध के संबंध में भी ऐसा लगता है कि मैं | कोई बीमारी नहीं है। एक्सिडेंट है। कभी-कभी हो जाती है। घटना कभी-कभी क्रोधी होता हूं, सदा नहीं। इससे बहुत ही भ्रांत निर्णय | है, कोई स्वभाव नहीं है। हम अपने बाबत लेते हैं। स्वभावतः, यह निर्णय बहुत स्टेटिस्टिकल | लेकिन सूखे कुएं में जैसे बाल्टी डालने से कुछ भी नहीं है। अंकगणित इसका समर्थन करता है।
निकलता, ऐसे ही जिनके भीतर वासना से मुक्ति हो गई है, कुछ चौबीस घंटे में आप चौबीस घंटे क्रोध में नहीं होते। चौबीस घंटे | | भी डालने से वासना नहीं निकलती है। में कभी किसी क्षण क्रोध आता है, फिर क्रोध चला जाता है। तो पहली तो यह भ्रांति छोड़ देना जरूरी है, तो ही इस सूत्र को स्वभावतः, हम सोचते हैं कि जब क्रोध नहीं रहता, तब तो हम | | समझ पाएंगे, काम-क्रोध से मुक्त! नहीं तो सभी लोग समझते हैं अक्रोधी हो जाते हैं। ऐसा ही काम भी कभी आता है चौबीस घंटे | | कि हम तो मुक्त हैं ही। कभी-कभी स्थितियां मजबूर कर देती हैं, में; वासना कभी पकड़ती है। फिर हम दूसरे काम में लीन हो जाते इसलिए क्रोध से भर जाते हैं। जो जानते हैं, वे कहेंगे, एक क्षण को हैं, और खो जाती है। तो मन को ऐसा लगता है कि कभी-कभी भी क्रोध से भर जाते हों, तो जानना कि सदा क्रोध से भरे हुए हैं। वासना होती है, बाकी तो हम निर्वासना में ही होते हैं। दो-चार क्षणों | एक क्षण को भी वासना पकड़ती हो, तो जानना कि सदा वासना से
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C काम-क्रोध से मुक्ति
भरे हुए हैं। उस एक क्षण को एक क्षण मत मान लेना, नहीं तो एक मनोवैज्ञानिक भी कि कौन-सा जानवर है! हाथ में तस्वीर देखी, तो क्षण के मुकाबले सैकड़ों घंटे वासनारहित मालूम पड़ेंगे और एक घोड़े की तस्वीर है। आपको भ्रम पैदा होगा अपने बाबत कि मैं तो वासना से मुक्त ही उस मनोवैज्ञानिक ने कहा, आप घोड़े के प्रेम में पड़ गए हैं! उस हूं। और हर आदमी इस जंगत में जो सबसे बड़ा धोखा दे सकता आदमी ने कहा, क्या तुम मुझे पागल समझते हो? यह घोड़ा नहीं है, वह अपनी ही गलत इमेज, अपनी ही गलत प्रतिमा बनाकर दे | है। उस मनोवैज्ञानिक ने कहा. तस्वीर तो घोडे की है। उस आदमी पाता है।
ने कहा, मैं और घोड़े को प्रेम करूं! यह घोड़ा नहीं है, घोड़ी है। मैं हम सब अपनी गलत प्रतिमाएं बनाए रखते हैं। और जो प्रतिमा कोई पागल हूं! हम बना लेते हैं, उसके लिए जस्टीफिकेशंस खोजते रहते हैं। __ अब यह जो आदमी है, उस सीमा पर भी रेशनलाइजेशन खोज
अरस्तू ने कहा है कि आदमी बुद्धिमान प्राणी है। रेशनल एनिमल रहा है। वह यह खोज रहा है कि घोड़े को जो प्रेम करे, वह पागल। कहा है। लेकिन अब? अब जो जानते हैं, वे कहते हैं, आदमी | घोड़ी को करे, तो उतना पागल नहीं है। विपरीत लिंगीय, रेशनल एनिमल है, यह कहना तो मुश्किल है; रेशनलाइजिंग | हेट्रो-सेक्सुअल है, इसलिए उतना पागल नहीं है! एनिमल है। बुद्धिमान तो नहीं मालूम पड़ता, लेकिन हर चीज को अगर मनोवैज्ञानिक के दफ्तर में बैठ जाएं, तो दिनभर ऐसे लोग बुद्धिमानी के ढंग से बताने की चेष्टा में रत जरूर रहता है। हर चीज | आते हुए मालूम पड़ेंगे, जो रेशनलाइजेशन की तलाश में आए हुए को बुद्धियुक्त ठहरा लेता है।
हैं। इस तलाश में आए हुए हैं कि किसी तरह कोई सिद्ध कर दे कि एक आदमी एक मनोचिकित्सक के पास गया है और उसने | वे ठीक हैं; ज्यादा गलत नहीं हैं। हम सब...। जाकर उसको कहा कि मैं बहुत परेशान हैं। मझे कुछ सहायता करें। जब आप क्रोध करते हैं. तो खयाल करना. सच में ही क्रोध क्या आप सोचते हैं, यह कुछ गलत बात है कि कोई आदमी किसी करने योग्य कारण होता है या क्रोध आपको करना होता है, इसलिए जानवर को प्रेम करने लगे? मनोवैज्ञानिक ने कहा, इसमें कोई कारण खोजते हैं? क्रोध करने योग्य कारण शायद ही जिंदगी में गलती नहीं है। सैकड़ों लोग जानवरों को प्रेम करते हैं। मैं खुद ही | मौजूद होते हैं। और क्रोध करने योग्य कारण उन्हें ही मिल सकते मेरे कुत्ते को प्रेम करता हूं।
हैं, जो अकारण क्रोध नहीं करते हैं। लेकिन हम कारण खोजते हैं। वह आदमी कुर्सी पर आगे झुककर बैठा था। अब आराम से । छोटे-छोटे बच्चे भी जानते हैं कि अगर माता और पिता में कोई कुर्सी पर बैठ गया। रेशनलाइजेशन मिल गया उसे। जानवर को प्रेम | झगड़ा हो गया है, तो आज उनकी पिटाई हो जाएगी। कोई भी करने में कोई बात नहीं है। जब मनोवैज्ञानिक खुद प्रेम करता है, तो कारण मिल जाएगा। वे उस दिन जरा मां से सचेत, दूर रहेंगे। ऐसा हम तो साधारण आदमी हैं। पर उसने पूछा कि फिर भी एक बात मैं नहीं है, कल भी यही था। कल भी वे स्कूल से लौटे थे, तो किताब पूछना चाहता हूं, यह प्रेम साधारण नहीं है; बहुत रोमांटिक हो गया फट गई थी। और कल भी स्कूल से आए थे, तो कपड़े गंदे हो है, रूमानी हो गया है। मनोवैज्ञानिक ने कहा, मैं समझा नहीं! | गए थे। और कल भी पड़ोस के गंदे लड़के के साथ खेल खेला तुम्हारा क्या मतलब ? उसने कहा, यह प्रेम ऐसा हो गया है कि उस | | था। कल पिटाई नहीं हुई थी; आज हो जाएगी। क्यों? कल सब जानवर को दिन में दो-चार-दस दफे देखे बिना मुझे बड़ी बेचैनी | | कारण मौजूद थे, पिटाई नहीं हुई थी। आज भी वही कारण है, कोई रहती है। उस जानवर की तस्वीर मैं अपने हृदय के पास रखता हूं। | फर्क नहीं पड़ गया है, लेकिन पिटाई हो जाएगी। क्योंकि मां तैयार
तब जरा मनोवैज्ञानिक भी चौंका। उसने कहा कि यह जरा सीमा है। कोई भी कारण खोजेगी। से बाहर चले जाना है। एबनार्मल है। यह थोड़ा असाधारण हो गया | __क्रोध के कारण होते कम, खोजे ज्यादा जाते हैं। और हमारे भीतर है। फिर भी मैं जानना चाहूंगा कि वह जानवर कौन है? | क्रोध इकट्ठा होता रहता है पीरियाडिकल। अगर आप अपनी डायरी
उस आदमी ने अपनी छाती के पास के खीसे से एक तस्वीर | | रखें, तो बहुत हैरान हो जाएंगे। आप डायरी रखें कि ठीक कल निकाली। ठीक वैसे ही जैसे अगर मजनू लैला की तस्वीर | आपने कब क्रोध किया; परसों कब क्रोध किया। एक छः महीने की निकालता, या रोमियो जूलियट की तस्वीर निकालता, या फरिहाद | डायरी रखें और ग्राफ बनाएं। तब आप बहुत हैरान हो जाएंगे। आप शीरी की तस्वीर निकालता, वैसे ही रोमांच, मंत्रमुग्ध! हैरान हुआ | | प्रेडिक्ट कर सकते हैं कि कल कितने बजे आप क्रोध करेंगे।
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गीता दर्शन भाग-20
करीब-करीब पीरियाडिकल दौड़ता है। आप अपनी कामवासना की अपराध को स्वीकार कर ले, इससे बड़ी निर्दोषता, इससे बड़ी डायरी रखें, तो आप बराबर प्रेडिक्ट कर सकते हैं कि किस दिन, इनोसेंस और कोई भी नहीं है। तुम बाहर जाओ। किस रात, आपके मन को कामवासना पकड़ लेगी।
परमात्मा के जगत में भी केवल वे ही लोग संसार के बाहर जा शक्ति रोज इकटी करते चले जाते हैं आप. फिर मौका पाकर | | पाते हैं, जो अपनी वास्तविक स्थिति को स्वीकार करने में समर्थ हैं। वह फूटती है। अगर मौका न मिले, तो मौका बनाकर फूटती है। अपने को जो धोखा देगा, देता रहे। परमात्मा को धोखा नहीं दिया
और अगर बिलकुल मौका न मिले, तो फ्रस्ट्रेशन में बदल जाती है। जा सकता है। भीतर बड़े विषाद और पीड़ा में बदल जाती है।
काम और क्रोध हमारे पास चौबीस घंटे मौजूद हैं। उनकी क्रोध और काम हमारी स्थितियां हैं, घटनाएं नहीं। चौबीस घंटे अंतर्धारा बह रही है। जैसे नील नदी बहती है सैकड़ों मील तक हम उनके साथ हैं। इसे जो स्वीकार कर ले, उसकी जिंदगी में | जमीन के नीचे, खो जाती है। पता ही नहीं चलता, कहां गई! नीचे बदलाहट आ सकती है। जो ऐसा समझे कि कभी-कभी क्रोध | बहती रहती है। लेकिन बहती रहती है। ऐसे ही चौबीस घंटे नदी होता है, वह अपने से बचाव कर रहा है। वह खुद को समझाने | आपके क्रोध की, काम की, नीचे बहती रहती है। जरा भीतर डुबकी के लिए धोखेधड़ी के उपाय कर रहा है। जो स्वीकार कर ले, वह | लेंगे, तो फौरन पाएंगे कि मौजूद है। कभी-कभी उभरकर दिखती बच सकता है।
