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________________ यज्ञ का रहस्य जल गया घृत है। शुभ भी जल गया है; सिर्फ सुवास रह गई है। मेरे जैसे आदमी की कठिनाई भारी है। भारी इसलिए है कि मैं जिनके पास बहुत तीव्र नासारंध्र हैं, वे ही केवल उस सुवास को | | देखता हूं कि प्रतीक के पीछे प्राण हैं। और भारी इसलिए है कि मैं पकड़ सकेंगे। | देखता हूं कि आपके हाथ में लाश है। तब मेरी कठिनाई भारी है। इसलिए साधु को पहचानना बहुत आसान; संत को पहचानना | | तब एक दिन मैं कहता हूं, पागल हैं आप; और फिर भी मैं जानता बहुत कठिन। साधु को कोई भी पहचान लेता है, क्योंकि शुभ | हूं कि प्रतीक सार्थक है। दूसरे दिन कहता हूं, सार्थक है प्रतीक। तब दिखाई पड़ता है। संत को पहचानना कठिन हो जाता है, क्योंकि आप पाते हैं कि असंगत है यह आदमी। क्योंकि कल कहा था कि शुभ दिखाई नहीं पड़ता। शुभ अब पारदर्शी भी नहीं रह जाता। शुभ | गलत है; आज कहते हैं, सही है। कल तुम्हें गलत कहा था, प्रतीक अब चारों तरफ स्पर्श नहीं किया जा सकता। अब शुभ खो जाता | को नहीं। आज प्रतीक को सही कह रहा हूं, तुम्हें नहीं। दोनों ही है सुवास में। | करना पड़ेंगे। ऐसा यह यज्ञ का प्रतीक। कृष्ण कहते हैं, जीवन ही जिसका यज्ञ | __ प्रतीक के भीतर गहरा छिपा हुआ राज है, उसे बचाना जरूरी है। हो जाए; यज्ञ को ही जो यज्ञ में समर्पित कर दे, ऐसा व्यक्ति, ऐसा | | लेकिन आपके हाथ में जो प्रतीक है, वह मुर्दा है, उसे मिटाना भी व्यक्ति ही जीवन का चरम अनुभव है; ऐसी चेतना ही परात्परब्रह्म | जरूरी है। और ये दोनों बातें हो पाएं, तो धर्म का रहस्य समझ में को जान पाती है; अल्टिमेट को, आत्यंतिक को जान पाती है। आता है, अन्यथा नहीं आता। ये प्रतीक सड़ जाते हैं। सब प्रतीक सड़ जाते हैं; अपने कारण नहीं, हमारे कारण। क्योंकि हमारी जो प्रतीकों की पकड़ है, वह नीचे के छोर से होती है। और जो प्रतीकों को जन्म देता है, वह ऊपर | प्रश्नः भगवान श्री, इसमें दो प्रकार के यज्ञों की बात के छोर से जन्म देता है। जो प्रतीक को जन्म देता है, वह आकाश बताई गई है। पहला है, योगीजन देवताओं के पूजनरूप की तरफ से प्रतीक को निर्मित करता है। और हम जब प्रतीक को यज्ञ की ही अच्छी तरह उपासना करते हैं, लेकिन दूसरे पकड़ते हैं, तब जमीन की तरफ से पकड़ते हैं। ज्ञानीजन परमात्मा रूप अग्नि में यज्ञ के द्वारा ही यज्ञ जो अग्नि के प्रतीक को देता है, वह चेतना के लिए प्रतीक को हवन करते हैं। योगियों का यज्ञ और ज्ञानियों का खोजता है। और हम जब अग्नि को पकड़ते हैं, तो अग्नि को ही यज्ञ, कृपया इनका अर्थ स्पष्ट करिए। पकड़ते हैं। फिर अग्नि की पूजा चलती है। फिर हम गेहूं को जलाते रहते हैं। फिर हम घी को जलाते रहते हैं। फिर हम सब भूल जाते हैं कि घी क्या है, अग्नि क्या है, यज्ञ क्या है। सब भूल जाते हैं। | - सा मैंने पहले कहा, दो तरह की निष्ठाएं हैं, सांख्य की एक थोथा, मरा हुआ, डेड सिंबल हाथ में रह जाता है। फिर उसके | UI और योग की। इसलिए इन दो निष्ठाओं के कारण धर्म आस-पास हम घूमते रहते हैं, भटकते रहते हैं-सदियों तक। के सदा ही दो रूप हो जाते हैं। बस, दो ही; इससे और बड़ी कठिनाई तो तब पैदा होती है कि जब कोई व्यक्ति इस ज्यादा नहीं होते। भटकाव का विरोध करे, तो धर्म का दुश्मन मालूम पड़ता है। कोई | सांख्य की निष्ठा है कि ज्ञान ही काफी है। सौ में से एक आदमी कहे कि यह पागलपन है, तो निश्चित ही धर्म का दुश्मन मालूम | कभी सांख्य को समझ पाता है। योग की निष्ठा है कि ज्ञान काफी पड़ेगा। क्योंकि हम कहेंगे, कृष्ण तो गीता में कहते हैं, और आप | नहीं है; कुछ करेंगे, कुछ कर्म होगा–साधना, अभ्यास-तो ही पागलपन कहते हैं। लेकिन जिसे कृष्ण गीता में कहते हैं और जिसे | ज्ञान फलित होगा। सौ में से निन्यानबे आदमी योग को ही समझ आप पकड़े हैं, उसमें आकाश और जमीन का फासला हो गया। पाते हैं। अगर कृष्ण भी वापस लौट आएं, तो आपको पागल कहेंगे। । दो तरह के लोग हैं, इसलिए दो तरह की निष्ठाएं हैं। कर्माभिमुख, कर्म की तरफ अभिमुख, एक्शन ओरिएंटेड लोग हैं। और ट्रांसेंडेड। हर प्रतीक पार हो जाने के लिए है। और जब प्रतीक पार ज्ञानाभिमुख, ज्ञान की ओर उन्मुख, नालेज ओरिएंटेड लोग हैं। मोटा नहीं होते, तो संप्रदाय खड़े होते हैं। | विभाजन दो का है। इसलिए कृष्ण जगह-जगह दो की बात करते हैं। 131
SR No.002405
Book TitleGita Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages464
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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