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________________ सत्य एक-जानने वाले अनेक अन्यथा पहचानना मुश्किल है। आप मुझे जानते हैं, तो पहचान | हैं, पेअर्स में जीते हैं। भ्रम भी अकेले नहीं होते। जिस आदमी को सकते हैं कि मैं कौन हूं। और आप मुझे नहीं जानते हैं, तो आप भी यह खयाल पैदा हो जाएगा कि सत्य को जानने वाला मैं पहला पहचान नहीं सकते। इसलिए सत्य शास्त्रों में सिर्फ रिकग्नाइज होता | आदमी हूं, मुझसे पहले किसी ने भी नहीं जाना, उस आदमी को है, कग्नाइज नहीं होता। जाना नहीं जाता, पुनः जाना जाता है। जानने दूसरा भ्रम भी अनिवार्य पैदा होगा कि मैं आखिरी आदमी हूं। मेरे का मार्ग तो कुछ और है। बाद अब सत्य को कोई नहीं जान सकेगा। क्योंकि जो कारण पहले इसलिए कृष्ण जिस परंपरा की बात कर रहे हैं, वह परंपरा | भ्रम का है, वही कारण दूसरे भ्रम में भी कारण बन जाएगा। पहले शास्त्र की परंपरा नहीं है; वह परंपरा जानने वालों की परंपरा है। | भ्रम का कारण अहंकार है। और ध्यान रहे, जिसका अभी अहंकार जैसे परमात्मा ने सूर्य को कहा। लेकिन इसमें स्मरणीय है यह बात नहीं मिटा, उसको सत्य से कोई सीधा संबंध नहीं हो सकता। कि परमात्मा ने सूर्य को कहा। बीच में किताब नहीं है, बीच में अहंकार बीच में बाधा है। शास्त्र नहीं है। डाइरेक्ट कम्युनिकेशन है। सत्य सदा ही डाइरेक्ट | - इसलिए कृष्ण बहुत जोर देकर कहते हैं कि परंपरा से ऋषियों ने कम्युनिकेशन है। सत्य सदा ही परमात्मा से व्यक्ति में सीधा संवाद जाना। लेकिन ध्यान रखना आप, परंपरा इस तरह की नहीं कि एक है। शास्त्र, शब्द बीच में नहीं है। | ने दूसरे से जान लिया हो। परंपरा इस तरह की कि जब भी एक ने मोहम्मद पहाड़ पर हैं। बेपढ़े-लिखे, मोहम्मद जैसे बेपढ़े-लिखे जाना, उसने यह भी जाना कि मैं जानने वाला पहला आदमी नहीं लोग बहुत कम हुए हैं। लेकिन अचानक उदघाटन हुआ; डाइरेक्ट हूं; न ही मैं अंतिम आदमी हूं। अनंत ने पहले भी जाना है, अनंत कम्युनिकेशन हुआ। जिसे इस्लाम कहता है, इलहाम। ईसाइयत बाद में भी जानेंगे। मैं जानने वालों की इस अनंत श्रृंखला में एक कहती है, रिवीलेशन। सत्य दिखाई पड़ा। इसलिए हम ऋषियों को | छोटी-सी कड़ी, एक छोटी-सी बूंद से ज्यादा नहीं हूं। यह सूरज द्रष्टा कहते हैं। सत्य देखा गया। पढ़ा नहीं गया, सुना नहीं गया, मेरी बूंद में ही झलका, ऐसा नहीं; यह सूरज सब बूंदों में झलका है देखा गया। और सब बूंदों में झलकता रहेगा। जब कोई बूंद इतनी विनम्र हो पश्चिम में भी ऋषियों को सीअर्स ही कहते हैं। देखा गया; देखने जाती है, तो उसके सागर होने में कोई बाधा नहीं रह जाती। वाले। इसलिए हमने तो पूरे तत्व को दर्शन कहा। दिखाई जो पड़े इसलिए परंपरा का ठीक से अर्थ समझ लेना। अन्यथा हम सत्य, सीधा दिखाई पड़े; सीधा सुनाई पड़े, सीधा परमात्मा से मिले। परंपरा का जो अर्थ लेते हैं, वह एकदम गलत, एकदम झूठ और लेकिन परमात्मा से मिलने की भी परंपरा है। परमात्मा से खतरनाक है। पर्थ नहीं है कि मैं सत्य आपको दे आपको ही पहली दफा नहीं मिल रहा है। परमात्मा से अनेकों को दूंगा, तो आपको मिल जाएगा। और आप किसी और को दे देंगे, और भी पहले मिल चुका है। मिलने वालों की भी परंपरा है। दो तो उसको मिल जाएगा। परंपरा का इतना ही अर्थ है कि मैं पहला परंपराएं हैं, एक लिखने वालों की परंपरा है-लेखकों की। और आदमी नहीं, आखिरी नहीं; जानने वालों की अनंत श्रृंखला में एक एक जानने वालों की परंपरा है—ऋषियों की। छोटी-सी कड़ी हूं। यह सूर्य सदा ही चमकता रहा है; जिन्होंने भी इसलिए कृष्ण कह रहे हैं, परंपरा से ऋषियों ने जाना। यह आंख खोली, उन्होंने जाना है। ऐसी विनम्रता का भाव सत्य के परंपरा का बोध कि मुझसे पहले भी सत्य औरों को मिलता रहा है जानने वाले की अनिवार्य लक्षणा है। इसी भांति। दूसरी बात कृष्ण कहते हैं, लुप्तप्राय हो गया वह सत्य। आपने आंख खोली और सूरज को जाना। जहां तक आपका सत्य लुप्तप्राय कैसे हो जाता है ? दो बातें इसमें ध्यान देने जैसी संबंध है, आप पहली बार जान रहे हैं। लेकिन आपके पहले इस हैं। कृष्ण यह नहीं कहते कि लुप्त हो गया, लुप्तप्राय। करीब-करीब पृथ्वी पर जब भी आंख खोली गई है, सूरज जाना गया है। सूरज को लुप्त हो गया। कृष्ण यह नहीं कहते कि लुप्त हो गया। क्योंकि सत्य इस भांति जानने की भी एक परंपरा है। आप पहले आदमी नहीं हैं। | यदि बिलकुल लुप्त हो जाए, तो उसका पुनआविष्कार असंभव है। और ध्यान रहे, जिस आदमी को भी भ्रम पैदा हो जाता है कि उसको खोजने का फिर कोई रास्ता नहीं है। सत्य को मैं जानने वाला पहला आदमी हूं, उसको दूसरा भ्रम भी जैसे एक चिकित्सक किसी आदमी को कहे, मृतप्राय; तो अभी पैदा हो जाता है कि मैं अंतिम आदमी भी हूं। भ्रम भी जोड़े से जीते जीवित होने की संभावना है। लेकिन कहे, मर गया, मृत हो गया, परा का। 7
SR No.002405
Book TitleGita Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages464
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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