| है, नहीं तो अंडरग्राउंड है। जमीन के अंदर चलती रहती है। जब __ फ्रेडरिक महान ने अपनी डायरी में एक संस्मरण लिखा है। | प्रकट होती है, उसको आप मत समझना कि यही क्रोध है। अगर लिखा है उसने कि मैं अपनी राजधानी के बड़े कारागृह में गया। | | उतना ही क्रोध होता, तो हर आदमी मुक्त हो सकता था। वह तो सम्राट स्वयं आ रहा है. स्वभावतः हर अपराधी ने उसके पैर पकडे. सिर्फ क्रोध की एक झलक है। जब प्रकट होती है. तब मत समझना हाथ जोड़े और कहा कि अपराध हमने बिलकुल नहीं किया है। यह | | कि इतना ही काम है। उतना ही काम होता, तो बच्चों का खेल था। तो कुछ शरारती लोगों ने हमें फंसा दिया। किसी ने कहा कि हम तो | | भीतर बड़ी अंतर्धारा बह रही है। होश में ही न थे, हमसे करवा लिया किन्हीं षड्यंत्रकारियों ने। | कृष्ण कहते हैं, इन दोनों से जो मुक्त हो जाता है, इनके जो पार किन्हीं ने कहा कि यह सिर्फ कानून-हम गरीब थे, हम बचा न हो जाता है, वही केवल शांत ब्रह्म को उपलब्ध होता है। सके अपने को; बड़ा वकील न कर सके, इसलिए हम फंस गए हैं। अमीर आदमी थे हमारे खिलाफ, वे तो बच गए, और हम सजा काट रहे हैं।
स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः । पूरे जेल में सैकड़ों अपराधियों के पास फ्रेडरिक गया। हरेक ने प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तर चारिणौ।। २७ ।। कहा कि उससे ज्यादा निर्दोष आदमी खोजना मुश्किल है! अंततः
यतेन्द्रियमनोबुद्धिमुनिमोक्षपरायणः । सिर्फ एक आदमी सिर झुकाए बैठा था। फ्रेडरिक ने कहा, तुम्हें कुछ विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः।। २८।। नहीं कहना है ? उस आदमी ने कहा कि माफ करें! मैं बहुत अपराधी और हे अर्जुन! बाहर के विषय भोगों को न चिंतन करता
आदमी हूं। जो भी मैंने किया है, सजा मुझे उससे कम मिली है। हुआ बाहर ही त्यागकर और नेत्रों को भृकुटी के बीच में __फ्रेडरिक ने अपने जेलर को कहा, इस आदमी को इसी वक्त जेल स्थित करके तथा नासिका में विचरने वाले प्राण और अपान से मुक्त कर दो; कहीं ऐसा न हो कि बाकी निर्दोष और भले लोग | वायु को सम करके जीती हुई हैं इंद्रियां, मन और बुद्धि इसके साथ रहकर बिगड़ जाएं! इसे फौरन जेल के बाहर कर दो। जिसकी, ऐसा जो मोक्षपरायण मुनि इच्छा, भय और क्रोध से कहीं ऐसा न हो कि बाकी इनोसेंट लोग, बाकी पूरा जेलखाना तो
रहित है, वह सदा मुक्त ही है। निर्दोष लोगों से भरा हुआ है, कहीं इसके साथ रहकर वे बिगड़ न जाएं, इसे इसी वक्त मुक्त कर दो। __ वह आदमी बहुत हैरान हुआ। उसने कहा कि आप क्या कह रहे | द स सूत्र में कृष्ण ने विधि बताई है। कहा पहले सूत्र में, हैं? मैं अपराधी हूं। फ्रेडरिक महान ने कहा कि कोई आदमी अपने | २ काम-क्रोध से जो मुक्त है! इस सूत्र में काम-क्रोध से
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काम-क्रोध से मुक्ति
मुक्त होने की वैज्ञानिक विधि की बात कही है। इसे और भी ठीक से समझ लेना जरूरी है।
इतना जानना पर्याप्त नहीं है कि काम-क्रोध से मुक्त हो जाएंगे, तो ब्रह्म में प्रवेश मिल जाएंगा। इतना हम सब शायद जानते ही हैं। कैसे मुक्त हो जाएंगे? मेथडॉलाजी क्या है ? विधि क्या है? वही महत्वपूर्ण है।
कृष्ण ने कहीं तीन बातें । एक, दोनों आंखों के ऊपर भ्रू-मध्य में, भृकुटी के बीच ध्यान को जो एकाग्र करे। दूसरा, नासिका से जाते हुए श्वास और आते हुए श्वास को जो सम कर ले; इन दोनों का जहां मिलन हो जाए। ध्यान हो भृकुटी मध्य में; श्वास हो जाए सम; जिस क्षण यह घटना घटती है, उसी क्षण व्यक्ति, वह जो क्रोध और काम की अंतर्धारा है, उसके पार निकल जाता है।
इसे थोड़ा समझना होगा।
हम सब जानते हैं कि हमारे शरीर के पास इंद्रियां हैं, जो बाहर के जगत से संबंध बनाती हैं। इंद्रियां न हों, संबंध छूट जाता है। आंख है। आंख न हो, तो प्रकाशित जगत से संबंध छूट जाता है। आंख के न होने से प्रकाश नहीं खोता, लेकिन प्रकाश दिखाई पड़ना बंद हो जाता है। कान न हो, तो ध्वनि का लोक तिरोहित हो जाता है। नाक न हो, तो गंध का जगत नहीं है । इंद्रियां हमारी बाहर के जगत से हमें जोड़ती हैं।
सात इंद्रियां हैं। साधारणतः पांच इंद्रियों की बात होती है। लेकिन दो इंद्रियां, साधारणतः उनकी बात नहीं होती, लेकिन अब विज्ञान स्वीकार करता है । जिन दिनों पांच इंद्रियों की बात होती थी, उन दिनों दो इंद्रियों का ठीक-ठीक बोध नहीं था । कुछ, जिन्हें समझ में और गहरी बात आई थी, उन्होंने छः इंद्रियों की बात की थी। लेकिन सात इंद्रियों की बात, पिछले पचास वर्षों में विज्ञान ने एक नई इंद्रिय को खोजा, तब से शुरू हुई। सात ही इंद्रियां हैं।
हमारे कान में दो इंद्रियां हैं, एक नहीं। कान सुनता भी है, और कान में.वह हिस्सा भी है, जो शरीर को संतुलित रखता है, बैलेंस रखता है। वह एक गुप्त इंद्रिय है, जो कान में छिपी हुई है। इसलिए अगर कोई जोर से आपके कान पर चांटा मार दे, तो आप चक्कर खाकर गिर जाएंगे। वह चक्कर खाकर आप इसलिए गिरते हैं कि जो इंद्रिय आपके शरीर के संतुलन को सम्हालती है, वह डगमगा जाती है। अगर आप जोर से चक्कर लगाएं, तो चक्कर खत्म हो जाएगा, फिर भी भीतर ऐसा लगेगा कि चक्कर लग रहे हैं। क्योंकि वह जो कान की इंद्रिय है, इतनी सक्रिय हो जाती है। शराबी जब
सड़क पर डांवाडोल चलने लगता है, तो और किसी कारण नहीं। शराब कान की उस इंद्रिय को प्रभावित कर देती है और उसके पैरों का संतुलन खो जाता है। कान में दो इंद्रियों का निवास है ।
छठवीं इंद्रिय का खयाल तो बहुत पहले भी आ गया था— अंतःकरण, हृदय। साधारणतः हम सबको पता है, ऐसा आदमी आप न खोज पाएंगे, जो कहे कि मुझे प्रेम हो गया है किसी से और सिर पर हाथ रखे। ऐसा आदमी खोजना बहुत मुश्किल है। जब भी कोई प्रेम की बात करेगा, तो हृदय पर हाथ रखेगा। और | यह भी आश्चर्य की बात है कि सारी जमीन पर, दुनिया के किसी भी कोने में एक ही जगह हाथ रखा जाएगा। भाषाएं अलग हैं, | संस्कृतियां अलग हैं। किसी का एक-दूसरे से परिचय भी नहीं था, तब भी कहीं अनजाना खयाल होता है कि हृदय के पास कोई जगह है, जहां से भाव का संवेदन है।
ऐसी सात इंद्रियां हैं - पांच, एक भाव इंद्रिय, और एक कान के भीतर संतुलन की इंद्रिय । ये सात इंद्रियां हमें बाहर के जगत से जोड़ती हैं। इनमें से कोई भी इंद्रिय नष्ट हो जाए, तो बाहर से हमारा उतना संबंध टूट जाता है। नष्ट न भी हो, आवृत हो जाए, तो भी | संबंध टूट जाता है। मेरी आंख बिलकुल ठीक है, लेकिन मैं बंद कर लूं, तो भी संबंध टूट जाता है।
जैसे सात इंद्रियां बाहर के जगत से संबंधित होने के लिए हैं, यह मैंने जानकर आपसे कहा । ठीक वैसे ही सात केंद्र या सात इंद्रियां अंतर्जगत से संबंधित होने के लिए हैं। योग उन्हें चक्र कहता है। वे सात चक्र, ठीक इन सात इंद्रियों की तरह अंतर्जगत के द्वार हैं। कृष्ण ने उनमें से सबसे महत्वपूर्ण चक्र, जो अर्जुन के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण हो सकता था, उसकी बात इस सूत्र में कही है। कहा है कि दोनों आंखों के मध्य में, माथे के बीच में ध्यान को केंद्रित कर ।
माथे के बीच में जो चक्र है, योग की दृष्टि से, योग के नामानुसार, | उसका नाम है, आज्ञा चक्र । वह संकल्प का और विल का केंद्र है। | जिस व्यक्ति को भी अपने जीवन में संकल्प लाना है, उसे उस चक्र पर ध्यान करने से संकल्प की गति शुरू हो जाती है। संकल्प डायनेमिक हो जाता है, गतिमान हो जाता है। इस चक्र पर ध्यान करने वाले व्यक्ति की संकल्प की शक्ति अपराजेय हो जाती है।
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कृष्ण ने जानकर अर्जुन से कहा है। यह विशेषकर अर्जुन के लिए कहा गया सूत्र है। क्योंकि क्षत्रिय के लिए ध्यान आज्ञा चक्र पर ही करने की व्यवस्था है। क्षत्रिय की सारी जीवन - धारणा संकल्प की धारणा है। वही उसका सर्वाधिक विकसित हिस्सा है। उस पर ही वह
