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गीता दर्शन भाग-2 8
तो फिर कोई उपाय नहीं है। मृतप्राय का अर्थ है कि मरने के करीब __ हिंदू, हिंदू शास्त्रों में खो जाता है। मुसलमान, मुसलमान के है; मर ही नहीं गया। लुप्तप्राय का अर्थ है, लुप्त होने के करीब है, |
| शास्त्रों में खो जाता है। जैन, जैन के शास्त्रों में खो जाता है। और लुप्त हो ही नहीं गया।
कोई यह नहीं पूछता कि जब महावीर को ज्ञान हुआ, तो उनके पास सत्य सदा ही लुप्तप्राय होता है। क्योंकि एक दफे लुप्त हो जाए, कितने शास्त्र थे! शास्त्र थे ही नहीं। महावीर के हाथ बिलकुल तो फिर मनुष्य की सीमित क्षमता के बाहर है यह बात कि वह सत्य | | खाली थे। कोई नहीं पूछता कि जब मोहम्मद को इलहाम हुआ, तो को खोज सके। एक किरण तो बनी ही रहती है सदा। चाहे पूरा | कौन-सी किताबें उनके पास थीं! किताबें थीं ही नहीं। कोई नहीं सूरज न दिखाई पड़े, लेकिन एक किरण तो सदा ही किसी कोने से पूछता कि जीसस ने जब जाना, तो किस विश्वविद्यालय में शिक्षा हमारे अंधकारपर्ण मन में कहीं झांकती रहती है। जैसे कि मकान के लेकर वे जानने गए थे। अंधेरे में द्वार-दरवाजे बंद करके हम बैठे हैं, और खपड़ों के छेद | ___ जानने की घटना सदा ही निपट मौन और शून्य में घटी है। और से, कहीं एक छोटी-सी रंध्र से, छोटी-सी किरण भीतर आती हो। | हम सब जानने के लिए शब्द के मार्ग से यात्रा करते हैं। बड़ी इतना सूर्य से हमारा संबंध बना ही रहता है। वही संभावना है कि | उलटी यात्रा है। एक ही लाभ हो सकता है, और वह यह कि हम सूर्य को पुनः खोज पाएं, उसी किरण के मार्ग से। खोजते-खोजते इतने थक जाएं, इतने ऊब जाएं, कि शास्त्र को बंद
सत्य लुप्तप्राय ही होता है, लुप्त कभी नहीं होता। लुप्तप्राय का कर दें। इतना ही लाभ हो सकता है। शब्द से इतने परेशान हो जाएं अर्थ है कि हर युग में, हर क्षण में, हर व्यक्ति के जीवन में वह | कि शब्द से हाथ जोड़ लें। पढ़ते-पढ़ते इतना समझ में आ जाए कि किनारा और वह किरण मौजूद रहती है, जहां से सूर्य को खोजा जा पढ़ने से कुछ न होगा, इतना ही लाभ हो सकता है। . सकता है। यही आशा है। अगर इतना भी विलीन हो जाए, तो फिर सत्य के लुप्तप्राय होने की प्रक्रिया को थोड़ा समझ लेना जरूरी खोजने का कोई उपाय आदमी के हाथ में नहीं है।
| है। वह उपयोगी है सदा। सत्य के लुप्त होने की एक व्यवस्था है। दूसरी बात, लुप्तप्राय सत्य क्यों हो जाता है? जैसे कोई नदी वह व्यवस्था कैसी है? वह व्यवस्था ऐसी है कि महावीर ने जाना। रेगिस्तान में खो जाए; लुप्त नहीं हो जाती, लुप्तप्राय हो जाती है। | स्वभावतः, जिसने जाना, वह उससे कहेगा, जिसने नहीं जाना है। रेत को खोदें, तो नदी के जल को खोजा जा सकता है। ठीक ऐसे क्योंकि दूसरा अगर जानता ही हो, तो कहना फिजूल है। ही, जाने गए सत्य की परंपरा, सुने गए सत्य की परंपरा की रेत में इसलिए एक बार ऐसा भी हुआ कि महावीर और बुद्ध एक ही खो जाती है। जाने गए सत्य की परंपरा, द्रष्टा के सत्य की परंपरा, गांव में ठहरे, लेकिन मिले नहीं। एक ही गांव में भी कहना ठीक शास्त्रों की, शब्दों की परंपरा की रेत में खो जाती है। धीरे-धीरे | | नहीं, एक ही धर्मशाला के दो हिस्सों में ठहरे; एक कोने पर बुद्ध शास्त्र इकट्ठे होते चले जाते हैं, ढेर लग जाता है। और वह जो | | ठहरे, एक पर महावीर ठहरे, एक ही धर्मशाला में। मिलना नहीं किरण थी ज्ञान की, वह दब जाती है। फिर धीरे-धीरे हम शास्त्रों को हुआ! लोग सोचते हैं, बड़े अहंकारी रहे होंगे। मिलना तो था! ही कंठस्थ करते चले जाते हैं। फिर धीरे-धीरे हम सोचने लगते हैं, नहीं; अहंकार का कारण नहीं है। मिलना बिलकुल बेमानी, इन शास्त्रों को कंठस्थ कर लेने से ही सत्य मिल जाएगा। और सत्य | मीनिंगलेस था। कोई अर्थ ही न था मिलने का। मिलना ठीक ऐसे की सीधी खोज बंद हो जाती है। फिर हम उधार सत्यों में जीने लगते | ही था, जैसे दो आईनों को कोई एक-दूसरे के सामने रख दे। हैं। फिर राख ही हमारे हाथ में रह जाती है।
| बिलकुल बेकार है। आईने के सामने आप खड़े हों, तो सार्थक, लेकिन शास्त्रों के रेगिस्तान में भी सत्य सिर्फ लुप्तप्राय होता है, कुछ दिखाई पड़ता है। आईने के सामने आईना ही रख दें, तो लुप्त नहीं हो जाता। अगर कोई शास्त्रों के शब्दों को भी खोदकर बिलकुल बेकार है। आईना आईने को रिफ्लेक्ट करता रहता, कुछ खोज सके, तो वहां भी सत्य खोजा जा सकता है। लेकिन पहचान | नहीं अर्थ होता। आईने आपस में बातचीत नहीं करते। आईने सिर्फ बड़ी मुश्किल है। पहचान इसलिए मुश्किल है कि जिस सत्य से | चेहरों से बातचीत करते हैं। हम अपरिचित हैं, उसे हम शास्त्रों के शब्दों के रेगिस्तान में खोज बुद्ध और महावीर को अगर पास बिठा दें, तो जैसे दो शून्य पास न पाएंगे। संभावना यही है कि सत्य तो न मिलेगा, हम भी भटक | | बिठा दिए; उनका कोई अर्थ नहीं होता। शून्य को किसी अंक के जाएंगे। ऐसा ही हुआ है।
पास बिठाएं, तो अर्थ होता है। एक के पीछे शून्य रख दें, तो दस