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ॐ गीता दर्शन भाग-2 0
भटक गए मार्ग। दिनभर के भूखे-प्यासे एक वृक्ष के नीचे पहुंचे। कृष्ण कहते हैं कि जो मिल जाए, उसमें जो संतुष्ट है—जो मिल लेकिन एक ही फल वृक्ष में लगा था। बादशाह ने अपने घोड़े पर | जाए, जो प्राप्त हो जाए, उसमें जो राजी है; आभार से भरा, से हाथ बढ़ाकर फल तोड़ा। लेकिन जैसी उसकी आदत थी, पहले | | अनुगृहीत—और द्वंद्व के पार...। दूसरी बात वे कहते हैं, द्वंद्व के फकीर को खिलाता था कुछ भी-प्रेम से। फल की उसने फांकें पार, द्वंद्वातीत, बियांड दि डुअलिटी। दो के बाहर। काटी, छह टकड़े किए, एक फकीर को दिया।
| संतुष्ट हो जाना भी बहुत कठिन है, फिर भी उतना कठिन नहीं, फकीर ने खाया और उसने कहा कि बहुत स्वादिष्ट, अदभुत! | जितना द्वंद्व के बाहर हो जाना है। द्वंद्व क्या है? ऐसा फल कभी खाया नहीं। एक फांक और दे दें। दूसरी फांक भी | सारा जीवन ही द्वंद्व है हमारा। हम दो में ही जीते हैं। प्रेम करते फकीर खा गया। कहा, बहुत अदभुत! सम्राट से कहा, एक फांक | हैं किसी को; लेकिन जिसे प्रेम करते हैं, उसे ही घृणा भी करते हैं।
और दे दें। सम्राट को थोड़ी ज्यादती तो मालूम पड़ी। फल था एक, | कहेंगे, कैसी बात कहता हूं मैं! लेकिन सारी मनुष्य-जाति का भूखे थे दोनों। लेकिन तीसरी फांक भी दे दी। फकीर ने कहा, बहुत | अनुभव यह है। और अब तो मनसशास्त्री इस अनुभव को बहुत खूब, एक फांक और! सम्राट को जरा कठिन मालूम पड़ा, लेकिन | प्रगाढ़ रूप से स्वीकार कर लिए हैं कि जिसे हम प्रेम करते हैं, उसे फिर भी एक फांक और दे दी। फिर आखिर में तो एक ही फांक | ही घृणा करते हैं। बची। फकीर ने कहा, बस, एक और! सम्राट ने कहा, ज्यादती कर द्वंद्व है हमारा मन। जिसे हम चाहते हैं, उसे ही हम नहीं भी चाहते रहे हो। मैं भी भूखा हूं! फकीर ने हाथ से फांक छीन ली। सम्राट ने | हैं। जिससे हम आकर्षित होते हैं, उसी से हम विकर्षित भी होते हैं। कहा, रुक जाओ। फांक वापस लौटा दो। यह सीमा के बाहर हो | जिससे हम मित्रता बनाते हैं, उससे हम शत्रुता भी पालते हैं। ये गया। मेरा तुम पर प्रेम है, इसका क्या मतलब, तुम्हारा मुझ पर जरा | दोनों हम एक साथ करते हैं। थोड़ा किसी एकाध घटना में उतरकर भी प्रेम नहीं?
| देखेंगे, तो खयाल में आ जाएगा। सम्राट ने हाथ से फांक वापस छीन ली; मुंह में रखी। कड़वी | __ जिससे आप प्रेम करते हैं, उससे आप चौबीस घंटे प्रेम कर पाते जहर थी। थूक दी। कहा, पागल तो नहीं हो! तुम पांच फांकें खा | हैं? नहीं कर पाते। घंटेभर प्रेम करते हैं, तो घंटेभर घृणा करते हैं। क्यों गए? और शिकायत क्यों न की? उस फकीर ने कहा कि जिन सुबह प्रेम करते हैं, तो सांझ घृणा करते हैं। सांझ लड़ते हैं, तो सुबह हाथों से बहुत मीठे फल खाने को मिले, उनकी एक छोटे-से कड़वे | फिर दोस्ती कायम करते हैं। पूरे समय घृणा और प्रेम का धूप-छांव फल की शिकायत? और इसीलिए सब फांकें लेता गया कि कहीं की तरह खेल चलता है। पता न चल जाए, अन्यथा शिकायत पहुंच ही गई। जिन हाथों से | जिसको आदर करते हैं, उसके ही प्रति मन में अनादर भी पालते इतने मीठे फल खाने को मिले, उन हाथ से एक छोटी-सी कड़वी | हैं। मौके की तलाश में होते हैं, कब अनादर निकाल सकें। जिसको फांक की शिकायत!
फूलमाला पहनाते हैं, किसी दिन उस पर पत्थर फेंकने की इच्छा भी ऐसा व्यक्ति संतुष्ट हो सकता है। संतोष की भी अपनी केमिस्ट्री | मन में रहती है। वह इच्छा दबी हुई प्रतीक्षा करती है। फिर किसी दिन है, अपनी कीमिया है, अपना गणित है।।
बहाना खोजकर वह इच्छा बाहर आती है। पत्थर भी फेंक लेते हैं। जो है, उसे ठीक से देखें, तो संतोष के लिए बहत है। जो नहीं। हमारा मन प्रतिपल दोहरा है, डबल-बाइंड। इसलिए जो है, उसके प्रति आंखों को दौड़ाते रहें, तो जो है, वह कभी दिखाई | बुद्धिमान हैं, जैसे कि चाणक्य ने—जो कि चालाकों में, अधिकतम नहीं पड़ता; और जो नहीं है, उसके सपने मन को घेर लेते हैं और | बुद्धिमान आदमियों में एक है-चाणक्य ने कहा है, राजाओं को असंतोष को पैदा कर जाते हैं।
| सलाह दी है कि अपने मित्र को भी वह बात मत बताना, जो तुम शत्रु सत्य संतोष के लिए काफी है। असंतोष के लिए सपने चाहिए। को नहीं बताना चाहते हो। क्यों? क्योंकि चाणक्य ने कहा, भरोसा यथार्थ संतोष के लिए काफी है, असंतोष के लिए कल्पना चाहिए। कुछ भी नहीं है; जो आज मित्र है, वह कल शत्रु हो सकता है। सारे जगत में लोग कल्पना के कारण असंतुष्ट हैं, यथार्थ के कारण __पश्चिम में चाणक्य का समानांतर एक आदमी हुआ, मैक्यावेली। नहीं। यथार्थ पर्याप्त संतोष दे सकता है। लेकिन कल्पना? कल्पना | वह भी चालाकों में इतना ही बुद्धिमान है। उसने कहा है, ध्यान सीमा के बाहर पीड़ा देती है।
रखना, जिस बात को तुम गुप्त नहीं रख सकते, तुम्हारा मित्र भी नहीं
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