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गीता दर्शन भाग-2
ध्यान कर सकता है। इस चक्र पर ध्यान करने से क्या होगा ? एक बात और खयाल में ले लें, तो समझ में आ सकेगी।
आपके घर में आग लग गई हो। अभी कोई खबर देने आ जाए कि घर में आग लग गई। आप भागेंगे। रास्ते पर कोई नमस्कार करेगा, आपकी आंख बराबर देखेगी; फिर भी, फिर भी आप नहीं देख पाएंगे । और कल वह आदमी मिलेगा और कहेगा कि कल क्या हो गया था; बदहवास भागे जाते थे! नमस्कार की, उत्तर भी न दिया! आप कहेंगे, मुझे कुछ होश नहीं। मैं देख नहीं पाया। वह आदमी कहेगा, आंख आपकी बिलकुल मुझे देख रही थी । मैं बिलकुल आंख के सामने था । आप कहेंगे, जरूर आप आंख के सामने रहे होंगे। लेकिन मेरा ध्यान आंख पर नहीं था ।
शरीर की भी वही इंद्रिय काम करती है, जिस पर ध्यान हो, नहीं तो काम नहीं करती। शरीर की इंद्रियों को भी सक्रिय करना हो, तो ध्यान से ही सक्रिय होती हैं वे, अन्यथा सक्रिय नहीं होतीं। आंख तभी देखती है, जब भीतर ध्यान आंख से जुड़ता है, अटेंशन आंख से जुड़ती है। कान तभी सुनते हैं, जब ध्यान कान से जुड़ता है शरीर की इंद्रियां भी ध्यान के बिना चेतना तक खबर नहीं पहुंचा पातीं। ठीक ऐसे ही भीतर के जो सात चक्र हैं, वे भी तभी सक्रिय होते हैं, जब ध्यान उनसे जुड़ता है।
संकल्प का चक्र है आज्ञा। अर्जुन से वे कह रहे हैं, तू उस पर ध्यान कर। कर्मयोगी के लिए वही उचित है। कर्म का चक्र है वह, विराट ऊर्जा का, उस पर तू ध्यान कर। लेकिन ध्यान तभी घटित होगा, जब बाहर आती श्वास और भीतर जाती श्वास सम स्थिति में हों ।
आपको खयाल में नहीं होगा कि सम स्थिति कब होती है। आपको पता होता है कि श्वास भीतर गई, तो आपको पता होता है। श्वास बाहर गई, तो आपको पता होता है। लेकिन एक क्षण ऐसा आता है, जब श्वास भीतर होती है, बाहर नहीं जा रही - एक गैप का क्षण । एक क्षण ऐसा भी होता है, जब श्वास बाहर चली गई और अभी भीतर नहीं आ रही; एक छोटा-सा अंतराल । उस अंतराल में चेतना बिलकुल ठहरी हुई होती है। उसी अंतराल अगर ध्यान ठीक से किया गया, तो आज्ञा चक्र शुरू हो जाता है, सक्रिय हो जाता है।
और जब ऊर्जा आज्ञा चक्र को सक्रिय कर दे, तो आज्ञा चक्र की हालत वैसी हो जाती है, जैसे कभी आपने सूर्यमुखी के फूल देखे हों सुबह; सूरज नहीं निकला, ऐसे लटके रहते हैं जमीन की
तरफ – उदास, मुर्झाए हुए, पंखुड़ियां बंद, जमीन की तरफ लटके हुए। फिर सूर्य निकला और सूर्यमुखी का फूल उठना शुरू हुआ, खिलना शुरू हुआ, पंखुड़ियां फैलने लगीं, मुस्कुराहट छा गई, नृत्य फूल पर आ गया। रौनक, ताजगी । फूल जैसे जिंदा हो गया; उठकर खड़ा हो गया।
जिस चक्र पर ध्यान नहीं है, वह चक्र उलटे फूल की तरह मुर्झाया हुआ पड़ा रहता है। जैसे ही ध्यान जाता है, जैसे सूर्य ने फूल पर चमत्कार किया हो, ऐसे ही ध्यान की किरणें चक्र के फूल को ऊपर 'उठा देती हैं। और एक बार किसी चक्र का फूल ऊपर उठ जाए, तो आपके जीवन में एक नई इंद्रिय सक्रिय हो गई। आपने भीतर की दुनिया से संबंध जोड़ना शुरू कर दिया।
अलग-अलग तरह के व्यक्तियों को अलग-अलग चक्रों से भीतर जाने में आसानी होगी। अब जैसे कि साधारणतः सौ में से नब्बे स्त्रियां इस सूत्र को मानें, तो कठिनाई में पड़ जाएंगी। स्त्रियों के लिए उचित होगा कि वे भ्रू-मध्य पर कभी ध्यान न करें। हृदय पर ध्यान करें, नाभि पर ध्यान करें। स्त्री का व्यक्तित्व नान-एग्रेसिव है; रिसेप्टिव है; ग्राहक है; आक्रामक नहीं है।
जिनका व्यक्तित्व बहुत आक्रामक है, वे ही; जैसा कि मैंने कहा, क्षत्रिय के लिए कृष्ण ने कहा, आज्ञा चक्र पर ध्यान करे। सभी पुरुषों के लिए भी उचित नहीं होगा कि आज्ञा चक्र पर ध्यान करें। जिसका व्यक्तित्व पाजिटिवली एग्रेसिव है, जिसको पक्का पता है कि आक्रमणशील उसका व्यक्तित्व है, वही आज्ञा चक्र पर प्रयोग | करे, तो उसकी ऊर्जा तत्काल अंतस-लोक से संबंधित हो जाएगी।
जिसको लगता हो, उसका व्यक्तित्व रिसेप्टिव है, ग्राहक है, आक्रामक नहीं है, वह किसी चीज को अपने में समा सकता है, हमला नहीं कर सकता — जैसे कि स्त्रियां । स्त्री का पूरा | बायोलाजिकल, पूरा जैविक व्यक्तित्व ग्राहक है । उसे गर्भ ग्रहण | करना है। उसे चुपचाप कोई चीज अपने में समाकर और बड़ी करनी है।
इसलिए अगर कोई स्त्री आज्ञा चक्र पर प्रयोग करे, तो दो में से एक घटना घटेगी। या तो वह सफल नहीं होगी; परेशान होगी । और अगर सफल हो गई, तो उसकी स्त्रैणता कम होने लगेगी। वह नान - रिसेप्टिव हो जाएगी। उसका प्रेम क्षीण होने लगेगा और उसमें पुरुषगत वृत्तियां प्रकट होने लगेंगी। अगर बहुत तीव्रता से उस पर प्रयोग किया जाए, तो यह भी पूरी संभावना है कि उसमें पुरुष के लक्षण आने शुरू हो जाएं।
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काम-क्रोध से मुक्ति
अगर कोई पुरुष हृदय के चक्र पर बहुत ध्यान करे, तो उसमें स्त्री जा रही, बीच का क्षण होता है; तब आपका पुनर्जन्म हो सकता है, के लक्षण आने शुरू हो सकते हैं। रामकृष्ण ने छः महीने तक इस | रिबॉर्न। आप भीतर की तरफ यात्रा कर सकते हैं। मरते वक्त भी तरह का प्रयोग किया और तब बड़ी अदभुत घटना घटी। और वह | | फिर वही सम स्थिति आ जाती है। घटना यह थी कि रामकृष्ण के स्तन बड़े हो गए, स्त्रैण। रामकृष्ण तीन बार सम स्थिति आती है-जन्म के समय, मरते समय, की आवाज स्त्रियों जैसी हो गई। और यह तो ठीक था; एक बहुत | समाधि के समय। जितनी बार समाधि आएगी, उतनी बार सम अदभुत घटना घटी कि रामकृष्ण को छः महीने के प्रयोग के बाद | | स्थिति आएगी। लेकिन बस, तीन वक्त सम स्थिति होती है, जब मासिक-धर्म शुरू हो गया, मैंसेस शुरू हो गया। एक बहुत कि श्वास न बाहर है, न भीतर। चमत्कार की बात थी। यह सोचा भी नहीं जा सकता था कि यह | इस स्थिति में क्यों चेतना भीतर जा सकती है? क्योंकि जैसे ही कैसे संभव है! और जब इस प्रयोग को उन्होंने बंद किया, तो कोई | | श्वास बाहर-भीतर नहीं होती, जगत से सारा संबंध थिर हो जाता दो साल में धीरे-धीरे, धीरे-धीरे लक्षण खोए। अन्यथा वे बढ़ते ही | है, ठहर जाता है। अभी आप रूपांतरण कर सकते हैं। यह गियर रहे। मुश्किल से खो सके। उनकी चाल स्त्रियों जैसी हो गई! | बदलने का मौका है। न्यूट्रल में पहुंच गया गियर। आप गाड़ी
हमारे व्यक्तित्व का जो निर्माण है, वह हमारे चक्रों से संबंधित | चलाते हैं, तो आप सीधे एक गियर से दूसरे गियर में नहीं बदल है। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को अलग-अलग चक्रों की व्यवस्था | सकते। न्यूट्रल में डाल देते हैं गियर को पहले, फिर दूसरे गियर में है ध्यान करने के लिए। अर्जुन के लिए-इसलिए मैंने | बदलते हैं। स्पेसिफिकली. आपको यह कह रहा है कि यह जो सत्र है. अर्जन । अगर श्वास को आप गियर समझें, तो भीतर जाती श्वास जीवन से कहा गया है। अर्जुन के व्यक्तित्व के लिए उचित है कि वह | की श्वास है, बाहर जाती श्वास मृत्यु की श्वास है। दोनों के बीच में आज्ञा-चक्र पर ध्यान को थिर कर ले।
न्यूट्रल गियर है, जहां सम है; जहां न भीतर, न बाहर; अस्तित्व है __और ध्यान उसी समय प्रवेश कर जाएगा, जब श्वास सम होती | | जहां, न मृत्यु, न जीवन। उसी क्षण में आपका रूपांतरण होता है। है, न बाहर, न भीतर; बीच में ठहरी होती है। न तो आप ले रहे | - इसलिए कृष्ण दो बातों पर जोर देते हैं, श्वास हो सम अर्जुन, होते, न छोड़ रहे होते। जब श्वास दोनों जगह नहीं होती, ठहरी होती | | और ध्यान तेरा भ्रू-मध्य पर, आज्ञा-चक्र पर हो, तो फूल ऊपर उठ है, उस क्षण आप करीब-करीब उस हालत में होते हैं, जैसी हालत जाएगा, चक्र खुल जाएगा। और जैसे ही वह चक्र खुलेगा, वैसे ही में मृत्यु के समय होते हैं या जैसी हालत में जन्म के समय होते हैं। तु अचानक पाएगा कि वह सारी शक्ति जो पहले काम बनत
क्या आपको पता है कि अगर बच्चा न रोए जन्म के बाद, तो | | क्रोध बनती थी, वह सारी की सारी शक्ति आज्ञा-चक्र पी गया। वह चिंता फैल जाती है! चेष्टा की जाती है उसे रुलाने की। क्या कारण | | सारी शक्ति संकल्प बन गई। है? मां के पेट में बच्चा श्वास नहीं लेता; सम रहता है। मां के पेट | इसलिए ध्यान रखें, अगर आप बहुत क्रोधी हैं या बहुत कामी में बच्चे को श्वास लेने की जरूरत नहीं पड़ती; सम रहता है। जिस | | हैं, तो एक लिहाज से दुर्भाग्य है, लेकिन एक लिहाज से सौभाग्य सम की बात कृष्ण कर रहे हैं। नौ महीने सम रहता है; न श्वास | | भी है। क्योंकि इस जगत में जो बहुत कामी हैं और बहुत क्रोधी हैं, बाहर आती है, न भीतर जाती है। श्वास चलती ही नहीं। | वे ही बड़े संकल्पवान हो सकते हैं। दुर्भाग्य है कि काम और क्रोध ___ इसलिए बच्चा पैदा होते से जो रोता है. चिल्लाता है. वह केवल | | आपको परेशान करेंगे। सौभाग्य है कि अगर आप ध्यान कर लें, श्वास का यंत्र काम करने की कोशिश कर रहा है, और कुछ भी तो आपके पास जितना संकल्प होगा, उतना उन लोगों के पास नहीं नहीं। रो-चिल्लाकर उसके फेफड़े काम शुरू कर रहे हैं तेजी से। होगा, जिनके पास न काम है, न क्रोध है। अगर वह थोड़ी देर चूक जाए, तो कठिनाई होगी। कठिनाई हो । इसलिए इस जगत में जिन लोगों ने बहुत महान शक्ति पाई, वे सकती है। इसलिए रोए बच्चा, तो खुशी की बात है। क्योंकि वे ही लोग हैं, जो बहुत कामी थे, बहुत सेक्सुअल थे। यह बहुत मतलब हुआ कि वह स्वस्थ है, और काम शुरू हो जाएगा। हैरानी की बात है। इस जगत में जो लोग बहुत महान ऊर्जा को
सम स्थिति में होता है उस समय, जब बच्चा पैदा होता है। ठीक | | उपलब्ध हुए, वे वे ही लोग हैं, जो ओवर सेक्सुअल थे। साधारण वही स्थिति पुनः हो जाती है, जब श्वास न भीतर जा रही, न बाहर | | रूप से कामी नहीं थे; बहुत कामी थे। लेकिन जब शक्ति बदली,
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गीता दर्शन भाग-28
तो यही बड़ी शक्ति जो काम में प्रकट होती थी, संकल्प बन गई। | था अपनी पत्नी के लिए। ऋषि-मुनि से भी प्रार्थना की जा सकती
अर्जन अगर रूपांतरित हो जाए तो जैसा महाक्षत्रिय है वह बाहर थी कि एक पत्र दान दे दो। बहत हैरानी की बात है। के जगत में, ऐसा ही भीतर के जगत में महावीर हो जाएगा। इतनी जब पश्चिम के लोगों को पहली दफा पता चला, तो उन्होंने कहा, ही ऊर्जा जो क्रोध और काम में बहती है, संकल्प को मिल जाए, | कैसे अजीब लोग रहे होंगे! पहली तो बात कि वे ऋषि-मुनि, वे क्या तो संकल्प महान होगा।
संभोग के लिए राजी हुए होंगे? और दूसरी बात, यह कैसा अनैतिक इस जगत में वरदानों को अभिशाप बनाने वाले लोग हैं; इस कृत्य कि कोई आदमी अपनी पत्नी के लिए पुत्र मांगने जाए! उनकी जगत में अभिशापों को वरदान बना लेने वाले लोग भी हैं। अगर समझ के बाहर पड़ी बात। मिस मियो ने और जिन लोगों ने भारत के काम-क्रोध बहुत हो, तो भी परमात्मा को धन्यवाद देना कि शक्ति | | खिलाफ बहुत कुछ लिखा, इस तरह की सारी बातें इकट्ठीं की। पर पास में है। अब रूपांतरित करना अपने हाथ में है। काम-क्रोध उन्हें कुछ पता नहीं। अब मिस मियो अगर जिंदा होती, तो उसको बिलकल न हो. तो बहत कठिनाई है। बहुत कठिनाई है। शक्ति ही पता चलता कि अब पश्चिम भी सोच रहा है। पास में नहीं है, रूपांतरित क्या होगा!
पश्चिम सोच रहा है कि सभी लोग अगर बच्चे पैदा न करें, तो इसलिए काम-क्रोध बहुत होने से परेशान न हो जाना, सिर्फ | बेहतर है। क्योंकि पश्चिम कह रहा है कि जब हम बीज चुनकर विचारमग्न होना। और काम-क्रोध को रूपांतरित करने की यह बेहतर फूल, बेहतर फल पैदा कर सकते हैं, तो हम वीर्य चुनकर भी बहुत वैज्ञानिक विधि है। कहनी चाहिए जितनी वैज्ञानिक हो सकती बेहतर व्यक्ति क्यों पैदा नहीं कर सकते हैं! आज नहीं कल पश्चिम है उतनी कृष्ण ने कही है, श्वास सम, ध्यान आज्ञा-चक्र पर। इसका | | में वीर्य भी चुना हुआ होगा। उनके रास्ते टेक्नोलाजिकल होंगे। अभ्यास करते रहें। धीरे-धीरे, धीरे-धीरे जो मैंने कहा है, वह | लेकिन एक ऋषि के पास जाकर कोई प्रार्थना करे, तो ऋषि का आपके खयाल में आना शुरू हो जाएगा। धीरे-धीरे एक दिन वह | तो काम विसर्जित हो गया है। इसीलिए ऋषि से प्रार्थना की जा आ जाएगा कि भीतर की सारी ऊर्जा रूपांतरित हो जाएगी। | सकती थी। जिसकी कोई कामना नहीं रही, जिसकी कोई वासना
ऐसा भी नहीं है कि...लोग मुझसे पूछते हैं कि अगर ऐसा हो | | नहीं रही, उसी से तो पवित्रतम वीर्य की उपलब्धि हो सकती है। गया कि सारा क्रोध खो गया, सारा काम खो गया, सारी ऊर्जा | जिसकी कोई इच्छा नहीं है, शरीर को भोगने का जिसका कोई संकल्प बन गई, तो इस जगत में जीएंगे कैसे? इस जगत में क्रोध | खयाल नहीं है, वह भी अपने शरीर को दान कर सकता है। की भी कभी जरूरत पड़ती है।
ध्यान रहे, वीर्य कोई आध्यात्मिक चीज नहीं है, शारीरिक, निश्चित पड़ती है। लेकिन ऐसा व्यक्ति भी क्रोध कर सकता है, फिजियोलाजिकल घटना है। और जब आप मरेंगे, तो आपका सारा पर ऐसा व्यक्ति क्रोधित नहीं होता। ऐसा व्यक्ति क्रोध कर सकता है, वीर्य आपके शरीर के साथ नष्ट हो जाएगा। वह कोई आत्मिक चीज लेकिन ऐसा व्यक्ति क्रोधित नहीं होता। ऐसा व्यक्ति क्रोध का भी | नहीं है कि आपके साथ चली जाएगी। शरीर का दान है। उपयोग कर सकता है; लेकिन वह उपयोग है। जैसे आप अपने हाथ ऋषि-मुनि जानते हैं कि उनका शरीर तो खो जाएगा, लेकिन को ऊपर उठाते हैं, नीचे गिराते हैं। यह बीमारी नहीं है। लेकिन हाथ अगर उनके शरीर से कुछ भी उपयोग हो सकता है, तो उतना ऊपर-नीचे होने लगे, और आप कहें कि मैं रोकने में असमर्थ हूँ; उपयोग भी किया जा सकता है। ये बहुत हिम्मतवर लोग रहे होंगे। यह तो होता ही रहता है; यह मेरे वश के बाहर है-तब बीमारी है। साधारण हिम्मत से यह काम होने वाला नहीं था।
क्रोध उपयोग किया जा सकता है। लेकिन केवल वे ही उपयोग इस संकल्प की स्थिति के बाद भी काम और क्रोध का उपयोग कर सकते हैं, जो क्रोध के बाहर हैं। हमारा तो क्रोध ही उपयोग किया जा सकता है, इंस्ट्रमेंट की तरह। न किया जाए, तो कोई करता है; हम क्रोध का उपयोग नहीं करते। हमारे ऊपर तो हमारी मजबूरी नहीं है। फिर व्यक्तियों पर निर्भर करता है कि उपयोग इंद्रियां ही हावी हो जाती हैं।
करेंगे, नहीं करेंगे। एक बात पक्की है कि काम और क्रोध आपका क्या काम का उपयोग नहीं हो सकता? इस मुल्क ने तो बहुत उपयोग नहीं कर सकते। वैज्ञानिक प्रयोग किए हैं इस दिशा में भी। बहुत सैकड़ों वर्षों तक, इसीलिए इस चक्र को आज्ञा-चक्र नाम दिया गया कि जिस अगर किसी को पुत्र न हो, तो ऋषि-मुनि से भी पुत्र मांगा जा सकता | व्यक्ति का इस चक्र पर कब्जा हो जाता है, उसकी इंद्रियां उसकी
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काम-क्रोध से मुक्ति
आज्ञा मानने लगती हैं। और जिस व्यक्ति का इस चक्र पर अधिकार | वही उपलब्ध होता है मोक्ष को, मुझे! नहीं है, उसे अपनी इंद्रियों की आज्ञा माननी पड़ती है। इस चक्र के | । जीसस भी ठीक इसी भाषा में बोलते हैं। जीसस भी कहते हैं, इस पार इंद्रियों की आज्ञा है; उस पार अपनी मालकियत शुरू होती | आई एम दि ट्रथ, आई एम दिवे। और जिसे भी पहुंचना हो प्रभु तक, है। इसलिए उस चक्र को दि आर्डर, आज्ञा ही नाम दे दिया गया। | आओ मेरे द्वारा। इस तरफ रहोगे, तो इंद्रियों की आज्ञा माननी पड़ेगी। उस तरफ बुद्ध भी कहते हैं। रहोगे, तो इंद्रियों को आज्ञा दे सकते हो।
निश्चित ही, हमारे मैं और उनके मैं के उपयोग में कोई अंतर यह बहुत वैज्ञानिक सूत्र है। समझने का कम, करने का ज्यादा होना चाहिए। हम जब भी कहते हैं मैं, तब वह तू के विपरीत एक शब्दों से पहचानने का कम, प्रयोग में उतरने का ज्यादा। इसे थोड़ा शब्द है। जब कृष्ण और क्राइस्ट जैसे लोग कहते हैं मैं, तब तू से प्रयोग करेंगे, तो धीरे-धीरे खयाल में आ सकता है। उसका कोई संबंध नहीं, अनरिलेटेड है। उससे तू से कोई लेना-देना
