________________
| संशयात्मा विनश्यति
ताजा और शुद्ध हो जाता है। प्रभु के साथ मिलकर एक, इतना शुद्ध हो जाता है, फिर कुछ भी उसे अशुद्ध नहीं कर पाता है। इतना स्वतंत्र हो जाता है कि फिर कोई बंधन उसे बांध नहीं पाते हैं। इतना मुक्त कि फिर कोई कारागृह उसके लिए कारागृह नहीं बन सकता है।
तस्मादज्ञानसंभूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः । छित्त्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत ।। ४२ । । इससे, हे भरतवंशी अर्जुन, तू समत्वबुद्धिरूप योग में स्थित हो और अज्ञान से उत्पन्न हुए हृदय में स्थित, इस अपने संशय को ज्ञानरूप तलवार द्वारा छेदन करके युद्ध के लिए खड़ा हो ।
इ
सलिए हे अर्जुन, तू समत्वबुद्धिरूप योग को पाकर, संशय को ज्ञानरूपी तलवार से काट डाल । दो बातें हैं। एक, समत्वबुद्धिरूपी योग को, समता को उपलब्ध हो। समता का अर्थ है, निष्पक्षता को । समता का अर्थ है, तटस्थता को। समता का अर्थ है, दोनों के पार, दुई के पार, द्वैत के पार । समत्वबुद्धिरूपी योग को !
हमारी बुद्धि सदा असम्यक है । असम्यक बुद्धि का अर्थ है कि कभी इस तरफ डोल जाती है, कभी उस तरफ डोल जाती है। हमारी चाल ऐसी है, जैसे कभी नट को रस्सी पर चलते हुए देखा हो । देखा है, नट को रस्सी पर चलते हुए? हाथ में एक डंडा लिए रहता है। कभी बाएं डोलता, कभी दाएं डोलता । कभी बाएं, कभी दाएं । रस्सी पर चलता है; बाएं - दाएं डोलता है।
यह भी खयाल में ले लेना कि जब वह बाएं डोल रहा है, तो उसका मतलब आप जानते हैं कि बाएं क्यों डोलता है ? बाएं इसलिए डोलता है कि जब दाएं गिरने का डर पैदा होता है, तब वह बाएं डोलता है बैलेंस करने को। जब दाएं गिरने का डर पैदा होता है कि कहीं दाएं गिर न जाऊं, तो वह तत्काल बाएं डोलता है। जब बाएं गिरने का डर पैदा होता है, तब वह दाएं डोलता है।
हमारी बुद्धि नट जैसी है। रस्सी पर बारीक, कभी धर्म की तरफ डोलते, कभी अधर्म की तरफ; कभी हिंसा की तरफ, कभी अहिंसा की तरफ, कभी पदार्थ की तरफ, कभी परमात्मा की तरफ। लेकिन डोलते ही रहते हैं, समत्व को उपलब्ध नहीं होते। ऐसे नहीं, जैसे
कोई व्यक्ति जमीन पर खड़ा है; डोलता ही नहीं – स्ट्रेट, सीधा । जैसे दीए की लौ ऐसे कमरे में हो, जहां के सब द्वार बंद हैं। हवा का कोई झोंका भीतर नहीं आता। ज्योति सीधी है; जरा भी कंपती नहीं; खड़ी है !
बुद्धि जब ऐसी खड़ी होती है, अन डोली, अन-वेवरिंग, कंपनमुक्त, मध्य में; न बाएं, न दाएं; न इस पक्ष में, न उस पक्ष में; जब मध्य में, समत्व को, समता को, समाधि को बुद्धि उपलब्ध होती है, तब वह समत्व बुद्धि को उपलब्ध हुआ व्यक्ति ही इस | जगत के जाल, झंझट, समस्याओं की गांठ को काट पाता है। अन्यथा वह खुद ही उलझ जाता है, अपने ही कंपन से उलझ जाता है। हम अपने ही कंपन से उलझते चले जाते हैं, चौबीस घंटे।
कभी अपने मन की इस असम्यक, असम अवस्था की परीक्षा करना, निरीक्षण करना। देखना सुबह से एक दिन सांझ तक कि मन कैसा डोलता है ! कितना डोलता है !
सुना है मैंने, एक चर्च में सुबह रविवार के दिन लोग प्रार्थना, प्रवचन को इकट्ठे हुए हैं। एक आदमी घर से तय करके आया कि सौ रुपए आज दान करने हैं। सौ रुपए लेकर आया। लेकिन जब वह सीढ़ियां चढ़ रहा था, उसने कहा, एकदम पूरे सौ रुपए ! लौटा। चर्च के पास की किसी दूकान से रुपए भंजाकर लाया । सोचा पचास ही काफी होंगे देने। फिर अपनी हैसियत भी सौ देने की कहां है? अभी थी, पंद्रह मिनट पहले !
भीतर पहुंचा। खयाल आया, पचास न भी दूं, कौन मुझे मजबूर | कर रहा है? अपने ही हाथ से फंसता हूं। सोचा, दस से भी काम | चल जाएगा। बड़ी राहत मिली। बोझ टल गया। अभी कुछ दिया नहीं था । सब भीतर चलता था। अभी किसी को पता भी नहीं था कि वह क्या कर रहा है। लेकिन दस देने हैं, इसलिए आगे की बेंच पर जाकर बैठा ।
स्वभावतः, जिसके खीसे में दस का नोट है, वह पीछे कैसे बैठे ! आगे बैठा। फिर दस देने भी हैं। तो अगर थोड़ा पीछे बैठे और जब | बर्तन घूमे पैसा डालने का, तो कौन देखेगा? पादरी कम से कम देख तो ले कि दस का नोट डाला है!
265
फिर पादरी का प्रवचन शुरू हुआ। आधा प्रवचन चला था, तब उसे खयाल आया कि पांच डालने से भी काम चल सकता है। प्रवचन पचहत्तर प्रतिशत पूरा होने आया, तब उसे खयाल आया कि इस तरह के भावावेश में पड़ना नहीं चाहिए । हजार और काम हैं। एक रुपया डालूं । कौन कहता है कि ज्यादा डालो ? एक रुपया