SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 138
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गीता दर्शन भाग-2 यदृच्छालाभसंतुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः । समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते ।। २२ ।। और अपने आप जो कुछ आ प्राप्त हो, उसमें ही संतुष्ट रहने वाला और द्वंद्वों से अतीत हुआ तथा मत्सरता अर्थात ईर्ष्या से रहित, सिद्धि और असिद्धि में समत्व भाव वाला पुरुष कर्मों को करके भी नहीं बंधता है। 'प्राप्त हो उसमें संतुष्ट, द्वंद्वों के अतीत- इन दो बातों को ठीक से समझ लेना उपयोगी है। जो मिले, उसमें संतुष्ट ! जो मिले, उसमें संतुष्ट कौन हो सकता है? चित्त तो जो मिले, उसमें ही असंतुष्ट होता है। चित्त तो संतोष मानता है उसमें, जो नहीं मिला और मिल जाए। चित्त जीता है उसमें, जो नहीं मिला, उसके मिलने की आशा, आकांक्षा में। मिलते ही व्यर्थ हो जाता है । चित्त को जो मिलता है, वह व्यर्थ हो जाता है; जो नहीं मिलता है, वही सार्थक मालूम होता है। चित्त सदा ही, सदा ही असंतुष्ट है। चित्त का होना ही असंतोष है। अगर ऐसा कहें तो ज्यादा ठीक होगा कि चित्त और असंतोष एक ही चीज के दो नाम हैं। ऐसा नहीं कि चित्त असंतुष्ट होता है, बल्कि ऐसा कि चित्त ही असंतोष है। क्योंकि जिस क्षण संतुष्टि आती है, उसी क्षण चित्त भी चला जाता है। असंतोष के साथ ही मन भी चला जाता है। जिनके भीतर असंतोष न रहा, उनके भीतर मन भी न रहा। मन उसकी आकांक्षा में ही जीता है, जो नहीं मिला है। इसलिए मन के लिए जरूरी है कि जो मिला है, उससे असंतुष्ट हो; और जो नहीं मिला है, उसमें संतोष की कामना में जीए। जो नहीं मिला है, उसमें संतोष खोजे; और जो मिल जाए, उसमें असंतोष खोजे। यह हमारी चित्त-दशा है। ऐसा भी नहीं है कि जो आज हमें नहीं मिला है और लगता है कि कल मिल जाए, संतोष मिलेगा; तो कल मिल जाने पर संतोष मिल जाएगा। ऐसा भी नहीं है। कल मिलते ही अचानक हम पाएंगे कि हमारा असंतोष आ गया उस पर, जो मिला और हमारा संतोष हट गया उस पर, जो अभी नहीं मिला है। करीब-करीब जैसे आकाश का क्षितिज है, हॅराइजन है | दिखता है थोड़ी ही दूर, आकाश जमीन से मिलता हुआ । चलें खोजने । जितना बढ़ेंगे, उतना ही वह आकाश भी आगे बढ़ता जाता है। वह कहीं पृथ्वी को छूता नहीं; सिर्फ छूता हुआ मालूम पड़ता है, प्रतीत | होता है। एपियरेंस भर है स्पर्श का, पृथ्वी और आकाश का । कहीं छूता नहीं है। बढ़ते जाएं; पूरी पृथ्वी का पूरा चक्कर लगा लें, वह कहीं छूता हुआ मिलेगा नहीं। और फिर भी कहीं भी ऐसा न होगा कि आगे छूता हुआ न दिखाई पड़े। हमेशा आगे छूता हुआ दिखाई पड़ेगा। जब पहुंचेंगे उस जगह, तब तक वह आगे हट चुका होगा। संतोष भी हमारे लिए क्षितिज रेखा की भांति है, सदा आगे दिखाई पड़ता है - थोड़े और आगे चलें, वहां संतोष है! जहां हैं, वहां असंतोष है। जहां हैं, वहां आकाश छूता नहीं, दूर कहीं छूता है संतोष, आकाश, क्षितिज ! बढ़ें; पहुंचें वहां ; पाते हैं पहुंचकर कि आकाश आगे हट गया। 112 आपकी वजह से आकाश आगे नहीं हटता है। आपसे आकाश | इतना नहीं डरता है । छूता होता, तो छूता ही रहता। नहीं, आप बढ़ गए, इसलिए आकाश भाग नहीं गया। आकाश कहीं भी छूता ही नहीं है; सिर्फ भ्रम होता है छूने का। आपके बढ़ने से आकाश हटता नहीं है। आकाश कभी छूता ही नहीं था; सिर्फ आपको भ्रम हुआ था छूने का। ऐसे ही चित्त सदा ही भविष्य में संतोष के भ्रम में जीता है। कृष्ण उलटी बात कह रहे हैं। वे कहते हैं, जो पुरुष जो मिल जाए, उसमें संतुष्ट हो, तो फिर उसे कर्मबंध नहीं बांधते। इन दोनों की प्रक्रियाओं को समझ लेना चाहिए। जैसी हमारी स्थिति है, उसमें जो मिलता है, वही असंतोष लाता है। रहस्य क्या है ? कारण क्या है ? मैं एक घर में मेहमान था । बहुत चिंतित थे गृहपति ! रात नींद खो थी। मैंने उनकी पत्नी को पूछा, बात क्या है? उनकी पत्नी ने कहा, आप न ही पूछें। पूछेंगे तो आप हंसेंगे, मजाक उड़ाएंगे। मैंने कहा, फिर भी उसने कहा, ऐसा है कि इस साल मेरे पति को पांच लाख का लाभ हो गया है; इससे बड़े चिंतित हैं। मैंने कहा, इसमें | चिंतित होने की क्या बात है? तो उसने कहा, आप उनसे पूछना; वे आपको बताएंगे कि पांच लाख की हानि हो गई। मैंने कहा, तुम | पहेलियां बूझती हो? तुम कहती हो, पांच लाख का लाभ हुआ। उनसे पूछूंगा, तो वे बताएंगे, पांच लाख की हानि हुई ! उसने कहा, ऐसा ही हुआ है। लाभ पांच लाख का हुआ है। लेकिन उनको पहले खयाल था, दस लाख का होगा। इसलिए पांच लाख की हानि हो गई ! वे बहुत परेशान हैं। सच ही रात मैंने उनसे पूछा, कुछ तकलीफ है ? चिंतित दिखाई पड़ते हैं! उन्होंने कहा, तकलीफ कुछ नहीं, बहुत है। इस साल पांच
SR No.002405
Book TitleGita Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages464
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy