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ॐ गीता दर्शन भाग-20
इसलिए पुरानी भारतीय आध्यात्मिक धारणा थी कि जब कोई आज तो हालतें बड़ी मजेदार हैं। मैं अभी बिहार में था कुछ समय पूछने जाए, तो सीधा पूछने न चला जाए। क्योंकि कितने विराट की पहले। रात दस बजे बोलकर लौटा। कलेक्टर उस गांव के आए। मांग कर रहे हो तुम! तुम कह रहे हो, सत्य की खबर दो मुझे! कह पढ़े-लिखे आदमी हैं। दस बजे आए। मैंने कहा, अब तो मेरे सोने रहे हो, परमात्मा का इशारा बताओ मुझे! कह रहे हो कि आखिरी का समय हुआ। आप सुबह आ जाएं, आठ बजे। उन्होंने कहा, मंजिल का द्वार कहां? मार्ग कहां? विधि कहां? पूछते हो परम आठ बजे तो मैं न आ पाऊंगा; क्योंकि आठ बजे तो मेरे नाश्ते का को-सीधा पूछते हो! बिना कुछ दिए पूछते हो! अशोभन है। सेवा | समय है। से और निष्कपट भाव से की गई सेवा से पूछो।
लाए थे ब्रह्म-जिज्ञासा; कहने लगे, आठ बजे नाश्ते का समय इसलिए इस मुल्क की व्यवस्था थी। और इस मुल्क की है! मैंने कहा, तो फिर दस बजे आ जाएं, क्योंकि आठ से दस व्यवस्था दस पथ्वी पर की गई मनष्य की व्यवस्थाओं में सर्वाधिक शिविरार्थियों के लिए दिया है। दस बजे आ जाएं। गहरी थी। हजार-हजार वर्षों में हजार-हजार प्रयोगों के बाद नियत | | दस बजे तो नहीं आ सकता। दफ्तर जाऊंगा। की गई थी। हजारों-लाखों अनुभवों के बाद सार-निचोड़ था। | ब्रह्म-जिज्ञासा! एक दिन की छुट्टी नहीं ली जा सकती! तो मैंने
तो गुरु के पास शिष्य जाता, तो वर्षों तो सेवा करता। कभी पैर | कहा, परसों आ जाएं। उन्होंने कहा, परसों! सुबह तो नहीं आ दबा देता। कभी उसका पानी भर लाता। कभी उसकी लकड़ी चीर सकूँगा। कुछ मेहमान आते हैं। ब्रह्म-जिज्ञासा! मेहमान आ रहे हैं! देता। कभी उसकी आग जला देता। और प्रतीक्षा करता कि गुरु | | मैंने कहा, सांझ आ जाएं। कहा कि थियेटर के टिकट ले रखे हैं! किसी दिन कहे, पूछो। अपनी तरफ से पूछता भी नहीं। क्योंकि | | ब्रह्म-जिज्ञासा! थियेटर के टिकट ले रखे हैं! अनधिकार होगा। पता नहीं, मैं पात्र भी हूं या नहीं। पता नहीं, मेरी | तो फिर मैंने कहा कि हाथ जोड़कर दंडवत करूं आपके और पूर्वी योग्यता भी है या नहीं। पता नहीं, मैं इस जगह भी हूं या नहीं कि | | कि कब आज्ञा है कि आपके दरवाजे उपस्थित हो जाऊं! थोड़े पूर्छ। और अगर मैं पूछ लूं, अपात्र होऊं, तो गुरु को उत्तर देने के | घबड़ाए। विचलित हुए। व्यर्थ के कष्ट में डालने वाला न बन जाऊं! रुकू। जिस दिन गुरु | क्या, चाहते क्या हैं हम? चाहते भी हैं कुछ ? कहेगा, पूछ! पूछ लूंगा। प्रतीक्षा करता। कभी-कभी वर्ष बीत | | स्वभावतः, अगर ब्रह्म हमारे अनुभव से खो गया है, तो आश्चर्य जाते। धैर्य, अवेटिंग, धीरज से राह देखता। करता रहता काम।। | नहीं है। पूछने वाले ही खो गए। सम्यकरूपेण जानने की आतुरता
फिर किसी दिन गुरु कहता, ठीक। अब तू आ। अब तू पूछ। | वाले ही खो गए। इतना-सा छोड़ने का मन नहीं है! तुझे देखा। तुझे जाना। तुझे परखा। तुझे निकट से समझा। पात्र है । । इसलिए कहते हैं कृष्ण, सेवापूर्वक, निष्कपट भाव से...। तू। उठा ला समिधा। प्रश्न जगा। पूछ ले।
निष्कपट भाव क्यों जोड़ दिया? क्योंकि सेवा में भी कपट हो जिस दिन गुरु कहता, पूछ ले, उस दिन गुरु उस प्रसन्नता में, सकता है। सेवा में भी सिर्फ इतना ही मतलब हो सकता है कि कर उस पात्र को पहचान लेने की प्रसन्नता में, लबालब भरा होता। जैसे | | रहे हैं सेवा, ऐज ए बार्गेन, एक सौदे की तरह कि हम कर देंगे सेवा, बादल भर जाते हैं वर्षा के पहले; आतुर धरती कहीं भी पुकारे, | तुम बता देना ब्रह्म! बरस पड़ते हैं। ऐसे ही भरा होता है उस प्रसन्नता में। उस क्षण प्रसाद जहां सौदा है, वहां सेवा नहीं रह गई, वहां कपट आ गया। बहने को तत्पर होता। उस क्षण दंडवत करके, उस दिन चरणों में निष्कपट! सेवा को और भी कठिन बना दिया। करना सेवा सिर रखकर वह अपना प्रश्न उपस्थित करता।
निष्कपट कि अगर चार साल सेवा करने के बाद गुरु कहे, जाओ। अदभुत लोग रहे होंगे। एकाध प्रश्न पूछने के लिए दो-चार वर्ष | | मत पूछो। तो यह न कह पाओ कि मैंने चार साल सेवा की! क्या प्रतीक्षा करना! अदभुत लोग रहे होंगे। जिज्ञासा नहीं रही होगी, | | इसलिए? यह भी न कह पाओ। गुरु कहे, नहीं; जाओ। तो चले कतहल नहीं रहा होगा, ममक्षा रही होगी प्राणों की: दांव रहा होगा जाना कि सेवा का अवसर दिया. यही धन्यभाग है। निष्कपट सारी जिंदगी को लगाने का। सवाल सवाल नहीं था, जिंदगी का | इसलिए है। सवाल था। उसके तय होने पर सब कुछ निर्भर था। तो दो वर्ष निष्कपट सेवा हो, झुका हुआ सिर हो, खुला हुआ मन हो, तो प्रतीक्षा भी की थी।
ज्ञान की गंगा कहीं भी, कहीं से भी उतर आने को सदा तत्पर है।
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