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गीता दर्शन भाग-2
कहता है, मैं हूं। समर्पण कहेगा, तू है। अहंकार कहता है, मैं सब सोचा प्रेमी ने कि ठीक ही है बात। जब तक मैं हूं, तब तक प्रेम कुछ। समर्पण कहता है, मैं कुछ भी नहीं। और अहंकार इतना | | कैसा? क्योंकि प्रेम तो तभी है, जब तू ही है, मैं नहीं हूं। लौट गया। चालाक है, इतने सूक्ष्म हैं मार्ग उसके, इतनी महीन हैं तरकीबें | पुराना प्रेमी रहा होगा; ओल्ड फैशन्ड! नए ढंग का होता, बहुत उसकी; इतने होशियार, इतने गणित का खेल है उसका, कि जब | उपद्रव मचाता। कहानी पुरानी है, रूमी ने लिखी है। और फिर उस अहंकार कहता है, मैं कुछ भी नहीं, तब भी वह कहता है, मैं कुछ | | तरह के प्रेमी ने लिखी, जो प्रभु के द्वार की बात कर रहा है। हूं! कुछ भी नहीं हूं। मैं कुछ हूं। ना-कुछ होने में भी अहंकार खड़ा लौट गया प्रेमी। वर्ष आए और गए। वर्षाएं आईं और बीतीं; हो जाता है। समर्पण अति कठिन है।
पतझड़ हुए और चुके; वसंत खिले और मिटे। न मालूम कितने चांद रूमी ने एक छोटा-सा गीत लिखा है, वह इस सूत्र को समझाने | पूरे हुए और अस्त हुए। न मालूम कितना समय बीता! निश्चय ही को कहूं। रूमी ने लिखा है कि प्रेमी अपनी प्रेयसी के द्वार पर गया। अहंकार को मिटाना लंबी यात्रा है; आडूअस है; तपश्चर्यापूर्ण है। खटखटाया द्वार। जैसा कि प्रेमियों का मन आमतौर से होता है. फिर वर्ष, वर्ष, वर्ष बीतने के बाद पता भी न रहा कि कितना अपेक्षाओं से भरा, ऐसा ही उसका भी भरा है। खटखटाया द्वार; | समय बीता; वह प्रेमी वापस आया। द्वार खटखटाए। फिर वही आवाज नहीं दी। क्योंकि सोचा उस प्रेमी ने, मेरी खटखटाहट को आवाज भीतर से, कौन हो? लेकिन अब प्रेमी ने कहा, तू ही है। भी तो पहचान लेगी प्रेयसी! मेरी खटखटाहट नहीं पहचानेगी क्या? | और रूमी कहता है, द्वार खुल गए। तू ही है-द्वार खुल गए। मेरे पदचाप नहीं पहचानेगी क्या? प्रतीक्षा की होगी मेरी, तो जरूर समर्पण हुआ। छोड़ा मैं को। प्रेम के द्वार खुले। मेरे पदचापों की आहट भी मिल गई होगी। और चाहा होगा मुझे, लेकिन शायद इस पृथ्वी के लिए तो ठीक है कि जिसे हम प्रेम तो मेरे खटखटाने का ढंग भी तो मेरा है! नहीं दी आवाज; सिर्फ करें, उसके सामने मैं को छोड़ दें और तू को मान लें, तो द्वार खुल द्वार खटखटाया।
जाएं। लेकिन रूमी तो अब कहीं खोजे से मिलेगा नहीं, अन्यथा भीतर से पूछा उसकी प्रेयसी ने, कौन है द्वार पर! प्रेमी को दुख | उससे कहा कि अगर मेरा वश चले, तो कविता अभी भी पूरी नहीं हुआ। प्रेमी को सुख मुश्किल से ही होता है। अपेक्षाएं होती हैं। करूंगा। कहलाता फिर भी मैं कि प्रेमी ने कहा, तू है, तो प्रेयसी ने बहुत, उसी अनुपात में दुख भी बरसते हैं। दुख हुआ, पहचानी | कहा, लौट जाओ फिर, और कुछ दिन प्रतीक्षा करो। क्योंकि जब नहीं! प्रेम का सुख ही रिकग्नीशन है, कोई पहचाने! आना था तक तू का खयाल है, तब तक मैं कहीं न कहीं छिपा ही होगा। तू दौड़ते हुए; खोलना था द्वार। कहना था कि पदचाप पड़े थे राह पर, का खयाल भी मैं के कहीं छिपे होने की खबर है; अन्यथा तू का तभी जान गई कि तुम आते हो। खटखटाया था द्वार, तभी खल जाने भी पता नहीं चलता। अगर मैं होता, तो लौटा देता। थे द्वार और कहना था, तुम! आवाज तुम्हारी पहचानती हूं। लेकिन समर्पण अहंकार का पूर्ण विसर्जन है, इतना पूर्ण कि तू कहने की भीतर से पूछती है, कौन हो?
भी जगह न रह जाए। तू कहने की भी जगह न रह जाए। लेकिन दूर दखी हआ मन। कहा. मैं हं। पहचाना नहीं? प्रेयसी ने कहा. की हुई यह बात। पहले तो हम तू कहने के योग्य बनें; मैं को छोड़ें! जब तक तुम हो, तब तक प्रेम के द्वार खुलना भी चाहें, तो खुलेंगे | फिर हम तू से भी मुक्त हों; तू को भी छोड़ें। तब, कृष्ण कहते हैं, कैसे? जाओ। जब बचो न, तब आ जाना।
अर्जुन, फिर कर्म का कोई भी बंधन नहीं है। फिर कर्म नहीं बांधते प्रेम के द्वार अहंकार के लिए कभी नहीं खुलते हैं। हालांकि | हैं। फिर व्यक्ति मुक्त ही है। फिर उसकी मुक्ति को कुछ भी नहीं अहंकार प्रेम के द्वार निरंतर ठकठकाता है और खुलवाना चाहता | छू पाता। फिर उसकी मुक्ति अग्नि जैसी है। कुछ भी फेंको कचरा है। अहंकार प्रेम के ऊपर सदा बलात्कार है। सदा! तोड़ देना चाहता | उसमें, जलकर राख हो जाता है। है। खुलते तो कभी नहीं, तोड़ देता है। लेकिन तोड़े गए द्वार, खुले अग्नि निर्दोष, क्वांरी है वर्जिन बच जाती है पीछे। अग्नि सदा हुए द्वार नहीं हैं। और तोड़े गए द्वार को जिसने खुला हुआ द्वार | ही क्वांरी बच जाती है। अग्नि क्वांरी ही बच जाती है, उसका
समझा, वह पागल है। क्योंकि जब द्वार खुलते हैं प्रेम के अपने से, क्वारापन अदभुत है। कुछ भी डालो उसमें, हो जाता है राख; अग्नि तब उसका रस, उसका रहस्य और ही है। और जब तोड़े जाते हैं, | क्वांरी की क्वांरी वापस खड़ी हो जाती है-शुद्ध, ताजी। तब उसका विरस, उसकी अर्थहीनता और ही है।
जो व्यक्ति अहंकार को छोड़ देता. वह अग्नि की तरह क्वांरा और
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