ही नहीं है। इसीलिए इतनी सरलता से कह पाते हैं कि तू छोड़ सब
मुझ पर। मुझे कर प्रेम परमात्माओं के परमात्मा की तरह। ___भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम् ___ अर्जुन संदेह भी नहीं उठाता। अर्जुन के मन में भी तो सवाल उठा सुहृदं सर्व भूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति । । २९।।। होगा। अपना सखा, अपना साथी, सारथी बना हुआ बैठा है! और हे अर्जुन! मेरा भक्त मेरे को यज्ञ और तपों का भोगने निश्चित ही, स्थिति तो अर्जुन की ही ऊपर थी। रथ में तो वही
वाला, और संपूर्ण लोकों के ईश्वरों का भी ईश्वर तथा । विराजमान था। कृष्ण तो सिर्फ सारथी थे, अर्जुन के रथ चलाने वाले • संपूर्ण भूतं प्राणियों का सुहृद अर्थात स्वार्थरहित प्रेमी, ऐसा थे। जहां तक संसार की हैसियत का संबंध है, उस घड़ी में कृष्ण तत्व से जानकर शांति को प्राप्त होता है। | की हैसियत अर्जुन से बड़ी न थी।
अब यह बहुत मजेदार घटना है। जो अपने को कहता है कि मैं
| परमात्माओं का परमात्मा, वह एक साधारण से अज्ञानी आदमी का कष्ण कहते हैं, मुझे जो प्रेम करता है सर्व लोकों के | | सारथी बन जाता है! अहंकारी होता, तो कभी न बनता। एक U परमात्मा की भांति! मुझे, कृष्ण कहते हैं, मुझे जो प्रेम | | साधारण से आदमी के रथ के घोड़ों को निकालकर सांझ नदी पर
करता है। जब हम पढ़ेंगे और कृष्ण कहते हैं, सब | | पानी पिला लाता है; सफाई कर लाता है। अहंकारी होता, तो यह लोकों के परमात्मा की भांति! परमात्माओं का भी परमात्मा! जब | | संभव न था। अहंकारी कहीं सारथी बने हैं! अहंकारी रथ पर हम पढ़ते हैं, तो हमें थोड़ी कठिनाई होगी कि कृष्ण स्वयं को सब | विराजमान होते हैं। अर्जुन भलीभांति जानता है कि अहंकार का तो परमात्माओं का परमात्मा कहते हैं! बड़े अहंकार की बात मालूम | कोई सवाल ही नहीं है। क्योंकि जो आदमी सारथी की तरह घोड़ों पड़ती है। बहुत ईगोइस्ट मालूम पड़ती है। क्योंकि हम मैं का एक | | की लगाम लेकर बैठ गया है, उससे ज्यादा निरहंकारी आदमी और ही अर्थ जानते हैं।
कहां खोजने से मिलेगा! हमारा मैं सदा ही तू के विपरीत है। हमारे मैं का एक ही अनुभव | फिर वह सारथी बना हुआ आदमी कह रहा है कि तू मुझे जान है-तूं के खिलाफ, तू से भिन्न, तू से अलग। हमारे मैं में तू | कि मैं परमात्माओं का परमात्मा हूं! अर्जुन पहचानता है। कृष्ण की इनक्लूडेड नहीं है, एक्सक्लूडेड है। कृष्ण जैसे व्यक्ति जब कहते | | विनम्रता को पहचानता है। इसलिए कृष्ण के अहंकार जैसे शब्द के हैं, मैं, तो उनके मैं में सब तू इनक्लूडेड हैं, सब तू सम्मिलित हैं। उपयोग को भी समझ पाता है। सब तू इकट्ठे उनके मैं में सम्मिलित हैं।
___ हमें बहुत कठिनाई हो जाएगी। इसलिए कृष्ण पर बहुत लोगों ने यह आयाम हमारे लिए नहीं है। इसका हमें कोई परिचय नहीं है। आपत्ति की है कि कृष्ण घोषणा करते हैं, सर्व धर्मान परित्यज्य, सब इसलिए कृष्ण पर अनेक लोगों को आपत्ति लगती है कि क्या बात धर्म छोड़कर तू मेरी शरण में आ जा-मामेकं शरणं व्रज-आ जा कहते हैं। कहते हैं कि मझे जो प्रेम करता है सब परमात्माओं के मेरी शरण। यह बात ठीक नहीं मालम पडती है। परमात्मा की भांति, वही उपलब्ध होता है मुक्ति को, आनंद को! जिन्हें ठीक नहीं मालूम पड़ती, वे फिर पुनर्विचार करें। कहीं उन्हें
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गीता दर्शन भाग-2
इसलिए तो ठीक नहीं मालूम पड़ती कि उनके अहंकार को बेचैनी होती है— कि हम किसी की शरण में चले जाएं? कृष्ण की शरण में मैं चला जाऊं ? नहीं; यह नहीं हो सकता। यह कृष्ण अहंकारी मालूम होता है।
ध्यान रखना, हमारे अहंकार को लगी चोट, हमसे कहलवाती है, रेशनलाइज करवाती है कि कृष्ण अहंकारी हैं। मैं मान लूं इस कृष्ण को कि सारे जगत का परमात्मा है, मैं! यह हम स्वीकार न करेंगे। हम कहेंगे, यह बात नहीं मानी जा सकती। कोई आदमी यह कहे कि मैं परमात्मा हूं, यह तो निपट अहंकार हुआ। अपने अहंकार का खयाल न लेंगे कि अपने अहंकार को चोट लगती है।
इसलिए एक बहुत मजेदार घटना घटी। कृष्णमूर्ति ने लोगों से पिछले चालीस वर्षों में सैकड़ों-हजारों बार कहा, मैं तुम्हारा गुरु नहीं, मैं तुम्हारा परमात्मा नहीं, मैं तुम्हारा शिक्षक नहीं। मैं कोई भी नहीं हूं। जितने अहंकारी लोग थे, उनको यह बात बहुत अपील हुई। उन्होंने कहा, बिलकुल ठीक! एकदम ठीक।
इधर जानकर मैं बहुत हैरान हुआ कि कृष्णमूर्ति को सुनने वाला वर्ग बहुत गहरे अर्थों में अहंकारियों का वर्ग है। उसे प्रीतिकर लगी। इसलिए नहीं कि वह समझा कि कृष्णमूर्ति क्या कह रहे हैं। वह समझना तो बहुत मुश्किल है। उतना ही मुश्किल, जितना कृष्ण की यह बात समझनी मुश्किल है कि मैं परमात्मा हूं। उतना ही मुश्किल। लेकिन उसे एक बात जरूर समझ में आ गई कि ठीक है; एक आदमी तो ऐसा है, जिसके सामने हमें शिष्य बनने की जरूरत नहीं है। जिसके सामने हमें झुकने की जरूरत नहीं है।
लेकिन बड़े मजे की बात है कि कृष्णमूर्ति इसलिए इनकार करते हैं कि मैं तुम्हारा गुरु नहीं, क्योंकि अगर आज कोई भी आदमी इस जगत में कहे कि मैं गुरु हूं; कृष्ण जैसी हिम्मत की बात कोई कहे; कृष्ण भी लौट आएं और वापस कहें कि मैं हूं परमात्माओं का परमात्मा, तो हम स्वीकार न करेंगे। क्योंकि जगत का अहंकार बहुत विकसित हुआ है।
यह जिस दिन उन्होंने कहा था, उस दिन जगत का अहंकार बहुत अविकसित था। लोग भोले थे, लोग सरल थे। लोगों के पास अहंकार घना नहीं था। अगर कोई आदमी कहता था कि मैं परमात्मा हूं, तो लोग सोचते थे कि सोचें; शायद होगा ! आज अगर कोई कहेगा, मैं परमात्मा ! तो लोग कहेंगे, बंद करो पागलखाने में। इलाज करवाना चाहिए।
इसलिए कृष्णमूर्ति कहते हैं, मैं कोई परमात्मा नहीं, मैं कोई गुरु
नहीं। लेकिन तब दूसरी भूल शुरू होती है। और अच्छा था कि कृष्णही भूल करें, क्योंकि उनसे भूल नहीं हो सकती, बजाय इसके | कि अर्जुन भूल करें; उनसे तो भूल सुनिश्चित है।
दूसरी भूल शुरू होती है। सुनने वाला कहता है कि यह आदमी बिलकुल ठीक है। यहां झुकने की कोई जरूरत नहीं है। सुनो भी, समझो भी, शिष्य भी मत बनो, पैर छूने की कोई जरूरत नहीं। कोई सवाल नहीं है। अपनी अकड़ कायम रखी जा सकती है !
भी अकड़ से भरे हुए हो सकते हैं, तब पागल हो जाते हैं। और जब शिष्य भी अकड़ से भरे हुए होते हैं, तो और भी ज्यादा महापागल हो जाते हैं। युग का परिवर्तन है।
लेकिन कृष्ण को अर्जुन समझ पाया। उसे अड़चन नहीं हुई है। | उसने यह सवाल नहीं उठाया कि तुम सारथी होकर, मेरे सारथी हो और कहते हो, परमात्मा ! वह समझ पाया कि कृष्ण क्या कह रहे हैं, किस गहरे अर्थ में कह रहे हैं। वह उनकी विनम्रता को जानता है, इसलिए उनके अहंकार का सवाल नहीं उठता।
लेकिन हमारी हालतें उलटी हैं। एक लड़की ने परसों मुझे आकर कहा कि आपको मैं वर्षों से जानती हूं। सदा मैंने आपको पाया कि आपसे प्रेम बरसता है। लेकिन एक दिन जरा-सा मैंने देखा कि आपमें क्रोध है, तो मेरा सारा प्रेम जो था, वह बेकार हो गया।
जरूरी नहीं है कि मुझ में क्रोध हो। क्योंकि उसे क्या दिखाई पड़ा, यह जरूरी नहीं कि मुझ में हो। पर बड़े मजे की बात है कि वर्षों का मेरा प्रेम बेकार हो गया, क्योंकि उसे खयाल में आया कि मुझ में जरा क्रोध है। मेरा वर्षों का प्रेम जरा-से क्रोध को गलत न कर पाया। मेरे जरा-से क्रोध ने मेरे वर्षों के प्रेम को गलत किया। यद्यपि जरूरी नहीं है कि मुझे क्रोध रहा हो, उसे दिखाई पड़ा। यह भी जरूरी नहीं कि मुझे वर्षों प्रेम रहा हो, उसे दिखाई पड़ा। बात उसी की है; मेरा कोई | सवाल नहीं है। लेकिन वर्षों का प्रेम जरा-से क्रोध के सामने डूब गया। जरा-सा क्रोध वर्षों के प्रेम के सामने नहीं डूब पाया!
