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________________ गीता दर्शन भाग-28 जिस कृत्य में आनंद नहीं है, उस कृत्य के फल में कभी आनंद | सकाम होना तो छोड़ना नहीं चाहते, और निष्काम का लोभ भी मन नहीं हो सकता। लेकिन सकाम आदमी का मन फल में अटका है। | | को पकड़ता है। हमारी तकलीफ जो है, वह यह है, हम टटोलने का वह कह रहा है, किसी तरह काम तो कर डालो। यह तो एक मजबूरी | | मजा भी नहीं छोड़ना चाहते और आंख भी पाना चाहते हैं। हम है। इसे करके निपटा दें। आनंद तो फल में है। फल मिल जाएगा | चाहते हैं, जो सकाम जगत चल रहा है, वह भी चलता रहे, और और आनंद मिल जाएगा। यह जो निष्काम आनंद की बात चल रही है, यह भी चूक न जाए। कृष्ण जिस आदमी की बात कर रहे हैं, वह यह कह रहे हैं, कर्म | | हम चाहते हैं, फल का भी चिंतन करते रहें, और कर्म में भी आनंद में ही आनंद है। कर्म किया, यही आनंद है। और जिसे कर्म में अभी ले लें। ये दोनों बात साथ संभव नहीं हैं। यह गली बहुत संकरी है, आनंद मिल रहा है, उसे सदा आनंद मिल जाएगा। जो अभी ही इसमें दो नहीं समाएंगे। आनंद ले लिया, वह सदा आनंद लेने का राज पहचान गया। इसलिए जब तक लोभ मन को है-राग का, द्वेष का, पाने का, सकाम आदमी फल में आनंद देखता है, कर्म को करता है | खोने का, हारने का, जीतने का तब तक निष्काम न हो सकेंगे मजबूरी में। निष्काम आदमी कर्म में ही आनंद देखता है, कर्म को | | आप। और जिस क्षण यह बोध आ जाएगा कि दोनों बेकार हैं, उसी करता है आनंद से। कोई भी कर्म हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। क्षण निष्काम हो जाएंगे। और निष्काम हो जाने के बाद सकाम बचेगा युद्ध क्यों न हो। आखिर कृष्ण अर्जुन को कह ही रहे हैं कि तू युद्ध नहीं, जिससे संतुलन बिठालना पड़े, जिससे तालमेल करना पड़े। में जूझ जा। लेकिन किसी तरह की कामना लेकर नहीं। किसी तरह । यह बहुत मजे की बात है। अज्ञानी को निरंतर यह कठिनाई होती की कामना लेकर नहीं, कोई राग-द्वेष लेकर नहीं। तेरा स्वधर्म है। है कि कैसे मैं तालमेल बिठाऊ! उसका तालमेल बिठाना हमेशा तू क्षत्रिय होकर ही आनंद को उपलब्ध हो सकता है। वही तेरा खतरनाक है। एक आदमी कहता है, ठीक है। आप कहते हैं, प्रशिक्षण है। तेरी जीवन ऊर्जा क्षत्रिय की तरह ही प्रकट हो सकती | | निरअहंकार बड़ी अच्छी चीज है। लेकिन अहंकार से कैसे तालमेल है, अभिव्यक्त हो सकती है। तू किसी तरह के लक्ष्य की फिक्र मत | | बिठाऊं? अब अहंकार से निरअहंकार के तालमेल का कोई कर। तू क्षत्रिय होने में लीन हो जा। फल की चिंता छोड़ दे। तू कर्म | मतलब होता है? आप कहते हैं, अमृत बड़ी अच्छी चीज है, लेकिन को पूरा कर ले। यही तेरी निष्पत्ति है। | जहर और अमृत को मिलाऊं कैसे? कहीं जहर और अमृत मिले' यह जो युद्ध के मैदान तक पर कृष्ण कह सकते हैं, तो दुकान तो | | हैं! मिलने का कोई उपाय नहीं है। जिस आदमी के हाथ में जहर है, युद्ध से बड़ा मैदान नहीं है। न दफ्तर बड़ा है; न उद्योग बड़ा है। उसके आदमी के हाथ में अमृत नहीं होता। और जिस आदमी के दृष्टि का फर्क है। आप कहां हैं और क्या काम कर रहे हैं, यह | | हाथ में अमृत आता है, उसके हाथ में जहर नहीं होता। दो में से एक सवाल नहीं है। आप क्या हैं और किस आंतरिक दृष्टि से काम कर ही सदा हाथ में होते हैं। दोनों हाथ में नहीं होते। रहे हैं, यही सवाल है। इसलिए लोग अक्सर पछते हैं कि धर्म का और संसार का कभी भी संतुलन नहीं बनाना पड़ेगा दोनों में, क्योंकि दोनों में से | तालमेल कैसे करें? परमात्मा को और संसार को कैसे मिलाएं? ये एक ही रहता है हाथ में, दोनों कभी नहीं रहते। या तो सकाम कर्म | | मोक्ष को, परलोक को और इस लोक को कैसे मिलाएं? उनके रहता है हाथ में, तब निष्काम से कोई तालमेल नहीं बिठाना है। और | सवाल बुनियादी रूप से गलत हैं, एब्सर्ड हैं, असंगत हैं। परमात्मा जब निष्काम आता है, तो सकाम चला जाता है। उससे तालमेल | उतर आए, तो संसार खो जाता है; संसार होता ही नहीं। उसका नहीं बिठाना पड़ता है। ठीक ऐसे ही जैसे एक कमरे में मैं रोशनी | | मतलब, संसार परमात्मा ही हो जाता है। कुछ बचता नहीं परमात्मा लेकर चला जाऊं। फिर अंधेरे और रोशनी के बीच कोई तालमेल के सिवाय। और जब तक संसार होता है, तब तक संसार ही होता नहीं बिठाना पड़ता। या तो अंधेरा रहता है या रोशनी रहती है। या । है, परमात्मा नहीं होता। ये दोनों बातें एक साथ नहीं हो सकतीं। तो ज्ञान रहता है या अज्ञान रहता है। या तो कामना रहती है, वासना | जिसने परमात्मा को जाना, उसके लिए संसार नहीं है। जो संसार रहती है, या प्रज्ञा रहती है। दोनों साथ नहीं रहते हैं। इसलिए दोनों | को जान रहा है, उसके लिए परमात्मा नहीं है। और ऐसा कभी भी को मिलाने की कभी भी जरूरत नहीं पड़ती। | नहीं हुआ, इंपासिबल है, असंभव है कि एक आदमी परमात्मा और लेकिन हमारे मन में यह सवाल उठेगा। क्यों? क्योंकि हम | संसार दोनों को जान रहा हो। यह ऐसे ही असंभव है, जैसे रास्ते 292
SR No.002405
Book TitleGita Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages464
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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