________________
मन का ढांचा - जन्मों-जन्मों का
हम सोच भी नहीं सकते कि बुद्ध या महावीर या जीसस चक्र लेकर खड़े हो जाएंगे। सोच भी नहीं सकते। लेकिन कृष्ण सोचे जा सकते हैं। इनकंसिवेबल हैं, सोचना कठिन पड़ता है, लेकिन वे कर सकते हैं।
यह जो व्यक्ति है, इसके पास अपना कोई निजी व्यक्तित्व नहीं है। इसलिए इस मुल्क के समझदार लोगों ने इसे पूर्ण अवतार कहा। पूर्ण अवतार इसीलिए कि जिसके पास अपनी कोई धारणा नहीं, जिसके पास अपना कोई वाहन नहीं, जिसके पास अपना कुछ' भी नहीं है; पूरा परमात्मा जैसा प्रकट होना चाहे, हो सकता है। जो जरा | भी बाधा नहीं देगा।
अगर राम से परमात्मा कहे कि जरा नाचो, तो राम कहेंगे, ठहरिए ! यह हमसे न हो सकेगा। नाचना ! तो राम परमात्मा से कहेंगे, सम्हालिए। इतना आगे हम न जा सकेंगे। यह हमसे न होगा। राम परमात्मा में भी चुनाव कर लेंगे। वे कहेंगे, इतना हम प्रकट कर सकते हैं, इसके आगे हमसे प्रकट न होगा। हमारी सीमा है। लेकिन कृष्ण से कुछ भी कहे, वे राजी हो जाएंगे। राजी क्या, वे देर ही नहीं लगाएंगे। वे नाचने लगेंगे !
यह जो कृष्ण की स्थिति है, यह एक व्यक्तित्व - मुक्त, ट्रांस- पर्सनैलिटी, यह व्यक्तित्व - अतीत उनकी स्थिति है । और इसीलिए उनको हम पूर्ण कह पाए ।
ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः । लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा ।। १० ।। जो पुरुष सब कर्मों को परमात्मा में अर्पण करके और आसक्ति को त्यागकर कर्म करता है, वह पुरुष जल से कमल के पत्ते की सदृश पाप से लिपायमान नहीं होता ।
प
रमात्मा को समर्पण करके समस्त कर्मों को जीता है जो पुरुष, वह कमल के पत्तों की भांति जल में रहते हुए भी जल से, पाप से लिप्त नहीं होता है। दो-तीन छोटी-सी बातें खयाल में ले लेनी जरूरी हैं। पहली बात, परमात्मा को समर्पित कर देता है जो !
हम भी परमात्मा को समर्पित करना चाहते हैं। कभी-कभी करते हैं, लेकिन केवल अपनी असफलताएं! सफलताएं कभी भी नहीं ।
केवल पराजय, जीत कभी भी नहीं । केवल दुख, सुख कभी भी नहीं ।
339
कोई हार जाता है, तो कहता है, भाग्य। और कोई जीत जाता है, तो कहता है, मैं । कोई टूट जाता है, गिर जाता है, तो कहता है, अवसर, समय। सफल हो जाता है, तो कहता है, मैं। सफलताएं सब मैं को समर्पित कर देते हैं; असफलताएं सब परमात्मा को समर्पित कर देते हैं! दुख आते हैं, तो परमात्मा की तरफ हाथ उठाकर कहते हैं कि क्यों देता है दुख ! सुख आते हैं, तो अकड़कर निकलते हैं कि देखा, सुख निर्मित कर लिया !
इसलिए कृष्ण कहते हैं, सब समर्पित कर देता है जो। समर्पित तो हम भी करते हैं, सब नहीं, चुन-चुनकर समर्पित करते हैं। सब ! कह देता है, हार तेरी, जीत तेरी । कह देता है, तू ही है, मैं नहीं। कह देता है, फल तेरे। न फल आएं, तो निष्फलता तेरी । मेरा कुछ भी नहीं । स्वभावतः, जो इतनी सामर्थ्य दिखा पाएगा...।
और ध्यान रहे, समर्पण से बड़ी सामर्थ्य नहीं है। समर्पण से बड़ा संकल्प भी नहीं है। समर्पण कमजोरों की दुनिया की बात नहीं है, समर्पण इस जगत में बड़ी से बड़ी शक्ति की घटना है।
जो कह देता है, सब तेरा, स्वभावतः उसी क्षण बाहर हो जाता है । स्वभावतः, उसी क्षण सारी झंझट के बाहर हो जाता है । फिर छुएगा कैसे! फिर पाप छुएंगे कैसे? जब कर्म ही नहीं छूता, तो पाप कैसे छुएंगे ! पुण्य भी नहीं छुएंगे, ध्यान रखना। नहीं तो भूल होती है निरंतर गीता पढ़ने वालों को। वे सोचते हैं कि ऐसे आदमी को पाप नहीं छूते, पुण्य इकट्ठे करता चला जाता है! पुण्य भी नहीं छुएंगे। जिसे पाप नहीं छूते, उसे पुण्य छुएंगे? वह जो कमल का पत्ता होता है; क्या आप सोचते हैं, गंदा पानी उसको नहीं छूता, स्वच्छ पानी छू लेता है? क्या पानी में इत्र डाल देंगे, तो छू लेगा?
नहीं, जब कर्म ही नहीं छूते, तो न पाप छूता है, न पुण्य छूते हैं। कुछ भी नहीं छूता । वैसा आदमी अस्पर्शित, अनटच्ड जीवन से गुजर जाता है। बस, ठीक कमल के पत्ते की तरह। जल में ही होता है। पूरे समय जल की धार भी उस पर पड़ती है। कभी जल की लहरें छलांग मारकर उसकी छाती पर पड़ जाती हैं। बूंदें चमकने लगती हैं उसकी छाती पर मोतियों की तरह। लेकिन अस्पर्शित; पत्ते को छू नहीं पातीं। पड़ी रहती हैं ऊपर, तो पड़ी रहें। परमात्मा को समर्पित। सागर जाने, सागर की लहरें जानें। जब वापस लेना होगा | हवा के झोंकों को, फिर उतर जाएंगी बूंदें । लेकिन पत्ता अस्पर्शित रह जाता है।