अगर आज का होता अर्जुन, तो वह कहता, बस; बंद करो बातचीत । तुम्हारी सब विनम्रता, तुम्हारा सारथी होना, तुम्हारा घोड़ों को पानी पिलाना, सब बेकार हो गया। तुम मुझसे कह रहे हो कि तुम परमात्मा हो! लेकिन वह जानता है कि जिसकी इतनी विनम्रता गहरी है, जल्दी नतीजे का कोई कारण नहीं है। और समझा जा सकता है। और अगर कृष्ण कहते हैं, तो उसमें कुछ अर्थ होगा।
जब कृष्ण जैसा व्यक्ति कहता है, मैं की उदघोषणा करता है, तो | आपके मैं को विसर्जित करने के लिए; आपका मैं समर्पित हो सके,
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काम-क्रोध से मुक्ति
इसलिए। और जब तक कोई समर्पित न हो, तब तक मुक्त नहीं हो पाता है। समर्पण, सरेंडर मुक्ति है।
और यह बड़े मजे की बात है कि इसके पहले सूत्र में कृष्ण कहते हैं कि तू संकल्प को बड़ा कर, आज्ञा चक्र को जगा । और ठीक उसके बाद के सूत्र में कहते हैं कि मैं परमात्मा हूं, ऐसा जान ।
असल में, जो महा संकल्पवान है, वही समर्पण कर पाता है। जिसके पास संकल्प नहीं है, वह समर्पण भी नहीं कर पाएगा। कमजोरों के लिए संकल्प नहीं है। शक्ति समर्पण बनती है।
यह पांचवां अध्याय पूरा हुआ। इस पूरे अध्याय में कृष्ण अर्जुन को कर्म करते हुए, समस्त कर्म के जाल में डूबे रहते हुए मुक्त होने की सारी कीमिया, सारी केमिस्ट्री, सारी अल्केमी उपस्थित की है। गीता का एक-एक अध्याय अपने में पूर्ण है। गीता एक किताब नहीं, अनेक किताबें है। गीता का एक अध्याय अपने
पूर्ण है। जरूरी नहीं है कि इसके आगे गीता पढ़ें। जरूरी तभी है, जब पांचवां अध्याय न पढ़ पाएं, न समझ पाएं।
ध्यान रखें, जरूरी तभी है, जब पांचवां अध्याय बेकार चला जाए, तो फिर छठवां पढ़ें। अर्जुन पर बेकार चला गया, इसलिए छठवां कृष्ण को कहना पड़ा। बेकार इसलिए चला गया कि कृष्ण को दिखाई पड़ा कि अभी कुछ हुआ नहीं। फिर और बात करनी पड़ी। फिर और बात करनी पड़ी। फिर और बात करनी पड़ी।
अगर एक अध्याय भी गीता का ठीक से समझ में आ जाए – समझ का मतलब, जीवन में आ जाए, अनुभव में आ जाए। खून में, हड्डी में आ जाए; मज्जा में, मांस में आ जाए; छा जाए सारे भीतर प्राणों के पोर-पोर में - तो बाकी किताब फेंकी जा सकती है। फिर बाकी किताब में जो है, वह आपकी समझ में आ गया। न आए, तो फिर आगे बढ़ना पड़ता है।
लेकिन ध्यान रहे, अगर कोई भी व्यक्ति गीता या बाइबिल और कुरान जैसी किताबों को सिर्फ बौद्धिक रूप से समझने की चेष्टा में संलग्न होता है, तो गलती कर रहा है। वह ऐसी ही गलती कर रहा है, जैसे कोई व्यक्ति सड़क के किनारे, सीमेंट की सड़क के पास कांटा और आटा लगाकर बैठ जाए मछली पकड़ने को— सीमेंट की सड़क पर ! वहां कोई मछली पकड़ में नहीं आएगी। ऐसी ही गलती है।
बुद्ध से कोई अगर अस्तित्व के जगत में खोजने निकल पड़े, कुछ पकड़ में नहीं आता। बुद्धि का वहां अर्थ नहीं है। इतना ही अर्थ है बुद्धि का कि आपकी जो पकड़ी हुई, जकड़ी हुई अबुद्धि है, उसे
तोड़ पाए। आप हल्के हो पाएं।
समझ लें, ऐसा समझ लें, आपके हाथ-पैर में जंजीरें पड़ी हैं। | आप हट नहीं पाते उस जगह से। मैं एक हथौड़ी लाकर आपकी | जंजीरें तोड़ देता हूं। जंजीरें तोड़ सकता हूं हथौड़ी से, स्वतंत्र नहीं कर सकता आपको। फिर भी आप वहीं खड़े रहें, तो मैं क्या करूंगा ? जंजीरें गिर जाएं जमीन पर, आप वहीं बैठे रहें, तो मैं क्या करूंगा !
सिर्फ नकारात्मक काम, निगेटिव काम बुद्धि से हो सकता है। आपके मन पर जो बहुत-सी अबौद्धिक धारणाएं जकड़ी हुई हैं, बुद्धि उनको काटकर तोड़ सकती है। लेकिन उतने से स्वतंत्रता नहीं सिद्ध होती। उससे सिर्फ गुलामी टूटती है। और अगर आप उठकर चल | नहीं पड़ते, तो आपके आस-पास फिर जंजीरें इकट्ठी हो जाएंगी।
बैठा रहेगा, उसके आस-पास जंजीरें इकट्ठी हो जाती हैं। जो चलता रहेगा, वही स्वतंत्र होता है। नदी का पानी बहता रहे, तो स्वच्छ होता है। रुक जाए, सड़ जाता है। और जो व्यक्ति भी केवल सोचता रहता है, वह रुक जाता है। जीता है, वह बहता है और चलता है।
तो अंत में इतना ही कहूंगा, बहें। जो सुना, जो समझा, उसे कहीं करें। हजार मील की बात बेकार है एक कदम चलने के आगे । एक कदम काफी है। एक कदम चलें, तो हजार मील की बात करने की | कोई जरूरत नहीं है । और एक-एक कदम चलकर हजारों मील का फासला पार हो जाता है।
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अब पांच मिनट, अंतिम दिन हम कीर्तन में बैठेंगे। कोई जाएगा नहीं। एक भी व्यक्ति नहीं जाएगा। और साथ दें। आप भी गाएं। आप भी अपनी जगह डोलें; ताली बजाएं। एक पांच मिनट आनंद में, और फिर हम विदा हो जाएं।
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ओशो - एक परिचय
बुद्धत्व की प्रवाहमान धारा में ओशो एक नया प्रारंभ हैं, | | लगे। विद्यार्थियों के बीच वे 'आचार्य रजनीश' के नाम से वे अतीत की किसी भी धार्मिक परंपरा या श्रृंखला की कड़ी | | अतिशय लोकप्रिय थे। नहीं हैं। ओशो से एक नये युग का शुभारंभ होता है और | विश्वविद्यालय के अपने नौ सालों के अध्यापन-काल के उनके साथ ही समय दो सुस्पष्ट खंडों में विभाजित होता है | | दौरान वे परे भारत में भ्रमण भी करते रहे। प्रायः 60-70 हजार ओशो-पूर्व तथा ओशो-पश्चात।।
की संख्या में श्रोता उनकी सभाओं में उपस्थित होते। वे ___ ओशो के आगमन से एक नये मनुष्य का, एक नये जगत | | आध्यात्मिक जन-जागरण की एक लहर फैला रहे थे। उनकी का, एक नये युग का सूत्रपात हुआ है, जिसकी आधारशिला | वाणी में और उनकी उपस्थिति में वह जादू था, वह सुगंध थी, अतीत के किसी धर्म में नहीं है, किसी दार्शनिक विचार-पद्धति जो किसी पार के लोक से आती है। में नहीं है। ओशो सद्यःस्नात धार्मिकता के प्रथम पुरुष हैं, | सन 1966 में ओशो ने विश्वविद्यालय के प्राध्यापक पद सर्वथा अनूठे संबुद्ध रहस्यदर्शी हैं।
| से त्यागपत्र दे दिया ताकि अस्तित्व ने जिस परम भगवत्ता का मध्यप्रदेश के कुचवाड़ा गांव में 11 दिसंबर 1931 को खजाना उन पर लुटाया है उसे वे पूरी मानवता को बांट सकें जन्मे ओशो का बचपन का नाम रजनीश चन्द्रमोहन था। और एक नये मनुष्य को जन्म देने की प्रक्रिया में समग्रतः लग उन्होंने जीवन के प्रारंभिक काल में ही एक निर्भीक स्वतंत्र सकें। ओशो का यह नया मनुष्य 'ज़ोरबा दि बुद्धा' एक ऐसा आत्मा का परिचय दिया। खतरों से खेलना उन्हें प्रीतिकर था। मनुष्य है जो ज़ोरबा की भांति भौतिक जीवन का पूरा आनंद 100 फीट ऊंचे पुल से कूद कर बरसात में उफनती नदी को मनाना जानता है और जो गौतम बुद्ध की भांति मौन होकर तैर कर पार करना उनके लिए साधारण खेल था। युवा ओशो | | ध्यान में उतरने में भी सक्षम है-ऐसा मनुष्य जो भौतिक और ने अपनी अलौकिक बुद्धि तथा दृढ़ता से पंडित-पुरोहितों, | | आध्यात्मिक, दोनों तरह से समृद्ध है। 'ज़ोरबा दि बुद्धा' एक मल्ला-पादरियों, संत-महात्माओं—जो स्वानुभव के बिना ही समग्र व अविभाजित मनुष्य है। इस नये मनुष्य के बिना पृथ्वी भीड़ के अगुवा बने बैठे थे—की मूढ़ताओं और पाखंडों का | का कोई भविष्य शेष नहीं है। पर्दाफाश किया।
सन 1970 में ओशो बंबई में रहने के लिए आ गये। अब ___21 मार्च 1953 को इक्कीस वर्ष की आयु में ओशो | | पश्चिम से सत्य के खोजी भी, जो अकेली भौतिक समृद्धि से संबोधि (परम जागरण) को उपलब्ध हुए। संबोधि के संबंध में ऊब चुके थे और जीवन के किन्हीं और गहरे रहस्यों को जानने वे कहते हैं : 'अब मैं किसी भी प्रकार की खोज में नहीं हूं। और समझने के लिए उत्सुक थे, उन तक पहुंचने लगे। ओशो अस्तित्व ने अपने समस्त द्वार मेरे लिए खोल दिये हैं।' ने उन्हें देशना दी कि अगला कदम ध्यान है। ध्यान ही जीवन में
