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गीता दर्शन भाग-20
दैवमेवापरे यज्ञं योगिनः पर्युपासते। __ जो गहरे देख पाता है, उसे मील का पत्थर रोकता नहीं, बढ़ाता ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति । । २५।। | है। जो गहरे नहीं देख पाता, वह मील के पत्थर पर रुक जाता है और दूसरे योगीजन देवताओं के पूजनरूप यज्ञ को ही | और बैठ जाता है। अच्छी प्रकार उपासते हैं अर्थात करते हैं और दूसरे ज्ञानीजन | मील का पत्थर बोल नहीं सकता। प्रतीक गूंगे हैं, बोल नहीं परब्रह्म परमात्मा रूप अग्नि में यज्ञ के द्वारा ही यज्ञ को | सकते। जो समझ पाए, समझ पाए। न समझ पाए, न समझ पाए। हवन करते हैं।
धर्म को बहुत-से प्रतीक खोजने पड़े, उस अनुभव को बताने के | लिए, जो पारलौकिक है। दो-चार प्रतीक मैं आपको खयाल में दं,
तो यज्ञ का प्रतीक भी समझ में आ सके। और तब यह भी समझ म ज्ञ के संबंध में थोड़ा-सा समझ लेना आवश्यक है। | | में आ सके कि यज्ञ के साथ भी मील के पत्थर का प्रयोग हो गया 4 धर्म अदृश्य से संबंधित है। धर्म आत्यंतिक से संबंधित है। कुछ लोग प्रतीक को पकड़कर मील के पत्थर पर ही बैठ गए
है। पाल टिलिक ने कहा है, दि अल्टिमेट कंसर्न।। | हैं। वे आग जला रहे हैं, घी डाल रहे हैं, गेहूं फेंक रहे हैं और आत्यंतिक, जो अंतिम है जीवन में-गहरे से गहरा, ऊंचे से | | सोच रहे हैं, काम का अंत हुआ! सोच रहे हैं, बात पूरी हुई। यज्ञ ऊंचा-उससे संबंधित है। जीवन के अनुभव के जो शिखर हैं, | के प्रतीक का यह अवरोध की तरह उपयोग हुआ। यह प्रतीक अब्राहिम मैसलो जिन्हें पीक एक्सपीरिएंस कहता है, शिखर | गतिमान भी हो सकता है, डायनेमिक हो सकता है, गत्यात्मक हो अनुभव, धर्म उनसे संबंधित है।
सकता है, आगे ले जा सकता है; लेकिन उन्हीं को, जो इस प्रतीक __स्वभावतः, गहन अनुभव जब अभिव्यक्त किया जाए, तो | में गहरे समझने के लिए चेष्टा करें। कठिनाई होती है। उस अनुभव के लिए हमारी जिंदगी में न तो कोई | | मनुष्य के अनुभव में अग्नि गहरा प्रतीक बन सकती है। क्योंकि शब्द होते हैं। उस अनुभव के लिए हमारे व्यवहार में प्रतीक खोजने | | अग्नि में कुछ खूबियां हैं। पहली खूबी तो यह है कि अग्नि की भी कठिन हो जाते हैं। ठीक-ठीक समानांतर शब्दों की कोई | | लपट सदा ही ऊपर की तरफ दौड़ती है। सदा ही। अग्नि की लपट संभावना नहीं है। इसलिए धर्म मेटाफोरिक हो जाता है; इसलिए | सदा ही ऊपर की तरफ दौड़ती है, ऊर्ध्वगामी है। जैसे ही मनुष्य की धर्म प्रतीकात्मक, संकेतात्मक, सिंबालिक हो जाता है। वह जो चेतना धार्मिक होनी शुरू होती है, ऊर्ध्वगामी हो जाती है, ऊपर की आत्यंतिक अनुभव है, उसे पृथ्वी की भाषा में प्रकट करने के लिए | तरफ दौड़ने लगती है। इसलिए बहुत प्रारंभ में ही यह खयाल आ रूपक, प्रतीक और संकेत चुनने पड़ते हैं, निर्मित करने पड़ते हैं। | गया कि अग्नि प्रतीक बन सकती है भीतर की चेतना के ऊर्ध्वगमन
वे ही संकेत अभिव्यक्ति भी लाते हैं, वे ही संकेत अंत में का, ऊपर उठने का। अवरोध भी बन जाते हैं। अभिव्यक्ति उनके लिए बनते हैं वे संकेत, | | दूसरी खूबी अग्नि की यह है कि अग्नि में कुछ भी अशुद्ध हो, जो उन संकेतों पर रुकते नहीं; इशारों को पकड़ते नहीं, पार निकल | तो जल जाता है। सोने को डाल दें, अशुद्ध जल जाता है, शुद्ध जाते हैं। और जो उन इशारों को पकड़कर रुक जाते हैं, उनके लिए। निखरकर बाहर आ जाता है। जिन्होंने धर्म की चेतना की ज्योति का अवरोध हो जाते हैं।
| अनुभव किया, उनको भी पता लगा कि उस ज्योति में, जो भी मील का पत्थर लगा है। तीर का निशान बना है। जो उस मील अशद्ध है, वह जल जाता है और जो शद्ध है, वह निखर आता के पत्थर के पास ही मंजिल को समझकर रुक जाता है, वह मील | है। अग्नि और भी गहरा प्रतीक बन गई धर्म का। का पत्थर उसके लिए अवरोध हो गया। इससे तो अच्छा होता कि | फिर तीसरी अग्नि की खूबी है कि लपट थोड़ी दूर तक ही दिखाई रास्ते पर कोई मील के पत्थर न होते। उसे रुकने की कोई जगह न | | पड़ती है, फिर अदृश्य में खो जाती है। जरा दिखी, और खोई। मिलती। वह मंजिल तक पहुंच जाता। लेकिन मील के पत्थर लगाने | जिनको भी चेतन के ऊर्ध्वगमन का अनुभव हुआ है, वे जानते हैं वाले ने चलने के सहारे के लिए मील के पत्थर लगाए। और वह | कि थोड़ी दूर तक ही पता चलता कि मैं हूं, फिर मैं होने का पता नहीं जो तीर का निशान है, वह कहता है कि आगे, और आगे। यहां | चलता; फिर तो ब्रह्म में लीन हो जाता सब। जरा-सी झलक अपने नहीं रुक जाना है।
| होने की, और फिर सर्व के होने में खो जाता है। इसलिए अग्नि और
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