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________________ गीता दर्शन भाग-20 बढ़ाना मत। उसको स्ट्रेंथन मत करना, मजबूत मत करना, पोषण | | पीछे; रूपांतरण होगा पीछे। सीधे घी पैदा नहीं होता—इसे खयाल मत करना। जब बीजरूप ही हो, तभी डाल देना। रखें-पैदा होने की प्रक्रिया है, प्रोसेस है। पैदा करेंगे, तो ही पैदा स्वभावतः, बीज के लिए उन पुराने दिनों में गेहूं से निकट और | | होगा। अगर आदमी न हो पृथ्वी पर, तो घी पैदा नहीं होगा। दूध पैदा कोई चीज न थी! निकटतम, अधिकतम प्रभावी, जीवन जिस पर | | होगा, घी पैदा नहीं होगा। मनुष्य की चेतना ने घी को जन्म दिया। निर्भर था, उस गेहूं को दग्ध कर देना, राख। ऐसे ही अहंकार को | अगर मनुष्य न हो पृथ्वी पर, तो भलाई पैदा नहीं होगी। भलाई दग्ध कर देना, राख। निर्बीज हो जाना अहंकार की दृष्टि से। | को मनुष्य की चेतना ने जन्म दिया। इसलिए अगर घी का प्रतीक अब बीज के साथ दो काम किए जा सकते हैं। जमीन में गड़ाएं, खयाल में आ गया हो, तो बहुत आश्चर्यजनक नहीं है। सहज है। तो बीज अंकुरित होगा; करोड़ों बीज पैदा कर जाएगा। आग में डाल जिनके पास थोड़ी-सी भी काव्य की दृष्टि है, वे उघाड़ सकते हैं दें, तो बीज अंकुरित नहीं होगा, सिर्फ राख हो जाएगा। उसके पीछे बात को कि क्यों यह प्रतीक खयाल में आ गया होगा। कोई रेखा नहीं छूट जाएगी यात्रा की। मथना पड़ता है, मंथन करना पड़ता है। घी को जन्माना पड़ता अग्नि में डाले गए बीज, बीजरूपी अहंकार को डालने के | | है। भलाई मनुष्य के श्रम का फल है। ऐसे ही नहीं मिलती। गेहूं प्रतीक थे। बिना आदमी के भी होता रहेगा। बीज गिरते रहेंगे। अंकुर निकलते घी भी फेंका गया है यज्ञ में। क्यों फेंका गया होगा? किस रहेंगे। आदमी नहीं होगा, तो भी पौधे होंगे, बीज होंगे; चलती रहेगी प्रतीक, किस मेटाफर के खयाल से? यात्रा। लेकिन घी नहीं होगा पृथ्वी पर।आदमी नहीं होगा, तो भलाई देखा होगा, घी को डालें अग्नि में, तो अग्नि की लपटें बढ़ती नहीं होगी पृथ्वी पर। शुभ नहीं होगा। हैं। घी के डालने से अग्नि की लपट बढ़ती है, तीव्र होती है, - तो जिन दिनों, जिस कृषि के जगत में गीता जन्मी, जिस कृषि के उज्ज्वल होती है, प्रखर होती है, तेज होती है। घी के डालते ही | जगत में वेद जन्मा, जिस कृषि के प्रतीकों की दुनिया के बीच यज्ञ अग्नि में त्वरा आती है। गेहूं को डालिएगा, तो अग्नि की त्वरा कम की धारणा जन्मी, घी निकटतम प्रतीक था शुभ का। होगी। गति क्षीण होगी, क्योंकि अग्नि की ताकत गेहूं को जलाने में अब यह मजे की बात है, अशुभ को डालें जीवन की चेतना में, लगेगी। तो जो लपट बनने की शक्ति थी, वह बंटेगी। लेकिन घी | तो अशुभ जल जाएगा, लेकिन जीवन की चेतना को क्षीण करेगा। को डालिए, तो अग्नि की ताकत घी को जलाने में नहीं लगती, घी | | अशुभ जलेगा, तो भी जीवन की चेतना को क्षीण करेगा। शुभ को की ताकत ही अग्नि को बढ़ाने में लगती है। भी डालें जीवन की चेतना में, तो शुभ जीवन की चेतना को क्षीण जीवन की जो ज्योति है, उसमें दो काम करने हैं। उसमें बुराई को नहीं करेगा, बढ़ाएगा। डालकर दग्ध करना है और भलाई को डालकर उस ज्योति को | दूसरी बात भी खयाल रख लें कि अंततः शुभ को भी जला देना बढ़ाना है। घी भलाई का निकटतम प्रतीक हो सकता था, जिन दिनों है। शुभ जलेगा और ज्योति बढ़ेगी। लेकिन जला देना है उसे भी। वह प्रतीक खोजा गया। घी भलाई का निकटतम प्रतीक हो सकता उसे भी बचा नहीं लेना है। अन्यथा वह भी बंधन बन जाएगा। था। कई कारणों से। | घी रहस्यपूर्ण है इन अर्थों में। जल भी जाता है, मिट भी जाता एक तो स्निग्ध है, इसलिए उसका दूसरा नाम स्नेह भी है, प्रेम है, जीवन की धारा को ऊपर की तरफ गतिमान भी कर जाता है। भी है। और भी कई कारणों से। घी प्रकृति में सीधा पैदा नहीं होता। लपटों को प्राण दे जाता है, आकाश की तरफ दौड़ने का बल दे गेहूं प्रकृति में सीधे पैदा होता है। अहंकार प्रकृति में सीधा पैदा होता | | जाता है; और जल भी जाता है, खो भी जाता है, विदा भी हो जाता है, बुराई सीधी पैदा होती है। भलाई को पैदा करने के लिए बड़ा | है। कहीं कोई रूपरेखा नहीं छूट जाती। कहीं कोई रूपरेखा नहीं छूट श्रम उठाना पड़ता है। वह सीधी पैदा नहीं होती; उसकी डायरेक्ट जाती। यज्ञ में फेंका गया घृत आस-पास सिर्फ एक सुवास छोड़ बर्थ नहीं होती। | जाता है, सिर्फ एक सुगंध छोड़ जाता है। शुभ जब जलता है, तो घी सीधा पैदा नहीं होता। दूध बनेगा, दही बनेगा, मथा जाएगा, सुगंध छोड़ जाता है। वह सुवास व्याप्त हो जाती है चारों ओर। फिर घी निकलेगा। बहुत होगा दूध, बहुत होगा दही, थोड़ा-सा घी | | साधु के पास शुभ होता है। संत के पास शुभ की सिर्फ सुवास निकलेगा। बड़ा होगा श्रम, छोटी-सी भलाई निकलेगी। श्रम होगा होती है, शुभ नहीं होता। साधु अग्नि में जलता हुआ घृत है, संत 130
SR No.002405
Book TitleGita Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages464
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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