उन दिनों वे जबलपुर के एक कालेज में दर्शनशास्त्र के | सार्थकता के फूलों के खिलने में सहयोगी सिद्ध होगा। विद्यार्थी थे। संबोधि घटित होने के पश्चात भी उन्होंने अपनी इसी वर्ष सितंबर में, मनाली (हिमालय) में आयोजित शिक्षा जारी रखी और सन 1957 में सागर विश्वविद्यालय से | अपने एक शिविर में ओशो ने नव-संन्यास में दीक्षा देना प्रारंभ दर्शनशास्त्र में प्रथम श्रेणी में प्रथम (गोल्डमेडलिस्ट) रह कर | | किया। इसी समय के आसपास वे आचार्य रजनीश से भगवान एम.ए. की उपाधि प्राप्त की। इसके पश्चात वे जबलपुर | श्री रजनीश के रूप में जाने जाने लगे। विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र के प्राध्यापक पद पर कार्य करने सन 1974 में वे अपने बहुत से संन्यासियों के साथ पूना
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Sam गीता दर्शन भाग-2 AM
आ गये जहां श्री रजनीश आश्रम' की स्थापना हुई। पूना आने | | मिल-जुल कर अपने सद्गुरु के सान्निध्य में आनंद और उत्सव के बाद उनके प्रभाव का दायरा विश्वव्यापी होने लगा। | के वातावरण में एक अनूठे नगर के सृजन को यथार्थ रूप दे
श्री रजनीश आश्रम पूना में प्रतिदिन अपने प्रवचनों में | रहे थे। शीघ्र ही यह नगर रजनीशपुरम नाम से संयुक्त राज्य ओशो ने मानव-चेतना के विकास के हर पहलू को उजागर अमरीका का एक निगमीकृत (इन्कार्पोरेटेड) शहर बन गया। किया। बुद्ध, महावीर, कृष्ण, शिव, शांडिल्य, नारद, जीसस के | किंतु कट्टरपंथी ईसाई धर्माधीशों के दबाव में व राजनीतिज्ञों के साथ ही साथ भारतीय अध्यात्म-आकाश के अनेक नक्षत्रों- निहित स्वार्थवश प्रारंभ से ही कम्यून के इस प्रयोग को नष्ट आदिशंकराचार्य, गोरख, कबीर, नानक, मलूकदास, रैदास, करने के लिए अमरीका की संघीय, राज्य और स्थानीय सरकारें दरियादास, मीरा आदि पर उनके हजारों प्रवचन उपलब्ध हैं। हर संभव प्रयास कर रही थीं। जीवन का ऐसा कोई भी आयाम नहीं है जो उनके प्रवचनों से ____ जैसे अचानक एक दिन ओशो मौन हो गये थे वैसे ही अस्पर्शित रहा हो। योग, तंत्र, ताओ, झेन, हसीद, सूफी जैसी | अचानक अक्तूबर 1984 में उन्होंने पुनः प्रवचन देना प्रारंभ कर विभिन्न साधना-परंपराओं के गूढ़ रहस्यों पर उन्होंने सविस्तार | दिया। जीवन-सत्यों के इतने स्पष्टवादी व मुखर विवेचनों से प्रकाश डाला है। साथ ही राजनीति, कला, विज्ञान, मनोविज्ञान, | निहित स्वार्थों की जड़ें और भी चरमराने लगीं। दर्शन, शिक्षा, परिवार, समाज, गरीबी, जनसंख्या-विस्फोट, । अक्तूबर 1985 में अमरीकी सरकार ने ओशो पर पर्यावरण तथा संभावित परमाणु युद्ध के व उससे भी बढ़कर आप्रवास-नियमों के उल्लंघन के 35 मनगढंत आरोप लगाए। एड्स महामारी के विश्व-संकट जैसे अनेक विषयों पर भी | बिना किसी गिरफ्तारी-वारंट के ओशो को बंदूकों की नोक पर उनकी क्रांतिकारी जीवन-दृष्टि उपलब्ध है।
| हिरासत में ले लिया गया। 12 दिनों तक उनकी जमानत ___ 'शिष्यों और साधकों के बीच दिए गए उनके ये प्रवचन | | स्वीकार नहीं की गयी और उनके हाथ-पैर में हथकड़ी व छह सौ पचास से भी अधिक पुस्तकों के रूप में प्रकाशित हो | बेड़ियां डाल कर उन्हें एक जेल से दूसरी जेल में घुमाते हुए चुके हैं और तीस से अधिक भाषाओं में अनुवादित हो चुके हैं। पोर्टलैंड (ओरेगॅन) ले जाया गया। इस प्रकार, जो यात्रा कुल वे कहते हैं, "मेरा संदेश कोई सिद्धांत, कोई चिंतन नहीं है। पांच घंटे की है वह आठ दिन में पूरी की गयी। जेल में उनके मेरा संदेश तो रूपांतरण की एक कीमिया, एक विज्ञान है।" | शरीर के साथ बहुत दुर्व्यवहार किया गया और यहीं संघीय ____ओशो अपने आवास से दिन में केवल दो बार बाहर | सरकार के अधिकारियों ने उन्हें 'थेलियम' नामक धीमे असर
आते-प्रातः प्रवचन देने के लिए और संध्या समय सत्य की | वाला जहर दिया। यात्रा पर निकले हुए साधकों को मार्गदर्शन एवं नये प्रेमियों को ____ 14 नवंबर 1985 को अमरीका छोड़ कर ओशो भारत संन्यास-दीक्षा देने के लिए।
| लौट आये। यहां की तत्कालीन सरकार ने भी उन्हें समूचे विश्व ___ सन 1980 में कट्टरपंथी हिंदू समुदाय के एक सदस्य से अलग-थलग कर देने का पूरा प्रयास किया। तब ओशो द्वारा उनकी हत्या का प्रयास भी उनके एक प्रवचन के दौरान नेपाल चले गये। नेपाल में भी उन्हें अधिक समय तक रुकने किया गया।
की अनुमति नहीं दी गयी। ___ अचानक शारीरिक रूप से बीमार हो जाने से 1981 की। फरवरी 1986 में ओशो विश्व-भ्रमण के लिए निकले वसंत ऋतु में वे मौन में चले गये। चिकित्सकों के परामर्श पर | जिसकी शुरुआत उन्होंने ग्रीस से की, लेकिन अमरीका के उसी वर्ष जून में उन्हें अमरीका ले जाया गया। उनके अमरीकी | | दबाव के अंतर्गत 21 देशों ने या तो उन्हें देश से निष्कासित शिष्यों ने ओरेगॅन राज्य के मध्य भाग में 64,000 एकड़ जमीन | किया या फिर देश में प्रवेश की अनुमति ही नहीं दी। इन
खरीदी थी जहां उन्होंने ओशो को रहने के लिए आमंत्रित | | तथाकथित स्वतंत्र व लोकतांत्रिक देशों में ग्रीस, इटली, किया। धीरे-धीरे यह अर्ध-रेगिस्तानी जगह एक फूलते-फलते स्विट्जरलैंड, स्वीडन, ग्रेट ब्रिटेन, पश्चिम जर्मनी, हालैंड, कम्यून में परिवर्तित होती गई। वहां लगभग 5,000 प्रेमी मित्र | | कनाडा, जमाइका और स्पेन प्रमुख थे।
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ओशो-एक परिचय -
ओशो जुलाई 1986 में बम्बई और जनवरी 1987 में पूना | व्हाइट रोब ब्रदरहुड" की सभा में आधे घंटे के लिये उपस्थित के अपने आश्रम में लौट आए, जो अब ओशो कम्यून होते रहे। इंटरनेशनल के नाम से जाना जाता है। यहां वे पुनः अपनी ___ 17 जनवरी को वे सभा में केवल नमस्कार करके वापस क्रांतिकारी शैली में अपने प्रवचनों से पंडित-पुरोहितों और चले गए। 18 जनवरी को “ओशो व्हाइट रोब ब्रदरहुड" की राजनेताओं के पाखंडों व मानवता के प्रति उनके षड्यंत्रों का सांध्य-सभा में उनके निजी चिकित्सक स्वामी प्रेम अमृतो ने पर्दाफाश करने लगे।
सूचना दी कि ओशो के शरीर का दर्द इतना बढ़ गया है कि वे इसी बीच भारत सहित सारी दनिया के बद्धिजीवी वर्ग व हमारे बीच नहीं आ सकते. लेकिन वे अपने कमरे में ही सात समाचार माध्यमों ने ओशो के प्रति गैर-पक्षपातपर्ण व विधायक बजे से हमारे साथ ध्यान में बैठेंगे। दसरे दिन 19 जनवरी चिंतन का रुख अपनाया। छोटे-बड़े सभी प्रकार के समाचारपत्रों। 1990 को सायं पांच बजे ओशो शरीर छोड़ कर महाप्रयाण कर व पत्रिकाओं में अक्सर उनके अमृत-वचन अथवा उनके | गये। इसकी घोषणा सांध्य-सभा में की गयी। ओशो की इच्छा संबंध में लेख व समाचार प्रकाशित होने लगे। देश के के अनुरूप, उसी सांध्य-सभा में उनका शरीर गौतम दि बुद्धा अधिकांश प्रतिष्ठित संगीतज्ञ, नर्तक, साहित्यकार, कवि व | आडिटोरियम में दस मिनट के लिए लाकर रखा गया। दस शायर ओशो कम्यून इंटरनेशनल में अक्सर आने लगे। मनुष्य हजार शिष्यों और प्रेमियों ने उनकी आखिरी विदाई का उत्सव की चिर-आकांक्षित उटोपिया का सपना साकार देख कर उन्हें | संगीत-नृत्य, भावातिरेक और मौन में मनाया। फिर उनका • अपनी ही आंखों पर विश्वास न होता।
शरीर दाहक्रिया के लिए ले जाया गया। 26 दिसंबर 1988 को ओशो ने अपने नाम के आगे से | | 21 जनवरी 1990 के पूर्वाह्न में उनके अस्थि-फूल का 'भगवान' संबोधन हटा दिया। 27 फरवरी 1989 को ओशो | | कलश महोत्सवपूर्वक कम्यून में लाकर च्यांग्त्स हॉल में निर्मित कम्यून इंटरनेशनल के बुद्ध सभागार में सांध्य-प्रवचन के | | संगमरमर के समाधि भवन में स्थापित किया गया। समय उनके 10,000 शिष्यों व प्रेमियों ने एकमत से अपने | | ओशो की समाधि पर स्वर्ण अक्षरों में अंकित है : प्यारे सद्गुरु को 'ओशो' नाम से पुकारने का निर्णय लिया। • अक्तूबर 1985 में जेल में अमरीका की रीगन सरकार
OSHO द्वारा ओशो को थेलियम नामक धीमा असर करने वाला जहर
Never Born दिये जाने एवं उनके शरीर को प्राणघातक रेडिएशन से गुजारे
Never Died जाने के कारण उनका शरीर तब से निरंतर अस्वस्थ रहने लगा
Only Visited this था और भीतर से क्षीण होता चला गया। इसके बावजूद वे
Planet Earth between ओशो कम्यून इंटरनेशनल, पूना के गौतम दि बुद्धा Dec 11 1931 - Jan 19 1990 आडिटोरियम में 10 अप्रैल 1989 तक प्रतिदिन संध्या दस हजार शिष्यों, खोजियों और प्रेमियों की सभा में प्रवचन देते रहे ध्यान और सृजन का यह अनूठा नव-संन्यास उपवन,
