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गीता दर्शन भाग-20
लान-कर्म-संन्यास, ऐसा इस अध्याय का नाम है। एक भी उपाय न होगा। II ओर ज्ञान, दूसरी ओर संन्यास, बीच में कर्म। नहीं; जा सकें संपदा के साथ प्रभु के समक्ष; चढ़ा सकें नैवेद्य
ज्ञान-कर्म-संन्यास योग। ज्ञान हो, कर्म न खोए, और जीवन में जो पाया है उसका, इस आशा में ये बातें कहीं। संन्यास फलित हो।
मेरे प्रिय आत्मन्, इन बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, ___ ज्ञान से कर्म हो, तो संन्यास फलित होता है। ज्ञानपूर्ण कर्म हो, उससे बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे प्रभु तो अकर्म बन जाता है। ज्ञानपूर्ण भोग हो, तो त्याग बन जाता है। को प्रणाम करता हूं। मेरे प्रणाम स्वीकार करें। ज्ञानपूर्ण अंधकार भी प्रभात है।
चले न जाएंगे, दस मिनट और बैठे रहें अपनी ही जगह। ये तीन शब्द बड़े सूचक हैं।
संन्यासी मंच पर आ जाएंगे सब, धुन चलेगी। इसीलिए आज एक ओर ज्ञान; प्रारंभ ज्ञान से; स्रोत ज्ञान से। बहे कर्म में, संसार संन्यासियों का आनंद आपमें बंट सके, तो उन्हें रोका है। वे रुकने में। पहुंचे संन्यास तक, परमात्मा में। वर्तुल पूरा हो जाए। को राजी न थे, उनके आनंद में कमी पड़ेगी, बैठकर ही उन्हें धुन में
ज्ञान जब कर्म बनता है, तभी संन्यास है। अगर ज्ञान पलायन | उतरना पड़ेगा। लेकिन बैठकर ही नाचे, नाचना आंतरिक है, बन जाए, तो फिर संन्यास नहीं है। ज्ञान अगर पलायन बन जाए, बैठकर ही डोलें, बैठकर ही खो जाएं। संन्यासी मंच पर होंगे, वे तो संन्यास नहीं है। ऐसा कहें, ज्ञान-पलायन-संन्यास योग; तो | धुन करेंगे, आप भी साथ दें। यह अंतिम समापन आप सबकी धुन इससे विपरीत होगा।
के साथ समाप्त हो। कोई उठे न, इतनी देर बैठे रहे, अपनी जगह आमतौर से संन्यासी यही करता है, ज्ञान-पलायन-संन्यास। बैठ जाएं। कोई उठे न, ताली दें, स्वर में स्वर दें, डोलें, आंखें बंद कृष्ण उलटा अर्जुन को कह रहे हैं। उलटा इसलिए, संन्यासी से कर लें। देखने की फिक्र छोड़ दें, ताकि आप भीतर देख सकें। एक उलटा। वह तो सीधा ही कह रहे हैं। संन्यासी उलटा है। पलायन । दस मिनट धुन चलेगी फिर हम विदा हो जाएंगे। नहीं, एस्केपिज्म नहीं।
कृष्ण का मूल संदेश इस अध्याय में अपलायन का, नो एस्केपिज्म; भागो मत, बदलो। पीठ मत फेरो, मुकाबला करो। अस्तित्व का सामना करो; भागो मत। लेकिन अज्ञानी भी करते हैं सामना, तब वे लिप्त हो जाते हैं, और भोगी हो जाते हैं। ज्ञानी भी करते हैं सामना; लेकिन तब वे लिप्त नहीं होते और संन्यास को उपलब्ध हो जाते हैं।
ज्ञानपूर्ण हो जाए कर्म, वही संन्यास है। जो भी करें, समत्व बुद्धि से हो, प्रभु समर्पित हो, संन्यास है। अज्ञान से किया गया अकर्म भी संन्यास नहीं, ज्ञान से किया गया कर्म भी संन्यास है। अज्ञान में कोई कुछ भी न करे, तो भी पाप लगता है। ज्ञान में सब कुछ करे, तो भी पाप नहीं है।
अदभुत है संदेश! इन नौ दिनों में इस ज्ञान-कर्म-संन्यास योग की बहुत-बहुत पहलुओं से मैंने बात आपसे की है, इस आशा में कि जल्दी, शीघ्र ही आए वह क्षण कि उठे ज्ञान की तलवार, टूट जाए संशय; खुले द्वार प्रभु का, उस उपलब्धि का, जिसे पाए बिना हमारे पास कुछ भी नहीं है; जिसे पाए बिना हाथ अर्थी पर खाली लटके होंगे। रिक्त, व्यर्थ, खोकर प्रभु के सामने खड़े होंगे, तो मुंह दिखाने का
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