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ॐ यज्ञ का रहस्य
भी गहरा प्रतीक बन गई। लपट झलकी भी नहीं, और खोई। ऊपर की उठती हुई लपटें, रोज सुबह दी गई आहुति, पढ़े गए उठी भी नहीं, और ब्रह्म के साथ एक हुई।
मंत्र-रिमेंबरिंग हैं, गांठ हैं। और जिनको उन प्रतीकों का अर्थ पता सागर में गिर जाए बूंद, खोजनी बहुत कठिन है, लेकिन फिर भी था, उनके लिए वह सिर्फ अग्नि न थी, वह चेतना की लपट थी। कंसीवेबल है कि हम खोज लें। आखिर बूंद कहीं तो है ही। सागर जिन्हें प्रतीकों का अर्थ पता था, उनके लिए डाली गई आहुति गेहूं नहीं में गिर जाए बूंद, खोजनी कठिन है कि हम उस बूंद को फिर से पा था, घी नहीं था, जीवन था। वे प्रतीक थे; गांठ की तरह प्रतीक थे। लें, लेकिन फिर भी अकल्पनीय नहीं है। सोच तो सकते ही हैं कि फिर खो जाते हैं सब प्रतीक। जड़ चीजें हाथ में रह जाती हैं। फिर बूंद कहीं तो होगी ही। कोई न कोई उपाय खोजा जा सकता है कि पागलों की तरह अग्नि जलती रहती, उसमें लोग गेहूं और घी और वापस खोज लें। लेकिन अग्नि की लपट खो जाए आकाश में, तो कुछ-कुछ डालते रहते। और कंठस्थ किए हुए सूत्रों को दोहराए कंसीवेबल भी नहीं है कि हम उसे वापस पा लें।
जाते! जो दोहराने वाले होते हैं, वे भी खरीदे गए होते हैं। हर यज्ञ जो खो गया ब्रह्म में, वह प्वाइंट आफ नो रिटर्न पर पहुंच जाता | | के पीछे झगड़ा होता है, किस ब्राह्मण को ज्यादा मिल गया, किसको है। वह वापस नहीं लौट सकता। वहां से वापसी नहीं है। इसलिए | कम मिल गया; क्या हुआ, क्या नहीं हुआ! किसकी फीस कितनी! अग्नि का प्रतीक गहरा प्रतीक बन गया। और जब पहली बार अग्नि | ___ फीस के लिए कहीं यज्ञ किए जा सकते हैं? शुल्क लेकर कहीं यज्ञ बनी, तो मेटाफर थी, सूचक थी। ऋषियों के आश्रम में जलती | | धर्म की तरफ इशारे किए जा सकते हैं? धंधा बनाया जा सकता है ही रहती सदा। यज्ञ की ज्योति बढ़ती ही रहती सदा आकाश की | | धर्म को? जब धर्म धंधा बन जाता है, तब धर्म नहीं रह जाता। धंधे तरफ। आस-पास से निकलते हुए साधक निरंतर स्मरण कर पाते | | को तो धर्म बनाया जा सकता है; धर्म को धंधा नहीं बनाया जा उस लपट से, रिमेंबर कर पाते, भीतर की लपट को निरंतर ऊपर | सकता। लेकिन हुआ उलटा है। धंधे को तो धर्म कोई नहीं बनाता; उठाने का।
धर्म को बहुत लोग धंधा बना लेते हैं। उस अग्नि में जो भी आहुति डाली जाती, उस अग्नि में जो भी | ___ यह कृष्ण जिस यज्ञ की बात कर रहे हैं, वह प्रतीकात्मक है। तब डाला जाता, वह सब प्रतीक था अपने को डालने का, स्वयं को | | पूरा जीवन ही यज्ञ है। तब पूरा जीवन ही यज्ञ है। और यह स्मरण डालने का। अपने को निरंतर डालते रहना है यज्ञरूपी अग्नि में। वे | आ जाए, तो समस्त कर्म यज्ञ हैं। तब समस्त जीवन आहुति है। तब सब प्रतीक थे। उन प्रतीकों को निरंतर उपस्थित रखना अर्थपूर्ण था। | | स्वयं को बना लेना है हवन का कुंड; सब समर्पित कर देना है उस
अर्थपूर्ण ऐसे ही, जैसे एक आदमी बाजार जाए; कुछ लाना है | | कुंड में। डाल देना है स्वयं को; जला देना है स्वयं को। जल जाए खरीदकर। भूल न जाए, तो कुर्ते के छोर में गांठ लगा लेता है। अहंकार। बाजार में दिन में दस बार गांठ पर नजर जाती है, खयाल आ जाता __पूछ सकेंगे, पूछने का मन होगा कि गेहूं जैसी चीज क्यों डाली है, कुछ लाना है। गांठ से कोई संबंध नहीं है लाने का। बिना गांठ गई? के भी लाया जा सकता है। लेकिन गांठ स्मरण के लिए आधार बन ___ वह भी वैसा ही प्रतीक है, जैसी अग्नि। गेहूं है बीज। छिपा है सकती है। चुभती रहेगी; खयाल बनाए रखेगी, कुछ लाना है। सब उसमें, अभी प्रकट नहीं हुआ। अब इस बीज को जमीन में बो स्मृति को जगाए रखेगी। दिन में पच्चीस बार, हजार काम में डूबे दें, तो प्रकट होगा; अंकुर निकलेगा; वृक्ष बनेगा। और एक बीज हए जब भी नजर जाएगी कर्ते की गांठ पर. खयाल आएगा. कछ करोड बीज बन जाएगा। लाना है। सांझ होते तक भूलना मुश्किल होगा। सांझ होते-होते जब गेहूं को डालते हैं यज्ञ में, तो प्रतीक है इस बात का कि तक भूलना मुश्किल होगा। सांझ घर जो लाना है, लेकर आदमी | अहंकार जब बीजरूप हो, तभी डाल देना। उसको बो मत देना लौट आएगा। गांठ के बिना भूलना हो सकता था। गांठ के साथ | जमीन में। अन्यथा अहंकार में अंकुर आ जाएंगे। हर अंकुर में भूलना मुश्किल है।
सैकड़ों बीज लग जाएंगे। हर बीज में फिर सैकड़ों अंकुर लगने की लेकिन कोई गांठ की पूजा करने लग जाए, तो भी भूल जाएगा। संभावना पैदा हो जाएगी। और अहंकार विराट वृक्ष की तरह बढ़ता क्योंकि तब गांठ स्मरण नहीं कराएगी, पूजा करवाएगी। | चला जाएगा। बीज की तरह डाल देना उसे। जब बीज हो, तभी
सारे प्रतीक गांठ की तरह हैं। गुरुकुल में जलती हुई अग्नि, यज्ञ डाल देना। अंकुरित मत करना। सींचना मत। खाद मत डालना।
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