और उन्हें ध्यान में डुबाते रहे। इसके बाद के अगले कई महीने ओशो कम्यून, ओशो की विदेह-उपस्थिति में आज पूरी उनका शारीरिक कष्ट बढ़ गया।
दुनिया के लिए एक ऐसा प्रबल चुंबकीय आकर्षण-केंद्र बना ____ 17 सितंबर 1989 से पुनः गौतम दि बुद्धा आडिटोरियम | | हुआ है कि यहां निरंतर नये-नये लोग आत्म-रूपांतरण के में हर शाम केवल आधे घंटे के लिए आकर ओशो मौन | | लिए आ रहे हैं तथा ओशो की सघन-जीवंत उपस्थिति में दर्शन-सत्संग के संगीत और मौन में सबको डुबाते रहे। इस | अवगाहन कर रहे हैं। बैठक को उन्होंने “ओशो व्हाइट रोब ब्रदरहुड" नाम दिया। ओशो 16 जनवरी 1990 तक प्रतिदिन संध्या सात बजे "ओशो
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ओशो का हिन्दी साहित्य
| कबीर सुनो भई साधो कहै कबीर दीवाना कहै कबीर मैं पूरा पाया न कानों सुना न आंखों देखा (कबीर व फरीद)
उपनिषद सर्वसार उपनिषद कैवल्य उपनिषद अध्यात्म उपनिषद कठोपनिषद ईशावास्य उपनिषद निर्वाण उपनिषद
आत्म-पूजा उपनिषद केनोपनिषद मेरा स्वर्णिम भारत (विविध उपनिषद-सूत्र)
जगजीवन नाम सुमिर मन बावरे अरी, मैं तो नाम के रंग छकी
कृष्ण गीता-दर्शन (आठ भागों में अठारह अध्याय) कृष्ण-स्मृति
दरिया कानों सुनी सो झूठ सब अमी झरत बिगसत कंवल
सुंदरदास हरि बोलौ हरि बोल ज्योति से ज्योति जले
महावीर महावीर-वाणी (दो भागों में) जिन-सूत्र (दो भागों में) महावीर या महाविनाश महावीर : मेरी दृष्टि में ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं चदरिया
पलटू
अजहूं चेत गंवार सपना यह संसार काहे होत अधीर
एस धम्मो सनंतनो (बारह भागों में)
धरमदास जस पनिहार धरे सिर गागर का सोवै दिन रैन
अष्टावक्र अष्टावक्र महागीता (छह भागों में)
दादू
लाओत्से ताओ उपनिषद (छह भागों में)
सबै सयाने एक मत पिव पिव लागी प्यास
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30+ गीता दर्शन भाग-2 -
मलूकदास कन थोरे कांकर घने रामदुवारे जो मरे
शांडिल्य अथातो भक्ति जिज्ञासा (दो भागों में)
अन्य रहस्यदर्शी भक्ति -सूत्र (नारद) शिव-सूत्र (शिव) भजगोविन्दम् मूढ़मते (आदिशंकराचार्य) एक ओंकार सतनाम (नानक) जगत तरैया भोर की (दयाबाई) बिन घन परत फुहार (सहजोबाई) पद धुंघरू बांध (मीरा) नहीं सांझ नहीं भोर (चरणदास) संतो, मगन भया मन मेरा (रज्जब) कहै वाजिद पुकार (वाजिद) मरौ हे जोगी मरौ (गोरख) सहज-योग (सरहपा-तिलोपा) बिरहिनी मंदिर दियना बार (यारी) दरिया कहै सब्द निरबाना (दरियादास बिहारवाले) प्रेम-रंग-रस ओढ़ चदरिया (दूलन) हंसा तो मोती चU (लाल) गुरु-परताप साध की संगति (भीखा) मन ही पूजा मन ही धूप (रैदास) झरत दसहं दिस मोती (गुलाल) जरथुस्त्रः नाचता-गाता मसीहा (जरथुस्त्र)
रहिमन धागा प्रेम का उड़ियो पंख पसार सुमिरन मेरा हरि करें पिय को खोजन मैं चली साहेब मिल साहेब भये जो बोलैं तो हरिकथा बहुरि न ऐसा दांव ज्यूं था त्यूं ठहराया ज्यूं मछली बिन नीर दीपक बारा नाम का अनहद में बिसराम लगन महूरत झूठ सब सहज आसिकी नाहिं | पीवत रामरस लगी खुमारी | रामनाम जान्यो नहीं सांच सांच सो सांच
आपुई गई हिराय | बहुतेरे हैं घाट
कोंपलें फिर फूट आईं फिर पत्तों की पांजेब बजी फिर अमरित की बूंद पड़ी | क्या सोवै तू बावरी | चल हंसा उस देस
कहा कहूं उस देस की | पंथ प्रेम को अटपटो माटी कहै कुम्हार सूं मैं धार्मिकता सिखाता हूं, धर्म नहीं
झेन, सूफी और उपनिषद की कहानियां बिन बाती बिन तेल सहज समाधि भली दीया तले अंधेरा
प्रश्नोत्तर नहिं राम बिन ठांव प्रेम-पंथ ऐसो कठिन उत्सव आमार जाति, आनंद आमार गोत्र मृत्योर्मा अमृतं गमय प्रीतम छवि नैनन बसी
बोध-कथा मिट्टी के दीये
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ध्यान, साधना
ध्यानयोगः प्रथम और अंतिम मुक्ति नेति नेति
चेति सकैं तो चेति
हसिबा, खेलिबा, धरिबा ध्यानम्
समाधि कमल
साक्षी की साधना
धर्म साधना के सूत्र मैं कौन हूं
समाधि के द्वार पर अपने माहिं टटोल ध्यान दर्शन
तृषा गई एक बूंद से
ध्यान के कमल
जीवन संगीत
जो घर बारे आपना प्रेम दर्शन
साधना शिविर
साधना-पथ
मैं मृत्यु सिखाता हूं
जिन खोजा तिन पाइयां
समाधि के सप्त द्वार (ब्लावट्स्की)
साधना- सूत्र (मेबिल कॉलिन्स)
ध्यान - सूत्र
वही प्रभु असंभव क्रांति
रोम-रोम रस पीजिए
+ ओशो का हिन्दी साहित्य
राष्ट्रीय और सामाजिक समस्याएं
देख कबीरा रोया
स्वर्ण पाखी था जो कभी और अब है भिखारी जगत का
शिक्षा में क्रांति
नये समाज की खोज
नये भारत की खोज
नये भारत का जन्म नारी और क्रांति
शिक्षा और धर्म
भारत का भविष्य
तंत्र
संभोग से समाधि की ओर
तंत्र-सूत्र (पांच भागों में )
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योग
पतंजलि: योगसूत्र ( पांच भागों में)
योगः नये आयाम
विचार- पत्र
क्रांति - बीज
पथ के प्रदीप
पत्र - संकलन
अंतर्वीणा
| प्रेम की झील में अनुग्रह के फूल
विविध
मैं कहता आंखन देखी
एक एक कदम जीवन क्रांति के सूत्र
जीवन रहस्य
करुणा और क्रांति
विज्ञान, धर्म और कला
शून्य के पार
प्रभु मंदिर के द्वार पर
तमसो मा ज्योतिर्गमय
प्रेम है द्वार प्रभु का
अंतर की खोज
अमृत की दिशा
अमृत वर्षा
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अमृत द्वार
चित चकमक लागे नाहिं
एक नया द्वार प्रेम गंगा
समुंद समाना बुंद में
सत्य की प्यास शून्य समाधि
व्यस्त जीवन में ईश्वर की खोज
अज्ञात की ओर
धर्म और आनंद जीवन-दर्शन जीवन की खोज
ईश्वर मर गया है
गीता दर्शन भाग-24
| नानक दुखिया सब संसार नये मनुष्य का धर्म धर्म की यात्रा
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स्वयं की सत्ता
और शां
सुख
अनंत की पुकार
अंतरंग वार्ताएं
संबोधि के क्षण
प्रेम नदी के तीरा
सहज मिले अविनाशी उपासना के क्षण
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ओशोटाइम्स
विश्व का एकमात्र शुभ समाचार-पत्र
ओशोटाइम्स
OTAMANESH
एक वर्ष में 12 अंक
हिंदी संस्करण अंग्रेजी संस्करण
एक प्रति का मूल्य
15 रुपये 55 रुपये
वार्षिक शुल्क 150 रुपये 660 रुपये
ओशो के संबंध में समस्त जानकारी हेतु संपर्क सूत्रः ओशो कम्यून इंटरनेशनल, 17 कोरेगांव पार्क, पुणे 411001
फोन : 0212-628562
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पहले फ्लैप से आगे
यह गीता का श्रेय अर्जुन को है। यह अर्जुन समझ ही नहीं पाया। वह सवाल उठाता ही चला गया। जब एक मार्ग लगा कृष्ण को कि नहीं उसकी पकड़ में आता, नहीं उसके साथ बैठता तालमेल, तब उन्होंने दूसरी बात की; तब तीसरी बात की; तब चौथी बात की।
मोहम्मद को भी अर्जुन मिल जाता, तो कुरान ऐसी ही बन सकती थी; नहीं मिला। महावीर को भी मिल जाता, तो उनके वचन भी ऐसे हो । सकते थे; नहीं मिला। अर्जुन जैसा पूछने वाला कभी-कभी मिलता है। कृष्ण जैसे उत्तर देने वाले बहुत बार मिलते हैं।
अर्जुन एक अर्थों में, पूरी मनुष्य-जाति ने जितने सवाल उठाए हैं, उन सबका सारभूत है। पूरी मनुष्य-जाति में मनुष्य के मन ने जितने सवाल उठाए हैं, उन सारे सवालों को वह उठाता चला गया। वह पूरी मनुष्य-जाति के रिप्रेजेंटेटिव की तरह कृष्ण के सामने अड़कर खड़ा हो गया। कृष्ण को उसके उत्तर देने पड़े। एक-एक वह पूछता चला गया, एक-एक उन्हें उत्तर देने पड़े। वह एक-एक उत्तर को नकारता ।। गया; भुलाता गया; दूसरे की खोज करता चला गया।
-ओशो
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________________ "हजारों सालों के बाद ओशो के रूप में एक ऐसा मनीषी, तत्ववेत्ता, दार्शनिक एवं चैतन्य पुरुष इस भारत की जमीन पर अवतरित हुआ जिसने समग्र भारतीय सांस्कृतिक प्रज्ञा को सिद्ध किया...यह सचमुच में एक चमत्कार था कि अकेला एक आदमी इतने बड़े संस्कृति-सागर को अपने भीतर संजो ले। उन्होंने पुराने बीज मंत्रों, सूत्रों और विचार-बोधों को जटिलताओं से मुक्त ही नहीं किया, बल्कि उन्हें सहज-सरल अर्थ दिए तथा साथ ही इतना कुछ अलौकिक और नया कह गए जो स्वयं सत्र बन गए।" देवीशंकर प्रभाकर प्रसिद्ध लेखक, पत्रकार, कवि एवं फिल्म-निर्माता-निर्देशक A RECEBOOK ISBN 81-7261-087-4