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संशयात्मा विनश्यति
की। स्वभावतः, भक्त थे, भाव से भरे थे। प्रतिमा बाहर की फिर गैर-जरूरी हो गई। आंख बंद करते, प्रतिमा खड़ी हो जाती । पर रामकृष्ण का मन आकार से न भरा। जब तक निराकार न मिले, तब तक मन भरता भी नहीं है। फिर आकार वह देवता का ही क्यों | न हो, आकार ही है। सीमा फिर वह देवी की ही क्यों न हो, सीमा ही है । निराकार के पहले तृप्ति नहीं है। फिर भटकाव शुरू हो गया।
एक साधु रुका था आश्रम में, दक्षिणेश्वर के मंदिर में, तोतापुरी । रामकृष्ण ने कहा, मुझे निराकार समाधि चाहिए। तोतापुरी ने कहा, तू ज्ञान की तलवार उठा और भीतर जब काली की प्रतिमा आए, तो दो टुकड़े कर दे।
रामकृष्ण ने कहा, क्या कहते काली की प्रतिमा और दो टुकड़े, और मैं? ऐसे अपशकुन के शब्द न बोलो। तोतापुरी ने कहा, जब तक वह प्रतिमा न गिरे आकार की, तब तक निराकार का प्रवेश नहीं है। तो रामकृष्ण बहुत रोए । काली से जाकर बहुत माफी मांगी कि यह आदमी कैसी बातें कहता है!
लेकिन फिर बात तो ठीक थी। फिर राजी हुए। पर बैठें; आंख बंद करें; आंसू बहने लगें; आनंदमग्न हो जाएं। आंखें खोलें; तोतापुरी कहें कि काटा? तो वे कहें, भूल ही गए! फिर कहने लगे, तलवार ! तलवार कहां से लाऊं ? वहां भीतर तलवार कहां ? तोतापुरी ने कहा, ज्ञानरूपी तलवार । फिर वे कहने लगे कि बहुत खोजता हूं, कोई तलवार तो मिलती नहीं। तलवार कहां से लाऊं ?
तो तोतापुरी ने कहा, यह मूर्ति कहां से ले आए हो? मूर्ति लाते वक्त अड़चन न हुई ? भीतर मूर्ति ले गए पत्थर की और तलवार लाते वक्त अड़चन होती है? बैठो ! एक कांच का टुकड़ा ले आया तोतापुरी और उसने कहा कि आंख तुम बंद करो। और जब मैं देखूंगा तुम्हारी आंख में आनंद के आंसू आए, समझंगा कि आ गई मूर्ति, तभी मैं तुम्हारे माथे को कांच से काट दूंगा। जब मैं काटूं, तब तुम हिम्मत से उठाकर तलवार मार देना मूर्ति में। जैसे मूर्ति ले आए हो, ऐसे तलवार भी ले आओ।
रोते रहे। तोतापुरी ने काट दिया माथा । हिम्मत की, तलवार उठाई, मूर्ति को मारा । मूर्ति दो टुकड़े होकर गिर गई भीतर। रामकृष्ण गहरी समाधि में खो गए। तीन दिन तक उठ न सके। लौटकर कहा, दि लास्ट बैरियर – आखिरी बाधा गिर गई। और मैं भी कैसा पागल कि कहता था, तलवार कहां से लाऊं ? मारने की हिम्मत नहीं थी, इसलिए कहता था कि कहां से लाऊं ? मालूम तो था कि जब मूर्ति भीतर ला सकते हैं, तो तलवार क्यों नहीं ला सकते ?
कृष्ण भी जो कह रहे हैं अर्जुन से कि तू उठाकर तलवार काट डाल संशय को, अगर अर्जुन कहे कि अच्छा मैं राजी काटने को, तो कट जाएगा संशय । सिर्फ इतना कहे कि मैं राजी । वह संशय वही तो नहीं कहने देता कि मैं राजी। वह फिर नए सवाल उठाएगा। गीता अभी आगे और भी चलेगी। वह नए सवाल उठाएगा।
आदमी का मन उत्तर से बचता है, सवालों को गढ़ता है। आदमी का मन, फिर से कहता हूं, उत्तर से बचता है, सवालों को गढ़ता | है। आमतौर से जो लोग सवाल पूछते हैं, वे इसलिए नहीं कि उत्तर मिल बल्कि इसलिए कि कहीं उत्तर न मिल जाए; इसलिए सवाल पूछे चले जाओ!
जाए,
अर्जुन पूछता चला जाएगा सवाल पर सवाल। उत्तर कृष्ण हजार | बार दे चुके हैं इसके पहले भी, हजार बार देंगे इसके बाद भी; लेकिन अर्जुन सवाल उठाए चला जाता है। इसके पहले कि कृष्ण | का उत्तर हो, वह नए सवाल खड़े कर देता है। सवाल पुराने ही हैं; | नया कोई सवाल नहीं है। सवाल वही है; शब्द बदल जाते हैं; आकार बदल जाता है। कृष्ण के उत्तर भी नए नहीं हैं। उत्तर एक ही है। अगर अर्जुन कहता, मैं डाल-डाल, कृष्ण कहते, मैं | पात-पात । ठीक, तुम उधर सवाल खड़ा करते हो, हम इधर जवाब देते हैं!
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लेकिन अथक है कृष्ण का परिश्रम ! इतना परिश्रम बहुत कम गुरुओं ने लिया है। अथक है परिश्रम ! उत्तर मिल जाए अर्जुन को, इसकी चेष्टा सतत कृष्ण करते चले जाते हैं।
जो व्यक्ति भी ज्ञान की तलवार उठा ले - समत्व बुद्धि की— संशय को काट डाले, लास्ट बैरियर, संशय के साथ ही आखिरी बाधा गिर जाती है और वे द्वार खुल जाते हैं जो कि परमात्मा के हैं, आनंद के, मुक्ति के, परम शांति के, परम निर्वाण के हैं।
प्रश्नः भगवान श्री, सवाल मेरे पास बिलकुल नहीं हैं, लेकिन फिर भी एक बड़ा सवाल है। इस अध्याय के आखिर में लिखा गया है, ओम तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे ज्ञानकर्मसंन्यासयोगो नाम चतुर्थोऽध्यायः । ज्ञान-कर्म-संन्यास योग इस अध्याय का नाम दिया गया है; अतः ज्ञान-कर्म-संन्यास योग पर कुछ कहें।