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________________ * मैं मिटा, तो ब्रह्म ॐ लाख की हानि हो गई। मैंने कहा, लेकिन आपकी पत्नी कहती है, धन्यवाद का जो भाव है, वह उसी व्यक्ति में हो सकता है, पांच लाख का लाभ हुआ है। उन्होंने कहा, वह कुछ भी नहीं; दस | | जिसकी अपेक्षा कोई भी नहीं। जब अपेक्षा कोई भी नहीं, तो जो भी लाख बिलकुल पक्के थे। मिल जाता है, जो भी, उसमें भी वरदान खोजा जा सकता है। और असंतोष का राज है। असंतोष की भी अपनी कीमिया है, केमिस्ट्री | जब अपेक्षा बहुत होती है, तो जो भी मिल जाता है, उसमें ही है! वह केमिस्ट्री यह है, जितना बड़ा असंतोष पाना हो, उतनी बड़ी अभिशाप का आविष्कार हो जाता है; उसी में अभिशाप खोज लिया अपेक्षा चाहिए। छोटी अपेक्षा से बड़ा असंतोष नहीं पाया जा सकता। जाता है। खोज हम पर निर्भर है। अगर असंतोष कमाना हो, तो बड़ी अपेक्षाओं के आकाश फैलाने जो प्राप्त हो जाए, उसमें संतुष्ट कौन होगा? जिसने और ज्यादा चाहिए। जितनी बड़ी अपेक्षा, उतना बड़ा असंतोष। | प्राप्त नहीं करना चाहा। सच, जिसने प्राप्त ही कुछ नहीं करना काश, इस आदमी की अपेक्षा, दस लाख की न होकर पांच लाख चाहा। उसे जो भी मिल जाए, वही काफी है, जरूरत से ज्यादा है। की होती, तो हानि बिलकुल न होती। अगर इस आदमी की अपेक्षा और एक बार किसी व्यक्ति को यह रहस्य पता चल जाए, तो दो लाख की होती, तो तीन लाख अतिरिक्त लाभ होता। अगर इस संतोष के आनंद की कोई सीमा नहीं है। असंतोष के दुख की कोई आदमी की कोई भी अपेक्षा न होती, तो पांच लाख का शुद्ध लाभ | सीमा नहीं है; संतोष के आनंद की कोई सीमा नहीं है। असंतोष के था, हानि का कोई प्रश्न न था। अगर इसकी अपेक्षा बिलकुल न नर्क का कोई अंत नहीं है; संतोष के स्वर्ग का भी कोई अंत नहीं है। होती, तो पांच नए पैसे के लिए भी यह परमात्मा को धन्यवाद दे | लेकिन संतुष्ट...। पाता। अपेक्षा दस लाख की थी; पांच लाख के लिए भी धन्यवाद | सुकरात सुबह बैठा है अपने घर के द्वार पर। कुछ बात चलती नहीं दे पा रहा है। पांच लाख जो नहीं मिले, उनके लिए क्रोधित है। है। कोई प्रश्न पूछ रहा है सुकरात से, वह जवाब दे रहा है। उसकी ' अपेक्षा जितनी बड़ी, उतना बड़ा असंतोष। अपेक्षा जितनी छोटी, | | पत्नी चाय बनाकर लाई है; पीछे खड़ी है। वह क्रोध से भर गई है। उतना कम असंतोष। अपेक्षा शून्य, असंतोष बिलकुल नहीं। ऐसा | सुकरात ने उस पर ध्यान नहीं दिया; वह अपनी बात में तल्लीन है। गणित है। स्वभावतः, शायद पत्नियों की सबसे बड़ी आकांक्षा, पति उन पर कृष्ण कहते हैं, जो पुरुष जो मिल जाए, उसमें संतुष्ट है...।। ध्यान दे, इससे ज्यादा दूसरी नहीं है। क्रोध से भर गई। इतने क्रोध कौन-सा पुरुष संतुष्ट होगा? वही पुरुष, जो अपेक्षारहित जीता से भर गई कि उसने केतली भरी हुई गर्म पानी की सुकरात के ऊपर है, जिसका कोई एक्सपेक्टेशन नहीं है। जो ऐसे जीता है, जैसे जीने डाल दी। उसका आधा चेहरा जल गया। के लिए कोई अपेक्षा की जरूरत नहीं है। फिर जो भी मिल जाता है,। | जो प्रश्न पूछ रहा था, वह घबड़ा गया। उसने सुकरात से कहा वही धन्यभाग। उसके लिए ही वह प्रभु को धन्यवाद दे पाता है। । | कि यह क्या हो गया? सुकरात ने कहा, कुछ भी नहीं हुआ। आधा ___ फकीर जुनैद एक रास्ते से गुजरता था। जोर का एक पत्थर रास्ते | | चेहरा बच गया है! प्रभु को धन्यवाद। पूरा चेहरा भी जल सकता पर पैर से टकराया। लहूलुहान हो गया पैर। जुनैद नीचे झुक गया। | था। सुकरात हंस रहा है, आधे जले चेहरे में। क्योंकि उसकी दृष्टि और हाथ जोड़कर परमात्मा की तरफ धन्यवाद देने लगा। साथ में | जले हुए चेहरे पर नहीं, उसकी दृष्टि बचे हुए चेहरे पर है। मित्र थे, उन्होंने कहा, जुनैद पागल तो नहीं हो गए! हमने कभी सुना __ पैर में जरा-सा काटा गड़ जाए हमें, तो ऐसा लगता है, सारी नहीं कि किसी के पैर में पत्थर लगे, लहू गिरे, और वह परमात्मा | | दुनिया व्यर्थ हुई। कोई परमात्मा नहीं है। सब बेकार है। अन्याय को धन्यवाद दे। जन्नैद ने कहा, फांसी भी लग सकती थी। जन्नैद ने चल रहा है सारे जगत में। मेरे पैर में, और कांटा? कहा, फांसी भी लग सकती थी। धन्यवाद देते हैं परमात्मा को कि | | शरीर के हजार-हजार सुखों के लिए कभी परमात्मा को धन्यवाद सिर्फ पैर में पत्थर लगा, और निपटे। फांसी भी लग सकती थी। । न दिया; एक छोटे से कांटे के लिए शिकायत भारी है! यह जुन्नैद, जिन मित्र की मैंने कहानी कही, उनसे ठीक उलटा __मैंने सुना है, एक फकीर बहुत दिनों तक एक बादशाह के साथ है। यह कहता है, फांसी भी लग सकती थी। लेकिन जुनैद को था। और बादशाह का बड़ा प्रेम उस फकीर पर हो गया। इतना प्रेम अगर फांसी भी लग जाए, तो भी वह धन्यवाद दे पाता; क्योंकि हो गया कि बादशाह सोता भी रात, तो फकीर को अपने कमरे में फांसी से बड़े दुख भी हैं। ही सुलाता। दोनों सदा साथ होते। एक दिन शिकार पर गए थे, |113]
SR No.002405
Book TitleGita Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages464
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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