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________________ ज्ञान पवित्र करता है लेकिन लाखों की आंख देखे कौन ? आंखें तो कौड़ियों की इच्छाओं को देख रही हैं। आंखें तो कौड़ी भर इच्छा के पीछे दौड़ रही हैं। लाखों की आंख कौड़ियों की इच्छा करती है ! करोड़ों का मन - हिसाब नहीं है दाम का मन के लिए - क्षुद्र घास-पात के लिए पीड़ित है और तड़फता है। अरबों की विवेक - शक्ति - दाम नहीं लगते, अरबों में भी नहीं हो सकते दाम - किसी काम नहीं पड़ती। कोई जरा-सी गाली दे जाता है और करोड़ों की विवेक-शक्ति हम जमीन पर लुढ़का देते हैं। असीम, अनंत, अमूल्य आत्मा क्षुद्रतम के लिए दांव पर लगा दी जाती है। नहीं; वह भिखारी हमसे ज्यादा होशियार था। इनकार कर दिया, नहीं बेचता हूं आंख! हम तो आत्मा बेच देते हैं! आत्मा बेचने में भी देर नहीं करते। टुकड़ों पर बिक जाती है आत्मा ! पैसों में बिक जाती है। तांबे के ठीकरों में बिक जाती है। वासना हमें बुरी तरह भिखारी बना देती है। ज्ञान स्वच्छ करता है वासना से; तृप्त करता है, जो है, उसमें । दौड़ाता नहीं उसके पीछे, जो नहीं है। हृदय से आलिंगन करा देता है उसका, जो है । अदभुत है तृप्ति, संतुष्टि फिर। उस संतुष्टि में वासना के सारे रोग और सारे विकार विदा हो जाते हैं; मन स्वच्छ हो जाता है। एकदम स्वच्छ और ताजा हो जाता है। क्षण में जो जीता है, कल का जिसे हिसाब नहीं है, बीते कल का; आने वाले कल की जिसे अपेक्षा नहीं है; जो अभी और यहीं है, हियर एंड नाउ, उसकी स्वच्छता का कोई अंत नहीं है। वह पवित्रतम है। लेता; फिर दोनों बाहुओं पर लगाता है। लोग भीड़ में खड़े हैं जो पत्थर फेंक रहे हैं; वे पूछते हैं कि मंसूर यह तुम क्या कर रहे हो ? तो मंसूर कहता है, मैं वजू कर रहा हूं। नमाज के पहले जैसे | मुसलमान हाथ धो डालता है। खून से वजू कर रहा है। अपने ही खून से ! हंसता है और कहता है, यह खून भी परमात्मा की नसों में बहता हुआ पानी है। वह नदियों में बहता हुआ पानी भी परमात्मा की नसों में बहता हुआ खून है। यह भी उसकी ही धारा है; वह भी | उसकी ही धारा है। सौभाग्य मेरा कि तुमने आज इतने निकट की धारा तोड़ दी और वजू करने मुझे दूर नहीं जाना पड़ रहा है। वहीं खून से वजू कर रहा है; हंस रहा है; मुस्कुरा रहा है। लोग पत्थर फेंक रहे हैं और वह हंस रहा है। और मरते दम किसी ने उससे पूछा कि मंसूर, हम तुम्हें काट और तुम हम पर प्रेम बरसा रहे हो; मत झेंपाओ हमें, मत शर्माओ इतना । तो | मंसूर ने कहा, इसलिए ताकि तुम याद रख सको कि प्रेम को पत्थरों से पीड़ित नहीं किया जा सकता है। और आत्माओं को छुरों से, तलवारों से भोंका नहीं जा सकता है। और प्रार्थना को दुनिया की कोई भी गाली अपवित्र नहीं कर सकती है। ताकि तुम स्मरण रखो । अगर मंसूर के हाथ-पैर काटे जा रहे हैं। हाथ से गिरते लहू में भी, पैर से टपकते लहू में भी मंसूर हाथ के पंजों को लहू में लगा यह जो इन व्यक्तियों के भीतर, और ऐसे हजार-हजार और | व्यक्ति भी हुए हैं, इन सबके भीतर जो पवित्रता प्रकट होती है, वह | कृष्ण के सूत्र का ही प्रमाण है। ज्ञान के सदृश और कुछ पवित्र करने वाला नहीं है। कृष्ण कहते हैं, ज्ञान से ऊपर कुछ भी नहीं । इसलिए कृष्ण कहते हैं, ज्ञान की तरह पवित्र करने वाला, ज्ञान सदृश पवित्र करने वाली कोई कीमिया, कोई केमिस्ट्री नहीं है। इसलिए अगर बुद्ध की आंखों में पवित्रता दिखाई पड़ती है ऐसी, कि जिससे झीलें भी झेंप जाएं। कि बुद्ध के चेहरे पर रेखाएं दिखाई पड़ती हैं ऐसी, कि छोटे बच्चे भी, नवजात शिशु भी शर्माएं। कि बुद्ध के चलने में चारों तरफ हवा बहती है स्वच्छता की, निर्मल, कि मलय पर्वत से उठी हुई सुगंधित हवाएं भी फिर से विचार करें कि वे मलय पर्वत से आती हैं या कहीं और से ! अगर महावीर की नग्नता में भी पवित्रतम के दर्शन होते हैं, तो उसका कारण है। अगर जीसस सूली पर लटके हैं और मृत्यु क्षण में भी उनके भीतर से जीवन की ऊर्जा ही झलकती और प्रकट होती है। है भी नहीं। परम शिखर जीवन के अनुभव का, जान लेना है। निकृष्टतम खाई अज्ञान की, न जानने में पड़े रहना है। आत्म- अज्ञान गहनतम नर्क है; आत्म-ज्ञान श्रेष्ठतम स्वर्ग है। जो नहीं जानता अपने को, उससे नीचे और कुछ नहीं हो सकता। जो | जान लेता अपने को, उसके ऊपर कुछ और नहीं है। | दो ही छोर हैं, अज्ञान और ज्ञान। इन दो के अतिरिक्त और कोई पोल्स नहीं हैं अस्तित्व के । एक तरफ अज्ञान का छोर है, जहां हम अपने को नहीं जानते। और जो अपने को नहीं जानता, वह और कुछ क्या जानेगा, खाक! कैसे जानेगा ? उपाय क्या है? जो अपने को ही नहीं जानता, वह और क्या जानेगा? उसका सब जानना धोखा है। और जो अपने को जान लेता है, उसे और कुछ जानने को बचता ज्ञान ही एकमात्र पवित्रता है, नालेज इज़ प्योरिटी । साक्रेटीज ने कहा है, नालेज इज़ वर्च्यू, ज्ञान ही एकमात्र सदगुण है। वही कृष्ण कहते हैं। 233
SR No.002405
Book TitleGita Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages464
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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